उड़ीसा में जैन धर्म का प्रचार

प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के ज्ञान के साधन स्वरूप यहाँ की विभिन्न धार्मिक परम्पराओं का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। इन धार्मिक परम्पराओं में मूलतः ब्रlहाण, जैन, एवं बौद्ध परम्परायें प्रमुख हैं। जिनके अनुयायियों ने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन की जटिलताओं को सुगम बनाने के लिए अपने-अपने साहित्य में सच्चे आचारों एवं विचारों का प्रतिपादन किया है। यही प्राचीन परम्पराएं हमारे अतीत की थाती हैं। भारतीय जन-जीवन की भौतिक एवं आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति के साधन स्वरूप इन धार्मिक परम्पराओं का ऐतिहासिक अध्ययन भी आवश्यक है। जैन परम्पराओं का सृजन अति प्राचीन रहा है। बौद्धग्रन्थ दीघनिकाय में निर्ग्रन्थ धर्म के चातुर्याम का उल्लेख है। इस चातुर्याम धर्म का उपदेश महावीर से पूर्व पार्श्वनाथ ने ही दिया था। महावीर स्वामी ने इसी धर्म का अनुकरण किया था और इन चातुर्यामों अर्थात् सत्य, अहिंसा, अचौर्य एवं अपरिग्रह में एक और व्रत अर्थात् ब्रह्मचर्य जोड़कर इस धर्म के अन्तर्गत पांच महाव्रतों के पालन का उपदेश दिया। वैदिक काल में उल्लिखित व्रात्य श्रमण धर्म के प्रारम्भिक रूप थे और जैन धर्म के अनुरूप आचरण करते थे। स्पष्टतः महावीर द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म एवं जैन आचारावली का प्रारम्भ ऋग्वैदिक काल से ही हो गया था, जो वैदिक धर्म के विरोधी ऋषभदेव द्वारा चलाये हुए यति धर्म अथवा मुनिधर्म के रूप में उदित होकर एक के बाद एक करके चौबीसवें तीर्थंकर महावीर के काल तक उन्हीं के द्वारा प्रतिपादित निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय अथवा जैन धर्म के रूप में सामने आया। ‘जैन’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘जिनन्’ अराधना से हुई। ‘जिन्’ शब्द का अर्थ ‘जेता’ होता है जिसे अर्हत् अर्थात् तीर्थंकर कहा जाता है।
उत्तर भारत के काशी एवं बिहार से उद्भूत यह धर्म धीरे-धीरे सम्पूर्ण उत्तर एवं दक्षिण भारत में फैल गया। मौर्यकाल में भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिण भारत की ओर श्रमणों के एक वर्ग के प्रस्थान कर जाने के बाद उत्तर भारत में वाराणसी एवं मथुरा से होते हुए राजस्थान एवं तदनन्तर गुजरात आदि प्रदेशों तक के भूभागों में तथा बिहार एवं बंगाल के मध्य से होते हुए उड़ीसा एवंत मिल देशों तक दिगम्बर जैन धर्म का प्रचार हुआ। उत्तर एवं दक्षिण भारत के प्रसिद्ध नगरों में इस धर्म के प्रचार के लिये राजाओं, महाराजाओं एवं धनिक वर्ग के लोगों ने जैन श्रमणों को अनेक दान दिये, चैत्यों एवं मठों का निर्माण कराया तथा जैन तीर्थंकर की मूर्तियों एवं मंदिर निर्मित कराये।
