भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की राष्ट्रवादी दृष्टि (Nationalist View of Bhartendu Harishchandra)

जिस समय भारत गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था, बड़ी ही विवशतापूर्वक अपना धर्म, अपनी शिक्षा, सभ्यता, संस्कृति तथा आघ्यात्मिक बल खोता जा रहा था, ठीक उसी समय भारत के साहित्यिक मंच पर एक ऐसे सितारे का अभ्युदय हुआ, जिसने भारत को धरातल से उठाकर आसमान की बुलन्दियों पर अवस्थित कर दिया। यह सितारा कोई और नहीं बल्कि बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र थे। आपका जन्म काशी में भाद्रपद शुक्ल विक्रम संवत् 1907(1850ई0)  9सितम्बर को हुआ था।

                भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का सम्पूर्ण जीवन लेखन, समर्पण और संघर्ष की अनन्त गाथा है। उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता के द्वारा समाजोत्थान और राष्ट्रीय जन-जागरण का महनीय कार्य किया, उस कार्य के लिए उन्होंने शस्त्र के स्थान पर लेखनी को ही एक कारगर हथियार के रूप में प्रयुक्त किया। अपने क्रान्तिकारी विचारों से सरकारी नीतियों की आलोचना अविरल रूप से जारी रखने के लिए उन्होंने छद्म रूप से राज्यभक्ति का भी प्रदर्शन किया। उनके सामने सम्पूर्ण देश की तस्वीर थी इसीलिए उनका लेखन व्यष्टि के लिए नहीं, समष्टि के हितों के लिए था। राजसी वैभव में रहकर भी वे राजसी मानसिकता से दूर रहे, सामन्तवादी वातावरण से जुड़कर भी वे सामन्तवादी प्रभाव से अछूते रहे, महाजनवादी संस्कारों में पलकर भी उनका दृष्टिकोण जनवादी रहा। व्यक्ति और राष्ट्र की चिन्ता उनके जीवन और लेखन का केन्द्र बिन्दु बना। भारतेन्दु ने जन-सामान्य के दुःख-दर्द को, अन्धी परम्पराओं को, उसके अन्धविश्वासों और दासता की गर्हित मानसिकता को साहित्य का केन्द्रीय कथ्य माना और उसे जन के साथ जोड़ा। उन्होंने पत्रकारिता को जन की समस्याओं के लिए एक नश्तर की तरह इस्तेमाल किया और साहित्य से मरहम का काम किया, सामाजिक कुरीतियों से आदमी की मुक्ति के लिए उन्होंने आवाज उठायी। विदेशी दासता से देश को मुक्त करने के लिए उनहोंने देशवासियों में राष्ट्रीयता का प्राण फूँका और अंग्रेजों की भारत-विरोधी नीतियों का पर्दाफाश किया। उन्होंने समाज और स्वदेश प्रेम का मंत्र दिया तथा स्वदेशी का उद्घोष किया, अंग्रेजों के अत्याचारी रवैये की निन्दा की और अपनी रचनाओं के द्वारा उन पर तीखा प्रहार किया-

                ‘‘मरी बुलाऊँ देश उजाडूँ, मँहगा करके अन्न

                 सबके ऊपर टिकस लगाऊँ, धन है मुझको धन्न

                 मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानोजी।’’

                ‘‘अंग्रेज राज सुख साज सजै सब भारी।

                 पै धन विदेश चलि जात, यहै अति ख्वारी।।’’

                भारतेन्दु जी का अवतरण भारतीय सांस्कृतिक और साहित्यिक इतिहास-फलक पर ऐसे समय हुआ जब देश 1857 ई0 की आजादी की पहली लड़ाई हार चुका था और जनमानस में एक घोर निराशा व्याप्त हो गयी थी। सामाजिक रूढ़ियों, कुरीतियों, धर्मान्धता और पुर्नजन्मवाद की मानसिकता के परिणामस्वरूप देश सम्पन्न और विपन्न, ऊँच और नीच, छूत और अछूत के बीच संकुचित दायरों में बँटा हुआ था। इतिहास की एक ऐसी विषम घड़ी में वक्त की जरूरत बनकर भारतेन्दु जी पैदा हुए थे।

                इतिहास की धारा से प्रभावित होने वाले व्यकित अनेक होते हैं किन्तु उस धारा को प्रभावित करने वाला कोई एक होता है। इतिहास की धारा का अनुसरण करने वाले अनेक हो सकते हैं पर धारा को प्रवाहित करने वाला, नया मोड़ और गति पैदा करने वाला कोई एक होता है। हिन्दी साहित्य और भारतीय नव-जागरण के इतिहास में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का स्थान इतिहास की धारा को प्रभावित करने वाले, उसे नया मोड़ देने वाले, नयी जीवन शक्ति और ऊष्मा से अभिषिक्त करने वाले महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में ही है। उनके छोटे से जीवन की एक लम्बी कहानी है जो अतुलनीय और अकथनीय है। वे साहित्य-सेवी ही नहीं समाजसेवी भी थे, विद्यानुरागी ही नहीं कलानुरागी भी थे, वे धर्मात्मा ही नहीं धर्म और दर्शन के मीमांसक भी थे। वे समाज-सुधारक ही नहीं धार्मिक रूढ़ियों और अन्धविश्वासों के भी परिमार्जक थे। वे प्रेमी रसिक और कृष्णभक्त ही नहीं, राष्ट्रभक्त भी थे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *