चन्देलों की उत्त्पति-भाग १ (ORIGIN OF CHANDEL)

चन्देल भाग १

महाराज हर्ष को मृत्यु के पश्चात् रुधौज में महान राज्य सन्ति हुई। अर्जुन’ यशो- नत ने एक के बाद एक की सिहासन के लिए अपनी भाग्य-परोक्षा की. किन्तु समय उसके अनुकूल था और उन्हें मिली। इन्दाष के निर्बल शासन ने अनेक पड़ोसी नरेशों को कोज को हस्तमाल करने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके लिए कतीज सरेशों राष्ट्रों तथा पाल राजाओं का एक पक्षीय संघर्ष प्रारम्भ हुआ। इन युद्धों के कारण ढाबे में बड़ी अशान्ति रहो और प्रतिहार नरेश नागभट्ट द्वितीय ने इस स्थिति का लाभ उठाकर चन्यच को पराजित करके कमीज को अपने राज्य में मिला लिया। किन्तु शान्ति तब भी स्थापित हुई। बंगाल ने अपने के वैर शोधन के लिए नागभट्ट पर कम कर दिया। पर उसे न मिली और मुद्रिर (मुंगेर) के युद्ध में उसे पति होना पड़ा। राष्ट्रकूट नरेश तथा तृतीय ने भी कज राजनीति में भाग दिया और चकाता को पराजित किया किन्तु गृहकलह के कारण उन्हें दक्षिण जाना पड़ा। गोविन्द तृतीय के बाद उनका पुत्र अमोष वर्ष सन् ८१४ ई० में राष्ट्र- सिहासन पर बैठा। पर उसके शासन में भी गृह शान्त न हुआ। इन परिस्थितियों के नाम को अपनी स्थिति संभालने का अवसर मिल गया। उसने अपनी शक्ति संगठित करके (उत्तरी काठियावाड़) (पूर्वी राजपूताना किरात (हिमालय प्रदेश), रुक (भारत के अरव निवासी) तथा कोपशाम्बी के एस नरेशों को युद्ध में पराजित किया। किन्तु उसका उत्तराधिकारी रामभद्र एक था। अतः उसके शासन काल मे अथवा नागभट्ट के ही अन्तिम दिनों मे बन्ने भन्८३१ ई० में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।

देशक

हेम्बलों कथा के आधार पर इस वंश के कमाल चन्द्र के पुत्र चन्द्रवमा थे, जिनके रोचकों का वर्णन चन्दबरदाई के राम्रो तथा जनभूतियों में है। भगवान् चन्द्र ने स्वयं प्रकट होकर अपने पोडशवर्षीय पुत्र चन्द्रवर्मा को पारस पत्थर प्रदान कर राजनीति की शिक्षा दी। अपनी माता के अपयश को दूर करने के लिए खजुराहो महायज्ञ की पूर्णाहुति के बाद कालिंजर दुर्ग का निर्माण करके चन्द्रवर्मा ने अपने लिए एक राज्य की स्थापना की। उसने अनेक पुढ किये और अनेक राजाओं को पराजित किया। रोम तथा सीलोन (लंका) के राजा उसके करद थे। महाकवि चन्द ने भी अपने रासो में लिखा है कि १२ घंटे से कुछ ही अधिक में वह सिहोरा तथा गहौरा प्रान्तों को जीत कर असंख्य घोडे, गाय व बैल लूट कर कालिंजर वापस गया।

