चन्देलों की उत्त्पति-२(ORIGIN OF CHANDEL)
२. वाक्पति (लगभग ८५०-७० ई०)
शासन काल
नन्नुक की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र तथा उत्तराधिकारी’ वाक्पति सन् ८५० ई० के लगभग चन्देल सिहासन पर प्रतिष्ठित हुए। शिलालेखों में इस बात का उल्लेख नहीं है कि उसने कितने समय तक शासन किया, पर अनुमानतः नमुक की भांति वह भी २० वर्ष तक शासन करता रहा। इस आधार पर उसका राज्यकाल सन् ८७० ई० तक माना जाता है।
कन्नौज के प्रतिहारों के विरुद्ध विद्रोह करने का जो प्रतिफल उसके पिता नलुक को उठाना पड़ा उसे वह भली प्रकार समझता था। उत्तरी भारत की राजनीतिक दक्षा का सम्प अध्ययन करके वह मिहिरभोज का सामन्त बना रहा और अनेक युद्धों में उसने प्रतिहारों को महत्वपूर्ण सहायता की। वह अपने पिता की भांति अवसरवादी न था। गुजरात के ध्रुव द्वितीय द्वारा मिहिरभोज के पराजित होने पर भी जब कि प्रतिहार-भाग्य-सूर्य पतनोन्मुख हो रहा था, सहायक बना रहा। यह अवसर था जब वाक्पति अपनी भाग्य परीक्षा के हेतु विद्रोह कर सकता था, किन्तु वह बुद्धिमत्ता और पराक्रम में पृथु तथा काकुस्थ जैसे पौराणिक नरेशों से भी बढ़कर था। वह प्रतिहारों का हितैषी ही बना रहा। मिहिरभोज ने भी उसकी शक्ति तथा सत्संकल्प से प्रभावित होकर उसे कुछ सुविधाएं प्रदान की थीं, जिनसे उसने विन्ध्य पर्वत को अपनी कोड़ा- भूमि बनाया।’
उसका राज्य खजुराहो, महोबा और इनके निकटवर्ती प्रदेश तक ही सीमित था तथा बुन्देलखण्ड का अधिकांश भाग कलचुरि राज्य में सम्मिलित था।’ नचुक अपने नव-निर्मित राज्य का उपभोग बहुत दिनों तक न कर सका। रामभद्र के उत्तराधिकारी मिहिरभोज ने लगभग ८३६ ई० में सिंहासनासीन होने पर प्रतिहार राज्य की बिखरी हुई शक्ति का संगठन करके नाग- भट्ट द्वारा प्रदत्त दान-पत्रों को पुनर्जीवित किया। मिहिरभोज ने नक को भी अछूता नहीं छोड़ा नक को अपनी शक्ति पिपासा का परित्याग करके मिहिरभोज के सामन्त पद से ही संतोष करना पड़ा।
२. वाक्पति (लगभग ८५०-७० ई०)
शासन काल
नबुक की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र तथा उत्तराधिकारी’ वाक्पति सन् ८५० ई० के लगभग चन्देल सिहासन पर प्रतिष्ठित हुए। शिलालेखों में इस बात का उल्लेख नहीं है कि उसने कितने समय तक शासन किया, पर अनुमानतः नमुक की भांति वह भी २० वर्ष तक शासन करता रहा। इस आधार पर उसका राज्यकाल सन् ८७० ई० तक माना जाता है।
कन्नौज के प्रतिहारों के विरुद्ध विद्रोह करने का जो प्रतिफल उसके पिता नलुक को उठाना पड़ा उसे वह भली प्रकार समझता था। उत्तरी भारत की राजनीतिक दक्षा का सम्प अध्ययन करके वह मिहिरभोज का सामन्त बना रहा और अनेक युद्धों में उसने प्रतिहारों को महत्वपूर्ण सहायता की। वह अपने पिता की भांति अवसरवादी न था। गुजरात के ध्रुव द्वितीय द्वारा मिहिरभोज के पराजित होने पर भी जब कि प्रतिहार-भाग्य-सूर्य पतनोन्मुख हो रहा था, सहायक बना रहा। यह अवसर था जब वाक्पति अपनी भाग्य परीक्षा के हेतु विद्रोह कर सकता था, किन्तु वह बुद्धिमत्ता और पराक्रम में पृथु तथा काकुस्थ जैसे पौराणिक नरेशों से भी बढ़कर था। वह प्रतिहारों का हितैषी ही बना रहा। मिहिरभोज ने भी उसकी शक्ति तथा सत्संकल्प से प्रभावित होकर उसे कुछ सुविधाएं प्रदान की थीं, जिनसे उसने विन्ध्य पर्वत को अपनी कोड़ा- भूमि बनाया।’
३-४. जयशक्ति तथा विजयशक्ति (लगभग ८७०-९० ई०)
