चन्देलों की उत्पत्ति ( Origin of Chandel)

चन्देलों की उत्पत्ति

चन्देलों की उत्पत्ति का विषय बड़ा ही विवादग्रस्त है। डॉक्टर स्मिथ सरीखे विद्वानों की धारणा है कि चन्देलों की उत्पत्ति भर, गोंड आदि जातियों से हुई, परन्तु श्री चिन्तामणि विनायक वैद्य प्रभृति भारतीय विद्वानों की राय है कि चन्देल विशुद्ध आयं क्षत्रिय सन्तान हैं। चन्देलों की उत्पत्ति की उनकी एक अपनी भी कथा है, जिसके अनुसार चन्देल वंश के संस्थापक चन्द्र वर्मा की उत्पत्ति बनारस के गहरवार राजा इन्द्रजीत के ब्राह्मण पुरोहित हेमराज की कन्या हेमवती से हुई थी। इस कथा के अनुसार एक बार जब हेमवती रति तालाब में स्नानाथं गई हुई थी, तब भगवान् चन्द्र उसके रूप से आकर्षित होकर वहां प्रकट हुए और उसे आशीर्वाद दिया कि उसका पुत्र बड़ा ही महान तथा समस्त भू-मण्डल का स्वामी होगा। भगवान् चन्द्र ने उसे कालिंजर के निकट ‘आसु’ नामक स्थान में जाने तथा पुत्रोत्पत्ति के पश्चात् केन नदी पार करके खजुराहो जाकर चिन्तामणि वैन्य’ के साथ रहने का आदेश दिया।

भगवान् चन्द्र के आदेशानुसार हेमवती काशी से कालिंजर चली गई और वह पवित्र नदियों में स्नान करती हुई तथा अपने पुत्र के हित की कामना से अनेक देवी-देवताओं की जारा- धना करती हुई चार माह रही। अन्त में प्रसव काल समाप्त होने पर वैशाख कृष्ण एकादशी सोम- वार सम्वत् २०४९ को केन नदी के तट पर वह पुत्रवती हुई। भगवान् चन्द्र ने अन्य देवताओं के साथ इस महोत्सव को सम्पन्न किया। वृहस्पति ने जन्मांक बनाया और शिशु का नाम चन्द्रवर्मा रखा गया। पोडश वर्ष की आयु में चन्द्रवर्मा ने एक सिंह का वध कर दिया। उसी समय भगवान् चन्द्र उसके समक्ष प्रकट हुए और उसे पारस पत्थर देकर राजनीति की शिक्षा दी। तदनन्तर चन्द्रवर्मा ने कालिंजर दुर्ग का निर्माण किया। उसने अपनी मां का लांछन दूर करने के लिए खजुराहो में एक यज्ञ किया तथा ८५ मंदिर बनवाये। अन्त में वह महोत्सव नगर अथवा

       महोबा गया और वही अपनी राजधानी बनायी। अनेक युद्धों के पश्चात् चन्द्रवर्मा ने अपना सुद्ध राज्य स्थापित किया और जनश्रुति ऐसी है कि जब तक चन्द्रवर्मा के वंशज अपने नाम के साथ ब्रह्म अथवा वर्मन शब्द प्रयुक्त करेंगे, अपवित्रता से बचेंगे, नीच, एकाक्ष तथा कोड़ी से दूर रहेंगे और ब्रह्म वध तथा मंदिरा पान न करेंगे, तब तक राज्य सुदृढ रहेगा। कहा यह जाता है कि जब तक उपरोक्त प्रतिबन्धों का पालन हुआ, यह वंश निरन्तर उन्नति करता रहा, परन्तु महाराज परमदिदेव द्वारा इनका पालन न करने पर वह पतनोन्मुख हुआ।

