प्राचीन सभ्यता जानने के साधन(Means of knowing ancient civilization)

इतिहास विषय महत्व का विषय तो रहा, लेकिन इतिहास लेखन का कोई स्कूल या सिद्धान्त नहीं रहा। इतिहास धर्मशास्त्रों, अर्थशास्त्रों, लौकिक साहित्य में स्वयं ही संग्र्रहीत होता रहा। लेकिन वह क्रमबद्ध नहीं था और इसमें प्रायः तिथियों का अभाव मिलता है। एल्फिन्स्टन ने स्पष्ट शब्दों में कहा है- ‘‘सिकन्दर के आक्रमण से पूर्व किसी भी महत्वपूर्ण तिथि को निर्धारित करना कठिन है।’’ प्राचीन सभ्यता जानने के साधन के किसी भी विषय का अध्ययन निश्चित सिद्धान्तों एवं फार्मूलों के आधार पर किया जाता है, जिसमें उक्त दो गुणों का अभाव होता है, अथवा स्पष्ट नहीं होते ऐसे विषय थोड़े समय तक जीवित रहते हैं। इसके उपरान्त उनका पतन हो जाता है। उदाहरणार्थ प्राचीन सभ्यता में मानव चिकित्सा शास्त्र तथा विज्ञान आदि विषयों के सम्बन्ध में जानते थे, उनकी शिक्षा प्राप्त करते थे तथा जीवन में उसका प्रयोग करते थे, परन्तु फिर भी उनका चिकित्साशास्त्र तथा विज्ञान इतना पूर्ण विकसित न था, जितना आजकल का है। इस प्रकार की भावना का केवल एक ही कारण था, निश्चित सिद्धान्तों एवं फार्मूनों का अभाव। रोमवासियों ने पुलों का निर्माण किया, मिस्र के शासकों ने पिरामिडों का निर्माण किया, परन्तु उनके कौशल का आधार क्या था यह अभी तक नहीं ज्ञात हो पाया। निश्चय ही रोमन समाज से सम्बन्धित विभिन्न अवशेष लिखित एवं अलिखित सामग्री आधुनिक विद्वानों को प्राप्त हुई जिसका अध्ययन करने के पश्चात् इस सभ्यताओं का स्पष्ट विवरण हमारे सम्मुख उभरता है, परन्तु इन अवशेषों से उक्त वर्णित कलाओं के सम्बन्ध में अभी तक किसी प्रकार का कोई भी सूत्र नहीं मिला है। इससे यही अनुमान लगाया जा सकता है कि मूर्तियों अथवा पिरामिडों का निर्माण यद्यपि निश्चित सिद्धान्तों एवं फार्मूलों पर किया गया था, परन्तु वे अलिखित थे, उनका ज्ञान कुछ लोगों तक ही सीमित था, तथा उनके बाद ही यह ज्ञान समाप्त हो गया, अन्यथा निश्चित रूप से आधुनिक मानव को उन सिद्धान्तों का ज्ञान होता, उनका वह अपने व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करता। आधुनिक सभ्यता इसी कारण पूर्ण मानी जाती है, क्योंकि इस सभ्यता में प्रत्येक कार्य निश्चित सिद्धान्तों एवं आदर्शों पर किया जाता है ताकि वे न केवल उनको ही लाभान्वित कर सके बल्कि भावी मानव को भी प्रभावित कर सकें, एवं विकास का आधार बन सकें, तथा आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन करके संशोधन कर सकें। उदाहरणस्वरूप अमेरिका का लिखित संविधान कालान्तर में स्वाधीन राष्ट्रों के संविधान का आधार बना तथा विभिन्न राष्ट्रों ने इसमें आवश्यक परिवर्तन कर अपनी परिस्थितियों के अनुरूप संविधान बनायें।

इतिहास का अध्ययन भी निश्चित सिद्धान्तों, आदर्शों तथा फार्मूलों के आधार पर किया जाता है। इतिहास वह कोण है, जिसमें से कोई भी व्यक्ति अपने पूर्वजों के बारे में जान सकता है। इतिहास ही एक मात्र ऐसा विषय है, जो मानव को उसके विभिन्न पक्षों का ज्ञान कराता है। विश्व में कोई भी विषय ऐसा नहीं है जिसमें इतिहास की पृष्ठभूमि न हो, मानव का एक का अलग इतिहास है, विज्ञान का एक इतिहास है, कला का अपना इतिहास है, धर्म का अलग इतिहास है, जिसमें संसार के समस्त पदार्थ सम्मिलित है तथा इस पदार्थ को नष्ट करना मानव की हत्या करने के समान होगा। यह केवल इतिहास का कोश है, जिसने महान दार्शनिक सुकरात, प्लेटो, अरस्तु, कन्फूशियस, सिसरो, आर्यभट्ट, कालिदास, होमर, बर्जिल की कृतियों को सुरक्षित रखा, जिसने मानव को वेद, पुराण, रामायण, बाइबिल, कुरान आदि धार्मिक पुस्तकों को दिया। यह केवल इतिहास में सम्भव है कि मानव सब कुछ देख सकता है तथा अतीत का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। जिस तरह हिटलर और मुसोलिनी कहा करते थे कि “राज्य के अन्दर सब कुछ है, राज्य के बाहर कुछ नहीं।’’ इसी को यदि हम इस प्रकार कहें कि ‘‘इतिहास के अन्दर सब कुछ है, इतिहास के बाहर कुछ भी नहीं’’, तो अतिशयोक्ति न होगी। इसी कारण हम देखते हैं कि आधुनिक विश्व की समस्त सरकारें अपने बालकों को इतिहास की शिक्षा अनिवार्य रूप से दिलवाती हैं, ताकि उनके भावी नागरिक अपने देश के साथ-साथ विश्व इतिहास का ज्ञान प्राप्त कर सकें उससे लाभान्वित होकर अपने देश एवं विश्व को लाभान्वित कर सकें।

इतिहासकारों को इतिहास की रचना करते समय विभिन्न बातों को ध्यान में रखना पड़ता है, जैसे जहाँ तक सम्भव हो तथ्यों के आधार पर इतिहास की रचना करना, ‘अनुमान’, ‘विश्वास’, ‘प्रतीत’ आदि शब्दों को अपनी रचना में स्थान न देना। पुनः निष्पक्ष होकर इतिहास की रचना करना। इसी कारण हम देखते हैं कि आधुनिक विद्वान यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस के इतिहास को, चीन के आरम्भिक समय में इतिहास पर लिखी गयी पुस्तकों को एवं भारतीय सभ्यता में रामायण एवं महाभारत युग के समय की रचनाओं को इतिहास की श्रेणी में नहीं रखते, क्योंकि उनमें अतिशयोक्ति है, वे एकपक्षीय हैं तथा वास्तविक रूप में इतिहास न होकर कहानी अधिक प्रतीत होते हैं, इसके विपरीत आधुनिक इतिहासकार अपनी सीमाओं से सभ्यता का इतिहास, परिचित है, उनका उल्लंघन करना एक प्रकार पाप समझते हैं। उक्त वर्णित सिद्धान्तों के आधार पर ही हमने इस पुस्तक की रचना करने का लघु प्रयास किया है। परन्तु यहाँ यह कहना असम्भव न होगा कि ‘अनुमान’,  ‘विश्वास’, ‘प्रतीत’, ‘आभास’ आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है, क्योंकि प्राचीन सभ्यता के इतिहास को जानने से सम्बन्धित जितने भी स्रोत हंै उसमें अधिकांश अलिखित हैं और जो लिखित भी हैं, उनमें से बहुत सी सभ्यता की भाषाओं को अभी तक  पढ़ा नहीं जा सका है। जैसे सिन्धु घाटी और क्रीट को लिपियाँ। इसी प्रकार जो लिखित अवशेष हैं वे अतिशयोक्ति से परिपूर्ण हैं उनमें सारांश निकालने के लिए अनुमान आदि शब्दों का आश्रय परमावश्यक है। पुनः प्राचीन सभ्यता का चित्रण करने के लिए इतिहासकार जिन स्रोतों का आश्रय लेते हैं उनका वर्णन करने से पूर्व यहाँ यह कहना आवश्यक है कि भूगर्भशास्त्री का सहयोग प्राप्त करना इतिहासकार के लिए उतना ही आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है, जितना कि वैज्ञानिकों के लिए फार्मूलों का ज्ञान होना, अथवा वकीलों को संविधान तथा प्रचलित विधियों का ज्ञान होना। प्राचीन मानव के इतिहास की रचना करने के लिए निःसन्देह ‘अनुमान’ आदि शब्दों का यद्यपि प्रयोग किया गया है, तथापि कुछ स्रोत हैं जो प्राचीन इतिहास की रचना करने में अधिक सहायता करते है। इन स्रोतों को दो भागों में विभक्त किया जाता है। प्रथम लिखित अवशेष, द्वितीय अलिखित अवशेष। लिखित अवशेष में वे पुस्तकें जाती है, जो तत्कालीन सभ्यता की रचना करने में अत्यंत सहायता करती है। महान दार्शनिक कन्फूशियस, सुकरात, प्लेटो, अरस्तु, सिसरो की रचनाएँ एवं रामायण, महाभारत, बेद, बाइबिल, कुरान भी प्राचीन सभ्यता का इतिहास का ज्ञान देने में बहुत सहायक है। इनमें बाइबिल तथा कुरान से हमको मानव के प्राचीनतम इतिहास का भी ज्ञान होता है, तथा रामायण एवं महाभारत से तत्कालीन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का ज्ञान होता है। इतिहास के साहित्यिक स्रोतों पर जब विचार विमर्श करते हें तो एक रोचक तथ्य सामने आता है कि ऐतिहासिक ग्रंथ में लेखक तब ही सन्तुष्ट हुआ, जब उसने किसी पात्र को अच्छा बनाने के लिए कोई न कोई चमत्कारिक कहानी उसके साथ गढ़ ली और या किसी बुरे पात्र की उसने डट कर निन्दा कर ली। अलबरूनी के अनुसार जब हम भारतीयों से उनका कोई इतिहास जानना चाहते हैं तो वे कहानियाँ कहना शुरू कर देते हैं। डा0 विण्टरनिज के शब्दों में इस सारी स्थिति की पूरी समीक्षा हो जाती है-‘ भारतीयों ने कभी इतिहास, पुराण, जनश्रुति और दर्शन में स्पष्ट अन्तर स्थापित नहीं किया। अतः भारतवर्ष में इतिहास ग्रंथ रचना कभी भी महाकाव्य रचना की एक शाखा से अधिक नहीं हो सकी।’’ लिखित दस्ताबेजों में शिलालेखों से भी इतिहासों को काफी सहायता मिलती है। अलिखित अवशेषों को हम कई भागों में विभक्त कर सकते हैं, जैसे- भवन, मन्दिर, मूर्तियाँ, चित्र, विभिन्न प्रकार के यन्त्र आदि। इन स्रोतों से भी इतिहासकारों की इतिहास की रचना करने में काफी सहायता मिलती है, साथ ही साथ ‘अनुमान’ शब्द का भी प्रयोग बार-बार किया जाता है, क्योंकि आधुनिक मानव अभी भी प्राचीन कालीन इतिहास के चित्रण से सन्तुष्ट होते हुए भी प्रसन्न नहीं है वह साहित्यिक ग्रंथों में उल्लिखित घटनाओं को काल्पनिक नहीं मानता, तथा उसकी खोज में लगा रहता है। क्रीट और सिन्धु सभ्यता की भाषा का रहस्य का पता लगा लेंगे और तब जो चित्रण उभरेगा वह निश्चय ही प्रसन्न करने वाला रोमांचकारी वर्णन होगा जो प्राचीन मानव के प्रत्येक पक्ष का वर्णन स्पष्ट आधार पर उसी प्रकार करेगा, जैसा कि वर्तमान इतिहासकार कर रहे हैं, तथापि अनुमान शब्द का प्रयोग अवश्य किया जायेगा। क्योंकि वे जिन विचारों, सिद्धान्तों अथवा आदर्शाें के आधार पर चित्रण करेंगे, हो सकता है कि हमारे पूर्वजों ने उन सिद्धान्तों अथवा आदर्शाें को न अपनाया हो, उनके विचारों की, आदर्शों की अभिव्यक्ति वे स्वयं ही कर सकते हैं। अतः ‘अनुमान’ का आश्रय हर स्थिति में आवश्यक है।

