चोल शासक कुलोत्तुंग प्रथम(Chola ruler Kulottung I)

कुलोत्तुग प्रथम के सिहासनारोहण से चोल राजवंश में एक नवयुग का शुभारंभ हुआ। शताब्दियों से जो वेंगी मण्डल स्पष्ट रूप से चोलों के अधीन था अब अपने ही शासक द्वारा शासित चोल साम्राज्य का अभिन्न अंग बन गया। वेंगी में कुलोत्तुंग के ही पुत्र एवं पौत्रों ने शासन किया। कुलोत्तुंग ने साम्राज्यवादी नीति का परित्याग कर आंतरिक शांति एवं सुव्यवस्था पर अधिक ध्यान दिया। इसने चोल साम्राज्य को उस नीति पर आधारित किया जिसमें जनता ने सुखद वातावरण में निवास किया।

प्रारंभिक युद्ध- सिंहासनारोहण के पूर्व ही इसने चित्रकूट के नागवंशी शासक एवं कुन्तल नरेश को पराजित कर विरुदराजभयंकर की उपाधि धारण की थी। वीर राजेन्द्र की मृत्यु के पश्चात् अधिराजेन्द्र की हत्या के कारण चोल साम्राज्य में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। कलिंगत्तुपरणि के अनुसार वैदिक क्रियाओं का ह्रास, जातियों का सम्मिश्रण, देवालयों पर अत्याचार, महिलाओं के स्त्रीत्व का विनाश तथा चतुर्दिक कलि का प्रभाव व्याप्त हो रहा था। इसी अंतराल में वैदिक मंत्रों का उच्चारण करते हुए तीन लोक के रक्षक अभय (कुलोत्तुंग प्रथम) का उदय हुआ। इससे यह प्रतिध्वनित होता है कि कुलोत्तुंग प्रथम के सिंहासनारोहण के पूर्व कोई क्रांति अवश्य हुई थी। इसीलिए इसके सिहासनारोहण का किसी ने विरोध नहीं किया। अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए कुलोत्तुंग ने सर्वप्रथम व्याप्त अराजकता से प्रजा को मुक्त किया। फलतः चोल राजगद्दी पर कुलोतुंग के आसीन होने से वेंगी और गंगैकोण्डचोलपुरम् की दो राजधानियों से शासित होने वाली पूर्वी चालुक्य और चोलों के दोनों राज्य एकीकृत सत्ता के भीतर आ गये।

चालुक्यों से युद्ध (विक्रमादित्य षष्ठ)- वेंगी मण्डल चोलों के प्रत्यक्ष शासन में आने के कारण विक्रमादित्य षष्ठ प्रबलतम शत्रु के रूप में सामने आया। इसने कुलोत्तुंग प्रथम के सिंहासनारोहण का विरोध किया तथा इसके विरुद्ध अभियान भी किया। विक्रमांकदेवचरित के अनुसार अधिराजेन्द्र की हत्या के पश्चात् राजिंग (कुलोत्तुंग प्रथम) चोल सिंहासन पर आसीन हुआ। कुलोत्तुंग प्रथम ने सोमेश्वर द्वितीय के साथ संघ का निर्माण किया। एक ही साथ दोनों ने विक्रमादित्य षष्ठ को आक्रांत किया किन्तु असफल रहे। इस संघर्ष में कदम्ब, होयसल, यादव तथा पांड्यों ने विक्रमादित्य का समर्थन किया। बिल्हण के अनुसार भयंकर युद्ध के पश्चात् द्रविड़ नरेश पराजित हुए तथा सोमेश्वर द्वितीयबंदी बनाया गया।

चोल लेखों में इस युद्ध का दूसरा ही रूप मिलता है। इसके अनुसार, ‘प्रारम्भ में चालुक्य शासक चोल राज्य की ओर बढ़ता हुआ कोलार जिले तक पहुँच गया। यहाँ चोलों से उसकी भिड़न्त हुई। चोल सेना ने विक्रमादित्य षष्ठ को तुंगभद्रा नदी तक खदेड़ दिया। दोनों में पुनः भीषण युद्ध हुआ। कुलोतुंग प्रथम का गंगमण्डलम् एवं शिंगणम् पर अधिकार हो गया तथा लूट में बहुत-सी सम्पत्ति एवं हाथी मिले।’ इस प्रकार जहाँ बिल्हण कुलोतुंग प्रथम की पराजय का उल्लेख करता है, वहीं चोल लेखों में इसे सफलता का श्रेय दिया गया है। चोल लेखों के अनुसार कुलोत्तुंग के अनुसार कुलोत्तुंग प्रथम ने नंगिलि से लेकर तुंगभद्रा तक की भूमि को शव से आवृत कर दिया। गंगमण्डलम एवं शिंगणम को अधिकृत कर विक्कलान (विक्रमादित्य षष्ठ) को प्रत्यावर्तन के लिए बाध्य किया।

आभिलेखिक साक्ष्यों से यह विदित होता है कि विक्रमादित्य षष्ठ ने ही अभियान प्रारंभ किया तथा मैसूर के कोलार जिले में चोलों से संघर्ष हुआ। चोल सेना ने तुंगभद्रा तक चालुक्यों का पीछा किया। विक्रमाशीलनाउला के अनुसार कुलोत्तुंग ने पश्चिमी तट पर कोंकण एवं कन्नड़ देशों को भी अधिकृत किया।

इसी समय विक्रमादित्य षष्ठ के अनुज जयसिंह ने विक्रमादित्य के विरुद्ध शत्रुओं का समर्थन किया तथा विद्रोह प्रारंभ किया। कुलोत्तुंग प्रथम का इस विद्रोह में क्या योगदान था? निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।

वेंगी पर कलचुरियों का आक्रमण वेंगी- जिस समय कुलोत्तुंग दक्षिण के अभियान में व्यस्त था उसी समय वेंगी पर त्रिपुरी के कलचुरि नरेश यशः कर्णदेव ने आक्रमण किया किन्तु कुलोत्तुंग उसके अभियान को विफल कर दिया। वी.वी. मिराशी के अनुसार इसमें यशः कर्णदेव को रत्नपुर के जाजल्लदेव से भी सहायता मिली थी, क्योंकि उसने रत्नपुर के लेख में चेदि शासक के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध का उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि वेंगी पर कलचुरियों का प्रभाव स्थापित न हो सका और कुलोतुंग ने इसे विफल कर दिया।

