मध्य पाषाण काल:(Mesolithic Age)
मध्य पाषाणकाल का समय लगभग 10हजार से 5हजार ई0पू0 था। पुरा पाषाणकाल के अवसान के बाद पारिस्थितिकीय एवं पर्यावरणीय दशाओं में बदलाव आया। जलवायु में आर्दता आने के फलस्वरूप घने जंगलों एवं झाड़ियों का विकास हुआ तथा विशालकाय जीवों के स्थान पर छोटे- छोटे जीव-जन्तुओं का प्रादुर्भाव हुआ। मध्य पाषाणकाल को अंग्रेजी में मेसोलिथिक एज कहा जाता है। लेकिन यह मिडिल स्टोन एज अर्थात् जिसका शाब्दिक रूपान्तरण मध्य पाषाण काल है से नितान्त भिन्न है। मिडिल स्टोन एज शब्द दक्षिण अफ्रीका के प्रस्तर कालीन वर्गीकरण पर आधारित है। मध्य पाषण काल पुरापाषाण काल और नवपाषाण काल के बीच की कड़ी है। प्रारम्भ में पुराविद् पुरापाषाण काल एवं नवपाषण काल के मध्य एक लम्बा अन्तराल होने के कारण मध्य पाषाण काल का अस्तित्व नहीं स्वीकार करते थे। कुछ समय पूर्व तक मध्यपाषाण काल की स्थिति, उत्पत्ति एवं विकास एक समस्या थी क्योंकि लघुपाषाणिक उपकरण स्तरित जमावों से नहीं प्राप्त हुए थे। ये उपकरण अनेक स्थानों पर पृथ्वी से प्रतिवेदित हैं, किन्तु इससे समस्या का निराकरण नहीं हो सका। यूरोप एवं भारत के लघुपाषाण उपकरणों के विकास क्रम में भिन्नता है। भारत में मध्यपाषण काल के बाद मध्यपाषाणिक उपकरणों का विकास हुआ। स्तर क्रम की दृष्टि से मध्य पाषाण काल उच्च पूर्वपाषाण काल का परवर्ती एवं नवपाषाण काल का पूर्ववर्ती माना जाता है। भारत में अब निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि उच्च पूर्वपाषाणिक संस्कृतियों से ही मध्यपाषाण काल का विकास हुआ।
यह काल पुरापाषाण काल और नवपाषाण काल दोनों संस्कृतियों की विशेषताओं को सहेजे हुए है। मध्यपाषाण काल को पुराविदों ने अनु-पुरापाषाण काल, आद्य-नव पाषाण काल एवं मध्यपाषाण काल, संक्रमण काल आदि विविध नामों से नामकरण किया। लेकिन यह काल मध्यपाषाण काल से अधिक प्रचलित हुआ। इस काल को ‘‘ मेसोलिथिक एज ’’ भी कहा जाता है। जो यूनानी शब्द ‘‘ मेसोस ’’ एवं ‘‘ लिथाॅस ’’ से बना है। ‘ मेसोस ’ का अर्थ है-‘ मध्य ’ एवं ‘ लिथाॅस का अर्थ होता है ‘ पाषाण ’, अर्थात् मध्यपाषाण काल। इस काल के उपकरण अत्यन्त लघु हो जाते हैं। इन उपकरणों की लम्बाई लगभग 1-5 सेमी.माइक्रोलिथ होती है। इसलिए इन उपकरणों को लघुपाषाण उपकरण कहा गया। मध्यपाषाण काल का महत्व पूर्ववर्ती संस्कृतियों से अधिक है। मानव विकास के साथ ही यह धरती के विकास के इतिहास में भी एक नयी स्थिति का परिचायक है। उच्च पुरापाषाण काल तक अतिशीतल एवं अति वर्षा की स्थिति थी। जिसके फलस्वरूप पृथ्वी का अधिकांश भू-क्षेत्र दलदली या जल प्लावित थे अथवा हिम आच्छादित थे। जिसके कारण जलवायु मानव एवं वनस्पतियों के विकास के अनुकूल नहीं थी। लेकिन उच्चपुरापाषाण काल के अन्तिम चरण तक लगभग सभी भू-भागों में समशीतोष्ण जलवायु का प्रारम्भ हुआ। हिमाच्छिादित