जैन धर्मः एक अध्ययन (Jainism: A Study)

  • जैन धर्म भारत का प्राचीनतम् धर्म है।
    • ‘जिन’ से जैन शब्द बना है। ‘जिन’ का शाब्दिक अर्थ है जीतने वाला, अर्थात् विजय होता है। जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण कर ले, राग-द्वेष, इच्छा, मानसिक विकारों, वासनाओं आदि को जीतता है, उसे ‘जिन’ कहते हैं।
    • जैन धर्म को प्रारम्भ में निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय कहा जाता था। सम्राट अशोक के लेखों में निगण्ठ (निर्ग्रन्थ) शब्द प्रयुक्त मिलता है।
    • ऋग्वेद में ऋषभदेव और अरिष्टनेमि नामक दो तीर्थंकरों का वर्णन मिलता है।
    • आदिनाथ या ऋषभदेव जैन धर्म के संस्थापक माने जाते हैं और पहले तीर्थंकर आदिनाथ थे। जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर हुए थे। जैन तीर्थंकर को अर्हत भी कहा जाता है। तीर्थंकर का अर्थ उस निमित्त से है जो मानव को संसार रूपी भव सागर से पार उतारे।
    • जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी थे, जो जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे।
    • जैन धर्म को मानने वालों का मत है कि मोहनजोदडों से प्राप्त योगी वाली मुहर पर आदिनाथ को ही  कायोत्सर्ग मुद्रा में अंकित किया गया है।
    • तीर्थंकर आदिनाथ या ऋषभनाथ का प्रतीक चिन्ह बृषभ और वृक्ष न्यग्रोध था।
    • आदिनाथ का जन्म अयोध्या के  इक्ष्वाकु वंश में हुआ था। इन्होंने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नामक तीन वर्णों की स्थापना कर्म के आधार पर किया था।
    • जैन धर्म में आदिनाथ से पहले कुल 14 कुलकर हुए, ऐसी मान्यता है। जिन्होंने सृष्टि के प्रारम्भ में तत्कालीन समस्याओं का निदानकर समाज को एक नवीन व्यवस्था प्रदान किया। इन्हें ही मानव सभ्यता का सूत्रधार माना जाता है। इन कुलकरों को वैदिक परम्परा में ‘मनु’, जो 14 थे, के समकक्ष माना जाता है।
    • जैन धर्म में कुल 63 महान पुरूषों की मान्यता है। इन्हें ही शलाका पुरूष भी कहा जाता है। शलाका पुरूष का तात्पर्य ऐसे पुरूषों से है, जो सभी तरह की सामाजिक व्यवस्था और वैयक्तिक जीवन उत्थान में योगदान देते हैं। इसमें 24तीर्थंकर, 12चक्रवर्ती, 9 बलभद्र, 9नारायण, एवं 9प्रतिनारायण सम्मिलित हैं। हेमचन्द्र की रचना त्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित में इनका विवरण मिलता है।
    • 14वें कुलकर नाभिराज और मरूदेवी से आदिनाथ का जन्म हुआ।
    • आदिनाथ की दो पत्नियों के नाम- सुनन्दा और नन्दा मिलता है। सुनन्दा से भरत और नन्दा से बाहुबली (गोम्मट या गोमतेश्वर) तथा पुत्री बम्भी (सुन्दरी) पैदा हुए।
    • तीर्थंकर न होते हुए भी बाहुबली (गोम्मट या गोमतेश्वर) अपनी अथक त्याग और तपस्या के लिए जैनियों में तीर्थंकर की तरह मान्य हैं।
    • आदिनाथ ने ही अहिंसा और अनेकान्तवाद के सिद्धान्त का प्रवर्तन किया था।
    • जैन मान्यता के अनुसार आदिनाथ को लिपि का आविष्कार कत्र्ता माना जाता है। उन्होंने अपनी पुत्री बम्भी के नाम पर लिपि का नाम ब्राह्मी रखा था।
    • सुन्दरी अंक विद्या में निपुण थी।