वाक्पति के पश्चात् उसका पुत्र जयदशक्ति गद्दी पर बैठा। उसने अपने अनुज विजय- शक्ति के साथ चन्देलों के उत्कर्ष में वृद्धि की। किन्तु राजनीतिक क्षेत्र में उसने कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं दिया। चन्देल वंशीय लेखों में इन दोनों भाइयों के वीरोचित कार्यों का उल्लेख है और दोनों को “वीर” की उपाधि से सम्मानित किया गया। इन दोनों भाइयों का काल उनके मिहिरभोज (८३६-८५ १०) तथा महेन्द्रपाल प्रथम (८८५-९१० ई०) के शासन काल में पड़ता है। ये दोनों प्रतिहार नरेश बड़े शक्तिशाली विजेता थे। ध्रुव द्वितीय द्वारा मिहिरभोज के पराजित होने पर अयशक्ति तथा विजयशक्ति ने उसे शक्ति-संचय में योग दिया। मिहिरभोज ने राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय (८७५-९११ ई०) से भी युद्ध कर कन्नौज की श्रीवृद्धि की। दोनों शक्तिशाली भाइयों ने इन युद्धों में महत्वपूर्ण भाग लेकर शत्रुओं का दमन किया।’ महेन्द्रपाल प्रथम के शासन काल में इन्हें अपने शयं प्रदर्शन का अच्छा अवसर मिला। अपने पिता तथा पितामह की भांति महेन्द्रपाल में भी उत्साह तथा पराक्रम था। उसने बंगाल नरेश को पराजित किया और मगध तथा उत्तरी बिहार को अपने राज्य में मिला लिया। दक्षिण भारत में भी आक्रमण करके सौराष्ट्र तक का भू-भाग अपने राज्य में मिला लिया, जहां उसके सामन्त बल वर्मा और अवन्ति वर्मा शासन करते थे।
विजयदशक्ति भी अपने अग्रज की ही भांति शक्तिशाली था। उपरोक्त युद्धों में उसने साहसपूर्ण भाग लिया। किन्तु शिलालेखों में जयशक्ति, जेजा अथवा जेजाक का उल्लेख नहीं मिलता है। यद्यपि उसके नाम पर ही यह देश जेजति अथवा जाति कहलाया। जयशक्ति के नाम का निर्देश न होने का कारण संभवतः यह रहा हो कि उसने राजनीति से विश्राम ले लिया हो अथवा अनेक प्रतिहार युद्धों में भाग लेने के कारण अकाल में ही उसकी मृत्यु हो गयी हो और इस कारण इस देश का नाम जेजाभुक्ति’ अथवा जेजाकभुक्ति पड़ा हो। उसको अकाल मृत्यु की संभावना इससे भी प्रतीत होती है कि उसके पश्चात् उसका पुत्र नहीं, बल्कि उसका भाई चन्देल नरेश बना। कुछ भी हो, इन दोनों भाइयों ने चन्देल उत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त किया, जिसका निर्देश चन्देल शिलालेखों में भी है। उनके अभ्युदय काल के प्रारम्भ होने के पूर्व उनके पिता वाक्पति तथा पितामह लुक की ख्याति समाप्तप्राय भी अस्तु, खजुराहो के दो के अतिरिक्त अन्य अभिलेखों में यहीं दोनों भाई चन्देल वंश के आदि पुरुष माने जाते हैं।
५. राहिल (लगभग ८९०-९१० ई०)
विजयशक्ति के पुत्र तथा उत्तराधिकारी राहिल के शासन से चन्देल राज्य की नीव पड़ती है। यद्यपि यह प्रतिहारों का सामन्त ही था, फिर भी उसे कुछ सुविधायें प्राप्त भी जो उसके पूर्वजों को सुलभ नहीं थी। प्रतिहार साम्राज्य की शक्ति क्षीण हो रही थी। यद्यपि वह देव की भांति शक्तिशाली प्रतीत होता था। वंश के अनुसार ने भी में प्रतिहार नरेशों का साथ दिया। बिलालेखों में उसकी वीरता का उल्लेख मिलता है। स राहो प्रशस्तिकार का कथन है कि “उसका (राहिल का) स्मरण कर शत्रुओं को रात्रि में नींद थी। वह युद्ध रूपी महायज्ञ से कभी सन्तुष्ट न होता था तलवार ही उसका इति पात्र तथा शत्रुओं की रुधिर पार ही आवृति थी। शत्रु ही बलिपशु थे और पैर रूपी उसके कोष रूपी वायु से प्रज्वलित होती थी ?” यह अनुपम वर घमासान युद्ध में प्रसचता का अनुभव करता था। पुनरपि वह निर्दय न था उसका मानसिक सन्तुलन बड़ा सुन्दर था। यह मित्रों का हित तथा वैरियों को दण्ड देता था।”” महाकवि चन्द भी उसकी प्रशंसा एक विजेता तथा अनेक दुर्ग, नगर तथा मंदिरों के निर्माता के रूप में करते हैं।’
राहिल के द्वारा अजयगढ़ के दुर्ग के निर्माण से यह प्रतिभासित होता है कि चन्देश का क्रमिक विकास हो रहा था, किन्तु राहिल इतने से ही सन्तुष्ट न था उसका हृदय राजसत्ता के लिए सतत् खायित रहता था। इसी महत्वाकांक्षा से प्रेरित होकर उसने है तथा कलचुरि नरेशों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये। उसने अपनी पुत्री नट्ट देवी (नन्दा देवी) का विवाह कलचुरि नरेश कोकल्ल प्रथम’ से तथा अपने पुत्र हर्ष का विवाह भरी की चौहान राज- कुमारी कंचुका के साथ किया।
इस भांति अपनी स्थिति को सुदृढ़ करके राहिल ने अपने अधिनायक प्रतिहार नरेशों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। पर उसकी आशाओं पर तुषारापात हो गया। यह प्रतिहार सेना का सामना न कर सका और उसे अजयगढ़ दुर्ग से भी हाथ धोना पड़ा। मिहिरभोज ने उसका इस प्रकार दमन किया कि राहिल को उसका निरन्तर भय लगा रहने लगा। अन्त में उसके सम्बन्धी कलचुरि नरेश कोकल प्रथम ने उसके भय का निवारण किया।
चित्रकूट पाल
प्राध्यापक की लहाने की धारणा है कि चित्रकूट भूपाल जिसे कलचुरि कोकल देव प्रथम ने प्रतिहारों के भय से मुक्त किया था. यह राहिल का उत्तराधिकारी हर्ष था। किन्तु इस मत के मानने में अनेक कठिनाइयाँ हैं। हर्ष ने सन् २१० ई० के आसपास राज्यभार सम्हाला और सन् ९१२ ई० में उसने भोज द्वितीय को कन्नौज के सिहासन से हटाकर अपने प्रत्याशी क्षितिपाल देव को राज-पद पर अभिषिक्त किया। भोज द्वितीय कोकल्स की सहायता से सिहासनारूड हुआ था। इससे प्रकट होता है कि हर्ष के समय में लगभग ९१२ ई० में चन्देल तथा कलचुरियों के सम्बन्ध अच्छे न थे। अस्तु, ऐसी परिस्थिति में चन्देल राजकुमारी नट्ट देवी तथा कलचुरि नरेश कोकल का वैवाहिक सम्बन्ध सम्भव न था और चित्रकूट भूपाल (हर्ष) का कोल्ल द्वारा प्रतिहार राय से मुक्त होने का प्रश्न ही न उठता था। फिर हर्ष स्वयं बड़ा पराक्रमी था और उसने भोज द्वितीय की पदच्युत करके अपने प्रत्याशी महिपाल देव अथवा क्षितिपालदेव को कीज के सिहासन पर बिठाया था। अतः उसको प्रतिहारों के भय से मुक्त करने का प्रश्न ही नहीं उठता है। पुनः फोक देव उसे क्यों भयमुक्त करेंगे, जब उसने उनके प्रत्याशी भोज द्वितीय को कझीज के सिहासन से अपदस्थ किया था। यदि यह कहा जाय कि हमें को, मिहिरभोज का सतत् भय था तो वह भी समीचीन नहीं प्रतीत होता क्योंकि उसकी मृत्यु उसी साल हो गई, जब कि ये गद्दी पर बैठा। इस विवेचन से स्पष्ट है कि चित्रकूट भूपाल जिसे कलचुरि कोफल्ल ने प्रति हारों के भय से मुक्त किया था वह हर्ष नहीं, वरन राहिल था जिसने प्रतिहारों के विरुद्ध विद्रोह किया था तथा अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए अपनी पुत्री नट्ट देवी का परिणय करि नरेश कोकल प्रथम से किया था।
उसके कार्य
प्रतिहारों के विरुद्ध विद्रोह करने तथा कलचुरि नरेश कोकल्ल प्रथम द्वारा भयमुक्त होने के पश्चात राहिल ने कुछ जनोपयोगी निर्माण कार्य किए। यह प्रथम चन्देल नरेश था जिसने नगरों की स्थापना, दुर्ग, मंदिर तथा तदामों का निर्माण किया। उसने अजयगढ़ के प्रसिद्ध दुर्ग का निर्माण करके उसे मंदिरों तथा तदागों से सुशोभित किया। उसने राहिल नगर तथा रशिन की स्थापना की। राहिल नगर महोबा के निकट बसाया गया है, जो आजकल ध्वंसावशेष मात्र है। रसिन बांदा जिले में कालिंजर से लगभग २० मील दूर है। श्री ए० कोडेल ने रमिन का विस्तृत विवरण दिया है। उनका कथन है कि किसी समय में यह एक प्रसिद्ध स्थान था। जिस पहाड़ों में यह नगर बसा हुआ था वह परकोटा युक्त थी और उसकी चोटी पर बन्देत मंदिर बना हुआ था। मन्दिर अब भी अच्छी हालत में है। मंदिर के बाहरी द्वार पर एक ि है, जो बाद का है। मंदिर के पूर्व की ओर एक बैठक है। जनधुतियों के आधार पर रसिन का पुराना नाम रसकेन बतलाया जाता है जो उन दिनों संस्कृति विद्या का केन्द्र तथा अनेक मंदिरों एवं तालाबों से सुसज्जित था। महाकवि चन्द इस नगर की प्रशंसा करते हुए राहिल का ही उल्लेख इसके संस्थापक के रूप में करते हैं।