राष्ट्रकूट शासक गोविन्द चतुर्थ (930-36 ई.)(Rashtrakut ruler Govind IV-930-36)

सिंहासनारोहण के समय इसकी अवस्था लगभग 26 वर्ष की थी। प्रभूतवर्ष तथा अत्यधिक स्वर्णदान देने के कारण सुवर्णवर्ष की उपाधियों से विभूषित था। नृपतुंग, नृपतित्रिनेत्र, वीरनारायण, साहसांक तथा रट्टकन्दर्प की भी उपाधियाँ इसे प्रदान की गई थीं। वेंगी में राष्ट्रकूट समर्थक चालुक्य शासक-युद्धमल्ल भीम द्वारा अपदस्थ हुआ किन्तु गोविन्द ने कोई ध्यान न दिया। चालुक्य लेखों में भीम द्वारा गोविन्द के पराजय का भी संकेत प्राप्त होता है।

गोविन्द चतुर्थ का शासन-काल सामरिक दृष्टिकोण से एकदम महत्वहीन था। सांगली, खरेपाटन, देवली तथा कर्हाद दान-पत्रों के अनुसार यह एक विलासी एवं अकर्मण्य शासक था जो नित्य नव-वनिताओं (नर्तकियों) से आवृत्त रहता था तथा प्रेम एवं आनन्द का जीवन व्यतीत कर रहा था। इसे साम्राज्य के अंतः एवं बाह्य घटनाओं का कोई ज्ञान न था। यद्यपि सांगली पत्र में गंगा-यमुना द्वारा इसके राजमहल में सेवा करने का उल्लेख है, किन्तु इससे यह अनुमान लगाना निरर्थक प्रयास होगा कि इसने इलाहाबाद तक विजय किया हो। संभव है कि इन्द्र तृतीय की सेना उत्तर से लौटते समय अभी तक इलाहाबाद में ठहरी हो।

देवली एवं कर्हाद पत्रों से ज्ञात होता है कि गोविन्द चतुर्थ की विलासिता से उद्विग्न होकर सामंतों एवं जनता ने विद्रोह करना प्रारंभ कर दिया। पम्प के  ‘विक्रमार्जुनविजय’ के अनुसार बेमुलवाड के चालुक्य सामंत अरिकेसरिन् द्वितीय ने वेंगी के चालुक्य शासक विजयादित्य पंचम को प्रश्रय प्रदान किया। जब गोविन्द चतुर्थ ने विजयादित्य पंचम को वापस करने का आदेश दिया तो अरिकेसरिन् द्वितीय ने अस्वीकार कर दिया। दक्षिणी कर्णाटक में दोनों के मध्य कहीं संघर्ष हुआ। अरिकेसरिन् ने इसे पराजित कर वडिग (अमोघवर्ष तृतीय) को मान्यखेत के सिंहासन पर अधिष्ठित किया।

गोविन्द चतुर्थ का चाचा एवं इन्द्र तृतीय को सौतेला भाई अमोघवर्ष तृतीय देवली एवं कर्हाद पत्रों के अनुसार गोविन्द चतुर्थ को अपदस्थ कर मंत्रियों एवं प्रजा द्वारा शासक नियुक्त किया गया। अमोघवर्ष तृतीय का विवाह चेदि राजकुमारी के साथ हुआ था तथा त्रिपुरी में शांतिमय जीवन व्यतीत कर रहा था। अभिलेखीय साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि यह शासन के प्रति उदासीन था। राजशेखर के ‘विद्धशाल-भंजिका ’से भी यह संकेत प्राप्त होता है कि अमोघवर्ष तृतीय अपने श्वसुर युवराज प्रथम के यहाँ निर्वासित जीवनयापन कर रहा था। चेदि शासक ने इसे सिंहासन पर अधिष्ठित किया।

उपर्युक्त साक्ष्यों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि गोविन्द चतुर्थ के विरुद्ध एक संघ का निर्माण किया गया था। यद्यपि अमोघवर्ष तृतीय इसमें सक्रिय न रहा किन्तु इसका महत्वाकांक्षी पुत्र कृष्ण तृतीय ने अपने लिए सिंहासन सुरक्षित करने हेतु अपने पिता को सिंहासनारूढ़ करने के लिए अवश्य ही संघ का संचालन किया होगा। चेदियों, चालुक्य, अरिकेसरिन् एवं अन्य मंत्रियों तथा उच्चपदाधिकारियों के सहयोग से यह अपने उद्देश्य में सफल रहा तथा 936 ई. में अमोघवर्ष तृतीय मान्यखेट के सिंहासन पर आसीन हुआ।

इस युद्ध के उपरांत गोविन्द चतुर्थ जीवित था अथवा नहीं, निश्चित रूप से ज्ञात नहीं होता। परांतक प्रथम के तक्कोलम अभिलेख में गोविन्दवल्लभरायर का उल्लेख है जो परांतक का दामाद था। संभव है कि यह गोविन्द चतुर्थ ही रहा हो। बुतूग द्वारा अपने श्वसुर कृष्ण तृतीय को सहयोग दिये जाने का आरोप लगाया जाता है। इसीलिए कृष्ण तृतीय ने परांतक प्रथम के विरुद्ध भयंकर युद्ध किया हो। किन्तु इसे संभावना मात्र ही कह सकते हैं।

                                                                राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष तृतीय (936-939 ई.)

अमोघवर्ष तृतीय ने मात्र तीन-चार वर्षों तक शासन किया जिसका व्यक्तिगत नाम वड्डिग था। उसने कुन्दक देवी जो कलचुरि युवराज प्रथम की पुत्री के साथ विवाह किया था। सिंहासनारोहण के समय वड्डिग की अवस्था लगभग ५० वर्ष की थी। इसके अनेक पुत्र थे जिनमें कृष्ण तृतीय ज्येष्ठ था। अन्य पुत्र जगत्तुंग, निरुपम तथा खोहिग इत्यादि थे। अमोघवर्ष तृतीय की पुत्री रेवकनीम्मडी थी जो राजमल्ल तृतीय के अन्य भाई गंग बुतूग के साथ विवाहित थी।

अमोघवर्ष स्वाभाविकतः धार्मिक प्रवृत्ति का वृद्ध था। वह परम शैव था। शिव मंदिरों एवं ब्राह्मणों को अनेक बार दान दिया था। उसे आध्यात्मिक क्रियाओं में व्यस्त देखकर कृष्ण तृतीय सम्पूर्ण शासन का संचालन कर रहा था। उसने अपने बहनोई गंग बुतूग द्वितीय को गंग सिंहासन पर अधिष्ठित करने के लिए रावमल्ल (राजमल्ल) को पदच्युत करने की योजना बनाई। राजमल्ल के सहयोगी नोलम्ब दन्तिग एवं बप्पग युद्ध क्षेत्र में चल बसे, राजमल्ल भी अन्ततः वीरगति को प्राप्त हुआ तथा बुतूग द्वितीय गंग सिंहासन पर 937 ई. में आसीन हुआ।

अमोघवर्ष तृतीय एवं कृष्ण तृतीय दोनों का विवाह चेदि राजकुमारियों के साथ हुआ था। अमोघवर्ष तृतीय को सिंहासन दिलाने में चेदियों का विशेष योगदान था। इसके बाबजूद युवराज कृष्ण तृतीय ने 938 ई. के लगभग चेदियों को आक्रांत किया तथा पराजित किया तदुपरान्त उसने चन्देल साम्राज्य के कालंजर एवं िचत्रकूट के दुर्गों को अधिकृत किया। यहाँ यह भी नहीं कहा जा सकता कि कृष्ण तृतीय ने चेदियों की सहायता के लिए चन्देलों पर आक्रमण किया है क्योंकि देवली पत्र में स्पष्ट उल्लेख है कृष्ण तृतीय ने अपनी माँ एवं पत्नी के अग्रजों को पराजित किया था।

देवली पत्र के आधार पर अल्तेकर महोदय ने यह निष्कर्ष निकाला है कि कृष्ण तृतीय ने युवराज के रूप में ही बुतूग को गंग सिंहासन पर सुरक्षित किया तथा कालंजर एवं चित्रकूट के दुर्गों को अधिकृत किया। बघेलखण्ड से उपलब्ध कृष्ण तृतीय के जूरा लेख में उसे परमभट्टारक, परमेश्वर, महाराजाधिराज की उपाधि से अलंकृत किया गया है। या तो जूरा लेख इसके सिंहासनारोहण एवं काँची तंजौर विजय के बाद लिखा गया हो या यह भी संभव है कि कृष्ण तृतीय ने सिंहासनारोहण के पश्चात् बघेलखण्ड पर पुनरभियान किया हो तथा उसके बाद जूरा लेख उत्कीर्ण किया गया हो।

श्रवणबेलगोला लेख में भी गंगों के विरुद्ध वड्डिग के अभियान का उल्लेख हुआ जिससे गंग बुतूग का सिंहासनारोहण अमोघवर्ष तृतीय के काल में प्रमाणित होता है। इस प्रकार एक युवराज के रूप में ही कृष्ण तृतीय ने अपने पराक्रम को पूर्ण प्रतिष्ठित कर दिया था। संभवतः 939 ई. के ग्रीष्म ऋतु में अमोघवर्ष तृतीय ब्रह्मलीन हुआ।

राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय (939-67 ई.)

फरवरी एवं दिसंबर, 939 ई. के मध्य कभी अमोघवर्ष तृतीय का पुत्र राष्ट्रकूट सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। इसे अकालवर्ष वल्लभेन्द्र तथा पृथ्वीवल्लभ परमेश्वर समस्त भुवनश्रय की उपाधियों से भी विभूषित किया गया है। कन्नड़ एवं तमिल अभिलेख में कत्रिचयुन् तत्र्जैयन्-कोण्ड की उपाधि प्रदान की गई है।

एक युवराज के रूप में ही कृष्ण तृतीय अपने पराक्रम का पूर्ण परिचय दे चुका था। इसका सिंहासनारोहण पूर्णतः शान्तिमय रहा। यद्यपि सुद्दी पत्र में बुतूग द्वितीय द्वारा कृष्ण तृतीय के लिए सिंहासन सुरक्षित करने का उल्लेख है, किन्तु अन्य किसी लेख में इसका कोई संकेत नहीं है। इससे यह संभावना व्यक्त की जा सकती है कि संभवतः अमोघवर्ष तृतीय की मृत्यु के पश्चात् कृष्ण तृतीय उत्तरी अभियान में व्यस्त रहा हो तथा उसकी अनुपस्थिति में कोई अशान्ति हुई हो जिसे बुतूग द्वितीय ने शान्त किया।

सिंहासनारोहणोपरांत दो वर्ष के अन्दर इसने आंतरिक शाासन-व्यवस्था एवं सैन्य शक्ति को सुदृढ़ किया। शासन के तीसरे वर्ष से पुनः साम्राज्य विस्तार हेतु अभियान क्रम प्रारम्भ किया।

चोलों से संघर्ष-

सर्वप्रथम उसने दक्षिण की ओर ध्यान दिया। गंगवाड़ी का गंग नरेश बुतूग द्वितीय इसका सम्बंधी ही था तथा उदयेन्दिरम पत्र के अनुसार वाण शासक विक्रमादित्य तृतीय भी मित्र शासक था। उसी समय चोलों का भी काँची-तंजौर में उदय हो रहा था। चोल शासक परांतक प्रथम ने वाण शासक को अपदस्थ कर पृथ्वीपति द्वितीय हस्तिमल्ल को वहाँ का शासक नियुक्त किया। कृष्ण तृतीय पहले से ही चोलों पर आक्रमण करने का अवसर ढूँढ रहा था। जैसे ही परांतक ने विक्रमादित्य तृतीय को अपदस्थ किया, उसे पुनरधिष्ठित करने का बहाना कर उसने चोलों पर आक्रमण कर दिया।

संभवतः प्रारंभ में कृष्ण तृतीय को किंचित असफलता भी प्राप्त हुई क्योंकि परांतक के कन्यामारी अभिलेख के अनुसार परांतक ने कृष्णराज को पराजित कर ‘वीरचोल ’ की उपाधि धारण की थी। यदि इस विवरण में कुछ सत्यांश है तो यह घटना 944 ई. के पूर्व भी हो सकती है। कृष्ण तृतीय की यह असफलता भी क्षणिक एवं प्रभावहीन रही होगी क्यांेकि बहुसंख्यक लेखों से 944 ई. से लेकर शासनांत तक तोण्डैमण्डलम पर इसका अधिकार प्रमाणित होता है।

943 ई. के लगभग कृष्ण तृतीय ने काँची एवं तंजौर तक अभियान किया। दक्षिणी अर्काट जिले के सिद्धलिंगमादम अभिलेख से काँची एवं तंजौर विजय का साक्ष्य प्राप्त होता है। उत्तर अर्काट के शोलापुरम लेख में कन्नरदेव वल्लभ द्वारा राजादित्य की हत्या कर तोण्डैमण्डलम में प्रविष्ट होने का विवरण है। उत्तरी अर्काट के उक्कल विष्णु मंदिर लेख में शासन के 16वें वर्ष में भी कांची-तंजौर विजय का उल्लेख है। उसके शासनकाल के 17वें एवं 19वें वर्ष के दो लेख चिंगलपुट जिले के तिरु नामक स्थान से उपलब्ध हुए हैं जो उपर्युक्त विजयों का विवरण प्रस्तुत करते हैं। 958 ई. में कर्हाद पत्र जारी किया गया जब कृष्ण तृतीय उत्तरी अर्काट के मैल्पति नामक स्थान पर मण्डलाधीशों से उपलब्ध उपहार एवं कर अपने सेवकों में वितरित कर रहा था। इस प्रकार पल्लव एवं चोल अधिकृत क्षेत्र से कृष्ण तृतीय के विभिन्न लेखों की उपलब्धि कर्हाद पत्र की इस युक्ति की पृष्टि करती है कि सम्पूर्ण तोण्डैमण्डलम इसके शासनकाल में राष्ट्रकूट साम्राज्य में निमज्जित कर लिया गया था।

सिद्धलिंगमादम लेख इसके शासन के पाँचवें वर्ष का उल्लेख करता है जिससे 945 ई. तक इन विजयों का काल निर्धारित कर सकते हैं। श्री टी.ए.जी. राव की धारणा है कि तक्कोलम विजय के पूर्व ये विजयें संभव न रही होंगी।

ऐसा प्रतीत होता है कि इसके शासन काल के 5वें वर्ष से निरन्तर संघर्ष चलता रहा जिसका निर्णय 947 ई. के उत्तरी अर्काट के तक्कोलम युद्ध में हुआ। परांतक ने युवराज राजादित्य के नेतृत्व में विशाल सेना राष्ट्रकूटों को अवरुद्ध करने के लिए प्रेषित किया। राष्ट्रकूट सेना का सेनापतित्व गंग बूतुग द्वितीय कर रहा था। अतकूर लेख के अनुसार प्रारंभ में राष्ट्रकूट सेना हतप्रभ रही किन्तु गंग बुतुग द्वितीय तथा मणलेर ने धैर्यपूर्वक सैन्य संचालन किया जिससे परिस्थिति परिवर्तित हो गई। बुतूुग ने गजारूढ़ राजादित्य के हौदे में प्रवेश कर उसका वध किया। प्रारंभ में कतिपय विद्वानों की यह धारणा थी कि बुतूग द्वितीय ने धोखे से गले लगते समय राजादित्य की हत्या कर दी किन्तु चोलों के लीडन दानपत्र के इस विवरण से कि ‘ राजादित्य कृष्ण से संघर्ष करते हुए हाथी के हौदे में दिवंगत हुआ।’ यह मत स्वयमेव ध्वस्त हो जाता है। राजादित्य की हत्या से चोल सेना हतोत्साहित होकर तितर-बितर हो गई तथा राष्ट्रकूटों को विजयश्री प्राप्त हुई। इस विजयाभियान में बुतूग द्वितीय की सेवाओं से प्रसन्न होकर कृष्ण तृतीय ने वनवासी 12000, वैलकेला 300, पुरिगेरे 300, किसुकाड 70 तथा वेगनाड 70 अर्थात् स्थूलतः सम्पूर्ण बाम्बे-कर्णाटक से उसे पुरस्कृत किया।

केरल एवं पाण्ड्य-

चोलों के इस पराजय के बाद राष्ट्रकूट सेना निर्विरोध अग्रसर होती रही और भी दक्षिण बढ़ कर उसने केरल एवं पाण्ड्यों को पराजित किया। तदुपरांत रामेश्वरम को अधिकृत कर वहाँ अपनी कीर्तिलता स्थापित की और वहाँ काल प्रियगंडमहिण्ड एवं कृष्णेश्वर के मंदिरों का निर्माण कराकर उन्हें कुछ गाँव दान में दिया। सिंहल नरेश ने भयभीत होकर स्वयमेव इसकी अधीनता स्वीकार कर ली।

कृष्ण तृतीय की ‘‘तंजैकोण्ड‘‘ उपाधि तोण्डैमण्डलम विजय की सूचिका है। सोमदेव के ‘यशस्तिलक’ ने भी इसे चोल, चेर, पाण्डव तथा सिंहल का विजेता कहा है।

इस प्रकार कृष्ण तृतीय के 5वें एवं 26वें शासन-वर्ष के मध्य तोण्डैमण्डलम से उपलब्ध बहुसंख्यक लेख इसके अधिकार के द्योतक हैं। रामेश्वरम से कृष्णेश्वर तथा गण्डमार्तण्डातित्य नामक मंदिरों का इसने निर्माण कराया। कांची का कालप्रिय मंदिर इसी के शासन काल में निर्मित हुआ। यद्यपि सिंहल, चेर, पाण्ड्य राज्य अधिक काल तक राष्ट्रकूट सीमान्तर्गत न रह सके किन्तु तोण्डैमंडलम पर प्रत्यक्ष शासन कायम रहा। बुतुग द्वितीय ने विशाल भू-भाग पर आज्ञाकारी सामंत के रूप में शासन किया। 953 ई. में बुतूग की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र नोलम्बान्तक मारसिंह भी राष्ट्रकूटों के प्रति कृतज्ञ बना रहा जो कृष्ण तृतीय की बहन रेवकनीम्मडी से नहीं वरन दूसरी पत्नी कोल्लवरसी से उत्पत्र हुआ था।

उत्तरी शक्तियों से सम्बंध-

कृष्ण तृतीय के दक्षिणी अभियान से उत्तर में इसकी स्थिति अधिक प्रभावित हुई। युवराज के रूप में ही चेदियों को आक्रांत कर उनकी सहानुभूति खो दी। चन्देलों में यशोवर्मन तथा धंग जैसे शासकों के उदय होने से उनकी शक्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई। 950 ई. के लगभग जब कृष्ण तृतीय दक्षिणी अभियानों में व्यस्त था, चन्देलों से चित्रकूट तथा कालंजर के दुर्गों को राष्ट्रकूटों से मुक्त कर लिया। राष्ट्रकूट सेना चन्देलों से अवमानित हो कर प्रत्यावर्तित हो रही थी किन्तु कलचुरियों ने मूक द्रष्टा की भाँति राष्ट्रकूटों को कोई सहायता न की। मात्र मध्य प्रान्त का मराठी भाग राष्ट्रकूटों के अधीन रह गया।

मालवा के परमार शासक अभी भी राष्ट्रकूटों की अधीनता स्वीकार कर रहे थे। 949 ई. के परमार सीयक के हर्साेल पत्रों से ज्ञात होता है कि अमोघवर्ष देव का पुत्र अकालवर्ष पृथ्वीवल्लभ सीयक का सम्राट था। उत्तर एवं दक्षिण सम्पूर्ण गुजरात पर परमार सामंत रूप में शासन कर रहे थे।

उत्तर भारत की राजनीति में हस्तक्षेप करने के लिए कृष्ण तृतीय व्यग्र हुआ। गंग शासक बुतुग की मृत्यु के बाद इसने उसके पुत्र मारसिंह को गंग सिंहासन पर अधिष्ठित किया उसने उत्तरी अभियान का सैन्य-संचालन किया। यह द्वितीय अभियान 963 ई. के लगभग प्रारंभ हुआ। मारसिंह के श्रवणबेलगोला लेख में इसे कृष्ण तृतीय के लिए उत्तरी क्षेत्र पर विजय करने के कारण गुर्जश की उपाधि से अलंकृत किया गया है। स्टेनकोनों ने इस गुर्जर शासक को चालुक्य मूलराज बतलाया है किन्तु अल्तेकर इसे परमार सीयक मानते हैं। मारसिंह के दो सेनापतियों गोग्गियम्म एवं शूद्रकय्य को उज्जैनी भुजंग की उपाधि दी गई है। इससे दक्षिणी एवं उत्तरी गुजरात पर मारसिंह द्वितीय के अभियान की जानकारी प्राप्त होती है। सीयक ने आज्ञाकारी सामंत के रूप में वहाँ शासन किया।

मध्य प्रान्त के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में मैहर से 12 मील दूर जूरा से उपलब्ध कन्नड लेख कृष्ण तृतीय को काँची एवं तंजौर का विजेता कहा गया है। ऐसा संभावित ज्ञात होता है कि चित्रकूट एवं कालंजर के दुर्गों को पुनः अधिकृत करने के लिए कृष्ण तृतीय ने उत्तरी क्षेत्र पर पुनरभियान किया। किन्तु इस समय यह अपने उद्देश्य में सफल न रहा। इसे मात्र दक्षिण के विजयों से ही सन्तुष्ट रहना पड़ा।

वेंगी के चालुक्यों से संबंध-

वेंगी के चालुक्यों में उत्तराधिकार के लिए निरंतर संघर्ष चल रहा था। इसने अपने समर्थक युद्धमल्ल द्वितीय के पुत्र वाडय को सिंहासन दिलाने के लिए तत्कालीन वेंगी नरेश अम्म द्वितीय पर 956 ई. में आक्रमण किया। अम्म द्वितीय को कलिंग में शरण लेने के लिए बाध्य होना पड़ा तथा वाडय ने राष्ट्रकूट सामंत के रूप में 970 ई. तक वेंगी मण्डल में शासन किया।

कृष्ण तृतीय की गणना राष्ट्रकूट राजवंश के योग्यतम शासकों में की जाती है। उत्तर भारतीय अभियान में यह ध्रुव प्रथम, गोविन्द तृतीय तथा इन्द्र तृतीय की भाँति सफल न रहा किन्तु राष्ट्रकूट वंश का यह प्रथम शासक था जिसे सत्यार्थ में ‘सकल-दक्षिण दिगधिपति’ कह सकते है। 965 ई. में कृष्ण तृतीय ने दक्षिणापथ के जिस विशाल क्षेत्र पर शासन किया, वह अन्य किसी भी शासक द्वारा संभव न था। वेंगी मण्डल तथा चोलमण्डल को उसने अपने प्रत्यक्ष शासन में रखा तथा रामेश्वरम तक अपनी विजयपताका के रूप में मन्दिरों का निर्माण कराया। यद्यपि उत्तर में परमारों एवं चन्देलों ने अपनी शक्ति का विस्तार किया, किन्तु उत्तर की क्षति की तुलना में दक्षिण का लाभ अधिक श्रेयस्कर रहा। नर्मदा के दक्षिण समस्त भू-भाग का यह स्वामी था।

कृष्ण तृतीय साहित्य एवं विद्वानों का उदार संरक्षक था। कन्नड भाषा के कवि पोन्न को उसका संरक्षण प्राप्त था। पोन्न ने ‘शान्तिपुराण’ की रचना की थी। उसकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर कृष्ण तृतीय ने उसे उभयभाषा चक्रवर्ती (दोनों भाषाओं में पारंगत) की उपाधि प्रदान की। पुष्पदन्त ने ‘ज्वालामालिनीकल्प’ की रचना भी इसी के काल में की थी।

कृष्ण तृतीय के सभी पुत्र संभवतः पिता के शासनकाल में ही चल बसे। एक पुत्र के पुत्र इन्द्र का नाम प्राप्त होता है किन्तु यह अत्यधिक अल्पवयस्क होने के कारण विशाल साम्राज्य को सुरक्षित करने में असफल रहा। कृष्ण का एक भाई जगत्तुंग भी 967 ई. के पहले ही दिवंगत हो गया था। दो अन्य भाई खोट्टिग एवं निरुपम जीवित थे। 967 ई. में कृष्ण तृतीय की मृत्यु के बाद खोट्टिग उत्तराधिकारी हुआ।

राष्ट्रकूट शासक खोट्टिग नित्यवर्ष अमोघवर्ष चतुर्थ (967-72 ई.)

967ई. के लगभग खोट्टिग उत्तराधिकारी हुआ जिसे नित्यवर्ष तथा अमोघवर्ष की उपाधियों से विभूषित किया गया। शक संवत् 894 के करहद अभिलेख के अनुसार कृष्ण तृतीय की मृत्यु के बाद कुन्दकदेवी से उत्पन्न अमोघवर्ष तृतीय का पुत्र एवं कृष्ण तृतीय का छोटा भाई खोट्टिग 967 ई. के आस-पास-राज सिंहासन पर बैठा।

प्रारंभ में इसका शासन-काल शांतिमय रहा किन्तु शनैः-शनैः यह वंश पतन की ओर उन्मुख हुआ। मालवा का परमार शासक सीयक हर्ष कृष्ण तृतीय से पराजित होने के बाद बाध्य होकर उसकी अधीनता स्वीकार कर रहा था किन्तु भीतर ही भीतर राष्ट्रकूटों के विरोध की तैयारी कर रहा था। जैसे ही उसे कृष्ण तृतीय की मृत्यु की सूचना प्राप्त हुई, उसने नर्मदा पार करने का प्रयास किया। राष्ट्रकूट सेना इस अभियान को अवरुद्ध करने में सफल रही तथा एक परमार सेनापति वीरगति को भी प्राप्त हुआ।

परमारों का आक्रमण-

 यह प्रतिरोध अस्थायी रहा। द्विगुणित सैन्यबल से सीयक ने नर्मदा को पार किया। इस स्थिति का सामना करने के लिए खोट्टिग ने गंग परेमानडि मारसिंह को बुलाया किन्तु उसके पहुँचने के पूर्व ही सीयक राष्ट्रकूट राजधानी मालखेद पहुँच गया। परमार चामुण्डराय के अर्जुन लेख तथा परमारों की उदयपुर प्रशस्ति से खोट्टिग के पराजय का ज्ञान प्राप्त होता है। धनपाल का (पैयलक्षी) उस समय लिखा गया जब मालवा नरेश द्वारा मान्यखेत लूटा गया था। मारसिंह द्वितीय के लेखों में ताप्ती, विन्ध्य एवं मान्यखेत इत्यादि को संघर्ष स्थल बतलाया गया है जिससे मान्यखेत तक परमारों की उपस्थिति का ज्ञान प्राप्त होता है।

उपर्युक्त विवरण से यह ज्ञात होता है कि जब सीयक मान्यखेत के लूट में व्यस्त था, उसी समय मारसिंह द्वितीय मान्यखेत पहुँचा। यदि श्रवणबेलगोला लेख पर विश्वास किया जाय तो मारसिंह ने सीयक को मान्यखेत से प्रत्यावर्तन के लिए बाध्य किया, तदुपरांत ताप्ती एवं विन्ध्य तक पीछा किया। इस सम्बंध में अधिक संभव यह प्रतीत होता है कि सीयक का उद्देश्य मान्यखेत को अधिकृत करना न था, वह उसे लूटने के बाद स्वाभाविकतः लौट रहा था तथा मारसिंह ने ताप्ती एवं विन्ध्य तक के क्षेत्र को सुरक्षित किया।

मान्यखेट की यह दुर्गति 972 ई. में हुई। खोट्टिग एकदम वृद्ध हो चला था। वह इस अपमान को सहन करने में असमर्थ रहा तथा उसी वर्ष के अगस्त या सितंबर में दिवंगत हुआ। यह भी पुत्रहीन रहा, इसलिए उसके भाई निरुपम का पुत्र कर्क उत्तराधिकारी हुआ।

राष्ट्रकूट शासक कर्क द्वितीय (972-973 ई.)

यह सितम्बर, 972 ई. में राष्ट्रकूट सिंहासन पर आसीन हुआ जिसे नृपतुंग, वीर नारायण, राजत्रिनेत्र एवं अमोघवर्ष जैसी उपाधियाँ प्रदान की गई हैं। वह शिव का परम भक्त था।

कर्क द्वितीय के कर्हाद पत्र में यद्यपि इसे पाण्ड्य, हूण, चोल एवं गुर्जर विजेता कहा गया है किन्तु यह अत्युक्ति मात्र है, उसमें कोई सत्यांश नहीं है। सिंहासनारोहण के एक माह पश्चात् ही जारी किये गये इस पत्र में कवि कल्पना ही संभव है, उपर्युक्त विजयें कर्क द्वितीय जैसे शासकों के लिए असंभव है।

परमार सीयक ने इसके सिंहासनारोहण के पूर्व ही मालखेद को आक्रांत कर यह सिद्ध कर दिया कि कृष्ण तृतीय के उत्तराधिकारियों में वह शक्ति नही है जो वंश लक्ष्मी की रक्षा कर सके। इस घटना से सामंतों के हृदय में साम्राज्य के प्रति आकांक्षाएँ उत्पन्न हुई।

कृष्ण तृतीय के काल से ही एक आज्ञाकारी सामंत के रूप में चालुक्य तैलप द्वितीय बीजापुर जिले में बेगवाड़ी या तर्डवाडी के लघु राज्य पर शासन कर रहा था। 965 ई. के लेखों में उसे महासामंताधिपति की उपाधि दी गई है। वह अपने को बादामी के चालुक्यों का वंशज मानता था तथा उस विशाल साम्राज्य को पुनः स्थापित करना चाहता था जिससे लगभग दो शताब्दियों के लिए उन्हें वंचित कर दिया था। विक्रमादित्य षष्ठ के गडग लेख के अनुसार मार्च, 973 एवं मार्च, 974 के मध्य राष्ट्रकूट राजवंश का उन्मूलन हुआ। तैलप द्वितीय ने कर्क द्वितीय को उत्तरी कर्णाटक के किसी युद्ध में पराजित किया। कर्क द्वितीय ने पलायन के बाद शीघ्र ही तैलप द्वितीय ने मालखेद को अधिकृत कर लिया। कृष्ण तृतीय के पौत्र इन्द्र चतुर्थ ने मारसिंह की सहायता के सिंहासन को पुनः अधिकृत करने का प्रयास किया किन्तु असफल रहा। इस असफलता से क्षुब्ध होकर दोनों जैन भिक्षु बन गये तथा निरंतर उपवास करके परलोक चले गये। इस प्रकार दिसम्बर, 973 ई. में तैलप द्वितीय से राष्ट्रकूट राजवंश के दीप को बुझा कर चालुक्य दीप को प्रज्वलित किया जो १२वीं शताब्दी के अंत तक जगमगाता रहा।

  राष्ट्रकूटों के पतन के कारण

राष्ट्रकूट ने लगभग 735 ई. से लेकर 975 ई. तक न मात्र दक्षिणापथ वरन् सम्पूर्ण भारत की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। 967 ई. में कृष्ण तृतीय के काल तक नर्मदा के दक्षिण का समस्त भू-भाग राष्ट्रकूट-प्रशासन का क्षेत्र रहा किन्तु 973 ई. में ही यह वंश मात्र स्मृति पर ही अवशिष्ट रहा। इनका यह शीघ्र पतन इतिहास में एक आश्चर्यजनक घटना है। यदि इसके कारणों की समीक्षा की जाय तो यह कहा जा सकता कि कृष्ण तृतीय ने यदि नर्मदा से रामेश्वरम तक एक सुदृढ़ शासनव्यवस्था स्थापित की तो उसी ने अपनी अदूरदर्शिता के कारण उन गहन गर्तों का भी निर्माण किया जिनमें यह वंश वट ढह गया।

कृष्ण तृतीय का उत्तरदायित्व- कृष्ण तृतीय की आक्रामक नीति ने राष्ट्रकूटों के चिरमित्र राज्य एवं आज्ञाकारी सामंतों को विद्रोही के रूप में परिवर्तित कर दिया जो इनकी विनाशलीला को मूकदर्शक के रूप में देखते रहे, उसके उद्धार के लिए कोई प्रयास नहीं किये। चेदियों के साथ मैत्री सम्बंध के कारण इनकी उत्तरी सीमा सदैव सुरक्षित रही। यहाँ तक कि कृष्ण द्वितीय जैसा राष्ट्रकूट शासक चेदि कोक्कल की महती सेवाओं से लाभान्वित हुआ। जब गोविन्द चतुर्थ की विलासिता इस वंश की नींव को डगमगाने लगी तो कलचुरि युवराज प्रथम ने अपने दरबार में शांतिमय जीवन-यापन करने वाले राष्ट्रकूट अमोघवर्ष तृतीय को राष्ट्रकूट सिंहासन पर अधिष्ठित कर राष्ट्रकूट सूर्य को अस्ताचल से उबार लिया। यहाँ तक कि कृष्ण तृतीय को भी सिंहासन दिलाने में कलचुरियों का विशेष योगदान रहा किन्तु यह इतना हेय कृतघ्न निकला कि अपनी पत्नी एवं माँ जो चेदि राजकुमारियाँ थीं, के सम्बंधों की अवहेलना करते हुए चेदियों पर आक्रमण कर उनकी सहानुभूति खो दी। इसके विपरीत इस वंश का उन्मूलक चालुक्य तैलप द्वितीय कलचुरियों का स्नेह भाजन बना। तैलप द्वितीय की माँ चेदि शासक लक्ष्मण की पुत्री थी। यह संभव है कि लक्ष्मण ने राष्ट्रकूटों के विरुद्ध तैलप द्वितीय को मालखेद का सिंहासन दिलाने में सहयोग दिया हो।

कृष्ण तृतीय ने चेदियों से शत्रुता उत्पन्न कर भूल तो किया ही, साथ ही किंचित नवीन शक्तियों को उदय के लिए ऐसा अवसर प्रदान किया कि वे ही इसकी मृत्यु के बाद घातक सिद्ध हुए। उसने परमारों को उत्तर एवं दक्षिण सम्पूर्ण गुजरात का शासक नियुक्त किया। जब तक कृष्ण तृतीय जीवित था, परमार उसके वफादार बनने के लिए बाध्य रहे किन्तु इसकी मृत्यु के शीघ्र बाद ही खोट्टिग को आक्रांत किया तथा राष्ट्रकूट राजधानी मालखेद को लूटकर उसे एकदम जर्जर बना दिया। इसी प्रकार कृष्णा के दक्षिण का समस्त क्षेत्र गंगों के अधीन सौंप कर उसने केन्द्रीय शक्ति को निर्बल किया। इस प्रकार कृष्ण तृतीय नेही राष्ट्रकूटो के विनाश का पथ प्रशस्त कर दिया था जिससे शीघ्र ही यह वंश अस्ताचल को प्राप्त हुआ।

कृष्ण तृतीय की उपर्युक्त भूलों के बावजूद भी यह वंश वृक्ष स्थिर रहा होता यदि उसकी रक्षा करने वाले उत्तराधिकारी सशक्त एवं योग्य रहे होते। खोट्टिग एवं कर्क द्वितीय मंे वह दूरदर्शिता, क्षमता एवं प्रशासनिक योग्यता न थी जो इस विशाल धरोहर को सुरक्षित रख सकें।

कृष्ण तृतीय के बाद केन्द्रीय शक्ति इतनी क्षीण हो चुकी थी कि स्थानीय शक्तियों पर इनका स्थायी नियंत्रण न रह सका। कोंकण के शिलाहार, सौन्दति के रट्ट तथा सेउणदेश के यादवों ने इनकी सत्ता की उपेक्षा की। वेंगी के चालुक्यों पर कोई राजनीतिक प्रभाव न रहा। राष्ट्रकूट परिवार में आंतरिक विद्रोह भी चल रहा था जिससे तैलप द्वितीय लाभान्वित हुआ। तैलप का विवाह एक राष्ट्रकूट भम्मह की राजकुमारी लक्ष्मी के साथ हुआ था। इसलिए संभव है कि राष्ट्रकूटों का भी एक वर्ग तैलप द्वितीय का समर्थक रहा हो। धारवार जिले के लक्ष्मेश्वर के चालुक्य शासक वट्टिग द्वितीय तथा खानदेश के यादव शासक भिल्लम द्वितीय भी तैलप द्वितीय का समर्थन कर रहे थे। इस प्रकार राष्ट्रकूट सामंतों एवं पड़ोसी शासकों का एक वर्ग तैलप द्वितीय के उद्देश्य प्राप्ति में पूर्ण सहयोग कर रहा था।

तत्कालीन परिस्थितियों के अतिरिक्त कुछ ऐसे भी कारण ज्ञात होते हैं जो दीर्घकाल से इनकी निर्बलता की प्रतीक्षा कर रहे थे। शक्तिशाली शासकों के काल में उनका प्रभाव नगण्य रहा किन्तु पतनकाल में दूरगामी प्रभाव पड़ा। ध्रुव प्रथम, गोविन्द तृतीय तथा अन्य राष्ट्रकूट शासकों के उत्तराधिकार के लिए जो गृह-युद्ध हुए तथा गोविन्द चतुर्थ की अकर्मण्यता एवं अमोघवर्ष तृतीय की उदासीनता को भी इस आरोप से वंचित नहीं किया जा सकता।

राष्ट्रकूटों के निरंतर उत्तर भारतीय अभियान से इनकी आर्थिक स्थिति अवश्य ही प्रभावित हुई होगी क्योंकि शक्ति प्रदर्शनार्थ जो दिग्विजय का क्रम ध्रुव प्रथम, गोविन्द तृतीय एवं इन्द्र तृतीय ने सम्पन्न किया, उससे कोई भी भौतिक लाभ न हुआ। इससे एक तो इनकी आर्थिक क्षति हुई, दूसरे उत्तर के शासक इनके वंशानुगत शत्रु बने जिसका दुष्परिणाम अमोघवर्ष प्रथम जैसे अयोग्य शासकों को भुगतना पड़ा तथा तीसरे इनकी दीर्घ अनुपस्थिति में राष्ट्रकूट राजधानी में प्रायः विद्रोह हुआ करते थे। इसलिए इनके उत्तर भारतीय अभियान को भी इनके पतन का दीर्घकालीन परोक्ष कारण कह सकते हैं।

इस प्रकार राष्ट्रकूटों ने जिस विशाल साम्राज्य की स्थापना की, उसके विनाश को प्रकृति के नियमानुकूल अस्वाभाविक नहीं कह सकते। वैज्ञानिक दृष्टि से उस अविकसित युग में कोई भी राजवंश इतने दीर्घकाल तक शासन करने के बाद भी अक्षुण्ण रह सके, इसकी कल्पना ही नहीं करनी चाहिए। हाँ यह ज्ञात होने पर अवश्य ही आश्चर्य होता है कि इसका पतनकाल अत्यन्त ही अल्पकालिक रहा।

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