अत्यन्त प्राचीन काल से ही हम उड़ीसा को भी जैन धर्म के प्रचार का केन्द्र पाते हैं। संभवतः यह धर्म बिहार एवं बंगाल से होते हुए उड़ीसा में प्रविष्ट हुआ होगा। जैन आगम धर्म कल्पसूत्र से ज्ञात होता है कि भगवान महावीर ने जैन धर्म के प्रचार के निमित्त बंगाल के पणिय भूमि में अपना एक वर्ष व्यतीत किया था। आवश्यक नियुक्ति में उल्लेख मिलता है कि महावीर स्वामी ने तोसलि एवं मौसली नामक स्थानों की यात्रा की थी। तोसलि की पहचान आधुनिक उड़ीसा में कटक के समीप स्थिति भू-भाग से की जाती है। इसका समर्थन आचारांगसूत्र’ से होता है जिसके अनुसार भगवान महावीर स्वामी ने पश्चिमी बंगाल एवं दक्षिणी बंगाल वाले भू-भागों तक जाकर अपने धर्म का उपदेश दिया था। इस प्रकार ऐतिहासिक दृष्टि से उड़ीसा में जैन धर्म का प्रवेश राजा नन्दवर्धन के समय में ही हो गया था। व्यवहार भाष्य’ से पता चलता है कि उड़ीसा में तोसलिक नरेश ने जिन् मूर्ति सुरक्षित रखी थी। स्पष्टतया उड़ीसा में जैन धर्म का प्रचार कार्य महावीर स्वामी के काल से ही प्रारम्भ हो गया था। डॉ० काशी प्रसाद जायसवाल ने इस सम्बन्ध में कलिंग शासक खारवेल के हाथी गुम्फा अभिलेख की 14वीं पंक्ति के आधार पर बताया है कि महावीर स्वामी ने स्वयं कलिंग में कुमारी नामक पहाड़ी पर जैन धर्म का उपदेश दिया था
ऐतिहासिक दृष्टि से मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद ही कलिंग एक महत्वपूर्ण राजनीतिक इकाई के रूप में उदित हुआ, इसका प्रमाण हाथीगुम्फा लेख है। इस लेख से ज्ञात होता है कि कलिंग की जिस जिन् मूर्ति को नन्दराजा तिवससत पूर्व कलिंग से मगध ले गया था, उसे खारवेल पुनः अपने देश ले आया। यह अभिलेख अर्हतों एवं सिद्धों के नमस्कार से प्रारम्भ होता है। इससे वहाँ अर्हतों के स्मारक अवशेषों का भी पता चलता है। इस लेख से स्पष्ट होता कि नन्दराजा द्वारा मगध ले जाने वाली जिन् प्रतिमा लगभग चौथी शताब्दी ई०पू० में निर्मित हुई होगी। खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से पता चलता है कि उसने अपनी पत्नी के साथ कुमारी (उदयगिरि) स्थित अर्हतों के अवशेषों पर जैन साधुओं को निवास करने की सुविधा प्रदान की और अनेक स्तम्भों एवं मन्दिरों का निर्माण करवाया। इसके अतिरिक्त इन्हीं पहाड़ियों पर स्थित अनन्तगुम्फा, रानीगुम्फा, एवं गणेशगुम्फा, लगभग 150 ई० पू० से 50 ई० पू० के मध्य निर्मित की गयी थी। अनन्तगुम्फा के प्रत्येक प्रवेशद्वार पर तीन फणों से युक्त दो सर्पों का चित्रण सम्भवत: जैन धर्म के तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ से सम्बद्ध होने का सूचक है। इसी प्रकार रानीगुम्फा एवं गणेशगुम्फाओं में उत्कीर्ण चित्रों को भी पार्श्वनाथ से सम्बन्धित किया जा सकता है। किन्तु इस सम्बन्ध में डॉ० वी० यस० अग्रवाल ने इन दोनों दृश्यों की पहचान वासवदत्ता एवं शकुन्तला के जीवन दृश्यों से की है।
सातवीं शताब्दी में ह्वेनसांग के विवरणों से ज्ञात होता है कि उस समय कलिंग में जैन धर्म प्रचलित था। इसी प्रकार जैन ग्रन्थों में जैन धर्म के केन्द्र के रूप में पुरिय या पुरी का भी उल्लेख मिलता है। पुरी जिले में स्थित यह क्षेत्र जीवंत स्वामी की प्रतिमा के लिए विख्यात था जहाँ अनेक जैन श्रावक भी रहते थे। आवश्यक निर्युक्ति एवं आवश्यक चूर्णी से ज्ञात होता है कि जब वैर स्वामी पुरी पधारे थे, उस समय यहाँ का शासक बौद्ध धर्म का अनुयायी था। किन्तु छठी-सातवीं शताब्दी के बाणसुर लेख से ज्ञात होता है कि उसकी रानी कल्याण देवी ने धार्मिक कार्य के लिए जैन श्रमणों को भूमिदान दी थी।
