‘हिन्द स्वराज’ एक विवेचन (Hind Swaraj : A Study)
महात्मा गांधी का ‘स्वराज‘ एक वैचारिक यात्रा का तार्किक निष्कर्ष था। जिस पृष्ठभूमि में भारत की आजादी की अवधारणा विकसित हो रही थी, उसका सरोकार मात्र सत्ता परिवर्तन तक सीमित नहीं था ऐसा सोचने वालों में महात्मा गांधी पहले व्यक्ति नहीं तो अग्रणी व्यक्ति अवश्य थे। गांधी ने पाया था कि भारत के क्रान्तिकारी स्वराज के प्रति सीधी परन्तु अराजक सोच रखते हैं उनके इस चिन्तन का आधार साधन की पवित्रता था। उनके विचार से क्रान्तिकारी उस आलोचनात्मक विवेक का विकास नहीं कर सके थे जिससे औपनिवेशिक शासन से प्रभावित आधुनिक परिवेश का निर्माण हुआ था। क्रान्तिकारी कार्य और सोच की प्रकृष्टता का स्वरूप वैसा नहीं मानते थे जिसका भावात्मक आधार दादा भाई नौरोजी ने तैयार किया था। वे तो हिन्दुस्तान के पढ़े लिखे लोगों खासकर नौजवानों को तन्द्रा त्यागकर जागृत और सक्रिय होने का संदेश दे रहे थे। गोपाल कृष्ण गोखले, सर वेडरवर्न तथा तैय्यव जी हिन्दुस्तान का हित चिन्तन कर रहे थे। पश्चिम की यात्रा कर चुके भारतीय युवा इस अविश्वास भी भावना से कार्यरत थे कि उदारवादी नेता आन्दोलन की भ्रूण हत्या करना चाहते हैं उनका अविश्वास एनीबेसेंट रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे राष्ट्रवादियों के प्रति भी हो चला था। कुछ अति उत्साही उन्हें ‘पूतना‘ कहने लगे थे जिसे अंग्रेज कंस के विष लगा स्तनपान कराकर ‘स्वराज‘ के बालकृष्ण की हत्या के लिए भेजा था। इस परिस्थिति में गांधी को हिंसा प्रेरित क्रान्तिकारिता के पक्षघरों की शंकाओं व गलत-फहमियों का निराकरण करना था।
गांधी जी जब एक विद्यार्थी के रूप में लन्दन पहुँचे थे उस समय गुजरात के काठियाबाड़ क्षेत्र के प्राण जीवन मेहता लंदन में ही थे। प्राण जीवन मेहता बम्बई के ग्रांट मेडिकल कालेज से पढ़कर व्रसेल्स नगर में पर स्नातक शिक्षा के लिए गए थे। बाद में लंदन से बैरिस्टर की डिग्री लेकर गुजरात में चिकित्सा अधिकारी रह चुके थे। किसी कार्य से वे 1909 में लंदन में थे। गांधी से उनकी मुलाकात एक होटल में हुई फिर दोनों एक माह तक सम्पर्क में रहे। डा0 प्राणजीवन मेहता गांधी को मूर्ख और भावुक व्यक्ति मानते थे। कानून और चिकित्सा विज्ञान के जानकार डा0 मेहता प्रबल बुद्धिवादी थे उनका विचार तार्किक अराजकतावादी था इसलिए गांधी उन्हे क्रान्तिकारी अराजक मानते थे। दोनों के आपसी सम्पर्क, जो एक माह तक बना रहा, के दौरान गांधी ने मेहता को तर्क से पराजित कर दिया अन्ततः डा0 मेहता गांधी के विचारों से सहमत हो गए। उन्होंने आजीवन गांधी तथा उनके परिवार को आर्थिक सहायता पहुँचाई। गांधी के बड़े भाई के निधन पर गांधी परिवार में पांच विधवाएं बच रही थी इनके भरण पोषण का खर्च डा0 मेहता ने उठाया। गांधी ने जब साबरमती आश्रम की स्थापना कर संकल्प लिया था तो प्राण जीवन मेहता ने बिना मांगे 1) लाख रूपये भेज दिये थे। चम्पारन आन्दोलन के दौरान जब राजकुमार शुक्ल के आह्वान पर गांधी जी बिहार गए थे उस समय भी डा0 मेहता से सहायता लेना मुनासिब समझा था। इन्हीं प्राणजीवन दास जगजीवन दास मेहता से हुई गांधी की बातचीत का विवरण ‘हिन्द स्वराज है।
संवाद शैली में रचित इस पुस्तक में नाटकीय और रोमांच जगह-जगह पर दिखाई पड़ता है। पहले ही अध्याय में ‘ठहरिए आप तो बहुत आगे बढ़ गए हैं, ‘आप अधीर हो गए हैं, ‘मैं अधीरता बर्दास्त नहीं कर सकता, ‘गोल-मोल जवाब देकर आप मेरे सवालों को उड़ा देना चाहते हैं,‘ जैसे वाक्य दिखते हैं जो संवाद को निहायत दिलचस्प बना देते हैं। यह संवाद शैली भारतीय धर्म और दर्शन के क्षेत्र में अत्यन्त प्राचीन है। अतः यह कहा जा सकता है कि गांधी इस शैली को पुस्तक रचना के समय से पहले से जानते थे।
हिन्द स्वराज के लिए संवाद शैली के चयन करते समय सम्भवतः वे दो और चीजें ध्यान में रख रहे थे पहली तो प्लेटों के डायलाग और दूसरी एच.पी. ब्लावटस्की की क्रिश्चियन जिसमें विक्टोरिया कालीन नैतिक पाखण्ड और आधुनिक यूरोपीय सभ्यता की कठोर आलोचना की गई थी। जो भी सच हो लेकिन इतना तय लगता है कि यह उस समय के लिए अनोखी शैली थी। गांधी जी ने स्वयं 1940 में मलिकदां बैठक में स्वीकार किया था कि यह पुस्तक डा0 प्राण जीवन मेहता से हुई बातचीत की ‘जस की तस‘ प्रस्तुति है। 1940 तक वे अपने विचारों के प्रति अपरिवर्तनशीलता का संकल्प भी व्यक्त करते हैं।
स्वराज के बारे में गांधी जी इस पुस्तक के अतिरिक्त अन्य पत्र पत्रिकाओं में भी अपना विचार प्रस्तुत करते हैं। मसलन हिन्द नवजीवन के 29 जनवरी 1925 के अंक में वे कहते हैं कि ‘‘स्वराज से मेरा अभिप्राय है कि लोकसम्मति के अनुसार होने वाला भारतवर्ष का शासन लोक सम्मति का निश्चय देश के बालिग लोगों की बड़ी से बड़ी तादाद के मत के जरिये हो, फिर चाहे स्त्रियां हो या पुरूष इसी देश के हो या इस देश मं आकर बस गए हों, वे लोग ऐसे हो जिन्होंने अपने शारीरिक श्रम के द्वारा राज्य की कुछ सेवा की हो और जिन्होंने मतदाताओं की सूची में अपना नाम लिखवा लिया हो। सच्चा लोकतंत्र थोड़े लोगों के द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं बल्कि जब सत्ता का दुरूपयोग होता है, तब सब लोगों के द्वारा उसका प्रतिकार करने की क्षमता प्राप्त करके हासिल किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में स्वराज जनता में इस बात का ज्ञान पैदा करके किया जा सकता है कि सत्ता पर कब्जा करने और उसका नियमन करने की क्षमता उसमें हैं।‘‘
हरिजन के 1939 के 25 मार्च के अंक में वे कहते हैं कि ‘मेरे स्वराज की अवधारणा में अमीर लोग अपने धन का उपयोग बुद्धिपूर्वक उपयोगी कार्यों में करेंगे। उसमें ऐसा नहीं होना चाहिए कि चन्द अमीर तो रत्न जड़ित महलों में रहें और लाखों- करोड़ों ऐसी मनहूस झोपड़ियों में, जिनमें हवा और प्रकाश का प्रवेश न हो। सुसंगठित राज्य में किसी के न्याय अधिकार का किसी दूसरे के द्वारा अन्यायपूर्वक छीन लिया जाना असम्भव होना चाहिए।
इसी प्रकार के राष्ट्र, मजदूर, किसान शिक्षा, भाषा स्त्रियों की दशा दलितों महिलाओं, डाक्टरों, वकीलों, विद्यार्थियों साम्प्रदायिकता, अपश्चता आदि के बारे में स्वतंत्र विचार प्रस्तुत करते हैं। वे अपने पत्र ‘हरिजन बन्धु‘ के अंक (30/4/33) में कहते हैं कि ‘‘मेरे लेखो का मेहनत से अध्ययन करने वालों और उसमें दिलचस्पी लेने वालों से मैं यह कहना चाहता हूँ कि मुझे एक ही रूप में दिखाई देने की परवाह नहीं है सत्य की अपनी खोज में मैंने बहुत से विचारों को छोड़ा है और अनेक नई बातों को सीखा भी हूँ। उमर में मैं भले ही बूढ़ा हो गया हूँ लेकिन मुझे ऐसे नहीं लगता कि मेरा आन्तरिक विकास होना बन्द हो गया है। मुझें एक ही बात की चिन्ता है, और वह है प्रतिक्षण सत्य-नारायण की वाणी का अनुसरण करने की मेरी तत्परता। इसलिए जब किसी को मेरे दो लेखों में विरोध जैसा लगे, तब अगर उसे मेरी समझदारी में विश्वास हो, तो वह एक ही विषय पर लिखे दो लेखों में से मेरे बाद के लेख को प्रमाणामृत मानें।
गांधी ‘हिन्द स्वराज‘ की स्थापनाओं पर बाद में भी अडिग रहे। गोपाल कृष्ण गोखले को लगता था कि कुछ समय बाद स्वयं गांधी जी अपने विचारों को त्याग देंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आज 100 साल बाद उन विचारों की प्रासंगिकता की जांच पड़ताल करना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि ‘वे भुखमरी बदहाली के मंजर नहीं बदले हैं‘ जिनके बदलाव का तरीका गांधी जी ने सुझाया था।
आधुनिकतावादी सोच ने जो संकट उत्पन्न किया है उससे नैतिक मूल्यों की प्राण वायु निकल चुकी प्रतीत होती है। यह कहा जा रहा है कि विकास की अवधारणा में भ्रष्टाचार समाहित है। मनुष्य दिन प्रतिदिन निर्णायक की भूमिका से निर्णय सहने वाला बनता जा रहा है, उसे लगता है कि वह असहाय है।
सरकारी तन्त्र, डाक्टर, वकील, शिक्षा व्यवस्था के लोग लगभग उसी तरह का आचरण कर रहे हैं जिनकी तरफ गांधी ने सौ वर्ष पूर्व संकेत किया था। गया प्रसाद तिवारी की पंक्तियाँ बिल्कुल सटीक जान पड़ती है।
‘‘स्वदेश को सुदेश हम कहां अभी बन सके
चरित्र सत्य न्याय भी न न्याय यहां पा सके।
आँख-आँख है सजल होंठ पर नहीं गजल
स्वतन्त्रता के नाम पर चुनाव शेष रह गए
भ्रष्ट आचरण जहां मंगला चरण बना
चरित्र सत्य, न्याय की वहाँ कहाँ विचारणा
क्षणिक स्वार्थ के लिए दबाव शेष रह गए।
उपयोगवादी संस्कृति, नवपूंजीवाद, नव उपनिवेशवाद, नव सांस्कृतिक साम्राज्यवाद द्वारा पल्लवित पोषित संकट के प्रति गांधी जी ने बहुत पहले ही आगाह कर दिया था। उनकी पैनी नजर से समाज के विभिन्न वर्गों में व्याप्त होने वाली अनुशासन हीनता तथा मर्यादा हीनता उसी समय दिखायी पड़ गयी थी आज पूरी दुनिया भारत को गांधी के देश के रूप में जानती है। विश्व युद्ध की विभीषिका के बाद गांधी चिन्तन के नए केन्द्र बने है उनके विचारों के अध्ययन केन्द्र भारत से बाहर तेजी से स्थापित हो रहे है। इसलिए ऐसा लगता है कि गांधी की प्रासंगिकता के स्थान पर उनकी और उनके विचारों की समकालीनता पर विचार किया जाय।
कितनी बरसातों के बाद भी
रेत पर उनके पांवों के निशान है-