सिंहल का स्वतन्त्र होना- कुलोतुंग के चोल राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित होने के समय तक श्रीलंका में चोल प्रभुत्व समाप्त हो गया था। श्रीलंका के राजकुमार कित्ति ने रोहण क्षेत्र को चोलों के आधिपत्य से मुक्त कर दिया। 1070 ई. के लगभग विजयबाहु ने पोलोन्नरूवा पर अधिकार कर लिया और 1073 ई. में उसने सिंहल के स्वतन्त्र शासक के रूप में अपना अभिषेक कराया। महावंश के अनुसार विजयबाहु ने अपने शासन के 15वें वर्ष में अनुराधापुर में प्रवेश किया अर्थात इसे अपने अधीन कर लिया। विजयबाहु के दूतों का चोलों द्वारा अपना और इसके प्रतिशोध में कुलोतुंग के दूतों के साथ श्रीलंका के शासक के दुर्व्यवहार के परिणाम स्वरूप बाद में दोनों राजाओं के बीच हुए युद्ध आदि से सम्बन्धित महावंश का विवरण अतिशयोक्ति पूर्ण है। 1088 ई. में कुलोतुंग ने अपनी पुत्री सुत्तमल्लियार का विवाह सिंहल के राजकुमार वीरप्पेरुमाल के साथ कर दिया। इस प्रकार दोनों के मध्य शत्रुता समाप्त हो गयी।

पाण्डयों से युद्ध- सिंहल की स्वाधीनता से प्रोत्साहित होकर पाडयों ने भी विद्रोह करना प्रारंभ किया। इन्हें नियंत्रित करने के लिए कुलोत्तुंग ने पूरी शक्ति लगा दी। कुलोतुंगशोलन तथा पिड्डयैतमिड् जैसे ग्रन्थों से इन उपद्रवों से सम्बद्ध अनेक युद्धों के विवरण प्राप्त होते हैं। पाँचवें वर्ष के एक लेख में एक पांडय शासक के सिरत्छेदन का उल्लेख प्राप्त होता है। 11वें वर्ष के लेखों से इन घटनाओं का वास्तविक विवरण उपलब्ध होने लगता है। चिदम्बरम के एक तिथिहीन संस्कृत लेख से ज्ञात होता है कि कुलोत्तुंग ने पंचपांडयों को पराजित कर कोहारू के दुर्ग को भस्मीभूत किया। तमिल लेखों के अनुसार वन में छिपे हुए पंचपांडयों को पराजित कर उनसे सह्याद्रि तक के भूभाग को छीन लिया। विक्रमशीलनउला के अनुसार कुलोत्तुंग ने दो बार पांडयों तथा केरलों को पराजित किया। कलिंगत्तुपरणि से यह ज्ञात होता है कि पांडयों एवं चेरों को पराजित कर विलिनम तथा शोले को अधिकृत किया। कुलोत्तुंग ने पांडय क्षेत्र से इसके लेख भी अत्यल्प प्राप्त हुए हैं।

इस विजय के लगभग 15 वर्षों पश्चात् दक्षिण में एक क्रांति हुई जिसे सेनापति नरलोकबीर ने नियंत्रित किया।

सिंहल से पुनःयुद्ध- सिंहल में चोलों की पराजय के प्रतिशोध के लिए कुलोत्तुंग ने पुनरभियान की योजना बनाई। महावंश के अनुसार चोल शासक ने सिंहल में एक दूत भेजा। विजयबाहु ने इस दूत के साथ बहुमूल्य उपहारों सहित एक सिंहली दूत भी भेजा। चोलों ने इस दूत को अपमानित कर वापस किया। फलतः विजयबाहु ने चोल दूतों को स्त्री वेश में वापस कर युद्ध के लिए प्रस्थान किया। महातित्थ से विजयबाहु ने दो सेनापतियों को चोल राज्य पर आक्रमण करने के लिए भेजा किन्तु इसी समय सिंहली सेना में क्रांति हुई। दोनों सेनापतियों का वध कर दिया गया तथा विजयबाहु की छोटी बहन को उसके तीन पुत्रों के साथ बंदी बनाया गया। विजयबाहु ने दक्षिण में शरण ली। युवराज वीरबहादुर ने क्रांति का दमन किया तथा समुद्रतट पर चोल सेना की प्रतीक्षा की। कुलोत्तुंग आक्रमण की योजना का परित्याग कर आंतरिक संगठन में ही व्यस्त रहा। इस प्रकार सिंहल पुनः चोलों के प्रभाव से मुक्त रहा।

वेंगी- वेंगी मण्डल में विजयादित्य सप्तम की मृत्यु के पश्चात् 1076 ई. के लगभग इसने अपने पुत्र राजराज मुम्मड़ी चोल को शासक नियुक्त किया। एक वर्ष के पश्चात् उसका अनुज वीर चोल वेंगी का शासक नियुक्त हुआ जो 1084 ई. में अपने पिता कुलोत्तुंग द्वारा राजधानी बुला लिया गया। तदुपरांत चोल गंग ने वेंगी पर शासन किया। 1088-89 ई. में पुनः वीर चोल वेंगी का शासक नियुक्त हुआ। 1092-93 ई. के लगभग विक्रमचोल वेंगी का शासक हुआ जिसने 1118 ई. में युवराज नियुक्त होने के समय तक शासन किया।

उत्तरी अभियान- वेंगी में विक्रमचोल के शासक नियुक्त होने के पश्चात् चोलों ने कलिंग पर दो अभियान किया।

प्रथम कलिंग युद्ध- कुलोत्तुंग के 26वें शासन वर्ष के लेखों से ज्ञात होता है कि संभवतः वेंगी पर कलिंग ने ही आक्रमण किया था। कोलनु तथा कलिंग के शासकों ने सम्मिलित रूप से विक्रमचोल को आक्रांत किया। पांडय शासक परांतक ने विक्रमचोल की सहायता की। गोदावरी एवं महेन्द्र के मध्य दक्षिण कलिंग पहले से ही चोल के अधीन था। संभव है कलिंग नरेश ने अधीनस्थ वेंगी के शासकों के साथ मिल कर विक्रमचोल के विरुद्ध किसी षडयंत्र की रचना की थी। सिंहस्थलम दाक्षाराम से उपलब्ध लेखों के अनुसार विक्रमचोल ने इस विद्रोह का पूर्णतः दमन किया।