    • जैन परत्परा के अनुसार नीलांजना नामक नर्तकी की नृत्य करते हुए जब मृत्यु हो गयी थी, इस आकस्मिक घटना से आदिनाथ को वैराग्य हो गया।
    • आदिनाथ अपने पुत्र भरत को राजसिंहासन सौंपकर दिगम्बर रूप में कठोर तपस्या करते हुए कैलाश पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया।
    • अर्हत शब्द जैन धर्म में सामान्य रूप में होता है। इसका उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है।
    • आदिनाथ के अनुसार आत्मा में ही परमात्मा का अधिष्ठान है
    • महाभारत के शान्तिपर्व में आदिनाथ का उल्लेख मिलता है।
    • ऋग्वेद में आदिनाथ को पूर्व ज्ञान का प्रतिपादक एवं दुःखों का उन्मूलनकत्र्ता कहा गया है।
    • बौद्ध ग्रन्थ आर्यमंजुश्रीमूलकल्प में आदिनाथ को ‘निग्र्रन्थ तीर्थंकर’ एवं ‘आप्तदेव’ कहा गया है।
    • बौद्धग्रन्थ धम्मपद में आदिनाथ के लिए ‘प्रवरवीर’ विरूद का प्रयोग किया गया है।
    • मूर्तिकला में आदिनाथ का अंकन केशीरूप अर्थात् कुटिल बालों के रूप में किया गया है। इसलिए इनको ‘केशरियानाथ’ भी कहा जाता है।
    • जैन धर्म के दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ का जन्म अयोध्या में ही हुआ था। यजुर्वेद में इनका उल्लेख मिलता है। इनका प्रतीक गज माना जाता है।
    • 19वें तीर्थंकर मल्लिनाथ हुए। इनका प्रतीक कलश था। श्वेताम्बरों की मान्यता थी कि मल्लिनाथ स्त्री परिव्राजिका थी। जबकि दिगम्बरों का मत था कि महिला तीर्थंकर नहीं हो सकती, इसलिए वे पुरूष थे।
    • 21वें तीर्थंकर नेमिनाथ थे। इनका प्रतीक नीलोत्पल था। ये राजा जनक के पूर्वज बताये जाते हैं। निष्काम एवं अनासक्तिभाव का सिद्धान्त जैन धर्म में इन्हीं की देन माना जाता है।
    • अरिष्टनेमि जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर माने जाते हैं। इनका प्रतीक शंख था। महाभारत के अनुसार ये वासुदेव कृष्ण के चचेरे भाई थे। इनका जन्म संभवतः सौराष्ट्र (गुजरात) में हुआ था। अहिंसा को धार्मिक वृत्ति का मूल मानकर उसे सैद्धान्तिक रूप देना इनकी देन है।

पाश्र्वनाथ-

  • जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ थे। पाश्र्वनाथ का जन्म महावीर स्वामी से 250वर्ष पूर्व अर्थात् 850ई0पू0 में हुआ था। इनका प्रतीक सर्प था। इनके पिता का नाम अश्वसेन था, जो बनारस के राजा थे। इनकी माता का नाम वामा था।
    • पाश्र्वनाथ का विवाह कुशस्थल की राजकुमारी प्रभावती के साथ हुआ था।
    •  पाश्र्वनाथ ने 30वर्ष की आयु में गृह त्याग किया था और सम्मेय या सम्मेद पर्वत पर 84दिन तक कठोर तपस्या के बाद कैवल्य या ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। सम्मेय या सम्मेद पर्वत का समीकरण पारसनाथ (बंगाल) से किया जाता है।
    • सांसारिक माया मोह से अलग होकर उनके निर्देशों पर जो चलते थे, वे अनुयायी ‘निग्र्रन्थ’ कहलाते थे।
    • पाश्र्वनाथ के मत को चार प्रतिज्ञायें या चार व्रत अथवा चातुर्याम कहा जाता है। चार व्रत इस प्रकार हैं-1. अहिंसा, 2. अमृषा (असत्य या झूठ न बोलना), 3. अस्तेय (चोरी न करना), 4. अपरिग्रह (सम्पत्ति का संग्रह न करना)।
    • महावीर स्वामी ने इसमें पाँचवाँ सिद्धान्त ब्रह्मचर्य जोड़ा। जैन धर्म में इसे पंचसिक्खन कहा जाता है।
    • जैन तीर्थंकर पाश्र्वनाथ ने निग्रंथ सम्प्रदाय को चार संघों में बाँटा था।
    • पाश्र्वनाथ को निर्वाण या मृत्यु सम्मेय या सम्मेद पर्वत पर हुआ था।
    • जैन ग्रंथों में निग्रंथों को ‘पुरिसादानीय’ (महान पुरूष), ‘तीर्थंकर’ तथा ‘जिन’(विजेता) कहा गया है।

महावीर स्वामी-

  • महावीर के माता- पिता भी पाश्र्वनाथ के अनुयायी थे।
    • महावीर स्वामी का जन्म बिहार राज्य के वैशाली (बसाढ़) के समीप कुण्डग्राम में लगभग 598-99ई0पू0 चैत्र शुक्ल त्रयादशी को हुआ था।
    • इनके पिता का नाम सिद्धार्थ, ज्ञातृक क्षत्रियों के संघ के मुखिया थे, जो वज्जि संघ का एक प्रमुख सदस्य था।
    • इनकी माता का नाम त्रिशला था। इन्हें विदेहदत्ता और प्रियकारिणीदेवी भी कहा गया है, जो वैशाली के लिच्छवि कुल के प्रमुख चेटक की बहन थी।
    • महावीर स्वामी के बचपन का नाम वर्धमान था।
    • वर्धमान महावीर स्वामी के बड़े भाई का नाम नन्दिवर्द्धन और बहन का नाम सुदर्शना मिलता है। बड़े भाई नन्दिवर्द्धन की अनुमति से महावीर स्वामी ने गृह त्याग किया था।
    • वर्धमान महावीर स्वामी का विवाह कौडिण्य गोत्र की कन्या यशोदा के साथ हुआ था। जिनसे एक पुत्री का जन्म हुआ जिसका नाम प्रियदर्शना या अणोज्जा था।
    • महावीर स्वामी ने 30 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग किया और 12 वर्षों की कठिन तपस्या के बाद जाम्भिय ग्राम में ऋजुपालिका नदी के तट पर शाल वृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ल दशमी को कैवल्य (ज्ञान) की प्राप्ति हुई।
    • ज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर स्वामी ‘जिन’(इन्द्रियों को जीतने के कारण जिन कहलाये), अर्हत (पूज्य या योग्य), निग्रंथ (बन्धन रहित), केवलिन् (सर्वोच्च ज्ञान मिलने के कारण केवलिन् कहलाये) और महावीर (तप में अतुल पराक्रम दिखाने के कारण) कहलाये।
    • महावीर स्वामी ने अपना पहला उपदेश राजगृह में विपुलाचल पहाडी़ पर बराकर नदी के तट पर दिया था। इसे वीर शासन उदय के नाम से जाना जाता है। इस प्रवचन के मुख्य स्रोता के रूप में बिम्बिसार, चेल्लना एवं अजातशत्रु की माता उपस्थित थे।
    • वर्धमान ने अपना प्रथम वर्षावास अस्तिकाग्राम में और अन्तिम वर्षावास पावापुरी में व्यतीत किया।
    • महावीर स्वामी का प्रथम शिष्य जमालि था और प्रथम शिष्या चन्दना थी। जमालि ही जैन संघ का प्रथम विच्छेदक था। चन्दना चम्पा नरेश दधिवाहन की पुत्री थी। दधिवाहन महावीर स्वामी का श्रद्धालु एवं भक्त था।
    • वर्धमान महावीर स्वामी के ग्यारह प्रधान शिष्य थे, जिन्हें ‘गणधर’ कहा जाता है। ‘गणधर’ का तात्पर्य है प्रधान या मुख्य अनुयायी।
    • महावीर स्वामी का 72 वर्ष की आयु में बिहार राज्य के राजगृह के समीप पावा में 527 ई0पू0 में निर्वाण हुआ। उन्होंने ‘चुर्विध संघ’ की स्थापना की थी और वे तीर्थंकर कहलाये।
    • महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद सुधर्मन् जैन संघ का अध्यक्ष हुआ।
    • पाश्र्वनाथ और महावीर स्वामी के मतों में निम्नलिखित अन्तर थे-1. पाश्र्वनाथ ने भिक्षुओं के लिए चार व्रतः सत्य, अहिंसा, अस्तेय और अपीरग्रह का ही विधान किया है परन्तु महावीर स्वामी ने इसमें पाँचवाँ मत ब्रह्मचर्य भी जोड़ दिया। 2. पाश्र्वनाथ ने भिक्षुओं को वस्त्र पहनने की अनुमति प्रदान की थी परन्तु महावीर स्वामी ने भिक्षुओं को नग्न रहने का आदेश दिया था।

जैन दर्शन-

  • महावीर स्वामी ने वेदों की अपौरूषेयता स्वीकार करने से इंकार किया और सामाजिक, धार्मिक रूढ़ियों एवं पाखण्ड़ों का विरोध किया।
    • महावीर स्वामी ने नास्तिकों एवं आध्यात्मवादियों के ऐकान्तिक मतों को छोड़कर बीच का मार्ग अपनाया जिसे स्यादवाद या अनेकान्तवाद अथवा सप्तभंगीनय भी कहा जाता है। उनका मत था कि सभी विचार अंशतः सत्य होते हैं।
    • महावीर स्वामी के अनुसार समस्त विश्व जीव एवं अजीव नामक दो तत्वों से मिलकर बना है- जीव चेतन तत्व और अजीव अचेतन जड़ तत्व है। जीव का अपना कोई स्वरूप नहीं होता। चैतन्य, सुख एवं वीर्य (ऊर्जा) जीव के गुण या लक्षण होते हैं। जीव एवं अजीव के संयोग से विश्व में सत्तामक पदार्थों का निर्माण होता है। अजीव के पाँच भेद बताये गये हैं- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल।
    • महावीर स्वामी आत्मा, पुर्नजन्म, कर्मवाद में विश्वास करते थे परन्तु ईश्वर के अस्तित्व में उनका विश्वास नहीं था।
    • जैनमत अज्ञान को बंधन का कारण मानता है। इसके कारण कर्म जीव की ओर आकर्षित होने लगता है। इन्हें आश्रव कहते हैं। कर्म का जीव के साथ संयुक्त हो जाना बंध है।
    • जैनमत के अनुसार प्रत्येक जीव अपने पूर्व जन्मों के अनुसार ही शरीर धारण करता है।
    • महावीर स्वामी ने मोक्ष क लिए तीन साधन आवश्यक बताये हैं-
    • सम्यक दर्शन या श्रद्धा- जैन तीर्थंकरों और उनके उपदेशों में दृढ़ विश्वास करना।
    • सम्यक ज्ञान- जैन धर्म एवं सिद्धान्तों का ज्ञान ही सम्यक ज्ञान है। इसके 5 प्रकार हैं- मतिज्ञान (इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान), श्रुति ज्ञान (सुनकर प्राप्त किया गया ज्ञान), अवधि ज्ञान (अलौकिक ज्ञान), मनः पर्याय (दूसरे के मन की बातें जान लेना मनः पर्याय है) और कैवल्य (सर्वोच्च एवं पूर्ण ज्ञान, जो केवल तीर्थंकर को ही प्राप्त होगा)।
    • सम्यक चरित्र-  जो कुछ भी जाना जा चुका है और सत्य माना जा चुका है उसे कार्य रूप में परिणत करना ही सम्यक चरित्र है। त्रिरत्नों में सर्वाधिक बल सम्यक चरित्र पर दिया गया है। भिक्षु एवं भिक्षुणियों के लिए पाँच महाव्रत निर्धारित हैं। उपरोक्त तीनों को जैन धर्म में त्रिरत्न की संज्ञा दी गयी है।
    • त्रिरत्नों के अनुसरण से कर्मों का जीव की ओर बहाव रूक जाता है जिसे ‘संवर’    कहते हैं। इसके बाद जब जीव में व्याप्त कर्म समाप्त हाने लगते हैं तो वह ‘निर्जरा’ कहलाता है और जब जीव में कर्म के अवशेष पूर्णतः समाप्त हो जाते हैं तो वह ‘मोक्ष’ प्राप्त कर लेता है।
    • महावीर स्वामी ने कठोर तप और कायाक्लेश पर भी बल दिया है।
    • जैन धर्म में गृहस्थ पुरूषों के लिए श्रावक एवं गृहस्थ महिलाओं के लिए श्राविका कहा गया है। इन्हें सम्मिलित रूप से त्रावकाचार कहा जाता है।
    • जैन परिव्राजिकाओं के लिए आर्यिका (साध्वी) कहा गया है।
    • अन्तिम नंद राजा के समय स्थूलभद्र और भद्रबाहु दोनों संघ के अध्यक्ष थे। ये दोनों महावीर स्वामी द्वारा प्रदत्त 14 ‘पूर्वों’ (प्राचीनतम् जैन ग्रंथ) के विषय में जानने वाले अन्तिम व्यक्ति थे।
    • चन्द्रगुप्त मौर्य के समय मगध में अकाल पड़ा। भद्रबाहु कुछ शिष्यों के साथ कर्नाटक के श्रवणबेलगोला चले गये। स्थूलभद्र मगध में ही रह गये। भद्रबाहु के वापस लौटने पर दोनों में वस्त्र धरण करने और न करने के मूल विचार पर मतभेद हो गया और जैन धर्म दो सम्प्रदायें में भिक्त हो गया-1. दिगम्बर 2. श्वेताम्बर।
    • भद्रबाहु और उनके समर्थक त्याग की पराकाष्ठा के रूप में वस्त्र तक के मोह से दूर रहकर निर्वस्त्र रहने में विश्वास करते थे। इन्हें दिगम्बर कहा गया। इन्हें दक्षिण वाला भी कहा जाता है।
    • स्थूलभद्र और उनके अनुयायी जो श्वेत वस्त्र धारण करते थे, श्वेताम्बर कहलाये। इन्हें मगध वाला भी कहा गया।
    • जैन धर्म के दोनों सम्प्रदायों में मुख्य अन्तर निम्न हैं-
    • श्वेताम्बर लोग श्वेत वस्त्र धारण करने को मोक्ष के मार्ग में बाधक नहीं मानते । इसके विपरीत दिगम्बर वस्त्र को मोक्ष के मार्ग में बाधक मानते हैं चूँकि किसी प्रकार की आवश्यकता बन्धनकारी होती है।
    • श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार स्त्री के लिए मोक्ष प्राप्ति संभव है, किन्तु दिगम्बर इस मत के विपरीत हैं।
    • श्वेताम्बर प्राचीन ग्रन्थों को प्रामाणिक मानकर उनमें विश्वास करते हैं किन्तु दिगम्बर इसे मान्यता नहीं देता।
    • जैन दर्शन में ज्ञान के तीन स्रोत बताये गये हैं-1. प्रत्यक्ष 2. अनुमान 3. तीर्थंकरों के वचन।
    • जैन धर्म में कायाक्लेष के अन्र्तगत उपवास द्वारा शरीर त्याग का विधान है जिसे संल्लेखन कहा गया है।
    • श्री कलश यापनीय सम्प्रदाय संस्थापक माने जाते हैं जो श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय का मिश्रित रूप है।
    • अशोक के पौत्र सम्प्रति को जैन मत का समर्थक बताया गया है। वह उज्जैन में शासन करता था। अतः उज्जैन जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र बन गया। जैनियों का दूसरा प्रमुख केन्द्र मथुरा में स्थापित हुआ।
    • चेदिवंश का शासक कलिंगाधिपति खारवेल जैन धर्म का अनुयायी था।  उसके द्वारा लिखवाया गया उदयगिरि, खण्डगिरि गुहा लेख ‘‘ नमों अरहंतानं, नमों शब्द सिद्धान्त’’ जैन स्तुति वाक्य से प्रारम्भ होता है।
    • जैन साहित्य को आगम कहा जाता है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लोग आगम में विश्वास करते हैं। इसके अन्तर्गत- 12 अंग, 12 उपांग, 6 छेद सूत्र, 4 मूलसूत्र, अनुयोग सूत्र और नन्दिसूत्र आते हैं। जबकि दिगम्बर सम्प्रदाय वाले इसे नहीं मानते हैं।
    • जैन ग्रन्थ आचारांग सूत्र में जैनियों द्वारा पालन योग्य आचार नियमों का उल्लेख मिलता है।
    • जैन भिक्षुओं को देवस्थान, सभामण्डप, पारिवारिक आवास, उद्यान गृह आदि में निवास करना वर्जित था, क्योंकि ऐसे स्थानों पर अधिक लोग एकत्र होते हैं, जिससे एकाग्रता भंग होती है।
    • जैन भिक्षुओं के लिए चीवर, जूते, दण्ड और छत्र आवश्यक थे। वे अपने सिर मुण्डित रखते थे। वे नग्न रहते थे या श्वेत वस्त्र धारण करते थे।
    • दिगम्बर जैन साधु को झुल्लक, ऐल्लक और निर्ग्रन्थ कहा जाता था जबकि श्वेताम्बर जैन साधु को यति, मुनि, साधु और आचार्य कहा जाता था।
    • उत्तराध्ययन सूत्र में तहावीर स्वामी के अनयायी गौतम और पाश्र्वनाथ के अनुयायी केशी के मध्य हुए संवाद का वर्णन मिलता है। जिसमें गौतम का मत है कि मोक्ष के लिए वास्तविक साधन तो सदाचार, श्रद्धा और हैं, वस्त्रों का धारण करना आदि बाह्य उपचार तो आध्यात्मिक उत्कर्ष की सुविधा के लिए हैं।
    • सूयगडंग (सूत्रकृतांग) नामक जैन ग्रंथ में जैनेतक मतों का खण्डन किया गया है।
    • थाणंग (स्थानांग) नामक जैन ग्रंथ में जैन धर्म के सिद्धान्त का वर्णन मिलता है।
    • समवायांग सूत्र में जैन धर्म से सम्बन्धी उपदेश वर्णित है।
    • भगवती सूत्र में महावीर स्वामी का जीवन चरित, कृत्य, लोगों के साथ उनके सम्बन्ध का उल्लेख, स्र्वग-नरक की संकल्पना का वर्णन और 16 महाजनपदों का उल्लेख मिलता है।
    • नायाधम्मकहाओ (ज्ञाताधर्मकथा) में वर्धमान महावीर स्वामी की शिक्षाओं का वर्णन मिलता है।
    • अंतगड़दसाओ (अंतकृदद्शा) नामक जैन ग्रंथ में तप द्वारा शरीर का अंत करके मोक्ष प्राप्त करने वाले जैन भिक्षुओं का उल्लेख मिलता है।
    • नन्दी सूत्र और अनुयोगद्वार जैनियों के स्वतन्त्र ग्रंथ हैं जो उनका विश्वकोष है।
    • जैन संगीतियाँ-
    • प्रथम जैन संगीति का आयोजन चतुर्थ शताब्दी ई0पू0 में पाटलिपुत्र में हुआ। इसके अध्यक्ष स्थूलभद्र थे। इस जैन संगीति में 12 अंगों का सर्वप्रथम संकलन हुआ और जैन धर्म दो सम्प्रदायों -1. श्वेताम्बर सम्प्रदाय और 2. दिगम्बर सम्प्रदाय में विभाजित हुआ।
    • चेदि वंश के शासक कलिंगाधिपति खारवेल के शासन काल में सुपर्वतविजयचक्र के कुमारी पर्वत पर किया गया था।
    • चैथी शताब्दी में मथुरा में एक जैन सभा का आयोजन हुआ जिसके अध्यक्ष स्कन्दिल (खाडिल्य) थे।
    • पाँचवीं शताब्दी में बल्लभी में एक जैन सभा का आयोजन नागार्जुन की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई।
    • जैन धर्म की महत्वपूर्ण दूसरी संगीति का आयोजन 512ई0 में गुजरात प्रान्त के काठियावाड़ के बल्लभी नामक स्थान में हुई। इसकी अध्यक्षता देवऋद्धिगण (क्षमाश्रमण) ने की थी। इस संगीति का आयोजन जैन धर्म के स्वरूप को निर्धारित करने के लिए बुलायी गयी थी। इसमें श्वेताम्बर सम्प्रदाय के सिद्धान्तों को पुनः निर्धारित किया गया जो आज तक चल रहा है।
    • माउण्ट आबू में दिलवाडा़ का जैन मंदिर का निर्माण सोलंकी नरेश भीमदेव प्रथम के मंत्री विमलशाह ने संगमरमर से करवाया था।
    • इस मंदिर के वास्तुकार वास्तुपाल एवं तेजपाल थे।
    • दक्षिण भारत में जैन चित्रकला का प्राचीनतम् उदाहरण तंजौर की सित्तान्नवासल गुफा से प्राप्त होता है। जिसे पल्लव शासक महेन्द्रवर्मन् ने बनवाया था।
    • कर्नाटक के मैसूर के समीप श्रवणबेलगोला में गोमेतेश्वर की विशाल प्रतिमा का निर्माण चामुण्डराय ने करवायी थी। चामुण्डराय गंग वंश के शासक रचमल्ल का मंत्री था।
    • श्रवणवेलगोला में इन्हीं के सम्मान में हर 12 वर्ष पर महामस्ताभिषेक नामक महोत्सव का आयोजन होता है।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                      

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *