चीन की सभ्यता या ह्नाँगहो सभ्यता


अग्नि के आविष्कार के पश्चात् जिस प्रकार पाषाणयुगीन मानव नवीन पाषाण काल में प्रविष्ट हुआ उसी प्रकार कृषि कला के ज्ञान ने मानव को आदिवासी बंजारों जैसे जीवन से निकाल कर सभ्यता के दर्शन कराये। थोड़े समय बाद ही एशिया, योरोप और अमेरिका महाद्वीप में सभ्यता का विकास हुआ। चीन की प्राचीन सभ्यता की संरचना प्रतीकों और मिथकों पर की गयी है। चीन की सभ्यता के विषय में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह मिस्र, मेसोपोटामिया और यूनान की तरह विभिन्न जातियों और नस्लों के लोगों की नहीं अपितु एक ही जाति के लोगों की सभ्यता है जो एक ही भाषा बोलते और लिखते हैं और यह वही भाषा है जिसका आविष्कार आज से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व हुआ। इस प्रकार चीन की सभ्यता में एक सातत्य है। चीन देश में भी कृषि का ज्ञान ही सभ्यता का आधार बना तथा यह सभ्यता हर दृष्टि से एक पूर्ण विकसित सभ्यता थी। चीन की प्राचीन सभ्यता की अवधारणा में एक महत्वपूर्ण भूमिका प्रतीकों और मिथकों की रही। चीनी इतिहासकारों और सभ्यता के अध्येताओं ने जिनमें कन्फ्यूशियस का प्रमुख स्थान है, चीन की सभ्यता का आरम्भ चीनी राष्ट्र की स्थापना से अर्थात् ईसापूर्व 2852 से माना जाता है और उसके साथ अनेक प्रतीकों और मिथकों को जोड़ दिया है जो आज तक चीन की सभ्यता का महत्वपूर्ण अंग बना हुआ है। यह माना जाता है कि चीन की सभ्यता का प्रथम चरण तीन शासकों का काल है, और दूसरा पाँच शासकों का। प्रथम तीन शासकों का तात्पर्य तीन शासक समूह हैं जिनमें पहले समूह में बारह दैवी षासक, दूसरे में ग्यारह पृथ्वी लोक के शासक और तीसरे समूह में नौ मानवीय शासक हुए। ये तीन शासक समूह वास्तव में स्वर्ग, पृथ्वी और मानव के प्रतीक माने गये हैं। उसके बाद आने वाले पाँच शासक समूहों के शासक वास्तव में उन महान चीनी नागरिकों के प्रतीक हैं जिन्होंने आग, कृषि, पंचाँग (कलेण्डर) और चीनी लिपि आदि सांस्कृतिक उपादानों का आविष्कार किया।
यह तो हुई प्रतीकों की अवधारणा, अब मिथकों का उदाहरण लें। चीनी मिथक के अनुसार तीन शासक समूहो का पूर्वज फू सी (थ्न भ्ेप) हुआ, जिसक विषय में ऐसी मान्यता है कि उसका धड़ अजगर जैसा और सिर मनुष्य की तरह था। फू सी (थ्न भ्ेप) ने ही उन आठ त्रिमितीय संरचनाओं (ज्तपहतंउे) की खोज की जिन पर भविष्यवाणी की चीनी प्रणाली (प् ब्ीपदह) आधारित है। फू सी ने ही सबसे पहले शिकार और मछली पकड़ने के लिए जाल का प्रयोग सिखाया। फू सी की पत्नी का नाम नु वा (छन ॅं) था। जो एक चमत्कारी स्त्री थी। एक बार बाढ़ आने पर पानी को सुखाने के लिए उसने नरकुल के सरकंडों की राख का प्रयोग किया।
पाँच शासकों में शेन नुंग (ैमद छनदह) ने खेती, व्यापार और औषधि की शिक्षा प्रदान की और पाँच तारों वाले सितार (र्पजीमत) का आविष्कार किया।
चीनी सभ्यता के उदय के विषय में एक प्राचीन मिथक है जिसके अनुसार सृष्टि के आदि में जो अव्यवस्था और अराजकता व्याप्त थी। उस अराजकता को समाप्त करने के लिए पी एन कू (च् ।द ज्ञन) नामक कुत्ता पैदा हुआ जिसने दक्षिण की बर्बर जाति को पराजित करने में सम्राट काओ सिन (ज्ञंव भ्ेपद) की मद्द की। सम्राट ने अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए अपनी बेटी का विवाह पी एन कू के साथ कर दिया। उसने ही पी एन कू की मौत के समय उसके गर्भ से चीन को जन्म दिया।
चीनी सभ्यता की प्रमुख विशेषतायें इस प्रकार हैं- सर्वप्रथम, चीनी शासक स्वयं को देश की जनता का कल्याणकारक मानते थे। जनता के सुख-दुख को अपना सुख-दुःख मानते थे। शासक ’ईश्वरीय पुत्र’ होने के उपरान्त भी जनता पर अत्याचार करने अथवा निरंकुश व्यवहार करने के लिए, स्वतन्त्र नहीं थे। चीनी सभ्यता में नगर के नगर अधिकारियों को विशेष शक्ति एवं अधिकार प्राप्त थे। कुछ मामलों में वह पूर्ण स्वतन्त्र थे। द्वितीय, चीनी सभ्यता में शिक्षित व्यक्ति को जितना महत्त्व, मान, सम्मान दिया जाता था, उतना अन्य किसी सभ्यता में नहीं दिया गया। माता पिता अपने बालकों की शिक्षा की ओर विशेष ध्यान देते थे। तृतीय, चीनी समाज में मनोरंजन को विशेष स्थान प्राप्त था। यह एक ओर उनके मनोरंजन का साधन था। चतुर्थ, चीनी में सर्वप्रथम रेशम के वस्त्रों का निर्माण किया गया, और विश्व में इसका प्रसार किया गया। पंचम, कला के