राष्ट्रकूट शासक दन्तिदुर्ग (735ई0 या 745-755 या 758ई0) (भाग- दो)Rashtrakuta ruler Dantidurga (735 AD or 745-755 or 758 AD) (Part-II)

इन्द्र प्रथम के बाद उसका पुत्र दन्तिदुर्ग उत्तराधिकारी हुआ। इसके सिंहासनारोहण की तिथि मूलतः 735 एवं 745 ई0 के मध्य निर्धारित कर सकते हैं। दन्तिदुर्ग ने उस राजवंश को एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में परिवर्तित किया। उसके सिंहासनारोहण के समय उत्तर में अरबों के आक्रमण से कच्छ, काठियावाड़ एवं गुजरात की कमर टूट चुकी थी। मैत्रक शासक शीलादित्य पंचम तथा गुर्जर नरेश जयभट्ट तृतीय ने उनके अभियान को अवरुद्ध करने का सफल प्रयास किया किन्तु स्थायी सफलता अर्जित करने में असमर्थ रहे। गुजरात के चालुक्य नरेश पुलकेशिन् ने जुनैद के आक्रमण को अवरुद्ध कर चालुक्य विक्रमादित्य द्वितीय द्वारा नव उपाधियों से विभूषित किया गया। चालुक्यों की स्थिति एकदम निर्बल हो चुकी थी। पल्लवों के साथ दीर्घकालीन संघर्ष से चालुक्यों की आर्थिक एवं सैनिक शक्ति क्षीण हो चुकी थी। दन्तिदुर्ग ने एक सफल राजनीतिज्ञ एवं कूटनीतिज्ञ के रूप में उन परिस्थितियों से लाभ उठाकर राष्ट्रकूट शक्ति-स्तम्भ को सुदृढ़ किया।

दन्तिदुर्ग के शासनकाल की घटनाओं का विस्तृत विवरण ७५४ ई. के समनगद अनुदान पत्रों तथा एलोरा के खण्डित दशावतार गुहालेख में प्राप्त होती है। एलोरा, समनगद तथा इन्द्र तृतीय के वेगुभरा लेखों से यह ज्ञात होता है कि उसने काँची, कलिंग, श्रीशैल, कोसल, मालव, लाट, टंक तथा सिन्ध के शासकों को पराजित किया था। किन्तु इन साक्ष्यों से यह विदित नहीं होता कि उसने चालुक्यों को उपर्युक्त शासकों को पराजित करने के पूर्व या पश्चात् पराजित किया था।

दन्तिदुर्ग के 742 ई0 के एलोरा पत्रों में ’पृथ्वीवल्लभ’ तथा ‘खड़गावलोक’ उपाधियों से विभूषित किया गया है जबकि इसी लेख में इसके पूर्ववर्ती शासकों को मात्र ‘समधिगत पञ्चमहाशब्द’ तथा ‘सामन्ताधिपति’ जैसी उपाधियाँ प्रदान की गई है। इससे यह अनुमान होता है कि 742 ई0 के लगभग ही इसने किसी युद्ध में विशिष्ट ख्याति अर्जित की थी। सम्भव हैं कि इसने चालुक्य विक्रमादित्य के सामन्त के रूप में अरबों से संघर्ष किया हो और उन्हें आगे बढ़ने से अवरुद्ध किया हो।

प्रारम्भिक विजयें-

सम्भवतः 747ई0 में विक्रमादित्य द्वितीय की मृत्यु तक यह चालुक्यो के आज्ञाकारी सामन्त के रूप में उनकी सहायता करता रहा। युवराज कीर्तिवर्मन के साथ 743 ई0 में ही इसने काँची पर आक्रमण कर सैनिक योग्यता का परिचय दिया था। काँची विजय से प्रत्यावर्तन  के बाद कर्नूल जिले में श्रीशैल के शासक को पराजित किया। अल्तेकर महोदय का अनुमान है उस समय सम्पूर्ण कर्णाटक कीर्तिवर्मन द्वितीय के अधीन था तथा उसके सामन्त के रूप में ही दन्तिदुर्ग ने कॉँची एवं शैल पर आक्रमण किया होगा।

