राष्ट्रकूट राजवंश का इतिहास (भाग- एक)History of Rashtrakuta Dynasty(part One)

राष्ट्रकूट राजवंश दक्षिण भारत की उन प्रमुख शक्तियों में विशिष्ट महत्व रखता है जिसने न मात्र दक्षिण वरन् अखिल भारतीय राजनीति को प्रभावित किया है। आठवीं शताब्दी ई. के मध्य दन्तिदुर्ग ने उस वंश की राजनीतिक प्रतिष्ठा को स्थायित्व प्रदान किया, इसीलिए प्रमुख राष्ट्रकूट शाखा को सामान्यतः दन्तिदुर्ग शाखा के नाम से अभिहित किया गया है।

दन्तिदुर्ग शाखा के अतिरिक्त अन्य राष्ट्रकूट परिवारों के भी उल्लेख उपलब्ध होते हैं। छठीं एवं सातवीं शती में दक्षिणापथ के विभिन्न भागों में ऐसे किंचित सामन्तों के ज्ञान प्राप्त होते हैं जो राष्ट्रकूटों से सम्बद्ध प्रतीत होते हैं। मानपुर का अभिमन्यु प्राचीनतम राष्ट्रकूट शासक ज्ञात होता है जिसके दानपत्रों में इसे मानांक का प्रपौत्र, देवराज का पौत्र तथा भविष्य का पुत्र बतलाया गया है। यद्यपि दानपत्र तिथिविहीन है किन्तु लिपिगत विशेषताओं के आधार पर इसे ७वीं शती में निर्धारित कर सकते हैं। भगवानलाल इन्द्र जी ने मानपुर की समता मान्यखेत या मालखेद से की है किन्तु मानपुर तथा मान्यखेत की राजनीतिक प्रतिष्ठा तथा नामगत वैभिन्य के कारण इस मत में विश्वास नहीं किया जा सकता। यह मान्यपुर या मानपुर आधुनिक होशंगाबाद जिले में स्थित है।

राष्ट्रकूटों का राजचिन्ह सिंह था जबकि मान्यखेत के राष्ट्रकूटों ने गरुड़ या शिव को ग्रहण किया था। इसलिए दोनों शाखाओं को एकीकृत नहीं किया जा सकता। बादामी के चालुक्य साम्राज्य के मध्य में दक्षिण मराठा क्षेत्र से सेन्द्रक परिवार की सूचना प्राप्त होती है जो चालुक्यों से सम्बन्धित थे। सातवीं शताब्दी में ये अपने पड़ोसी राष्ट्रकूटों से सम्बद्ध तो अवश्य थे किन्तु प्रमुख राष्ट्रकूट शाखा से भिन्न थे। राष्ट्रकूटों के निश्चित उल्लेख तीवरखेद तथा मुल्ताई दानपत्रों से भी प्राप्त होते हैं। फ्लीट ने इन्हें जारी करने वाले शासक को नन्दराज पढ़ा है। किन्तु सूक्ष्म अध्ययन के फलस्वरूप अल्तेकर ने नन्दराज स्वीकार किया है। तीवरखेद पत्र का समय 631-32ई0 तथा मुल्ताई पत्र का समय 709-10ई है। इन पत्रों से राष्ट्रकूटों की निम्नलिखित वंशावली प्राप्त होती है-

१. दुर्गराज

२. गोविन्दराज (पुत्र)

३. स्वामिकराज (पुत्र)

४. नन्नराज युधासुर (पुत्र)

दन्तिदुर्ग की वंशावली नन्नराज से प्रारम्भ होती है। तीवरखेद तथा मुल्ताई पत्रों के अन्य शासकों के नाम दन्तिदुर्ग शाखा के शासकों के अधिक समीप हैं। सम्भव है कि दन्तिदुर्ग शाखा के राष्ट्रकूटों तथा उपर्युक्त रष्ट्रकूट शासकों में कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रक्त सम्बन्ध रहा हो। दोनों के राजचिन्ह एवं शासित क्षेत्रों में भी तादात्म्य है।

कर्कराज द्वितीय के 757 ई. के अंतरोली-छरोली पत्रों से एक राष्ट्रकूट परिवार की जानकारी प्राप्त होती है। इस लेख से निम्नलिखित शासकों का क्रमिक ज्ञान प्राप्त होता है-

१. कर्कराज प्रथम

2. ध्रुव (पुत्र)