क्षेत्र में चीनी कलाकार सुन्दरता और स्वच्छता का तो ध्यान रखते ही थे, साथ ही साथ कला को आनन्द का स्रोत एवं मानव भावनाओं का दर्पण मानते थे। चीनी सभ्यता के वासियों ने नृत्य एवं संगीत के क्षेत्र में विभिन्न मुद्राओं एवं सुरों की खोज की और उनका विकास किया। तत्कालीन चीनी समाज में न तो किसी प्रकार का भेद था, न ही ऊँच -नीच की भावना थी और न ही स्त्री को अनादर की दृष्टि से देखा जाता था अथवा भोग की वस्तु समझा जाता था। दर्शन तथा शिक्षा के क्षेत्र में तो चीनी सभ्यता का योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है। आधुनिक काल के प्रमुख दार्शनिक कनफ्यूशियस का जन्म भी चीन में हुआ था। शिक्षा का प्रसार उन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर प्रचलित हुआ जो आजकल प्रचलित है। लीवीन्ज ने प्राचीन चीनी शिक्षा प्रणाली की प्रशंसा करते हुए कहता है कि ’मैं यह आवश्यक समझता हूँ कि हमको प्राकृतिक शिक्षाशास्त्र की शिक्षा देने के लिए चीनी अध्यापकों को बुलाया जाय।’
चीन की सभ्यता का उदय ह्नाँग हो (भ्नंदह भ्व) नदी के निचले बेसिन में हुआ था। यह प्रायः बाढ़ के विख्यात था। इस नदी को पीली नदी के नाम से भी जाना जाता है। जिसका उद्गम तिब्बत की पहाड़ियों से हुआ है और यह उत्तर की ओर ओरडास (व्तकवे) के रेगिस्तान के अन्तिम छोर से पूरब की ओर पुनः दक्षिण की बहती है, जहाँ वह तेज आँधियों द्वारा जमा की गयी पीली-भूरी मिट्टी से बने मैदान के बीच से होकर जाती है। आगे जाकर यह फिर पूरब की ओर मुड़ जाती है और विशाल उत्तरी चिन नामक मैदान का निर्माण इसी नदी के द्वारा बहाकर लायी गयी मिट्टी से हुआ है। कुल मिलाकर यह ीवह मैदान है जिसने चीन के लोगों और उनकी सभ्यता को जन्म दिया। उत्तर और पश्चिम की ओर मैदान एवं मिट्टी का बना पठारी क्षेत्र पहाड़ों, रेगिस्तान और घास के मैदानों (ैजमचचमे) से घिरा हुआ है। इसी घास के मैदानों में तुर्क और मंगोल खानाबदोश जातियाँ भेड़-बकरियों को चराया करते थे। यह एक रक्षा प्राचीर की तरह चीन को विदेशी आक्रमणों एवं उनके प्रभावों से बचाती है और चीन के एक प्रजातिवाद के विकास में सहायक रहा। दक्षिण की ओर पीली नदी के बेसिन को याँगत्जी (ल्ंदहज्रम) नदी के बेसिन से अलग करने का कार्य चिन लिंग (ब्ीपद स्पदह) पर्वत श्रृंखला ने किया। याँगत्जी नदी का उद्गम भी तिब्बत के पठार से ही हुआ है। याँगत्जी नदी के नीचे पश्चिमी पर्वतों से लेकर पूर्व में सागर तक फैला विस्तृत पठार है जिसमें अनेक घाटियाँ हैं जिनमें स्थानीय सभ्यताओं का उदय हुआ। इसके दक्षिण में चीन की तीसरी बड़ी नदी सी क्याँग (भ्पे ज्ञपंदह) अपनी सहायक नदियों के साथ एक सम्पूर्ण नदी घाटी व्यवस्था का निर्माण करती है। इन्होंने मिलकर कैंटन (ब्ंदजवद) बन्दरगाह के चारों ओर एक उपजाऊ डेल्टा का निर्माण किया है, जिसमें सर्दियों का मौसम न होने के कारण साल में तीन फसलें उगायी जाती रही हैं।
चीन का जलवायु नमी भरे बादलों और साइबेरिया की ठण्डी हवाओं के हाथ का ख्लिना है। गर्मियों में मानसूनी हवायें उत्तर की ओर बढ़ती जाती है तथा सर्दियों में साइबेरिया से आने वाली ठण्डी और खुश्क हवायें दक्षिण की ओर फैलती जाती हैं। अप्रैल और मई के महीनों में गर्मी उत्तर की ओर बढ जाती है और जून और जुलाई में याँगत्जी के बेसिन में भारी बारिश होती है। जुलाई के अन्त और अगस्त में मानसून पीली नदी तक फैल जाता है और सितम्बर में वापसी से पहले गोबी के रेगिस्तान तक चला जाता है। वापसी में ये बादल मध्य और दक्षिण चीन में वर्षा करते हैं।
प्राचीन चीनी सभ्यता के वासी मंगोल जाति के मानव थे तथा इनमें अन्य किसी विदेशी जाति का समावेश इस कारण नहीं हो पाया, क्योंकि तत्कालीन चीन में पहुँचना बहुत कठिन था। मंगोल जाति के लोग शारीरिक रूप से गोल सिर, एवं मुख, छोटे हाथ पैर वाले होते थे। प्राचीन चीन में सुसंगठित राजनैतिक व्यवस्था का लगभग सदैव अभाव रहा। इसी कारण विभिन्न प्रान्तों में विभिन्न वंशों के शासक शासन करते थे। जिसके परिणाम स्वरूप प्रत्येक प्रान्त की सभ्यता के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी एक अलग प्रतिमा थी।
राजनैतिक दशा-
चीन का राजनीतिक इतिहास शाँग राजवंश के समय से प्रारम्भ होता है। जिसका आरम्भ लगभग 1766 ई0पू0 से माना जाता है। अन्य देशों के विपरीत चीन की राजनैतिक दशा का अध्ययन करने के लिये विद्वानों एवं इतिहासकारों की पौराणिक कथाओं का आश्रय नहीं लेना पड़ता है क्योंकि चीन के शासक अपने काल से सम्बन्धित घटनाओं का वर्णन करने के लिये दरबारी इतिहासकारों की नियुक्ति किया करते थे , जिनका एक मात्र कार्य शासकों एवं तत्कालीन सामाजिक जीवन से सम्बन्धित विभिन्न पक्षों जैसे राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक गतिविधियों का वर्णन करना था। इन्हीं ऐतिहासिक पांडुलिपियों से ज्ञात होता है कि चीन का राजनैतिक जीवन ईसा से 2852 वर्ष पूर्व प्रारम्भ हुआ था तथा फु सी प्रथम शासक था जिसने अपनी प्रजा को मछली पकड़ने, संगीत, चित्रकला, पशुपालन तथा रेशम के कीड़े पालने की शिक्षा दी। उसके उत्तराधिकारी शिननुंग ने अपनी प्रजा को कृषि, व्यापार तथा चिकित्सा आदि विषयों का ज्ञान कराया तथा 1766 ई०पू० में शाँग वंश के शासकों ने ह्नाँगहो घाटी में अपना शासन स्थापित किया जो 1122 ई०पू० तक सत्ता में रहा।
चाऊ राजवंश-
इसके उपरांत चाऊ वंश के शासकों ने अपना शासन स्थापित किया जो 256 ई०पू० तक सत्ता में रहा। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि चाऊ वंश वस्तुतः तुर्कों का था। शाँग राज्य के पश्चिम में पीली नदी की सहायक वाई बहती थी। इस नदी की उपजाऊ भूमि में और समीपवर्ती पहाड़ियों के शाँसी और शेंसी प्रान्तों में चाऊ नामक बर्बर जातियों का क्षेत्र था। चाऊ जाति के विषय में एक बात यह है कि उसे चीन के पश्चिम में आवासित मध्य एशिया की लड़ाकू जातियों के साथ निरन्तर सम्पर्क बना रहा। इस सम्पर्क का कारण प्रायः उनके आक्रमणों के कारण सुरक्षात्मक होना था। अतः चाऊ जाति के लोग युद्ध प्रिय हो गये। ये लोग पश्चिम की खानाबदोश जातियों के भू-भाग में प्रायः लूट-पाट करते और शाँग जाति के भू-भाग पर अधिकार स्थापित करते। इस वंश के शासक धर्मप्रधान शासक थे, अर्थात् एक ओर वह शासन सम्बन्धी कार्यों का संचालन करते थे, तो दूसरी ओर धार्मिक अनुष्ठान कराते थे। इस वंश के शासक स्वयं को ईश्वरीय दूत मानते थे। चाऊ राजवंश में सबसे अधिक शक्तिशाली व्यक्ति शासक होता था। उसकी उपाधि वेंग थी। शासक का पद केवल पूर्वजों की इच्छा और व्यक्तिगत गुणों तथा ईश्वरीय कृपा से प्राप्त होता था।
राजा वेन को चीनी इतिहासकार प्रायः शान्तिप्रिय शासक बताते हैं। लेकिन वास्तव में उसने एक विशाल चाऊ सेना की स्थापना की। इस सेना की ही सहायता से उसने पश्चिम और दक्षिण के भू-भागों पर आक्रमण शाँसी और शेंसी के को अपने अधीन कर लिया। वेन ने केवल सात वर्षों तक ही राज्य किया।
चाऊ शासक वेन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र वू वांग चाऊ गद्दी पर आसीन हुआ। शासक बनते ही उसके सामने दो तत्कालीन समस्यायें थीं। पहली समस्या थी राज्य के दृढत्र संगठन की जिससे शान्ति स्थापित हो सके। दूसरी समस्या थी राज्य के सैनिक बल की वृद्धि, जिससे हूण आदि आक्रमणकारियों का सामना किया जा सके। इन समस्याओं के हल के लिए उसने कुछ सुधारात्मक कार्य किया। उसका सबसे महत्वपूर्ण कार्य सामन्तों को संगठित करना था। सामन्तों की राजा के प्रति वफादारी वस्तुतः राजा के व्यक्तित्व, चरित्र, सामन्तों के प्रति उसके व्यवहार और उसकी सैनिक सामर्थ्य पर निर्भर करती थी। वू वांग ने सबसे पहले सामन्तों की पाँच श्रेणियाँ बनायीं। सबसे उच्चश्रेणी के सामन्त को उसने लगभग तीस वर्ग मील के क्षेत्र का शासन सौंपा। उसके नीचे के सामन्त को सोलह वर्ग मील काक्षेत्र प्रदान किया। राजा वू वांग का शासन क्षेत्र काफी विस्तृत था। जिस विशाल क्षेत्र पर शासन करना एक कठिन कार्य थ्ज्ञा। अतः उसने सामन्तो को अपनी-अपनी जागीरों के संरक्षण और शासन का अधिकार प्रदान कर दिया। यह चीन में सामन्तवाद की शुरूआत मानी जा सकती है।
राजा वू वांग अपनी विशाल सेना के साथ पीली नदी को पार कर शाँग राज्य पर आक्रमण करने की योजना बनाई किन्तु यह योजना सफ ल नहीं हुआ। वह शाँग राजा के हाथों पराजित हुआ। दो वर्ष बाद उसने पूरी तैयारी के साथ पूरब दिशा की ओर अभियान किया। यह वह समय था जब शाँग शासक पूरब की एक बर्बर चीनी जाति के विरूद्ध युद्ध करके निकला ही था। चाँग शासक वू वांग ने इस परिस्थिति का लाभ उठाया और शाँग राजा को परास्त कर दिया। इसके बाद राजा वू वांग अपनी राजधानी वापस आ गया और 1116 ई0पू0 में उसकी मृत्यु हो गयी। राजा वू वांग की मृत्यु के समय उसका पुत्र अवयस्क था। अतः वू वांग के एक अन्य भाई चाऊ कुड़यूक ने वू वांग के बेटे चेंग (ब्ीमदह) को गद्दी पर आसीन कर स्वयं को उसका संरक्षक घोषित किया। वह असाधारण प्रतिभा का व्यक्ति था। प्रसिद्ध दार्शनिक कन्फ्यूशियस उसकी प्रशंसा करता है और उसे अपने दार्शनिक चिन्तन का मूल स्रोत बताता है। उसने चाऊ साम्राज्य को संरक्षित किया। उसकी नीयत पर कुछ लोग सन्देह करने लगे। उसके भतीजे राजा चेंग और शाँग राजा की निगरानी के लिए नियुक्त उसके भाईयों- कुआन शू एवं साई शू उस पर सन्देश करने लगे। जब इन दोनों के उकसाने पर शाँग राजा ने विद्रोह कर दिया तब चाऊ कुड़यूक ने शाँग राजा एवं अपने भाई कुआन शू की हत्या कर दिया और दूसरे विद्रोही भाई साई शू को देश से निष्कासित कर दिया। उसने अपने एक अन्य भाई काँग शू को शाँग प्रदेश का अधिशासक बनाया और शाँग राजाओं के पूर्वजों की पूजा के लिए उनके उत्तराधिकारियों की तलाश प्रारम्भ किया और अन्तिम शाँग राजा के भाई वाई त्जू को 1111ई0पू0 में राजा बनाया।
राजधानी परिवर्तन-
चाऊ राजा चेंग का संरक्षक चाऊ कुड़यूक ने यह महसूस किया कि चाऊ साम्राज्य की राजधानी एक किनारे पड़ती ळे इसलिए उसने शाँग की राजधानी के समीप एक नवीन नगर की स्थापना की योजना बनायी। इसी योजना को पूर्ण करने के लिए उसने अपनी देख रेख में लोयाँग के समीप एक नयी राजधानी का निर्माण किया। सात वर्षतक चाऊ राजवंश को सुदृढ़ करने और चीन की मुख्य की मुख्य भूमि के एक बड़े भाग को अधिगृहीत करने के उपरान्त उसने अपने भ्तीजे राजा चेंग को शासन सौंप दिया और स्वयं अपने दार्शनिक चिन्तन में तत्पर हो गया। राजा चेंग ने लोयाँग को अपनी राजधानी तो नहीं बना सका लेकिन उसे अपनी उप-राजधानी बनाकर वहाँ से पूरब के भू-प्रदेशों पर नियन्त्रण कर दिया।
चिन राजवंश-
चीनी सभ्यता का मध्य काल चाऊ राजवंश की समाप्ति से प्रारम्भ होता है। सातवीं शताव्दी ई0पूद्ध में पाँच राज्यों का उदय हुआ, जो आपस में निरन्तर संध्घर्षरत थे। इसी समय चीन के प्रसिद्ध दार्शनिक कन्फ्यूशियस के उदय के साथ ही चीन की सभ्यता का दार्शनिक युग प्रारम्भ होता है। इस काल में पाँग बड़े दार्शनिक एवं राजनीतिक विचारक पैदा हुए। जैसे- कन्फ्यूशियस, मेंसियस, मोत्जू, लाऔतसे, सून त्जू। इस समय विद्या का बहुत अधिक विकास हुआ और दो प्रमुख विचारधारायें प्रचलित हुईं-1. यिन-याँग, जिसने चीन के लोगों में भविष्य के प्रति नवीन आशा का संचार किया और 2. कानून-वाद, जिसने राज्य को ठोस राजनीतिक आघार प्रदान किया और उसे आदर्शों के कठोर पालन से मुक्त कर दिया। पाँचवीं से तीसरी शताब्दी ई0पू0 तक चीन में आपस में युद्ध हुआ करते थे। चौथी शताब्दी ई0पू0 में चिन और चू राज्यों के आपसी संघर्ष में चिन राज्य की विजय हुई। चिन राजा ने चू राज्य की समस्त प्रदेश पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। इस प्रक्रिया को चिन राजा का प्रधानमंत्री ली-सू ने पूर्ण कर चिन राजवंश की स्थापना किया। चिन राजवंश का प्रथम महान सम्राट शिह हृंग टी (ब्ीपद ैपी भ्नंदह ज्प) था। इसके शासक बनते ही चीन पर प्रथम बार एकछत्र शासन की स्थपना हुई। सर्वप्रथम उसने ‘प्रथम सम्राट’ की उपाधि धारण किया। उसकी यह उपाधि उसके नाम को चरितार्थ करती है। क्योंकि उसने अपने बाहुबल से चीन में एक ऐसे साम्राज्य की स्थापना की जिसमें समस्त संघर्षशील रियासतें आत्मसात हो गयीं और चाऊ युग की विरासत सामन्तशाही भी अपना अस्तित्व समाप्त कर दिया। शिह हृँग टी का लक्ष्य था कि वह सारे चीन पर, जो संसार का एक मात्र सभ्य महाप्रदेश समझा जाता था, अपना इसके शासक बनते ही चीन में सामन्तीय युग का अन्त हुआ। उसने सभी सामन्त-सरदारों की निजी सेनाएँ भंग कर दीं और उनके सैनिकों को चीन की महान दीवार के निर्माण में काम पर लगा दिया, जहाँ उनमें से बहुत से काल-कवलित हो गये। उसने साम्राज्य को पचपन या छत्तीस प्रान्तों में विभक्त कर सबमें एक समान प्रशासकीय व्यवस्था स्थापित किया। प्रत्येक प्रान्त में तीन अधिकारियों की नियुक्ति की।
सम्राट ने चीन में राष्ट्रीयता की भावना पैदा करने के निमित्त हजारों लोगों को सीमान्त प्रदेशों बसाया और स्वयं निरन्तर अपने साम्राज्य विस्तार के विजय अभियान में तत्पर रहा। उसने समस्त देश में एक भाषा, एक लिपि, समान नाप-तौल प्रणाली लागू की। शान्ति व्यवस्था स्थापित करने के लिए उसने प्रजा से सभी प्रकार के हथियार जब्त करवा लिया। देश की रक्षा के लिए एवं कुख्यात शक्तियों को उसने सीमान्त प्रदेशों में बर्बर शत्रुओं से देश की सुरक्षा कार्य में लगाया और देश की सुरक्षा के लिए चीन के उत्तरी पूर्वी भाग में जिधर से मंगोलिया (हूणों) के आक्रमण प्रायः होते रहते थे, चाऊ शासक ने बनवानी शुरू की थी उसे शिह हृंग टी ने पूर्ण करवाया। जिसे चीन की विशाल दीवार की संज्ञा दिया गया। यह दीवाल लगभग 1500 मील लम्बी है। इस दीवार से शत्रुओं की निगरानी के लिए उसने इस पर बुर्ज एवं प्रहरी कक्षों का निर्माण करवाया और खतरों के मौके पर दिन में धुएँ द्वारा और रात में प्रज्वलित अग्नि द्वारा राजधानी को संकेत देने की व्यवस्था भी किया। इस प्रकार उसने सम्पूर्ण देश को पूर्णतया सुरक्षित करने का भरसक प्रयास किया। यही कारण है कि उसकी तुलना बिस्मार्क से किया जाता है जो न तो अपने अतिरिक्त किसी ईश्वर में विश्वास करता था और न ही अपने देश की एकता के लिए ‘रक्त और लौह’ की कठोर नीति अपनाने में हिचकता था।
अपने साम्राज्य में शासन व्यवस्था सुचारू ढ़ंग से सेचालित करने के लिए उसने अनेक सड़कों का निर्माण करवाया और स्वयं के आवागमन हेतु एक चौड़ी सड़क का निर्माण करवाया जो हृँगहो और याँग टी सी क्यांग नदियों की घाटियों को जोड़ता था। 225ईपू0 में उसने हृँग हो नउी का रूख दक्षिण-पूर्व की ओर मोड़ दिया और एक नहर का काट कर दो नदियों को मिलाने का कार्य किया जिसके द्वारा अनाज आदि वस्तुए आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान भेजा जा सके।
नयी सभ्यता का युग स्थापना हेतु उसने यह आदेश जार किया कि विज्ञान की पुस्तकों को छोड़कर अन्य साहित्य विशेष रूप से गाथा, इतिहास, और नीति आदि के सभी ग्रन्थों को जला दिया जाय। इस आदेश का पालन बहुत सख्ती के किया गया। चिन वंश की राजधानी ह्यियनयांग में थी।
चिन सम्राट शिह हृंग टी ने कुल चौदह वर्ष तक शासन किया। उसकी मृत्यु के समय उसकी आयु लगभग पचास वर्ष रही होगी। एक विजेता तथा साम्राज्य-निर्माता के साथ ही साथ वह एक कुशल प्रशासक भी था। उसने अपनी कुशलता, कर्मठता, दूरदर्शिता, कूटनीति एवं दृढ़ इच्छाशक्ति के द्वारा एक एकीकृत साम्राज्य का निर्माण किया। उसी के प्रयत्नों से चीन देश को चिन नाम मिला। वह प्रजा को एक सभ्यता तथा साम्राज्य को एक शासन के सूत्र में बाँध कर राष्ट्रीय एकता द्वारा सशक्त एवं समृद्धशाली बनाना चाहता था। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी कमजोर एवं निकम्मा निकला। साम्राज्य में अशान्ति, असन्तोष और विद्रोह की अग्नि भड़क उठी। लगभग 206 ई0पू0 में चिन वंश का अन्त कर लियूपाँग ने हन राजवंश की स्थापना की।
हन वंश-
हन वंश की स्थापना लियूपाँग नामक व्यक्ति ने की थी। जिसका जन्म पूर्वी चीन के किसान परिवार में हुआ था। उसने अपनी योग्यता तथा परीश्रम के कारण वह किसानों का, जो सामन्तशाही में सम्भवतः नाराज रहे होंगे, नेता बन गया। लियूपाँग ने अपनी विलक्षण क्षमता, कर्त्तव्यपरायणता, और योग्यता के बल पर अपने जीवन में सफलता अर्जित की। वह प्रारम्भ में चिन् वंश के अधीन एक साधारण कर्मचारी था। शिह-हृंग-टी के मरणोपरान्त सत्ता प्राप्त करने के लिए अथक प्रयास कि और उसके निमित्त एक सेना का गठन भी किया। लियूपाँग को अनेक युद्ध करना पड़ा और सफलता भी मिली। इसका सबसे प्रवल प्रतिद्वन्दी सियंग नामक व्यक्ति था जो चीन में सत्ता पाने के लिए उत्सुक था। जिसके कारण दोनों में संघर्ष ळोना स्वाभाविक था। इस युद्ध में आरम्भ में सफलता सियंग यू को मिली लेकिन अन्ततः लियूपाँग को विजय मिली। सियंग यू ने अपनी असफलताओं एवं असहाय स्थिति के कारण हताश और निराश होकर आत्महत्या कर ली। इस विजय के परिणाम स्वरूप चीन सामा्रज्य की सत्ता लियूपाँग के नियंत्रण में हो गयी। लियूपाँग चीन के इतिहास में काओत्सू एवं काओती के नाम से भी जाना जाता है। वह एक कुशल सैनिक संगठन कर्त्ता, प्रशासक, एव ंनायक था। निम्न स्तर से उठकर जनसाधारण के प्रति उसकी सहानुभूति का होना स्वाभ्ज्ञविक था। उसने अपने सद्व्यवहार एवं नीतियों से यह प्रमाणित कर दिया कि वह वास्तविक अर्थों में जनता का शसक था। उसने चिन् वंश के द्वारा स्थापित कठोर कानूनों को शिथिल बनाकर उदार शासन की स्थापना की। वह कन्फयूशियस के इस सिद्धान्त में विश्वास करता था कि शासक का वास्तविक कर्त्तव्य जनता के हित का संरक्षण है। इससे स्पष्ट है कि वह कन्फयूशियस के सिद्धज्ञन्तों का पक्षधर था। उसने यह नियम बनाया कि उच्च पदों पर नियुक्ति केवल योग्यता के आधार ही होगीं। लियूपाँग ने शासन को सभ्यता प्रदान करने का प्रयास किया। उसकी मृत्यु के बाद उसकी विधवा पत्नी ने चीन में सांस्कृतिक पुर्नजागरण का प्रयास किया। मगर यह सम्पूर्ण काल संघर्ष का काल था जिसमें पहले तो लियूपाँग ने अपने अधीन अनेक राज्यों का गठन करके उनमें राजा नियुक्त कर दिये और बाद में जब वे राजा सशक्त होने लगे तो उनको पराजित करके प्रादेशिक राज्यपालों की नियुक्ति की। इसकी मृत्यु के बाद उसे काओत्सू की उपाधि प्रदान की गयी थी।
हन वंश के प्रमुख राजाओं में बेन ती का नाम उल्लेखनीय है। उसने शासन की आलोचना करने वाले आलोचकों को दण्डित करना बन्द कर दिया। मृत्यु दण्ड को यथासम्भव कम कर दिया गया, अनेक प्रकार करों को समाप्त कर दिया गया। उसने प्रान्तीय शासकों की जागीरों और अधिकारों को कम कर दिया और यह नियम बना दिया कि शासक की मृत्यु के बाद उसकी जागीर उसके पुत्रों में विभाजित कर दिया जाय।
वू-ती-
पूर्व हन वंश के शासकों में सबसे अधिक प्रतिभाशाली शासक वू-ती था। इसे हन् वू-ती भी कहा जाता है। इसके शासनकाल में सम्राट की स्थिति कुछ परिवर्तन दिखाई पड़ता है। इसने लगभग 16 वर्ष की आयु में शासन कार्य का संचालन प्रारम्भ किया और दीर्घकाल अर्थात् लगभग 54वर्षों तक कुशलता पूर्वक राज किया। उसका दीर्घकालीन शासन साम्राज्य-विस्तार, शासन संगठन और सांस्कृतिक उन्नति के लिए प्रसिद्ध है। वह एक कूटनीतिक व्यक्ति था। उसने सामन्तों को अनुशासित करने के लिए केन्द्रीय कर्मचारियों की नियुक्ति किये और सामन्तों को आपस में लड़ाते रहने की नीति का भी अनुसरण किया। जिसके द्वारा राज्य की शक्ति में वृद्धि हुई और दक्षिण के ‘वू’ राज्य को परास्त कर उसे अपने अधीन कर लिया। जिससे चीन साम्राज्य का क्षेत्रफल बढ़ गया। वू-ती की महत्वपूर्ण विजय उत्तर-पश्चिम में सियंग-नू नामक जाति के विरूद्ध थी। ये लोग चिन् वंश की कमजोरी का लाभ उठाकर अपनी शक्ति में वृद्धि करना प्रारम्भ कर दिया। जो हन वंश की सत्ता के लिए घातक था। इस पराजय के बाद इन लोगों ने अपने मूल निवास स्थान को छोड़कर जीविका की तलाश में नये प्रदेशों में जा बसे। इसके अलावा वू-ती ने उत्तर -पश्चिम में कुछ अन्य लोगों के विरूद्ध अभियान किया और सफलता प्राप्त की। इसी क्रम में उसने टैरिम की घाटी और इली में रहने वाली कुछ जातियों को पारस्त किया। इस विजय के फलस्वरूप कुछ नवीन मार्गों की खोज हुई जिनके माध्यम से पाश्चात्य देशों के साथ चीन का सम्पर्क बढ़ गया। चीन, बैकिट्रया, पार्थिया एवं सोग्डियाना आदि देशों के साथ मैत्री पूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने में सहायता मिली। उत्तर -पूर्व दिशा में वूती ने अपने साम्राज्य का भी विस्तार किया। इस समय मंचूरिया के दक्षिणी और कोरियर के उत्तरी भाग में शासन करने वाला राजवेश काफी शक्तिशाली था। इसकी राजधानी पिंगयंग थी। पहले यह चीन की अधीनता में था, परन्तु बाद में उसने वू-ती के समय उसकी अधीनता मानने से इन्कार कर दिया। अतः वू-ती ने इसे पराजित कर हन् साम्राज्य में मिला लिया। इतिहासकारों का मानना है कि प्राचीन काल में इसी रास्ते से चीनी सभ्यता विस्तार जापान में भी हुआ। इसके अतिरिक्त वू-ती ने अनेक अन्य राज्यों के विरूद्ध सफलता पूर्वक अभ्यिन किया। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वू-ती सफलता का श्रेय उसका सैन्य-संगठन ओर नवीन युद्ध प्रणालियों को आत्मसात करना था।
वू-ती ने अपने साम्राज्य शान्ति कायम रखने के लिए उस समय एक नया प्रयोग किया उसने आदेश दिया कि लोगों से हथियार जब्त कर लिया जाय और सैनिकों को कृषि आदि उत्पादक कार्यों में लगाया जाय। इस आदेश से बहुत से शस्त्रधारी लोग साम्राज्य से बाहर चले गये और वे लोग उत्तरी चीन के हूणों, हुयेन पी आदि कबीलों से मिल गये। उपर्युक्त नीति से शान्ति कायम और कृषि संबर्द्धन की जो आशायें की गयीं थी वे भ्रामक सिद्ध हुई। इससे कोई लाभ नहीं हुआ। साम्राज्य की सैनिक कमजोरी का लाभ उठाकर हूण, मंगोल, तुर्क और तिब्बती आति लोग चीनी साम्राज्य पर आक्रमण करना और उसके भीतर घुसना शुरू कर दिया। वू-ती ने अपनी राजधानी में एक प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना की, जिसमें कर्मचारियों को शासन विषयक व्यावहारिक प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था। उसने एक नया कानून लागू किया जिसके द्वारा पिता की मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति उसके सभी पुत्रों में विभाजित कर दी जाती थी। इस कानून के द्वारा बड़ी बड़ी रियासतों का पतन हुआ। वु-ती ने कन्फयूशियस के राजत्व सिद्धान्तों को अपनाया। वू-ती ने लगभग 54 वर्षों तक शासन करने के बाद 87 ई0 पू0 में मृत्यु को प्राप्त हुआ। इसके बाद हन वंश का पतन प्रारम्भ हो गया।
वांग मंग-
वू-ती की मृत्यु के बाद पूर्व हन वंश का अधःपतन प्रारम्भ हो गया। पूर्व हन वंश के बाद 8ई0 में चीन की सत्ता पर वांग मंग नामक प्रतिशासक (त्महमदज) आसीन हुअरा। उसने ‘सिन हृंग-टी ’ की उपाधि धारण की, जिसका तात्पर्य ‘नव सम्राट’ होता है। ऐसा माना जाता है कि उसने एक अवयस्क शासक गद्दी छीन कर अपने को शासक घोषित किया था। इसी लिए चीनी इतिहासकारों ने उसे राज्य का अपहारक कहा है। जिस समय वांग मंग ने सत्ता हस्तगत किया था उस समय च्ीन की स्थिति बड़ी दयनीय थी। शासक बनते ही उसने कतिपय सुधार किये। अपने शासन के प्रथम वर्ष उसने सभी वस्तुओं के मूल्य निर्धारित कर दिया, जिससे लोग व्यापारियों के शोषण् का शिकार होने से बच सकें। उसने समस्त भूमि को राज्य की सम्पत्ति घोषित कर दिया और उसके क्रय-विक्रय पर प्रतिबन्ध लगा दिया। उसने जमींदारों एवं अभिजात वर्गों की जमींदारी को समाप्त कर दिया। जिससे दास प्रथा को समाप्त करने में सफलता मिली। इसने दासों को राजकीय सम्पत्ति माना। वांग मंग ने नमक, लोहा तथा शराब पर राजकीय एकाधिकार स्थापित किया। साथ ही उसने नयी मुद्रा का भी प्रचजन किया। इन सुधारों की वजह से अभिजात एवं जमींदार लोगों ने उसका विरोध करना शुरू कर दिया।
वांग मंग के शासन काल के अन्तिम समय में अर्थात् 18 ई0 में उसका विरोध बढ़ना प्रारम्भ हुआ। उसके सीमान्त प्रदेशों में विद्रोह की ज्वाला फूटने जगी। 18 ई0 में फांग चुंग के नेतृत्व में उत्तरी चीन में किसान आन्दोलन प्रारम्भ हो गया। इस विद्रोह को ‘लाल भौहों वाला विद्रोह’ भी कहा जाता है। इन विद्रोहों का दमन करने में वांग मंग असफल रहा। जिसका प्रतिफल यह हुआ कि किसानों नें में वांग मंग की सेना पर अपना आधिपत्य कायम कर लिया। लगभग 23 ई0 में चंगन वांग मंग मार डाला गया। इन सुधारों की वजह से वांग मंग चीन के इतिहास में अमर हो गया।
वांग मंग स्वयं विद्वान एवं विद्वानों का आश्रयदाता भी था। उसने ल्यूसिन नामक विद्वान की सहायता से अनेक चीनी साहित्य के प्राचीन ग्रन्थों का सम्पादन करवाया। वांग मंग कन्फ्यूशियस के सिद्धान्तों को मानता था। ऐसा माना जाता है कि उसने कन्फ्यूशियस के नाम पर निर्मित देवालयों का जीणोद्धार करवाया और उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की।
राजनीतिक दशा-
चीन की राजनीतिक दशा का अध्ययन करने के लिए पौराणिक साक्ष्यों का सहारा नहीं लेना पड़ता। ऐसा इसलिए कि चीन के शासक अपने समय की घटनाओं करने के लिए दरवारी लेखकों को आश्रय प्रदान करते थे। जो अपने शासकों एवं तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक की गतिविधियों का वर्णन करते थे। चीनी ऐतिहासिक पाण्डुलिपियों से पता चलता है कि चीन का राजनीतिक इतिहास ई0पू0 2852 वर्ष पूर्व आरम्भ हुआ था तथा फुहिसी पहला शासक बना जिसने चीनी लोगों को मछली पकड़ना, पशुपालन एवं रेशम के कीड़े पालने का प्रशिक्षण दिया। उसका उत्तराधिकारी शिननुंग ने चीनी लोगों को कृषि, व्यापार एवं चिकित्सा आदि का ज्ञान प्रदान किया। लगभग 1766 ई0पू0 में शांग वंश के शासकों ने चीन की सत्ता संभाली और लगभग 1122 ई0पू0 तक शासन किया। इस वंश के अधिकांश शासक धर्मप्रघान शासक थे। शांग वंश के शासक अपने को ईश्वर का दूत मानते थे। चाऊ वंश के शासकों के समय में प्रशासनिक कर्मचारियों की नियुक्ति बहुत जाँच परख के बाद की जाती थी। इस समय केवल अनुभवी, बुद्धिमान, कुशल निशानेवाज, लेखनकला में निपुण, संगीत एवं धर्म का ज्ञान रखने वाले आदि की नियुक्ति होती थी। इस समय शासक अपने को जनता के सुख-दुख का साथी समझते थे। चाऊ वंश के बाद चीन में सामंत बादी युग का आरम्भ होता है। इस समय चीन में अराजकता की स्थिति व्याप्त हो गयी और आर्थिक स्थिति दयनीय हो गयी। इसी समय चीन में चिन वंश का उदय हुआ। शि हुंग इस वंश का एक क्ष्ख्याति प्राप्त शासक था। इसन चिन प्रान्त में एक शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की। वास्तव में चिन प्रान्त के नाम पर ही चीन का नाकरण किया गया। चिन वंश के पतन के बाद हनान वंश का आधिपत्य कायम हुआ। जिसने चीन में लगभग 400सौ वर्षों तक शासन किया। इस वंश के शासक व्रेनती ने अपने साम्राज्य का विस्तार कर सैनिक शासन व्यवस्था का अन्त किया। वू-ती ने विभिन्न प्रान्तों पर विजय कर एक केन्द्रीय शासन व्यवस्था को लागू किया। इसने प्रत्येक प्रान्त में राज्यपालों की नियुक्ति की । इसने अपने साम्राज्य में करों में एकरूपता स्थापित किया। वू-ती ने साहित्य और कला को संरक्षण प्रदान किया। 221 ईसवी में चिन्न वंश के पतन के उपरान्त चीन में तांग वंश का उदय होता है। इस वंश का प्रमुख शासक ताईती सुंग था। इस वंश के शासकों ने चीन को वही शान्ति एवं समृद्धि शाली व्यवस्था प्रदान की, जो इसको हानवंश ने प्रदान की थी। तांग वंश के विनाश के बाद चीन में सुंग वंश का जन्म हुआ। ताई तुसु तथा वांगनशी ( 1021-1086 ) इस वंश के प्रमुख सम्राट थे जिन्होंने राजनैतिक व्यवस्था, सामाजिक अनुशासन तथा आर्थिक उन्नति के प्रति विशेष ध्यान दिया। 1279 ई० में मंगोलों ने आक्रमण कर इस वंश को समाप्त किया और इसी के साथ ही प्राचीन चीन की सभ्यता का भी अंत हो गया।
इस प्रकार चीन का राजनीतिक इतिहास विभिन्न वंशों के के उत्थान एवं पतन का इतिहास है, जिसमें अन्ततः विजय आतताइयों की हुई। चीन में शासन की सभी शक्तियाँ एवं अधिकार शासक में ही निहित होता था, वही सेना का का प्रमुख, विधि एवं न्याय तथा धर्म का स्रोत माना गया। उसका एकमात्र कर्त्तव्य देश में शान्ति एवं सुव्यवस्था की स्थापना करना था। बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा करना, आन्तरिक शान्ति कायम रखना, प्राचीन रीति रिवाजों तथा धर्म के अनुसार शासन करना, नियम बनाना, और जनता की भलाई के लिए कल्याणकारी कार्य करना था।
चीनी सभ्यता के शासक अपने सामा्रज्य में प्रशासन के सुचारू संचालन के लिए पदाधिकारियों की नियुक्ति करते थे। पदाधिकारियों की नियुक्ति के पहले उनकी विधिवत परीक्षण एवं प्रशिक्षण दिया जाता था। जिसमें तीरअंदाजी,घुड़सवारी, संगीत, लेखन एवं धर्मशास्त्र के ज्ञान का परीक्षण किया जाता था। प्रसिद्ध राजनीतिक विचारक थामस कारलाइल के अनुसार ‘‘ अभी तक चीनी सभ्यता के सम्बन्ध में जितने तथ्यों का ज्ञान हुआ उनमें सबसे रूचिकर बात यह थी कि उन्होंने विद्वानों को राज्यपाल नियुक्त किया। उनकों उच्च पदों पर आसीन करना, यही सब संबिधान तथा क्रान्तियों का ध्येय होता है।’’
निःसन्देह चीनी शासक निरंकुश थे, जनता को शासन के कार्यों में सहभाग करना मना था। फिर भी जनता अत्याचारी शासक को पदच्युत कर सकती थी। इस समय जनता का भी यह कर्त्तव्य था कि वह देश के कानून का पालन करे, शान्तिपूर्ण जीवन यापन करना, कर जमा करना, युद्ध आदि संकट के समय देश की रक्षा करना आदि।
चीनी सम्राटों ने अपने साम्राज्य को सुचारू ढ़ंग से संचालित करने के लिए साम्राज्य को विभिन्न प्रान्तों में विभक्त किया था। वूती के समय प्रान्तों की कु संख्या 13 थी। प्रान्तों में एक गर्वनर की नियुक्ति् होती थी जो सम्राट द्वारा नियुक्त होता था। साधारणतया गर्वनरों की नियुक्ति शासक के परिवारों से ही होती थी। नगर प्रशसन की सबसे छोटी इकाई होती थी। नगर का प्रमुख नगराधिकारी होता था। जिसकी नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी। वह अपने समस्त कार्यों के लिए शासक के प्रति उत्तरदायी होता था।
चीनी शासक साम्राज्यवादी प्रवृत्ति के नहीं थे और न ही उन्होंने कभी भी चीन की सयीमा के बाहर किसी देश पर आक्रमण किया, फिर भी चीनी शासक एक प्रशिक्षित सेना रखते थे। सेना दो भागों- घुड़सवार और पैदल सेना में विभक्त थी। दोनों प्रकार के सैनिक तलवार, तीर भाला, बरछा आदि अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग करते थे। सैनिकों के प्रशिक्षण के लिए प्रशिक्षण केन्द्रों की व्यवस्था की जाती थी। सैनिकों को अनुशासन का पालन करना होता था। अनुशासन का पालन न करने पर सैनिकों को मृत्युदण्ड दिया जाता था।

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