• डॉ० स्मिथ इस हेमवती कथा को अधिक महत्व नहीं देते हैं। उनकी धारणा है कि अन्य राजपूत वंशों की भाँति चन्देलों की उत्पत्ति भी संदिग्ध एवं अनिश्चित है। वे इस कथा को केवल इतना ही महत्व देते हैं कि इससे इस वंश को चन्द्रवंशी राजपूतों में सम्मिलित होने का एक प्र मिल गया तथा ब्राह्मण पूर्वजा होने के कारण इस वंश के सम्मान की वृद्धि हुई। उनकी राय है कि चन्देलों की उत्पत्ति भर तथा गोंडों से है, क्योंकि वे न तो उत्तर-पश्चिम के प्रवासी थे और न शक तथा हूणों से ही उनका कोई सम्बन्ध था। अस्तु, विदेशी सम्मिण से पृथक होने के कारण ‘चन्देलों के पूर्वज गोड तथा अन्य आदिम जातियों के अधिक सन्निकट हो जाते हैं, जिन्हें सुसंगठित करके उन्होंने अपने राज्य की स्थापना की। चन्देलों तथा गोंडों की कुलदेवी मनियादेवी इन दोनों जातियों में परस्पर निकटतम सम्बन्ध स्थापित करती है। मनियादेवी का मंदिर केन नदी के तट पर प्राचीत मनियागह के भग्न दुर्ग में है। इस देवी का दूसरा मंदिर हमीरपुर जिले के भारेल नामक ग्राम में है। यह भारेल भर नरेशों की राजधानी प्रतीत होता है। यहाँ की प्राप्त मूर्तियों से प्रकट होता है कि भरो की भी कुलदेवी मनियादेवी है।’ मनियादेवी की उपासना से चन्देल गोड तथा भरों के सन्निकट आ जाते हैं।

चन्देलों तथा गोंडों के वैवाहिक सम्बन्ध १६वीं शताब्दी तक पाए जाते हैं, जब कि चन्देल राजकुमारी दुर्गावती का विवाह गढ़ा मंडला के गांव सरदार के साथ हुआ था। चन्देल तथा भरो के सीधे वैवाहिक सम्बन्ध के निर्देश नहीं मिलते, किन्तु उनके दूरवर्ती सम्वन्ध के कुछ उदाहरण दिए जाते हैं। श्री चन्द्रशेखर बनर्जी ने एक चन्देल राजकुमार तथा सरबार सरदार की कन्या के

१. हमीरपुर गजेटियर, भाग २२, पृष्ठ १२६, आक्यों० सर्वे रिपोट्स, भाग २१. पृष्ठ ७१ । २. इण्डि० एण्टी० १९०८, पृष्ठ १३६ ।।

–इस कया की प्रसिद्धि कुछ पाषाण स्तम्भों से भी प्रकट होती है। इनमें परस्पर हाथ पकड़े हुए स्त्री पुरुष के दो चित्र अंकित हैं। इस स्तम्भ में ऊपर बाईं ओर केवल एक खुले हुए हाथ का चित्र अंकित है। राहिनी ओर पन्द्र तब सूर्य के चित्र हैं (जे० ए० एस० पी० १८७७, पृष्ठ २३४-२३५), किन्तु सूर्य और चन्द्र साथ-साथ उदय नहीं होते। सूर्य-चन्द्र का एक साथ अंकन सम्भवतः हेमवती कवा की ओर निर्देश करता है, क्योंकि उस कथा में यह उल्लेख है कि प्रीष्म ऋतु में जब सूर्य की किरणें प्रखरतम हो रही थीं, भगवान् चन्द्र हेमवती के सम्मुख आये जे० ए० एस० बी० १८६८, पृष्ठ १८६) ।

वैवाहिक सम्बन्ध का उल्लेख किया है। सरवारों तथा भरों अन्य आदिम जातियों में परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध आज भी पाये जाते हैं। इन वैवाहिक सम्बन्धों से चन्देलों को भरो व गोंडों आदि की निकटता का बोध होता है।