प्राचीन इतिहास को जानने में राजसी महल, भवन, मन्दिर के अवशेष बहुत सहायता करते हैं, ये देश की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक आदि विभिन्न पक्षों का अध्ययन करने में उतने ही सहायक होते हैं जितने कि लिखित साक्ष्य। स्विटजरलैण्ड के लेकविलेज में प्राप्त झोपड़ियों से तुरन्त इस बात का ज्ञान होता है कि आदिकालीन मानव वंजारों का जीवन छोड़कर निश्चित भूभाग में रहने लगा था। उसके परिवार अथवा समाज का कोई मुखिया होता था, वह कृषि द्वारा अपना जीविकोपार्जन करता था। पुनः मिश्र के पिरामिड से तुरन्त मिस्री शासकों की निरंकुशता तथा समृद्धि का आभास होता है। शासक अपने को प्रजा से ऊपर मानता था। पिरामिडों का निर्माण इस तथ्य को भी प्रकट करता है कि मिस्री निर्माताओं का अंकगणित, रेखागणित और निर्माण शास्त्र का पूर्ण ज्ञान था। उनको इस बात का भी ज्ञान था कि किस स्थान की भूमि पिरामिड के निर्माण के लिए हर दृष्टि से उचित होगी। इसी प्रकार इन महान पिरामिडों का निर्माण उस समय तक सम्भव नहीं हो सकता जब तक शासकों के पास धन न हो, जनता पर उनका पूर्ण एवं कठोर नियन्त्रण न हो, तथा जब तक देश में शान्ति स्थापित न हो। इसी प्रकार भारतीय सभ्यता में अशोक महान द्वारा बनवाये गये स्तूप तथा गुप्त वंश के शासकों द्वारा निर्मित मन्दिर आज भी इसकी अभिव्यक्ति करते हैं, कि तत्कालीन सभ्यता में देश में चारों ओर शान्ति थी, सुख एवं समृद्धि का वातावरण व्याप्त था। रोमन सभ्यता की नाट्यशालाओं से ज्ञात होता है रोमवासी आमोद-प्रमोद को कितना महत्व देते थे। उच्च वर्ग के बैठने का इस बात की अभिव्यक्ति करता है कि तत्कालीन सभ्यता के समाज के आधार पर भेद-भाव था। पुनः चीन की महान दीवार से प्रकट होता है कि चीन के शासकों ने विदेशी आक्रमण से अपनी रक्षा करने के लिए महान दीवार का निर्माण कराया था। इससे इस बात का आभास होता है कि चीनी कलाकारों एवं निर्माताओं को गणित तथा कला से सम्बन्धित आवश्यक सिद्धान्तों का ज्ञान था। भवनों से प्राप्त विभिन्न प्रकार का फर्नीचर जैसे कुर्सी, मेज, मसहरी से इस बात का भी ज्ञान होता है कि प्राचीन मानव अपने मकानों को सजाने के लिए उत्सुक रहता था। वह भवनों की दीवारों को विभिन्न प्रकार के चित्रों से चित्रण करते थे। पिरामिड के कक्षों में प्राप्त जीवन से सम्बन्धित आवश्यकताओं का भण्डार यदि एक ओर इस बात को प्रकट करता कि मिस्री समाज में किन वस्तुओं का प्रयोग किया जाता था, तो दूसरी ओर यह भी स्पष्ट होता है कि मिस्रवासी इस बात पर विश्वास करते थे कि मृतक आत्मा अपनी कब्र में दिन में एक बार अवश्य आती है तथा इन वस्तुओं का उपयोग करती है। कुछ इसी प्रकार की धारणा चीनी सभ्यता में देखने को मिलती है, जहाँ चीनवासी अपने मृत पूर्वजों की पूजा करते थे। इसी प्रकार भवनों, मन्दिरों से जीवन के अन्य तथ्यों का भी ज्ञान होता है और इतिहासकारों को प्राचीन सभ्यताओं के इतिहास को जानने में उतनी ही सहायता करते हैं जितने कि लिखित साक्ष्य इन अवशेषों को आधुनिक मानव विशेषकर इतिहास प्रिय मानव उतनी ही रक्षा करते हैं, जितनी कि अपने जीवन की। इसी प्रकार आधुनिक मानव अपने प्राचीन पूर्वजों से संबन्धित अवशेषों के सहायतार्थ संग्रहालयों की उतनी ही सजगता एवं सावधानी से रक्षा करता है जितनी कि आणविक अस्त्रों की। क्योंकि मानव जानता है कि यदि यह अवशेष नष्ट हो गये, तो निश्चय ही एक ओर इनके अभाव की पूर्ति नहीं की जा सकेगी, दूसरी ओर मानव चित्रण से संबन्धित इतिहासकार किसी प्रकार का सर्वेक्षण करने में बंचित रहेंगे। इस प्रकार संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि प्राचीन मानव के इतिहास का अध्ययन करने में भवन बहुत सहायता करते हैं।

हम जैसा साधनों का अध्ययन करेंगे, तो स्पष्ट होगा कि भारत में अभिलेखों की परम्परा प्ररम्भ होने से मौर्यकाल से लेकर राजपूतों तक का इतिहास जानने में अत्याधिक सुबिधा है। मुद्रायें, सिक्के, मुहरों से भी इतिहास की जानकारी होती है। स्मारक और भवनों से भी प्राचीन भारत के इतिहास, संस्कृति, सभ्यता, विज्ञान, और कला की जानकारी प्राप्त होती है। इससे ज्ञात होता है कि भारतीय शिल्पी, कलाविद्, ओश्र वास्तु आचार्य बहुत प्रवीण थे और आज के वैज्ञानिकों के लिए यह प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा आज भी चुनौती है। धार्मिक साहित्य में जहाँ अपने धर्म-दर्शन का ज्ञान है, वहाँ सभ्यता के इतिहास का सटीक चित्रण भी मिलता है। वस्तुतः धर्म-साहित्य, अभिलेख, मुहरें, मुद्रायें, सिक्के, स्मारक और ताम्रपत्र आदि से सभ्यता और संस्कृति पर विस्तृत प्रकाश पड़ता है।

पुरातत्वीय स्रोत-(।तबीपवसवहपबंस ैवनतमे)- पुरातत्वीय सामग्री से तात्पर्य है, पुरातन समय के अब तक अवशेष रूप् में बचे हुए विभिन्न साक्ष्य और राजाओं एवं अन्य लोंगों द्वारा उत्कीर्ण अभिलेख। विभिन्न साक्ष्यों में भवन, मंदिर, गुफायें, पात्र, मुद्रायें, मुहरें, मूर्तियाँ मृदभाण्ड, अस्त्र-शस्त्र, आभूषण, वस्त्र आदि अपना विशिष्ट महत्व रखते हैं। विभिन्न स्थानों के उत्खनन से भी पुरातन संस्कृति एवं सभ्यता के अवशेष प्रचुरता से मिले हैं और वर्तमान समय में प्राप्त होते रहते हैं। कभी-कभी पूरी बस्ती और नगर के अवशेष भी प्राप्त होते हैं, जो कभी किन्हीं प्राकृतिक अपवादों से भूमि में दब गये थे। इस रूप् में भारतीय इतिहास की परम्परा में 1920-22 ई0 में पुरातत्व विद्वानों को उत्खनन के बाद प्राचीन भारत के हड़प्पा और मोहनजोदड़ों से दो विशाल नगरों के अवशेष प्राप्त हुए और ज्ञात हुआ कि प्राचीन भारत के पुरा इतिहास में सिन्धु घाटी में एक उच्च कोटि की वैज्ञानिक सभ्यता के निर्माता और निर्वाहक, भारतीय नागरिक निवास करते थे। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के ये अवशेष पुरातत्वीय साक्ष्यों में अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। पुरातत्वीय साक्ष्यों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

आभूषण एवं वस्त्र – इन अवशेषों से भी प्राचीन इतिहास को जानने में इतिहासकारों को सहायता मिलती है। आभूषण धातु एवं पत्थर के बने हैं, इनसे तुरन्त इतिहासकार को इस बात का ज्ञान होता है कि धातु के आभूषणों का शासक धनी वर्ग के तथा पत्थर, लकड़ी के बने आभूषणों का प्रयोग निम्न वर्ग के व्यक्ति करते थे। आभूषणों से स्पष्ट होता है कि समाज में धन को लेकर ऊँच एवं नीच की भावना व्याप्त थी। उन व्यक्तियों को समाज में विशेष महत्व नहीं दिया जाता था, जो निर्धन थे। आभूषणों से इस बात का आभास होता है कि मानव सौन्दर्य प्रिय थे, अपने शरीर पर आभूषणों को धारण करना शुभ मानते थे। शासकगण तो आभूषणों की सहायता से अपने को सामान्य प्रजा से अलग करते थे। आभूषणों में स्त्रियाँ नथ, करधनी, पायल, पायजेब, जंजीर तथा अंगूठी का तथा पुरुष जंजीर, अँगूठी का प्रयोग करते थे। स्त्रियाँ आभूषणों की प्रेमी थीं, तथा अपनी सुन्दरता के लिए आभूषणों का धर करना आवश्यक समझती थीं। प्राचीन सभ्यता के मूर्तिकारों ने स्त्रियों की मूर्ति का निर्माण करते समय उनके आभूषणों को भी बनाया, जिनसे यह विदित होता है कि प्राचीन सभ्यता में स्त्री तथा आभूषण शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची बन गये थे। इस तथ्य की पुष्टि इस बात से भी होती है कि विवाह के समय कन्या का पिता अपनी पुत्री को दहेज में अन्य वस्तुओं के अतिरिक्त आभूषण भी देता था। पुरुष भी आभूषणों को धारण करते थे। आभूषणों के अतिरिक्त वस्त्रों के अवशेषों से प्रतीत होता है कि प्राचीन सभ्यता के मानव वस्त्रों का प्रयोग केवल शरीर ढकने के लिये ही नहीं किया करते थे। यह लोग सूत कातना, कपड़ा बुनना उसको रेंगने की कला से परिचित थे। शासक गण अपने वस्त्रों पर बहुमूल्य धातुओं और पत्थरों का प्रयोग करते थे। जिससे यह भी ज्ञात होता है कि शासकगण वस्त्रों का प्रयोग अपने शरीर को ढकने के साथ-साथ अपने व्यक्तित्व को आकर्षक तथा प्रभावशाली बनाने के लिए करते थे। ऊनी वस्त्रों का प्रयोग किया जाता था, एवं ऊन प्राप्त करने के लिए भेड़ों को पाला जाने लगा था, उनका व्यापार किया जाता था। चीन बासी रेशमी वस्त्रों का प्रयोग करते थे तथा इन वस्त्रों को विभिन्न देशों में भेजा करते थे। आभूषणों एवं वस्त्रों का प्रयोग इस बात को भी स्पष्ट करता है कि तत्कालीन सभ्यता में आभूषणों का निर्माण एवं वस्त्रों का बुनना एक पेशा बन गया था। बहुत से व्यक्ति इन पेशों के द्वारा अपनी जीविकोपार्जन करते थे। वे अपने बच्चों को अपनी कला का ज्ञान कराते थे, ताकि वे, उनकी अर्थव्यवस्था का एक स्रोत बन सके, स्त्रियाँ विशेषकर इन कलाओं का ज्ञान प्राप्त करती थीं ताकि अपनी पति की सहायता कर सकें। प्राचीन सभ्यता में विद्यार्थियों को सूत कातना, कपड़ा बुनना, रंगना, ऊन बुनना आदि की शिक्षा दी जाती थी। मध्यम वर्ग के व्यक्ति इन विषयों की शिक्षा विशेष रूप से प्राप्त करते थे। कपड़ा बनाने के लिए कपास की जरूरत पड़ती है । अतः तत्कालीन कृषक कपास की खेती करते थे, तथा जिन देशों में कपास नहीं होती थी, वे अन्य देशों से इसका आयात करते थे। आभूषणों के निर्माण में अनुपात का विशेष ध्यान दिया जाता था। जो इस बात का द्योतक है कि इस समय गणित की प्राप्त करना आवश्यक था। धातुओं के आभूषणों को कलात्मक बनाकर उनका निर्यात भी करते थे। इससे एक ओर विदेशी व्यापार की वृद्धि का ज्ञान होता था, तो दूसरी ओर इस बात का भी पता चलता था कि प्राचीन मानव को समुद्री मार्गों का ज्ञान था। वे इस ज्ञान से परिचित थे कि समुद्री मार्ग से व्यापार कब करना चाहिए। यूनानी एवं रोमन शिक्षाविदों ने देशान्तर और अक्षान्तर की खोज एवं भौगोलिक मानचित्र का निर्माण किया था। समुद्री व्यापार को सुरक्षित बनाने के लिए विभिन्न स्थानों पर चैकियाँ बनायीं जो एक ओर व्यापारियों के लिए विश्रामालय का कार्य करती ािी। तो दूसरी ओर यही चैकियाँ व्यापारिक मंड़ियाँ भी होती थीं। जहाँ व्यापारी न केवल आयात-निर्यात करते थे बल्कि एक दूसरे की संस्कृति का ज्ञान प्राप्त करते थे। विदेशी व्यापार को सरलीकृत करने के लिए बेंकों की स्थापना भी किया जाता था जो व्यापारियों के धन को सुरक्षित रखती और आवश्यकता पड़ने पर उन्हें ऋण प्रदान करती थीं। विदेशी व्यापार शासकों की आमदनी का साधन भी था। सम्राट व्यापारियों से कर के रूप में धनराशि प्राप्त करती थीं। सरकारी करों ने व्यापारियों को अपने व्यापार से सम्बन्धित लेखा-बही रखने की प्रथा को प्रारम्भ किया। इस प्रकार आभूषण एवं वस्त्रों से प्राचीन सभ्यता के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने में हमें सहायता प्राप्त होती है। यही अवशेष मानव की राजनैतिक, सामाजिक, एवं आर्थिक जीवन को समझने में सहायक होती हैं।

कला- कला भी प्राचीन सभ्यता के इतिहास का निर्माण करने में बहुत सहायक है। इनसे एक ओर तत्कालीन कला का ज्ञान होता है, तो दूसरी ओर यह भी अपने निर्माताओं के जीवन के विभिन्न पक्षों का ज्ञान कराती है। इटली की गुफाओं में जो चित्र मिले हैं, उससे पता चलता है कि मानव को विभिन्न पशुओं का ज्ञान था। वे उनका शिकार करते थे, उनकी खानों को अपने शरीर को ढकने के लिए प्रयुक्त करते थे। शिकार के लिए पत्थर के बने का प्रयोग करते थे। आदिकालीन मानव शेर, चीता, जंगली सूअर, खरगोश आदि पशुओं का शिकार करते थे। इसके उपरान्त मानव के सभ्यता के इतिहास को जानने में वास्तुकला, मूर्तिकला, नगरनिर्माण कला एवं चित्रकला से बहुत सहायता मिलती है। मिस्र के एक चित्र में स्त्रियों को पारदर्शी वस्त्रों में नृत्य करते हुए दिखलाया गया है। जिससे पता चलता है कि स्त्रियों को भोग की वस्तु समझा जाता था। फारम की सभ्यता में एक स्त्री को ओसाई करते हुए चित्रित किया गया है। जिससे पता चलता है कि फारस में कृषि का कार्य स्त्रियाँ करती थीं। सिन्धु सभ्यता में विभिन्न आकृतियों एवं मुद्राओं की मूर्तियाँ मिली, इनमें कुछ तो देवी-देवताओं की हंै, तथा कुछ स्त्रियों एवं पुरुषों की हैं। चित्रकला और मूर्तिकला के साथ-साथ वास्तुकला के अन्तर्गत निर्मित भवन, राजमहल, मन्दिर भी मानव जीवन का चित्रण करने में सहायता करते हंै। नगर निर्माण कला तो स्वयमेव अपने नगरवासियों के रहन-सहन को व्यक्त करती है। सिन्धु सभ्यता की खुदाई से प्रतीत होता है कि इस सभ्यता के वासी नगर निर्माण कला से परिचित थे। नगर योजना  सैंधव सभ्यता की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है। नगर के दोनों ओर पक्की सड़कें होती थी। भवन लगभग दो मंजिल के होते थे। नगर में स्नानगृह का उचित प्रबन्ध होता था। क्रीट सभ्यता के नगरों की स्वच्छता की प्रशंसा तो इतिहासकारों ने मुक्तकंठ से की है। इस सभ्यता के नगरों में गन्दे पानी निकालने के लिए नालियों का उचित प्रबन्ध था। इसी प्रकार मोहनजोदडो की खुदाई में तो सड़कों के किनारे कुछ डिब्बे मिले हैं जो सम्भवतः कूड़ा फेंकने के काम में आते रहे होंगे। वास्तुकला, मूर्तिकला एवं चित्रकला से इस बात का ज्ञान होता है कि उक्त क्षेत्रों में प्राचीन मानवों ने बहुत उन्नति कर ली थी। उनकी कृतियाँ स्वच्छता, सुन्दरता की तो प्रतिमाएँ होती थी, साथ ही साथ उनकी भावनाओं तथा विचारों को भी अभिव्यक्ति करती थी। चीनी कलाकार तो कला को मानव भावनाओं का दर्पण मानते थे। इस प्रकार की पराकाष्ठा पर व्यक्ति अथवा कलाकार उस समय तक नहीं पहुँच सकता, जब तक कि उसको रेखाओं का, प्रकृति का, पशुओं का समुचित ज्ञान न हो। प्राचीन मानवों की कृतियों से पता चलता है कि हमारे पूर्वजों को रेखाओं, प्रकृति का पूर्ण ज्ञान था।