द्वितीय कलिंग अभियान-1110 ई. के लगभग कलिंग पर चोलों का पुनरभियान हुआ। चोल लेखों के अनुसार चोल सेना ने वेंगी पार कर जब कलिंग में प्रवेश किया तो कलिंग नरेश ने हस्ति सेना द्वारा अवरोध उत्पन्न किया। अनेक कलिंग-सेनापतियों का वध कर सप्तकलिंग को अधिकृत किया। कलिगत्तुपरणि के अनुसार कलिंग के शासक ने दो वर्षों से वार्षिक कर नहीं दिया था फलतः पल्लव प्रमुख करुणाकर तोण्डेमान के नेतृत्व में एक सेना कुलोत्तुंग ने कलिंग भेजा। कांची से पालार, पेन्नार, मण्णारू, कृष्णा, गोदावरी एवं पम्पा होते हुए यह सेना कलिंग पहुँची। कलिंग शासक अनंतवर्मन युद्ध में पराजित हुआ तथा पलायित भी हुआ। जब अत्यधिक ढूँढने के पश्चात् भी न मिला तो लूट के माल के साथ चोल सेना वापस लौट आई। इस अभियान का वास्तविक कारण एवं प्रभाव निश्चित रूप से ज्ञात नहीं होता।

राजनयिक सम्बन्ध- कुलोतुंग प्रथम ने अनेक राजवंशों के शासकों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये थे। सुदूर कन्नौज के गहड़वाल राज्य के शासक सम्भवतः मदनपाल अथवा गोविन्दचन्द्र का एक तिथि-रहित अभिलेख गंगैकोण्डचोलपुरम् के मन्दिर की दीवार पर उत्कीर्ण है। यह अभिलेख इन दोनों राजवंशों के मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का प्रतीक है, यद्यपि इस मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध का कोई विवरण नहीं मिलता है।

चीन के सांग इतिवृत्तों में वर्णित है कि 1077 ई. में ति-हुआ-किया-लो के राज्यकाल में चोलों का 72 सदस्यीय एक दूत मण्डल चीन के सम्राट के दरबार में पहुँचा था। डॉ. एन. के शास्त्री के अनुसार ति-हुआ-किया-लो देव कुलोतुंग का चीनी रूपान्तर प्रतीत होता है। यह दूतमण्डल व्यापार के सम्बन्ध में गया होगा। इसके सदस्य अपने साथ शीशे के उपकरण, गैडें के सींग, हाथी-दाँत, हींग, सुहागा तथा लवंग आदि वस्तुयें भेंट के लिए ले गये थे, जिनके बदले में चीनी सम्राट की ओर से 8881 ताँबे के सिक्कों की लड़ियां दी गयी थी। 1079 ई. के एक चीनी अभिलेख के अनुसार कुलोतुंग प्रथम ने कैंटन के बौद्ध-बिहार को 6,00,000 स्वर्ण-मुद्रायें भेंट की थीं।

1090 ई. में के आस-पास कडारम (श्री विजय) के शासक ने कुलोतुंग के पास अपना दूतमण्डल भेजा और कुलवल्लिपट्टिनम् नागपट्टिनम् के दो बौद्ध-बिहारों को चोलों  द्वारा दिये गये ग्रामों के विवरण सहित एक राजाज्ञा जारी करने के लिए प्रार्थना की। उक्त बिहारों का निर्माण श्री विजय के शासक ने ही कराया था। बर्मा के इतिवृत्तों से हमें ज्ञात होता है कि पगन के राजा क्यजित्थ (1084-1112 ई.) ने चोल राजा से भेंट की और उसे बौद्ध बनाकर उसकी लड़की के साथ विवाह कर लिया था। चोल शासक का नाम नहीं मिलता है। संभवतः उस समय कुलोतुंग प्रथम ही शासन कर रहा था। यह विवरण कितना सत्य है, कहना कठिन है।

गंगवाड़ी – इस समय गंगवाड़ी में होयसल नरेश विष्णुवर्धन बिट्टिग शासन कर रहा था। इसके पूर्व ही विनयादित्य ने चालुक्यों की अधीनता में अधिकांश गंगवाड़ी को अधिकृत कर लिया था। विष्णुवर्धन ने कोलार तथा कोंगु तक होयसल राज्य को विस्तृत किया। जिसके लेख वेलूर से उपलब्ध हुए हैं। होयसल लेखों में विष्णुवर्धन को कांची एवं रामेश्वरम तक का विजेता कहा गया है। यद्यपि यह विवरण अतिशयोक्तिपूर्ण है किन्तु गंगवाड़ी निश्चित रूप से चोलों के हाथ से निकल गई। 1115 ई. के पश्चात् गंगवाड़ी से चोल लेखों का अभाव भी प्राप्त होता है।

वेंगी- 1118 ई. में वेंगी से विक्रमचोल के वापस लौटने के पश्चात् पीठापुरम लेख के अनुसार अराजकता उत्पन्न हो गई (वेंगी भूमिनायकरहिताजाता) विक्रमादित्य षष्ठ वेगी के उत्तरी भाग को अधिकृत करने में सफल हुआ। दाक्षाराम से अनेक चालुक्य लेख प्राप्त हुए हैं जो विक्रमसंवत का प्रयोग करते हैं। इसके विपरीत चोल लेख अल्पसंख्या में मात्र गुन्टूर से प्राप्त होते हैं। इससे यह आभासित होता है कि वेंगी मण्डल का अधिकांश भाग 1118 ई. के पश्चात् चोलों के अधिकार से निकल गया।

इस प्रकार सिंहल, गंगवाड़ी तथा वेंगी कुलोत्तुंग प्रथम के प्रभाव से वंचित हो गया। कुलोतुंग प्रथम एक उच्चकोटि का प्रशासक भी था और ऐसा प्रतीत होता है कि वह युद्धों में अधिक रुचि न लेकर अपनी प्रजा की भलाई के कार्यों में अधिक रुचि लेता था। कुलोतुंग के दो सेनापतियों-नर-लोकवीर तथा करुणाकर के नाम उसके अभिलेखों में प्राप्त होते हैं। जिन्होंने क्रमशः पाण्डय देश के विद्रोहों को दबाकर वहाँ चोल सत्ता पुनः स्थापित किया तथा कलिंग देश की विजय की थी। कुलोतुंग के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसने अनेक करों को समाप्त कर दिया और शुंगनदविरस की उपाधि धारण की। उसने 1086 ई. में सारे राज्य की भूमि का एक नया सर्वेक्षण कराया तथा दूसरा सर्वेक्षण 1110 ई. में कराया। इसके शासन काल की अंतिम तिथि 1122 ई. ज्ञात होती है। इसे राजेन्द्र, राजकेशरी, सर्वलोकाश्रय, विष्णुवर्धन, विक्रमचोल, अकलंक, अभग तथा विरुदराजभयंक इत्यादि उपाधियों से अलंकृत किया गया है। गंगैकोण्डचोलपुरम अभी भी चोलों का प्रमुख राजनीतिक केन्द्र था। दूसरा महत्वपूर्ण केन्द्र कांची में था।