दुन्तिदुर्ग की इन सफलताओं ने उसे समीपवती शासकों को आक्रान्त करने के लिए प्रेरित किया। उसकी माँ चालुक्य राजकुमारी थी जिसमें सामाजिक महत्वाकांक्षा जन्म से ही विद्यमान थी। कर्णाटक पर चालुक्यों का शक्तिशाली शासन था। यह मात्र बरार एवं पश्चिमी मध्य प्रदेश का ही स्वामी था। इसलिए उसने सर्वप्रथम पूरब-पश्चिम की ओर अभियान प्रारम्भ किया।

पूर्व में इसने कोसल, रायपुर के समीप सिरपुर के उदयन तथा रामटेक के समीप श्रीवर्धन के शासक जयवर्धन जो सम्भवतः पृथ्वीवल्लभ नाम से भी अभिहित है, को आक्रान्त किया। समनगद लेख के अनुसार दन्तिदुगर्ग की हस्तिसेना ने माही तथा महानदी में अवगाहन किया जिससे महाकोसल अर्थात मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ क्षेत्र पर विजय का संकेत प्राप्त होता है। उस समय कोशल नरेश कौन था? निश्चितरूपेण ज्ञात नहीं होता। सम्भवतः प्रत्यावर्तन के समय कलिंग को भी इसने पराजित किया।

पल्लव शासक नन्दिवर्मन द्वितीय के उदयेन्दिरम लेख में उसे उदयन एवं व्याघ्रराज का विजेता कहा गया है। सम्भव है कि चालुक्यों के स्वाभाविक शत्रु पल्लव शासक नन्दिवर्मन द्वितीय के साथ दन्तिदुर्ग ने संघ का निर्माण किया हो और दोनों सम्मिलित रूप से सिरपुर एवं श्रीवर्धन पर आक्रमण किया हो। दुव्रिया महोदय ने बहूर लेख के आधार पर प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि दन्तिदुर्ग ने अपनी पुत्री शंखा का विवाह नन्दिवर्मन के साथ किया था किन्तु इस मत में सबसे बडी आपत्ति यह है कि बहूर लेख में शंखा को राष्ट्रकुट राजकुमारी तो कहा गया है किन्तु उसके पिता का नाम नहीं दिया गया है।

दशावतार गुहालेख में काँची विजय का उल्लेख है, साथ ही कोसल राज्य के विजय में पल्लव नरेश के साथ संघ की भी कल्पना की जाती है। चूंकि नन्दिवर्मन परमेश्वरवर्मन का पुत्र एवं उत्तराधिकारी न था। इसलिए सम्भव है कि नन्दिवर्मन ने का्ँची के सिंहासन को हड़पने के लिए दन्तिदुर्ग से मैत्री की हो तथा उसे काँची का सिंहासन दिलाने के लिए काँची पर आक्रमण भी करना पड़ा हो।

पूर्व में अपनी शक्ति सुदृढ़ करने के बाद दन्तिदुर्ग ने नन्दीपुरी के गुर्जरों तथा नौसारी के चालुक्यों की ओर ध्यान दिया। अरब आक्रमण के फलस्वरूप ये राज्य पहले से ही अस्त-व्यस्त थे। दन्तिदुर्ग को सरलतापूर्वक सफलता प्राप्त हुई। गुजरात के चालुक्य शासक पुलकेशिन तथा गुर्जर नरेश रट्ट तृतीय के किसी उत्तराधिकारी का ज्ञान नहीं प्राप्त होता। दन्तिदुर्ग ने चचेरे भाई गोविन्द को दक्षिणी गुजरात का शासक नियुक्त किया तथा नन्दीपुरी को भी राष्ट्रकूट राज्य में सम्मिलित किया।

चालुक्यों पर विजय-

दन्तिदुर्ग की इस बढ़ती हुई शक्ति से चालुक्य शासक कीर्तिवर्मन द्वितीय भयभीत हुआ।  उसने नौसारी की चालुक्य शाखा को पुनसर््थापित करने का अवश्य ही प्रयास भी किया होगा। जिससे दन्तिदुर्ग के साथ संघर्ष अपरिहार्य हो गया। दोनों के मध्य कहाँ संघर्ष हुआ? अनिश्चित है। सम्भवतः मध्य महाराष्ट्र में कहीं दोनों के बीच निर्णायक संघर्ष हुआ। दन्तिदुर्ग अपनी योजना में सफल हुआ। 754 ई0 में दन्तिदुर्ग द्वारा दिये गये एक गाँव के दान का विवरण उपलब्ध होता है। उसके बाद भी कीर्तिवर्मन पूर्णतः पराजित नहीं हुआ क्योंकि सितम्बर, 757 ई0 में भीमा नदी के तट पर उसकी विजयवाहिनी के शिविर का उल्लेख प्राप्त होता है। चालुक्यों के विनाश का कार्य कृष्ण प्रथम ने पूर्ण किया। इसीलिए वानिडिन्डोरी, राधनपुर तथा बड़ौदा इत्यादि दानपत्रों में चालुक्यों के उन्मूलन का श्रेय कृष्ण प्रथम को दिया गया है। इनके विपरीत कृष्ण प्रथम के ही काल के भारत इतिहास संशोधक मण्डल, तेलगाँव, तथा भाण्डुक लेखों में चालुक्य विजय का श्रेय दन्तिदुर्ग को ही दिया गया है। डॉ. अल्तेकर महोदय का यह अनुमान है कि कृष्ण प्रथम के बाद उसके पुत्र-पौत्र उत्तराधिकारी हुए, जिनकी वंशावली में दन्तिदुर्ग का नाम ही कम प्राप्त होता है। साथ ही कार्य की पूर्णता कृष्ण प्रथम द्वारा हुई। इसीलिए कृष्ण प्रथम को भी यह श्रेय दिया गया है जबकि वास्तव में दन्तिदुर्ग ने कीर्तिवर्मन द्वितीय को शक्तिहीन बना दिया था।

उपर्युक्त विजय से खानदेश, नासिक, पूना, सतारा एवं कोल्हापुर जिलों पर दन्तिदुर्ग का अधिकार स्थापित हो गया।

उत्तरी क्षेत्र पर विजय-

 दन्तिदुर्ग को टंक, सिन्ध एवं मालवा का विजेता कहा गया है। टंक की समता अभी तक अनिश्चित है। सिन्ध का अभिप्राय अरबों से है। सम्भव है कि उत्तरी अभियान के संदर्भ में उनसे कहीं झड़प हो गई हो। मालवा पर प्रतिहारों का अधिकार था। जहाँ सम्भवतः प्रतिहार नरेश देवराज का एक प्रतिहार में परम्परागत संघर्ष चल रहा था। प्रतिहारों की इन दोनों शाखाओं के संघर्ष से लाभ उठाने के लिए दन्तिदुर्ग ने आक्रमण कर दिया। यद्यपि यह विवादस्पद है कि समकालीन प्रतिहार शासक कौन था? सम्भवतः नागभट्ट प्रथम या देवराज रहे हों। दशावतार गुहा लेख से ज्ञात होता है कि दन्तिदुर्ग ने गुर्जर नरेश के राजमहल को अधिकृत किया था।संजन लेख के अनुसार उज्जयिनी में जब दन्तिदुर्ग ने हिरण्यगर्भ यज्ञ सम्पादित किया तो गुर्जर नरेश ने प्रतिहारी (द्वारपाल) का कार्य किया था।

हिरण्य गर्भ राजन्यैरुज्जयिन्यां यदासितम्।

प्रतिहारी कृतं येन गुर्जरेशादिराजकम्।।

अल्तेकर महोदय का अनुमान है कि यह मात्र अभियान था। उन्हें प्रभाव-क्षेत्र में तो किया किन्तु उनके राज्य को सम्मिलित नहीं किया।

गुजरात को अधिकृत कर इसने अपने सम्बन्धी, अन्तरोली-छरोली लेख के ध्रुव के पौत्र तथा गोविन्द के पुत्र कर्क द्वितीय को इन क्षेत्रों का गवर्नर नियुक्त किया।

यद्यपि उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर दन्तिदुर्ग के जीवन-काल की समस्त घटनाओं का सही चित्रण रेखांकित करना असम्भव है, किन्तु जो साक्ष्य प्राप्त हैं उनसे यह स्पष्टतः घोषित किया जा सकता है कि वह एक योग्य सेनापति, कुशल कूटनीतिज्ञ तथा महान प्रशासक था। समय का लाभ उठाने का उसमें पूर्ण विवेक था। पल्लव-चालुक्य संघर्ष तथा अरब आक्रमणों से वह पूर्णतः लाभान्वित हुआ। विभिन्न सम्बन्धियों तथा पड़ोसी राज्यों के साथ संघ स्थापित कर दक्षिण गुजरात, खानदेश, बरार तथा उत्तरी महाराष्ट्र को राष्ट्रकूट साम्राज्य का अंग बनाया।

धार्मिक दृष्टिकोण से वह कट्टर हिन्दू था जिसने अपनी माँ के आदेशानुसार अनेक गाँव दान दिया था। उज्जयिनी के तीर्थ में हिरण्यगर्भ महादान यज्ञ सम्पन्न किया। 754 ई0 के रथसप्तमी के पुण्य अवसर पर उसने स्वर्ण तुलाभार दान ब्राह्मणों में वितरित किया। इसने एलोरा में दशावतार मंदिर का निर्माण करवाया था। लेखों में इसके लिए महाराजाधिराज, परमेश्वर, परमभट्टारक, साहसतुंग, पृथ्वीवल्लभ, खडृगावलोक आदि उपाधियों का उल्लेख मिलता है। इसके शासन काल की अन्तिम तिथि 754 ई0 है तथा इसके उत्तराधिकारी की प्रथम तिथि 758 ई0 ज्ञात होती है। इसलिए 754-758 ई0 के मध्य यह कभी दिवंगत हुआ। दन्तिदुर्ग ने राष्ट्रकूट-वंश को स्वतंत्र स्थायित्व प्रदान कर उत्तराधिकारी के लिए साम्राज्य विस्तार हेतु स्वर्णिम मार्ग प्रशस्त किया।

राष्ट्रकूट शासक कृष्ण प्रथम (755-58 से 772-73 ई0 तक)

दन्तिदुर्ग के पश्चात् उसका चाचा कृष्ण प्रथम उत्तराधिकारी हुआ। दन्तिदुर्ग अपने यौवन-काल में ही पुत्रहीन चल बसा। चित्तलदुर्ग से प्राप्त एक लेख के अनुसार वह पुत्रहीन दिवंगत हुआ तथा उसका कनिष्ठ चाचा 756-58 ई0 के लगभग राष्ट्रकट राजपीठ पर आसीन हुआ।

बडौदा दानपत्र में दन्तिदुर्ग का नाम नहीं है। उसी लेख में कृष्ण प्रथम को अपने निकट सम्बन्धी का विनाशक कहा गया है। कृष्ण द्वितीय के बेग्रुमा लेख में ‘वल्लभराजेऽकृतप्रजाबाधे’ दन्तिदुर्ग के लिए प्रयुक्त हुआ है। जिसे किज्चित विद्वानों ने ‘कृत प्रजाबाधे’ अर्थात् प्रजा का बाधित या कष्ट देने वाला पढा है।

उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष निकाला गया कि दन्तिदुर्ग ने प्रजा पर अत्याचार किया, कृष्ण प्रथम ने अपने ही चाचा का विनाश कर राष्ट्रकूट राजवंश की रक्षा की, इसीलिए बड़ौदा अभिलेख में अत्याचारी शासक का नाम नहीं आया है।

किन्तु यह निष्कर्ष तथ्यसंगत नहीं प्रतीत होता क्योंकि कृष्ण प्रथम के तलेगाँव अभिलेख में ‘क्षतप्रजाबाधः’, गोविन्द तृतीय के पैठन लेख में ‘कृतप्रजापालः’ तथा दौलताबाद एवं अलस पत्रों में ‘क्षितौप्रजापालः’ शब्दों का प्रयोग हुआ है। अल्तेकर महोदय के अनुसार बड़ौदा दानपत्र का सही पाठ ‘अकृत प्रजाबाध’ है। कृष्ण प्रथम के भन्दुक तलेगाँव, भारत इतिहास संशोधक-मण्डल पत्रों में दन्तिदुर्ग की प्रशस्ति प्राप्त होती है। डॉ. डी. आर. भण्डारकर ने ठीक ही कहा है कि यदि कृष्ण प्रथम द्वारा उन्मूलित शासक दन्तिदुर्ग होता तो उसके लेखों में दन्तिदुर्ग की प्रशस्ति न होती।

सम्भवतः कृष्ण प्रथम द्वारा पराजित राष्ट्रकूट शासक अन्तरौली-छरौली लेख का कर्क द्वितीय था जिसने ‘समधिगत पञ्च महाशब्द परम-भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर’ की उपाधि धारण की। कर्क द्वितीय को वास्तविक स्थिति का ज्ञान कराने के लिए आक्रमण करना पड़ा होगा। कवि दानपत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि दन्तिदुर्ग के मरणोपरान्त कृष्ण प्रथम उत्तराधिकारी हुआ।

गुजरात की राष्ट्रकूट शाखा के गोविन्द के कवि, ध्रुवराज द्वितीय के बेग्रुमा, कृष्ण बेग्रुमा तथा कर्क के सूरत पत्रों के अनुसार कृष्ण प्रथम ने दर्पयुक्त राहप्प को पराजित कर ‘राजाधिराज परमेश्वर’ की उपाधि धारण की थी।

राहप्प कौन था? अभी तक स्थिर नहीं हो पाया है। मेवाड़ में 725 ई0 के एक लेख में ‘महाराजाधिराज परमेश्वर श्री धवलप्पदेव’ का उल्लेख है। सम्भव है कि राहप्प इसी का उतराधिकारी रहा हो। राहप्प नाम कन्नड़ ज्ञात होता है। कृष्ण ने राहप्प को पराजित कर सम्राट सूचक उपाधि धारण की थी। इसलिए यह भी सम्भव है कि यह समकालीन चालुक्य शासक कीर्तिवर्मन का नाम या विरुद रहा हो अथवा वंेगी के चालुक्य विष्णुवर्धन की उपाधि रही हो। इस सम्बन्ध में अभी तक कोई निश्चित जानकारी नहीं है।

सिंहासनारोहण के समय कृष्ण प्रथम पूर्ण वयस्क था। उसने चालुक्य शासक कीर्तिवर्मन द्वितीय को पूर्णतः पराजित किया तथा उसके साम्राज्य का दक्षिण भाग हस्तगत किया। चालुक्यों के पराजय की यह तिथि 758 ई0 के शीघ्र बाद प्रतीत होती है क्योंकि उसी तिथि के बाद भारत इतिहास संशोधक मण्डल पत्रों में इस घटना का कोई जिक्र नही है।

कृष्ण प्रथम ने सर्वप्रथम अपनी आन्तरिक स्थिति को सुदृढ़ किया। तदुपरान्त उसने मैसूर के गंगवाड़ी को आक्रान्त किया। तलेगाँव लेख से ज्ञात होता है कि 768ई0 में मन्रपुर या मान्यपुर नामक स्थान पर कृष्ण प्रथम का सैनिक शिविर पड़ा था। तुंकूर जिले के एक लेख में एक सैनिक की स्मृति अमर है जो राष्ट्रकूटों के विरूद्ध युद्ध करते हुए दिवंगत हुआ था। लेख में गंगशासक श्रीपुरुष का उल्लेख हुआहै। कृष्ण प्रथम का यह अभियान सफल रहा तथा वृद्ध गंग शासक शासक श्रीपुरुष पराजित हुआ।