अस्त्र-शस्त्र एवं यन्त्र- विभिन्न स्थानों की खुदाई में जो अस्त्र-शस्त्र तथा यंत्र मिले हैं वे भी इस काल के मानव का चित्रण करने में इतिहासकारों एवं विद्वानों की सहायता करते हैं। आदिकालीन मानवों से संबन्धित पत्थरों के औजार तो एकमात्र ऐसा साधन है जिनसे प्राचीन मानव का अध्ययन किया जा सकता है। इनके अस्त्रों को देखने से पता चलता है कि इनको अभी तक धातु प्रयोग की जानकारी नहीं थी। वे अस्त्र-शस्त्र, निर्माण कला में बहुत दक्ष नहीं थे, तथापि इनके अस्त्र इनके जीवन की रक्षा एवं जंगली जानवरों का शिकार करने की क्षमता रखते थे। प्राचीन युग से संबन्धित जितने भी अस्त्र-शस्त्र एवं यंत्र मिलेे हैं उनसे इतिहास लिखने में काफी सहायता मिलती है। प्राचीन मानव अधिकांशतः धातु के अस्त्रों एवं यन्त्रों का प्रयोग करते थे, जिससे स्पष्ट होता है कि प्राचीन मानव, आधुनिक भूगर्भशास्त्र जैसे विषय का अध्ययन करते रहे होंगे, क्योंकि बिना इसके अध्ययन किये भूगर्भ से धातुओं का निकालना सम्भव नहीं। वास्तव में प्राचीनवासियों ने न केवल भूगर्भशास्त्र का अध्ययन किया, बल्कि इस विषय का बहुत विकास किया। प्राचीन भूगर्भशास्त्रियों ने इटली में 76, यूनान में 113, ब्रिटेन में 186 तथा जर्मनी में 198 खानों का पता लगाया। धातु की खुदाई, उसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिए यातायात एवं सुरक्षा की आवश्यकता पड़ती है। निश्चित ही प्राचीन सभ्यता के वासियों ने इसका उचित प्रबन्ध किया होगा। वास्तव में प्राचीन मानव ने न केवल धातु की खोज की अथवा उससे अस्त्र-शस्त्र आदि बनाये बल्कि उनका व्यापार भी किया तथा कालान्तर में धातु को व्यापार का माध्यम बनाया, उनके सिक्के बनाये। चीन में द्विधातु के सिक्कों का प्रचलन था, जिससे इस बात का ज्ञान होता है कि प्राचीन मानव धातुओं को उचित अनुपात में मिश्रित करना जानते थे। प्राचीन मानव धातुओं की मदद से तीर कमान, भाला, बरख्छा, चाकू, तलवार ढाल, कवच आदि हल फावडा, हंसियाँ आदि कृषि तथा संगीत में प्रयुक्त होने वाले यंत्रों का निर्माण करते थे। अस्त्रों को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन मानव अपनी रक्षा के प्रति कितने जागरूक थे, वे इन्हीं अस्त्रों को सहायता से युद्ध करते, जंगली पशुओं का शिकार करते थे। कृषि के यन्त्रों से प्रकट होता है कि अधिक अन्न उपजाने के लिए कृषि भूमि की जुताई एवं गुड़ाई करना आवश्यक समझते थे और इस कार्य को हल तथा फावड़े की सहायता से करते थे, तथा फसल को काटने के लिए हँसियों का उपयोग किया जाता था। इन यंत्रों से स्पष्ट होता है कि कृषि प्राचीन मानव की अर्थव्यवस्था का प्रमुख स्रोत था और अनाज को सुरक्षित रखने के लिए कोठरियों का निर्माण किया जाता था। इसी प्रकार संगीत को समाज में अधिक महत्व दिया जाता था। यूनानी दार्शनिकों ने संगीत को आत्मा की शुद्धि का एक स्रोत माना, पूजा में भी संगीत का प्रयोग किया जाता था। संगीत के विकास यदि एक और संगीतज्ञों को जन्म दिया तो दूसरी ओर नृत्य का विकास किया। नृत्य कला में भी विभिन्न मुद्राओं का जन्म हुआ साथ ही साथ नृत्य भी एक पेशे के रूप में विकसित हुआ। संगीत एवं नृत्य का प्राचीन मानव समाज में इतना अधिक महत्व था कि इनकी शिक्षा दी जाती थी। यूनान और चीनी समाज के विद्यार्थियों को संगीत की शिक्षा प्राप्त करना अनिवार्य था। समस्त सभ्य समाज में कन्याओं को संगीत एवं नृत्य की शिक्षा विशेष रूप से दी थी, वास्तव में जिस प्रकार अग्नि की खोज ने पायाणकालीन मानव को नवीन पाषाण युग में प्रवेश कराया तथा कृषि के ज्ञान और लेखन कला की खोज ने सभ्यता का बीजारोपण किया, उसी प्रकार धातु की खोज एवं उसके प्रयोग ने सभ्यता का विकास किया। इस प्रकार अस्त्र शस्त्र एवं यन्त्र प्राचीन पूर्वजों के व्यक्तित्व का उनके राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक जीवन के विभिन्न पक्षों का चित्रण करने में सहायता प्रदान करते हैं। वास्तव में शस्त्रों एवं यंत्रों को नजरअंदाज कर हमको अपने पूर्वजों के जीवन का चित्रण करने में कष्टों का सामना करना पड़ेगा।

मानव अस्थि- प्राचीन सभ्यता के इतिहास का अध्ययन करने में मानव अस्थि से भी इतिहासकारों को सहायता मिलती है। यदि एक ओर भू-गर्भ शास्त्री इन अवशेषों से यह पता लगाते कि यह अवशेष कितने पुराने है एवं इन अवशेषों की सहायता से तत्कालीन मानव के विकास के सम्बन्ध में बताते हुए उस समय के मानव शरीर रचना पर शोध कार्य कर डालते तो इतिहास के विद्वान् इन दोनों विशेषज्ञों की सहायता से इस बात को निश्चित करते कि उक्त अस्थि किस जाति से मेल खाती अर्थात् इन्डोयोरोपीय जाति या हिट्टी या हित्ती जाति या अन्य किसी जाति के हैं। इस बात को निश्चित करने के उपरान्त इतिहासकार उस स्थान पर यह ढूंढने का प्रयत्न करते कि भग्नावशेष के साथ यदि किसी प्रकार की मूर्ति चित्र अथवा अस्त्र मिल जाये तो एक नयी सभ्यता का पता लगेगा। उदाहरणार्थ हड़प्पा नामक स्थान आज रेगिस्तान है परन्तु इसकी खुदाई में प्राप्त अवशेष ने यह सिद्ध कर दिया कि यहाँ कभी महान सभ्यता का विकास हुआ था। मिस्र के पिरामिड आज भी भण्डार के रूप में है। परन्तु इन भण्डारों के नीचे विश्व की एक उत्कृष्ट सभ्यतार दफन थी। इसका पता इतिहासकारों की खुदाई के बाद हुआ। चीन में ईसा से लगभग 2400 वर्ष पूर्व एक कब्र मिली है। कब्र की रचना, यदि एक ओर वास्तुकला की उन्नति को दर्शित करती है, तथा यह स्पष्ट करती है कि यह किसी राजा की कब्र थी, तो दूसरी ओर इसने यह निश्चित कर दिया कि चीन में ईसा से 2400 वर्ष पूर्व सभ्यता का विकास आरम्भ हुआ था। यदि ऐसा नहीं हुआ होता तो चीनी लोग अपने मुर्दों को दफनाने के स्थान पर पक्षियों को खाने के लिए छोड़ देते।

इस प्रकार मानव- अस्थि भी इतिहासकारों के लिए काफी महत्व रखते है। परन्तु इनसे सम्बन्धित ज्ञान इतिहासकार भूगर्भशास्त्री तथा मानव विज्ञानशास्त्री के सहयोग के अभाव में नहीं कर सकता है। संक्षेप में प्राचीन मानव के सभ्यता सम्बन्धी इतिहास का चित्रण करने में अतिथित स्रोतों का विशेष महत्व है। इनके अभाव में अपने पूर्वजों का चित्रण करने में मानव को अधिक कठिनाई का सामना करना पड़ेगा। लिखित प्रमाण अथवा अवशेष पर्याप्त मात्रा में ही क्यों न हों जब तक अलिखित प्रमाण अथवा अवशेष हमारे पास न हो तब तक प्राचीन मानव का पूर्ण एवं स्पष्ट करना असम्भव होगा।

अलिखित अवशेषों के अतिरिक्त लिखित अवशेष भी प्राचीन मानव के इतिहास को समझने में काफी मदद करते हैं। लिखित प्रमाणों को हम भागों को हम चार वर्गों में विभाजित कर सकते है। प्रथम- शिलालेख, द्वितीय-पौराणिक गाथाएँ,  तृतीय- विभिन्न विषयों पर लिखी गई पुस्तकें एवं चतुर्थ- धार्मिक साहित्य। इन चारों प्रकार के साक्ष्यों से इतिहासकारों को सभ्यता की रचना करने में काफी सहायता मिलती है।

शिलालेख- अभिलेखों, शिलालेखें की बहुलता से प्राथ्पत हुई है। अभिलेखों और शिलालेखों को उनकी निर्माणशैली और विविध स्थलों से प्राथ्पत के आधार पर अनेक वर्गों में बाँटा जाता है। प्राचीन इतिहास का अध्ययन करने में शिलालेखों का विशेष महत्व है। इन शिलालेखों पर विभिन्न शासकों ने विभिन्न विषयों का वर्णन करवाया। अशोक के दिनों से उसकी धर्मपरायणता का तथा बेबीलोनियन शासक हम्मूरावी की विधिसंहितो से न्याय के सम्बन्ध में पता लगता है। हम्मूरावी की विधिसंहिता, जो मूसानगर में 1902ई० में फ्रांसीसी पुरातत्वशास्त्री जेकूकरस डी0 आरगन को प्राप्त हुआ था, से ज्ञात होता है कि तत्कालीन सभ्यता में न्याय निश्चित सिद्धान्तों एवं आदर्शों के आधार पर किया जाता था। पापियों अथवा दुष्ट व्यक्तियों को कठोर दंड दिया जाता था। हम्मूरावी की विधिसंहिता का अधिक विस्तारपूर्वक वर्णन यहाँ न कर इसके कुछ अंश का वर्णन किया जा रहा है, जिससे हम्मूराबी की विधिसंहिता का इतिहास में एक स्रोत के रूप में उसके महत्व को सिद्ध किया जा सकता है- 1. अगर कोई व्यक्ति गवाह को धमकाता है, तो उसको मृत्युदण्ड दिया जायेगा। 2. अगर कोई व्यक्ति चांदी, सोना, नौकर, बैल, भेड़, और गधा आदि को बिना गवाह के खरीदता है, तो यह एक प्रकार चोरी होगी और उसको मृत्युदण्ड दिया जायेगा। 3.   अगर कोई स्त्री अपना अधिकांश समय अपने पति के घर के बाहर व्यतीत करती है, मूर्खतापूर्ण व्यवहार करती है, उसके माल को नष्ट करती है, उसका अनादर करती है, तो पति उस स्त्री को बिना दहेज के छोड़ सकता है, परन्तु यदि वह अपनी पत्नी को नहीं छोड़ता और दूसरा विवाह कर लेता है तो ऐसी स्थिति में प्रथम स्त्री नौकर के रूप में उसके घर में रह सकती है।  4. अगर कोई व्यक्ति अपने पिता को मारता है, तो उसके हाथ काट लिये जायेंगे। इस प्रकार हम्मूरावी के शिलालेख से स्पष्ट होता है कि तत्कालीन सभ्यता में शासन छोटे से छोटे अपराध पर कठोर दण्ड देते थे। विधि को मानव कृति के स्थान पर देवी कृति माना जाता था, उसमें परिवर्तन करना अथवा संशोधन करने का अधिकार किसी को न था। हम्मूरावी के समान अशोक के शिलालेख मौर्यकालीन इतिहास को जानने में बहुत सहायता करते हैं।

पुरातात्त्विक स्रोतों के अंतर्गत सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत अभिलेख हैं। अभिलेखों, शिलालेखों की बहुलता से प्राप्ति हुई है। अभिलोखों और शिलालेखों को उनकी निर्माण शैली और विभिन्न स्थानों से प्राप्ति के आधार पर अनेक वर्गों में बाँटा गया है। ये अभिलेख अधिकांशतः स्तंभों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मुद्राओं, पात्रों, मूर्तियों आदि पर खुदे हुए मिलते हैं। जिन अभिलेखों पर उनकी तिथि अंकित नहीं है, उनके अक्षरों की बनावट के आधार पर मोटे तौर पर उनका काल निर्धारित किया जाता है। प्राचीन भारत के इतिहास की जानकारी देने वाले समस्त अभिलेखों की जानकारी देना यहाँ असंभव है।