चोल शासक विक्रम चोल

1118 ई. के लगभग विक्रमचोल चोल सिंहासन पर अभिषिक्त हुआ। कुछ वर्षों तक पिता के साथ शासन किया तथा 1120-22 ई. के लगभग स्वतंत्र शासक हुआ। विक्रमचोल के विषय में विक्रमशीलनउला से विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।

1118 ई. में वेंगी से इसके लौटने पश्चात् वेंगी का अधिकांश भाग विक्रमादित्य षष्ठ के अधिकार में चला गया। वेंगी के वेलनाण्डु शासकों ने कल्याणी के चालुक्यों की अधीनता स्वीकार की। 1126 ई.में विक्रमादित्य षष्ठ की मृत्यु के पश्चात् वेंगी मण्डल पुनः चोलों के प्रभावक्षेत्र में आ गया। कम से कम वेगी के दक्षिणी भाग पर निश्चित रूप से विक्रमचोल का आधिपत्य स्थापित हो गया। गुण्टुर जिले में चेब्रोलु, कोल्लिपाक तथा षट्सहस्र के शासकों ने 1127 ई. के लगभग विक्रमचोल का आधिपत्य स्वीकार किया। नीडुबोलु लेख से वेलनाण्डु शासक निश्चित रूप से विक्रमचोल के अधीन प्रमाणित होते हैं। यद्यपि वेगी पर विक्रमचोल के पुनराधिकार के प्रयासों की कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं प्राप्त होती है किन्तु अधिक संभव यह प्रतीत होता है । विक्रमादित्य षष्ठ की मृत्यु के पश्चात् वेंगी के सामंतों ने स्वयमेव विक्रमचोल की अधीनता स्वीकार की हो क्योंकि ये क्षेत्र भी चोलों के ही प्रभाव क्षेत्र में थे।

कुलोत्तुंग प्रथम के शासन काल में गंगवाड़ी से चोल-अधिकार समाप्त हो गया था। जिसकी पुनःस्थापना के लिए विक्रमचोल ने प्रयास किया। इसके शासन काल के द्वितीय वर्ष के सुगटूर लेख तथा दसवें वर्ष के एक लेख से ज्ञात होता है कि इसके अधिकारियों ने गंगवाड़ी क्षेत्र में ही एक मंदिर तथा विमान का निर्माण कराया था। इससे मैसूर के पूर्वी क्षेत्र पर विक्रमचोल का अधिकार स्वाभाविकतः प्रमाणित होता है।

1125 ई.के तिरुवोत्तुर तथा तिरुवाडुतुरू लेखों से ज्ञात होता है कि उसके 6ठें शासन वर्ष में भयंकर जल-प्लावन के कारण अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गई। उत्तरी एवं दक्षिणी अर्काट इस दैवी प्रकोप से प्रभावित हुए। 11वें शासन वर्ष के कोविलार्ड (तंजौर) लेख में भी तिरुप्पेर ग्राम को बुरे दिनों का शिकार बतलाया गया है किन्तु यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि इसका संकेत 6ठंे वर्ष की बाढ़ की ओर है। यदि यह विवरण उक्त संकट का द्योतक है तो तंजौर को भी उस जल-प्लावन से प्रभावित कहा जा सकता है।

विक्रमचोल ने आंतरिक स्थिति सुदृढ करने के पश्चात् धार्मिक क्षेत्र में योगदान किया। इसके 11वें वर्ष के पश्चात् के अनेक लेखों से ज्ञात होता है कि विभिन्न विजयों से उपार्जित धनराशि का उपयोग चिदम्बरम के नटराज मंदिर के अलंकरण में किया। प्रदक्षिणापथ, गोपुरम, मण्डल तथा अन्य बाह्य भागों को विक्रमचोल ने हिमाच्छादित किया जहाँ इसके परिवार देवता नरेश ताण्डव नृत्य करते हैं। यह विवरण अतिरंजित तो अवश्य है किन्तु यह निश्चित है कि विक्रमचोल ने नटराज मंदिर को विविधरूपेण अलंकृत किया। श्रीरंगम कोपिलोलुगु के अनुसार इसमें श्रीरंगम के रंगनाथ पंचम प्राकार का निर्माण कराया था।

गंगैकोण्डचोलपुरम प्रमुख केन्द्र था किन्तु अन्य ऐसे राजनीतिक केन्द्र भी थे जहाँ शासक सार्वजनिक निरीक्षण हेतु जाया करते थे। 1122 ई. में कुम्भकोणम के समीप मुडिकोण्डचोलपमुरम (फ्लैयारु) से, 1123 ई. में चिंगलपेट जिले के कालिप्यूर कोट्टम में कुनिवलनल्लूर के मण्डप से, 1124 ई. में दक्षिणी अर्काट के वीर नारायण चतुर्वेदिमंगलम से तथा 1130 ई. में चिदम्बरम के इसके द्वारा जारी किए गये आदेशांे तथा इसकी उपस्थिति की सूचनाएँ प्राप्त होती हैं जो इसके प्रशासनिक भ्रमण के प्रमाण हैं।

विक्रमचोल को त्यागसमुद्र, त्यागवाराकर, अकलंक, राजकेशरी तथा परकेशरी जैसी उपाधियों से विभूषित किया गया है। मुक्कोकिलान तथा त्यागपताका प्रमुख महारानियाँ थी। मुक्कोकिलान की मृत्यु के पश्चात् 1126-27 ई. में त्यागपताका राजमहिषी बनी। एक लेख से तीसरी रानी नम्बिराष्ट्ठियारनेरियन-पादे-वियार ज्ञात होती है।

विक्रमशीलनउला तथा लेखों से विक्रमचोल के अनेक सामंतों एवं अधिकारियों की जानकारी प्राप्त होती है। इसके शांतिमय शासनकाल में सामन्तों का विशिष्ट योगदान रहाक्यांेकि किसी सामंतीय विद्रोह की सूचना नहीं प्राप्त होती है।