युवराज गोविन्द के अलस लेख से ज्ञात होता है कि वेंगी के चालुक्यों पर आक्रमण करने के लिए 770 ई० में मूसी एवं कृष्णा नदी  के संगम पर युवराज गोविन्द का संनिक शिविर पड़ा हुआ था। समकालीन चालुक्य नरेश विष्णु वर्धन चतुर्थ पराजित हुआ। फलस्वरूप आधुनिक हैदराबाद का अधिकांश भाग राष्ट्रकूट साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। मंदुक लेख से ज्ञात होता है कि सम्पूर्ण मराठी मध्य प्रान्त 772 ई० तक राष्ट्रकूटों द्वारा शासित था।

रट्टराज के खरेपाटन लेख से ज्ञात होता है कि वंश का संस्थापक सणफुल्ल ने संध्यपर्वत एवं समुद्र के मध्य का क्षेत्र कृष्णराज के अनुग्रह से प्राप्त किया था। कोंकण के शिलाहार दीर्घकाल तक राष्ट्रकूटों के वफादार बने रहे। सणफुल्ल शिलाहारक्श का संस्थापक था। सणफुल्ल तथा कृष्ण प्रथम समकालीन ज्ञात होते हैं। कृष्ण प्रथम ने दक्षिण कोकण को अधिकृत कर सणफुल्ल को अपना सामन्त नियुक्त किया।

लगभग १५ वर्षों तक सफलतापूर्वक शासन करने के बाद772 ई0 के लगभग कृष्ण प्रथम दिवंगत हुआ क्योंकि तलेगाँव लेख से उसकी अन्तिम तिथि 772 ई0 ज्ञात होती है तथा 775 ई0 के ध्रुव प्रथम के पिम्पेरी लेख में कृष्ण प्रथम का कोई उल्लेख नहीं है।

कृष्ण प्रथम ने योग्य सेनापतित्व गुणों से सम्पन्न शासक के रूप में पैतृक साम्राज्य को द्विगुणित किया। कोंकण, कर्नाटक और हैदराबाद के अधिकांश क्षेत्रों को राष्ट्रकूट सीमा द्वारा सीमांकित किया गया था। न केवल गंग और वेगी शासक, बल्कि कांची के पल्लव शासक, को पराजित कर उनके भू-भाग को  अपनी पत्नी  की भाªति उपभोग किया (कंाची गुनालंकता-विश्वम्भरा निजवनितेव सा तेन मुक्ता-तलेगांव पत्र) चालुक्यों का पूर्ण पतन उसी के काल में हुआ। कुछ चालुक्य सामंतों के नाम प्रभु उपलब्ध होते हैं जैसे- 1. कट्टियिर, 2. यशोवर्मन और 3. महासामंत बुद्धवर्ष। लेकिन ये सभी राष्ट्रकूटों की अधीनता को स्वीकार कर रहे थे। सामंत के रूप में भी उनका कोई विशेष स्थान नहीं था।

कृष्ण प्रथम ने जिस तरह से राजनीति में इस वंश को स्थायित्व दिया, उसी तरह उन्होंने सांस्कृतिक जगत में भी एक क्रांतिकारी स्थान हासिल किया। एलोरा का कैलाश मंदिर शैलोत्खनित मंदिरों में विश्व वास्तुकला में एक महत्वपूर्ण कृति है जो इस काल में बनाई गई थी। कृष्ण प्रथम वास्तुकला के साथ ही साहित्य का भी उदार संरक्षक था। प्रसिद्ध जैन विद्वान अकलंक भट्ट इसके समकालीन थे। अकलंक भट्ट ने राजवार्तिक और कई अन्य ग्रंथों की रचना की। इस प्रकार कृष्ण प्रथम का शासन राष्ट्रकूट वंश के बहुमुखी विकास का आधार बना। कृष्ण  प्रथम की अंतिम तिथि युक्त अभिलेख शक संवत 692 (770 ईस्वी) का है। इसलिए उनकी मृत्यु 773 ई0 के लगभग हुई होगी।

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