 अभिलेखों के अध्ययन को पुरालेखशास्त्र (एपिग्राफी) कहा जाता है। भारतीय अभिलेख विज्ञान में उल्लेखनीय प्रगति 1830 के दशक में हुई, जब ईस्ट इंडिया कम्पनी के एक अधिकारी जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का अर्थ निकाला। इन लिपियों का उपयोग  आरंभिक अभिलेखों और सिक्कों में किया गया है। प्रिंसेप को पता चला कि अधिकांश अभिलेखों और सिक्कों पर ‘पियदस्सी’ नामक किसी राजा का नाम लिखा है। कुछ अभिलेखों पर राजा का नाम ‘अशोक’ भी लिखा मिला। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अशोक सर्वाधिक प्रसिद्ध शासकों में से एक था। इस शोध से आरंभिक भारत के राजनीतिक इतिहास के अध्ययन को नयी दिशा मिली। भारतीय और यूरोपीय विद्वानों ने उपमहाद्वीप पर शासन करने वाले प्रमुख राजवंशों की वंशावलियों की पुनर्रचना के लिए विभिन्न भाषाओं में लिखे अभिलेखों और ग्रंथों का उपयोग किया। परिणामस्वरूप बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों तक उपमहाद्वीप के राजनीतिक इतिहास का एक सामान्य चित्र तैयार हो गया। 1877ई0 में कनिंघम महोदय ने ‘कापर्स इन्सक्रिप्शन इंडिकेरम’ नामक ग्रन्थ प्रकाशित किया। इसमें मौर्य, मौर्योत्तर और गुप्तकाल के अभिलेखों का संग्रह है। हिन्दी में अभिलेखों का एक संस्करण डा0 राजवली पाण्डेय महोदय ने प्रकाशित किया है।

अभी तक विभिन्न कालों और राजाओं के हजारों अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं। यद्यपि भारत का सबसे प्राचीनतम अभिलेख हडप्पाकालीन हैं, लेकिन अभी तक सैन्धव लिपि को पढ़ा नहीं जा सका है। अतः भारत का प्राचीनतम् प्राप्त अभिलेख प्राग्मौर्ययुगीन पिपरहवा कलश लेख या पिपरहवा धातु-मंजूषा अभिलेख (सिद्धार्थनगर), बड़ली (अजमेर) से प्राप्त अभिलेख एवं बंगाल से प्राप्त महास्थान अभिलेख महत्त्वपूर्ण हैं। महास्थान शिलालेख एवं सोहगौरा ताम्रलेख प्राचीन भारत में अकाल से निपटने के लिए खाद्य आपूर्ति व्यवस्था (राशनिंग) पर प्रकाश डालता है। भगवान बुद्ध के अस्थि-अवशेष के सम्बन्ध में जानकारी देने वाला पिपरहवा कलश लेख प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में निर्गत यह अभिलेख सुकृति बंधुओं द्वारा स्थापित करवाया गया था। अपने यथार्थ रूप में अभिलेख सर्वप्रथम अशोक के शासनकाल के ही मिलते हैं। मौर्य सम्राट अशोक के इतिहास की संपूूर्ण जानकारी उसके अभिलेखों से मिलती है। माना जाता है कि अशोक को अभिलेखों की प्रेरणा ईरान के शासक डेरियस से मिली थी। अशोक के शिलालेखों से स्पष्ट होता है कि अशोक ने कलिंग युद्ध के उपरान्त बुद्ध धर्म को अंगीकार किया। उसके प्रथम लघु शिलालेख में कहा गया,  ‘ढाई वर्ष से अधिक हुए कि मैं उपासक हुआ परन्तु मैने अधिक उद्योग किया, किन्तु एक वर्ष से अधिक हुए जब मैं संघ में भिक्षु रूप में आया तब से धर्म का उत्साही प्रचारक बन गया।’ इसी प्रकार सारनाथ, साँची और कौशाम्बी स्तम्भ लेखों से ज्ञात होता है कि अशोक ने बौद्ध संघ में एक सत्ता बनाये रखने का प्रयत्न किया, कोई भी व्यक्ति चाहे वह भिक्षु हो अथवा भिक्षुणी संघ में फूट डाले तो उसे सफेद वस्त्र पहनाकर संघ से बाहर कर दिया जायेगा। यह देशभर भिक्षुणी ग्रंथों को बता दिया जाये। एक अन्य लेख से यह स्पष्ट होता है कि अशोक अपनी प्रजा को अपनी संतान मानता था। वह कहता है, ‘सब मनुष्य मेरी संतान है, जिस प्रकार मै अपनी संतानों के लिए यह चाहता हूँ कि वह इस लोक एवं परलोक में सब प्रकार के क्षेम और सुख प्राप्त करें, उसी प्रकार मैं सारी प्रजा के लिए चाहता हूँ।’ ‘जनता का कल्याण करना मैं अपना परम कत्र्तव्य समझता हूँ इसी कारण मैंने इस प्रकार की व्यवस्था की। मेरे पदाधिकारी मुझसे जब चाहें मिल सकते है जब मैं भोजन करता रहूँ अथवा जनानखाने में रहूँ या धार्मिक कार्यों को कर रहा हूँ। प्रजा के लोक-परलोक को सुधारना मेरा परम कर्तव्य है। भारत तथा बेबीलोनियन सभ्यता के अतिरिक्त मिस्र, फारस, यूनान, रोम आदि सभ्यताओं से संबन्धित शिलालेख स्तम्भ लेख भी पुरातत्वविदों को प्राप्त हुए, जिनसे उक्त सभ्यता के मानय के जीवन से संबन्धित विभिन्न पक्षों का ज्ञान होता है। मिस्र में वर्तमान समय की भाँति प्राचीन काल से सम्बन्धित अभिलेख नहीे मिला है। फिर भी पुरातात्विक सामग्री में सबसे महत्वपूर्ण पाँच राजाओं की सूची है। एबीदोस की पट्टिका का उल्लेख किया जा सकता है। यह पट्टिका सेती के मंदिर के बरामदे पर उत्कीर्ण है। इसमें मेनीस से लेकर सेती तक लगभग 76 राजाओं का वर्णन मिलता है।इसी प्रकार एक दूसरी सूची कर्नाकवाली से मिली है। इसमें मेनीस से थुटमोस तृतीय तक लगभग 62 राजाओं के नाम का उल्लेख मिलता है। सकारा के अभिलेख जो शाही लिपि में मीनार पर पाये गये हैं। इनमें थुनेरी का अधिक महत्व वर्णित है।इसमें 47 शासकों मेरबापेन राजवंश के छठे राजवंश से लेकर रेमसेस द्वितीय तक का विवरण मिलता है। ये तीनों सूचियाँकेवल नामों की सूची के अलावा कुछ विवरण नहीं प्रस्तुत करती हैं। किन्तु मनेथो की रचना के आधार पर उन्होंने एक स्वरूप् का निर्माण किया है जिसक आधार पर राजाओं के शासन का हमें जानकारी प्राप्त होती है। ट्यूरीन पैपिरस जो हिक्रेटिक में लिखा गया है, में ऐसे शासकों का विवरण है जो कि मरणशील राजाओं से लेकर ईश्वर तक जाता है। पैपिरस की रचना 19वीं राजवंश के राज्यकाल में हुई जो कि मंदिर का लेख था और इसके आधार पर ही साहित्यिक लोगों ने अपने-अपने इतिहासों की रचना की। महत्वपूर्ण सूचियों में पलेर्मो स्टोन है जिसमें प्रथम राजवंशों का इतिहास वर्णित है। 1850 से लेकर 1880 ई0 तक कैरो संग्रहालय के निर्देशक ने मैरीपेट नामक स्थान में उत्खनन का कार्य किया। जिसके परिणाम स्वरूप् मेम्फीस के अपीस के मंदिर, गिजे का स्ंिफक्स मंदिर एवं सागाराह का कब्रिस्तान मिला। अनकों अभिलेख, मूर्तियों, कला कृतियाँ और अन्य दूसरी छोटी वस्तुओं की प्राप्ति इसी समय हुई। मेसपेरो महोदय ने सकारा में स्थित उनास के पिरामिड की खोज की। इसके अतिरिक्त शव का दफनाने के तरीका, दैवी स्वरूप, ईश्वर पूजा की विधि एवं मृतकों के सम्बन्ध में स्पष्ट जानकारी मिलती है।

                मेसोपोटामिया के मैदान में अनेक स्थानों पर बड़े-बड़े टीलों के उत्खनन का कार्य 19वीं सदी के मध्य में पुरातत्वविदों द्वारा किया गया। उत्खनन के दौरान प्राचीन नगर के साक्ष्य, मंदिरों और दुर्गों के अवशेष प्राप्त हुए। इन प्राप्त पुरातात्विक अवशेषों के आधार पर मेसोपोटामिया सभ्यता की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, एवं धार्मिक इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है।

                प्राचीन भारत के इतिहास के सन्दर्भ में खुदाई के बाद से अनेक बस्तियों के भवन अवशेष प्राप्त हुए हैं और बस्तियों से ही अनेक प्रकार की प्रयोग की जाने वाली वस्तुयें, सामग्रियों के अवशेष मिले हैं। ये इतिहास की जानकारी देने वाले अटूट सत्यनिष्ठ प्रमाण हैं। इस रूप में मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से भवनों, नालियों आदि के नगरीय अवशेष भारत की एक अति प्राचीन वैज्ञानिक नगरीय सभ्यता की जानकारी प्रदान करते हैं। यहाँ से मिले और इस सभ्यता की समानता रखने वाले अनेक स्थानों चान्हूदड़ो, सुरकोटदा, लोथल, आदि से प्राप्त बर्तन, मूर्तियाँ, खिलौने, आभूषण, उपकरण, हथियार और अन्य वस्तुओं के अवशेष आर्यों से पूर्व अति प्राचीन सैन्धववासी भारतीय मानव के जन-जीवन का सम्पूर्ण इतिहास प्रस्तुत करते हैं।

विदेशों से प्राप्त कुछ अभिलेखों से भी भारतीय इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। मध्य एशिया के बोगजकोई नामक स्थान से करीब ई.पू. 1400 का एक संधि-पत्र पाया गया है जिसमें वैदिक देवताओं- इंद्र, मित्र, वरुण व नासत्य का उल्लेख है। इससे लगता है कि वैदिक आर्यों के वंशज एशिया माइनर में भी रहते थे। इसी प्रकार मिस्र में तेलूअल-अमनों मेें मिट्टी की कुछ तख्तियां मिली हैं जिनमें बेबीलोनिया के कुछ ऐसे शासकों के नाम मिलते हैं जो ईरान और भारत के आर्य शासकों के नामों जैसे हैं। पर्सीपोलस और बेहिस्तून अभिलेखों से ज्ञात होता है कि दारा प्रथम ने सिंधुु नदी की घाटी पर अधिकार कर लिया था। इसी अभिलेख में पहली बार ‘हिद’ शब्द का उल्लेख मिलता है।

अभिलेखों से प्राप्त सूचनाओं की भी एक सीमा होती है। अक्षरों के नष्ट हो जाने या उनके हल्के हो जाने के कारण उन्हें पढ़ पाना मुश्किल होता है। इसके अलावा अभिलेखों के शब्दों के वास्तविक अर्थ का पूर्ण ज्ञान हो पाना सरल नहीं होता। भारतीय अभिलेखों का एक मुख्य दोष उनका अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन भी है। फिर भी अभिलेखों में पाठ-भेद का सर्वथा अभाव है और प्रक्षेप की सम्भावना शून्य के बराबर होती है। वस्तुतः अभिलेखों ने इतिहास-लेखन को एक नया आयाम दिया है जिसके कारण प्राचीन भारत के इतिहास-निर्माण में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है।

पुरातत्व के साधनों में भवन विशेष महत्व के साधन माना जाता है। इतिहास-निर्माण में भारतीय स्थापत्यकारों, वास्तुकारों और चित्रकारों ने अपने हथियार, छेनी, कन्नी, और तूलिका के द्वारा विशेष योगदान दिया है। इनके द्वारा निर्मित प्राचीन इमारतें, मंदिरों, मूर्तियों के अवशेषों से भारत की प्राचीन सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक परिस्थितियों का ज्ञान होता है। खुदाई में मिले महत्त्वपूर्ण अवशेषों में हड़प्पा सभ्यता, पाटलिपुत्र की खुदाई में चंद्र्रगुप्त मौर्य के समय लकड़ी के बने राजप्रसाद के ध्वंसावशेष, कोशांबी की खुदाई से महाराज उदयन के राजप्रसाद एवं घोषिताराम बिहार के अवशेष, अतरंजीखेड़ा में खुदाई से लोहे के प्रयोग के साक्ष्य, पाण्डिचेरी के अरिकामेडु से खुदाई में प्राप्त रोमन मुद्राओं, बर्तनों आदि के अवशेषों से तत्कालीन इतिहास एवं संस्कृति की जानकारी मिलती है। मंदिर-निर्माण की प्रचलित शैलियों में ‘नागर शैली’ उत्तर भारत में प्रचलित थी, जबकि ‘द्रविड़ शैली’ दक्षिण भारत में प्रचलित थी। दक्षिणापथ में निर्मित वे मंदिर जिसमें नागर एवं द्रविड़ दोनों शैलियों का समावेश है, उसे ‘बेसर शैली‘ कहा गया है।

                इसके अलावा एशिया के दक्षिणी भाग में स्थित प्राचीन भारतीय उपनिवेशों से पाये गये स्मारकों से भी भारतीय सभ्यता और संस्कृति के संबंध में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं। जावा का स्मारक बोरोबुदुर, कंबोडिया का अंकोरवाट मंदिर इस दृष्टि से पर्याप्त उपयोगी हैं। मलाया, बाली और बोर्नियो से मिलने वाले कई छोटे स्तूप और स्मारक बृहत्तर भारत में भारतीय संस्कृति के प्रसार के सूचक हैं।

                प्राचीन काल में मूर्तियों का निर्माण कुषाण काल से आरंभ होता है। मौर्य, शुंग, कुषाण, गुप्त शासकों एवं उत्तर गुप्तकाल में निर्मित मूर्तियों के विकास में जन-सामान्य की धार्मिक भावनाओं का विशेष योगदान रहा है। कुषाणकालीन मूर्तियों एवं गुप्तकालीन मूर्तियों में मूलभूत अंतर यह है कि जहाँ कुषाणकालीन मूर्तियों पर विदेशी प्रभाव स्पष्ट है, वहीं गुप्तकालीन मूर्तियाँ स्वाभाविकता से ओत-प्रोत हैं। भरहुत, बोधगया, सांँची और अमरावती में मिली मूर्तियाँ जनसामान्य के जीवन की सजीव झाँकी प्रस्तुत करती हैं।

 राजा-महाराजाओं द्वारा निर्मित उनके आवासीस महल और अन्य उद्देश्यों से निर्मित राजकीय भवन इतिहास की जानकारी देने वाले बहुत महत्व के साधन होते हैं। स्मारक भवन भी अपना विशेष महत्व रखते हैं। प्राचीन भारत के राजाओं के महल और सीमान्त दुर्ग तो समय-चक्र में विनष्ट हो जाने के कारण बहुत ही कम ही प्राप्त हैं। परन्तु मानव की पवित्र आध्यात्मिक भूमि से विभिन्न धर्म सदैव अंकुरित होकर विकसित होते रहे थे। उन धर्मों के देवालय, मंदिर, स्तूप, चैत्य आदि अधिक संख्या में निर्मित हुए हैं, विभिन्न धर्मों के सन्तों और सन्यासियों के लिए आवास स्थल, गुफायें और शालायें भी प्रचुरता से निर्मित की गयी हैं। ये सभी धर्मभवन साधारण न होकर विशिष्ट कलाओं से युक्त हैं, ये स्वयं अपने कालक्रम को बताते हुए अपने समय की कलाओं और संस्कृति एवं सभ्यता का सही ज्ञान प्रदान करते हैं।

मुद्राएँ-

                भारतीय इतिहास अध्ययन में मुद्राओं का महत्त्व कम नहीं है। राजाओं द्वारा किन्हीं विशेष अवसर या किसी विशेष उपलब्धि के स्मारक स्वरूप या किसी अपने इष्ट देवी-देवता की याद में उसके चित्र युक्त धातु के सिक्के चलाये जाते थे। ये सिक्के विभिन्न प्रकार और विभिन्न कालों के भिन्न-भिन्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं। ये सिक्के यथार्थ में इतिहास की अमूल्य जानकारी देते हैं। राजाओं या राजवंशों की धार्मिक एवं सांस्कृतिक अभिरूचियों का जो ज्ञान इनसे प्राप्त होता है, वे जानकारियाँ प्रयोगशालाओं में सिद्ध वैज्ञानिक सूत्रों की भाँति पूर्ण सत्य हैं। भारत के प्राचीनतम् सिक्कों पर अनेक प्रकार के प्रतीक, जैसे- पर्वत, वृक्ष, पक्षी, मानव, पुष्प, ज्यामितीय आकृति आदि अंकित रहते थे। इन्हें ‘आहत मुद्रा’ (पंचमार्क क्वायंस) कहा जाता था। आहत मुद्रओं की प्राकप्त सर्वप्रथम कर्नल कोल्डवेल को 1800ई0 में तमिलनाडु प्रान्त के कोयम्बटूर से हुई। आहत मुद्रा प्रायः आयताकार हैं। आहत मुद्रा की सबसे बड़ी निधि अमरावती से मिली है। इसमें 7668 सिक्के थे। संभवतः इन सिक्कों को राजाओं के साथ व्यापारियों, धनपतियों और नागरिकों ने जारी किया था। सर्वाधिक मुद्राएँ उत्तर मौर्यकाल में मिलती हैं जो प्रधानतः सीसे, पोटीन, ताँबें, काँसेे, चाँदी और सोने की होती हैं। यूनानी शासकों की मुद्राओं पर लेख एवं तिथियां उत्कीर्ण मिलती हैं। शासकों की प्रतिमा और नाम के साथ सबसे पहले सिक्के हिंद-यूनानी शासकों ने जारी किये जो प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास लिखने में विशेष उपयोगी सिद्ध हुए हैं। हिन्द-यवन शासक डेमेट्रियस द्वितीय ने सबसे पहले द्विलिपिय एवं द्विभाषीय सिक्कों का प्रचलन किया। बाद में शकों, कुषाणों और भारतीय राजाओं ने भी यूनानियों के अनुरूप सिक्के चलाये।

सोने के सिक्के सबसे पहले प्रथम शताब्दी ई. में कुषाण राजाओं में विमकडफिसेस ने जारी किये थे। इनके आकार और वजन तत्कालीन रोमन सम्राटों तथा ईरान के पार्थियन शासकों द्वारा जारी सिक्कों के समान थे। उत्तर और मध्य भारत के कई पुरास्थलों से ऐसे सिक्के मिले हैं। सोने के सिक्कों के व्यापक प्रयोग से संकेत मिलता है कि बहुमूल्य वस्तुओं और भारी मात्रा में वस्तुओं का विनिमय किया जाता था। कुषाणों के समय में सर्वाधिक शुद्ध सुवर्ण मुद्राएँ प्रचलन में थीं, पर सर्वाधिक सुवर्ण मुद्राएँ गुप्तकाल में जारी की गईं। कनिष्क की मुद्राओं से यह पता चलता है कि वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था। सातवाहन नरेश सातकर्णि की एक मुद्रा पर जलपोत का चित्र उत्कीर्ण है, जिससे अनुमान किया जाता है कि उसने समुद्र क्षेत्र की विजय की थी। समुद्रगुप्त की कुछ मुद्राओं पर वीणा बजाते हुए दिखाया गया है। चंद्र्रगुप्त द्वितीय की व्याघ्रशैली की मुद्राएँ पश्चिमी भारत उसके शक-विजय का सूचक हैं। प्राचीन भारत में निगमों और श्रेणियों की मुद्राएँ भी अभिलेखांकित होती थीं जिनसे उनके क्रिया-कलापों पर प्रकाश पड़ता है। इसके अलावा, दक्षिण भारत के अनेक पुरास्थलों से बड़ी संख्या में रोमन सिक्के मिले हैं, जिनसे यह स्पष्ट है कि व्यापारिक-तंत्र राजनीतिक सीमाओं से बंधा नहीं था क्योंकि दक्षिण भारत रोमन साम्राज्य के अंतर्गत न होते हुए भी व्यापारिक दृष्टि से रोमन साम्राज्य से जुड़ा हुआ था। पंजाब और हरियाणा के क्षेत्रों में यौधेय (प्रथम शताब्दी ई.) जैसे गणराज्यों ने भी सिक्के जारी किये थे। यौधेयों के सिक्कों को सर्वप्रथम कैप्टन काटले ने उत्तरप्रदेश के सहारनपुर जिले के वेहट नामक स्थान से प्राप्त किया था। जबकि भारत में सर्वाधिक यौधेय सिक्के रोहतक (हरियाणा) से प्राप्त हूआ है। यौधेय शासकों द्वारा जारी ताँबे के हजारों सिक्के मिले हैं, जिनसे यौधेयों की व्यापार में रुचि और सहभागिता परिलक्षित होती है। सातवाहनों ने शीशे के सिक्कों का सवप्रथम प्रचलन किया था।

छठी शताब्दी ई. से सोने के सिक्के मिलने कम हो गये। इस आधार पर कुछ इतिहासकारों का मानना है कि रोमन साम्राज्य के पतन के बाद दूरवर्ती व्यापार में गिरावट आयी। इससे उन राज्यों, समुदायों और क्षेत्रों की संपन्नता पर प्रभाव पड़ा, जिन्हें इस दूरवर्ती व्यापार से लाभ मिलता था।

सील एवं मुहरें-

                प्राचीन काल में विविध उद्देश्यों की पूर्ति हेतु मिट्टी एवं धातुओं की सादी और कभी-कभी चित्रात्मक मुहरें बनायी जाती थीं। भारत की प्राचीनतम मुहरें सिन्धु घाटी से प्राप्त हुई हैं। अपठनीय होने के कारण इसकी उपयोगिता अर्थ शून्य है। सैन्धव पुरास्थलों के उत्खनन से बहुतायत की संख्या में मुहरें प्राप्त हुई हैं। इन पर चित्र बने हुए हैं, जो उस काल की सामाजिक, धार्मिक प्रवृत्तियों की रोचक जानकारी देते हैं। बाद के कालों की मुहरें मिट्टी और धतुओं की अधिक संख्या में प्राप्त हुई हैं। प्रायः इन मुहरों पर राजा, सामन्त, प्रशासनिक पदाधिकारी, गण, निगम, संघ के पदाधिकारी और व्यापारियों के हस्ताक्षर हैं। से मुहरें मिट्टी, ताम्र, कांस्य एवं पत्थर की सहायता से बनायी जाती थीं। राजाओं की मुहरों पर उनके वंश, कुल का परिचय देते हुए वंशावली भी उत्कीर्ण है। ये मुहरें संग्रहालयों में सुरक्षित संगृहीत हैं। गुप्त राजाओं की सील तो बहुत अच्छी प्रकार की प्राप्त है। इनमें कुछ विशेष महत्व की हैं, जैसे- गाविन्द गुप्त की वैषाली मुहर, पुरूगुप्त की भितरी सील, वैन्यगुप्त की नालन्दा मुहर, कुमार गुप्त तृतीय की राजमुद्रा, सम्राट हर्ष वर्धन की नालन्दा तथा सोनपत मुहर तथा भीटा से प्राप्त ‘महासेनापति महादण्डनायक कुमारामात्याधिकरणस्य’ लेख पाली मुहरें इस दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण एवं उपयोगी हैं।

                चित्रकला से भी प्राचीन भारत के जन-जीवन की जानकारी मिलती है। अजन्ता के चित्रों में मानवीय भावनाओं की सुंदर अभिव्यक्ति है। ‘माता और शिशु’ या ‘मरणशील राजकुमारी’ जैसे चित्रों से बौद्ध चित्राकला की कलात्मक पराकाष्ठा का प्रमाण मिलता है। एलोरा गुफाओं के चित्र एवं बाघ की गुफाएं भी चित्रकला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।

उत्खनित सामग्री-

                बस्तियों के स्थलों के उत्खनन से जो अवशेष प्राप्त हुए हैं उनसे प्रागैतिहास और आद्य इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है। आरंभिक मानव-जीवन के विकास के विविध पक्षों का ज्ञान उनकी बस्तियों से प्राप्त पत्थर और हड्डी के औजारों, मिट्टी के बर्तनों, मकानों के खंडहरों से होता है। सोहन घाटी (पाकिस्तान) में पुरापाषाण युग के मिले खुरदुरे पत्थरों के औजारों से अनुमान लगाया गया है कि भारत में आदिमानव ईसा से 4 लाख से 2 लाख वर्ष पूर्व रहता था। 10,000 से 6,000 वर्ष पूर्व के काल में मानव कृषि, पशुपालन और मिट्टी के बर्तन बनाना सीख गया था। कृषि-संबंधी प्रथम साक्ष्य साम्भर (राजस्थान) से पौधा बोने का मिला है, जो ई.पू. 7000 का बताया जाता है। पुरातात्त्विक अवशेषों तथा उत्खनन में प्राप्त मृद्भांडों से संस्कृतियों के विकास-क्रम पर प्रकाश पड़ता है। अवशेषों में प्राप्त मुहरें भी प्राचीन भारत के इतिहास-लेखन में बहुत उपयोगी हैं। मोहनजोदड़ो से प्राप्त लगभग पांँच सौ मुहरों से तत्कालीन धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। आज पुरातत्त्ववेत्ता वैदिक साहित्य, महाभारत और रामायण में उल्लिखित स्थानों का उत्खनन कर तत्कालीन भौतिक संस्कृति का चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं।

गुफायें तो प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत के रूप में बहुत अधिक महत्व रखती है। मानव द्वारा बनायी गयी ये गुफायें जैसे अजन्ता एवं एलोरा की गुफाये ंतो आज के वैज्ञानिकों के लिए चुनौती के रूप में हैं, ऐसी गुफायें अब बनाना असंभव ही है। ये गुफायें स्थापत्य कला, चित्रकला, मूर्तिकला का महान नमूना हैं। अजन्ता की गुफाओं की दीवारों पर निर्मित बौद्धधर्म के प्रवर्तक गौतमबुद्ध के जीवन चरित्र से सम्बन्धित चित्र और जातक कथाओं से सम्बन्धित चित्र यह इतिहास बताते हैं कि ईसा की प्रारम्भिक सात आठ शताब्दियों में भारतीय चित्रकला के विद्वान विश्व में सभी दृष्टियों से चित्रकला में सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखते थे। ऐलोरा की विश्व प्रसिद्ध गुफायें स्थापत्य कला का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इसके अतिरिक्त कैलाश मंदिर तो भव्यता, अलंकरण और मूर्तियों की बहुलता का विश्व में एक अनुपम उदाहरण है। प्राचीन इतिहास के स्रोतों में यथार्थ में गुफायें एक दीर्घकालीन युग की रोचक कहानी बयान करते हुए एक विशिष्ट स्थान रखते हैं।

पौराणिक गाथाएँ- प्राचीन सभ्यता के इतिहास के सम्बन्ध में पौराणिक कथाओं का बहुत महत्व है। यह कथाएँ एक ओर प्राचीन मानव के धार्मिक विश्वासों को प्रकट करती है, तो दूसरी ओर उनसे इन सभ्यता के विभिन्न पक्षों का आभास होता है। सर्वप्रथम मानव उत्पत्ति को लेकर प्रत्येक समाज में किसी न किसी प्रकार की किवदंती रही है, किसी सभ्यता में यह प्रचलित था, कि ईश्वर ने मानव की रचना की, किसी समाज में मानव इस बात पर विश्वास करते थे कि अग्नि देवता ने आग की सहायता से मानव की रचना की, तो किसी अन्य सभ्यता में मानवों का विश्वास था कि ईश्वर ने देवताओं को दंडित करने के लिए मानव को उत्पन्न किया। यद्यपि पौराणिक गाथायें निराधार हंै इनकी वैज्ञानिक मान्यता नहीं है, फिर भी इन गाथाओं से स्पष्ट होता है कि प्राचीन मानव धर्म को कितना अधिक महत्व देते थे। रोमन सभ्यता, भारतीय सभ्यता, यूनानी आदि विभिन्न सभ्यताएँ अपने जन्म से संबन्धित एक गाथा लिये हुए हैं। महान कवि वर्जिल, होमर, व्यास ने अपनी रचनाओं में इन गाथाओं का वर्णन किया है। पुनः प्राचीन धर्म से संबन्धित भी असंख्य गाथाएँ हैं। बेबीलोन, क्रीट, मिस्र आदि सभ्यताओं में ‘ इश्तर देवी’ को प्रजनन देवी मानकर उसकी पूजा की जाती थी।उसके सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार की कहानियाँ प्रचलित थी। उदाहरणस्वरूप बेबीलोन समाज में यह विश्वास किया जाता था कि जिस स्त्री के शरीर को ‘इश्तर देवी’ का प्रतिनिधि भोग लेता, उस स्त्री को पुत्र की प्राप्ति होगी। इसी प्रकार सीरिया के बासी तो ‘इश्तर देवी’ के मन्दिर में जाकर भोग किया करते थे। हिब्रू सभ्यता के लोग यह विश्वास करते थे कि ‘जुढ़ा’ देवता उनकी शत्रुओं से रक्षा करता है, यदि वह प्रसन्न होता तो उनकी रक्षा हो जाती और यदि वह अप्रसन्न होता तो उनकी पराजय हो जाती। इसी प्रकार भारतीय विश्वास करते थे कि जब धर्म संकट में होता, राक्षसों का अत्याचार बढ़ता, तब भगवान अवतार लेकर मानव की रक्षा करता है। भू-लोक के अतिरिक्त परलोक से संबन्धित बहुत सी पौराणिक गाथाएँ तत्कालीन सभ्यताओं में प्रचलित थी। जैसे मिस्रवासी इस बात में विश्वास करते थे कि मरने के उपरान्त व्यक्ति परलोक में भी वैसा ही जीवन व्यतीत करता है, जैसा की भू-लोक में उनका शासक मृत्यु उपरान्त ‘सूर्य देवता’ ‘रे ’ के सचिव के रूप में कार्य करता है। इसी प्रकार मृत्यु के उपरान्त मानव 24 घन्टे में एक बार अपने स्थान को अवश्य देखने आता है। इसी कारण मृतक की कब्र में विभिन्न आवश्यक वस्तुओं को भी रख देते थे। भारतीय जनता विश्वास करती है कि मृत्यु के उपरान्त मानव का पुनः जन्म होता है। राजनैतिक पक्षों से संबन्धित भी विभिन्न पौराणिक गाथाएँ प्राचीन सभ्यताओं में प्रचलित थी। क्रीटवासी विश्वास करते थे कि प्रति नौ वर्ष के उपरान्त उनका शासक भगवान के सम्मुख उपस्थित होकर अपने राज्य से संबन्धित विभिन्न कार्यों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है। यदि देवी उसके कृत्यों से प्रसन्न होती तो उसको पुनः शासन करने का अधिकार प्राप्त होता, अन्यथा देवी उसकी हत्या कर दूसरा शासक नियुक्त करती थी। मिस्र, बेबीलोन और रोम सभ्यताओं के शासक अपने को भगवान का दूत मानते थे और जनता को यह विश्वास दिलाते थे कि वे अपने समस्त कार्यों के लिए जनता के प्रति उत्तरदायी न होकर ईश्वर के प्रति उत्तरदायी होते है, जनता का एक मात्र कत्र्तव्य था उनकी आज्ञाओं एवं आदेशों का पालन करना।

इसी प्रकार सामाजिक क्षेत्रों से संबन्धित भी विभिन्न पौराणिक गाथाओं का प्रचलन था। समस्त सभ्यताओं के समाज में विश्वास किया जाता था कि ईश्वर ने स्त्री को पुरुष की सेवा करने एवं उसको प्रसन्न करने के लिए जन्मा। अतः स्त्री का प्रथम एवं अन्तिम कत्र्तव्य पुरूष अर्थात् पति की सेवा करना एवं उसको प्रसन्न करना। इसी समाज में यह भी विश्वास किया जाता था कि माता के पैरों के नीचे स्वर्ग है। अतः पुत्री को अपनी माता की सेवा करनी चाहिए। इसी प्रकार हम देखते हैं कि समस्त प्राचीन सभ्यताओं में विवाह से पूर्व कन्या अपने पिता माता की संरक्षण में रहती है और विवाह उपरान्त अपनी पति की अधीनता में। इसी प्रकार भारतीय समाज में विश्वास किया जाता था कि यदि नवविवाहित स्त्री के आगमन के उपरान्त उसकी ससुराल में कोई अशुभ घटना घटित होती तो उस स्त्री को अभागिन माना जाता था।

सारांश में समस्त प्राचीन सभ्यताओं में किसी न किसी प्रकार की पौराणिक गाथाएँ प्रचलित थीं, जो राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक आदि विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित थी। इन गाथाओं की यद्यपि आजकल महत्त्व नहीं, फिर भी प्राचीन सभ्यता में इनका महत्व था, यह गाथायें एक ओर मानवों में एकता स्थापित करती थी, तो दूसरी ओर उनके धर्म से भयभीत कराकर उनके उद्दंडी स्वभाव को नियंत्रित कर ‘जियो और जीने दो’ के वातावरण की रचना करती थी। इन्हीं गाथाओं से मानव के मानसिक विकास का ज्ञान होता है कि वे भी आधुनिक मानवों के समान विभिन्न समस्याओं एवं प्रश्नों का उत्तर ढूंढते थे तथा धर्म में उनको इनका उत्तर मिलता था। भले ही आधुनिक समाज को वे उत्तर संतोषप्रद न लगें, परन्तु प्राचीन मानव को संतोष एवं शान्ति प्रदान करते थे। इस प्रकार प्राचीन प्रचलित गाथाओं को प्राचीन मानव के सभ्यता के इतिहास का चित्रण करने में अन्य स्रोतों के समान काफी सहायता करते हैं।

धार्मिक पुस्तकें- प्राचीन सभ्यता के चित्रण में धार्मिक पुस्तकों का भी विशिष्ट महत्व है। यह पुस्तकें यदि यह एक ओर मानव की धार्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती है, उनके धर्मों को निश्चित आधार प्रदान करती हैं तो दूसरी ओर यही पुस्तकें प्राचीन सभ्यता के इतिहास को समझने तथा व्याख्या करने में सहायता करती है। ओल्डटेस्टामेन्ट, न्यूटेस्टामेन्ट, बाइविल, कुरान, हदीस, वेद, पुराण, रामायण, गीता, आदि प्रमुख धार्मिक पुस्तकें हैं, जिनसे सभ्यता के इतिहास की रचना करने में सहायता मिलती है। प्राचीन भारत में धार्मिक साहित्य को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- 1. ब्राह्मण साहित्य, 2. बौद्ध साहित्य और 3. जैन साहित्य।

ब्राह्मण साहित्य-

                ब्राह्मण साहित्य प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकारी के प्रमुख स्रोत हैं। यद्यपि भारत का प्राचीनतम् साहित्य प्रधानतः धर्म-संबंधी ही है, फिर भी ऐसे अनेक ब्राह्मण ग्रंथ हैं जिनके द्वारा प्राचीन भारत की सभ्यता तथा संस्कृति पर प्रकाश पड़ता है। ब्राह्मण साहित्य के अंतर्गत वेद, ब्राह्मण, उपनिषद्, महाकाव्य, पुराण, स्मृतियां आदि आती हैं। वे निम्नलिखित हैं-

वेद- ब्राह्मण साहित्य में सर्वाधिक प्राचीन व महत्त्वपूर्ण ग्रंथ ऋग्वेद है। इस ग्रंथ से प्राचीन आर्यों के धार्मिक सामाजिक एवं आर्थिक जीवन पर अधिक और राजनीतिक जीवन पर अपेक्षाकृत कम प्रकाश पड़ता है। उत्तरवैदिक कालीन (लगभग 1000-600 ई.पू.) आर्यों के संबंध में ज्ञान प्राप्त करने के लिए यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद संहिताओं का उपयोग किया जाता है। यजुर्वेद और सामवेद के अधिकतर मंत्रा ऋग्वेद से ही लिये गये हैं, इसलिए अथर्ववेद अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण है। अथर्ववेद में आर्य-अनार्य संस्कृति के सम्मिश्रण का संकेत मिलता है। वैदिक परंपरा वेदों को अपौरुषेय अर्थात् दैवकृत मानती है जिसके संकलनकर्ता कृष्ण द्वैपायन माने जाते हैं। वेदों से आर्यों के प्रसार, पारस्परिक युद्ध, अनार्यों, दासों और दस्युओं से उनके निरंतर संघर्ष तथा उनके सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक संगठन की जानकारी प्राप्त होती है।

ब्राह्मण ग्रंथ- वैदिक मंत्रों तथा संहिताओं की गद्य-टीकाओं को ब्राह्मण कहा जाता है। सभी वेदों के अलग-अलग ब्राह्मण ग्रंथ हैं जिनकी रचना मूलतः यज्ञों एवं कर्मकांडों के विधान तथा उनकी क्रियाओं को भली-भाँति समझने के लिए की गई थी। इन ब्राह्मण ग्रंथों से उत्तर वैदिककालीन आर्यों के विस्तार और उनके धार्मिक विश्वासों का ज्ञान होता है। प्राचीन ब्राह्मणों में ऐतरेय, शतपथ, पंचविश, तैत्तरीय आदि विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। ऐतरेय ब्राह्मण से राज्याभिषेक तथा अभिषिक्त नृपतियों के नामों की जानकारी मिलती है तो शतपथ ब्राह्मण गांधार, शाल्य, केकय, कुरु, पांचाल, कोशल तथा विदेह के संबंध में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ देता है। राजा परीक्षित की कथा ब्राह्मणों द्वारा ही अधिक स्पष्ट हो सकी है।

आरण्यक- अरण्यों (जंगलों) में निवास करने वाले संन्यासियों के मार्गदर्शन के लिए लिखे गये आरयण्कों में दार्शनिक एवं रहस्यात्मक विषयों यथा- आत्मा, मृत्यु, जीवन आदि का वर्णन किया गया है। अथर्ववेद को छोड़कर अन्य तीनों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद और समावेद) के आरण्यक हैं। आरण्यकों में ऐतरेय आरण्यक, शांखयन आरण्यक, बृहदारण्यक, मैत्रायणी उपनिषद् आरण्यक तथा तवलकार आरण्यक (इसे जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण भी कहते हैं) प्रमुख हैं। ऐतरेय तथा शांखयन ऋग्वेद से, बृहदारण्यक शुक्ल यजुर्वेद से, मैत्रायणी उपनिषद् आरण्यक कृष्ण यजुर्वेद से तथा तवलकार आरण्यक सामवेद से संबद्ध हैं। यद्यपि इन आरण्यक ग्रंथों में विशेषतः प्राण-विद्या की महिमा का प्रतिपादन मिलता है, किंतु इनमें कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी हैं, जैसे- तैत्तिरीय आरण्यक में कुरु, पंचाल, काशी, विदेह आदि महाजनपदों का उल्लेख मिलता है।

उपनिषद्- उपनिषद् भी उत्तर वैदिककालीन रचनाएं हैं जिनसे आर्यों के प्राचीनतम् दार्शनिक विचारों का ज्ञान होता है। उपनिषदों की कुल संख्या 108 बताई जाती है, किंतु ईश, केन, कठ, मांडूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, श्वेताश्वतर, बृहदारण्यक, कौषीतकी, मुंडक, प्रश्न, मैत्रायणी आदि प्रमुख उपनिषद् हैं। उपनिषद् गद्य और पद्य दोनों में हैं, जिसमें प्रश्न, मांडूक्य, केन, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और कौषीतकि उपनिषद् गद्य में हैं तथा ईश, कठ, केन और श्वेताश्वतर उपनिषद् पद्य में हैं। इन ग्रंथों से बिंबिसार के पूर्व के भारत की अवस्था का ज्ञान होता है। उपनिषदों की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा यह है कि जीवन का उद्देश्य मनुष्य की आत्मा का विश्व की आत्मा से मिलना है। उसी से मनुष्य को वास्तविक सुख मिल सकता है। इसको पराविद्या या अध्यात्म-विद्या कहा गया है। इन उपनिषदों से पता चलता है कि आर्यों का दर्शन विश्व के अन्य देशों के दर्शन से सर्वोत्तम तथा अधिक आगे था। भारत का प्रसिद्ध आदर्श वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ मुंडकोपनिषद् से ही लिया गया है।

वेदांग- वैदिक काल के अंत में वेदों के अर्थ को अच्छी तरह समझने के लिए छः वेदांगों की रचना की गई। वेदों के छः अंग हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंदशास्त्रा और ज्योतिष। वैदिक स्वरों का शुद्ध उच्चारण करने के लिए शिक्षाशास्त्रा का निर्माण हुआ। जिन सूत्रों में विधि और नियमों का प्रतिपादन किया गया है, वे कल्पसूत्रा कहलाते हैं। कल्पसूत्रों के चार भाग हैं- श्रौतसूत्र, गृहसूत्र, धर्मसूत्र और शुल्वसूत्र। श्रौतसूत्रों में यज्ञ-संबंधी नियमों का उल्लेख है। गृहसूत्रों में मानव के लौकिक और पारलौकिक कत्र्तव्यों का विवेचन है। धर्मसूत्रों में धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक कत्र्तव्यों का उल्लेख है। यज्ञ, हवन-कुंड, वेदी आदि के निर्माण का उल्लेख शुल्वसूत्र में किया गया है। व्याकरण-ग्रंथों में पाणिनि की अष्टाध्यायी महत्त्वपूर्ण है। ई.पू. की दूसरी शताब्दी में पतंजलि ने अष्टाध्यायी पर महाभाष्य लिखा जिससे पुष्यमित्र शुंग के संबंध में जानकारी प्राप्त होती है। यास्क ने निरुक्त (ई.पू. पांँचवीं शताब्दी) की रचना की, जिसमें वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति का विवेचन है। वेदों में अनेक छंदों का प्रयोग किया गया है जिनसे पता चलता है कि वैदिक काल में ही छंदशास्त्र का विकास हो चुका था। ज्योतिषशास्त्र की भी प्राचीन काल में बड़ी उन्नति हुई।

स्मृतियां- ब्राह्मण ग्रंथों में स्मृतियों का भी ऐतिहासिक महत्त्व है जिनकी रचना सूत्र साहित्य के बाद हुई। इन स्मृतियों से मानव के संपूूर्ण जीवन से संबंधित विधि-निषेधों की जानकारी मिलती है। संभवतः मनुस्मृति (लगभग 200 ई.पू. से 100 ई. के मध्य) एवं याज्ञवल्क्य स्मृति (100 ई. से 300 ई.) सबसे प्राचीन हैं। मेधातिथि, मारूचि, कुल्लूक भट्ट, गोविंदराज आदि टीकाकारों ने मनुस्मृति पर, जबकि विश्वरूप, अपरार्क, विज्ञानेश्वर आदि ने याज्ञवल्क्य स्मृति पर भाष्य लिखे हैं। नारद (300 ई. से 400 ई.) और पराशर (300 ई. से 500 ई.) की स्मृतियों से गुप्तकालीन सामाजिक व धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। बृहस्पति (300 ई. से 500 ई.) और कात्यायन (400 ई. से 600 ई.) की स्मृतियां भी गुप्तकालीन रचनाएं मानी जाती हैं। इसके अलावा गौतम, संवर्त, हरीत, अंगिरा आदि अन्य महत्त्वपूर्ण स्मृतिकार थे, जिनका समय संभवतः 100 ई. से लेकर 600 ई. तक था।