क्षेत्रों में बर्फ की चादरें उठने लगी और दलदली मैदान सूखने लगे। इस युग को ‘ सर्वनूतन युग ’ कहा गया। इन परिवर्तनों के फलस्वरूप पृथ्वी पर अनेक बदलाव हुए। जहाँ पहले बर्फ थी वहाँ अब घास के मैदान बन गया, अति वर्षा वाले भू-क्षेत्रों में घने जंगलों में परिवर्तित हाने लगा। जंगली घासों के उदय ने मानव को संभवतः अन्न उत्पादन के लिए प्रेरित किया होगा। अर्थात् इस काल को आधुनिक अनाजों का पूर्ववर्ती माना जा सकता है। इस जलवायु परिवर्तन के कारण धरती पर विचरण करने वाले जीव -जन्तुओं को भी प्रभावित किया। अपेक्षाकृत गर्म जलवायु के कारण विशालकाय मैमन एवं घने बालों वाले गैंडे धीरे-धीरे लुप्तप्राय होने लगे। और नवीन जीव-जन्तुओं का आर्विभाव इस धरातल पर हुआ, जैसे, बकरी, छोटे भेंड, हिरण आदि। इन परिवर्तनों से मानव अछूता नहीं रहा। क्योंकि कोई भी जीव विशेष कर मानव वातावरण से अलग नहीं रह सकता। उनका जीवन यापन एवं खानपान उन परिस्थितियों से प्रभावित होता है, जिनके बीच रहकर वह अपना जीवन यापन करता है। परिवर्तित जलवायु परिवर्तन से उसने सामंजस्य स्थापित करने के लिए उसकी जीवन पद्धति में भी बदलाव होना आवश्यक था। उच्चपाषाण काल तक मानव जीवन मुख्यतः आखेट पर ही निर्भर रहा। आखेट के लिए धनुष-बाण व्यापक पैमाने पर उपयोग होने लगा था। इस काल का मानव पशुओं के शिकार के अलावा मछली, कछुआ आदि जलचरों का शिकार अपनी भूख मिटाने के लिए करता था। हालैण्ड के ‘ पेस ’ नामक मध्य पाषाणिक पुरास्थल से लकड़ी की एक डोंगी मिली है जिसकी तिथि 6250 ई0पू0 है। अतः हम कह सकते हैं कि लकडी़ की डोंगी का सर्वप्रथम निर्माण का श्रेय मध्य पाषाणिक मानव ने किया था। लेकिन इस काल का मानव जंगली घास एवं वनस्पतियों के बीजों तथा फलों का संचय एवं प्रयोग करने लगा था। इसलिए उसे ‘ संचयक मानव ’ कहा जाता है। जो इस काल की विशेष उपलब्धि थी। इस समय खेती का प्रारम्भ एवं उद्योग के रूप में पशुपालन का शुभारम्भ नहीं हुआ था।
उच्च पुरापाषाण काल के बाद विश्व में जलवायु परिवर्तन व्यापक पैमाने पर हुआ। मध्य पाषाण काल को काल की दृष्टि से नूतन काल के अन्तर्गत रख सकते हैं। नूतन कल्प के परिवर्तनों से सामंजस्य स्थापित करने के लिए उसे अपने उपकरणों में बदलाव करना आवश्यक था। उच्च पाषाण काल से ही परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी थी, लेकिन इस काल के अन्तिम चरण तक यह पूर्णतः स्पष्ट हो गयी। इस काल के उपकरणों का निर्माण संकरे एवं छोटे-छोटे ब्लेड पर होने लगा, जिसे फ्लूटेड से निकाला गया था। प्रारम्भ में विद्वानों की धारणा थी कि मध्य पाषाणिक, लघुपाषाणिक उपकरण पतनोन्मुख समाज का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन यह समीचीन नहीं है। यह मानव की प्रगति एवं तकनीकी ज्ञान का परिचायक है। इस काल में कई उपकरणों को जोड़कर एक नया उपकरण बनाया जाता था, इस लिए इन्हें संयोजन उपकरण की श्रेणी में रखा जाता है। ऐसे उपकरणों का प्रयोग दूर से फेंक कर बाण की तरह प्रयोग किया जाता था।
