प्राचीन भारतीय इतिहास जानने का पुरातात्त्विक स्रोतः (Archaeological Sources Of Knowing Ancient Indian History)

 पुरातत्वीय स्रोत से तात्पर्य है पुरातन समय के अब तक अवशेष रूप में रहे विभिन्न साधन और राजाओं या अन्य सन्दर्भों में लगवाये गये अभिलेख। विभिन्न साधनों में भवन, मंदिर, गुफायें, पात्र, मुद्रायें, मुहरें, एवं मूर्तियां आदि अपना विशेष महत्व रखते हैं। विभिन्न पुरातात्विक महत्व के स्थलों के उत्खनन से प्राप्त प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के अवशेष भी प्राप्त होते हैं और अभी भी प्राप्त होते रहते हैं।  कभी-कभी सम्पूर्ण बस्ती और नगर के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं, जो कभी किन्हीं प्राकृतिक आपदाओं से जमीन में दब गये थे। इस रूप में  भारतीस इतिहास की परम्परा में सन् 1920-22ई0 में पुरातत्ववेत्ताओं को खुदाई के बाद हड़प्पा और मोहनजोदड़ों से दो विशाल नगरों के ध्वंशावशेष मिले और ज्ञात हुआ कि प्राचीन भारत के पुरा इतिहास में सिन्धु घाटी में एक उच्च कोटि की नगरीय सभ्यता के निर्माता और निर्वाहक, भारतीय नागरिक निवास करते थे। सैन्धव सभ्यता से सम्बन्धित अवशेष पुरातत्वीय साधनों में अपना महत्वपूर्ण स्थान रख्ते हैं। पुरातत्वीय सामग्री की एक विशाल श्रृंखला है। प्राचीन भारत के अध्ययन के लिए पुरातात्त्विक सामग्री का विशेष महत्त्व है। पुरातात्त्विक स्र्रोत साहित्यिक स्रोतों की अपेक्षा अधिक प्रमाणिक और विश्वसनीय होते हैं क्योंकि इनमें किसी प्रकार के हेर-फेर की सम्भावना नहीं रहती है। पुरातात्त्विक स्रोतों के अंतर्गत मुख्यतः अभिलेख, सिक्के, स्मारक, भवन, मूर्तियाँ, चित्रकला, उत्खनित अवशेष आदि आते हैं।

अभिलेख एवं शिलालेख:

 पुरातात्त्विक स्रोतों के अंतर्गत सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत अभिलेख हैं। अभिलेखों, शिलालेखों की बहुलता से प्राप्ति हुई है। अभिलोखों और शिलालेखों को उनकी निर्माण शैली और विभिन्न स्थानों से प्राप्ति के आधार पर अनेक वर्गों में बाँटा गया है। ये अभिलेख अधिकांशतः स्तंभों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मुद्राओं, पात्रों, मूर्तियों आदि पर खुदे हुए मिलते हैं। जिन अभिलेखों पर उनकी तिथि अंकित नहीं है, उनके अक्षरों की बनावट के आधार पर मोटे तौर पर उनका काल निर्धारित किया जाता है। प्राचीन भारत के इतिहास की जानकारी देने वाले समस्त अभिलेखों की जानकारी देना यहाँ असंभव है।

 अभिलेखों के अध्ययन को पुरालेखशास्त्र (एपिग्राफी) कहा जाता है। भारतीय अभिलेख विज्ञान में उल्लेखनीय प्रगति 1830 के दशक में हुई, जब ईस्ट इंडिया कम्पनी के एक अधिकारी जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का अर्थ निकाला। इन लिपियों का उपयोग  आरंभिक अभिलेखों और सिक्कों में किया गया है। प्रिंसेप को पता चला कि अधिकांश अभिलेखों और सिक्कों पर ‘पियदस्सी’ नामक किसी राजा का नाम लिखा है। कुछ अभिलेखों पर राजा का नाम ‘अशोक’ भी लिखा मिला। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अशोक सर्वाधिक प्रसिद्ध शासकों में से एक था। इस शोध से आरंभिक भारत के राजनीतिक इतिहास के अध्ययन को नयी दिशा मिली। भारतीय और यूरोपीय विद्वानों ने उपमहाद्वीप पर शासन करने वाले प्रमुख राजवंशों की वंशावलियों की पुनर्रचना के लिए विभिन्न भाषाओं में लिखे अभिलेखों और ग्रंथों का उपयोग किया। परिणामस्वरूप बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों तक उपमहाद्वीप के राजनीतिक इतिहास का एक सामान्य चित्र तैयार हो गया। 1877ई0 में कनिंघम महोदय ने ‘कापर्स इन्सक्रिप्शन इंडिकेरम’ नामक ग्रन्थ प्रकाशित किया। इसमें मौर्य, मौर्योत्तर और गुप्तकाल के अभिलेखों का संग्रह है। हिन्दी में अभिलेखों का एक संस्करण डा0 राजवली पाण्डेय महोदय ने प्रकाशित किया है।