किन्तु चन्द्रवर्मा की ऐतिहासिकता संदिग्ध है, क्योंकि किसी भी चन्देल मिळाले अथवा ताम्रपत्र में उसका निर्देश नहीं है। यदि वह वास्तव में इस वंश का प्रवर्तक होता और उसके कार्य ऐसे महान होते, जिनका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है; तो प्रशस्तिकार उसका वर्णन अपने अभिलेखों में अवश्य करते । चन्देल शिलालेखों के आधार पर इस वंश का उद्भव महर्षि अत्रि से माना जाता है। अनेक खजुराहो शिलालेखों में महर्षि अत्रि के पुत्र चन्द्र अथवा चन्द्रात्रेय को इस वंश का आदि पुरुष मानकर उनकी बड़ी प्रशंसा की गई है। महाराज बंगदेव के खजुराहो शिलालेख वर्णित चन्द्र की प्रशंसा राम्रो तथा जनश्रुतियों के चन्द्र के तुल्य ही है, किन्तु ये दोनों चन्द्र एक ही है; यह बात ऐतिहासिकता से परे है। महर्षि अत्रि तथा उनके पुत्र चन्द्रात्रेय वैदिक युगीन थे, अस्तु, चन्देलों से उनका सीधा संबंध असंभव है। इसके अतिरिक्त कुछ चन्देल लेखों में इस वंश के आदि पुरुष चन्द्र का वर्णन रजनीपति’ के रूप में किया गया है, महर्षि अत्रि के पुत्र के रूप में नहीं।

हेमवती के पुत्र चन्द्रवर्मा को ऐतिहासिक पुरुष मानने में पुनः एक कठिनाई उपस्थित होती है। उसकी सुदूर विजय तथा रोम और सीलोन (लका) नरेशों का उसका करद होना, उसके स्वयं के व्यक्तित्व को संदिग्ध बना देता है। यदि यह मान लिया जाय कि चन्द्रवर्मा ने चन्देल- वंशीय प्रथम नरेश नन्नुक से कुछ पीढ़ियों पूर्व राज्य किया, तो हेमवती कथा में वर्णित चन्द्र-प्रशंसा व्यर्थ हो जाती है, क्योंकि उस समय महाराज यशोवर्मा और उनके पूर्व सम्राट् हर्ष का शासन समस्त उत्तर भारत में था। इसके अतिरिक्त किसी भी भारतीय नरेश ने रोम तथा सीलोन नरेश को अपना करद नहीं बनाया।

डॉ. हेमचन्द रे ने चन्द्रवर्मा को महाराज ननुक का विरुद सूचक शब्द माना है और चन्देल अभिलेखों के आधार पर यह मत उचित प्रतीत होता है। खजुराहो शिलालेख में यह वर्णन है कि नक ने दिग्वधू आननों को अपने पराक्रम रूपी चन्दन से विभूषित किया और उसके सभी शत्रु उसके अभूतपूर्वं पराक्रम के समक्ष नत मस्तक थे।”

१. मनुक (सन् ८३१-८५०६०)

की तिथि

लों में इस निर्देश नहीं मिता कि कमेंट में एक नए राजवंश की स्थापना की राह जैन मंदिर है९५४ ई० में महाराज मंगदेव शासन करते थे।’ उनका शासन सन् १००२६०, एक अन्य खजुराहो द्वारा प्रतीत होता है। इन दोना तिथियों के आधार पर जारी धारणा है कि अंगदेव सन् १५० ६० के लगभग सिहासनासीन हुए। अंगदेव श्री नीड़ी में पैदा हुए थे। कनियम ने अनेक उदाहरणों के आधार पर यह नया है कि भारतीय औसत पीड़ी २० से ३० वर्ष तक होती है। अस्तु सन् ८०० ई० से २० वर्ष पूर्व अथवा ३० वर्ष पश्चात् सिंहासनासीन हुआ होगा। साधारणतया जाता है कि न सन ८३० ई० के लगभग सिंहासना हुआ। न पहिले प्रतिहारों का किन्तु राम ८३० ई० के लगभग नागभट्ट द्वितीय की मृत्यु के उपरान्त उत्तरी भारतका बड़ा ही था और प्रतिहार राज्य पतनोन्मुख हो रहा था। इस परिस्थिति से म उठाकर नक ने उस समय चन्देल राज्य की स्थापना की। जैसा कि ऊपर विवेचन किया गया है, उसने लगभग २० वर्ष तक शासन किया। इस भांति उसका राज्य से ८५० ई० तक रहा।