श्री चिन्तामणि विनायक का मत है कि चन्देल विशुद्ध चन्द्राय है।’ उनको राय है कि महाकवि चन्द्र बति ३६ श्रेष्ठ राजपूत कुलों में चन्देलों की गणना उनके विशुद्ध क्षत्रिय होने का प्रमाण है। निस्सन्देह रासो में यह उल्लेख है कि ब्रह्मा ने यह घोषित किया था कि हेमवती का पुष महान क्षत्रिय नरेश होगा। परन्तु ३६ राजपूत वंशों में हूण जीत आदि भी सम्मिलित हैं, जिनके राजपूत होने का प्रमाण कहीं भी नहीं मिलता है। अस्तु इस सूची की प्रामाणिकता संदिग्ध प्रतीत होती है। फिर इस सूची का निर्माण उस समय हुआ था, जब कि चन्देलों की पराजय पृथ्वी- राज द्वारा हो चुकी थी।” अतः संभव है कि चन्देलों के पूर्व गौरव के विचार से अथवा अपने सर- क्षक पृथ्वीराज को अधिक गौरवान्वित करने की दृष्टि से उसके द्वारा पराजित चन्देलों के महत्व को दिखाने के विचार से महाकवि चन्द ने ३६ कुलीन राजवंशों की सूची में चन्देलों को स्थान दिया हो।

अपने मत की पुष्टि के लिए श्री का विचार है कि हूण और कुशाण आक्रमण के समय चन्देल पंजाब तथा गंगा की पाटी से आकर मनियागढ़ के गोड-देश में आकर बस गए और वहीं से वे महोबा गये तथा अपने साथ मनियादेवी की आराधना भी लेते गए। पर इस मत के मानने से हेमवती कथा का महत्व जाता रहता है। इस कथा में यह उल्लेख है कि भगवान चन्द्र ने हेमवती से काशी से कालिजर आने को कहा था, जहाँ इस वंश का आदि पुरुष चन्द्रवर्मा पैदा हुआ। इस भांति राम्रो वर्णित ३६ राजपूत वंशों के तथ्य को स्वीकार करते हुए तथा उसी रासो में उल्लिखित हेमवती कथा के अन्य तथ्यों की उपेक्षा करते हुए वैद्य महोदय स्वयं सामजस्य नहीं स्थापित कर पा रहे हैं। मनियादेवी के सम्बन्ध में इतना कहना पर्याप्त होगा कि हेमवती कथा के आधार पर यह स्पष्ट है कि इस वंश का मूल पुरुष चन्द्रवर्मा ब्राह्मण धर्म का अनुयाय था। १० वर्ष की आयु में वह केदार गया और जब वह १७ वर्ष का हुआ तब उसने कालिजर जाकर नीलकण्ठ की आराधना की। अस्तु, समझ में नहीं आता कि एक व्यक्ति जो बचपन से ही शिवोपासक था तथा इतना शक्तिशाली था कि उसने १२ ही घण्टे में गहौरा तथा सिहोरा के देशों को पराजित कर दिया, वह अनायों की संस्कृति तथा धर्म को क्यों अपनावेगा, जबकि वे उसके धर्म एवं संस्कृति से उच्चतर नहीं थे। अस्तु, यदि श्री वैद्य का विचार ठीक होता और अपनाते की उत्पत्ति विशुद्ध आर्य क्षत्रियों से ही होती, तो वे मनियादेवी की आराधना कभी न /

सन्देल अभिलेखों से इस तथ्य पर विशेष प्रकाश नहीं पड़ता है। धगदेव के ताम्रपत्र से यह प्रतीत होता है कि इस वंश का संस्थापक वृह्मेन्द्र मुनि का वंशज था, किन्तु गंडदेव के शिलालेख में इस वंश का संस्थापक चन्द्रात्रेय वंशीय कहा गया है। इन दोनों अभिलेखों में हेमवती का कोई निर्देश नहीं है। चन्देलों का गोत्र चान्द्रायण बतलाया जाता है और उनके अभ्युदय काल है भी उनकी संख्या सीमित थी। उनकी केवल शासकों की ही जाति थी, जिन्होंने गोंड, कोल, आदि अनेक अनार्य जातियों का दमन करके अपने राज्य की स्थापना की थी। चन्देलों के साथ और अनेक वंशों ने नवी शताब्दी में राज्य स्थापित किये और इस कारण राजपूत कहलाये ।” अनभूतियों में चन्देल इस प्रदेश के पूर्व शासक भी कहे जाते हैं; परन्तु सर्वत्र ही मोड, कोल, भील, भर, काछी, अहीर, चमार आदि छोटी जातियों का अधिकार पाया जाता था। अस्तु, जनश्रुतियाँ ऐतिहासिक कसौटी में खरी नहीं उतरती है।

चन्देल शब्द

चन्देल नरेशों ने अपने अभिलेखों में इस शब्द को कई भाँति से अंकित किया है। १०११ वि के चंगदेव के खजुराहो शिलालेख तथा अन्य अभिलेखों के अनुसार यह वंश चन्द्रात्रेय अथवा अत्रि के पुत्र चन्द्र से उद्भुत हुआ।’ यशोवर्मा के पीत्र देवलब्धि के दुबई शिलालेख में इस वंश को चन्द्रेल्लान्वय’ कहा गया है। अध्यापक कीलहान का मत है कि चन्द्रेल शब्द चन्द्र तथा प्राकृत प्रत्यय ‘इस’ के योग से बना है और चन्द्रात्रेय उसका संस्कृत का रूप है। इसके अतिरिक्त कीर्तिवर्मा के देवगड शिलालेख में चन्देल शब्द पाया जाता है। कलचुरि नरेश लक्ष्मीकणं वे बनारस दानपत्र’ में चन्देल्ल शब्द का उल्लेख है। पृथ्वीराज के मदनपुर शिलालेख में चन्देल शब्द आया है, किन्तु अधिकांश अभिलेखों में चन्देल्ल शब्द पाया जाता है।

मधु तयों के आधार पर चन्देलों का आदि स्थान खजुराहो तथा महोबा ही था। महोबा केकीति तथा हेमवती कथा से भी इसकी पुष्टि होती है। इसके अतिरिक्त जुराहो तथा महोबा में प्राप्त अनेक चन्देल अभिलेखों से भी स्पष्ट होता है कि चन्देलों का मूल- स्थान यहीं था। प्राचीन अरब इतिहासकार कामिल इस वंश का सम्बन्ध खजुराहो से ही मानते है। किन्तु डॉग का मत है कि उनका आदि स्थान गोंड प्रदेश-मनिवागढ़ में था। निस्सन्देह चन्देल का गोंडों से था और इससे यह हो सकता है कि उनका आदि स्थान निवड ही हो, जहाँ मनियादेवी का मंदिर आज भी बड़ा हुआ है। पर राज्य सत्तारूड़ होने पर चन्देलों का सम्बन्ध मनियागढ़ से न रहा और उन्होंने खजुराहो तथा महोबा में राजधानी बनायी। मनिया- गढ़ में किसी भी अन्देल अभिलेख की प्राप्ति न होने से इस मत की पुष्टि होती है।

चन्देल काल

शिलालेख साहित्यिक उपादान तथा सिक्के सभी इस बात पर मौन है कि चन्देल शासन- काल कब से प्रारम्भ हुआ। फिर भी इस वंश के कुछ नरेशों के तिथि युक्त लेखों से इस राज्य के प्रारम्भ काल का अनुमान लगाया जाता है। खजुराहो जैन शिलालेख से प्रतीत होता है कि सन् – ९५४ ई० में धगदेव राज्य करते थे।’ धगदेव १००२ ई० तक जीवित रहे। अस्तु उनका राज्या- रोहण १५० ई० के पश्चात् का ही होगा। अनेक उदाहरणों से जनरल नियम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि भारतीय पोड़ी लगभग २५ वर्ष की ही होती है। अस्तु, नबुक द्वारा चन्देल शासन का सुत्रपात तथा महोबा नगर की स्थापना लगभग ८००० में हुई होगी, क्योंकि धगदेव ननुक से ६ पीढ़ियों बाद हुए थे। भारतीय पीढ़ियों का अन्तर २० व २० वर्ष के बीच में होता है। अस्तु, दस के ३० वर्ष पूर्व अथवा पश्चात् सिंहासनारूड हुए होगे अनुमान यही है कि नक ने चन्देल वंश की स्थापना लगभग सन् ८३० में की।

चन्देल, कीज के प्रतिहार नरेश नागभट्ट द्वितीय (८१५-३३ ई०) के सामन्त थे । नागभट्ट द्वितीय ने अनेक युद्ध किये और चन्देल हर युद्ध में उनके साथ रहे। परन्तु नागभट्ट का उत्तराधिकारी रामभद्र (लगभग ८३३-३६ ई०) एक निर्बल शासक था, उसके राज्य में बडा हुआ। यह प्रतिहार वंश के पतन को रोकने में असमर्थ था। इस परिस्थिति से लाभ उठाकर संभवतः नथुक ने भी नागभट्ट के अन्तिम समय में अथवा रामभद्र के शासन के प्रारम्भिकः काल में प्रतिहारों से सम्बन्ध विच्छेद करके अपनी स्वाधीनता घोषित कर दी।

जनरल कनियम को महोबा खण्ड की विभिन्न प्रतियों में तीन तिथियां अर्थात् २०४, २२१ तथा ६६१ मिली है। कर्नल एलिस को तीसरी तिथि संख्या ६६१ की मिली है। ये चारों संवत् विक्रमीय नहीं है। डॉ० स्मिथ तथा जनरल कनियम का मत है कि छोटी संख्या हर्ष सम्बत् की सूचक है, जो सन् ६०६ ई० से चला था और बड़ी संख्यायें कलचुरि सम्वत् की है, जो सन् २४९ ई० में प्रारम्भ हुआ था। इस भांति बडी संख्या से हर्ष सम्वत् तथा छोटी संख्याओं को कलचुरि सम्वत मानकर ४ तिथिया सन् ८१०, ८३१ व ९१० तथा ९३१६० आती हैं। इन दोनों तिथियों में १०० वर्ष का अन्तर है। स्मिथ महोदय का विचार है कि इन तिथियों तथा वास्तविक तिथियों में १०० वर्ष का अन्तर भूलवश है।’ यद्यपि इस मत का कोई ठोस आधार नहीं, फिर भी ऐसी भूतियों की सम्बन्धित तिथियों में होती है। किम्बदन्ती के अनुसार पृथ्वीराज की महोबा विजय सन् ११४० ई० की है, यद्यपि इसकी वास्तविक तिथि १२३९ विक्रमी संवत् है।

चन्देलों की किम्वदन्ती की तिथि तथा शिलालेखों आदि से निर्धारित की हुई तिथि का समीकरण होता है और इसकी पुष्टि तत्कालीन राजनीतिक दशा से भी होती है। अस्तु, समीचीन यह प्रतीत होता है कि मनुक ने लगभग सन् ८३१ ई० में ही चन्देल वंश की नींव डाली।

१. वास्तव में चन्देल राज्य की स्थापना नन्नुक ने लगभग ८३१ ई० में की, किन्तु प्रतीत ऐसा होता है कि वह प्रतिहारों का करद बना रहा। चन्देलों का वास्तविक अभ्युदय एक शताब्दी पश्चात् लगभग सत् ९३१ ई० में यशोवर्मा के राज्य-काल में हुआ; जो इस वंश का प्रथम सार्वभोप नरेश था और हिमालय से लेकर मालवा तथा कश्मीर से बंगाल तक उसका प्रभाव व्याप्त था (इपी० इण्डि०, भाग १, पृष्ठ १२६) ।

इन दो तरह की तिथियों में २१ वर्ष का अन्तर आता है। यह २१ वर्ष का अन्तर सम्भवतः प्रथम चन्देल नरेश ननु की वयस्कता का बोधक है। सम्भवतः नन्नुक सन् ८१० में पैदा हुआ था और २१ वर्ष की आयु होने पर सन् ८३१ ई० में उसका राज्याभिषेक हुआ। जैसा कि हिन्दू राजनीति शास्त्र में भी प्रावधान है। जब सन् ९३१ ई० में इस वंश का सार्वभौम शासन यशो वर्मा ने स्थापित किया तो इस तिथि के साथ २१ वर्ष अन्तर वाली यह तिथि भी जोड़ दी गई। सम्भवतः यह अन्तर यशोवर्मा की भी वयस्कता का सूचक हो । अर्थात् उसका जन्म सन् ९१०ई० में हुआ और २१ वर्ष की आय पूर्ण होने पर सन् ९३१ ई० में उसने सार्वभौम शासन स्थापित किया हो।

२. महोबा के कानूनगो वंश की जनवृति के अनुसार प्रतिहार वंश की विच्छेद की तिथि सं० ६७७ है। यह तिथि कलर सम्वत की है, जिसका सन् १२६ आता है। यह तिथि हयंदेव के समय की है और सम्भवतः यह उस चन्देल सहायता का निर्देश करती है, जिससे कन्नौज नरेश क्षितिपाल देव अथवा महिपाल देव को अपने खोये हुए सिंहासन की प्राप्ति हुई बी (इपी० दृष्टि भाग १, पृष्ठ १२२ पंक्ति १० ) ।

विक्रमीय नहीं है। डॉ० स्मिथ तथा जनरल कनियम का मत है कि छोटी संख्या हर्ष सम्बत् की सूचक है, जो सन् ६०६ ई० से चला था और बड़ी संख्यायें कलचुरि सम्वत् की है, जो सन् २४९ ई० में प्रारम्भ हुआ था। इस भांति बडी संख्या से हर्ष सम्वत् तथा छोटी संख्याओं को कलचुरि सम्वत मानकर ४ तिथिया सन् ८१०, ८३१ व ९१० तथा ९३१६० आती हैं। इन दोनों तिथियों में १०० वर्ष का अन्तर है। स्मिथ महोदय का विचार है कि इन तिथियों तथा वास्तविक तिथियों में १०० वर्ष का अन्तर भूलवश है।’ यद्यपि इस मत का कोई ठोस आधार नहीं, फिर भी ऐसी भूतियों की सम्बन्धित तिथियों में होती है। किम्बदन्ती के अनुसार पृथ्वीराज की महोबा विजय सन् ११४० ई० की है, यद्यपि इसकी वास्तविक तिथि १२३९ विक्रमी संवत् है।

चन्देलों की किम्वदन्ती की तिथि तथा शिलालेखों आदि से निर्धारित की हुई तिथि का समीकरण होता है और इसकी पुष्टि तत्कालीन राजनीतिक दशा से भी होती है। अस्तु, समीचीन यह प्रतीत होता है कि मनुक ने लगभग सन् ८३१ ई० में ही चन्देल वंश की नींव डाली।

१. वास्तव में चन्देल राज्य की स्थापना नन्नुक ने लगभग ८३१ ई० में की, किन्तु प्रतीत ऐसा होता है कि वह प्रतिहारों का करद बना रहा। चन्देलों का वास्तविक अभ्युदय एक शताब्दी पश्चात् लगभग सत् ९३१ ई० में यशोवर्मा के राज्य-काल में हुआ; जो इस वंश का प्रथम सार्वभोप नरेश था और हिमालय से लेकर मालवा तथा कश्मीर से बंगाल तक उसका प्रभाव व्याप्त था (इपी० इण्डि०, भाग १, पृष्ठ १२६) ।

इन दो तरह की तिथियों में २१ वर्ष का अन्तर आता है। यह २१ वर्ष का अन्तर सम्भवतः प्रथम चन्देल नरेश ननु की वयस्कता का बोधक है। सम्भवतः नन्नुक सन् ८१० में पैदा हुआ था और २१ वर्ष की आयु होने पर सन् ८३१ ई० में उसका राज्याभिषेक हुआ। जैसा कि हिन्दू राजनीति शास्त्र में भी प्रावधान है। जब सन् ९३१ ई० में इस वंश का सार्वभौम शासन यशो वर्मा ने स्थापित किया तो इस तिथि के साथ २१ वर्ष अन्तर वाली यह तिथि भी जोड़ दी गई। सम्भवतः यह अन्तर यशोवर्मा की भी वयस्कता का सूचक हो । अर्थात् उसका जन्म सन् ९१०ई० में हुआ और २१ वर्ष की आय पूर्ण होने पर सन् ९३१ ई० में उसने सार्वभौम शासन स्थापित किया हो। २. महोबा के कानूनगो वंश की जनवृति के अनुसार प्रतिहार वंश की विच्छेद की तिथि सं० ६७७ है। यह तिथि कलर सम्वत की है, जिसका सन् १२६ आता है। यह तिथि हयंदेव के समय की है और सम्भवतः यह उस चन्देल सहायता का निर्देश करती है, जिससे कन्नौज नरेश क्षितिपाल देव अथवा महिपाल देव को अपने खोये हुए सिंहासन की प्राप्ति हुई बी (इपी० दृष्टि भाग १, पृष्ठ १२२ पंक्ति १० )

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