नौवीं दसवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक उद्योत केसरी के अतिरिक्त अन्य शासकों से संरक्षण न मिलने पर भी उदयगिरि एवं खण्डगिरि की गुफाओं में लोकप्रिय बना रहा। इसकी पुष्टि उड़ीसा के अन्य स्थानों से प्राप्त होने वाली जैन मूर्तियों से होती है। ललाटेन्दु या सिन्धु राजा गुम्फा लेख से पता  चलता है कि उद्योत केसरी ने अपने शासन के पांचवें वर्ष में प्रसिद्ध कुमार पर्वत पर नष्ट तालाबों एवं मन्दिरों का पुननिर्माण करवाकर चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां प्रतिष्ठित करवायीं थीं। उदार सोमस्वामी शासकों के काल में भी मुक्तेश्वर मन्दिर की चहारदीवारी के बाहरी रथिकाओं में तीर्थंकर मूर्तियां उत्कीर्ण की गयीं। जैन धर्म के महान संरक्षक राष्ट्रकूट शासकों के प्रभाव क्षेत्र में आने के फलस्वरूप संभवतः उड़ीसा में जैन निर्माण को काफी प्रोत्साहन प्राप्त हुआ।
जैन धर्म प्रारम्भ से ही व्यापार वाणिज्य को प्रोत्साहित करने वाला रहा जिसकी पुष्टि साहित्यिक साक्ष्यों के अतिरिक्त मथुरा के शुंग एवं कुषाण कालीन जैन अभिलेखों से भी होता है। निशीथचूर्णी में पुरिम (पुरिय अर्थात् पुरी) का उल्लेख एक व्यापारिक केन्द्र के रूप में प्राप्त होता है जिसे जपट्टण कहा गया है कि जहाँ से जल मार्गों द्वारा सामग्रियां ले जायीं जाती थीं।” जैन ग्रन्थों में उड़ीसा में स्थित कांचनपुर का उल्लेख है जो व्यापार वाणिज्य का एक प्रमुख केन्द्र था। जहाँ से लंका का व्यापार होता था। अतः स्पष्ट है कि उड़ीसा जैन श्रावकों का भी केन्द्र रहा होगा। इसी प्रकार उड़ीसा में जैन धर्म के प्रचार प्रमाण स्वरूप उदयगिरि एवं खण्डगिरि की गुफाओं के अतिरिक्त जयपुर, नन्दनपुर और कारपत जिले के भैरव सिंहपुर जैसे स्थलों से भी जैन मूर्तियां प्राप्त होती हैं। इसके अतिरिक्त मयूरभंज, बलसार, कटक आदि जिलों के विभिन्न स्थलों से भी जैन मूर्तियां प्राप्त होती हैं। कटक जिले के जजपुर स्थित अखण्डलेश्वर मन्दिर एवं मैत्रक मन्दिर के समूहों में भी जैन मूर्तियां सुरक्षित हैं जिससे पता चलता है कि उड़ीसा के अन्य अनेक स्थानों पर जैन धर्म काफी लोकप्रिय हो गया था।
उड़ीसा में दिगम्बर सम्प्रदाय काफी लोकप्रिय रहा। जिसकी पुष्टि उड़ीसा के विभिन्न स्थानों से प्राप्त तीर्थकरों की नग्न मूर्तियों से होती है। यहाँ पर पार्श्वनाथ, ऋषभनाथ, तथा महावीर स्वामी की ही प्रतिमाएं मुख्य रूप से प्राप्त होती हैं। इनमें भी सबसे अधिक लोकप्रिय प्रतिमा पार्श्वनाथ की है। अतः हम कह सकते हैं कि उड़ीसा में जैन धर्म पार्श्वनाथ के काल से लेकर आठवीं-बारहवीं शताब्दी तक लोकप्रिय रहा।
भारतीय धर्म ने समाज और कुटुम्ब का एकता की प्रत्यक्ष योजनाएं प्रस्तुत की हैं। सारे भारत की राष्ट्रीय एकता अप्रत्यक्ष रूप से धर्म ने संभव की है। भारत वासियों के लिए भारत के कोने-कोने में तीर्थ स्थान, पुण्यप्रद नदियां और धार्मिक क्षेत्रों की योजना देश की एकता के लिए हुई।


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