अभी तक विभिन्न कालों और राजाओं के हजारों अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं। यद्यपि भारत का सबसे प्राचीनतम अभिलेख हडप्पाकालीन हैं, लेकिन अभी तक सैन्धव लिपि को पढ़ा नहीं जा सका है। अतः भारत का प्राचीनतम् प्राप्त अभिलेख प्राग्मौर्ययुगीन पिपरहवा कलश लेख या पिपरहवा धातु-मंजूषा अभिलेख (सिद्धार्थनगर), बड़ली (अजमेर) से प्राप्त अभिलेख एवं बंगाल से प्राप्त महास्थान अभिलेख महत्त्वपूर्ण हैं। महास्थान शिलालेख एवं सोहगौरा ताम्रलेख प्राचीन भारत में अकाल से निपटने के लिए खाद्य आपूर्ति व्यवस्था (राशनिंग) पर प्रकाश डालता है। भगवान बुद्ध के अस्थि-अवशेष के सम्बन्ध में जानकारी देने वाला पिपरहवा कलश लेख प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में निर्गत यह अभिलेख सुकृति बंधुओं द्वारा स्थापित करवाया गया था। अपने यथार्थ रूप में अभिलेख सर्वप्रथम अशोक के शासनकाल के ही मिलते हैं। मौर्य सम्राट अशोक के इतिहास की संपूूर्ण जानकारी उसके अभिलेखों से मिलती है। माना जाता है कि अशोक को अभिलेखों की प्रेरणा ईरान के शासक डेरियस से मिली थी।

 प्राचीन भारतीय इतिहास की परम्परा में अभिलेख और शिलालेखों की परम्परा अति प्राचीन रही है, इसके अंकुरण और उषाकाल को बताना असंभव है। सम्राट अशोक ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य में अपने धर्म, अपनी प्रशासनिक नीतियों, प्रशासनिक कर्मचारियों आदि को निर्देशित करने की व्याख्या करते हुए बड़े वैज्ञानिक ढ़ग से अपने अभिलेखों का स्थापित करवाया। अशोक के अभिलेखों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है- शिलालेख, स्तंभलेख और गुहालेख। शिलालेखों और स्तंभलेखों को दो उपश्रेणियों में रखा जाता है। चैदह शिलालेख सिलसिलेवार हैं, जिनको ‘चतुर्दश शिलालेख’ कहा जाता है। ये शिलालेख शाहबाजगढ़ी, मानसेहरा, कालसी, गिरनार, सोपारा, धौली और जौगढ़ में मिले हैं। कुछ फुटकर शिलालेख असंबद्ध रूप में हैं और संक्षिप्त हैं। शायद इसीलिए उन्हें ‘लघु शिलालेख’ कहा जाता है। इस प्रकार के शिलालेख रूपनाथ, सासाराम, बैराट, मास्की, सिद्धपुर, जटिंगरामेश्वर और ब्रह्मगिरि में पाये गये हैं। लघुशिलालेख में अशोक संघ शरण की महत्ता पर प्रकाश डालता है।  अशोक ने अपने स्तम्भ लेखों में धर्म, धम्मघोष और लोकोपकारी कार्यों का वर्णन मिलता है। पंचम स्तम्भलेख (दिल्ली-टोपरा) में अहिंसा व्रत के अन्तर्गत सभी जीवों को अबध्य माना गया है।  गिरनार के षष्ठम स्तम्भलेख में अशोक के प्रजा हित चिंतन के दायित्व के निर्वाह के विषय में लिखा गया है। इसमें कहा गया है कि ‘ सब समय, चाहे मैं भोजन कर रहा हूँ, अन्तःपुर में रहूँ, शयनकक्ष में रहूँ, पशुशाला या पालकी में रहूँ, उद्यान में रहूँ, सर्वत्र प्रतिवेदक स्थित रह कर जनता के कष्टों से मुझे प्रत्यावेदना करें’। एक अभिलेख, जो हैदराबाद में मास्की नामक स्थान पर स्थित है, में अशोक के नाम का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त गुजर्रा तथा पानगुड्इया (मध्य प्रदेश) से प्राप्त लेखों में भी अशोक का नाम मिलता है। अन्य अभिलेखों में उसको देवताओं का प्रिय ‘प्रियदर्शी’ राजा कहा गया है। अशोक के अधिकांश अभिलेख मुख्यतः ब्राह्यी में हैं, जिससे भारत की हिंदी, पंजाबी, बंगाली, गुजराती और मराठी, तमिल, तेलगु, कन्नड़ आदि भाषाओं की लिपियों का विकास हुआ। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में पाये गये अशोक के कुछ अभिलेख खरोष्ठी तथा आरमेइक लिपि में हैं। ‘खरोष्ठी लिपि’ फारसी की भाँति दाईं से बाईं ओर लिखी जाती थी।