                 चोल शासक कुलोत्तंग द्वितीय

1133 ई. में ही कुलोत्तुंग द्वितीय अपने पिता विक्रमचोल द्वारा उत्तराधिकारी नियुक्त किया गया था क्योंकि इसके शासन वर्ष की गणना इसी तिथि से उपलब्ध होती है। दो वर्षों के पश्चात् उसका स्वतंत्र शासन प्रारंभ हुआ। इसने चिदम्बरम नगर की सौन्दर्यवृद्धि के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्य किया। संभवतः इसका सिंहासनारोहण संस्कार इसी नगर में संपन्न हुआ था। ‘ःकुलोत्तुंग-शीलनउला’ में चिदम्बरम मंदिर को नवरूप प्रदान करने का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। ‘राजराजशीलनउला’ तथा ‘तक्कयागप्पराणि’ में कुलोत्तुंग द्वारा चिदम्बरम मंदिर के अलंकरण के संबंध में प्रशस्ति सुरक्षित है।

चिदम्बरम मंदिर के विवरण के अतिरिक्त इसके शासनकाल की किसी राजनीतिक घटना का कोई संकेत नहीं है। नटराज मंदिर के मण्डप से विष्णुमूर्ति हटा कर इसने धार्मिक असहिष्णुता का परिचय दिया। इसके शान्तिमय शासनकाल में कला एवं साहित्य का पर्याप्त विकास हुआ। यद्यपि गंगैकोण्डचोलपुरम की राजधानी होने का श्रेय प्राप्त रहा किन्तु कुलोत्तुंग ने चिदम्बरम नगर के सुंदरीकरण में ही विशेष ध्यान दिया। त्यागवल्लि (भुवनभुलुद्रुडैपाल) तथा मुक्कोभिलान इसकी दो प्रमुख रानियाँ थीं। इसके शासनकाल में सामंतों ने कोई विद्रोह तो नहीं किया किन्तु अपनी आंतरिक शक्ति एवं प्रमुखता की वृद्धि में वे प्रयत्नशील रहे। परवर्ती युग में ये मुख्य वंश के लिए घातक सिद्ध हुए।

चोल शासक राजराज द्वितीय

कुलोत्तुंग द्वितीय के पश्चात् उसका पुत्र राजराज द्वितीय चोल सिंहासन पर 1150 ई. में आरूढ हुआ। इसके शासन काल की गणना 1146 ई. से प्राप्त होती है संभवतः इसी समय राजराज द्वितीय नियुक्त हुआ तथा प्रशासन में भी पूर्ण सहयोग देने लगा था। इसके शासन काल से बहुसंख्यक लेख प्राप्त हुए हैं किन्तु परम्परागत प्रशस्तियों, सामंतों के विवरण तथा विभिन्न दानों के अतिरिक्त किसी राजनीतिक घटना का इनसे कोई ज्ञान नहीं प्राप्त होता। ऐसा प्रतीत होता है कि कुलोत्तुंग द्वितीय की भाँति इसका भी शासन काल शांतिमय था।

राजराज द्वितीय को मुत्तमिलकुत्ततिलैवन अर्थात् ‘तमिल का संरक्षक’ कहा गया है। इससे प्रतीत होता है कि उसने तमिल साहित्य को संरक्षण प्रदान किया। उसने चोलेन्द्रसिंह, वीरधर, वीरोदय, एदिरिसोर आदि उपाधियाँ धारण की। राजराज के एक अभिलेख में उसकी रानी अवनिमुलुदुडैयाल का उल्लेख मिलता है।   

अभिलेखों की उपलब्धि से यह निश्चित रूप से ज्ञात होता है कि साम्राज्य सीमा पूर्ववत बनी रही किन्तु सामंत अपनी शक्ति संचित करने में तत्पर रहे। वेंगी में द्राक्षाराम तक इसके लेख प्राप्त हुए हैं जो यहाँ के वेलनाडु के शासकों पर इसके आधिपत्य के परिचायक हैं। पश्चिमी चालुक्यों तथा होयसलों ने इसकी साम्राज्य सीमा को नियंत्रित किया। इनके अतिरिक्त अनेक स्थानीय शक्तियों का उदय हुआ जिससे केन्द्रीय प्रशासन प्रभावित होने लगा।

गंगैकोण्डचोलपुरम अभी भी चोलों का प्रमुख केन्द्र था। इसके शासन काल के तेरहवें वर्ष के एक लेख से ज्ञात होता है कि आथिरतलि एक दूसरा प्रमुख नगर था।

इसके शासन काल की अंतिम तिथि 1173 ई, ज्ञात होती है। 1163 ई. में ही इसने राजाधिराज द्वितीय को अपना युवराज नियुक्त किया था। संभवतः १० वर्षों तक दोनों ने सम्मिलित रूप से शासन किया।

       चोल शासक राजाधिराज द्वितीय

राजराज द्वितीय के पश्चात् विक्रमचोल की पुत्री का पुत्र राजाधिराज द्वितीय उत्तराधिकारी हुआ। संभवतः राजराज द्वितीय को कोई योग्य पुत्र नहीं था तथा मुख्य वंश में कोई पुरुष उत्तराधिकारी नहीं था।

राजाधिराज द्वितीय के काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना पांडयों से युद्ध है। इसी समय मदुरा के पांडयों में कुलशेखर तथा वीर पांडय के मध्य गृहयुद्ध प्रारंभ हुआ। महावंश में इस घटना का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है जिसके अनुसार 1169 ई. के लगभग पराक्रम पांडय ने कुलशेखर के विरुद्ध सिंहल नरेश से सहायता की याचना की। सिंहली सेना के पहुँचने के पूर्व ही कुलशेखर ने मदुरा को अधिकृत कर पराक्रम पांडय का वध कर दिया था। इस घटना के पश्चात् भी सिंहल नरेश ने मदुरा को अधिकृत करने का आदेश दिया। कुलशेखर ने सिंहली सेनापति लंकापुर का प्रतिरोध किया। लंकापुर ने कुलशेखर के पुत्र वीर पांडय को मलय प्रदेश से बुला कर उसे ही अभिषिक्त करने का प्रयास किया। कुलशेखर ने युद्ध जारी रखा। लंकापुर ने कुलशेखर को पराजित कर मदुरा से निष्कासित किया तथा वीर पांडय को मथुरा का शासक नियुक्त किया।