महाकाव्य- वैदिक साहित्य के उत्तर में रामायण और महाभारत नामक दो महाकाव्यों का प्रणयन हुआ। यद्यपि इन दोनों महाकाव्यों के रचनाकाल के विषय में विवाद है, फिर भी कुछ उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर इन महाकाव्यों का रचनाकाल चैथी शती ई.पू. से चैथी शती ई. के मध्य माना जा सकता है। रामायण की रचना महर्षि वाल्मीकि द्वारा पहली एवं दूसरी शताब्दी ई. के दौरान संस्कृत भाषा में की गई। रामायण में मूलतः 6,000 श्लोक थे, जो कालांतर में 12,000 हुए और फिर 24,000। इसे चतुर्विंशति सहस्त्राी संहिता भी कहा गया है। रामायण में वर्णित व्यवसायों और भोजन से लगता है कि इस ग्रंथ में दो विभिन्न सांस्कृतिक स्तरों पर रहने वाले दो प्रमुख मानवीय वर्गों का वर्णन है। इससे उस समय की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है। रामकथा पर आधारित ग्रंथों का अनुवाद सर्वप्रथम भारत से बाहर चीन में किया गया।

                महाभारत महाकाव्य रामायण से बृहद् है। मूल महाभारत का प्रणयनकत्र्ता वेदव्यास को बताया जाता है। इसका रचनाकाल ई.पू. चैथी शताब्दी से चैथी शताब्दी ई. माना जाता है। महाभारत में मूलतः 8,800 श्लोक थे और इसका नाम ‘जयसंहिता’ था। बाद में श्लोकों की संख्या 24,000 होने के पश्चात् यह वैदिक जन ‘भरत’ के वंशजों की कथा होने के कारण ‘भारत’ कहलाया। कालांतर में गुप्तकाल में श्लोकों की संख्या बढ़कर एक लाख होने पर यह शतसहस्री संहिता या महाभारत कहलाया। महाभारत का प्रारम्भिक उल्लेख आश्वलायन गृहसूत्रा में मिलता है। इन महाकाव्यों से उत्तरवैदिक काल में आर्यों के राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जीवन का ज्ञान होता है।

पुराण: प्राचीन भारत के इतिहास-निर्माण में पुराणों की उपयोगिता असन्दिग्ध है। प्राचीन आख्यानों से युक्त ग्रंथ को ‘पुराण’ कहते हैं। इनकी रचना का श्रेय ‘सूत’ लोमहर्षण अथवा उनके पुत्रा उग्रश्रवस या उग्रश्रवा को दिया जाता है। पुराणों की संख्या अठारह बताई गई है जिनमें मार्कण्डेय, ब्रह्मांड, वायु, विष्णु, भागवत और मत्स्य संभवतः प्राचीन माने जाते हैं, शेष बाद की रचनाएं हैं।

                ब्रह्मवैवर्त पुराण में पुराणों के पांँच लक्षण बताये गये हैं- सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरित। सर्ग बीज या आदिसृष्टि है, प्रतिसर्ग प्रलय के बाद की पुनर्सृष्टि को कहते हैं, वंश में देवताओं या ऋषियों के वंश-वृक्षों का वर्णन है, मन्वन्तर में कल्प के महायुगों का वर्णन है। वंशानुचरित पुराणों के वे अंग हैं जिनमें राजवंशों की तालिकाएं दी गई हैं और राजनीतिक अवस्थाओं, कथाओं और घटनाओं का वर्णन है। किंतु वंशानुचरित केवल भविष्य, मत्स्य, वायु, विष्णु, ब्रह्मांड तथा भागवत पुराणों में ही प्राप्त होता है। गरुड़-पुराण में पौरव, इक्ष्वाकु और बार्हद्रथ राजवंशों की तालिका मिलती है, किंतु इनकी तिथि अनिश्चित है।

                पुराणों की भविष्यवाणी शैली में कलियुग के नृपतियों की तालिकाओं के साथ शिशुनाग, नंद, मौर्य, शुंग, कण्व, आंध्र तथा गुप्तवंशों की वंशावलियां भी प्राप्त होती हैं। मौर्य वंश के संबंध में विष्णु पुराण में अधिक उल्लेख मिलते हैं, ठीक इसी प्रकार मत्स्य पुराण में आंध्र वंश का उल्लेख मिलता है। वायु पुराण से गुप्त सम्राटों की शासन-प्रणाली पर प्रकाश पड़ता है। इन पुराणों में शूद्रों और म्लेच्छों की वंशावली भी दी गई है। प्राचीन भारत का सांस्कृतिक इतिहास लिखने के लिए पुराण बहुत उपयोगी हैं। पुराण अपने वर्तमान रूप में संभवतः ईसा की तीसरी और चैथी शताब्दी में लिखे गये।

इस प्रकार ब्राह्मण साहित्य से प्राचीन भारत के सामाजिक तथा सांस्कृतिक इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है किंतु राजनीतिक इतिहास की अपेक्षित जानकारी नहीं मिल पाती है।

ओल्डटेस्टामेन्ट- ओल्डटेस्टामेन्ट नामक ग्रंथ यहूदियों का प्रमुख धार्मिक साहित्य है। इस पुस्तक से यहूदी धर्म से संबन्धित विभिन्न बातों का पता चलता है। इसमें ईश्वरीय दूत अब्राहम, मुसा, इसराइल की भविष्य वाणियाँ, उनकी शिक्षाओं का वर्णन है। धार्मिक साहित्य में तो इस पुस्तक का महत्व है ही साथ ही साथ इतिहास की दृष्टि से भी इसका महत्व है। इसी पुस्तक में मूसा के 10 आदेशों का वर्णन है, जिनमें से एक आदेश यह भी है कि ‘व्यभिचार से अपनी रक्षा करो’। इस आदेश को देखकर तुरन्त इस बात का आभास होता है कि तत्कालीन सभ्यता में व्यभिचार के कीटाणु बुरी तरह से व्याप्त थे, किसी प्रकार की नैतिकता न थी। मूसा ने मानव को शुद्ध करने के लिए, उनको सत्य पथ पर लाने के लिए इस प्रकार का आदेश दिया। पुनः ईसा मसीह के जन्म से कई शताब्दियों पूर्व ईश्वरीय दूत इसराइल ने उनके जन्म की जो भविष्यवाणी की थी, उसका भी वर्णन इसमें किया गया है।

न्यूटेस्टामेन्ट – न्यूटेस्टामेन्ट भी एक धार्मिक पुस्तक है। इसमें ईसाई धर्म से संबन्धित विभिन्न बातों का समावेश है। इस पुस्तक से ज्ञात होता है कि किस प्रकार ईसा मसीह को अपने शत्रुओं का सामना करना पड़ा था, उनके शिष्यों को विशेष कर सेन्ट पीटर को धर्म का प्रचार करते समय किन कष्टों को सहन करना पड़ा था। इसी पुस्तक से ज्ञात होता है कि एक बार सेन्ट पीटर रोम से इतना हतोत्साहित हुआ कि उसने रोम छोड़ देने का निश्चय किया। जब वह रोम से बाहर जा रहा था, तो उसको मार्ग में ईसा मसीह ने दर्शन दिये और कहा, यदि तुम रोम छोड़कर गये, तो मुझको पुनः जन्म लेकर सूली पर चढ़ना पड़ेगा। यदि तुम ऐसा नहीं चाहते हो, तो रोम वापस लौट जाओ।’ अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए पीटर रोम वापस लौट गया।

बाइबिल -बाइबिल ईसाइयों की धार्मिक पुस्तक है। इस पुस्तक से भी इतिहासकारों को बहुत सहायता मिलती है। ईसा मसीह ने मानव से प्रेम करना, सद्व्यवहार करना आदि की शिक्षा दी थी। वैसे तो आज भी इन शिक्षाओं का महत्व है, परन्तु तत्कालीन सभ्यता में इनका विशेष महत्व था। ईसा मसीह ने इस प्रकार की शिक्षा देकर तत्कालीन मानव को बताया कि जब ईश्वर की दृष्टि में समस्त व्यक्ति समान है, अतः धर्म, जाति, वर्ण के आधार पर भेद करना ईश्वरीय आशाओं का उल्लंघन करना उसको नाराज करना होगा। इस शिक्षा का मानवों पर भले ही कोई प्रभाव न पड़ा हो, परन्तु तत्कालीन वासियों ने ईसाई धर्म में अपनी मुक्ति देखी और इस धर्म को अंगीकार किया, क्योंकि यह धर्म सब मानवों को समान मानने की शिक्षा देता है। ईसा मसीह ने कहा कि ‘तलवार का प्रयोग करने वाले का अन्त तलवार से होता है’। अतः मानव को शान्ति से रहना चाहिए। ईश्वरीय दूत ईसा मसीह ने अपने शत्रुओं से भी प्रेम करने की शिक्षा देकर तत्कालीन युद्धों में बन्दी बनाये सैनिकों को दास बनाने की प्रथा की भत्र्सना की। इसी प्रकार बाइबिल में ईसा मसीह की शिक्षाओं का भण्डार है, जिनसे कि मानव को यदि एक ओर मन को शान्ति मिलती तो दूसरी ओर इतिहासकारों को प्राचीन सभ्यता के सम्बन्ध में कुबेर का कोष मिलता।

इस प्रकार उक्त धार्मिक पुस्तकों से प्राचीन मानव की सभ्यता के सम्बन्ध में काफी सहायता मिलती है। इन धार्मिक पुस्तकों से यदि एक ओर राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक पक्षों के सम्बन्ध में पता चलता है, तो दूसरी ओर इन पुस्तकों से तत्कालीन मानव के विभिन्न पक्षों का ज्ञान होता है। धार्मिक पुस्तकों को नजरअंदाज कर यदि कोई इतिहासकार प्राचीन सभ्यता के इतिहास की रचना करना चाहे तो असम्भव होगा और यदि कर भी ले तो यह पूर्ण रचना नहीं मानी जा सकती है। अन्य पुस्तकें- भाषा के विकास के उपरान्त विभिन्न विषयों पर पुस्तकों की रचना प्रत्येक सभ्यता में की गयी। इन पुस्तकों से भी इतिहासकारों को मानव सभ्यता से सम्बन्धित विभिन्न पक्षों का ज्ञान होता है। सुविधा के लिए इन पुस्तकों का सभ्यता के क्रम में लेकर वर्णन किया गया है।

1. मिस्री सभ्यता की पुस्तकें- मिस्री सभ्यता के वासियों ने लेखन कला का ज्ञान होने के पश्चात् पेपरिस रोल पर बहुत सी रचनायें की। ‘दी बुक ऑफ दी डेड,’ ‘काफिन टेक्स्ट’, ‘दी सांग ऑफ दी हारपर’, ‘दि हइम टू दी सून’, ‘दि डॉइलाग विटबिन मेन दि ब्यरी ऑफ लाइफ एण्ड हिज सोल, ‘दी स्टोरी ऑफ दी डूमडूमप्रिंस’ तथा ‘दी स्टोरी ऑफ दी शिप रेविड सेलर’, आदि पुस्तकों को मिस्री सभ्यता में रचना की गयी, जिनसे मिस्री सभ्यता के इतिहास को जानने में सहायता मिलती है।  ‘दी बुक ऑफ दी डेड’ में मिस्री शासकों के साहसिक कार्यों शासन प्रबन्ध की प्रशंसा की गयी है। ‘दी काफिन टेक्स्ट’ में परलोक के सम्बन्ध में बताया गया। ‘दी हइम टू दी सन’ में एटन देवता की प्रशंसा की गयी तथा ‘दी शिप रेविड सैलर’ में एक नाविक की दुर्घटना का वर्णन किया गया है। यद्यपि इन पुस्तकों में अतिशयोक्ति है फिर भी इन आदि विभिन्न पक्षों का ज्ञान होता है। पुस्तकों से तत्कालीन सभ्यता के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक आदि विभिन्न पक्षों का ज्ञान होता है।

2.  बेबीलोनियन सभ्यता की पुस्तकें -बेबीलोनियन सभ्यता से सम्बन्धित पुस्तकों से भी इतिहासकारों को काफी सहायता मिलती है। ‘गिलगामेश महाकाव्य’ से पता चलता है कि एक बार ईश्वर ने क्रोधित होकर सम्पूर्ण मानव जाति को डुबोने का निश्चय किया, परन्तु ईश्वर के इस गुप्त रहस्य का पता गाँव के एक सज्जन पुरुष को लग गया, उसने तुरन्त एक नाव तैयार की ताकि मानव को नष्ट होने से बचाया जा सके। भीषण वर्षा हुई तथा बहुत दिनों के बाद ईश्वर को अपने इस कार्य पर बहुत पछतावा हुआ। उसने उस सज्जन पुरुष से धरती को पुनः बसाने को कहा, ‘गिलगामेश महाकाव्य’ की उक्त घटना से प्रतीत होता है कि बेबीलोनियन सभ्यता के बासी इस बात में विश्वास करते थे कि पृथ्वी की रचना ईश्वर ने की तथा उसको नष्ट करने का एक मात्र अधिकार ईश्वर को ही है। ‘विजडमलिटलेचर’ नामक पुस्तक से बेबीलोनियन समाज में नीतिशास्त्र और आचारशास्त्र की महानता का आभास होता है।

3.  यहूदी सभ्यता की पुस्तकें-यहूदी सभ्यता में अधिकतर पुस्तकें धार्मिक दृष्टिकोण से लिखी गयीं, फिर भी कुछ पुस्तकों से इतिहासकारों को तत्कालीन सभ्यता के सम्बन्ध में पता चलता है। ‘दी बुक ऑफ जेसुआ’ से तत्कालीन इतिहास का ज्ञान होता है। ‘दी बुक ऑफ रेथ’ से उक्त सभ्यता के समय की स्त्रियों की दशा का पता लगता है।  ‘फोरबुक्स ऑफ किंग्स’ में शासकों के कृत्यों का वर्णन किया गया है तथा ‘दी बुक ऑफ जॉब’ में मानव ईश्वर एवं असुर के मध्य संघर्ष का वर्णन किया गया है।