भारत के लगभग सभी भू-भागों से मध्य पाषाणिक पुरास्थल प्रकाश में आयें हैं। भारत में मध्य पाषाणिक उपकरणों की खोज ए0 सी0 एल0 कार्लाइल महोदय ने 1867ई0 में विन्ध्य क्षेत्र में किया था। तब से लेकर आज तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों से मध्य पाषाणिक उपकरण प्रकाश में आते रहे हैं। इस युग में जनसंख्या में बृद्धि हुई। इस जनसंख्या बृद्धि का कारण जीविका की सर्वसुलभता थी। जिसके फलस्वरूप प्रव्रजन एवं स्थानान्तरण हुआ होगा। आवागमन एवं परिभ्रमण से लोग परस्पर मिलते जुलते रहे होगें। परिणामतः पारस्परिक सांस्कृतिक आदान प्रदान में बृद्धि हुई। सम्भवतः इसी समय लघु सम्प्रदायों का गठन होना प्रारम्भ हुआ। सरायनाहरराय का उत्खनन इस दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। यहाँ के उत्खनन से प्राप्त साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि स्त्री-पुरूष छोटे-छोटे समुदायों में निवास करते थे। जिससे स्पष्ट होता है कि इस समय तक पारिवारिक जीवन का आरम्भ हो चुका था, क्योंकि सरायनाहरराय के उत्खनन से युगल शवाधान के साक्ष्य मिले हैं। इस युगल शवाघान में एक कब्र से स्त्री और पुरूष एक साथ दफनायें गये हैं। यहाँ से छोटे एवं बड़े आकार के चूल्हे भी उत्खनन में मिले हैं। जो व्यक्तिगत एवं सामूहिक उपयोग में प्रयुक्त होते रहे होगें। इसकाल में आधुनिक संस्कृति के अनेक तत्वों से मानव पहले से ही अवगत रहा क्योंकि प्राप्त कबें्र एक ही दिशा में हैं और दफनाने की विधि भी एक समान है। जो उनकी धार्मिकता का द्योतक है।
उद्योगः
लघुपाषाण उपकरण मध्य पाषाण काल के मनुष्यों का प्रमुख उपकरण था। इन्हें छोटे-संकरे ब्लेड या फलक द्वारा बनाया जाता था। इस काल में उपकरण अत्यन्त छोटे हो जाते हैं। जिसके कारण इनका प्रयोग अकेले कर पाना असंभव था। अतः इनका प्रयोग किसी अन्य उपकरण के साथ किया जाता था। मुख्यतः माइक्रो ब्लेड को रिटचिंग ( पुनः कार्य या पुनर्गठन ) के बाद उपकरण को अन्तिम रूप दिया जाता था। मध्य पाषाण काल के उपकरणों में विविधता दिखाई पड़ती है एवं उपकरण छोटे-छोटे फलक, चिप आदि पर बनने लगे। पुरापाषाणिक उपकरणों की भाँति इस काल में भी इसी प्रकार के उपकरण प्रचलित थे। थम्बनेल स्क्रैपर, माइक्रो ब्यूरिन जैसे कुछ नये उपकरणों का प्रचलन इस काल में देखने को मिलता है। इस काल का कोई भी उपकरण 1’’ या 1.5’’ से लम्बा नहीं होता था। लघुपाषाणिक उपकरणों का इतिहास पुराना है। इसका आरम्भ उच्च पुरापाषाण काल से होता है। ताम्रपाषाण काल में भी यह प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। लेकिन ताम्र पाषाणकाल में प्राप्त लघुपाषाणिक उपकरणों को लघु-ब्लेड-उद्योग के नाम से जाना जाता है। लघुपाषाणिक उपकरणों के विकास यात्रा के लिए मोरहना पहाड़, बघहीखोर एवं लेखहिया आदि के उत्खनन अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। यहाँ के उत्खननों से निम्नवत् स्तर से अज्यामितिक प्राक- पाटरी अवस्था के उपकरण मिले हैं। इसके बाद ज्यामितिक प्राक-पाटरी अवस्था के उपकरण मिले हैं। तृतीय स्तर में मृद्भाण्डों के साथ ज्यामितिक उपकरण प्राप्त हुए हैं। चैथे स्तर के उपकरण तृतीय अवस्था के उपकरणों के समान थे, किन्तु उनका आकार अत्यन्त लघु था। इस प्रकार उत्खननों से लघुपाषाणिक उपकरणों के आन्तरिक विकास का ज्ञान प्राप्त होता है। अज्यामितिक उपकरणों में में अनियमित फलक, समसमानान्तर बाहु ब्लेड, समानान्तर बाहु पृष्ठ ब्लेड, अर्द्धचन्द्र एवं स्क्रैपर आदि प्रमुख हैं। इनमें त्रिभुज, विषमकोण, चतुर्भुजाकार एवं समलम्बचतुर्भुज आदि की गिनती होती है। यह कोर एवं फ्लेक उपकरणों के साथ मिलता है। मध्य पाषाणिक उपकरणों का यही विकास क्रम यूरोप में भी मिलता है जहाँ इसका विकास उच्च पुरापाषाणिक उपकरणों से माना गया है। माइक्रो ब्यूरिन या लघु ब्यूरिन इस काल का एक महत्वपूर्ण उपकरण है। जो अत्यन्त सूक्ष्म होता है। यह उपकरण उत्कीर्णन में प्रयुक्त होता है। थम्बनेल स्क्रैपर अंगूठे के नाखून के आकार का एक सूक्ष्म उपकरण होता है। जो खण्डित ब्लेड पर एक ओर पुनर्गठन या रिटचिंग के बाद बनाया जाता है। इसका कार्यांग उन्नतोदर होता है। लूनेट या अर्द्धचान्द्रिक नामक मध्य पाषाणिक उपकरण अर्द्धचन्द्राकार एवं छोटा होता है। यह अर्द्धचन्द्राकार आकृति का होता है। इसकी एक भुजा सीधी एवं दूसरी भुजा उसके ऊपर वृत्तांश बनाती है तथा कभी-कभी पुनर्गइन करके मोटा एवं ब्लंट बैंक बनाया जाता है। लूनेट दो प्रकार के पाये गये हैं-1. सिमीट्रिकल 2. ए-सिमीट्रिकल। जब अर्द्धचान्द्रिक या लूनेट बीच की ऊँचाई से दोनों ओर बराबर या समलम्ब हो तो सिमीट्रिकल और जब सिरायें या भुजायें बराबर न हों तो ए-सिमीट्रिकल कहलाते हैं। त्रिभुज, जैसा कि इसके नाम से ही ज्ञात होता है कि यह त्रिकोणात्मक उपकरण है। इसकी दो भुजायें ब्लन्टेड या भूथड़ी होती हैं एवं एक भुजा अनगठित होती है। त्रिभुज को कोणों की विषमता के आधार पर तीन वर्गों में वर्गीकृत किया गया है-1. समबाहु त्रिभुज 2. समद्विबाहु त्रिभुज 3. विषमबाहु त्रिभुज। ट्रपीजया विषम कोण समलम्ब चतुर्भुज, नामक उपकरण में ऊपर या नीचे की भुजायें समानान्तर होती हैं लेकिन अन्य दो भुजायें असमानान्तर होती हैं। सामान्य रूप से समानान्तर भुजायें अनगठित एवं असमानान्तर भुजायें ब्लेन्टेड या भूथड़ी होती हैं।
विस्तार या प्रसार क्षेत्रः
लघुपाषाणिक या मध्य पाषाणिक उपकरण भारत में अनेक स्थलों से प्राप्त हुए हैं। इनमें राजस्थान के बागोर, गुजरात के लंघनाज, नर्मदा घाटी के बामेर, आन्ध्र प्रदेश के कर्नूल तथा चित्तूर, महाराष्ट्र के खाण्डिवली, पश्चिम बंगाल के बीरभानपुर, प्रायद्वीपीय भारत के ब्रह्मगिरि, मास्की एवं संगनकल्लू, कश्मीर के बुर्जहोम, तमिलनाडु के तिन्नेवल्ली, छोटा नागपुर के बरूडीह एवं कुचाई, मध्य प्रदेश के आदमगढ़, मैसूर के शोरापुर दोआब, गंगा घाटी के कूढा़, गढवा, सुलेमानपर्वतपुर, सरायनाहरराय, पेलखवाड़, महदहा, दमदमा, बारीकलाॅ, एवं बिछिया तथा विन्ध्य क्षेत्र के मोरहना पहाड़, बघही खोर, चोपनीमाण्डो एवं लेखहिया आदि पुरास्थल विशेष उल्लेखनीय हैं। इस प्रकार भारत के मध्य पाषाणिक संस्कृति के विस्तार को इन उपकरणों के आधार पर आसानी से समझा जा सकता है तथा यह अनुमान लगाया जा सकता है कि तत्कालीन मानव की सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक स्थिति कैसी थी। मध्य पाषाण काल का सबसे प्राचीन उदाहरण श्रीलंका के ‘ फाहियेन गुफा ’ से मिला है। भारत में मध्य पाषाण काल का आरम्भ 10,000 ई0पू0 से माना जा सकता है। सी0 एल0 कार्लाइल महोदय ने 1867ई0 में सबसे पहले विन्ध्य क्षेत्र से मध्य पाषाणिक उपकरणों की खोज की थी। राजस्थान के बागोर एवं मध्य प्रदेश के आदमगढ़ नामक पुरास्थल से पशुपालन के प्राचीनतम् साक्ष्य मिले हैं। आन्ध्रप्रदेश के ज्वालापुरम्-9 नामक पुरास्थल से दक्षिण एशिया का प्राचीनतम् मध्य पाषाणिक उपकरण बनाने का उद्योग का साक्ष्य मिला है।
विन्ध्य क्षेत्रः
विन्ध्य क्षेत्र से हमारा आशय गंगा नदी के दक्षिण मध्यवर्ती पठार से सोन घाटी तक के भु-भागों से है। इस क्षेत्र से मध्य पाषाणिक उपकरण पर्याप्त संख्या में प्रकाश में आये हैं। कुछ स्थानों में ये पाषाणोपकरण उद्योग नदियों के किनारे, पहाड़ियों के ऊपर या खुले वातावरण से प्राप्त हुए हैं। जबकि कतिपय शिलाश्रयों में भी प्राप्त हुए हैं। जो अधिकांशतः कैमूर की पहाड़ियों तथा सोन घाटी के ऊपर पर्वत गुफाओं में मिले हैं। ये शिलाश्रय सुन्दर चित्रों से सुसज्जित हैं। इनमें से कुछ चित्रों की संरचना मध्य पाषाणिक मानव ने अवश्य की होगी। विन्ध्य क्षेत्र के मध्य पाषाणिक उपकरणों को प्रकाश में लाने का श्रेय इलाहाबाद विश्वविद्यालय को जाता है। मिर्जापुर जिले में 50 से अधिक मध्य पाषाणिक पुरास्थल हैं। इनमें मोरहना पहाड़, बघहीखोर, कुण्डीडीह, महुली, लोनामाटी, मझगवाँ, कपासीकलाँ, भदउवाँकला, लेखहिया आदि प्रमुख पुरास्थल हैं। मोरहना पहाड़ की खोज सी0 एल0 कार्लाइल ने किया था। डा0 राधाकान्त वर्मा महोदय ने मोरहना पहाड़ एवं बघहीखोर शिलाश्रयों का उत्खनन 1961-62 एवं 1962-63 ई0 में किया। जबकि इसी क्षेत्र में स्थित लेख्हिया शिलाश्रय का उत्खनन प्रो0 जी0 आर0 शर्मा के नेतृत्व में प्रो0 वी0 डी0 मिश्रा ने कराया था।
मोरहना पहाड़ के शिलाश्रय संख्या -1 एवं शिलाश्रय संख्या-4 का उत्खनन का कार्य किया गया था। यहाँ के 90 सेमी0 आवासीय जमाव से कुल 6 स्तर प्रकाश में आये। इनमें से पाँच स्तरों से मध्य पाषाकणक लधु पाषाण उपकरण मिले हैं। इस स्तर से मृदभाण्डों से असम्बद्ध अज्यामितीय लघुपषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं। यहाँ से प्राप्त प्रमुख उपकरणों में भूथड़े पृष्ठ ब्लेड या कुण्ठित ब्लेड, अर्द्धचान्द्रिक, अस्त्राग, स्क्रेपर आदि मुख्य हैं। तीसरे एवं चैथे स्तरों से ज्यामितिक लघुपााषाणिक उपकरण मिले हैं। प्रथम एवं द्वितीय स्तर से हाथ से निर्मित मृदभाण्ड के टुकडों के साथ छोटे आकार के मध्य पाषाणिक उपकरण भी प्राप्त हुए हैं।
बघहीखोर नामक पुरास्थल मोरहना पहाड के पूर्व में लगभग 1 किमी0 की दूरी पर स्थित है। इसका उत्खनन डा0 आर0 के0 वर्मा द्वारा कराया गया। यहाँ का सम्पूर्ण जमाव 55 सेमी0 है। उत्खनन के बाद 4 आवासीय जमाव अस्तित्व में आये। जो इस प्रकार है- निम्नवर्ती चतुर्थ स्तर, जो पत्थर की छोटे-छोटे टुकड़ों या चिप्पियों, राख एवं राख मिश्रित मिट्टी से बना है। इस स्तर से अधिकांशतः चर्ट पत्थर सक बने हुए अज्यामितिक लघुपाषाणिक उपकरण कम संख्या में प्राप्त हुए हैं। इनका निर्माण मुख्यतः फ्लेक से हुआ है। प्रमुख उपकरणों में ब्लेड, फलक, अस्त्राग्र, अर्द्धचान्द्रिक एवं कोर उल्लेखनीय हैं। इस स्तर से मृद्भाण्डों के अवशेष नहीं मिलते हैं।
तृतीय स्तर महीन बालू मिश्रित मिट्टी के निक्षेपण द्वारा निर्मित है। इस स्तर से भी अज्यामितिक लघुपाषाणिक उपकरण प्राप्त हुए हैं। इनमें समानान्तर पाश्र्ववाले एवं कुण्ठित ब्लेड, अर्द्धचान्द्रिक, बेधक एवं कोर उल्लेखनीय हैं। द्वितीय स्तर से मृदभाण्डों से सम्बद्ध अज्यामितिक और ज्यामितिक मध्य पाषाणिक उपकरण मिले हैं। यह स्तर इस दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है कि इससे एक कब्र तीसरे एवं चैथे स्तर को काटते हुए बनायी गयी थी। इस स्तर से राख मिश्रित मिट्टी तथा पत्थर की चिप्पियाँ मिली हैं।दोनों स्तरों से लघुपाषाणिक उपकरण पर्याप्त मात्रा में मिले हैं। मृदभाण्डों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है।
सबसे ऊपरी से कोर, ब्लेड, अर्द्धचान्द्रिक, अस्त्राग्र, त्रिभुज, ट्रपीज आदि मुख्य रूप से प्राप्त हुए हैं। अब उपकरणों का निर्माण चर्ट के साथ चाल्सिडेनी, अगेट, तथा कार्नेनियम के द्वारा भी किया जाने लगा। इस स्तर से प्राप्त उपकरणों के आकार अपेक्षाकृत छोटे हैं। ऊपरी सतह से लोहे के बने दो बाण एवं लोहे का एक टुकडा़ भी मिला है। बघहीखोर नामक पुरास्थल के द्वितीय सतह से से एक विस्तीर्ण शवाधान मिला है। जो तीसरे एवं चैथे स्तर को काटते हुए आधार शिला के ऊपर कब्र का निमार्ण किया गया था। इस कंकाल का सिर पश्चिम और पैर पूरब की ओर करके दफनाया गया था। इस कब्र में बहुसंख्यक लघुपाषाणिक उपकरण, जो अनुमानतः समाधि सामग्री के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, मिला है। यह कंकाल पत्थर के टुकड़ों से आच्छादित था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के श्री आर0 एन0 गुप्त के अनुसार यह कंकाल लगभग 152.68 सेमी0 लम्बी, 20-21 बर्षीया युवती का हो सकता है।
लेखहिया नामक पुरास्थल का उत्खनन प्रो0 जी0 आर0 शर्मा के नेतृत्व में प्रो0 वी0 डी0 मिश्रा ने कराया था। यहाँ पर 5 शिलाश्रय हैं, जिनमें से 4 चित्रकारी से युक्त है। उत्खनन के फलस्वरूप 1.10 मीटर मोटा जमाव मिला है। यहाँ से जो लघु पाषाणिक अज्यामितिक एवं ज्यामितिक उपकरण मिले हैं उन्हें 4 वर्गों में वर्गीकृत किया जाता है-
1. अज्यामितिक मृदभाण्ड-रहित लघु पाषाण उपकरण
2. ज्यामितिक मृदभाण्ड-रहित लघु पाषाण उपकरण
3. ज्यामितिक मृदभाण्ड-सहित लघु पाषाण उपकरण
4. लघुत्तर ज्यामितिक मृदभाण्ड-सहित लघु पाषाण उपकरण।
उत्तरी विन्ध्य क्षेत्र से मध्य पाषाणिक संस्कृति के विकास क्रम में बारे में जानकारी होती है। लेखहिया नामक मध्य पाषाणिक पुरास्थल के शिलाश्रय संख्या -1 से 17 मानव कंकाल लघु पाषाण उपकरणों के साथ प्राप्त हुआ हैं। अधिकांश विस्तीर्ण शवाधान हैं। इन शवों को परम्परागत ढ़ंग से दफनाया गया है। सिर पश्चिम दिशा में और पैर पूरब दिशा में रखकर दफनाया गया है। शव के साथ अन्त्येष्टि सामग्री भी रख गया था।
चोपनी-माण्डों नामक मध्य पाषाणिक पुरास्थल इलाहाबाद जिले के मेजा तहसील में बेलन नदी घाटी के तट पर स्थित है। इस पुरास्थल को खोजने का श्रेय प्रो0 वी0 डी0 मिश्रा महोदय है। प्रो0 मिश्रा ने 1967ई0 में इस पुरास्थल का उत्खनन कराया था। पुनः 1978-79ई0 एवं 1981-82ई0 में इसका विस्तृत पैेमाने पर उत्खनन प्रो0 जी0 आर0 शर्मा के निर्देशन में किया गया। इस पुरास्थल से लघु पाषाणिक उपकरण के साथ ही विभिन्न आकार-प्रकार के पत्थर के टुकड़े, घिसे हुए पेबॅल (बटिकाश्म) आदि इधर- उधर बिखरे मिले हैं। चोपनी-माण्डों नामक पुरास्थल को पुरा पाषाण काल एवं मध्य पाषाण काल के बीच का संक्रमण काल माना जाता है। चोपनी-माण्डों के उत्खनन के दौरान 5 झोपड़ियों के भी साक्ष्य मिले हैं। जिसका व्यास लगभग 3मी0 है। इस पुरास्थल से ज्यामितीय लघु पाषाण उपकरण के साथ ही हाथ से बने मिट्टी के वर्तन भी मिले हैं। समानान्तर एवं कुण्ठित पाश्र्व युक्त ब्लेड, बेधक, चान्द्रिक, त्रिभुज, बिषम बाहु समलम्ब चतुर्भुज, खुरचनी आदि लघु पाषाणिक उपकरण इस पुरास्थल से प्राप्त हुए हैं। उपकरण निर्माण के लिए चर्ट के अतिरिक्त चाल्सडेनी का प्रयोग किया जाता था। छोटे-छोटे कटोरे एवं कलश यहाँ से प्राप्त प्रमुख पात्र -प्रकार हैं। मृदभाण्डों पर डिजाइन बनाने के भी साक्ष्य मिलते हैं। लाल एवं धूसर दो रंगों के मृदभाण्ड यहाँ से मिले हैं। निहाई, हथौडा़, सिल-बट्टा आदिे भी मिले हैं।
गंगा घाटीः
