राष्ट्रकूट शासक गोविन्द द्वितीय एवं ध्रुव प्रथम(Rashtrakuta ruler Govind II and Dhruva I)

कृष्ण प्रथम के उपरांत उसका ज्येष्ठ पुत्र गोविन्द द्वितीय उत्तराधिकारी हुआ जिसे प्रभूतवर्ष, विक्रमावलोक अथवा प्रतापावलोक इत्यादि उपाधियों से विभूषित किया गया है। एक युवराज के रूप में उसने वेंगी के चालुक्यों को पराजित कर अपने शौर्य का परिचय दिया था। 773 ई. के लगभग सिंहासनारोहण के बाद दौलताबाद दानपत्रों के अनुसार पारिजात नामक शासक को पराजित कर गोवर्धन की रक्षा की थी। किन्तु अभी तक यह निश्चितरूपेण स्थिर नहीं किया जा सका कि यह पारिजात कौन था तथा गोवर्धन की रक्षा की आवश्यकता क्यों पड़ी। चूँकि गोवर्धन नासिक जिले में है जहाँ उसका अनुज ध्रुव गर्वनर के रूप में शासन कर रहा था। संभव है कि ध्रुव ने किसी प्रकार विद्रोह किया हो जिसे अस्थायी रूप से इसने पराजित किया हो।

गोविन्द द्वितीय का शासन काल सिंहासनार्थ संघर्षों से परिपूर्ण रहा। यह एक विलासप्रिय तथा अकर्मण्य शासक रहा। कर्हाद पत्रों के अनुसार गोविन्द ने सम्पूर्ण शासनाभार अपने अनुज ध्रुव पर छोड़ दिया तथा स्वयं आनन्द सागर में लिप्त हो गया। ध्रुव ने गोविन्द द्वितीय की अयोग्यता से लाभ उठा कर सिंहासन को हड़पने की योजना बनाई। कभी तो यह गोविन्द द्वितीय की अधीनता स्वीकार करता एवं कभी स्वतंत्र शासक के रूप में दानपत्रों को जारी करता। जैसे ही गोविन्द द्वितीय को यह आभास हुआ, उसने ध्रुव को प्रशासन से पृथक् कर दिया। इस आंतरिक कलह से उत्साहित होकर सामन्तों ने  अपनी स्वाधीनता घोषित करना प्रारंभ किया। दौलताबाद पत्रों के अनुसार ध्रुव ने राष्ट्रकूट राज्य-लक्ष्मी को प्रतिस्थापित करने के लिए गोविन्द द्वितीय को सिंहासन से पदच्युत करना चाहा। गोविन्द द्वितीय ने सिंहासन की लिप्सा से काँची, गंगवाडी, वेंगी तथा मालवा के शासक का एक संघ बना कर ध्रुव को नियंत्रित करने के लिए आगे बढ़ा। गोविन्द द्वितीय के मित्रराज्य समयानुकूल उपस्थित होने में असमर्थ रहे तथा ध्रुव संघ को विघटित कर राष्ट्रकूट सिंहासन को प्राप्त करने में सफल रहा।

डॉ. डी. आर. भण्डारकर ने ध्रुव के पिम्पेरी पत्रों के आधार पर इसका समय 775 ई. माना है। किन्तु अल्तेकर ने इस घटना की तिथि 780 ई. के लगभग माना है। गोविन्द द्वितीय के विषय में इसके बाद कोई सूचना नहीं प्राप्त होती। संभवतः इसी युद्ध में वह परलोकवासी हो गया। 780 ई. के लगभग ध्रुव निरापद सम्राट के रूप में राष्ट्रकूट राजपीठ पर आसीन हुआ।

ध्रुव धारावर्ष ( 780-93 ई0)

अपने अग्रज गोविन्द द्वितीय को अपदस्थ कर राष्ट्रकूट सिंहासन पर आसीन हुआ। धारावर्ष, निरुपम तथा कलिवल्लभ की उपाधियों को धारण किया। गोविन्द द्वितीय के धुलिया पत्रों तथा जिनसेन के हरिवंश पुराण के आधार पर अल्तेकर ने इसके सिंहासनारोहण की तिथि 780 ई. लगभग मानी है। हरिवंश पुराण के अनुसार कृष्ण का पुत्र क्षीरवल्लभ 783 ई. में दक्षिण में शासन कर रहा था।

                                शाकेष्वब्दशतेषु सप्तम् दिशां पंचोत्तरेषतरोम ।

                            पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्णनृपजेश्रीवल्लभे दक्षिणाम्।।

गोविन्द द्वितीय तथा ध्रुव दोनों ने श्रीवल्लभ की उपाधि धारण की थी। चूँकि गोविन्द की मृत्यु 783 ई. के पहले ही हो गयी थी, इसलिए हरिवंश पुराण में सभवतः ध्रुव प्रथम का उल्लेख हुआ है। वेंगी नरेश विष्णुवर्धन चतुर्थ की पुत्री शील महादेवी इसकी राजमहिषी थी।

गोविन्द द्वितीय एवं ध्रुव के गृहयुद्ध के कारण आन्तरिक स्थिति निर्बल हो चली थी। इसलिए सिंहासन प्राप्त कर उसने सर्वप्रथम उन राज्यों को सम्प्रभ्ता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया जो इसके विरुद्ध अपना सिर उठा रहे थे तलकाड, वेंगी, काँची तथा मालवा के शासकों ने गोविन्द द्वितीय का साथ देकर स्वाभाविक शत्रुता मोल ली थी।

गंगवाड़ी पर विजय- ध्रुव ने सर्वप्रथम अपने दक्षिणी पड़ोसी गंगवाड़ी की ओर ध्यान दिया जो कृष्ण प्रथम के काल में राष्ट्रकूटों की अधीनता स्वीकार कर रहे थे। समकालीन गंगशासक शिवमार द्वितीय कृष्ण प्रथम द्वारा पराजित श्रीपुरुष का पुत्र था। ध्रुव ने उसे दण्डित करने के लिए गंगवाड़ी को आक्रांत किया। गंग लेखों से ज्ञात होता है कि शिवमार ने राष्ट्रकूटों, चालुक्यों एवं हैहयों से युक्त बल्लभ सेना को पराजित किया था। किन्तु ध्रुव के समक्ष यह एकदम निर्बल था। राष्ट्रकूट लेखों में न मात्र शिवमार की पराजय वरन् उसे बन्दी बनाने का भी उल्लेख है। गंगों के मन्ने लेख से ज्ञात होता है कि शिवमार चतुर्दिक आपत्तियों से ग्रस्त था। ध्रुव का अभियान पूर्णतः सफल रहा। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र स्तंभ रणावलोक को गंगवाड़ी का शासक नियुक्त किया।

पल्लव विजय- गंगों को पराजित करने के बाद ध्रुव ने काँची के पल्लवों की ओर ध्यान दिया जिसने राष्ट्रकूट गृहयुद्ध में गोविन्द द्वितीय का साथ दिया था। पल्लव नरेश दन्तिवर्मन पराजित हुआ राधनपुर अनुदान पत्र के अनुसार एक ओर समुद्र तथा दूसरी ओर राष्ट्रकूटों की अगणित सेनारूपी समुद्र से घिर जाने पर पल्लव शासक भयभीत हो गया और अपनी सेना के बहुत से हाथी ध्रुव को भेंट की तथा उपहार में ध्रुव को अनेक हाथी प्राप्त हुए। ध्रुव प्रथम दक्षिणी सीमा को सुरक्षित कर राजधानी वापस आया। इन युद्धों में ध्रुव को अपने श्वसुर वेंगीनरेश विष्णुवर्धन चतुर्थ से सैनिक सहायता प्राप्त हुई थी।

उत्तर भारत पर अभियान- अब ध्रुव उत्तर-भारत की राजनीति में हस्तक्षेप करने के लिए तत्पर हुआ। ध्रुव के कई उत्तराधिकारियों ने विन्ध्य पार कर उत्तर की शक्तियों को प्रभावित करने का प्रयास किया। उस अभियान के क्या कारण हो सकते हैं, इस सम्बंध में विद्वानों ने विभिन्न संभावनायें व्यक्त की है।

कारण- पालवंशीय गौड़ नरेश धर्मपाल का विवाह एक राष्ट्रकूट राजकुमारी रण्णादेवी के साथ हुआ था जो परवल की पुत्री थी। यह परवल कौन था? फ्लीट महोदय ने गोविन्द तृतीय माना है। संभव है कि यह कोई राष्ट्रकूट सामन्त रहा हो। किंचित विद्वानों की यह धारणा है कि पालों के निमंत्रण पर उनके सहायक के रूप में ध्रुव ने वत्सराज पर आक्रमण किया था। अल्तेकर के अनुसार – ध्रुव द्वारा धर्मपाल की पराजय से यह धारणा मान्य नहीं हो सकती है। किन्तु यह विचार एकदम निराधार भी नहीं कहा जा सकता क्यांेकि उसी प्रकार की घटना जयचंद एवं मूहम्मद गोरी के काल में भी घटी थी। जयचंद द्वारा मुहम्मद गोरी समर्थित था किन्तु पृथ्वीराज तृतीय के बाद मुहम्मद गोरी ने जयचंद को भी पराजित। किया था। संभव है कि ध्रुव प्रथम ने भी इसी तरह का व्यवहार किया हो।

 इस अभियान को प्रतिक्रियावादी नीति का परिणाम भी स्वीकार किया गया है। दक्षिण भारत प्रारंभ से ही उत्तर भारतीय शक्तियों द्वारा अभिभूत रहा। आर्यों के आगमन काल से यह क्रम प्रारंभ हुआ। नन्दों, मौर्यों तथा गुप्तों के काल में निर्विवाद रूप से दक्षिण भारत पर उनका अधिकार स्थापित था। उसके प्रतिशोध में सशक्त दक्षिण के शासकों ने विन्धय पार कर उत्तर भारत को आक्रांत करने का निरंतर प्रयास किया था। सातवाहनों, चालुक्यों, राष्ट्रकूटों, चोलों तथा यादवों ने इसमें सफलता भी प्राप्त की।

डॉ. बी. पी. सिन्हा ने इस अभियान को आर्थिक उद्देश्य से उत्प्रेरित माना है। गंगाघाटी की आर्थिक सम्पन्नता ने अनेक आक्रमणकारियों को आमंत्रित किया। इस काल में कन्नौज की राजनीतिक प्रतिष्ठा अखिल भारतीय आधिपत्य के तुल्य थी जिसे अधिकृत करने के लिए पालों एवं प्रतिहारों की भाँति राष्ट्रकूटों ने भी शक्ति परीक्षण किया।

ध्रुव प्रथम के अभियान का तात्कालिक कारण ध्रुव एवं गोविन्द द्वितीय के संघर्ष में प्रतिहार शासक द्वारा गोविन्द द्वितीय का समर्थन ही प्रतीत होता है।

प्रतिहारों तथा पालों से संघर्ष- ध्रुव प्रथम के उत्तरी अभियान के समय उत्तर भारत में पालों एवं प्रतिहारों के मध्य कन्नौज के लिए भयंकर संघर्ष चल रहा था। भोज प्रथम की ग्वालियर प्रशस्ति से यह ज्ञात होता है कि प्रतिहार नरेश वत्सराज ने 783 ई. के बाद शीघ्र ही कन्नौज नरेश इन्द्रायुद्ध को पराजित कर उसे अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया था। पालनरेश धर्मपाल जो संभवतः इन्द्रायुद्ध का संबंधी था, उसकी सहायता के लिए आगे बढ़ा। वंनि-डिन्डोरी लेख से यह ज्ञात होता है कि धर्मपाल अपने उद्देश्य में असफल रहा। वत्सराज इस गौड़-नरेश को पराजित कर दर्पयुक्त हो गया। संजन ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि गंगा-यमुना दोआब में ध्रुव के आक्रमण के समय पाल प्रतिहार सेनाएँ संघर्षरत थीं। वत्सराज धर्मपाल पर विजय प्राप्त कर चैन से न रह पाया क्योंकि ध्रुव ने उसे पराजित कर उन दो श्वेत छत्रों को अपहत कर लिया जिसे उसने पालों से छीना था। वत्सराज को राजस्थान की मरुभूमि में शरण लेनी पड़ी। वत्सराज के पराजय के बाद ध्रुव प्रथम ने दोआब के ही धर्मपाल को पराजित किया। संजन ताम्रपत्र से निश्चित जानकारी प्राप्त होती है कि गंगा-यमुना के दोआब में धर्मपाल की राजलक्ष्मी के लीला कमल श्वेत छत्रों का अपहरण ध्रुव प्रथम द्वारा हुआ था।                              

                                                                गंगा यमुनायोर्मध्ये राज्ञो गौडस्य नश्यतः।

                                                                लक्ष्मीलीलारविन्दानि श्वेतच्छत्राणि योऽहरत्।।

                प्रिन्सेप महोदय ने भ्रमवश इसका अभिप्राय ध्रुव प्रथम द्वारा गंगा-यमुना के संगम में जल समाधि लेने में लिया है। वंनि-डिंडोरी दान-पत्र में वत्सराज से दो श्वेत छत्र के अपहरण का उल्लेख है जिसे उसने धर्मपाल से छीना था। बी0सी0 सेन महोदय की धारणा है कि संज्जन-पत्र में भी उसी युद्ध का संकेत है। डी0 आर0 भण्डारकर महोदय का अनुमान है कि वत्सराज की पराजय के बाद ध्रुव प्रथम के विरूद्ध वत्सराज तथा धर्मपाल ने सम्मिलित युद्ध किया। किन्तु वत्सराज के पलायन के बाद इस संघ की कल्पना निराधार प्रतीत होती है। संभवतः वत्सराज की पराजय से प्रोत्साहित होकर धर्मपाल आगे बढ़ा हो और प्रत्यावर्तन के समय ध्रुव ने उसे पराजित किया हो। इस प्रकार धर्मपाल पहले वत्सराज, उसके बाद ध्रुव प्रथम, दोनों से पराजित हुआ। संज्जन-पत्रों की इसी उक्ति का समर्थन कर्क सुवर्णवर्ष के सूरत दानपत्र से भी होता है जिसमें शिव एवं ध्रुव दोनों को‘‘गाङ्गौघ सन्ततिनिरोध विवृद्ध कीर्तिः’’कहा गया है ।

यो गंगायमुने तरंगसुभगे गृहणन्परेभ्यः समम्।

साक्षाच्चिहानिभेन चोत्तमपदम् तत्प्राप्तवानीश्वरम्।।  ( सूरत दानपत्र )

इसका अभिप्राय गंग शासक से भी है किन्तु ‘ गंगा की जलधारा के ध्रुव प्रथम की विशाल सेना से अवरुद्ध होने से बड़े कीर्ति वाला ’ और अधिक समीचीन है। जो गंगा तक ध्रुव प्रथम के विजय का प्रमाण है। कर्क के ही बड़ौदा ताम्रपत्र में ‘ गंगा-यमुना के सुभग तरंगों को ग्रहण करने से ध्रुव ने उत्तमपद ’ ईश्वरता को प्राप्त किया था, ’ वर्णित है। प्रिन्सेप महोदय ने इसका अर्थ ध्रुव प्रथम द्वारा गंगा-यमुना के संगम में प्राण देने से ग्रहण किया है किन्तु अल्तेकर का यह विचार अधिक तर्कयुक्त है कि गंगा-यमुना तक अधिकार प्राप्त करने के कारण स्वर्गीय सुखों की अनुभूति की कल्पना की गई है।

इस प्रकार ध्रुव ने वत्सराज एवं धर्मपाल को पराजित कर 790 ई. तक पाल-प्रतिहार आकांक्षाओं पर तुषारापात किया। यह अभियान मात्र दिग्विजय स्वरूप था। ध्रुव प्रथम को अपनी आंतरिक स्थिति को नियंत्रित करने के लिए शीघ्र ही प्रत्यावर्तन करना पड़ा।

ध्रुव की मृत्यु अप्रैल, 793 ई0 तथा मई, 794ई0 के मध्य कभी हुई। अपने त्रयोदश वर्षीय शासन-काल में ध्रुव प्रथम राष्ट्रकूट साम्राज्य न मात्र दक्षिण में ही सुदृढ किया वरन् राष्ट्रकूटों को अखिल भारतीय शक्ति के रूप में परिणत कर दिया। प्रथम बार विंध्य पार उत्तर भारत की शक्तियों को नतमस्तक किया। अपने अग्रज गोविन्द द्वितीय को अपदस्थ करके भी इसने न्याय ही किया था क्योंकि वह एकदम विलासी एवं अकर्मण्य शासक था जिससे उस राजवंश के अस्तित्व के लिए ही खतरा उत्पन्न हो गया था। यही कारण है कि उसके सिंहासनारोहण को प्रजा ने गदगद हृदय से स्वागत किया। यद्यपि उत्तरी अभियान से इसकी साम्राज्य सीमा में कोई परिवर्तन न आया फिर भी दक्षिण में कावेरी तक निर्विघ्न साम्राज्य स्थापित करने में सफल रहा। इस प्रकार राष्ट्रकूट वंश की सुदृढता की जो नीव ध्रुव प्रथम ने स्थापित की, वह इसके उत्तराधिकारियों के लिए आदर्श बनी। ध्रुव ने कलिवल्लभ (युद्ध से प्रेम करने वाला), निरुपम (अद्वितीय), धारावर्ष, श्रीवल्लभ, परमेश्वर, महाराजाधिराज आदि उपाधियाँ धारण कीं। उसकी अग्रमहिषी शीलभट्टारिका के नाम से भी आदेश जारी किये जाते थे उसका राज्य उत्तर में मालवा से लेकर दक्षिण में कावेरी नदी की घाटी तक विस्तृत था।

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