4.  यूनानी सभ्यता की पुस्तकें- यूनानी सभ्यता को यदि ‘पुस्तकों की सभ्यता’ कहा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी। इस सभ्यता के लेखकों ने मानव समाज के प्रत्येक क्षेत्र एवं विषय पर ऐसी पुस्तकों की रचना की जिनका अध्ययन करना आज भी गर्व की बात समझी जाती है। इतिहास, राजनीति शास्त्र, विधिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, चिकित्साशास्त्र आदि विभिन्न विषयों पर इस काल के वासियों ने रचना की और इस प्रकार इतिहासकारों को यूनानी सभ्यता का वर्णन करने में बहुत अधिक सहायता प्रदान की। महान दार्शनिक सुकरात ने, जिसकी शिक्षाओं को कालान्तर में उसके शिष्य प्लेटो ने कलमबद्ध की, अपने देशवासियों को शिक्षा दी कि ‘अपने को जानो’ तथा आत्मा की वाणी के अनुसार कार्य करो। इस शिक्षा से ज्ञात होता है कि तत्कालीन सभ्यता के समाज में अत्याचार एवं निरंकुशता का वातावरण व्याप्त था और इसी वातावरण को समाप्त करने के लिए सुकरात ने उक्त शिक्षा दी। महान दार्शनिक प्लेटो की ‘ रिपब्लिक ’ से राजनीति से सम्बन्धित विभिन्न पक्षों जैसे राज्य, सरकार, संविधान, विधि, स्वतन्त्रता, अधिकार एवं कर्तव्य का ज्ञान होता है। अरस्तु की पुस्तक ‘पोलिटिक्स’ से भी उक्त वर्णित सिद्धान्तों की जानकारी होती है। इरासटोथिन्स नामक भूगोल वेत्ता ने अक्षांश एवं देशान्तर सिद्धान्त की सहायता से विश्व के मानचित की रचना की। आर्कमिडीज ने विज्ञान के क्षेत्र में इस सिद्धान्त को प्रतिपादित किया, ‘जब किसी ठोस वस्तु को द्रव में अंशतः या पूर्णतः डुबोया जाता है तो उसके भार में कुछ कमी आ जाती है और यह कमी उस ठोस वस्तु द्वारा हटाये गये द्रव के बराबर होती है। महाकवि होमर ने इसी समय ‘इलियड’ एवं ‘ओडिसिस या ओडिसी’ नामक महाकाव्यों की रचना की। इन महाकाव्यों में उसने ‘ट्राय’ और ‘स्पार्टा’ युद्ध का मुख्यतः वर्णन किया है। इन महाकायों की महत्ता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि हेनरी शिलमेन नामक जर्मन विद्वान ने इसकी सहायता से क्रीट सभ्यता का पता लगाया और विश्व के इस भ्रम को तोड़ा कि होमर के महाकाव्य काल्पनिक है। हिसोइड ने अपने महाकाव्य ‘वक्र्स एण्ड डेज’ द्वारा अपने देशवासियों की कृषि कार्य को करने का परामर्श दिया।

प्रसिद्ध इतिहासकार ‘हेरोडोटस ’ ने इतिहास पर पुस्तक लिखी जिससे इतिहासकारों को यूनानी सभ्यता से  सम्बन्धित इतिहास का ज्ञान होता है। ‘थोरीडिस’ ने ‘दी ट्रोजनवीमेन’ में स्त्रियों की दशा का वर्णन किया है। इसी प्रकार अन्य बहुत सी पुस्तकें हैं जिनसे प्राचीन यूनानी सभ्यता के इतिहास को जानने में सहायता मिलती है।

5.  रोमन सभ्यता की पुस्तकें-रोमन सभ्यता के सम्बन्धित इतिहास की रचना में भी रोमन पुस्तकों का अत्यधिक महत्व रहा है। सिसरों ने दर्शनशास्त्र में ‘विश्वकोश’ की रचना की  इस पुस्तक में सिसरों ने विभिन्न दर्शन शास्त्रियों की शिक्षाओं एवं विचारों को संकलित किया है। ऐसी मान्यता प्रचलित रही कि मध्य युग में सिसरो के ‘िवश्वकोष’ का अध्ययन किये बिना किसी भी विद्वान को विद्वान नहीं माना जाता था। जूलियस सीजर ने ‘ग्रहयुद्ध’ नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक से उत्तर रोमन प्रान्तों की विभिन्न गतिविधियों का पता चलता है। पुनः ‘ग्रहयुद्ध’ नामक पुस्तक में रोमन सत्ता को लेकर ‘पेट्रेेशियन’ तथा ‘पेलवियन’ के बीच जो संघर्ष चला उसका वर्णन किया गया। ‘लिवी’ नामक इतिहासकार ने ‘रोम का इतिहास’ नामक पुस्तक की रचना की, इस पुस्तक से प्राचीन रोमन इतिहास का ज्ञान होता है, इसी प्रकार टिसीअस की ‘जर्मीनिया’ नामक पुस्तक से जर्मनवासियों के सम्बन्ध में पता लगता है। रोमन महाकवि बर्जिल के महाकाव्य से भी रोमन सभ्यता का ज्ञान होता है।

6.   चीन सभ्यता एवं पुस्तकें- चीनी पुस्तकों से भी तत्कालीन सभ्यता को जानने में एवं उसका चित्रण करने में बहुत सहायता मिलती है। ‘नो जोह’ नामक पुस्तक से ज्ञात होता है कि चीनी सभ्यता में बालकों की शिक्षा उसी समय से आरम्भ होती है जब से बच्चा बोलना आरम्भ करता था एवं शिक्षा तीन चरणों में पूर्ण होती थी। ‘लीची’, ‘चुनची’ और  ‘शुचिग’ आदि पुस्तकों की रचना महान दार्शनिक कम्फ्यूशियस ने की थी। इन पुस्तकों में कन्फ्यूशियस ने चरित्र निर्माण, सामाजिक शान्ति, चीनी राजनैतिक इतिहास तथा भौतिक विज्ञान आदि विषयों के सम्बन्ध में बताया, जिनका अध्ययन कर विद्वानों को प्राचीन चीनी सभ्यता की महानता का ज्ञान होता है। पुनः चिकित्साशास्त्र से सम्बन्धित एक पुस्तक की रचना की गयी, जिसमें कि मानव शरीर के विभिन्न अंगों, उनकी रचना तथा विभिन्न रोगों का वर्णन किया गया है। ‘शीचिंग’ नामक पुस्तक से प्राचीन चीनी इतिहास का ज्ञान होता है।

7.  भारतीय सभ्यता की पुस्तकें- धर्मेतर (लौकिक) साहित्य- धार्मिक साहित्य का उद्देश्य मुख्यतया अपने धर्म के सिद्धांतों का उपदेश देना था, इसलिए उनसे राजनीतिक गतिविधियों पर कम प्रकाश पड़ता है। राजनैतिक इतिहास-संबंधी जानकारी की दृष्टि से धर्मेतर साहित्य अधिक उपयोगी हैं। धर्मेतर साहित्य में पाणिनी का ‘अष्टाध्यायी’ यद्यपि एक व्याकरण-ग्रंथ है, फिर भी इससे मौर्यपूर्व तथा मौर्यकालीन राजनीतिक, सामाजिक व धार्मिक अवस्था पर कुछ प्रकाश पड़ता है। विशाखदत्त के ‘मुद्राराक्षस’, सोमदेव के ‘कथासरित्सागर’ और क्षेमेंद्र्र के ‘बृहत्कथामंजरी’ से मौर्यकालीन कुछ घटनाओं की सूचना मिलती है। कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ के कुछ अध्यायों से मौर्य-शासन के कत्र्तव्य, शासन-व्यवस्था, न्याय आदि अनेक विषयों के संबंध में ज्ञान होता है। कामन्दक के ‘नीतिसार’ (लगभग 400 ई. से 600 ई.) से गुप्तकालीन राज्यतंत्र पर कुछ प्रकाश पड़ता है। सोमदेव सूरि का ‘नीतिवाक्यामृत’ (दसवीं शताब्दी ई. के अंत) अर्थशास्त्र की ही कोटि का ग्रंथ है।

पतंजलि का ‘महाभाष्य’ और कालीदासकृत ‘मालविकाग्निमित्र’ शुंगकालीन इतिहास के प्रमुख स्रोत हैं। मालविकाग्निमित्र में कालिदास ने पुष्यमित्र शुंग के पुत्र अग्निमित्र तथा विदर्भराज की राजकुमारी मालविका की प्रेमकथा का उल्लेख किया है। ज्योतिष ग्रंथ ‘गार्गी संहिता’ में यवनों के आक्रमण का उल्लेख है। कालीदास के ‘रघुवंश’ में संभवतः समुद्रगुप्त के विजय-अभियानों का वर्णन है। सोमदेव के ‘कथासरित्सागर’ और क्षेमेंद्र्र के ‘बृहत्कथामंजरी’ में राजा विक्रमादित्य की कुछ परंपराओं का उल्लेख है। शूद्रक के ‘मृच्छकटिक’ नाटक और दंडी के ‘दशकुमार चरित’ में भी तत्कालीन समाज का चित्राण मिलता है। इसी काल के प्रसिद्ध गणितशाली आर्य भट्ट ने ‘आर्यभट्ट’ नामक पुस्तक की रचना की, जिसमें उसने चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण सम्बन्धी सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया तथा बताया कि पृथ्वी अपने व्यास के चारों ओर घूमती है, दिन और रात क्यों छोटे और बड़े होते है? भिन्न-भिन्न नक्षत्रों और ग्रहों की गति किस प्रकार रही है?

गुप्तोत्तरकाल का इतिहास जानने के प्रमुख साधन राजकवियों द्वारा लिखित अपने संरक्षकों के जीवनचरित और स्थानीय इतिवृत्त हैं। जीवनचरितों में सबसे प्रसिद्ध बाणभट्टकृत ‘हर्षचरित’ में हर्ष की उपलब्धियों का वर्णन है। वाक्पतिराज के ‘गौडवहो’ में कन्नौज नरेश यशोवर्मा की, बिल्हण के ‘विक्रमांकदेवचरित’ में परवर्ती चालुक्य नरेश विक्रमादित्य की और सन्ध्याकर नंदी के ‘रामचरित’ में बंगाल शासक रामपाल की उपलब्धियों का वर्णन है। इसी प्रकार जयसिंह ने ‘कुमारपाल चरित’ में और हेमचंद्र्र ने ‘द्वयाश्रय काव्य’ में गुजरात के शासक कुमारपाल का, परिमल गुप्त (पद्मगुप्त) ने ‘नवसाहसांक चरित’ में परमार वंश का और जयानक ने ‘पृथ्वीराज विजय’ में पृथ्वीराज चैहान की उपलब्धियों का वर्णन किया है। चंद्रवरदाई के ‘पृथ्वीराज रासो’ से चहमान शासक पृथ्वीराज तृतीय के संबंध में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं। इन जीवनचरितों में तत्कालीन राजनीतिक स्थिति का पर्याप्त ज्ञान तो होता है, किंतु इन ग्रंथों में अतिशयोक्ति के कारण इन्हें शुद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं माना जा सकता है।

प्राचीन भारतीय साहित्य में कल्हणकृत ‘राजतरंगिणी’ एकमात्र विशुद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ है। इसमें कल्हण ने कथावाहिक रूप में प्राचीन ऐतिहासिक ग्रंथों, राजाओं का प्रशस्तियों आदि उपलब्ध स्रातों के आधार पर कश्मीर का ऐतिहासिक वृतांत प्रस्तुत किया है। इस ग्रंथ का रचनाकाल 1148-50 ई. माना जा सकता है। इस प्रसिद्ध ग्रंथ में कश्मीर के नरेशों से संबंधित ऐतिहासिक तथ्यों का निष्पक्ष विवरण देने का प्रयास किया गया है। इसमें क्रमबद्धता का पूरी तरह निर्वाह किया गया है, किंतु सातवीं शताब्दी ई. के पूर्व के इतिहास से संबद्ध विवरण पूर्णतया विश्वसनीय नहीं हैं।

सुदूर दक्षिण भारत के जन-जीवन पर ईसा की पहली दो शताब्दियों में लिखे गये संगम साहित्य से स्पष्ट प्रकाश पड़ता है। दक्षिण भारत में भी राजकवियों ने अपने संरक्षकों की उपलब्धियों का वर्णन करने के लिये कुछ जीवनचरित लिखे। ऐसे मुख्य ग्रंथों में ‘नंदिवकलाम्बकम्’, ओट्टक्तूतन का ‘कुलोत्तुंगज-पिललैत्त मिल’, जय गोंडार का ‘कलिंगत्तुंधरणि’, ‘राज-राज-शौलन-उला’ और ‘चोलवंश चरितम्’ प्रमुख हैं।

गुजरात में भी अनेक इतिवृत्त लिखे गये जिनमें ‘रासमाला’, सोमेश्वरकृत ‘कीर्ति कौमुदी’, अरिसिंह का ‘सुकृत संकीर्तन’, मेरुतुंग का ‘प्रबंध चिंतामणि’, राजशेखर का ‘प्रबंध कोेश’, जयसिंह के ‘हमीर मद-मर्दन’ और वस्तुपाल एवं तेजपाल प्रशस्ति, उदयप्रभु की ‘सुकृत कीर्ति कल्लोलिनी’ और बालचंद्र्र का ‘वसंत विलास’ अधिक प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार सिंधु में भी इतिवृत्त मिलते हैं, जिनके आधार पर तेरहवीं शताब्दी के आरंभ में अरबी भाषा में सिंधु का इतिहास लिखा गया। इसका फारसी अनुवाद ‘चचनामा’ उपलब्ध है।

निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि प्राचीन विश्व सभ्यता को जानने में बहुत से स्रोतों से सहायता मिलती है। इनमें से यदि किसी एक स्रोत का अभाव हो, अथवा उसको नजरअंदाज कर तो सभ्यता के इतिहास की रचना करना असम्भव होगा। लिखित स्रोतों का यद्यपि अलिखित स्रोतों की तुलना में अधिक महत्व है, तथापि अलिखित स्रोतों का अपना स्थान है। प्रागैतिहासिक इतिहास तो पूर्णतः अलिखित साक्ष्यों पर आधारित होता है। क्योंकि इस काल के मानव को लेखन कला का ज्ञान नहीं था। हड़प्पा एवं क्रीट से सम्बन्धित सभ्यता के इतिहास की रचना भी इन्हीं अवशेषों के आधार पर  ही किया जाता है। क्योंकि अभी तक इसकी भाषा एवं लिपि को पढ़ा नहीं जा सका है। प्राचीन सभ्यता के इतिहास की रचना करने से भूगर्भशास्त्री, पुरातनशास्त्री एवं मानव-विज्ञान शास्त्रियों का सहयोग प्राप्त करना भी आवश्यक है, पुरातत्वविद् खुदाई द्वारा प्राचीन अवशेषों की खोज करते, भूगर्भशास्त्री उस की आयु बताते तथा मानव-विज्ञानशास्त्री उनका सम्बन्ध विभिन्न प्राचीन जातियों से जोड़ते तथा इनके सिद्धान्तों की आलोचनात्मक अध्ययन कर इतिहासकार इस मानव की सभ्यता का चित्रण करते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *