आजादी के आंदोलन में उत्तर प्रदेश की महिला क्रांतिकारियों की भूमिका (Role Of Women Revolutioneries Of Uttar Pradesh In The Freedom Movement)
डॉ. एस एन वर्मा
एसोसियेट प्रोफेसर- इतिहास
भारत में अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना कई चरणों में हुई थी।1600 ई में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई।तब से 1740 ई तक अंग्रेज़ व्यापारियों ने अपने व्यापार में ध्यान लगाया। उत्तर मुग़ल काल मे केंद्रीय सत्ता के स्थान पर क्षेत्रीय सत्ताओं का उदय हुआ।इनके सार्वभौमिक स्वरूप ग्रहण करने से अंतर्देशीय व्यापार जटिल होने लगा। व्यापारी एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने और ख़रीद फ़रोख़्त में कठिनाई महसूस करने लगें तो उनका ध्यान राजनीतिक मुद्दों की ओर आकृष्ट हुआ।दक्षिण में पहले हस्तक्षेप और पहली सफलता मिलने से उनकी महत्त्वाकांक्षा में भी बृद्धि हुई।यह वही समय था जब अंग्रेज़ अपने अमेरिकी उपनिवेश में विरोध का आंदोलन देखने लगे थे।यूरोप की दशा भी उनके अनुकूल नही रही।आस्ट्रिया ,फ्रांस ,प्रशा, इटली , तुर्की आदि नई राजनीतिक चेतना से रूबरू थे। इसमें साम्राज्य, स्वतन्त्रता आर्थिक प्रगति, बौद्धिक चेतना आदि सभी कुछ थे।अंग्रेज़ इस नई पृष्ठभूमि से अवगत थे इसलिये एशियाई देशो को केंद्र बनाकर उन्होंने अगली रणनीतिक तैयारी आरम्भ कर दी। प्लासी ,बक्सर और दक्षिण के युद्धों ने उनके मनोबल को शीर्ष पर पहुंचा दिया।भारत में उनके लिये मैदान खुला था।जो सेना प्रमुख अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेज़ी हितों की रक्षा नहीं कर सके थे उनके ही अनुभव पर भारत में अंग्रेज़ी राज्य को प्रसासनिक आधार दिया जाता है। भारतीय राज्य विभिन्न नीतियों के शिकार होते हुए ब्रिटिश साम्राज्य के अंग बन जाते हैं। जैसे अभी अमेरिका के लिये कहा जाता है कि राष्ट्रपति किसी भी राजनीतिक दल से हो उसके लिए अमेरिकी हित प्राथमिक होते हैं उसी तरह कभी अंग्रेज़ो ने भी विभिन्न पृष्ठभूमि के बाबजूद अपने साम्राज्य को तरजीह दी।1857 तक उनका लगभग पूरे भारत पर राजनीतिक नियंत्रण हो गया। मुगलो ने सल्तनत बक्श दी या मराठो ने | लेकिन यथार्थ यह कि भारत की जनता एक सर्वथा नवीन राजनीतिक पद्धति के अधीन हो गयी।इसका मूल उद्देश्य अन्य विदेशियों के समान नही था। अंतर के अनेक विन्दुओं में सबसे महत्वपूर्ण यह था कि उन्होंने कभी भी भारत को अपना देश नही माना मतलब की अपने लाभांश का निवेश भारत में नहीं किया।यह ऐसा अंतर था जिसने दूसरे सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अलगाव को जन्म दिया।यह बात जनता को जल्द और राजसत्ताओं को थोड़ी देर में ही समझ मे आने लगी। जल्द ही अंग्रेज़ शासन का विरोध भी आरम्भ हो गया लेकिन छिटपुट विरोध कुछ होना नहीं था और केंद्रीय सत्ता के नाम पर कुछ था तो अंग्रेज़ो के हाथ चला गया था। विखंडन की राजनीति में नई चुनौतियों का सामना नहीं किया जा सकता था। समय का इन्तज़ार करना ही एक मात्र उपाय था।इस बीच अंग्रेज़ो ने अपने हितों की पूर्ति के लिए आधुनिकता के औजारों का प्रयोग आरम्भ किया जैसे रेल ,डाक ,कानून, प्रशासनिक संरचना का निर्माण आदि। इसका लाभ स्थानीय जनता को भावनात्मक रूप से मिला।डलहौजी का शासनकाल वह शीर्ष बिंदु था जो साम्राज्य और असन्तोष दोनों को रेखांकित करता था। फलतः 1857 भारत की आजाद चेतना का पहला उदाहरण प्रस्तुत करता है। शत प्रतिशत न भी हो तो भी अधिकांश भारत के नुमाईंदों ने अपनी अकुलाहट सशक्त रूप से दर्ज की। धर्म ,जाति, लिंग व स्थानभेद से ऊपर जो भावना मुखरित हुई वह अंग्रेज विरोध थी। संयोग वश उत्तरप्रदेश (आधुनिक) प्रमुख केंद्र बना। अधीनता की श्रेणी में यह राज्य देर से आया था लेकिन केन्द्रीय सत्ता स्थल दिल्ली से निकट होने के कारण विरोध का केंद्र पहले बना। जेंडर स्टडी की दृष्टि से भी यहाँ की महिलाओं ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।इस आलेख में महिलाओं की भूमिका का संक्षिप्त लेखा जोखा प्रस्तुत किया गया है।
1857 से पूर्व में जो विद्रोह हुए उनमे बैरकपुर और बहाबी विद्रोह जैसे इक्का दुक्का उदाहरण हैं जहाँ महिलाओं की भूमिका प्रत्यक्ष नहीं है अन्यथा अधिकांश विद्रोहो में उन्होंने न केवल हिस्सा लिया वरन अनेक विद्रोहो का नेतृत्व किया।सन्यासी विद्रोह की देवी चौधरानी, चुआड़ की रानी शिरोमणि ,कित्तूर की रानी चेनम्मा, शिवगंगा की बेलूनचियार को कौन भूल सकता है।महिलाओं ने न केवल पुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर कार्य किया वरन आगे बढ़कर पुरुष वर्ग का मार्गदर्शन और सहायता की।सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि कम उम्र की महिलाओं ने भी ऐसे कारनामे किये जिसे सुनकर आज भी लोग दांतो तले अंगुली दबा लेते है।महिलाओं की भूमिका का स्वरूप विभिन्न रंग लिए है प्रत्यक्ष युद्ध मे भागीदारी तो एक पहलू भर है।इस पहलू पर भी उनकी संख्या कम नहीं आंकी जाती।अकेले आज़ाद हिन्द फौज में उनकी भागीदारी 50000थी ब्रिगेड की मुखिया होने के साथ। यहाँ हमारा उद्देश्य वर्तमान उत्तर प्रदेश की महिला स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान का स्मरण दिलाना है।शीर्षक में अंकित क्रांतिकारी तत्त्वों के साथ अन्य तरह से सक्रिय महिलाओं की भूमिका को भी मद्देनजर रखा गया है।
रानी लक्ष्मी बाई:
उत्तरप्रदेश की वीरांगनाओं का नाम आते ही पहला नाम लक्ष्मीबाई का उभरता है। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी सुनकर ही बचपन व्यतीत हुआ है।इस गीत से आज़ादी के संघर्ष का प्रत्यय देशवासियो के दिल मे उतरा है। लक्ष्मीबाई झांसी के राजा गंगाधर राव की पत्नी थी।उनके बचपन की कहानी बनारस से जुड़ी है जहाँ के भदैनी मुहल्ले में उनका जन्म हुआ था। घुड़सवार मनु का विवाह मराठा क्षत्रप के साथ हुआ था लेकिन उन्हें कोई संतान नही थी।उत्तराधिकारी के अभाव में गंगाधर राव ने अपने जीवनकाल में ही दामोदर राव नामक बालक को गोंद ले लिया था।1853 में राजा की मृत्यु होगयी तो लार्ड डलहौजी ने उनके राज्य को कंपनी राज्य में मिलना चाहा।तर्क यह कि झांसी का राज्य अंग्रेजो ने निर्मित किया था 1817 के मराठा युद्ध के बाद। यह एक अनुचित तर्क था इस आधार पर सभी राज्य की कंपनी की कृपा से ही बने हुए थे।रानी ने इस निर्णय का विरोध किया,अपनी झांसी नहीं दूंगी कहकर उन्होने संघर्ष आरम्भ किया।अपने बच्चे को पीठ पर बांधकर घुडसवार रानी कालपी आईं और जनरल ह्यूरोज की सेना का मुकाबला किया।लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली हर हर महादेव कहते हुए उन्होंने प्राण त्याग दिये।
अजीजन बाई:
वारांगना से वीरांगना बनने का उदाहरण प्रस्तुत करने वाली अजीजन कानपुर की रहने वाली थीं उनका जीवन कोठे पर से आरम्भ हुआ था लेकिन वही समाप्त नहीं हुआ।नृत्य ,देह ,व्यापार, गायन आदि के अमूमन आलसी और विलासी जीवन व्यतीत करते हुए उसे 1857 में अपनी सैनिक प्रतिभा और देश प्रेम के प्रदर्शन का अवसर मिला। नाना साहब और तात्या टोपे ने कानपुर और विठूर में अंग्रेज़ो केखिलाफ मोर्चा खोल रखा था उन्हें सफलता मिल भी रही थी इस सफलता में अजीजन की महत्वपूर्ण भूमिका थी।उसने मस्तानी महिला मंडली का गठन कर सैनिक प्रशिक्षण देना आरम्भ कर दिया था।साथ ही पुरुष वेश धारण कर समयानुसार सैनिको को सहायता पहुंचाया करती थी।नृत्य और कला के संगम ने उसे हर चुनौती के सम्मुख अटल बना दिया था। घुडसवार बनकर तलवार चलाते हुए विजली की गति से दुश्मन सेना पर टूट पड़ना उसने भलीभांति सीख लिया था। 21 दिन तक चले युद्ध के बाद अंग्रेज़ सेनानायक हैवलॉक ने सभी क्रांतिवीरों के साथ अजीजन को भी गिरफ्तार कर लिया गया। जब उसे हैवलॉक के सामने औरत सैनिक के रूप में पेश किया गया तो वह आश्चर्यचकित हो गया। उसने माफी मांगने की शर्त पर अजीजन को छोड़ने का प्रस्ताव किया लेकिन अजीजन ने मुस्कराते हुए प्रस्ताव ठुकरा दिया।सभ्यता का दम्भ भरने वाले अंग्रेज़ सैनिको ने उसे सरे आम गोली मार दी।अजीजन ने स्त्रियों और बच्चों को न छूने के नाना साहब के निर्देश को भी अनसुना कर दिया था।कहा जाता है कि जिन 125 अंग्रेज़ो की हत्या बावी गढ़ में हुई थी उसमे अजीजन की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।
बेगम हजरत महल:
1857 के विद्रोह के समय लखनऊ में बेगम हजरत महल का शासन था।उनके पति वाजिद अली शाह शासन का 1847 में ही आरम्भ हुआ था लेकिन वह शासकीय कार्यो में रुचि नहीं रखते थे।अतः अंग्रेज़ो ने रेजिडेंट के माध्यम से हस्तक्षेप करना आरम्भ कर दिया।कुछ समय बाद उसके राज्य को कुशासन के आधार पर ब्रिटिश राज्य में शामिल कर लिया गया। नवाब को गिरफ़्तार कर कलकत्ता भेज दिया गया। महकपरी के नाम से प्रसिध्द हज़रत महल ने अपने पुत्र बिरजिस कादिर के नाम पर विद्रोह में हिस्सा लिया। 30 जून को प्रसिद्ध चिनहट का युद्ध हुआ फैज़ाबाद के मौलवी अहमद उल्लाह की प्रेरणा से विद्रोही सैनिक चिनहट में एकत्र हुए थे।इस लड़ाई में अनेक अंग्रेज सैनिक मारे गए।बेगम में अपने पुत्र को जनाब .ए .आलिया घोषित कर दिया। 16 जुलाई 1857 को बेगम ने बेलीगारद पर हमला कर दिया मार्च 1858 तक लखनऊ के बड़े हिस्से पर अधिकार कर लिया।लेकिन यह सफलता भेदियो के कारण स्थायी नहीं रह सकी।बेगम नेपाल की तरफ चले जाने को मजबूर हो गईं।नेपाल की सीमा पर स्थित बर्फबाग उनका आखिरी प्रवास स्थल बना।अप्रैल 1859 में यही रहते हुए वे जन्नतनशीं हो गईं।आज भी यहां उनके महल एमस्जिद और इमामबाड़े के अवशेष विद्यमान हैं।
झलकारी बाई:
मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है कि.
जाकर रण में जो ललकारी थी
वह तो झांसी की झलकारी थी।
रानी लक्ष्मी बाई की हमशक्ल झलकारी उनकी सेना के दुर्गा दल की मुखिया थी। 22 नवंबर 1830 को उसका जन्म झांसी के निकट भोजला गाँव के एक कोली परिवार में हुआ था । पिता सदोवर सिंह झांसी दरबार की सेवा में थे।झलकारी बचपन से सैनिक गुणों से परिपूर्ण थी, उसे तोप तलवार बंदूक चलाने के साथ घुड़सवारी का शौक था। उसके पति पूरन सिंह भी झांसी में सैनिक थी। जब 1857 में झाँसी में विद्रोह आरम्भ हुआ तो झलकारी ने रानी का साथ दिया और किले की रक्षा का प्रण किया।दूसरे सैनिक सरदारों के असहयोग के कारण रानी को जब झांसी छोड़ना पड़ा उस समय भी झलकारी ने स्वयम रानी के रूप में भेष धारण कर किले की रक्षा। जनरल ह्यूरोज के सामने भी उसने हार नहीं मानी।अंततः उसे गिरफ्तार कर लिया गया और अप्रैल 1858 में फाँसी दे दी गयी। खेद है कि मुख्यधारा के इतिहास में झलकारी बाई की चर्चा न के बराबर है।
रानी ईश्वर कुमारी:
ईश्वर कुमारी गोंडा जिले के तुलसीपुर स्टेट की रानी थी।राजा दृगराज सिंह की 1857 के विद्रोह के समय ही मृत्यु हो चुकी थी।फिर भी तुलसी पुर के लोग उस समय विद्रोही सैनिको का साथ देने का निर्णय कर चुके थे।रानी स्वयं सैनिको का नेतृत्व कर रही थी।अंग्रेज़ो ने अनेक प्रलोभन देकर उन्हें शांत करना चाहा।लेकिन उन्होंने बेग़म हजरत महल की तरह निर्वासित जीवन व्यतीत करना पसंद किया और अंतिम समय तक अत्याचार का मुकाबला करती रही।जब बेग़म हजरत महल नेपाल जा रही थी तो रानी ने उन्हे आश्रय दिया।अंचवा गढ़ में बेगम तीन दिन रुकी रहीं। ईश्वर कुमारी ने न केवल सुरक्षा प्रदान की बल्कि नेपाल की सीमा तक पहुंचाया। कहा जाता है कि उन्होंने अपना शेष जीवन भी नेपाल की सीमा पर ही व्यतीत कर दिया। गोण्डा जनपद में आज भी ईश्वर कुमारी का नाम आदर और सम्मान से लिया जाता है।1857 के बाद तुलसीपुर का राज्य बलरामपुर का हिस्सा बन गया ।
मालतीबाई लोधी:
कवि खेमसिंह ने लिखा है.
मातृभूमि के लिए मालती नेअपने अनुजों को छोड़ा
छोड़ा अपने पूज्य पिता को परिणय बंधन से मुख मोड़ा।
याद रहेगी झांसी रानी संग मालती याद रहेगी
भूल खेमसिंह कैसे होगी तू बलिदानी याद रहेगी।।
बुंदेलखंड के जनमानस में अमिट स्थान रखने वाली मालतीबाई एक गुमनाम कुलहीन महिला थी।उनका जन्म 1840 में बेतवा नदी के तट पर लोधी कृषक परिवार में हुआ था। माता की असमय मृत्यु ने परिवार की जिमेदारी मालती को दे दी।दो भाइयों और खेती की देखभाल करते हुए उनका जीवन बीत रहा था कि 1857 की क्रांति की ज्वाला दहक उठी।अनेक देशप्रेमियों की भाति वह भी सैनिक प्रशिक्षण लेन आरम्भ कर दिया। मालती का गांव झांसी की रानी के राज्य में आता था।रानी जब अपने क्षेत्र के भृमण पर गयी थी तभी उनकी नजर मालती पर पड़ी।रानी ने उसके लगन को देखकर सैनिक प्रशिक्षण के साजो सामान भेजने का बचन दिया।इनके मिलने पर मालती ने अपने कौशल में बृद्धि की और रानी की सेना में शामिल हो गयी।झांसी पर हुए आक्रमण के समय वह छाया के समान रानी के साथ डटी रही।जब रानी अपने दत्तक पुत्र को लेकर अंग्रेज़ो से मुकाबला कर रही थी मालती ने उन्हें बचाने के प्रयास में स्वयं किसी अंग्रेज़ की गोली का शिकार हो गईं।
सरस्वती बाई लोधी:
सरस्वती बाई लोधी ललितपुर छावनी के सूबेदार अर्जुनसिंह की बेटी थी। 1840 में जन्मी सरस्वती बाल्यकाल से ही बहुत सुंदर थी।उनमे अंग्रेजी भाषा की निपुणता के साथ युद्ध कला की अदभुत जानकारी थी।ललितपुर छावनी के कप्तान थॉर्नटन थे।1855 में नववर्ष के उपलक्ष्य में उन्होंने शकुंतला नाटक का मंचन कराया जिसमें वह स्वयं दुष्यंत और सरस्वती ने शकुंतला का रोल निभा रहे थे। इस नाटक का मंचन इतनी कुशलता के साथ हुआ कि दुष्यंत वास्तविक जीवन मे भी शकुंतला के प्रति आसक्त हो गये और विवाह का प्रस्ताव लेकर उसके पास गए लेक़िन सरस्वती ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। माता पिता की इच्छा के अनुसार उसने एक जागीरदार उमराव सिंह के साथ विवाह कर लिया। उधर थॉर्नटन जो कुछ समय के लिये चला गया था एवह डिप्टी कमिश्नर बनकर वापस चला आया।उसने सरस्वती के पिता के राज्य को हड़पने की कोशिश करने लगा। साथ ही उसके पति उमरावसिंह को गिरफ्तार कर लिया। अब रानी के पास सैनिक कार्यवाही के अतिरिक्त कोई मार्ग नही था।उसने सेना तैयार की और थॉर्नटन के खिलाफ युद्ध के लिए निकल पड़ी।मुखबिर की गद्दारी से सेना को सफलता नही मिली।सभी सैनिक बंदी बना लिए गए।रानी ने 1360 देशभक्तों की रक्षा के लिए थॉर्नटन की बात की विवाह की शर्त को स्वीकार कर लिया।लेकिन शादी के लिये निर्धारित दिन के पूर्व ही अंगूठी का हीरा खाकर जान दे दी।
ऊदा देवी:
1857 के विद्रोह में महिलाओं की भूमिका की चर्चा ऊदा देवी के बिना अपूर्ण होगी। यह वीरांगना लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह के महिला दस्ते की मुखिया थी।1847 में ही नवाब ने फूलो के नाम पर सैनिक दस्ते बनाने आरम्भ कर दिए थी उनकी रुचि गीत ,संगीत, नाटक, काव्य आदि के प्रति अधिक थी। कहा जाता है कि उनके कार्यकाल में ही लखनोवी संस्कृति का उदय हुआ।जब अंग्रेज़ रेजिडेंट का हस्तक्षेप बढ़ा तो महिला दस्ते को काला रंग देकर पूर्ण सैनिक टुकड़ी बना दिया गया।ऊदा के पति मक्का भी नवाब की सेना में थे क्योंकि उस समय बिना भेदभाव के भर्ती की जा रही थी। मक्का पासी चिनहट की लड़ाई में उस समय मारे गए थे जब फैजाबाद से मौलवी अहमद उल्लाह की सेनाएं शहर में आने का प्रयास कर रही थी।नवाब की सेना विद्रोही सैनिकों के साथ थी।लगभग 2000 भारतीय सैनिक इस लड़ाई में मारे गए थे। उधर कानपुर से कैम्पबेल के नेतृत्व में सेना सिकंदरबाग तक पहुंच चुकी थी।इसे रोकने का काम ऊदा देवी की टुकड़ी को करना था।वह पुरुष वेश में पीपल के पेड़ पर गोला बारूद के चढ़ गई।जब अंग्रेजी सैनिक वहाँ से गुजरे तो ऊदा ने पेड़ पर से हो 32 सैनिको को मार दिया।जब गोला बारूद खत्म हो गया तब वह अंग्रेजो की गोली का शिकार हो गयी।कैम्पबेल उसकी बीरता से आश्चर्यचकित रह गया।उसने अपना हैट उतार कर सम्मान प्रकट किया।इस तरह का दूसरा उदाहरण नहीं है जब किसी दंपति ने एक साथ देश के लिए अपने प्राण न्योछावर किये हों। ऊदा देवी की शहादत का दिन 16 नवंबर आज भी अत्यन्त और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है।