मौर्यवंश से संबन्धित सात गुफायें अबतक प्राप्त हुई हैं। चार गुफायें बराबर पहाड़ी और तीन नागार्जुनी श्रृखला की हैं। बराबर गुफा में से तीन में अशोक के अभिलेख उत्कीर्ण हैं और नागार्जुनी श्रृंखला की प्रत्येक गुफा में मौर्य सम्राट दशरथ के अभिलेख उत्कीर्ण हैं। इन गुफाओं को आजीवक सम्प्रदाय के भिक्षुओं के निवास के लिए मौर्य शासकों द्वारा दान में दिया गया था।

अशोक के बाद अभिलेखों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है- राजकीय अभिलेख और निजी अभिलेख। राजकीय अभिलेख या तो राजकवियों द्वारा लिखी गई प्रशस्तियां हैं या भूमि-अनुदान-पत्र। प्रशस्तियों का प्रसिद्ध उदाहरण हरिषेण द्वारा लिखित समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति अभिलेख (चैथी शताब्दी) है जो अशोक-स्तंभ पर उत्कीर्ण है। इस प्रशस्ति में समुद्रगुप्त की विजयों और उसकी नीतियों का विस्तृत विवेचन मिलता है। इसी प्रकार राजा भोज की ग्वालियर प्रशस्ति में उसकी उपलब्धियों का वर्णन है। इसके अलावा कलिंगराज खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख (प्रथम शताब्दी ई.पू.) प्राकृत भाषा में लिखी प्राचीनतम प्रशस्ति है। शक क्षत्रप रुद्रदामन् प्रथम का जूनागढ़ अभिलेख (150 ई.) संस्कृत भाषा में लिखी प्राचीनतम प्रशस्ति है। गौतमी बलश्री का नासिक अभिलेख, स्कंदगुप्त का भितरी तथा जूनागढ़ लेख, मालवा नरेश यशोधर्मन का मन्दसौर अभिलेख, चालुक्य नरेश पुलकेशिन् द्वितीय का ऐहोल अभिलेख (634 ई.), बंगाल के शासक विजयसेन का देवपाड़ा अभिलेख भी महत्त्वपूर्ण हैं जिनसे प्राचीन भारतीय इतिहास का स्वरूप खड़ा करने में विशेष सहायता मिलती है।

 ताम्रलेखों में सबसे महत्वपूर्ण एवं प्राचीनतम ताम्रलेख गोरखपुर जिले सोहगौरा से 1893ई0 में प्राप्त हुआ था। इसके अतिरिक्त हूण शासक तोरमाण का एक ताम्रलेख लेख संजेली (गुजरात) से मिला है। सम्राट हर्षवर्धन ने मधुबन और बांसखेड़ा से प्राप्त हुआ है। भूमि-अनुदान-पत्र अधिकतर ताँबे की चादरों पर उत्कीर्ण हैं। इन अनुदान-पत्रों में भूमिखंडों की सीमाओं के उल्लेख के साथ-साथ उस अवसर का भी वर्णन मिलता है जब वह भूमिखंड दान में दिया गया। इसमें शासकों की उपलब्धियों का भी वर्णन मिलता है। नानाघाट अभिलेख में ब्राहमणों एवं बौद्धों को भूमिदान दिये जाने का सबसे पहला उल्लेख प्राप्त होता है। पूर्वमध्यकाल के भूमि-अनुदान-पत्र बड़ी संख्या में मिले हैं जिससे लगता है कि इस काल (600-1200 ई.) में सामन्ती अर्थव्यवस्था विद्यमान थी।

निजी अभिलेख प्रायः मंदिरों में या मूर्तियों पर उत्कीर्ण हैं। इन पर खुदी हुई तिथियों से मंदिर-निर्माण या मूर्ति-प्रतिष्ठापन के समय का ज्ञान होता है। इसके अलावा यवन राजदूत हेलियोडोरस का बेसनगर (विदिशा) से प्राप्त गरुड़ स्तंभ लेख, वाराह प्रतिमा पर एरण (मध्य प्रदेश) से प्राप्त हूण राजा तोरमाण के लेख जैसे अभिलेख भी इतिहास-निर्माण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।यवन राजदूत हेलियोडोरस का गरूड़ स्तम्भ लेख प्राकृत भाषा एवं ब्राह्मी लिपि में लिखा गया है। यह भागवत धर्म से संबन्धित पहला अभिलेखीय प्रमाण है। इन अभिलेखों से मूर्तिकला और वास्तुकला के विकास पर प्रकाश पड़ता है और तत्कालीन धार्मिक जीवन का ज्ञान होता है।

                प्राचीन भारत पर प्रकाश डालने वाले अभिलेख मुख्यतया पालि, प्राकृत और संस्कृत में मिलते हैं। गुप्तकाल के पहले के अधिकतर अभिलेख प्राकृत भाषा में हैं और उनमें ब्राह्मणेत्तर धार्मिक-संप्रदायों- जैन और बौद्ध धर्म का उल्लेख है। गुप्त एवं गुप्तोत्तरकाल में अधिकतर अभिलेख संस्कृत भाषा में हैं और उनमें विशेष रूप से ब्राह्मण धर्म का वर्णन है। प्राचीन भारतीय इतिहास, भूगोल आदि की प्रमाणिक जानकारी के लिए अभिलेख अमूल्य निधि हैं।

इन अभिलेखों के द्वारा तत्त्कालीन राजाओं की वंशावलियों और विजयों का ज्ञान होता है। रुद्रदामन् के गिरनार-अभिलेख में उसके साथ उसके दादा चष्टन् तथा पिता जयदामन् के नामों की भी जानकारी मिलती है। इस अभिलेख में मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौय्र और सम्राट अशोक का एक साथ उल्लेख मिलता है। जूनागढ़ प्रशस्ति में 6 प्रकार के करों-बलि, कर, भाग, शुल्क, विष्टि या वेगार और प्रणय का उल्लेख मिलता है। समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति में उसके विजय-अभियान का वर्णन है। यौधेय, कुणिन्द, आर्जुनायन तथा मालव संघ के शासकों के सिक्कों पर ‘गण’ या ‘संघ’ शब्द स्पष्ट रूप से खुदा है, जिससे स्पष्ट है कि उस समय गणराज्यों का अस्तित्व बना हुआ था। मौर्य तथा गुप्त-सम्राटों के अभिलेखों से राजतंत्र प्रणाली की शासन पद्धति के संबंध में ज्ञात होता है और पता चलता है कि साम्राज्य कई प्रांतों में बँटा होता था, जिसको ‘भुक्ति’ कहते थे।

अभिलेखों में प्रसंगतः सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था का भी उल्लेख मिलता है। अशोक के अभिलेखों में शूद्र के प्रति उचित व्यवहार का निर्देश दिया गया है। गुप्तकालीन अभिलेखों में कायस्थ, चाण्डाल आदि जातियों का उल्लेख मिलता है। मनोरंजन के साधनों में मृगया, संगीत, द्यूतक्रीड़ा का उल्लेख है, कृषि, पशुपालन, व्यापार आदि का भी प्रसंग है। कुषाण तथा शक शासकों के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उन्होंने हिंदू धर्म, संस्कृति और भाषा से प्रभावित होकर हिंदू नामों और रीति-रिवाजों को स्वीकार कर लिया था।

दानपत्रों के विवरणों से राज्य की सुदृढ़ आर्थिक स्थिति का ज्ञान होता है। नालंदा-ताम्रपत्र के ‘सम्यग् बहुधृत बहुदधिभिर्व्यन्जनैर्युक्तमन्नम्’ से भोजन के उच्चस्तर का पता चलता है। व्यापार क्षेत्र में निगमों तथा श्रेणियों का उल्लेख अभिलेखों में मिलता है। कुमारगुप्त के मन्दसोर अभिलेख में पट्टवाय श्रेणी द्वारा सूर्यमंदिर के निर्माण तथा पुनरुद्धार का वर्णन है। उनके द्वारा बुने रेशम विश्वविख्यात थे। निगमों द्वारा बैंक का कार्य करने का भी उल्लेख मिलता है।

अभिलेखों से विभिन्न कालों की धार्मिक स्थिति का विवरण भी मिलता है। अशोक के अभिलेखों से पता चलता है कि उसके काल में बौद्ध धर्म का विशेष प्रचार था तथा वह स्वयं इसके सिद्धांतों से प्रभावित था। उदयगिरि के गुहालेखों में उड़ीसा में जैनमत के प्रचार का ज्ञान होता है। गुप्तकालीन अभिलेखों से पता चलता है कि गुप्त सम्राट वैष्णव धर्म के अनुयायी थे तथा उस काल में भागवत धर्म की प्रधानता थी। यह भी पता चलता है कि विभिन्न स्थानों पर सूर्य, शिव, शक्ति, गणेश आदि की पूजा होती थी। अभिलेखों के अध्ययन से धार्मिक सहिष्णुता और साम्प्रदायिक सद्भाव का भी परिचय मिलता है। अशोक ने अपने 12वें शिलालेख में आदेश दिया है कि सब मनुष्य एक दूसरे के धर्म को सुनें और सेवन करें। कभी-कभी अभिलेखों में व्यापारिक विज्ञापन भी मिलता है। कुमारगुप्त तथा बंधुवर्मन्कालीन मालवा के अभिलेख में वहाँ के तन्तुवायों (जुलाहों) के कपड़ों का विज्ञापन इस प्रकार दिया हुआ है-

‘तारुण्य और सौन्दर्य से युक्त, सुवर्णहार, ताँबूल, पुष्प आदि से सुशोभित स्त्री तब तक अपने प्रियतम् से मिलने नहीं जाती, जब तक कि वह दशपुर के बने पट्टमय (रेशम) वस्त्रों के जोड़े को नहीं धारण करती। इस प्रकार स्पर्श करने में कोमल, विभिन्न रंगों से चित्रित, नयनाभिराम रेशमी वस्त्रों से संपूूर्ण पृथ्वीतल अलंकृत है।’

अभिलेखों का विशेष साहित्यिक महत्त्व भी है। इनसे संस्कृत और प्राकृत भाषाओं की गद्य, पद्य आदि काव्य-विधाओं के विकास पर प्रकाश पड़ता है। रुद्रदामन् का गिरनार अभिलेख (150 ई.) संस्कृत गद्य के अत्युत्तम उदाहरणों में से एक है। इसमें अलंकार, रीति आदि गद्य के सभी सौन्दर्य-विधायक गुणों का वर्णन है। समुद्रगुप्त की हरिषेण विरचित प्रयाग-प्रशस्ति गद्य-पद्य मिश्रित चम्पू काव्य शैली का एक अनुपम उदाहरण है। मन्दसौर का पट्टवाय श्रेणी-अभिलेख, यशोधर्मनकालीन कूपशिलालेख, पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल शिलाभिलेख आदि अनेक अभिलेख पद्य-काव्य के उत्तम उदाहरण हैं। इन अभिलेखों से हरिषेण, वत्सभट्टि, रविकीर्ति आदि ऐसे अनेक कवियों का नाम प्रकाश में आया जिनका नाम संस्कृत साहित्य में अन्यत्र उपलब्ध नही है। चहमानवंशीय विग्रहराज के काल का सोमदेवरचित ‘ललितविग्रह’ और विग्रहराजकृत ‘हरकेलि’ नाटक प्रस्तरशिला पर अंकित नाट्य-साहित्य के सुंदर उदाहरण हैं।

विदेशों से प्राप्त कुछ अभिलेखों से भी भारतीय इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। मध्य एशिया के बोगजकोई नामक स्थान से करीब ई.पू. 1400 का एक संधि-पत्र पाया गया है जिसमें वैदिक देवताओं- इंद्र, मित्र, वरुण व नासत्य का उल्लेख है। इससे लगता है कि वैदिक आर्यों के वंशज एशिया माइनर में भी रहते थे। इसी प्रकार मिस्र में तेलूअल-अमनों में मिट्टी की कुछ तख्तियां मिली हैं जिनमें बेबीलोनिया के कुछ ऐसे शासकों के नाम मिलते हैं जो ईरान और भारत के आर्य शासकों के नामों जैसे हैं। पर्सीपोलस और बेहिस्तून अभिलेखों से ज्ञात होता है कि दारा प्रथम ने सिंधुु नदी की घाटी पर अधिकार कर लिया था। इसी अभिलेख में पहली बार ‘हिद’ शब्द का उल्लेख मिलता है।

अभिलेखों से प्राप्त सूचनाओं की भी एक सीमा होती है। अक्षरों के नष्ट हो जाने या उनके हल्के हो जाने के कारण उन्हें पढ़ पाना मुश्किल होता है। इसके अलावा अभिलेखों के शब्दों के वास्तविक अर्थ का पूर्ण ज्ञान हो पाना सरल नहीं होता। भारतीय अभिलेखों का एक मुख्य दोष उनका अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन भी है। फिर भी अभिलेखों में पाठ-भेद का सर्वथा अभाव है और प्रक्षेप की सम्भावना शून्य के बराबर होती है। वस्तुतः अभिलेखों ने इतिहास-लेखन को एक नया आयाम दिया है जिसके कारण प्राचीन भारत के इतिहास-निर्माण में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है।

मुद्राएँ:

                भारतीय इतिहास अध्ययन में मुद्राओं का महत्त्व कम नहीं है। राजाओं द्वारा किन्हीं विशेष अवसर या किसी विशेष उपलब्धि के स्मारक स्वरूप या किसी अपने इष्ट देवी-देवता की याद में उसके चित्र युक्त धातु के सिक्के चलाये जाते थे। ये सिक्के विभिन्न प्रकार और विभिन्न कालों के भिन्न-भिन्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं। ये सिक्के यथार्थ में इतिहास की अमूल्य जानकारी देते हैं। राजाओं या राजवंशों की धार्मिक एवं सांस्कृतिक अभिरूचियों का जो ज्ञान इनसे प्राप्त होता है, वे जानकारियाँ प्रयोगशालाओं में सिद्ध वैज्ञानिक सूत्रों की भाँति पूर्ण सत्य हैं। भारत के प्राचीनतम् सिक्कों पर अनेक प्रकार के प्रतीक, जैसे- पर्वत, वृक्ष, पक्षी, मानव, पुष्प, ज्यामितीय आकृति आदि अंकित रहते थे। इन्हें ‘आहत मुद्रा’ (पंचमार्क क्वायंस) कहा जाता था। आहत मुद्रओं की प्राकप्त सर्वप्रथम कर्नल कोल्डवेल को 1800ई0 में तमिलनाडु प्रान्त के कोयम्बटूर से हुई। आहत मुद्रा प्रायः आयताकार हैं। आहत मुद्रा की सबसे बड़ी निधि अमरावती से मिली है।इसमें 7668 सिक्के थे। संभवतः इन सिक्कों को राजाओं के साथ व्यापारियों, धनपतियों और नागरिकों ने जारी किया था। सर्वाधिक मुद्राएँ उत्तर मौर्यकाल में मिलती हैं जो प्रधानतः सीसे, पोटीन, ताँबें, काँसेे, चाँदी और सोने की होती हैं। यूनानी शासकों की मुद्राओं पर लेख एवं तिथियां उत्कीर्ण मिलती हैं। शासकों की प्रतिमा और नाम के साथ सबसे पहले सिक्के हिंद-यूनानी शासकों ने जारी किये जो प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास लिखने में विशेष उपयोगी सिद्ध हुए हैं। हिन्द-यवन शासक डेमेट्रियस द्वितीय ने सबसे पहले द्विलिपिय एवं द्विभाषीय सिक्कों का प्रचलन किया। बाद में शकों, कुषाणों और भारतीय राजाओं ने भी यूनानियों के अनुरूप सिक्के चलाये।

सोने के सिक्के सबसे पहले प्रथम शताब्दी ई. में कुषाण राजाओं में विमकडफिसेस ने जारी किये थे। इनके आकार और वजन तत्कालीन रोमन सम्राटों तथा ईरान के पार्थियन शासकों द्वारा जारी सिक्कों के समान थे। उत्तर और मध्य भारत के कई पुरास्थलों से ऐसे सिक्के मिले हैं। सोने के सिक्कों के व्यापक प्रयोग से संकेत मिलता है कि बहुमूल्य वस्तुओं और भारी मात्रा में वस्तुओं का विनिमय किया जाता था। कुषाणों के समय में सर्वाधिक शुद्ध सुवर्ण मुद्राएँ प्रचलन में थीं, पर सर्वाधिक सुवर्ण मुद्राएँ गुप्तकाल में जारी की गईं। कनिष्क की मुद्राओं से यह पता चलता है कि वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था। सातवाहन नरेश सातकर्णि की एक मुद्रा पर जलपोत का चित्र उत्कीर्ण है, जिससे अनुमान किया जाता है कि उसने समुद्र क्षेत्र की विजय की थी। समुद्रगुप्त की कुछ मुद्राओं पर वीणा बजाते हुए दिखाया गया है। चंद्र्रगुप्त द्वितीय की व्याघ्रशैली की मुद्राएँ पश्चिमी भारत उसके शक-विजय का सूचक हैं। प्राचीन भारत में निगमों और श्रेणियों की मुद्राएँ भी अभिलेखांकित होती थीं जिनसे उनके क्रिया-कलापों पर प्रकाश पड़ता है। इसके अलावा, दक्षिण भारत के अनेक पुरास्थलों से बड़ी संख्या में रोमन सिक्के मिले हैं, जिनसे यह स्पष्ट है कि व्यापारिक-तंत्र राजनीतिक सीमाओं से बंधा नहीं था क्योंकि दक्षिण भारत रोमन साम्राज्य के अंतर्गत न होते हुए भी व्यापारिक दृष्टि से रोमन साम्राज्य से जुड़ा हुआ था। पंजाब और हरियाणा के क्षेत्रों में यौधेय (प्रथम शताब्दी ई.) जैसे गणराज्यों ने भी सिक्के जारी किये थे। यौधेयों के सिक्कों को सर्वप्रथम कैप्टन काटले ने उत्तरप्रदेश के सहारनपुर जिले के वेहट नामक स्थान से प्राप्त किया था। जबकि भारत में सर्वाधिक यौधेय सिक्के रोहतक (हरियाणा) से प्राप्त हूआ है। यौधेय शासकों द्वारा जारी ताँबे के हजारों सिक्के मिले हैं, जिनसे यौधेयों की व्यापार में रुचि और सहभागिता परिलक्षित होती है। सातवाहनों ने शीशे के सिक्कों का सवप्रथम प्रचलन किया था।

छठी शताब्दी ई. से सोने के सिक्के मिलने कम हो गये। इस आधार पर कुछ इतिहासकारों का मानना है कि रोमन साम्राज्य के पतन के बाद दूरवर्ती व्यापार में गिरावट आयी। इससे उन राज्यों, समुदायों और क्षेत्रों की संपन्नता पर प्रभाव पड़ा, जिन्हें इस दूरवर्ती व्यापार से लाभ मिलता था।

सील एवं मुहरें:

                प्राचीन काल में विविध उद्देश्यों की पूर्ति हेतु मिट्टी एवं धातुओं की सादी और कभी-कभी चित्रात्मक मुहरें बनायी जाती थीं। भारत की प्राचीनतम मुहरें सिन्धु घाटी से प्राप्त हुई हैं। अपठनीय होने के कारण इसकी उपयोगिता अर्थ शून्य है। सैन्धव पुरास्थलों के उत्खनन से बहुतायत की संख्या में मुहरें प्राप्त हुई हैं। इन पर चित्र बने हुए हैं, जो उस काल की सामाजिक, धार्मिक प्रवृत्तियों की रोचक जानकारी देते हैं। बाद के कालों की मुहरें मिट्टी और धतुओं की अधिक संख्या में प्राप्त हुई हैं। प्रायः इन मुहरों पर राजा, सामन्त, प्रशासनिक पदाधिकारी, गण, निगम, संघ के पदाधिकारी और व्यापारियों के हस्ताक्षर हैं। से मुहरें मिट्टी, ताम्र, कांस्य एवं पत्थर की सहायता से बनायी जाती थीं। राजाओं की मुहरों पर उनके वंश, कुल का परिचय देते हुए वंशावली भी उत्कीर्ण है। ये मुहरें संग्रहालयों में सुरक्षित संगृहीत हैं। गुप्त राजाओं की सील तो बहुत अच्छी प्रकार की प्राप्त है। इनमें कुछ विशेष महत्व की हैं, जैसे- गाविन्द गुप्त की वैषाली मुहर, पुरूगुप्त की भितरी सील, वैन्यगुप्त की नालन्दा मुहर, कुमार गुप्त तृतीय की राजमुद्रा, सम्राट हर्ष वर्धन की नालन्दा तथा सोनपत मुहर तथा भीटा से प्राप्त ‘महासेनापति महादण्डनायक कुमारामात्याधिकरणस्य’ लेख पाली मुहरें इस दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण एवं उपयोगी हैं।

स्मारक एवं कलात्मक अवशेषः

                इतिहास-निर्माण में भारतीय स्थापत्यकारों, वास्तुकारों और चित्रकारों ने अपने हथियार, छेनी, कन्नी, और तूलिका के द्वारा विशेष योगदान दिया है। इनके द्वारा निर्मित प्राचीन इमारतें, मंदिरों, मूर्तियों के अवशेषों से भारत की प्राचीन सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक परिस्थितियों का ज्ञान होता है। खुदाई में मिले महत्त्वपूर्ण अवशेषों में हड़प्पा सभ्यता, पाटलिपुत्र की खुदाई में चंद्र्रगुप्त मौर्य के समय लकड़ी के बने राजप्रसाद के ध्वंसावशेष, कोशांबी की खुदाई से महाराज उदयन के राजप्रसाद एवं घोषिताराम बिहार के अवशेष, अतरंजीखेड़ा में खुदाई से लोहे के प्रयोग के साक्ष्य, पाण्डिचेरी के अरिकामेडु से खुदाई में प्राप्त रोमन मुद्राओं, बर्तनों आदि के अवशेषों से तत्कालीन इतिहास एवं संस्कृति की जानकारी मिलती है। मंदिर-निर्माण की प्रचलित शैलियों में ‘नागर शैली’ उत्तर भारत में प्रचलित थी, जबकि ‘द्रविड़ शैली’ दक्षिण भारत में प्रचलित थी। दक्षिणापथ में निर्मित वे मंदिर जिसमें नागर एवं द्रविड़ दोनों शैलियों का समावेश है, उसे ‘बेसर शैली‘ कहा गया है।

                इसके अलावा एशिया के दक्षिणी भाग में स्थित प्राचीन भारतीय उपनिवेशों से पाये गये स्मारकों से भी भारतीय सभ्यता और संस्कृति के संबंध में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं। जावा का स्मारक बोरोबुदुर, कंबोडिया का अंकोरवाट मंदिर इस दृष्टि से पर्याप्त उपयोगी हैं। मलाया, बाली और बोर्नियो से मिलने वाले कई छोटे स्तूप और स्मारक बृहत्तर भारत में भारतीय संस्कृति के प्रसार के सूचक हैं।

                प्राचीन काल में मूर्तियों का निर्माण कुषाण काल से आरंभ होता है। मौर्य, शुंग, कुषाण, गुप्त शासकों एवं उत्तर गुप्तकाल में निर्मित मूर्तियों के विकास में जन-सामान्य की धार्मिक भावनाओं का विशेष योगदान रहा है। कुषाणकालीन मूर्तियों एवं गुप्तकालीन मूर्तियों में मूलभूत अंतर यह है कि जहाँ कुषाणकालीन मूर्तियों पर विदेशी प्रभाव स्पष्ट है, वहीं गुप्तकालीन मूर्तियाँ स्वाभाविकता से ओत-प्रोत हैं। भरहुत, बोधगया, साँची और अमरावती में मिली मूर्तियाँ जनसामान्य के जीवन की सजीव झाँकी प्रस्तुत करती हैं।

                चित्रकला से भी प्राचीन भारत के जन-जीवन की जानकारी मिलती है। अजन्ता के चित्रों में मानवीय भावनाओं की सुंदर अभिव्यक्ति है। ‘माता और शिशु’ या ‘मरणशील राजकुमारी’ जैसे चित्रों से बौद्ध चित्राकला की कलात्मक पराकाष्ठा का प्रमाण मिलता है। एलोरा गुफाओं के चित्र एवं बाघ की गुफाएं भी चित्रकला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।

उत्खनित सामग्रीः

                बस्तियों के स्थलों के उत्खनन से जो अवशेष प्राप्त हुए हैं उनसे प्रागैतिहास और आद्य इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है। आरंभिक मानव-जीवन के विकास के विविध पक्षों का ज्ञान उनकी बस्तियों से प्राप्त पत्थर और हड्डी के औजारों, मिट्टी के बर्तनों, मकानों के खंडहरों से होता है। सोहन घाटी (पाकिस्तान) में पुरापाषाण युग के मिले खुरदुरे पत्थरों के औजारों से अनुमान लगाया गया है कि भारत में आदिमानव ईसा से 4 लाख से 2 लाख वर्ष पूर्व रहता था। 10,000 से 6,000 वर्ष पूर्व के काल में मानव कृषि, पशुपालन और मिट्टी के बर्तन बनाना सीख गया था। कृषि-संबंधी प्रथम साक्ष्य साम्भर (राजस्थान) से पौधा बोने का मिला है, जो ई.पू. 7000 का बताया जाता है। पुरातात्त्विक अवशेषों तथा उत्खनन में प्राप्त मृद्भांडों से संस्कृतियों के विकास-क्रम पर प्रकाश पड़ता है। अवशेषों में प्राप्त मुहरें भी प्राचीन भारत के इतिहास-लेखन में बहुत उपयोगी हैं। मोहनजोदड़ो से प्राप्त लगभग 5 सौ  मुहरों से तत्कालीन धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। आज पुरातत्त्ववेत्ता वैदिक साहित्य, महाभारत और रामायण में उल्लिखित स्थानों का उत्खनन कर तत्कालीन भौतिक संस्कृति का चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं।

                इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि प्राचीन भारतय इतिहास के अध्ययन के स्रोत के रूप में साहित्यिक, विदेशी यात्रियों के विवरण और पुरातत्वीय सामग्री प्र्याप्त संख्या में उपलब्ध हैं। सभी साक्ष्यों का अपना -अपना महत्व है। इनमें किसी भी साक्ष्य पर विशेष बल देने तथा दूसरे की उपेक्षा करने पर सही इतिहास की जानकारी नहीं हो सकती। यद्यपि तुलनात्मक दृष्टि से पुरातत्वीय प्रमाण अधिक प्रमाणिक होने के बावजूद अपने में पूर्ण नहीं हैं। सभी साक्ष्यों समुचित तालमेल के द्वारा वास्तविक एवं सर्वमान्य तथ्य प्राप्त किया जा सकता है। क्योंकि इससे पूर्वाग्रह से बचा जा सकता है। एक कुशल इतिहासकार सम-सामयिक साहित्यिक और पुरातात्त्विक सामग्री का समन्वित उपयोग कर पूर्वाग्रह से मुक्त होकर अतीत का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास करता है।

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