चोल अभिलेखों में महावंश से भिन्न विवरण उपलब्ध होता है। पल्लवरायन पेट्टै तथा उत्तरी अर्काट के लेखों से यह विदित होता है कि कुलशेखर सिंहली सेना द्वारा निष्कासित होने के पश्चात् चोलों की शरण में आया। सिंहली सेना ने चोल राज्य में भी प्रवेश किया जिससे उत्तेजित होकर राजाधिराज द्वितीय ने मदुरा को आक्रांत किया तथा सिंहल सेनापति का वध कर कुलशेखर को मदुरा के सिंहासन पर अधिष्ठित किया। सिंहल नरेश पराक्रमबाहु चोलों से बदला लेने के लिए तैयारी करने लगा। चोल सेनापति श्रीवल्लभ ने सिंहल पर आक्रमण कर पराक्रमबाहु को पराजित किया।

चोल लेखों के अनुसार कुलशेखर पांडय ने चोलों के साथ विश्वासघात किया तथा सिंहल नरेश पराक्रमबाहु प्रथम के साथ संधि स्थापित किया। राजाधिराज द्वितीय को जैसे ही इसकी सूचना प्राप्त हुई इसने कुलशेखर को पदच्युत कर वीर पांडय को शासक नियुक्त किया। इस प्रकार चोल-पांडय संघर्ष परम्परागत चोल-सिंहल संघर्ष के रूप में परिवर्तित हो गया। कुलशेखर तथा पराक्रमबाहु ने सम्मिलित रूपेण चोलों के विरूद्ध अभियान किया किन्तु असफल रहे। चोल सेनापति अण्यन पल्लवरायन ने समस्त विरोधों का दमन कर वीरपाण्डय को मथुरा के सिंहासन पर सुरक्षित किया। प्रो. शास्त्री के अनुसार इस युद्ध की तिथि 1169-1177 ई. के लगभग निर्धारित किया है।

राजाधिराज द्वितीय के काल में चोल साम्राज्य सीमा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। नेल्लोक, कालहस्ति, नन्दलूर तथा गंग मण्डल के कुछ भूभागों से इसके लेख उपलब्ध हैं। इसे करिकाल तथा पेरियदेवर की उपाधियों से विभूषित किया गया है।

राजाधिराज द्वितीय के निर्बल प्रशासन के कारण सामंतों की शक्ति में वृद्धि हुई। इसी के शासन काल से चोल शक्ति का तीव्रगामी ह्रास प्रारंभ हुआ। इसके शासन काल की अंतिम तिथि 1179 ई. अथवा 1182 ई. प्रतीत होती है।

चोल शासक कुलोत्तुंग तृतीय

राजाधिराज द्वितीय के पश्चात् कुलोत्तुंग तृतीय 1178 ई. के लगभग उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ। राजाधिराज द्वितीय के साथ इसने कुछ वर्षों तक प्रशासनिक प्रशिक्षण प्राप्त किया। यद्यपि कुलोत्तुंग तृतीय एवं राजाधिराज द्वितीय के संबंध निश्चितरूपेण ज्ञात नहीं हैं किन्तु यदि राजाधिराज के लेखों में वर्णित कुमार कुलोत्तुंग तथा कुलोत्तुंग तृतीय में एकरूपता स्वीकार किया जाय तो कुलोत्तुंग तृतीय को महान चोल वंश से संबद्ध करना दुष्कर होगा। कुलोत्तुंगनकोवै में कुमार कुलोत्तुंग को संगमराज का पुत्र कहा गया है जिसे मुख्य चोल शाखा में निर्धारित करना संभव नहीं प्रतीत होता। कुलोत्तुंग को “मदुरैयुन पांडियन मुदित-तलैयुन कोण्डरूलिय’’ की उपाधि प्रदान की गई है।

कुलोत्तुंग तृतीय ने चोलों की पतनावस्था में एक उद्धारक का कार्य किया। राजाधिराज द्वितीय के काल में मदुरा के सिंहासन पर चोलों की सहायता से वीर पाण्डय अधिष्ठित हुआ था। पुरातन सिंहल, वेलनाडु तथा पांडय संध के कारण वीर पाण्डय ने भी चोलों के साथ विश्वासघात कर सिंहल का पक्ष ग्रहण किया। इससे चोल-पांडय संघर्ष पुनः प्रारंभ हुआ। चिदम्बरम, तिरूक्कैयूर, तिरूविडमरूदूर, श्रीरंगम, पदुक्कोट्टै तथा तिरूमणिकुलि लेखों से कुलोत्तुंग तृतीय के तीन पांडय अभियानों का ज्ञान उपलब्ध होता है। प्रथम पांडय अभियान संभवतः 1182 ई. के पूर्व हुआ जो वीर पांडय के सिंहल समर्थन का परिणाम था। इस समय तक कुलशेखर संभवतः दिवंगत हो चुका था तथा उसका कोई निकटस्थ संबंधी विक्रम पांडय चोलों की सहायता के लिए उद्यत था। विक्रम पांडय को मदुरा के सिंहासन पर आसीन करने के लिए कुलोत्तुंग तृतीय ने वीर पांडय पर आक्रमण किया। वीर पांडय तथा सिंहल युद्ध में पराजित हुए एवं विक्रम पांडय मदुरा के सिंहासन पर अधिष्ठित हुआ।

मदुरा से चोल सेना के प्रत्यावर्तन के पश्चात् वीर पांडय ने पुनः सिंहासन को प्राप्त करने के लिए प्रयास किया। 1189 ई. के लगभग कुलोतुंग तीसरी बार पांडय देश पर आक्रमण किया तथा नेत्तूर नामक स्थान पर वीर पांडय को पराजित किया। पराजित होकर वीर पांडय ने केरल नरेश के साथ कोल्लम में शरण ली। अंततः वीर पांडय ने कुलोत्तुंग तृतीय के समक्ष आत्मसमर्पण किया। कुलोत्तुंग ने इसे क्षमा प्रदान करते हुए कुछ भू-भाग जीवनयापन के लिए देकर राज्य से वंचित रखा। इसी संदर्भ में कुलोत्तुंग ने सिंहल तथा केरल के शासकों को भी पराजित करने का दावा किया है। संभवतः पांडयों के समर्थन के कारण चोलों ने इन्हें भी पराजित किया।

1205 ई. के लगभग कुलोत्तुंग ने तृतीय बार पांडयों को आक्रांत किया। इस समय मदुरा पर जयवर्मन कुलशेखर शासन कर रहा था जो संभवतः विक्रम पांड्य का पुत्र था। मदुरा, रामनाड तथा तिन्नेवली जिलों से कुलशेखर के अनेक लेख उपलब्ध हुए हैं। चोल लेखों के अनुसार करूवूर विजय के पश्चात् कुलोत्तुंग ने अपना वीराभिषेक सम्पन्न करने के लिए मदुरा पर आक्रमण किया। पांडय लेखों के अनुसार कुलशेखर मदुरा पर तो विद्यमान रहा किन्तु इस संघर्ष में पांडयों की गहरी क्षति हुई।

दक्षिण के अभियानों से मुक्त होकर कुलोत्तुंग ने उत्तर की ओर ध्यान दिया। श्रीरंगम तथा पुदुकोट्टै लेखों के अनुसार इसने वेंगी तक आक्रमण किया। नेल्लोर के तेलुग-चोड शासक इसकी अधीनता स्वीकार कर रहे थे। 1204 ई. तक निरंतर तेलुग-चोल लेखों में कुलोत्तुंग के आधिपत्य के संकेत प्राप्त होते हैं किन्तु 1204 एवं 1213 ई. के मध्य तेलुग-चोल लेखों में कुलोत्तुंग का कोई उल्लेख नहीं है फिर भी इनसे इनकी सामंतीय स्थिति का ज्ञान प्राप्त होता है। संभवतः तेलुग-चोड शासकों ने अपनी स्वाधीनता घोषित करने का प्रयास किया जिन्हें नियंत्रित करने के लिए कुलोत्तुंग को आक्रमण करना पड़ा। नलसिद्ध के लेख स्वतंत्रतासूचक उपाधियों से युक्त हैं किन्तु कुलोत्तुंग के लेखों से उसकी पराजय का स्पष्ट संकेत प्राप्त होता है।

1208 ई. के लगभग कुलोत्तुंग को पुनः वडुगों को पराजित कर वेंगी तथा उरगै को अधिकृत करने का श्रेय दिया गया है। नेल्लोर के उत्तर से कुलोत्तुंग का कोई लेख नहीं प्राप्त होता तथा वेंगी में काकतियों की शक्ति में वृद्धि हो रही थी। ऐसी स्थिति में कुलोत्तुंग को वेंगी का विजेता कहना संदेह से परे नही है।

पुडुकोट्टै लेखों तथा कुलोत्तुंग-कावै से ज्ञात होता है कि कुलोत्तुंग चेर तथा कोंगु को अधिकृत करता हुआ करूवूर तक विजय प्राप्त किया। ये क्षेत्र पहले से ही चोलों के अधीन थे। इसलिए इसे शासन सुव्यवस्थित करने के लिए कोई साधारण अभियान कह सकते है।

कुलोत्तुंग के शासन के अंतिम वर्षों में मारवर्मन सुंदर पांडय ने चोलों के विरूद्ध अभियान करना प्रारंभ किया। पांडय लेखों के अनुसार सुंदर पांडय ने चोल देश पर आक्रमण कर उन्हें अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया किन्तु चोल लेखों में अभियान का कोई उल्लेख नहीं है। चिदम्बरम तक पांडयों के अभियान के निश्चित प्रमाण उपलब्ध होते हैं। संभव है कि कुलोत्तुंग ने युद्ध से पलायित होने के पश्चात् कोई संधि स्थापित की हा,े तदनुसार उसकी अधीनता भी स्वीकार की हो।

चोलों को पराजित करने के बाद भी पांडयों ने चोल देश को अधिकृत क्यों नहीं किया? इस संबंध में होयसलों का हस्तक्षेप सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। समकालीन होयसल नरेश बल्लाल द्वितीय की एक महारानी को चोल महादेवी कहा गया है। इस वैवाहिक संबंध से चोल एवं होयसल एक-दूसरे के अधिक निकट आये। बल्लाल द्वितीय के हस्तक्षेप के कारण ही पांडय देश से लौटने के लिए बाध्य हुए।

उपर्युक्त पांडय अभियान के पश्चात् 1217-18 ई. के लगभग कुलोत्तुंग तृतीय दिवंगत हुआ। इसे वीरराजेन्द्र, त्रिभुवन वीर चोलदेव तथा त्रिभुवन चक्रवर्तिन, शोलकेरलदेव तथा करिकाल चोल की उपाधि प्रदान की गई है।

चोल शासक राजराज तृतीय

कुलोत्तुंग तृतीय के पश्चात् राजराज तृतीय चोल राजपीठ पर आसीन हुआ। 1216 ई. के लगभग यह युवराज नियुक्त हुआ तथा कुछ ही अंतराल में स्वतंत्र शासक भी बन गया। कुलोत्तुंग तृतीय से इसका संबंध निश्चित तो नहीं है किन्तु अधिक संभव है कि राजराज कुलोत्तुंग का पुत्र रहा हो।

राजराज तृतीय का शासन काल अत्यन्त ही आपत्तिग्रस्त रहा। दक्षिण में पांडय तथा पश्चिम में होयसल अपनी शक्ति वृद्धि में तत्पर थे। पांचवें वर्ष के तंजौर लेखों से आंतरिक अशांति की जानकारी प्राप्त होती है जिसे दुरितंगल (आपत्ति) तथा क्षोभम (क्रांति) नामों से संबोधित किया गया है। ये संभवतः स्थानीय अशांति के ही द्योतक हैं।

राजराज तृतीय को निरंतर संघर्षों में ही व्यस्त रहना पड़ा। 1213-24 ई. के उत्तरी अर्काट के एक लेख से ज्ञात होता है कि वीरनरसिंहदेव, काडवराय तथा उरत्ति के काडवराय के मध्य संघर्ष हुआ था। ये दोनों ही चोलों के अधीन थे। इसी समय काडवराय तथा होयसलों के मध्य भी संघर्ष हुआ। होयसल नरसिंह को कांची-कांचन-काडवकुलांतक तथा काडवरायदिशापट्ट की उपाधियाँ दी गई हैं जो नरसिंह द्वारा काडवराय पर विजय को इंगित करती हैं। संभवतः ये संघर्ष पांडय-काडव तथा चोल-होयसल संघ के परिणामस्वरूप थे।

