प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के स्रोतः विदेशी यात्रियों के विवरण (Details Of Foriegn Travellers Sources Of Knowing Ancient Indian History)

भारतीय इतिहास के निर्माण और संकलन में विदेशी विद्वानों, यात्रियों और राजदूतों का भी बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भारत पर प्राचीन समय से ही भिन्न-भिन्न राजा और विदेशी आक्रमणकारी आते रहे हैं। इन विदेशी आक्रमणों के कारण भारत की राजनीति और इतिहास में समय-समय पर महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। भारत की धरती पर अनेक विदेशी यात्रियों ने अपना पाँव रखा है। इनमें से कुछ यात्री, विद्वान और दार्शनिक आक्रमणकारी सेना के साथ भारत में आये तो कुछ धार्मिक कारणों से। इतिहास लेखन में उनकी रूचि रही, इसलिए स्वाभाविक रूप से भारत का इतिहास भी लिखा गया।  स्वतन्त्र रूप से बाद के विदेशी विद्वानों ने भी अपने देश के भारत में आने वाले आक्रमणकारियों और शासकों के विषय में लिखा तो भारतीय इतिहास पुनः संग्रहीत हुआ। विदेशी दार्शनिक, सन्त और विद्वान भी स्वतन्त्र रूप से भारत आये और भ्रमण किया, यहाँ रहे तो उन्होंने भी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का रोचक इतिहास समय- समय पर लिखा। इन विदेशी यात्रियों के विवरणों से भारतीय इतिहास की अमूल्य जानकारी प्राप्त होती है। कई विदेशी यात्रियों एवं लेखकों ने स्वयं भारत की यात्रा करके या लोगों से सुनकर भारतीय संस्कृति से संबंधित ग्रंथों का प्रणयन किया है। विभिन्न राजाओं के भेजे हुए राजदूत भी यहाँ भारतीय शासकों के समय में आते रहे और कई वर्षों तक भारत में रह कर भारतीय इतिहास का संकलन किया। यद्यपि ये ग्रंथ पूर्णतया प्रमाणिक नहीं हैं, फिर भी इन ग्रंथों से भारतीय इतिहास-निर्माण में पर्याप्त सहायता मिलती है। विदेशी यात्रियों एवं लेखकों के विवरण से भारतीय इतिहास की जो जानकारी मिलती है, उसे तीन भागों में बांटा जा सकता है-1. यूनानी-रोमन लेखक, 2. चीनी लेखक और 3. अरबी लेखक।

यूनानी-रोमन लेखक:

यूनानी-रोमन विद्वानों एवं लेखकों की भारतीय इतिहास लेखन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। प्राचीन काल से ही यूनानी लेखक यहाँ आते रहे और उन्होंने यहाँ के इतिहास लेखन में विशेष रूचि ली। बाद के यूनानी लेखकों ने भी पूर्ववर्ती लेखकों के उदाहरणों के आधार पर इतिहास लिखा, जो इतिहास की गुत्थियां सुलझाने में सहायक सिद्ध हुई। यूनानी-रोमन लेखकों के विवरण सिकंदर के पूर्व, उसके समकालीन तथा उसके पश्चात् की परिस्थितियों से संबंधित हैं। इसलिए इनको तीन वर्गों में बांटा जा सकता है- सिकंदर के पूर्व के यूनानी लेखक, सिकंदर के समकालीन यूनानी लेखक, सिकंदर के बाद के लेखक।

                स्काइलेक्स पहला यूनानी सैनिक था जिसने सिंधु नदी का पता लगाने के लिए अपने स्वामी डेरियस प्रथम के आदेश से सर्वप्रथम भारत की भूमि पर कदम रखा था। इसके विवरण से पता चलता है कि भारतीय समाज में उच्चकुलीन जनों का काफी सम्मान था। इसके भौगोलिक ज्ञान को बाद के अन्य विद्वानों ने अपने विवरण में उल्लेख किया है। हेकेटिअस मिलेटस दूसरा यूनानी लेखक था जिसने भारत और विदेशों के बीच कायम हुए राजनीतिक संबंधों की चर्चा की है। छठीं शताब्दी ईसा के उत्तरार्द्ध में हिकेटिअस सिन्धु प्रदेश में आया। इसने पारसीकों के विवरणों के आधार पर और स्वयं के ज्ञान से सिन्धु प्रदेश के भूगोल के विषय में विस्तार से लिखा। ईरानी सम्राट जेरेक्सस के वैद्य टेसियस ने सिकंदर के पूर्व के भारतीय समाज के संगठन, रीति-रिवाज, रहन-सहन इत्यादि का वर्णन किया है। किंतु इसके विवरण अधिकांशतः कल्पना-प्रधान और असत्य हैं। हेरोडोटस, जिसे ‘इतिहास का जनक’ कहा जाता है, ने 5वीं शताब्दी ई.पू. में ‘हिस्टोरिका’ नामक पुस्तक की रचना की थी। भारत की उत्तर-पश्चिमी जातियों के विषय में हमें जानकारी प्राप्त होती है। हेराडोटस की पुस्तक से भारत और फारस के संबंधों का वर्णन है। यद्यपि हेरोडोटस भारत की यात्रा नहीं की थी। केसिअस पारसीक शासक अतरजरक्सीज का राजवैद्य था। भारतीय ज्ञान लिखने का इसका स्रोत वे व्यापारी थे जो फारस व्यापार करने के लिए जाते थे और पारसीक अधिकारियों से प्राप्त विवरण के आधार पर अपना विवरण लिखा। लेकिन इसके विवरण में अतिरंजना है।

 सिकन्दर की सेना में अनेक विद्वान, लेखक, सैनिक अधिकारी और कर्मचारी थे। इन्होंने भौगालिक मार्गों, और सांस्कृतिक दशा पर अच्छा प्रकाश डाला है। भारत पर आक्रमण के समय सिकंदर के साथ आने वाले लेखकों ने भारत के संबंध में अनेक ग्रंथों की रचना की। इनमें नियार्कस, आनेसिक्रिटस, अरिस्टोबुलस, चारस, यूमेनीस आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इन लेखकों ने तत्कालीन भारतीय इतिहास का अपेक्षाकृत प्रमाणिक विवरण दिया है। अरिस्टोबुलस ने ‘युद्ध का इतिहास’ (हिस्ट्री आफ वार) और आनेसिक्रिटस ने ‘सिकन्दर की जीवनी’ नामक यात्रा वृतान्त लिखा है। इनके विवरण काल्पनिक अवश्य हैं परन्तु इनके विवरणों के आधार पर बाद के यूनानी लेखकों ने बहुत अधिक सहारा लिया है।

 सिकन्दर के बाद से तीसरी शताब्दी ई0पू0 तक यूनानी लेखकों, विद्वानों और दार्शनिकों की एक लम्बी श्रृंखला है, जिन्होंने सिकन्दर से लेकर भारतीय इतिहास की जानकारी अपने समय तक की दी है। इससे मौर्य वंश के इतिहास को जानने में सहायता मिलती है। चन्द्रगुप्त मौर्य का बहुत सा इतिहस तो हमें यूनानी विवरणों से ही प्राप्त हो जाता है। सिकंदर के बाद के यात्रियों और लेखकों में मेगस्थनीज, प्लिनी, टालमी, डायमेकस, डायोडोरस, प्लूटार्क, एरियन, कर्टियस, जस्टिन, स्ट्रैबो आदि उल्लेखनीय हैं। मेगस्थनीज यूनानी शासक सेल्यूकस की ओर से राजदूत के रूप में चंद्र्रगुप्त मौर्य के दरबार में करीब 14 वर्षों तक रहा। मेगस्थनीज ने भारत के सांस्कृतिक ज्ञान पर ‘इण्डिका’ नामक ग्रन्थ की रचना की। यद्यपि इसकी रचना ‘इंडिका’ का मूलरूप प्राप्त नहीं है, फिर भी इसके उद्धरण अनेक यूनानी लेखकों के ग्रंथों में मिलते हैं। इन उद्धरणों को एकत्र कर डा0 स्वानवेक ने 1846ई0 में प्रकाशित करवाया, और इसका अंग्रेजी अनुवाद 1891ई0 में मैक क्रिण्डल ने किया। मेगस्थनीज ने भारत के बारे में बहुत अच्छी और महत्वपूर्ण जानकारी दी है। मेगस्थनीज के विवरण के अनुसार भरत वर्ष का आकार समचतुर्भुज की तरह है। उसने भारत की कुल 56 नदियों का उल्लेख किया है, जिनमें से गंगा सबसे पवित्र नदी मानी जाती है। उसके अनुसार पाटलिपुत्र नगर भारत का सबसे बड़ा नगर था। जिसकी लम्बाई और चैड़ाई क्रमशः 80 स्टेडिया (16किमी.) और 15 स्टेडिया (3किमी.) थी। उसके अनुसार भारतीय साहसी, वीर और सत्यवादी होते हैं। पाटलिपुत्र नगर का प्रशासन 6 समितियों द्वारा संचालित होता था।  उसने अपने विवरण में पाण्डय देश का भी उल्लेख करता है जहाँ पर पाण्डया नामक एक स्त्री शासन चलाती है। मेगस्थनीज गन्ने और कपास (सिण्डन) की खेती का भी वर्णन करता है। उसके अनुसार भारतीय समाज में सात जातियाँ थी-ब्राह्मण और दार्शनिक, कृषक, ग्वाले और आखेटक, व्यापारी और श्रमजीवी, योद्धा, निरीक्षक और अमात्य और परामर्शदाता। यह जाति व्यवस्था उसने अपने मन से लिख दी और यह भारतीय जातियों से समानता नहीं रखती है। अतः हम यह कह सकते हैं कि मेगस्थनीज के विवरण से भारतीय संस्थाओं, भूगोल, समाज के वर्गीकरण, राजधानी पाटलिपुत्र आदि के संबंध में प्रचुर सामग्री प्राप्त होती है।

 सीरिया नरेश अन्तियोकस का राजदूत डाइमेकस, जो बिंदुसार के राजदरबार में काफी दिनों तक रहा, ने अपने समय की सभ्यता तथा राजनीति का उल्लेख किया है। इस लेखक की भी मूल पुस्तक अनुपलब्ध है। डायोनिसियस मिस्र नरेश टालमी फिलाडेल्फस के राजदूत के रूप में काफी दिनों तक सम्राट अशोक के राजदरबार में रहा था। स्ट्रैबो ईसा की प्रथम शताब्दी का एक यूनानी विद्वान था, इसने पर्यटन से अच्छा ज्ञान प्राप्त किया और पुराने विद्वानों के विवरणों के आधार पर अपना वृतान्त लिखा। इसने ‘भूगोल’ नामक ग्रन्थ की रचना की।अन्य पुस्तकों में अज्ञात लेखक की ‘पेरीप्लस आफ द एरिथ्रियन सी’, लगभग 150 ई. के आसपास का टालमी का ‘भूगोल’ (‘ज्योग्रफिका’), प्लिनी की ‘नेचुरल हिस्ट्री’ (ई. की प्रथम सदी) महत्त्वपूर्ण है । प्लिनी की ‘नेचुरल हिस्ट्री या प्राकृतिक इतिहास‘ से भारतीय पशु, पेड़-पौधों एवं खनिज पदार्थों की जानकारी मिलती है। प्लिनी भारत को बहुमूल्य पत्थरों और रत्नों का उत्पादक बताता है। प्लिनी के अनुसार ‘रोम, भारत से व्यापार करके अपना कोष रिक्त कर रहा है। रोम विलासिता की सामग्री आयात करने में प्रतिवर्ष दस करोड़ सेस्टर्स व्यय करता है। इसी प्रकार एरियन जो एक यूनानी विद्वान था, ने भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण काल की जानकारी देने के लिए ‘एनाबेसिस (सिकन्दर का आक्रमण)’ और ‘इण्डिका’ नामक दो पुस्तकों की रचना की। एनाबेसिस में सिकन्दर के अभियानों का वर्णन है। इसने अपना विवरण मेगस्थनीज और सिकन्दर के  समकालीन विद्वानों के विवरणों  के आधार लिखा। एरियन के अनुसार मेगस्थनीज पोरस के दरवार में उससे मिला था। एरियन ने भ्रामक  तथ्यों को निकाल कर सही एवं स्पष्ट भाषा में जानकारी प्रदान की। टालमी ग्रीक का निवासी था। इसने ‘भूगोल (ज्योग्राफी)’ नामक पुस्तक लिखी थी। इसमें भारत की सीमाओं पर प्रकाश डाला गया है। कर्टियस, जस्टिन और स्ट्रैबो के विवरण भी प्राचीन भारत इतिहास के अध्ययन की सामग्रियां प्रदान करते हैं। ‘पेरीप्लस आफ द एरिथ्रियन सी’ ग्रंथ में भारतीय बंदरगाहों एवं व्यापारिक वस्तुओं का विवरण मिलता है।

चीनी लेखक:

भारत और चीन दोनों में बौद्ध धर्म एवं संस्कृति का निरन्तर प्रसार हुआ। बौद्ध धर्म का ज्ञान प्राप्त करने के लिए के लिए चीनी बौद्ध विद्वान और अन्य लेखक भारतीय संस्कृति का अध्ययन करने एवं अन्य राजनीतिक उद्देश्यों के लिए भारत आते रहे। जिन्होंने अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना किया।चीनी लेखकों के विवरण से भी भारतीय इतिहास पर प्रचुर प्रभाव पड़ता है। चीन के प्रथम इतिहासकार शुमाचीन ने लगभग प्रथम शताब्दी ई.पू. में इतिहास की एक पुस्तक लिखी, जिससे प्राचीन भारत पर बहुत-कुछ प्रकाश पड़ता है। इसके बाद भारत आने वाले प्रायः सभी चीनी लेखक बौद्ध मतानुयायी थे और वे इस धर्म का ज्ञान प्राप्त करने के लिए ही भारत आये थे। चीनी बौद्ध यात्रियों में फाह्यान (399 से 413 ई.), शुंगयुन (518 ई.) ह्वेनसांग (629 से 645 ई.), इत्सिंग (673 से 695 ई.) आदि महत्त्वपूर्ण थे, जिन्होंने भारत की यात्रा की और अपने यात्रा-वृतांत में भारतीय रीति-रिवाजों, राजनैतिक स्थिति और भारतीय समाज के बारे में बहुत कुछ लिखा है।

 फाह्यान बौद्ध हस्तलिपियों एवं बौद्ध स्मृतियों को खोजने के लिए कठोर यातनाएं सहता हुआ भारत में गुप्त वंश के महान् सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में 399ई0 में भारतीय अध्यात्म और संस्कृति का ज्ञान प्राप्त करने आया था। मोक्षप्रदायिनी गंगा और पवित्र यमुना नदी के मैदानी भागों और प्रान्तों में फाह्यान ने भ्रमण किया। उसने गंगावर्ती प्रांतों के शासन-प्रबंध तथा सामयिक अवस्था का पूर्ण विवरण लिपिबद्ध किया है। उसकी रचना का नाम ‘फा-क्यों-की अर्थात् बौद्ध राजतंत्रों का वृतान्त’ है। स्वाभाविक रूप से इस पुस्तक में उस समय की सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक स्थिति के विभिन्न तथ्य भी संग्रहीत हुए। फाह्यान ने अपने विवरण में भारत के दातव्य औषधालयों,कौड़ियों और चाण्डालों का उल्लेख किया है। यह चीनी यात्री भारत में स्थल मार्ग से आया था और इसकी वापसी हुई जल मार्ग से 414ई0 में हुई। यद्यपि फाह्यान गुप्त वंश के महान् सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के विषय में कोई जानकारी नहीं देता है।

सुंगयुन 518ई0 में भारत की यात्रा पर आया था। इसका उद्देश्य भी पूर्णतया धार्मिक था। यह भारत में 3 वर्ष तक रहकर 170 बौद्ध ग्रन्थों का संकलन किया। इसने हूण शासक मिहिरकुल का उल्लेख अपने यात्रा वृतान्त में किया है।

चीनी यात्रियों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ह्वेनसांग को ‘प्रिंस आफ पिलग्रिम्स’ अर्थात् ‘यात्रियों का राजकुमार’, और ‘नीति का पण्डित’ कहा जाता है। उसकी उपाधि मोक्षदेव तथा महायानदेव थी। बौद्ध भिक्षु ह्वेनसांग  भारत में बौद्ध धर्म का ज्ञानार्जन करने के लिए पुष्यभूति वंश के सम्राट कन्नौज नरेश हर्षवर्धन (606-47 ई.) के शासनकाल में भारत आया था। ह्वेनसांग के पवित्र भूमि भारत पर पधारने का वर्ष 629ई0 माना जाता है। इसने लगभग 16वर्षों तक भारत में व्यतीत किया और छः वर्षों तक नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। भारतीय धर्मों, संस्कृति और मानव जीवन,व्यापार का ह्वेनसांग ने अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। भारतीय सामाजिक वातावरण में उभरते अनैतिक स्वर का भी ह्वेनसांग ने स्वाद चखा था, उसकी एकाध बार चोर डाकुओं से मुठभेंड़ इुई थी।  इसकी भारत-यात्रा के वृतांत को ‘सी-यू-की’ के नाम से जाना जाता है, जिसमें लगभग 138 देशों की यात्राओं का वर्णन है। ‘सियूकी’ प्राचीन भारतीस इतिहास के अनेक अध्यायों का और वर्धन वंश का तो विशेष रूप से इतिहास बताने वाली अपना पृथक महत्व रखने वाली महत्वपूर्ण रचना है। ह्वेनसांग बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय का विद्वान था। हर्षवर्धन ने अपनी कन्नौज धर्म-सभा का अध्यक्ष इस महान् चीनी यात्री को ही बनाया था। उसके मित्र ह्नीली ने ‘ह्वेनसांग की जीवनी’ नामक ग्रंथ लिखा है जिससे हर्षकालीन भारत पर प्रकाश पड़ता है। ह्वेनसांग दक्षिण में कांची तक की यात्रा किया था उसने पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन (महामल्ल) का उल्लेख किया है।

 सातवीं शताब्दी के अंत में इत्सिंग दक्षिण के समुद्र मार्ग से भारत आया था। उसके साथ 37 चीनी यात्रियों का एक दल भी 671 या 675ई0 में भारत आया था। उसने यहाँ पर संस्कृत भाषा का अघ्ययन किया और अनेकों संस्कृत ग्रन्थों का अनुवाद भी किया। वह बहुत समय तक नालंदा एवं विक्रमशिला विश्वविद्यालयों में रहा। उसने बौद्ध शिक्षा संस्थाओं और भारतीयों की वेशभूषा, खानपान आदि के विषय में भी लिखा है। वह लिखता है कि अब से पाँच सौ वर्ष पूर्व श्री चेलिकेतो नामक राजा ने नालन्दा के मृग शिखावन में एक चीनी मंदिर का निर्माण करवाया था। विद्वानों ने इस चेलिकेतो का समीकरण गुप्त वंश के आदि राजा श्रीगुप्त से किया है। इत्सिंग अपने विवरण में भत्र्तहरिशास्त्र का विवरण देता है और बताता है कि भत्र्तहरि सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध थे। वह भारत को आर्यदेश कहता है। इनके अलावा मा-त्वा-लिन व चाऊ-जू-कुआ की रचनाओं से भी भारत के बारे में ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त होती है। मा-त्वा-लिन ने हर्ष के पूर्वी अभियान एवं चाऊ-जू-कुआ ने चोलकालीन इतिहास पर प्रकाश डाला है।

तिब्बती लेखकः

तिब्बती इतिहासकार लामा तारानाथ वैसे तो 12वीं शताब्दी के विद्वान हैं, लेकिन इन्होंने अपने ग्रंथों ‘कंग्यूर, और तंग्यूर’ के माध्यम से प्राचीन भारतीय इतिहास पर प्रकाश डाला। वह बौद्ध धर्मावलम्बी था। मौर्यों, शुंग, कुषाण वंश और गुप्त राजवंश की अनेक तथ्यात्मक जानकारी लामा तारानाथ के विवरण से मिलती है। तारानाथ बौद्ध लामा थे, अतः स्वाभाविक से बौद्ध धर्म के सापेक्ष लिखने के कारण तारानाथ की जानकारी भ्रम पैदा करती है, जैसे लामा तारानाथ का विवरण तो यह सिद्ध करने का प्रयास करता है कि शुंग वंश के शासक पुष्यमित्र शुंग बौद्ध धर्म का हत्यारा शासक था। उसकी रचना ‘ बौद्ध धर्म का इतिहास’ पूर्व -मध्यकालीन भारतीय इतिहास के अध्ययन का एक महतवपूर्ण स्रोत है। धर्म स्वामी के विवरणों से भी 13वीं शताब्दी के इतिहास पर महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। उसके विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि 13वीं शताब्दी के पूवार्द्ध में भी नालन्दा महाविहार पूरी तरह नष्ट नहीं हुआ था। तत्कालीन राजनीतिक इतिहास पर भी धर्म स्वामी के यात्रा वृतान्त से प्रकाश पड़ता है।

अरबी लेखक:

 आठवीं और नौवीं शताब्दी ई0 में पश्चिमी एशिया से भारत व्यापारिक सम्बन्धपूर्ण पुष्ट हो चुका था। 10वीं शताब्दी तक दो आक्रमणकारी मुहम्मद बिन-कासिम और महमूद गजनबी भारत में अरबों का स्थायी निवास बना चुके थे। इसलिए स्वाभाविक रूप से अरब विद्वानों ने प्रकरणवश एवं स्वतंत्रता से भी भारत के विषय में लिखना प्रारम्भ कर दिया था। पूर्व मध्यकालीन भारतीय समाज और संस्कृति के विषय में सर्वप्रथम अरब व्यापारियों एवं लेखकों से जानकारी प्राप्त होती है। इन व्यापारियों और लेखकों में अल-बिलादुरी, फरिश्ता, अल्बरूनी, सुलेमान और अलमसूदी महत्त्वपूर्ण हैं जिन्होंने भारत के बारे में लिखा है। फरिश्ता एक प्रसिद्ध इतिहासकार था, जिसने फारसी में इतिहास लिखा है। उसे बीजापुर के सुल्तान इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय का संरक्षण प्राप्त था। महमूद गजनवी के साथ भारत आने वाले अल्बरूनी (अबूरिहान) ने संस्कृत भाषा सीख कर भारतीय सभ्यता और संस्कृति को पूर्णरूप से जानने का प्रयास किया। उसने अपनी पुस्तक ‘तहकीक-ए-हिंद’ अर्थात् किताबुल-हिंद में भारतीय गणित, भौतिकी, रसायनशास्त्र, सृष्टिशास्त्र, ज्योतिष, भूगोल, दर्शन, धार्मिक क्रियाओं, रीति-रिवाजों और सामाजिक विचारधाराओं का प्रशंसनीय वर्णन किया है।

नवीं शताब्दी में भारत आने वाले अरबी यात्राी सुलेमान ने प्रतिहार एवं पाल शासकों के समय की आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक दशा का वर्णन किया है। 915-16 ई. में भारत की यात्रा करने वाले बगदाद के यात्री अलमसूदी से राष्ट्रकूट एवं प्रतिहार शासकों के विषय में जानकारी मिलती है। महान् अरब इतिहासकार और इस्लाम धर्मशास्त्री तबरी उस समय के इस्लाम जगत् के प्रायः सभी प्रसिद्ध विद्या-केंद्र्र्रों में गया था और अनेक प्रसिद्ध विद्वानों से शिक्षा ग्रहण की थी।

इसके अतिरिक्त कुछ फारसी लेखकों के विवरण भी प्राप्त होते हैं जिनसे भारतीय इतिहास के अध्ययन में काफी सहायता मिलती है। इनमें फिरदौसी (940-1020 ई.) की रचना ‘शाहनामा’, राशिद-अल-दीन हमादानी (1247-1318 ई.) की ‘जमी-अल-तवारीख’, अली अहमद की ‘चचनामा’ (फतहनामा सिन्ध), मिन्हाज-उस-सिराज की ‘तबकात-ए-नासिरी’, जियाउद्दीन बरनी की ‘तारीख-ए-फिरोजशाही’ एवं अबुल फजल की ‘अकबरनामा’ आदि ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कृतियां हैं।

यूरोपीय यात्रियों में तेरहवीं शताब्दी में वेनिस (इटली) से आये सुप्रसिद्व यात्राी मार्कोपोलों द्वारा दक्षिण के पांड्य राज्य के विषय में जानकारी मिलती है।

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