कुमारी मैना:
1857 की शहीद नारियों में कुमारी मैना की कहानी अत्यंत दर्द भरी है।वे नाना साहब की दत्तक पुत्री थीं। नाना साहब के सैनिक कानपुर में अनेक अंग्रेज़ स्त्रियों और बच्चों को गिरफ्तार कर लिए थे जो एक अनुचित कार्य था।नाना साहब ने उन्हें वापस भेजने की योजना तैयार की और कुमारी मैना को इसका दायित्व दिया।उस समय मैना की उम्र 15 वर्ष थी। मैना बच्चों और स्त्रियों को वापस पहुंचाने जा ही रही थी कि अंग्रेज़ो ने पुनः हमला कर दियाएस्त्रियों.बच्चों को भी नही छोड़ा।इससे वह बदला लेने की तैयारी करने लगी।तभी अंग्रेज़ो ने उसे गिरफ्तार कर लिया।उसका साथी सेनापति माधव मारा गया। बंदी मैना से अंग्रेजो ने नाना साहब के राज उगलवाने चाहे लेकिन उसने कुछ भी नहीं बताया।मैना को पेड़ से बांधकर कठोर यातना दी गयी।सूखी लकडियो के ढेर पर रखकर एआग लगाने की चेतावनी देकर भी नाना साहब के छिपे होने के स्थान की जानकारी चाही। अन्ततः उसे जीते जी ही जला दिया गयाएलेकिन मैना ने राज नहीं खोला।नाना साहब भागकर नेपाल चले गए थे।
उर्मिला देवी शास्त्री:
उत्तर प्रदेश की महिला क्रांतिकारियों में मेरठ की उर्मिला देवी शास्त्री का महत्त्वपूर्ण स्थान है ।उनका जन्म 20 अगस्त 1909 को श्रीनगर में हुआ था। पिता चिरंजीत लाल आर्य समाज के सदस्य थे।अतः उर्मिला को हिन्दू धर्म की उचित शिक्षा प्राप्त हुई।1929 में उनका विवाह प्रोफेसर धर्मेन्द्र शास्त्री के साथ हो गया।गांधी के आह्वान पर उन्होने सविनय अवज्ञा आंदोलन में हिस्सा लेना आरम्भ कर दिया।30 महिला सदस्यों को टोली बनाकर वे स्वदेशी और बहिष्कार की चेतना फैलाने लगी । मेरठ के नौचंदी मेले में लगने वाली विदेशी कपड़ो की दुकानों को बंद करा दिया।लेकिन शीघ्र ही वे शासन की आंखों की किरकिरी बन गईं।अवसर मिलते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया।जेल में रहते हुए भी उन्होंने सक्रियता नहीं छोड़ी और जन चेतना जगाती रहीं। कारागार के अनुभव शीर्षक संस्मरण उनकी राजनीतिक चेतना का परिचय देते है।1941 तक वे अनेक बार जेल की सजा पाती रही। 06 जुलाई 1942 को गर्भाशय के कैंसर के चलते उनकी असमय मृत्यु हो गयी।
दुर्गा भाभी:
दुर्गा का जन्म 1907 में इलाहाबाद में हुआ था।बचपन से ही वे बहुमुखी प्रतिभा की धनी थी।बड़े होने पर उनका विवाह भगवती चरण बोहरा के साथ हुआ जो देश के प्रमुख क्रांतिकारी थे।क्रांतिकारी उन्हें भाई कहते थे अतः दुर्गा जल्द ही भाभी के उपनाम से प्रसिद्ध हो गयी। दुर्गाभाभी का घर क्रांतिकारियों के अड्डा बन गया।लाहौर षणयंत्र केस और साण्डर्स हत्या कांड के कारण क्रांतिकारी गिरफ्तार किये जा रहे थे इसलिये भगवती चरण को घर से भागना पड़ा। दुर्गा भी लाहौर चली गई लेकिन मदद करना नहीं छोड़ा। भगतसिंह और राजगुरु को उन्होंने ही लखनऊ तक पहुंचाया।कलकत्ता में कुछ दिन रुकने के भगतसिंह दिल्ली आए और असेम्बली बम कांड को अंजाम दिया। दुर्गा भाभी ने भगतसिंह को छुड़ाने के लिये योजना बनाई,बम तैयार किये और उनका परीक्षण भी किया।इसी बीच बम विस्फोट में भगवती चरण की मृत्यु होगयी।बम का दर्शन लिखने वाला बम का शिकार हो गया। दुर्गाभाभी ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी।तीन वर्ष के बच्चे को लेकर इधर उधर भटकती रहीं। जब भगतसिंह और उनके साथियों को फांसी की सजा सुना दी गयी तो वे अकेले ही पुलिस कमिश्नर को गोली मारने निकल पड़ीं।लेमिंगटन रोड़ पर उन्होंने दो अंग्रेज़ो को गोली मार दी।वे कुछ दिन तो बचने का प्रयास करती रही लेकिन बाद में समर्पण कर दिया। 1982 तक वे लखनऊ में शिक्षा केन्द्र चलाती रही।1999 में उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद में उनका निधन हो गया।
देवी मुसद्दी:
देवी मुसद्दी एक मारवाड़ी महिला थीं उनके पति रामचंद्र अवस्थी पारिवारिक व्यवसाय करते हुए इलाहाबाद के कटरा मुहल्ले में रहते थे। रामचंद्र को क्रांतिकारी गतिविधियों में कोई रुचि नहीं थी लेकिन देवी को किसी की सहायता से रोकते भी नही थे।एक दिन चन्द्र शेखर आज़ाद उनके घर आये जिसकी खबर पुलिस को हो गई।घर को चारों तरफ से घेर लिया गया। उस समय कुशाग्र बुद्धि देवी ने चन्द्रशेखर को नौकर के कपड़े पहनाए और एक परात में मिठाई रखकर बोली कि आज रक्षाबंधन है मुझे भाई के घर जाने की देर हो रही है। चल परात उठा और मेरे भाई के घर चल! यह इतना स्वाभाविक अभिनय था कि पुलिस पहचान नहीं सकी।चंद्रशेखर आसानी से निकल गए।जब इसकी जानकारी अंग्रेज़ो को मिली तो देवी को छः महीने की सजा काटनी पड़ी।
सुभद्राकुमारी चौहान:
सुभद्राकुमारी का जन्म 1904 मे प्रयाग के निहालपुर मुहल्ले में हुआ था।माता पिता की सातवीं संतान सुभद्रा बचपन से मेधावी और प्रतिभाशाली थी।क्राइस्ट वेथ गर्ल्स स्कूल में शिक्षा पाने के बाद उनका परिचय महादेवी वर्मा से हो गया।कविता लेखन की प्रवृत्ति ने यही जन्म लिया। चौदह वर्ष की उम्र में लक्ष्मण सिंह चौहान के साथ विवाह होने पर लेखन ने गति पकड़ी। जलियांवाला बाग कांड के समय सुभद्राकुमारी ने राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत कविता लिखी जो क्रांतिकारी सैनिको का मुख्य गीत बन गया।1923 में जबलपुर में झंडा फहराने के आरोप में उन्हें पहली बार गिरफ्तार किया गया।1932 में वे पुनः सक्रिय हुईं ,गांधी से मुलाकात के बाद चुनावी राजनीति में शामिल हुई।उन्हें निर्विरोध प्रांतीय असेम्बली का सदस्य चुना गया।व्यक्तिगत सत्याग्रहए भारत छोड़ो आंदोलन आदि में उनकी सहभागिता सबसे बढ़कर थी।लेकिन ट्यूमर की वीमारी के कारण उनका स्वास्थ्य विगड़ने लगा।15 फरवरी 1948 को एक मोटर दुर्घटना में उनका भौतिक तेज समाप्त हो गया।लेकिन झांसी की रानी की अमर गायिका अभी भी भारतीयों के दिल मे जिंदा है।
स्वरूपरानी:
आजादी के आंदोलन में नेहरू परिवार की भूमिका मोतीलाल नेहरू के साथ आरम्भ होती है जो कश्मीर से आकर इलाहाबाद में बस गए थे। मोतीलाल की पत्नी स्वरूपरानी एक सम्पन्न परिवार से ताल्लुक रखती थी। उनमे वैष्णव सम्प्रदाय की सारी मान्यताएं विद्यमान थी।पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित मोतीलाल के सामने उन्होंने अपनी आस्थाओं से समझौता नहीं किया।उन्होंने गीता रामायण और महाभारत की कहानियां अपने पुत्र जवाहर लाल को सुनायीं। असमय वैधव्य की पीड़ा को सहन करते हुए आज़ादी के आन्दोलन में हिस्सा लिया।1931 में जवाहर की अनुपस्थिति में उन्होंने इलाहाबाद में एक जुलूस का नेतृत्व किया और पुलिस की लाठियों की शिकार हुईं।नेहरू ने अपनी आत्मकथा में इस घटना का उल्लेख किया है।1936 में कमला नेहरू भी चल बसीं तो उनका जीवन सूना हो गया।पुत्री विजय लक्ष्मी पंडित और जवाहरलाल को छोड़ वे भी स्वर्ग सिधार गयी।नेहरू ने लिखा है कि माता के देहावसान से भूतकाल से मेरे सम्बन्ध की अंतिम कड़ी भी टूट गयी।
सुनंदा ,महारानी तपस्वी:
सुनन्दा झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की भतीजी थीं।उनके पिता का नाम नारायण राव था जो एक पेशवा सरदार थे।रानी की जनक्रान्ति की पृष्ठभूमि तैयार करने में सुनंदा की प्रमुख भूमिका थी। वे बचपन मे ही विधवा हो गयी थी अतः उन्होंने तपस्वी का भेष धारण कर नैमिषारण्य में निवास करने लगी थी। अंग्रेज़ उनकी तरफ़ से निश्चिन्त हो गए थे कि वे अब पेशवा के राज्य को पाने की कोशिश नहीं करेंगी।1857 के विद्रोह का बिगुल बजा तो रानी पुनः सक्रिय हुईएउन्होने साथु सैनिक टोली बना ली थी।घोड़े पर सवार तपस्विनी को देख अंग्रेज़ आश्चर्य चकित हो गए।रानी तपस्वी अपने छापामार दस्ते के साथ अंग्रेज़ी ठिकानों पर हमला किया लेकिन संगठित सेना के आगे उनकी नहीं चल सकी। नाना साहब के साथ उन्हें भी नेपाल की तराई में छिपना पड़ा।स्थिति सम्भलने पर वे कलकत्ता चली गयी और महाकाली पाठशाला खोलकर क्रांतिकारी चेतना का प्रसार करने लगी।उन्होने विवेकानंद और तिलक से भेटकर भारत की आज़ादी के आंदोलन को तीव्र करने की सलाह दी।1905 के बंग भंग आंदोलन के समय भी वे सक्रिय रही।आध्यात्मिक चिंतन के साथ अंतिम समय तक क्रांति का संदेश फैलाती रही तपस्वनी 1907 में स्वर्ग सिधार गयी।50 साल के क्रांतिकारी जीवन वाली दूसरी कोई महिला इतिहास में उपलब्ध नही दिखती है।
विजय लक्ष्मी पंडित:
विजय लक्ष्मी का जन्म 1900 ई में हुआ था।चार वर्ष की उम्र में फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलना सीख चुकी विजय को अच्छी शिक्षा प्राप्त हुई।19 वर्ष की आयु में गुजराती विद्वान रंजीत पंडित के साथ उनका विवाह हुआ। रंजीत भी स्वतंत्रता सेनानी थे इसलिये वैचारिक धरातल पर विजय को सहयोग मिला।उन्होंने आज़ादी के आंदोलन में हिस्सा लेंना आरम्भ कर दिया।महिला कल्याण की योजनाओं को चलाते हुए कांग्रेस में सक्रिय हुई और अखिल भारतीय महिला कांग्रेस के अध्यक्ष का पद शुशोभित किया।1932,1941,1942 में जेल जाकर अपने मन से जेल के भय को निकाल दिया। 1937 के चुनाव में उन्हें संयुक्त प्रांत में मंत्री बनाया गया। द्वितीय विश्व युद्ध के के दौरान ही विजय लक्ष्मी के पति की मृत्यु हो गयी। अब उन्हें जीवन मे निराशा दिखाई देने लगी तभी अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हेतु सम्मेलन बुलाया। उन्हें प्रतिनिधि के तौर पर नही भेजा गया था फिर भी अपनी बेटियों से मिलने के बहाने वहां पहुंच गई और भारत का पक्ष मजबूती से रखा। उनके भाषण से आज़ाद भारत के नुमाइंदों को शामिल करना अनिवार्य हो गया। भारत के स्वतंत्र होने पर विजय को रूस में राजदूत बनाया गया जो किसी महिला के लिये विश्व का पहला उदाहरण था। 1953 में उन्हें सयुक्त राष्ट्र संघ महासभा का अध्यक्ष चुना गया।
सुचेता कृपलानी:
सुचेता कृपलानी जन्म से उत्तर प्रदेश की निवासी नहीं थीं, उनका जन्म 1908 में पंजाब के अम्बाला में हुआ था।प्रारम्भिक शिक्षा लाहौर में पाने के बाद वे बनारस चली आयी और आजीवन उत्तरप्रदेश की राजनीति में सक्रिय रही।।बनारस आने का उद्देश्य उच्च शिक्षा प्राप्त करना था जहाँ उन्हें अध्ययन के बाद अध्यापन का कार्य मिल गया। 1932 से उन्होंने सार्वजनिक जीवन जीना आरम्भ किया।1939 में वे इस्तीफा देकर कांग्रेस की पूर्णकालिक सदस्य बन गईं।गांधी जी ने 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में उन्हें सत्याग्रही माना जिसके कारण उन्हें जेल की सजा सुनाई गई। 1942 के आंदोलन के समय अरूणा आसफ अली के साथ मिलकर भूमिगत स्वयंसेवक दल की स्थापना की और शीर्ष नेताओं की अनुपस्थिति में भी राष्ट्रीय भावना का जन जन में संचार कर दिया। 1944 के उत्तरार्ध में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।जेल में ही उनकी मुलाकत जे बी कृपलानी से हुई जिनके साथ वैवाहिक बंधन भी हुआ।आजादी के बाद वे कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्य कारिणी की सदस्य और दो बार लोकसभा सदस्य चुनी गईं।1963 से1967 तक वे उत्तरप्रदेश की प्रथम महिला मुख्यमंत्री के रूप में कार्यरत रही। 67 वर्ष की उम्र में इस महान नायिका का1975 में स्वर्गवास हो गया।
सरोजिनी नायडू:
वैसे तो नायडू हैदराबाद की रहने वाली थीं लेकिन देश का कोई हिस्सा नहीं था जो उनकी प्रतिभा से अवगत न रहा हो। 13 फरवरी 1878 को जन्मी नायडू के पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एक वैज्ञानिक थे लेकिन घर पर भारतीयता का परिवेश तैयार कर था।नायडू ने मद्रास विश्वविद्यालय से शिक्षा पाई और अल्पायु में ही द लेडी ऑफ द लेक कविता का सृजन कर अपनी प्रतिभा का परिचय देना आरम्भ कर दिया।गांधी और गोखले से मुलाकात के बाद उन्होंने कांग्रेस के कार्यक्रमो में हिस्सा लेना आरम्भ कर दिया।महिला मताधिकार आंदोलन में हिस्सा लेकर वे राजनीति के शीर्ष पर आ गईं।1919 में होम रूल लीग के प्रतिनिधि मंडल के सदस्य के रूप में लंदन गईं और जलियाँ वाला बागकाण्ड की कठोर निंदा वहाँ के किंग्सवे हाल में की।1925 में कानपुर में कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप पहली भारतीय महिला होने का गौरव प्राप्त किया। इसके बाद घटित हर घटना में उनकी भागीदारी देखने को मिलती है। गोल मेज सम्मेलनए 1932 के धरसना नमक आंदोलनए1942 के आंदोलन आदि में उल्लेखनीय भूमिका निभाते हुए वे उत्तरप्रदेश की प्रथम राज्यपाल बनी । राजनीतिक जीवन मे हास परिहास का समावेश का भी नायडू ने अपने व्यंग्य कौशल का परिचय दिया।आदमियों में मिकी माउस;गांधी, बारदोली का बैल;पटेल,नरकंकाल;कृपलानी, सुंदर राजकुमार;नेहरू जैसी उक्तियाँ उनके व्यंग्य कला की परिचायक हैं। 2 मार्च 1959 को उनका निधन हो गया।
ऐनी बेसेंट:
एनी बेसेंट एक ब्रिटिश मूल की सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्रता सेनानी थीं उन्होंने उत्तर प्रदेश के बनारस जिले को अनेक सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बनाया था। इसलिये उन्हें प्रदेश की नारी सेनानियों में शामिल करना अनुचित नहीं होगा।एक अक्टूबर 1847 को लंदन में जन्मी ऐनी के पिता का नाम विलियम वुड था।इंग्लैंड में ही शिक्षा पाकर वे फ्रैंक बेसेंट के साथ वैवाहिक जीवन व्यतीत कर रही थी कि थियोसोफी सोसाइटी के संपर्क में आ गईं।1898 में वे पहली बार भारत आईं और यही रहने लगीं।बनारस आकर उन्होंने भारतीय धर्म और संस्कृति को जाना और इसके लिए ही कार्य करने लगी। हिन्दू धर्म और शिक्षा के लिये अनेक संस्थानों की स्थापना कराई।1913 में नारी शिक्षा के लिए वसंता कालेज आरम्भ किया। 1917 में नेशनल हाई स्कूल तथा 1920 में सेंट्रल हिन्दू कालेज की स्थापना कर नए मानदंड स्थापित किये।सेंट्रल हिन्दू कालेज ही आगे चलकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के रूप में प्रसिद्ध हुआ। धर्म और संस्कृति के प्रसार के उन्होंने राजनीतिक चेतना भी फैलाई।स्वयं अंग्रेज होते हुए भी स्वशासन की प्रणाली पर जोर दिया।तिलक के साथ मिलकर होम रूल आंदोलन चलाकर भारतीय जनता में आज़ादी की भावना का जिस प्रकार का उदाहरण ऐनी बेसेंट ने प्रस्तुत किया वह सर्वथा दुर्लभ है। भारत के शीर्ष राष्ट्रीय संगठन का नेतृत्व करने देना भी उनकी प्रतिबद्धता को स्पष्ट करता है।20 सिंतबर 1933 को मद्रास में उनकी मृत्यु हो गयी।ऐनी बेसेंट एक अद्वितीय महिला रहीं।भारत की आज़ादी का आंदोलन गैर भारतीयों ने भी लड़ा था।
इंदिरा गांधी:
उत्तरप्रदेश की राजनीतिक शक्तियों की चर्चा इंदिरा गांधी के बिना पूर्ण नहीं होगी।आजकल काँग्रेस की बदनामी का दौर है ऐसे में कुछ बाते स्पष्ट होना जरूरी है।इंदिरा गांधी का जन्म 19 नवंबर 1917 को इलाहाबाद के आनन्द भवन में हुआ था। नेहरू और कमला की संतान इंदु प्रारम्भिक शिक्षा पाने के बाद शांति निकेतन गईं जहां गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने उन्हें प्रियदर्शिनी नाम दिया।उच्च शिक्षा के लिये वे ऑक्सफ़ोर्ड गईं लेकिन दाखिला नहीं मिला पुनः ऑक्सफ़ोर्ड के ही दूसरे कालेज में प्रवेश लिया।लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से डिग्री लेकर वापस स्वदेश आईं।1942 में उनका विवाह पूर्व परिचित फिरोज गांधी के साथ हुआ। राजीव और संजय का जन्म आजादी के समय तक हो गया था। इंदिरा का राजनीतिक जीवन विद्यार्थी काल से ही आरम्भ हो गया था।इलाहाबाद में बानर सेना के गठन को उनकी पहली उपलब्धि माना जाता है यह सेना आज़ादी के सैनिकों की मदद करती थी।दूसरे सामाजिक कार्यो में संलग्न होकर कांग्रेस के आधार को विस्तृत किया। 1942 के आंदोलन के समय क्रांतिकारी कार्यो के कारण इंदिरा गांधी 243 दिन जेल में रही।विभाजन की त्रासदी के समय उन्होंने शरणार्थी शिविर संचालित किया। नेहरू के प्रधानमंत्री बनने पर वे दिल्ली गईं लेकिन दलगत राजनीति में उन्हें स्थान नेहरू की मृत्यु के बाद ही मिला।1964 में वे राज्यसभा के लिए चुनी गई।
इतने नामोल्लेख के बाद यह नहीं कहा जा सकता कि उत्तर प्रदेश के महिला नेतृत्व मात्र यही थे।यह सूची और लंबी है।स्त्रियों ने दूसरे रूप में भी स्वतन्त्रता संग्राम में अपनी भूमिका निभाई।अपने पतियों के सहयोग,पुत्रों को प्रेरित करना, पत्र लेखन, सूचना के आदान.प्रदान, गोपनीयता,भरण. पोषण आदि भी महत्त्वपूर्ण कार्य हैं जिनके बिना आज़ादी का संघर्ष चल ही नहीं सकता था।