चोल शासक राजेन्द्र प्रथम-परकेशरीवर्मन (1014 ई.-1044 ई.): गंगैकोण्ड(Chola ruler Rajendra Pratham-Parakeshivarman (1014 AD-1044 AD): Gangaikond)
राजराज के पश्चात् उसका पुत्र राजेन्द्र प्रथम 1012 ई. में चोल सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। लगभग तीन वर्षों तक पिता-पुत्र ने साथ-साथ शासन संभाला क्योंकि राजेन्द्र के तीसरे शासन वर्ष में राजराज द्वारा दिये गये एक दान का उल्लेख प्राप्त होता है। दीर्घ काल तक युवराज के रूप में प्रशिक्षित होने के कारण राजेन्द्र प्रशासनिक क्षेत्र में पूर्णतः दक्ष था। उत्तराधिकार में आधुनिक मद्रास तथा आंध्र एवं मैसूर के कुछ क्षेत्र प्राप्त हुए थे। उत्तरी सिंहल भी चोल साम्राज्य का एक अंग था। अपने 33 वर्षीय शासन काल में राजेन्द्र ने चोल साम्राज्य को न मात्र दक्षिण भारत वरन् दक्षिण-पूर्व एशिया के अधिकांश द्वीपों को अधिकृत कर समकालीन इतिहास के विशालतम साम्राज्य के रूप में परिवर्तित कर दिया।
शासन के प्रारंभिक वर्षों में ही लगभग 1018 ई. में इसने अपने पुत्र राजाधिराज को युवराज घोषित किया। यद्यपि राजाधिराज उसका ज्येष्ठ पुत्र नहीं था। तथापि वह उसके तीन पुत्रों में सर्वाधिक योग्य था। हुल्टज का मत है कि ‘राजाधिराज अपने पूर्ववर्ती (राजेन्द्र चोल) का सहसंरक्षक रहा प्रतीत होता है और ऐसा नहीं लगता कि उसके (सह-संरक्षक) के रहते वह राजकीय कार्यों का स्वतन्त्र नियन्त्रक रहा हो।’ अनेक राजकुमारों को विभिन्न क्षेत्रों के शासक के रूप में नियुक्त कर प्रशासन को सुदृढ किया।
प्रारंभिक विजयें-
तिरुमन्निवलर से ज्ञात होता है कि शासन के तीसरे वर्ष तक राजेन्द्र ने इडितुरैनाडु, वनात्तृवनवासी, कोल्लिपाक्कै तथा मण्णैक्डक्कम को अधिकृत किया। इडितुरैनाडु की समता कृष्णा एवं तुंगभद्रा के मध्य इडेडोर नामक स्थान से की गयी है। कोल्लिपाक्कै हैदराबाद से 45 मील उत्तर-पूर्व कुल्पक नामक स्थान है। मण्णैक्कडक्कम को मान्यखेत से एकीकृत किया गया है। राजेन्द्र का यह अभियान उसके युवराज काल में अथवा सिंहासनरोहण से पश्चात् सम्पन्न हुआ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। चालुक्यों की राजधानी मान्यखेत से कल्याणी में परिवर्तित हो चुकी थी। संभव है कि राजेन्द्र ने सत्याश्रय के उत्तराधिकारी विक्रमादित्य पंचम को आक्रांत कर मान्यखेत में उसे पराजित किया हो।
लेख के अनुसार इसी अभियान के संदर्भ में इसने वनवासी को अधिकृत किया था। वास्तविकता यह प्रतीत होती है कि किसी अन्य अभियानों में वनवासी के कदम्बों को पराजित किया हो जो कल्याणी के चालुक्यों की अधीनता स्वीकार कर रहे थे।
सिंहल विजय-
इसके शासन काल के पंचम वर्ष के लेखों से इसके सिंहल अभियान की सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। महावंश के अनुसार सिंहल नरेश महेन्द्र पंचम के 36वें शासन वर्ष तक चोलों ने सिंहल को अधिकृत कर लिया था। गीगर ने इसका काल 1016 ई. निर्धारित किया है। इस विजय के फलस्वरूप राजेन्द्र ने सिंहल तथा सिंहल में सुरक्षित पांडय राजमुकुट को अपहृत कर लिया। सम्पूर्ण ईडमण्डलम् पर चोलों का अधिकार स्थापित हो गया। पोलोन्नरूव तथा कोलम्बो संग्रहालय से राजेन्द्र के अनेक लेख प्राप्त हुए हैं। सीलोन (सिंहल) की अपनी विजय के फलस्वरूप उस सम्पूर्ण द्वीप पर राजेन्द्र प्रथम का अधिकार हो गया और अपने पिता के अधूरे कार्य को पूरा किया। उसने वहाँ अनेक अभिलेख उत्कीर्ण करवाये। वहाँ अनेक शैव और वैष्णव मन्दिर बनवाये गये।
महेन्द्र पंचम की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र कस्सप दक्षिणी सिंहल को मुक्त करने में सफल हुआ तथा विक्रमबाहु प्रथम के नाम से शासन किया।
केरल युद्ध-
1018 ई. के लेखों के अनुसार राजेन्द्र ने केरल नरेश के राजमुकुट एवं बहुमूल्य धनराशि का अपहरण किया। तिरूवालंगाडु पत्रों से एक दिग्विजय का विवरण प्राप्त होता है जिसके अनुसार उसने केरल राज के ‘राजमुकुट और लाल किरणों को बिखेरने वाले कण्ठमाल’ को छीन लिया था उसने ‘समुद्र द्वारा पूरी तरह सुरक्षित अनेक प्राचीन द्वीपों’ को हथिया लिया जहाँ ‘शंखों की ध्वनि होती रहती थी।’ उसने ‘‘शाण्डिमत्तिवु में रखे गये उस सम्पूर्ण स्वर्ण से बने मुकुट को छीन लिया, जो लक्ष्मी द्वारा पहनने योग्य था।’’
पांडय-
तिरुवालंगाडु अभिलेख के अनुसार राजेन्द्र ने ‘दिग्विजय’ की इच्छा से अपनी राजधानी की रक्षा की पूरी व्यवस्था की…अप्रतिम चोलराज उत्तम चोल ने दक्षिण दिशा की विजय यात्रा पाण्डयराज को जीत लेने की इच्छा से प्रारम्भ की…. सूर्यकुलतिलक दण्डनाथ (राजेन्द्र) ने पाण्डयराज पर चढ़ाई कर दी, उसने भागकर अगस्त्य ऋषि के गृह मलयपर्वत में शरण ले ली। ….राजराज के पुत्र (राजेन्द्र) ने पाण्डय राजाओं के यशः रूपी कलंकरहित मोतियों को छीन लिया।’ भयरहित मधुरान्तक (मदुरै को जीतने वाले राजेन्द्र) ने सहयाद्रि को पारकर बहुत बड़ी सेना के साथ केरल पर चढ़ाई कर दी। …अन्ततः वह राजधानी लौट आया। राजेन्द्र के सेनापति दण्डनाथ द्वारा पांडयों की पराजय का उल्लेख प्राप्त होता है। पांडय शासक ने अगस्त्य के निवास-स्थल मलय पर्वत पर शरण लिया। राजेन्द्र ने अपने ही पुत्रों को चोल पांडय नाम से उन क्षेत्रों का शासक नियुक्त किया।
केरल एवं पांडय की ये विजयें राजेन्द्र प्रथम के काल में सम्पन्न हुईं अथवा राजराज की विजयों के ही परिवर्तित रूप हैं। संभवतः राजेन्द्र ने कोई नई विजयें नहीं की। मात्र केरल एवं पांडय के प्रशासन में सुधार करने हेतु अपने पुत्रों को वहाँ का शासक नियुक्त किया। जयवर्मन सुंदर चोल पांडय मदुरा का शासक नियुक्त किया।
पश्चिमी चालुक्य-
कल्याणी के चालुक्यों में 1016 ई. के लगभग विक्रमादित्य पंचम के पश्चात् उसका पुत्र जयसिंह उत्तराधिकारी हुआ जिसे बेलगाँव लेख में चोलों एवं चेरों का विजेता कहा गया है। तमिल प्रशस्ति के अनुसार राजेन्द्र रट्टपाडि को अधिकृत कर मुशंगि के युद्ध में जयसिंह को पलायित होने के लिए बाध्य किया। मुशंगि की समता उच्छगि दुर्ग अथवा मास्की से की गई है। जयसिंह यद्यपि मुशंगि के युद्ध में पराजित हुआ फिर भी उसने तुंगभद्रा तक चालुक्य साम्राज्य को पूर्णतः सुरक्षित रखा।
वेंगी-
चोल-चालुक्य संघर्ष दो सीमाओं पर तीव्रतम रूप में चल रहा था। वेंगी में शक्तिवर्मन के पश्चात् विमलादित्य उत्तराधिकारी हुआ जो 1019 ई. तक जीवित रहा। तदुपरांत विमलादित्य की चोल महारानी कुन्दवै देवी से उत्पन्न पुत्र राजराज नरेन्द्र उत्तराधिकारी हुआ। राजराज नरेन्द्र का सौतेला भाई विष्णुवर्द्धन विजयादित्य सप्तम चालुक्य शासक जयसिंह द्वारा समर्थित था। इसने राजराज नरेन्द्र के सिंहासनारोहण संस्कार को विघ्नित किया। कलिंग तथा ओड्ड के शासकों ने जयसिंह के साथ विजयादित्य सप्तम का सहयोग किया। तमिल लेखों से यह ज्ञात होता है कि चोल सेनापति अरैयन राजराज ने सम्मिलित संघर्ष को पराजित कर राजराज नरेन्द्र के सिंहासन को सुरक्षित किया और उसके साथ अपनी पुत्री अमंगादेवी का विवाह कर दिया। लेकिन राजराज नरेन्द्र को अपदस्थ करने तथा वेंगी की गद्दी प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर ली। इसी समय चालुक्य सेनापति चावणरस ने वेंगी पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। राजराज नरेन्द्र की पुनः सहायता हेतु राजेन्द्र प्रथम ने ब्राह्मण सेनापति राजराज ब्रह्म महाराज तथा दो अन्य अधिकारियों-उत्तमचोल मिलाडुडैयान और उत्तम चोल चोलकोन के साथ एक सेना भेजी। ऐसा लगता है कि ये तीनों सेनापति कलिदिण्डि के निकट युद्ध में मारे गये लेकिन चोल सेना अपने उद्देश्य में सफल रही तथा राजराज नरेन्द्र को वेंगी की गद्दी पर पुनः बैठ गया। क्योंकि 1035 ई. के आस-पास हम उसे गद्दी पर आसीन पाते हैं।
उत्तरी-अभियान-
राजेन्द्र प्रथम ने कलिंग एवं ओडु होते हुए गंगा तक के शासकों को पराजित किया। तिरुवलंगाडु पत्रों के अनुसार जिस गंगा को भगीरथ ने कठिन तपस्या से पृथ्वी पर लाया था उसी को राजेन्द्र ने अपने बाहुबल से अपनी कर्मभूमि में लाकर पवित्र किया। राजेन्द्र स्वयं गोदावरी तक आया हुआ था तथा उसके आगे विक्रम चोल ने चोल सेना का नेतृत्व किया। तमिल प्रशस्ति के अनुसार राजेन्द्र ने शक्करकोट्टम, नामणैक्कोणम, पंचप्पल्लि, आदि नगर के इन्द्ररथ, ओडु, विषय, कोशलैनाडु, तंडभुत्ति के धर्मपाल, तक्कणलाइम के रणशूर, बंगाल देश के गोविन्दचन्द्र महीपाल तथा उत्तिरलाडम को पराजित करते हुए गंगा तक आक्रमण किया तथा पराजित शासकों को गंगा जल ढोने के लिए बाध्य किया। नीलकण्ठ शास्त्री के अनुसार राजेन्द्र के इस दण्डनाथ (सेनापति) द्वारा पूर्वी भारत की सैन्य यात्रा एक तीर्थ यात्रा के समान ही थी और इसके दिग्विजयी स्वरूप से चोल सत्ता को कोई वास्तविक लाभ नहीं हुआ।
शक्करकोट्टम की समता चित्रकूट से की गई है। माशुणिदेश (सर्पो का देश) नामणैक्कोणम तथा पंचप्पलि इसके समीपवर्ती क्षेत्र रहे होंगे। आदिनगर, ओड्ड तथा कोशल दक्षिणी कोशल के समीप स्थित प्रतीत होते हैं। बंगाल एवं उड़ीसा के मध्य का भू-भाग दण्डमुक्ति के नाम से प्रसिद्ध था। धर्मपाल, रणशूर एवं गोविन्दचन्द्र पाल शासक महिपाल के अधीन स्थानीय शासक ज्ञात होते हैं। लाड बंगाल का वह भू-भाग है जिसकी उत्तरी सीमा गंगा द्वारा निर्धारित की जाती है। इस प्रकार गंगा तक चोल सेना ने आक्रमण किया।
इस अभियान का क्या स्वरूप था ? इस संबंध में वेंक्कैया महोदय का अनुमान है कि राजेन्द्र ने तीर्थयात्रा के रूप में गंगा तक प्रस्थान किया था। इन्होंने लाड की समता बरार से की है तथा इलाहाबाद से गंगा जल लाने का मत व्यक्त किया है। किन्तु प्रोफेसर शास्त्री का यह विचार है कि अभियान का उद्देश्य गंगाजल लाना अवश्य रहा होगा तथा साथ ही चोल शक्ति का प्रदर्शन कम महत्वपूर्ण न रहा होगा। अपनी राजधानी में गंगाजल से पूर्ण एक सरोवर का निर्माण करवाया जिसे गंगाजल मयम स्तम्भ कहा गया है। आर. डी. बनर्जी महोदय की धारणा है कि इस अभियान का एक स्थाई प्रभाव यह पड़ा कि एक चोल अधिकारी सामंतसेन बंगाल में बस गया तथा इसी ने सेन वंश की स्थापना की। त्रिलोचनशिवाचार्य की सिद्धांत सारावली से ज्ञात होता है कि गंगातट से अनेक शैव साधु काँची लाये गये। इस अभियान की सफलता के बाद इसने एक तड़ाग बनवाया। उसमें सैनिकों द्वारा लाया गया जल डलवाया तथा गंगैकोण्ड चोल की उपाधि धारण की। इसने उत्तरी अर्काट में गंगैकोण्डचोलपुरम् नामक नगर की स्थापना की और उसे अपनी राजधानी बनाया।
उत्तरी अभियान से प्रत्यावर्तन के पश्चात् 1022 ई. में इसने अपने भांजे राजराज नरेन्द्र को वेंगी के सिंहासन पर अभिषिक्त किया तथा उसके साथ अपनी पुत्री अमंगा देवी का विवाह किया। राजराज नरेन्द्र वेंगी के सिंहासन पर शांतिमय न रह सका। विजयादित्य सप्तम ने 1031 ई. में पश्चिमी चालुक्यों की सहायता से वेंगी को अधिकृत कर लिया। राजेन्द्र ने पुनः विजयादित्य एवं चालुक्यों को पराजित कर राजराज नरेन्द्र को वेंगी में सुरक्षित किया।
शासन के अंतिम वर्षों में विजयादित्य सप्तम ने राजराज को एक बार और सिंहासन से पदच्युत कर दिया। युवराज राजाधिराज ने राजराज नरेन्द्र को वेंगी सिंहासन पर सुरक्षित किया।
कडारम एवं श्रीविजय-
कडारम विजय का उल्लेख 14वें वर्ष के लेखों से उपलब्ध होने लगता है। तिरुवालंगाडु लेख में समुद्र पार कर कटाह विजय वर्णित है। तमिल प्रशस्ति में इस अभियान का विस्तृत विवरण देते हुए यह बतलाया गया है कि राजेन्द्र चोल ने अपनी नौ सेना के बहुसंख्यक जलपोतों द्वारा कडारम के शासक संग्रामविजयोत्तुंगवर्मन् की सेना के हाथियों को अपहृत कर उसके राजकोष को छीन लिया था। उसे श्री विजय (सुमात्रा में स्थित प्लेनवंग), पण्णै (सुमत्रा के पूर्वी तट पर स्थित पनि या पनेङ्), मलययूर (संभवतः श्रीविजय और पण्णै के बीच का क्षेत्र), मायुरडिंगम् (मलयप्रायद्वीप में लिंगोर के निकट), इलंगाशोकम् (केऽह राज्य के दक्षिण में स्थित), मेविलिवंगम् (पहचान संदिग्ध), वैलप्पन्दूर (समीकरण असंभव), तलैत्तव-कोलम् (तक्कोल), मादमालिंगम् (मलय प्रायद्वीप में बन्दन की खाड़ी के निकट अथवा क्वांटन नदी के मुहाने पर स्थित तेमिलिंग), इलामुदिदेशम् (उत्तरी सुमात्रा में लमरी), माणक्कवारम् (निकोबार द्वीप समूह) तथा कडारम (पेनगं के निकट स्थित केऽह) की विजयों का श्रेय दिया गया है। राजेन्द्र के शासन काल के आठवें वर्ष के करंडै ताम्रपत्र के अनुसार कम्बुज (कम्बोडिया) के राजा ने अपनी राजलक्ष्मी की रक्षा के लिए रथ भेजकर राजेन्द्र चोल से मित्रता की याचना की थी।
राजेन्द्र की इन विजयों से सम्बद्ध लेख सर्वप्रथम हुल्टश द्वारा 1891 ई. में प्रकाशित हुए। संग्रामविजयोत्तुंगवर्मन की समता हुल्टश ने लीडन दानपत्र के मारविजयोत्तुंगवर्मन के पुत्र संग्राम से की है। प्रारंभ में इन स्थलों को मद्रास के समीप ही समीकृत करने का प्रयास किया गया था। कडारम की समता मथुरा से की गई थी। सर्वप्रथम वेंकटैया महोदय ने नक्कवारम तथा पप्पालम की समता निकोबार द्वीप तथा वर्मा के रमैया नामक स्थान से की। तदुपरांत 1918 ई. में कोयडीज ने इन सभी स्थानों को दक्षिण-पूर्व एशिया में स्थापित किया। कोयडीज का अनुमान है कि सभी क्षेत्र कडारम साम्राज्य के अधीन में रहे होंगे। इसीलिए सर्वप्रथम कडारम विजय का उल्लेख है। श्रीविजय दूसरा महत्वपूर्ण स्थान था।
इस अभियान के उद्देश्य एवं स्वरूप के संबंध में तत्कालीन साक्ष्यों से कोई ज्ञान नहीं उपलब्ध होता। एस. के. आयंगर के अनुसार कलिंग विजय की पूर्ति इन विजयों से की गई थी। प्रो. शास्त्री के अनुसार चोलों ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए व्यापारिक लाभ की दृष्टि से इन क्षेत्रों को प्रभावित करने का प्रयास किया। चीन तथा पश्चिमी एवं अरब देशों के मध्य समुद्री व्यापार के लिए ये द्वीप आश्रयस्थल का कार्य करते थे।
चीनी इतिहास से ज्ञात होता है कि इन क्षेत्रों को चीन अधिकृत कर रहा था जिससे भारतीय व्यापार प्रभावित हुआ। इन विजयों के फलस्वरूप श्रीविजय साम्राज्य चोलों के अधिकार क्षेत्र में आ गया। दोनों साम्राज्यों के मध्य मैत्री संबंध स्थापित हुए। लीडन पत्रों के अनुसार श्रीविजय के शैलेन्द्र वंशीय शासक मारविजयोत्तुंगवर्मन ने नेगापट्टम में चूड़ामणिविहार का निर्माण करवाया था। दोनों के मध्य दौत्य संबंध के भी प्रमाण प्राप्त होते हैं। कम्बोज तक विजय प्राप्त कर राजेन्द्र प्रथम ने आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टि से चोल साम्राज्य को सुदृढ़ किया।
दक्षिण की क्रांति-
जिस समय राजेन्द्र दक्षिण-पूर्व एशिया के विजय में व्यस्त था। उस समय पांडय तथा केरल के शासकों ने विद्रोह उत्पन्न किया। युवराज राजाधिराज ने पांडय शासक मानाभरणन की हत्या की। केरलों को पराजित किया। पांडय विजय से प्रत्यावर्तन के समय वेनाडु के शासकों को भी पराजित किया। मूशक शासकों ने भी विद्रोह किया जो राजाधिराज द्वारा नियंत्रित किये गये।
सिंहल-
राजाधिराज के प्रारंभिक लेखों से लंका एवं कन्नौज विजय का संकेत प्राप्त होता है। महावंश के अनुसार विक्रमबाहु प्रथम के शासन-काल में यह अभियान सम्पन्न हुआ होगा।
चालुक्य सोमेश्वर प्रथम-
चालुक्यों ने तुंगभद्रा की सीमा पार कर चालुक्य साम्राज्य को विस्तृत करना प्रारंभ किया। नोलम्बों को अधिकृत कर वेलारी तक अपनी सीमा बढ़ा लिया तथा सोमेश्वर प्रथम ने वेंगी को भी अधिकृत करने का प्रयास किया। इन अभियानों को अवरुद्ध करने के लिए राजाधिराज वेंगी की ओर बढ़ा तथा धान्य-कटक के युद्ध में विक्की एवं विजयादित्य को पराजित किया। विक्की का तात्पर्य विक्रमादित्य षष्ठ तथा विजयादित्य विष्णुवर्द्धन विजयादित्य से है। वेंगी में राजराज को चोलों ने सुरक्षित किया किन्तु समकालीन लेखों से यह आभासित होता है कि वेंगी पर चोलों का अधिकार स्थायी न रहा सका तथा राजराज ने सोमेश्वर की अधीनता स्वीकार की।
राजेन्द्र के शासन काल के अंतिम वर्षों में चोल साम्राज्य चरमोत्कर्ष पर था। आजीवन विजिगीषु के रूप में राजेन्द्र ने चतुर्दिक अभियान किया तथा सर्वत्र उसे विजयश्री उपलब्ध हुई। इसी योजनाओं का परिचय इसकी उपाधियों से प्राप्त होता है। मुडिगोण्डचोल, पंडित चोल, वीर राजेन्द्र, गंगैकोण्ड तथा राजकेशरीवर्मन इत्यादि उपाधियों से इसे अलंकृत किया गया है। इसने गंगैकोण्ड चोलपुरम नामक नवीन राजधानी की स्थापना की जो गंगा विजय का द्योतक है।
सामरिक अभियानों के साथ-साथ राजेन्द्र चोल ने प्रशासन-व्यवस्था, सैन्यसंगठन तथा आर्थिक सुधारों पर भी ध्यान दिया। अपनी नवीन राजधानी गंगैकोण्ड-चोलपुरम् को उसने भव्य भवनों एवं मन्दिरों आदि से अलंकृत कराया और सिंचाई के लिए लगभग 25 किमी. लम्बे एक तालाब का निर्माण कराया। वैदिक साहित्य एवं शिक्षा को प्रोत्साहन प्रदान करने के उद्देश्य से उसने एक वैदिक विद्यालय स्थापित किया। दक्षिणी अर्काट जिले से प्राप्त 1025 ई. के एक अभिलेख के अनुसार इस विद्यालय में 340 छात्र तथा 14 अध्यापक थे। यहाँ वेद, व्याकरण, न्याय आदि का अध्ययन-अध्यापन होता था। अध्यापकों के जीवन निर्वाह के लिए नकद धनराशि के अतिरिक्त उन्हें प्रतिदिन चावल भी दिये जाते थे। विद्यालय के खर्चे के लिए 45 वेलिभूमि दी गयी थी।
राजेन्द्र चोल ने कई प्रकार के सिक्के जारी किये थे। उसके चाँदी के कुछ सिक्कों
के मुख भाग पर चोलों के राजकीय चिन्ह सिंह के साथ पाण्डयों तथा चेरों के राजकीय चिन्ह क्रमशः मत्स्य और धनुष चित्रित हैं। राजेन्द्र के फनम् नामक सिक्कों पर उसे युद्धमल्ल की उपाधि दी गयी है। सोने तथा चाँदी के कई अन्य सिक्कों पर उसका प्रिय विरुद गंगैकोण्डचोल अंकित है। जिसे उसने पूर्वी भारत के सफल अभियान के उपलक्ष्य में चलाये थे।
त्रिभुवन अथवा वानवन महोदवी, मुक्कोक्किलान, पांचवन महादेवी तथा वीर महादेवी उसकी रानियों के नाम ज्ञात होते हैं। राजाधिराज राजेन्द्र तथा वीर राजेन्द्र इत्यादि इसके कई पुत्र जो क्रमशः शासक नियुक्त हुए। 1044 ई. के लगभग राजेन्द्र विस्तृत साम्राज्य को छोड़ कर चल बसा।
राजेन्द्र प्रथम के उत्तराधिकारी-
राजेन्द्र प्रथम के पश्चात् उसके पुत्रों ने विस्तृत साम्राज्य को पूर्णतः सुरक्षित रखा। चोल-चालुक्य संघर्ष इस काल में अपने उग्रतम रूप में प्राप्त होता है। इस अंतराल के अभिलेखों में जो तिथियाँ उपलब्ध होती हैं उनसे शासकों का वास्तविक शासन काल निर्धारित करना अत्यन्त ही दुष्कर है। सामान्यतः सभी ने अपने युवराज काल से ही शासन वर्ष की गणना प्रारंभ किया है। परिणामस्वरूप हर दो शासकों की तिथियाँ एक-दूसरे के शासन काल में अतिक्रमण करती हैं। राजमहेन्द्र जैसे शासकों के लेखों में भी उनके शासन वर्ष का उल्लेख है जो युवराज के रूप में ही दिवंगत हो गया। समस्त अभिलेखिक साक्ष्यों के आधार पर प्रो. शास्त्री ने निम्नलिखित क्रम एवं काल निर्धारित करने का प्रयास किया है।
1. राजाधिराज राजकेशरी (1018-1054 ई.)
2. राजेन्द्र द्वितीय परकेशरी (1054-1064 ई.)
राजमहेन्द्र (युवराज के रूप में दिवंगत) (1060-1063 ई.)
3. वीर राजेन्द्र राजकेशरी (1063-1069 ई.)
4. अधिराजेन्द्र परकेशरी (1068-1070 ई.)
चोल शासक राजाधिराज-
राजेन्द्र चोल की मृत्यु के बाद उसका पुत्र राजाधिराज 1044 ई. में राजा बना। वह 1018 ई. में ही युवराज बनाया गया था और वह राजेन्द्र के पूरे शासन काल में सह शासक बना रहा। अपने पिता के अधिकांश युद्ध में वह चोल सेनाओं का सफल नेतृत्व भी किया और जब सिंहल, पाण्डय और केरल में विद्रोह हुए तो उसने वीरता के साथ उन विद्रोहों का दमन भी किया। राजाधिराज प्रथम अपने पूर्ण कालिक शासन काल में श्रीलंका एवं चालुक्यों के साथ तीव्र संघर्ष में उलझा रहा। अन्तिम संघर्ष में तो इसकी मृत्यु हो गयी। राजाधिराज के शासन काल के संबंध में इसके उत्तराधिकारियों के लेखो से 38, 36 अथवा 32 वर्षों के शासन काल की जानकारी प्राप्त होती है। संभवतः अपने युवराजत्व काल से लेकर 36 वर्षों तक इसने शासन किया।
सिंहल से युद्ध-
इसके प्रारंभिक लेखों से सिंहल एवं कान्यकुब्ज विजय के उल्लेख प्राप्त होते हैं जो राजेन्द्र प्रथम काल में प्रतीत होते हैं। परवर्ती लेखों के अनुसार इसने विक्रमबाहु को पराजित कर उससे अपार संपत्ति अपहृत की। विक्रम पांडय जो सिंहल में चोलों के भय से शरणार्थी था, पराजित हुआ। वीर सलामेघन जो कान्यकुब्ज का शासक था सिंहल में ठहरा हुआ था। राजाधिराज ने वीर सालमेघन को भी पराजित किया। तदुपरांत श्रीवल्लभ मदनराज को पराजित किया जो कृष्ण (कन्नर) वंशीय था तथा ईलम का शासक बना हुआ था।
महावंश के वर्णन के अनुसार महेन्द्र पंचम का पुत्र कस्सप (विक्रमबाहु) सिंहल को चोलों से मुक्त करने के लिए प्रयत्नशील था। 1029 ई. के लगभग राजेन्द्र प्रथम के काल में रोहण में ही वह पराजित हुआ किन्तु इसमें राजाधिराज ने भाग लिया था अथवा नहीं निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। चोल लेखों के अनुसार विक्रमबाहु चोलों से संघर्ष करता हुआ मारा गया जबकि महावंश में 1041 ई. के लगभग रोगग्रस्त होकर मरा, ऐसा उल्लेख है। महावंश में विक्रम पांडय एवं जगतीपाल के अल्प शासन काल का भी उल्लेख है। विक्रम पांडय सिंहली पिता एवं पांडय माता का पुत्र था। संभवतः इसीलिए यह सिंहल में निवास कर रहा था। जगतीपाल को अयोध्या वासी बतलाया गया है जो चोलो द्वारा पराजित हुआ। वीरसलामेघन एवं जगतीपाल संभवतः एक ही व्यक्ति के दो नाम थे किन्तु तैथिक विभेद के कारण यह समता भी संदेह से परे नहीं है। वल्लभ मदनराज को पराक्रम के साथ एकीकृत किया गया है किन्तु इसकी समता भी संदेहास्पद है।
चोल अभिलेखों एवं महावंश के विवरण आधार पर निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि महेन्द्र पंचम के पश्चात् सिंहल में अनेक बाह्य शासकों ने शरण लिया तथा सिंहल पर शासन करने का भी प्रयास किया। राजाधिराज के अनेक सिक्के सिंहल से प्राप्त हुए है। 1058 ई. में विजयबाहु ने पुनः सिंहल को स्वाधीन करने का प्रयास किया। विजयबाहु अन्ततः अपने अभियान में सफल रहा तथा 1058 ई. में श्रीलंका को चोल प्रभाव से मुक्त करा लिया।
पश्चिमी चालुक्य-
1044 एवं 1046 ई. के मध्य राजाधिराज ने सोमेश्वर प्रथम के विरुद्ध पुनः अभियान किया। मणिमंगलै अभिलेख के अनुसार राजाधिराज ने अनेक चालुक्य सामंतों को पराजित किया तथा कम्पिलि नगर को ध्वस्त किया। राजाधिराज के शासन के 13वें वर्ष तथा इसके बाद के अभिलेखों में कम्पिलि के राजप्रासाद के विनाश के बाद की घटनाओं का विवरण इस प्रकार है- पुण्डूर के युद्ध में चोलों ने बड़ी संख्या में स्त्रियों तथा तेलिगबिच्चय के भाई, उसकी माता तथा सोमेश्वर के अधीनस्थ अनेक तेलुगू शासकों को बन्दी बना लिया और पुण्डूर नगर को भूमिसात कर उसे गधों द्वारा जुतवाया था। इसके बाद मण्णदियै के चालुक्य राजप्रासाद को भस्मसात कर वहाँ चोलों ने एक विजय स्तम्भ का निर्माण कराया और उस पर सिंह का चिन्ह अंकित कराया। उपर्युक्त समस्त घटनायें 1048 ई. से पहले घटी थीं। तदुपरांत पुन्डुर के युद्ध का उल्लेख है जिसमें सोमेश्वर प्रथम के पुत्र एवं सामंत पराजित हुए।
अन्य लेखों के अनुसार पुन्डुर के युद्ध में पराजित होने के पश्चात् सोमेश्वर ने एक दूत संधि के प्रस्ताव के साथ चोल शासक के पास भेजा जिसे चोलों ने अपमानित किया और उनके शरीर पर लिखवा दिया कि ‘आहवमल्ल भयभीत होकर युद्ध के मैदान से भाग गया। एक दूत को स्त्रियों के वस्त्र पहना दिया गया, दूसरे का सिर मुंडित किया गया और उनके नाम दयनीय ‘आहवमल्लि’ एवं ‘आहवमल्ल’ रखा गया और उन्हें वापस भेज दिया गया।’ चोलों ने सिरुतुरै तथा दैवभीमकाशी को अधिकृत किया। कालिदास, चामुण्ड, कोम्मय तथा बिल्लवराज इत्यादि चालुक्य सेनापति पराजित हुए। निरंतर पराजित होने के पश्चात् सोमेश्वर ने पुनः दो दूत राजाधिराज के पास भेजे किन्तु चोलों ने इन्हें भी अपमानित कर वापस कर दिया। कल्याणी तक चोलों ने चालुक्यों को पराजित किया तथा राजाधिराज ने वीराभिषेक संस्कार सम्पन्न कर विजय राजेन्द्र की उपाधि धारण की। तंजौर के दारागुरम नामक स्थान पर एक मंदिर के प्रवेश द्वार पर दो द्वारपालों की मूर्ति है जिनके नीचे निम्नलिखित लेख उपलब्ध होता है-
स्वस्ति श्री उदैयार श्रीविजय राजेन्द्र-देवर ।
कल्याणपुरम एरितु कोडुबन्द तुवारपालकर ।
(श्रीविजय राजेन्द्र द्वारा कल्याणपुर को भस्मीभूत कर लाये गये द्वारपाल)।
सोमेश्वर प्रथम के लेखों में इस युद्ध का कोई उल्लेख नहीं प्राप्त होता। इसके विपरीत विल्हण के विवरण के अनुसार सोमेश्वर ने काँची तक विजय प्राप्त किया था चोलों एवं चालुक्यों में अनेक संघर्ष हुए तथा चालुक्य प्रायः पराजित होते रहे फिर भी तुंगभद्रा तक चालुक्य साम्राज्य विस्तृत रहा।
राजाधिराज ने शासन के अंतिम वर्षों में पुनः अपने अनुज राजेन्द्र द्वितीय के साथ चालुक्यों पर आक्रमण किया।
मणिमंगलम लेख के अनुसार कोप्पम नामक स्थान पर दोनों सेनाओं के मध्य संघर्ष हुआ। इस युद्ध में चालुक्यों ने राजाधिराज को ही अपना लक्ष्य बनाया जो हाथी के हौदे में ही मारा गया। राजाधिराज की मृत्यु से चोल सेना हतोत्साहित हुई किन्तु इसी समय राजेन्द्र द्वितीय अनेक चालुक्य सेनापतियों का वध करता हुआ तथा चोलों को प्रोत्साहित करता हुआ युद्ध क्षेत्र में आया। चालुक्य सेना युद्ध से पलायित हुई तथा रक्तरंजित शरीर से ही राजेन्द्र द्वितीय ने अपना राज्याभिषेक संस्कार संपन्न किया।
सोमेश्वर प्रथम के लेखों में कोप्पम का कोई उल्लेख नहीं है। 1071 ई. के दो चालुक्य लेखों में चोलाभियान एवं राजाधिाज की मृत्यु का विवरण उपलब्ध होता है। यद्यपि लेख परवर्ती हैं किन्तु संभव है कि इनका संकेत कोप्पम युद्ध की ओर हो। इससे यह आभासित होता है कि इन युद्धों में सोमेश्वर प्रथम असफल रहा। इसीलिए चालुक्य लेख इस विषय पर मौन हैं।
राजाधिराज का इसके उत्तराधिकारियों के लेखों में आनैमेरुंजिन अर्थात् हस्ति के पीठ पर दिवंगत की उपाधि प्रदान की गई। विजयराजेन्द्र, वीरराजेन्द्रवर्मन, आहवमल्लकुलान्तक तथा कल्याणपुरंगोड-शोल जैसी उपाधियों से इसे विभूषित किया गया है। राजाधिराज अपने युवराजत्व काल से लेकर मृत्युपर्यन्त विभिन्न युद्धों में व्यस्त रहा तथा सेनापति के रूप में स्वयं युद्ध-संचालन भी किया। राजाधिराज के शासनकाल में चोल साम्राज्य तुंगभद्रा से लेकर सिंहल तक तथा केरल से गंगा तक के विस्तृत भू-भाग में स्थापित था। उसके चाँदी के सिक्कों का एक ढेर उत्तरी कनारा जिले के समुद्रतटवर्ती क्षेत्र से प्राप्त हुआ है। इस आधार पर जी. कुप्परम् महोदय का अनुमान है कि राजाधिराज ने इस भू-भाग पर आक्रमण किया होगा। उसने अश्वमेध यज्ञ भी सम्पादित किया था।
चोल शासक राजेन्द्र द्वितीय
1054-55 ई. के लगभग राजेन्द्र द्वितीय चोल सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। कलिंगत्तुप्परणि तथा विक्रमशोलनउला के अनुसार कोप्पम युद्ध में चालुक्यों पर विजय प्राप्त कर इसने अपना राज्याभिषेक संस्कार सम्पन्न किया।
1069 ई. के लगभग इसने अपने पुत्र राजेन्द्र चोल को अपना युवराज नियुक्त किया। जिसने राजकेशरी, राजमहेन्द्र की उपाधि धारण की। राजमहेन्द्र के तीसरे शासन वर्ष के एक लेख में मुडक्कारू युद्ध का उल्लेख है। राजेन्द्र द्वितीय के 9वें शासन वर्ष के लेखों से ज्ञात होता है कि कोप्पम युद्ध में पराजय का प्रतिशोध लेने के लिए आहवमल्ल ने दण्डनायक बालादित्य तथा अन्य सेनापतियों को मुडक्कारू के तट पर भेजा। राजमहेन्द्र के लेखों से ज्ञात होता है कि आहवमल्ल युद्ध-क्षेत्र से पलायित हुआ। वीर राजेन्द्र के लेखों में कूडलसंगमम युद्ध का विवरण उपलब्ध होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि राजमहेन्द्र एवं वीर राजेन्द्र दोनों ने एक साथ युद्ध में भाग लिया तथा मुडक्कारू एवं कूडलसंगमम एक ही युद्ध की ओर संकेत करते हैं। वीर राजेन्द्र के लेखों से ज्ञात होता है कि तीसरी बार कूडलसंगमम में युद्ध हुआ जिसमें आहवमल्ल के दो पुत्र बिक्कलन एवं सिंगणन पराजित हुए। वीर राजेन्द्र के भी कुछ लेखों में मुडक्कारू युद्ध का उल्लेख है जिससे दोनों युद्धों की एकरूपता प्रमाणित होती है।
कूडलसंगमम की समता कृष्णा एवं तुंगभद्रा के संगम से की गई है। मैसूर में तुंगा एवं भद्रा नदियों के संगम को कूर्डाल कहा गया है। संभव है कि कूडलसंगमम यही स्थान रहा हो।
कूडलसंगमम युद्ध के अवसर पर वेंगी में भी चोल-चालुक्य-संघर्ष के प्रमाण उपलब्ध होते हैं। संभवतः दोनों सीमाओं पर चोलों एवं चालुक्यों के मध्य एक ही साथ संघर्ष हुआ हो। इसके शासन काल की अंतिम तिथि 1063 ई. ज्ञात होती है। इसकी एक महारानी किलानडिंगल का नाम प्राप्त होता है। मधुरांतकी इसी की पुत्री थी जिसका विवाह पूर्वी चालुक्य राजकुमार राजेन्द्र द्वितीय के साथ हुआ था।
चोल शासक वीर राजेन्द्र
1063 ई. के लगभग राजेन्द्र द्वितीय के पश्चात् उसका अनुज वीर राजेन्द्र चोल राजपीठ पर आसीन हुआ। इसने अपने पुत्र मधुरांत्तक को तोण्डमण्डलम का शासक नियुक्त किया था। पांडय देश में द्वितीय पुत्र गंगैकोण्डशोल को गवर्नर बनाया।
प्रारंभिक युद्ध-
शासन के दूसरे वर्ष के लेख तिरुवेंकाडु में कूडलसंगमम युद्ध का उल्लेख है जो संभवतः युवराज के रूप में ही की गई विजय की ओर संकेत करता है। तिरुनामनल्लुर तथा कन्याकुमारी लेखों से कूडलसंगमम में तीन बार सोमेश्वर की पराजय की जानकारी प्राप्त होती है। इसके चैथे वर्ष के करुवूर लेख में इसे पोत्तपि नरेश, केरल धारा नरेश जननाथ के अनुज तथा पांडय श्री वल्लभ के पुत्र का विजेता कहा गया है। मणिमंगलम दानपत्र में उडगै तथा केरल विजय का उल्लेख है। ये सभी संघर्ष चोल-चालुक्य संघर्ष के ही परिणाम प्रतीत होते हैं। इन संघर्षों में सात चालुक्य सेनापतियों के वध का विवरण है जिनके सिर गंगैकोण्डचोलपुरम के प्रवेशद्वार पर लटका दिये गये थे। इस घटना से सोमेश्वर बहुत ही अपमानित हुआ तथा कूडलसंगमम पर निर्णायक युद्ध के लिए चोलों को आमंत्रित किया। वीर राजेन्द्र इस समाचार से बहुत ही प्रसन्न हुआ तथा कूडलसंगमम की ओर इसने ससैन्य प्रस्थान कर दिया। निश्चित स्थान पर निश्चित तिथि से एक महीने एक दिन तक वीर राजेन्द्र ने सोमेश्वर की प्रतीक्षा की किन्तु उसका कोई पता न चला। अनेक नगरों को ध्वस्त करते हुए चोल नरेश ने तुंगभद्रा के तट पर अपना विजय स्तम्भ स्थापित किया तथा ऐसा प्रतीत होता है कि सोमेश्वर का एक पुतला बना कर उसी को अधिकृत किया।
वेंगी- वेंगी की राजनीति इस समय अत्यन्त ही जटिल थी। मणिमंगलम दानपत्र के अनुसार कूडलसंगमम विजय के पश्चात् वीर राजेन्द्र ने वेंगी पर आक्रमण किया जो चालुक्य के अधीन थी। विक्रमांकदेवचरित से भी इस अभियान का संकेत प्राप्त होता है। यदि मणिमंगलम दानपत्र पर विश्वास किया जाय तो यह कहा जा सकता है कि वेंगी पर चालुक्यों का अधिकार अल्पकालिक रहा। कृष्णा के तट पर वेजवाडा नामक स्थान पर वीर राजेन्द्र ने पश्चिमी चालुक्यों को पराजित किया। बिल्हण के अनुसार इसने कलिंग में महेन्द्र पर्वत एवं चित्रकूट तक विजय प्राप्त किया। कन्याकुमारी लेख से भी चित्रकूट तक विजय का ज्ञान प्राप्त होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वीर राजेन्द्र ने पश्चिमी चालुक्यों को पराजित करने के पश्चात् वेंगी को पुनः चोल सत्ता द्वारा प्रभावित किया।
सिंहल युद्ध- सिंहल में विजयबाहु रोहण से अपने राज्य को विस्तृत करता हुआ चोलों को निष्कासित करने के लिए प्रयत्नशील था। महावंश के अनुसार इसकी सूचना प्राप्त होते ही वीर राजेन्द्र ने पुलित्थ नगर के सेनापति को रोहण पर आक्रमण करने के लिए प्रेषित किया। सिंहल नरेश विजयबाहु ने बर्मा के शासक से संधि स्थापित कर चोलों का विरोध किया। वीर राजेन्द्र ने इनके दमन के लिए एक अन्य सेना भी भेजी। वीर राजेन्द्र के 1067 ई. के लेखों से ज्ञात होता है कि चोल सेना ने विजयबाहु को पराजित कर उसकी पत्नी को बंदी बनाया तथा रोहण को अधिकृत किया। किन्तु रोहण पर चोलों का अधिकार स्थायी न रहा होगा। दो या तीन वर्षों के भीतर ही विजयबाहु ने रोहण को मुक्त कर लिया।
कडारम विजय- इसके सातवें वर्ष के लेखों से यह विदित होता है कि एक शरणाार्थी शासक की सहायता के लिए वीर राजेन्द्र ने कडारम को आक्रांत किया तथा वहाँ उसे सिंहासन पर अधिष्ठित किया। इस घटना की तिथि 1068 ई. मानी जा सकती है किन्तु यह विवरण संदेह से परे नहीं है।
पश्चिमी चालुक्य- सोमेश्वर प्रथम की मृत्यु के प्श्चात् उसके उत्तराधिकारी सोमेश्वर द्वितीय एवं वीर राजेन्द्र के मध्य संघर्ष के अनेक प्रमाण उपलब्ध होते हैं। सोमेश्वर द्वितीय के लेखों के अनुसार चोलों ने गुत्ति के दुर्ग को आक्रांत किया किन्तु शीघ्र ही प्रत्यावर्तन के लिए बाध्य हुए। चोल लेखों से ज्ञात होता है कि सोमेश्वर द्वितीय के राज्याभिषेक की कंठिका खोलने के पूर्व ही वीर राजेन्द्र ने कम्पिलि नगर को ध्वस्त किया तथा करडिगल में अपना विजयस्तम्भ स्थापित किया। सोमेश्वर द्वितीय की रट्टपाडि से अधिकृत कर विक्रमादित्य षष्ठ को वहाँ का शासक नियुक्त किया। विक्रमांकदेवचरित में लेखों से विपरीत एक दूसरी सूचना प्राप्त होती है जिसके अनुसार सोमेश्वर द्वितीय एवं विक्रमादित्य षष्ठ के मध्य जब गृहयुद्ध प्रारंभ हुआ तो उस समय विक्रमादित्य षष्ठ वीर राजेन्द्र के मध्य संधि स्थापित हुई। वीर राजेन्द्र ने विक्रमादित्य षष्ठ के साथ अपनी पुत्री का विवाह किया। विक्रमादित्य षष्ठ एवं वीर राजेन्द्र ने सम्मिलित रूप से सोमेश्वर द्वितीय को पराजित किया।
1070 ई. के आस-पास वीर राजेन्द्र की मृत्यु हुई। इसे सकल-भुवनाश्रय, मेदिनीवल्लभ, महाराजाधिराज, आहवमल्लकुलकाल, पांडयकुलांतक, राजाश्रय तथा राजराजेन्द्र इत्यादि की उपाधियों से विभूषित किया गया। वीर राजेन्द्र के शासनकाल में बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ तथा वीर शोलियम के अनुसार तमिल साहित्य पर बौद्ध साहित्य का प्रभाव पड़ा।
चोल शासक अधिराजेन्द्र
1070 ई. के लगभग वीर राजेन्द्र की मृत्यु के पश्चात् परकेशरी अधिराजेन्द्र चोल सिंहासन पर अभिषिक्त हुआ जिसने मात्र कुछ सप्ताह तक ही शासन किया। अधिराजेन्द्र के लेखों में तृतीय शासन वर्ष का उल्लेख है जबकि 1070 ई. में ही कुलोत्तुंग प्रथम चोल सिंहासन पर आरूढ हुआ। संभवतः वीर राजेन्द्र ने 1067-68 ई. में ही अधिराजेन्द्र को अपना युवराज नियुक्त किया इसलिए इसके तीन वर्षीय शासन का विवरण प्राप्त होता है।
वीर राजेन्द्र एवं अधिराजेन्द्र के सम्बंध के विषय में कोई प्रत्यक्ष अभिलेखिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता। विक्रमांकदेवचरित से यह अवश्य ज्ञात होता है कि विक्रमादित्य षष्ठ अपने श्वसुर के देहावसान के पश्चात् अपनी पत्नी के भाई को चोल सिंहासन पर अधिष्ठित करने के लिए कांची एवं गंगैकोण्डचोलपुरम गया था इससे अधिराजेन्द्र वीर राजेन्द्र का पुत्र प्रतीत होता है।
अधिराजेन्द्र का काल क्यों इतना संक्षिप्त रहा तथा पूर्वी चालुक्य राजकुमार राजेन्द्र द्वितीय कैसे चोल सिंहासन पर आसीन हुआ इत्यादि प्रश्नों का कोई निश्चित समाधान नहीं प्राप्त होता। साक्ष्यों के विभेद के कारण अनेक प्रकार की संभावनाएँ व्यक्त की गई हैं।
पूर्वी चालुक्य वंश कई पीढियों तक चोलों से वैवाहिक संबंध स्थापित करने के कारण आंतरिक रूप से चोल वंश से पूर्णतः प्रभावित था। राजराज प्रथम तथा राजेन्द्र प्रथम की पुत्रियों का विवाह वेंगी के चालुक्य राजकुमार विमलादित्य एवं राजराज नरेन्द्र के साथ हुआ। राजराज नरेन्द्र की चोल महारानी अमंगादेवी से राजेन्द्र द्वितीय (कुलोत्तुंग प्रथम) उत्पन्न हुआ जिसका विवाह चोल राजेन्द्र द्वितीय की पुत्री मधुरान्तिका के साथ हुआ था। अधिराजेन्द्र की हत्या के पश्चात् चोलों में योग्य उत्तराधिकारी के अभाव में रक्त संबंध के कारण कुलोत्तुंग प्रथम ने चोल सिंहासन को स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में प्राप्त करने का दावा किया है।
जिस समय कुलोत्तुंग प्रथम ने चोल सिंहासन को हस्तगत किया उस समय में विजयादित्य शासन कर रहा था। यह विजयादित्य कौन था। इस संबंध में दो तरह की संभावना व्यक्त की गई है। किंचित विद्वानों के अनुसार यह विजयादित्य सप्तम था किन्तु कुछ इतिहासकारों ने इसे सोमेश्वर प्रथम का पुत्र माना है। फ्लीट ने इसे विजयादित्य सप्तम मानते हुए यह मत प्रतिपादित किया है कि कुलोत्तुंग प्रथम ने अपने चाचा को वेंगी का शासक नियुक्त कर स्वयं दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया तथा चोल सिंहासन को हस्तगत किया। कलिंगत्तुपरणि के अनुसार वीर राजेन्द्र ने कुलोत्तुंग को दत्तक पुत्र के रूप में स्वीकार किया जबकि विक्रमांकदेवचरित के अनुसार अधिराजेन्द्र वीर राजेन्द्र द्वारा युवराज घोषित किया गया था। कलिंगत्तुपरणि में अधिराजेन्द्र के शासन का कोई उल्लेख नहीं है। कुलोत्तुंग के प्रारंभिक लेखो से यह ज्ञात होता है कि इसने अपने बाहुबल से शत्रुओं के षड्यंत्र को विनष्ट किया तथा विष्णु की तरह पृथ्वी का उद्धार किया। चित्रकूट के नागवंशीय शासक धारावर्ष से कर ग्रहण किया। यदि इस विवरण में सत्यांश है तो यह कहा जा सकता है कि 1063 एवं 1070 ई. के मध्य कुलोत्तुंग प्रथम बस्तर के क्षेत्र में विजय कर रहा था तथा वीर रजेन्द्र के पश्चात् चोल वंश में व्याप्त अराजकता से लाभ उठा कर चोल शासक बन बैठा। विजयादित्य सप्तम को प्रसन्न करने के लिए इसने वेंगी का शासक रहने दिया।
अधिराजेन्द्र किस तरह क्रांति का शिकार बना, इस संबंध में विक्रमांकदेवचरित से यह ज्ञात होता है कि विक्रमादित्य षष्ठ वीर राजेन्द्र की मृत्यु के पश्चात् कांची गया तथा क्रांति का दमन कर अधिराजेन्द्र को चोल सिंहासन पर अधिष्ठित किया। इस ग्रंथ में भी क्रांति का कोई स्वरूप वर्णित नहीं है। कलिंगत्तुपरणि में अधिराजेन्द्र के नाम के अभाव के आधार पर यह संभावना व्यक्त की गई है कि इस क्रांति में कुलोत्तुंग का भी योगदान रहा होगा। दिव्यसूरिचरित तथा यतिराजवैभवम से धार्मिक क्रांति का संकेत प्राप्त होता है। किन्तु इस क्रांति से अधिराजेन्द्र कैसे प्रभावित हुआ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।
इस प्रकार वीर राजेन्द्र की मृत्यु के पश्चात् कुलोत्तुंग प्रथम के सिंहासनारोहण तक की घटनाओं को निम्नलिखित रूप में समीक्षित किया जा सकता है। राजराज नरेन्द्र की मृत्यु के पश्चात् विक्रमादित्य षष्ठ ने वेंगी को अधिकृत कर लिया जिससे वेंगी राजकुमार राजेन्द्र द्वितीय उत्तराधिकार से वंचित रहा। इस अंतराल में कुलोत्तुंग प्रथम चित्रकूट की ओर अभियान में व्यस्त रहा। वीर राजेन्द्र की मृत्यु के पश्चात् जब चोलों में आंतरिक अराजकता उत्पन्न हुई तो इससे लाभ उठा कर विक्रमादित्य षष्ठ के अवरोध के बावजूद भी कुलोत्तुंग ने चोल सिंहासन को प्राप्त किया। धार्मिक अथवा राजनीतिक क्रांति में कुलोत्तुंग प्रथम का क्या सहयोग था, निश्चित रूप से तो नहीं कहा जा सकता किन्तु इतना तो निश्चित ही है कि जून 1070 ई. में कुलोत्तुंग प्रथम ने चोल साम्राज्य को प्राप्त कर चोल एवं वेंगी को एक ही राजनीतिक इकाई में आबद्ध किया।