चरित्र

बुन्देलखण्ड की राजनीति में नशुक के पदार्पण से राजपूत इतिहास में एक सूत्रपात हुआ। यह कन्नौज के प्रतिहार नरेश नागभट्ट द्वितीय का सामन्त था। नामको मृत्यु के बाद उसके पुत्र रामभद्र के निर्बल शासनकाल में नशुक ने विद्रोह का झंडा गाड़ कर एक राज्य स्थापित किया। सम्भवतः उसी समय उसने ‘नृपति’ तथा ‘महिपति’ को उपाधियों की। चंदेल वंशीय-लेखों में उसका उल्लेख राजाज्ञा रूपी स्वर्ण की मोटी के रूप में हुआ है।” अस्तु, प्रतीत ऐसा होता है कि प्रतिहार नरेश नागभट्ट द्वितीयको मृत्यु के उपरान्त उ निर्वल उत्तराधिकारी की राजाज्ञा रूपी सुवर्ण में उसने कोई मूल्य न देखा तब शासन अपने हाथ में लेकर वह स्वतंत्र हो गया।

१. मनुक (सन् ८३१-८५०६०)

की तिथि

लों में इस निर्देश नहीं मिता कि कमेंट में एक नए राजवंश की स्थापना की राह जैन मंदिर है९५४ ई० में महाराज मंगदेव शासन करते थे।’ उनका शासन सन् १००२६०, एक अन्य खजुराहो द्वारा प्रतीत होता है। इन दोना तिथियों के आधार पर जारी धारणा है कि अंगदेव सन् १५० ६० के लगभग सिहासनासीन हुए। अंगदेव श्री नीड़ी में पैदा हुए थे। कनियम ने अनेक उदाहरणों के आधार पर यह नया है कि भारतीय औसत पीड़ी २० से ३० वर्ष तक होती है। अस्तु सन् ८०० ई० से २० वर्ष पूर्व अथवा ३० वर्ष पश्चात् सिंहासनासीन हुआ होगा। साधारणतया जाता है कि न सन ८३० ई० के लगभग सिंहासना हुआ। न पहिले प्रतिहारों का किन्तु राम ८३० ई० के लगभग नागभट्ट द्वितीय की मृत्यु के उपरान्त उत्तरी भारत का बड़ा ही था और प्रतिहार राज्य पतनोन्मुख हो रहा था। इस परिस्थिति से म उठाकर नक ने उस समय चन्देल राज्य की स्थापना की। जैसा कि ऊपर विवेचन किया गया है, उसने लगभग २० वर्ष तक शासन किया। इस भांति उसका राज्य से ८५० ई० तक रहा।

चरित्र

बुन्देलखण्ड की राजनीति में नशुक के पदार्पण से राजपूत इतिहास में एक सूत्रपात हुआ। यह कन्नौज के प्रतिहार नरेश नागभट्ट द्वितीय का सामन्त था। नामको मृत्यु के बाद उसके पुत्र रामभद्र के निर्बल शासनकाल में नशुक ने विद्रोह का झंडा गाड़ कर एक राज्य स्थापित किया। सम्भवतः उसी समय उसने ‘नृपति’ तथा ‘महिपति’ को उपाधियों की। चंदेल वंशीय-लेखों में उसका उल्लेख राजाज्ञा रूपी स्वर्ण की मोटी के रूप में हुआ है।” अस्तु, प्रतीत ऐसा होता है कि प्रतिहार नरेश नागभट्ट द्वितीयको मृत्यु के उपरान्त उ निर्वल उत्तराधिकारी की राजाज्ञा रूपी सुवर्ण में उसने कोई मूल्य न देखा तब शासन अपने हाथ में लेकर वह स्वतंत्र हो गया।

उसका राज्य खजुराहो, महोबा और इनके निकटवर्ती प्रदेश तक ही सीमित था तथा बुन्देलखण्ड का अधिकांश भाग कलचुरि राज्य में सम्मिलित था।’ नचुक अपने नव-निर्मित राज्य का उपभोग बहुत दिनों तक न कर सका। रामभद्र के उत्तराधिकारी मिहिरभोज ने लगभग ८३६ ई० में सिंहासनासीन होने पर प्रतिहार राज्य की बिखरी हुई शक्ति का संगठन करके नाग- भट्ट द्वारा प्रदत्त दान-पत्रों को पुनर्जीवित किया। मिहिरभोज ने नक को भी अछूता नहीं छोड़ा नक को अपनी शक्ति पिपासा का परित्याग करके मिहिरभोज के सामन्त पद से ही संतोष करना पड़ा।

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