3. गोविन्द (पुत्र)

4. कर्क द्वितीय (पुत्र) 750-770ई0

अन्तरोली-छरोली का पुरातन नाम स्थावरपल्लिका है जो सूरत से 10 मील उत्तर-पूर्व स्थित है। दानग्रहण करने वाला भड़ौच जिले में जम्बुसार का निवासी बतलाया गया है। इससे कर्क द्वितीय को सूरत एवं भड़ौच का शासक मान सकते हैं। कर्क द्वितीय दन्तिदुर्ग का समकालीन है। दोनों परिवारों में निकटतम सम्बन्ध प्रतीत होता है। भगवानलाल इन्द्र जी ने तो ध्रुव को दन्तिदुर्ग के पिता इन्द्रप्रथम का भाई माना है जो अस्वाभाविक नहीं हो सकता। डॉ. डी. आर. भण्डारकर ने अन्तरोली-छरोली लेख के कर्क एवं गोविन्द के दन्तिदुर्ग शाखा के इन्द्र प्रथम का पिता एवं पितामह माना है। किन्तु उस मत का स्वीकार करने में अनेक बाधाएँ हैं। प्रथम तो दन्तिदुर्ग तथा कर्क के पूर्वजों के नाम में साम्य नहीं है। द्वितीय आपत्ति दोनों वशांवलियों के शासकों के काल के सम्बन्ध में है। कर्क द्वितीय जब दन्तिदुर्ग का समकालीन सम्भावित है तो वह दन्तिदुर्ग के पिता इन्द्र का पिता कैसे हो सकता है?

चालुक्य विक्रमादित्य द्वितीय के नरवन पत्रों से ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूट शिवराज के पुत्र गोविन्दराज के अनुग्रह पर चालुक्य नरेश ने नरवन गाँव ब्राह्मणों को दान में दिया था। काल-निर्धारण के आधार पर गोविन्द की समता अन्तरोली-छरोली के गोविन्द से की जा सकती है किन्तु इस सम्बन्ध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कठिनाई यह है कि अंतरोली-छरोली लेख में गोविन्द का पिता ध्रुव है जबकि नरवन पत्रों में शिवराज।

इसी प्रकार आभिलेखिक विवरणों के आधार पर हुल्टश तथा फ्लीट प्रभृति विद्वानों ने राष्ट्रकूटों के अन्य परिवारों का संकेत दिया है जो अधिक सत्याधृत नहीं हैं। इस सम्बन्ध में कोई भी निर्णायक मत नहीं दिया जा सकता कि राष्ट्रकूटों की कितनी शाखाएं थीं। बादामी के चालुक्य शासकों के अधीन अनेक राष्ट्रकूट परिवार राजनीतिक अधिकारियों के रूप में कार्यरत थे जिनमें दन्तिदुर्ग शाखा विशेष शक्तिशाली रही। अंत में इसी शाखा ने बादामी के चालुक्यों का विनाश कर स्वतंत्र राष्ट्रकूट सत्ता की स्थापना की।

उद्भव-

 राष्ट्रकूटों की मुख्य शाखा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न कथाएँ तथा आभिलेखिक प्रमाण प्राप्त होते हैं, किन्तु किसी से भी संदेहरहित ज्ञान नहीं उपलब्ध होता है। इसीलिए विद्वानों ने इस विषय पर विभिन्र प्रकार की सम्भावनायें व्यक्त की हैं-

1. परवर्ती राष्ट्रकूट अभिलेखों में इस वंश को यदु से सम्बद्ध किया गया है। भगवानलाल इन्द्र जी का यह अनुमान है कि यह सिद्धान्त 930 ई0 से प्रारम्भ हुआ जबकि राष्ट्रकूटों ने सिंह के स्थान पर विष्णु के वाहन गरुड़ को राजचिन्ह के रूप में स्वीकार किया किन्तु यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सिंह मानपुर के राष्ट्रकूटों का राजचिन्ह था न कि मालखेद के राष्ट्रकूटों का। राष्ट्रकूटों के प्रारम्भिक मुहरों एवं पत्रों-यथा युवराज गोविन्द के असल पत्रों तथा गोविन्द तृतीय के पैथन दानपत्रों में गरुड़ चिन्ह का प्रयोग है। किंचित परवर्ती लेखों में आसन शिव लांछन का भी प्रयोग प्राप्त होता है किन्तु सिंह का कोई संकेत नहीं प्राप्त होता।

राष्ट्रकूटों के यदुवंशी होने का प्रथम उल्लेख 871 ई0. के संजन दानपत्रों में दृष्टिगत होता है। गोविन्द तृतीय के 808 ई0 के वनिडिन्डोरि अभिलेख में इसके जन्म के विषय में यह वर्णन है कि राष्ट्रकूट वंश-क्षितिज पर गोविन्द के उदय से यह वंश उसी प्रकार अजेय हो गया जिस प्रकार मुरारि के जन्म से यदुवंश। यह सम्भाव्य है कि इसी उपमा के आधार पर इन्हें यदुवंशी कहना संदेह से परे नहीं है।

2. सर आर. जी. भण्डारकार ने यह सुझाव दिया है कि सम्भवतः यह वंश तुंग परिवार से उद्भूत हो क्योंकि कृष्ण तृतीय के देवली तथा कर्हाद दानपत्रों में यह स्पष्ट विवरण है कि यह वंश तुंग नाम के शासक से उत्पन्न हुआ था। उन पत्रों में रट्ट को तुंग वशज का पुत्र कहा गया है जिसे राष्ट्रकूट नाम का आधार माना गया है। किन्तु तुंग एवं रट्ट दोनों ही अनैतिहासिक हैं जिनके विषय में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती। यदि राष्ट्रकूटों को उनसे उत्पन्न स्वीकार भी कर लें तो उनकी उत्पत्ति एवं मूलस्थान की समस्या का कोई समाधान नहीं निकलता।

3. फ्लीट महोदय की यह धारणा है कि चूँकि राठौर या राठौड़ शब्द राष्ट्रकूट शब्द से विनिर्मित है, इसलिए राष्ट्रकूटों को कत्रौज-राजपूताना के राठौर राजपूतों से सम्बन्धित किया जा सकता है। किन्तु दक्षिण के राष्ट्रकूटों के बहुत काल बाद राठौरों के इतिहास में आता है। इस सम्बन्ध में डॉ. अल्तेकर का मत अधिक समीचीन प्रतीत होता है जिनके अनुसार राठौर राष्ट्रकूटों के वंशज हैं। ध्रुव प्रथम, गोविन्द तृतीय, इन्द्र तृतीय तथा कृष्ण तृतीय के उत्तर भारतीय अभियान के सन्दर्भ में कुछ राष्ट्रकूट परिवार उत्तर में ही बस गये जो कालान्तर में राठौर नाम से विख्यात हुए।

4. बर्नेल महोदय ने यह मत व्यक्त किया है कि मालखेद के राष्ट्रकूट तेलगू थे जो आन्ध्र प्रदेश के रेड्डियों से सम्बन्धित किये जा सकते हैं। किन्तु यह सत्याधृत कहा नहीं जा सकता। तमिल देश तथा उत्तरी पूर्वी मैसूर के क्षेत्रों में यद्यपि रेड्डी परिवार फैले हैं किन्तु उनका मूलस्थान एवं प्रभाव क्षेत्र आन्ध्र प्रदेश ही है। रेड्डियों की मूलभाषा तेलगू है। यदि हम आधुनिक रेड्डियों के पूर्वज के रूप में राष्ट्रकूटों को स्वीकार करें तो उनका मूलस्थान कृष्णा – गोदावरी दोआब में होना चाहिए तथा उसी क्षेत्र में प्राथमिक प्रमुखता भी प्राप्त होनी चाहिए।

किन्तु यह क्षेत्र अधिकांशतः राष्ट्रकूट साम्राज्य से बाहर ही रहा। रेड्डियों का उल्लेख कृषक एवं व्यापारी के रूप में प्राचीन भारत में प्राप्त होता है। उनके सैनिक आभयन का संकेत ही नहीं है। 1350-1450 ई. में कृष्णा एवं राजमहेन्द्री के क्षेत्र में रेड्डियों का शासन था। तेलगू भाषा में राष्ट्र से रड्ड या रेड्री शब्द का निर्माण भी सम्भव नही है। साथ ही राष्ट्रकूटों की मातृभाषा भी तेलगू नहीं है। इसलिए रेड्डियों के पूर्वज के रूप में राष्ट्रकूटों को स्वीकार करना सर्वथा संदेहजनक है।

5. श्री चिन्तामणि विनायक वैद्य का विचार है मालखेद के राष्ट्रकूट मराठी भाषा-भाषी परिवार के थे जो आधुनिक मराठों के पूर्वज रहे होंगे। इस सम्बन्ध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य है कि राष्ट्रकूटों की मातृभाषा कन्नड थी। इसलिए किसी कत्रड परिवार से ही उन्हें सम्बद्ध होना चाहिए।

6. राष्ट्रकूटो के उद्भव के सम्बन्ध में डॉ. अल्तेकर ने सर्वाधिक तर्कसंगत मत व्यक्त किया है। इनका यह अनुमान है कि राष्ट्रकूट शब्द वास्तव में मूलतः जातिसुचक नहीं था। यह एक राजनीतिक पद का द्योतक है। जिस प्रकार मध्ययुग में देश-पाण्डेय या देसाई शब्द देश या जिले के अधिकारी के रूप में प्रयुक्त हैं, उसी प्रकार प्राचीन युग में ग्राम के अधिकारी को ग्रामकूट तथा राष्ट्र के अधिकारी को राष्ट्रकूट शब्द से सम्बोधित किया जाता था। राष्ट्रकूट वंश के संस्थापक दन्तिदुर्ग के लेखों (742 ई0) में भी राष्ट्रकूट नाम के अधिकारी का प्रयोग है। इसका मूल संस्कृत शब्द राष्ट्रिक है जिसके अनेक विकृत रूप अशोक के लेखों में प्रयुक्त हैं। इनका प्राचीनतम नाम रठिक है। अशोक के गिरनार लेख में रिष्टिक, शहबाजगढ़ी में रष्टिक तथा मानसेहरा लेख में रट्रक शब्दों का प्रयोग हुआ है। सातवाहन महारानी नागानिका के नानाघाट अभिलेख में उसे महारठी मनकयिर की पुत्री कहा गया है। इस समय रठिक नाम के अनेक सामन्तों के प्रमाण प्राप्त होते हैं। खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से ज्ञात होता है उसने पश्चिमी अभियान में रठिकों तथा भोजकों को पराजित किया था। इसके कुछ समय के बाद के कार्ले से प्राप्त दो लेखों में महारठी गोतिपुत्र अगिमितनक तथा महाराठी वसिथिपुत सोमदेव के नाम हैं। भाजा लेख से महारठी विन्हुदत्त तथा कन्हेरी लेख में महारठिनी नागमूलनिका की सूचना प्राप्त होती है। इनसे यह प्रतिध्वनित होता है कि रठी एवं महारठी न मात्र सेनापति या राष्ट्र के अधिकारी के रूप् थे वरन् उनकी सामन्तीय स्थिति भी प्रमाणित होती है।

सामान्यतः रठी या महारठी को महाराष्ट्र से ही सम्बद्ध किया जाता है किन्तु कर्नाटक में भी इनके अधिकार के निश्चित प्रमाण हैं। मैसूर में चितलदुर्ग के समीप ‘सादकनि कललाय महारठि’ विरूद युक्त सिक्के प्राप्त हुए हैं। धर्ममहाराजाधिराज शिवस्कन्दवर्मन् के हीरहडगल्ली दानपत्र में रठिकों का भी उल्लेख है। अनेक महारठी परिवार कन्नड परिवार से सम्बन्धित थे। कन्हेरी लेख की नागमूलनिका एक महाराठी से विवाहित थी जो स्वयं एक कन्नड शासक की पुत्री थी। कर्णाटक में इनके लेख होने से उन्हें मात्र महाराष्ट्र में सीमित नहीं किया जा सकता।

उपर्युक्त विवरण से यह आभासित होता है कि कर्णाटक के क्षेत्र में जो रठी या महारठी प्रारम्भ में अधिकारी के रूप प्रयुक्त होते हैं वे ही बाद में एक वर्ग-विशेष के रूप में समाज में मान्य हुए। इनकी मातृ-भाषा कन्नड हुई तथा यह वर्ग बाद में राष्ट्रकूट नाम से विकसित हुआ। उससे राष्ट्रकूटों की उत्पत्ति रठी या महारठी परिवार से तो प्रमाणित होती है किन्तु उनकी जाति का वास्तविक ज्ञान नहीं प्राप्त होता। सामान्यतः उच्च वर्ग के ही लोग उन पदों पर नियुक्त होते थे। इसलिए राष्ट्रकूट भी ब्राह्मण या क्षत्रिय वर्ग में समाहित किये जा सकते हैं।

मूल-स्थान-

 राष्ट्रकूटों की साम्राज्य सीमा मुख्यतः महाराष्ट्र को आवृत्त करती हैं। इनके अधिकांश लेख यहीं से प्राप्त हुए हैं तथा इनकी राजधानी मान्यखेत (मालखेद) भी इसी क्षेत्र में स्थित है। इसलिए महाराष्ट्र मातृभूमि के रूप में स्वाभाविकतः अनुमन्य है। किन्तु इनकी मातृभाषा कन्नड होने के कारण कर्णाटक की विचारधारा भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। राष्ट्रकूटों के प्रश्रय में कन्नड साहित्य का पूर्ण विकास हुआ। अमोघवर्ष प्रथम प्राचीन कन्नड काव्य का या तो लेखक ही था अथवा प्रश्रयदाता। न मात्र मान्यखेत की शाखा वरन् इनकी लघुशाखा जो लाट में पल्लवित हुई, उनके भी अधिकांश लेख कन्नड भाषा में है। ऐसी परिस्थिति में यदि महाराष्ट्र को मूलस्थान स्वीकार किया जाय तो सबसे बड़ी समस्या यह खडी होगी कि इन्होंने कन्नड को कैसे मूल भाषा बनाया। महाराष्ट्र के बाहर बुन्देलखण्ड के जूरा नामक स्थान से कृष्ण तृतीय का एक लेख कन्नड भाषा में प्राप्त हुआ है। इसलिए एलिचपुर के नन्नराज से दन्तिदुर्ग को सम्बद्ध करना भी अस्वाभाविक न होगा। जिन रठी परिवारों से राष्ट्रकूटों के विकास का अनुमान लगाया जाता है, उनका अस्तित्व तृतीय शती पहले से ही कर्णाटक में ज्ञात होता है।

राष्ट्रकुटों के अधिकांश लेखों में इन्हें ‘लट्टलूर पुरवराधीश’ (सर्वोत्तम नगर लट्टलूर का स्वामी) कहा गया है। सौन्दत्ति के रट्टों के लेखों में ‘लट्टलूरपरुविनिर्गत’ (सर्वोत्तम नगर लट्टलूर से प्रव्रजित) से विभूषित किया गया है। लट्टलूर की समता अभी भी सुनिश्चित नहीं है। फ्लीट ने सर्वप्रथम मध्यप्रदेश में बिलासपुर जिले के रतनपुर नामक स्थान से एकीकृत किया था। प्रारम्भ में फ्लीट एवं वैद्य महोदय ने महाराष्ट्र या मध्य प्रान्त में कहीं राष्ट्रकूटों के मूल स्थान को प्रमाणित करने का प्रयास किया था। वैद्य ने तो राष्ट्रकूटों को आर्यों का सेनापति माना है जिन्होंने महाराष्ट्र को अधिकृत किया। आर.जी. भण्डारकर ने महाराष्ट्र शब्द को महारठी से सम्बद्ध किया है किन्तु इन मतों को स्वीकार करने में राष्ट्रकूटों की मातृभाषा कन्नड़ विशेष बाधक है। साथ ही महारठी नाम की किसी भी जनजाति या प्रजाति का कोई भी उल्लेख प्राचीन साहित्य में नहीं प्राप्त होता जिनके आवास के कारण महाराष्ट्र नाम पड़ा है।

बाद में फ्लीट ने अपने मत में संशोधन करते हुए यह सुझाव दिया कि लट्टलूर की समता उस्मानाबाद जिले के लाटूर नामक स्थान से की जा सकती है। लट्ठलूर से लाटूर का परिवर्तन भी स्वाभाविक है। इसका मूल प्राकृत ‘लट्टऊर’ रहा होगा जो बाद में ‘लाटूर’ बना होगा।

यह मत सत्यता के निकट प्रतीत होता है क्योंकि ईसा की प्रारम्भिक शताब्दी से ही कर्णाटक क्षेत्र में रठी एवं महारठी के परिवारों के प्रमाण प्राप्त होते हैं। सम्भव है कि लाटूर में किसी स्थानीय रठी परिवार का अधिकार रहा हो। जो पूना के ठीक पूर्व एवं बरार के दक्षिण है। यह परिवार बाद में बरार में एलिचपुर या बरार के समीप अन्य किसी स्थान पर आकर बस गया जहाँ नन्नराज 631-32 ई0 में शासन कर रहा था। एलिचपुर से लाटूर 150 मील उत्तर में है। यह स्थान परिवर्तन असम्भव नहीं है। इस प्रकार बरार में दन्तिदु्र्ग के पूर्वजों को लाटूर से आया स्वीकार किया जाय तो इनकी मातृभाषा कन्नड़ होने में कोई अस्वाभाविकता नहीं है। कविराजमार्ग से स्पष्ट ज्ञात होता है कि गोदावरी एंवं कावेरी के मध्य कन्नड भाषा प्रचलित थी।

प्रारम्भिक राजधानी-

दन्तिदुर्ग शाखा को इतिहासकारों ने सुविधार्थ मालखेद या मान्यखेट के राष्ट्रकूट नाम से सम्बोधित किया है। मालखेद या मान्यखेट को अमोघवर्ष प्रथम के युग में राजधानी बनने का श्रेय प्राप्त हुआ। कथाकोश में शुभतुंग को मालदेव कासंस्थापक कहा गया है। यह कृष्ण प्रथम की उपाधि थी। इसीलिए किंचित विद्वानों ने मान्यखेट की स्थापना का श्रेय कृष्ण प्रथम को दिया है। किन्तु कृष्ण द्वितीय को भी इसी उपाखि से विभूषित किया गया है। इसलिए कृष्ण प्रथम को मालखेद या मान्यखेट का संस्थापक मानना भ्रामक है। कर्क द्वितीय के कर्द दानपत्र में अमोघवर्ष प्रथम को स्पष्टतः मालखेद या मान्यखेट का निर्माता बतलाया गया है।

इससे यह प्रतिध्वनित होता है कि अमोघवर्ष प्रथम के पूर्व राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट के स्थान पर कहीं अन्यत्र रही होगी जो निश्चितरूपेण ज्ञात नहीं है। नासिक जिले के मयूरखिण्डि या मोराखिन्दि को मालखेद के पूर्व की राजधानी की कल्पना कर सकते हैं जहाँ से गोविन्द तृतीय के राधनपुर एवं वनिडिन्डोरि अभिलेख जारी किये गये थे। इस लेख में ‘मयूरखिण्डी समावासितेन मया ’ वाक्य है जो अस्थायी सैनिक शिविर का संकेत देता है। दान दिये गये गाँव को नासिक देश के वट नगर विषय में बतलाया है। यदि मयूरखिण्डि राजधानी होती तो अस्थायी शिविर तथा नासिक देशं के विषय का उल्लेख न होता बल्कि मयूरखिण्डि के विषय का विवरण दिया गया होता। इसी प्रकार नासिक को भी राजधानी स्वीकार करने में अनेक कठिनाइयाँ हैं। कजिन्स महोदय ने एलोरा के समीप ‘सूलूबुन्जुन’ नामक स्थान को प्रारम्भिक राजधानी माना है क्योंकि कृष्ण प्रथम के काल से ही यहाँ निर्माण कार्य हो रहा था। डॉ. अल्तेकर का अनुमान है कि बरार में एलिचपुर मान्यखेत के पूर्व राष्ट्रकूटों का प्रमुख केन्द्र था जहाँ से दन्तिदुर्ग ने विकास कार्य प्रारम्भ किया था। किन्तु अमोधवर्ष के पहले ही इस राजवंश- के महानतम् शासकांे – ध्रुव प्रथम एवं गोविन्द तृतीय ने जिस प्रकार साम्राज्य को विस्तृत किया उसी प्रकार उसे सुव्यवस्थित भी करने का प्रयास किया होगा जिसके लिए सुदृढ़ केन्द्र का होना आवश्यक है। एलिचपुर राष्ट्रकूट इतिहास में कभी सुदृढ़ केन्द्र का होना अत्यावश्यक है। एलिचपुर राष्ट्रकूट इतिहास में कभी सुदृढ़ केन्द्र के रूप में ज्ञात नहीं होता। यह संभव प्रतीत होता है कि दन्तिदर्ग ने एलिचपुर के स्थान पर किसी दूसरे नगर को साम्राज्य का केन्द्र बनाया हो, किन्तु ज्ञान की वर्तमान अवस्था में उसका निश्चित एकीकरण सम्भव नहीं प्रतीत होता।

प्रारम्भिक शासक-      

दन्तिदुर्ग के पूर्व राष्ट्रकूटों का इतिहास तिमिराच्छादित है। अन्तरोली -छरोली, तीवरखेद एवं मुल्ताई इत्यादि लेखों में प्राप्त वंशावलियों के आधार पर डॉ. अल्तेकर महोदय ने दुर्गराज, गोविन्दराज, स्वामिराज नन्नराज, दन्तिवर्मन, इन्द्र पृच्छकराज, गोविन्दराज कर्क प्रथम, इन्द्र प्रथम, दन्तिदुर्ग तथा कृष्ण प्रथम को शासक बतलाया गया है। इनके मध्य सम्बन्ध भी निश्चित रूप से ज्ञात नहीं होता।

उपर्युक्त शासकों के लेखो के अनुसार मालखेद शाखा का प्रथम शासक दन्तिवर्मन है जो नन्नराज का पुत्र या भाई रहा होगा। दशावतार गुहा लेख में इसकी परम्परागत प्रशस्ति प्राप्त होती है। उसे ‘पञ्चमहाशब्दाधिगत’ कहा गया है। इसका सम्भावित समय 650-670 ई0 के लगभग प्रतीत होता है।

इसके बाद इन्द्र पृच्छकराज एवं गोविन्द प्रथम महत्वहीन शासक रहे जिन्होंने 670-710 ई0 के लगभग तक शासन किया। गुजरात शाखा के राष्ट्कूट शासक कर्कराज सुवर्ण वर्ष के 812 ई0 के बड़ौदा दानपत्र से गोविन्द के शैव होने का संकेत प्राप्त होता है।

फ्लीट तथा आर.जी. भण्डारकर ने इस गोविन्द की समता उस गोविन्द से की है जिसने मंगलेश एवं पुलकेशिन द्वितीय के गृहयुद्ध के समय भीमा नदी के उत्तर के आप्पायिक के साथ आक्रमण किया था। किन्तु यदि दोनों के काल पर विचार किया जाय तो यह मत विश्वसनीय नहीं जान पडता। पूलकेशिन के समय आक्रमण 610 ई0 के लगभग हुआ होगा जबकि राष्ट्रकूट गोविन्द 690 ई0 के आस-पास शात होता है।

तदुपरान्त कर्क प्रथम का नाम आता है। जिसके सम्भवतः तीन पुत्र थे – इन्द्र प्रथम, कृष्ण प्रथम और नन्नगुणावलोक। इन्द प्रथम सर्वाधिक महत्वाकांक्षी था।

इन्द्र प्रथम –

जब इन्द्र प्रथम ने अपना राजनीतिक जीवन प्रारम्भ किया, उस समय चालुक्य पत्लव संघर्षरत थे। यद्यपि तीवरखेद एवं मुल्ताई पत्रो में इन्द्र के किसी स्वामी का संकेत नहीं है। किन्तु यह निश्चित ज्ञात होता है कि बादामी के चालुक्यों का इस पर पूर्ण प्रभाव था। इसका समकालीन बादामी का चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्वितीय था।

संजन दानपत्रों से यह शात होता है कि उत्तरी गुजरात में कैरा (खेटक) नाम स्थान पर उसने चालुक्य राजकुमारी भवनागा के साथ राक्षस विधि से उसके पिता को पराजित कर विवाह किया था। भवनागा का पिता सम्भवतः चालुक्य सामन्त मंगलेश विनयादित्य या उसका पुत्र पुलीकिशन रहा होगा। अलविलादुरी से ज्ञात होता है कि सिन्ध के अरब गवर्नर जुनैद ने भड़ौच तक आक्रमण किया था। पुलकेशिराज के नौसारी दानपत्र से पुलकेशिन द्वारा सफल अवरोध का ज्ञान प्राप्त होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि चालुक्य सामन्त के रूप में इन्द्र भी इसी समय गुजरात पर अरब अभियान को अवरुद्ध करने के लिए गया था।

कैरा वास्तव में वल्लभी के मैत्रकों के अधीन था। सम्भवतः चालुक्य राजकुमारी भवनागा का विवाह किसी वल्लभी राजकुमार के साथ निश्चित था, इसीलिए कैरा में उसका स्वयंवर हो रहा था। इन्द्र इतना सशक्त था कि गुजरात के चालुक्यों एवं वल्लभी के मैत्रकों की अवहेलना करते हुए विवाह मण्डप से कन्या का अपहरण किया। बाद में दोनों के सम्बन्ध भी मधुर हो गये।

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