राजराज तृतीय ने पांडयों की अधीनता का परित्याग कर इन्हें वार्षिक कर देना बंद कर दिया। तिरूवेन्दिपुरम लेख तथा कालकलभ के गद्यकर्णामृत से ज्ञात होता है कि राजराज तृतीय ने पांडयों की संधि की अवहेलना कर उन पर आक्रमण करना भी प्रारंभ कर दिया जिससे उत्तेजित होकर पांडयों ने चोलों पर आक्रमण किया। राजराज तृतीय ने राजधानी छोड़कर होयसल नरेश नरसिंह के यहाँ शरण ली। नरसिंह ने चोलों की सहायता के लिए कावेरी तक आक्रमण किया तथा पांडयों को पराजित कर राजराज को मुक्त किया। इसी समय काडव कोधेरुजिंग ने भी राजराज पर आक्रमण किया जो संभवतः पांडय मारवर्मन सुंदर पांडय प्रथम के सहायक के रूप में था। नरसिंह ने दोनों को सम्मिलित रूप से पराजित किया। इस प्रकार होयसलों ने पुनः यहाँ तक कि पांडय सीमा में स्थित महेन्द्रमंगलम को भी अधिकृत कर लिया। इस प्रकार पांडयों से चोल साम्राज्य को सुरक्षित किया। चोल एवं होयसलों का यह संघ वैवाहिक संबंधों द्वारा और भी धनिष्ठ हुआ। इसीलिए नरसिंह का पुत्र सोमेश्वर राजराज तृतीय के उत्तराधिकारियों द्वारा मामडि कहा गया है।

राजराज तृतीय का अवशिष्ट शासन काल लगभग शांतिपूर्ण था। इसने कुलोत्तुंग तृतीय की मृत्यु के समय जो चोल साम्राज्य था, उसे सुरक्षित करने में सफलता प्राप्त की। यद्यपि इसका संपूर्ण शासन काल होयसलों द्वारा प्रभावित रहा फिर भी इसकी स्वतंत्रता पर कोई दुष्प्रभाव न पड़ा। केन्द्रीय शक्ति की निर्बलता से लाभ उठाकर सामंतों ने अपनी शक्ति में पूर्ण वृद्धि की। निरंतर सामंतीय विद्रोह एवं षडयंत्र होते रहे जिससे चोल राजवंश एकदम जर्जरित हो गया। राजराज तृतीय 1246 ई. में दिवंगत हुआ।

चोल शासक राजेन्द्र तृतीय

राजेन्द्र तृतीय 1246 ई. में युवराज नियुक्त हुआ तथा शासन का पूर्ण दायित्व भी इसी के ऊपर आ गया। यह राजराज तृतीय की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली था। शासन संभालते ही इसने राजराज तृतीय के काल में चोलों के अपमान के प्रतिशोध के लिए पांडयों पर आक्रमण आरंभ किया। समकालीन पांडय शासक मारवर्मन सुंदर पांडय द्वितीय पराजित हुआ। पांडयों की पराजय के फलस्वरूप चोलों की शक्ति में वृद्धि हुई जिससे होयसल सोमेश्वर सशंकित हुआ। शक्ति संतुलन के लिए सोमेश्वर ने पांडयों का साथ दिया। फलतः राजेन्द्र तृतीय को पांडय क्षेत्र से हटने के लिए बाध्य होना पड़ा।

होयसल-पांडय संघ के कारण राजेन्द्र ने नेल्लोर के तेलुगु-चोड शासक के साथ मैत्री स्थापित किया। निर्वचनोत्तर रामायणमु के अनुसार चोड तिक्क ने कर्णाट नरेश सोमेश्वर को पराजित किया। दक्षिण भारत में इन संघों के कारण अनेक राजनीतिक परिवर्तन हुए। राजेन्द्र अपनी कूटनीति के कारण चोल साम्राज्य की सुरक्षा में सफल रहा।

चोल लेखों के अनुसार राजेन्द्र ने उत्तरी लंका में वीर राक्षस को पराजित किया जो उत्तरी अर्काट के शाम्युवराय से समीकृत किया जा सकता है। तिक्क को भी शाम्युवराय का भी विजेता कहा गया है। संभव है कि तिक्क ने राजेन्द्र तृतीय का सहयोग किया हो।

इस प्रकार १२५० ई. तक राजेन्द्र तृतीय ने चोल साम्राज्य को अपनी सफलताओं के कारण पुनः पूर्ववत समृद्धिशाली बना दिया।

राजेन्द्र तृतीय की विजयों में कांची का कोई उल्लेख नहीं प्राप्त होता। इस समय कांची तेलुग-चोड शासकों के अधीन बतलाया गया है। इससे यह आभासित होता है कि कांची से चोलों का आधिपत्य समाप्त हो गया था।

पांडयों के प्रश्न को लेकर होयसलों से इसकी शत्रुता प्रारंभ हो गई किन्तु कुछ ही समय के पश्चात् पुनः दोनों राजवंशों में मैत्री संबंध स्थापित हुआ जो राजेन्द्र तृतीय की मृत्यु के समय तक चलता रहा। सोमेश्वर के उत्तराधिकारी रामनाथ से भी मधुर संबंध बना रहा।

जयवर्मन सुंदर पांडय प्रथम के सिंहासनारोहण से पांडयों की स्थिति दक्षिण भारत में सर्वाधिक शक्तिशाली हो गई। इसने चोलों तथा होयसलों को सम्मिलित रूपेण पराजित किया। मारवर्मन कुलशेखर के काल में भी 1279 ई. के लगभग चोल एवं होयसल पराजित हुए। 1277 ई. के पश्चात् राजेन्द्र तृतीय का कोई तिथियुक्त लेख उपलब्ध नहीं होता। एक लेख में शेमापिल्लै नामक एक व्यक्ति का उल्लेख प्राप्त होता है जो संभवतः राजेन्द्र तृतीय का पुत्र था। इसे पांडय सामंत भी कहा गया है। इससे यह प्रतिध्वनित होता है कि संपूर्ण चोल साम्राज्य पांडयों के अधीन हो गया।

इस प्रकार 1279 ई. प्रमुख चोल वंश की अंतिम तिथि ज्ञात होती है। राजेन्द्र तृतीय के पश्चात् किसी भी उत्तराधिकारी की कोई सूचना नहीं प्राप्त होती। संभवतः पांडयों ने चोलों के उत्तराधिकारी के रूप में चोल साम्राज्य पर शासन किया।

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