गंगा, यमुना एवं उसकी सहायक नदियों द्वारा बहाकर लायी गयी जलोढ़ मिट्टी से निर्मित गांगेय क्षेत्र तीन प्रमुख भागों- ऊपरी गंगा घाटी, मध्य गंगा घाटी तथा निचली गंगा घाटी, में बाँटा गया है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद के प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग द्वारा किये गये पुरातात्विक अन्वेषणों एवं उत्खननों से गंगा घाटी, विाशेषकर गंगा नदी के किनारे इलाहाबाद, जौनपुर, प्रतापगढ, वाराणसी आदि जनपदों के विस्तृत भू-भागों में अनेक प्रागैतिहासिक संस्कृतियों के प्रमाण मिले हैं। इन क्षेत्रों से प्राप्त पाषाण उपकरणों से ज्ञात होता है कि यहाँ उच्च पूर्व पाषाण काल के अन्तिम चरण में प्रागैतिहासिक मानव का आगमन आरम्भ हो चुका था।़ मध्य पाषाण काल में इनका इन भू-भागों में पूर्ण विस्तार हुआ। गंगा नदी के जलोढ़क जमावों को दो वर्गों में विभाजित किया गया है-1. भांगर और 2.खादर। गंगा घाटी के निर्माण के समय भांगर गंगा नदी का किनारा था। अपेक्षाकृत पुराने इस जमाव अर्थात् भांगर में सोडियम एवं कैल्श्यिम की अधिकता है। इसके प्रथम स्तर से लघुपाषाणिक उपकरण प्राप्त हुए हैं। इससे यह स्पष्ट है कि भांगर निर्माण के समय ऊपरी एवं मध्य गंगा घाटी में मध्य पाषाणिक मानव का आगमन हो चुका था। जलवायु परिवर्तन एवं जनसंख्या बृद्धि के कारण वह इस भू-भाग में संचरण के लिए बाघ्य हुआ होगा। यहाँ पर अनेक गोखुर झील के प्रमाण मिले हैं। डा0 आर0 के0 वर्मा महोदय का मत है कि मध्य पाषाणिक काल में अधिक सुविधाजनक स्थलों को खोजते एवं विन्ध्य क्षेत्र से गंगा घाटी की ओर संचरण करते हुए मध्य पाषाणिक मानव ने उपर्युक्त झीलों के किनारे-किनारे अल्पकालिक आवास-स्थल बनाये। सम्पूर्ण गंगा घाटी में लगभग 200 से अधिक लघु पाषाणिक पुरास्थलों का पता चला है। जो गंगा के ऊत्तरी तट पर पश्चिम में प्रतापगढ़ से पूरब में वाराणसी तक विस्तृत है। इनमें इलाहाबाद के कुढ़़ा, बिछिया, भीखमपुर, महरूडीह ( सोरांव तहसील ) एवं जमुनीपुर ( फूलपुर तहसील ) विशेष महत्वपूर्ण हैं। वाराणसी के गढ़वा तथा बनकट, भिखारी रामपुर इस संदर्भ में महत्वपूर्ण हैं। प्रतापगढ़ का मध्य पाषाणिक पुरास्थलों में विशिष्ट स्थान है। यहाँ के प्रमुख मध्य पाषाणिक पुरास्थलों में राजापुर, हडही-भटुली, पत्तुपुर, सरायनाहरराय, सुलेमान पवर्तपुर, मन्दाह, शाल्हीपुर, कन्धई- मधुपुर, मझीटि, मिसिरपुर, बारीकलाँ, बलुहा, भरभरी का पूरा, हैंसी परिजिया, करिया-गोरिया, रायगढ़, महदहा एवं दमदमा आदि की गणना की जाती है।
सरायनाहररायः
सरायनाहरराय प्रतापगढ़ जिले में मान्धाता के समीप स्थित पुरास्थल है। यह एक गोखुर झील के किनारे स्थित है। इसका उत्खनन इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद के प्रो0 जी0 आर0 शर्मा के निर्देशन में 1971-72 एवं 1972-73ई0 में हुआ। उत्खनन के फलस्वरूप बहुत अधिक संख्या में लघुपाषाण उपकरण, शवाधान, चूल्हे और आवास स्थल प्रकाश में आये। यहाँ कुल 11 शवाघानों का उत्खनन किया गया, जिनमें 14 नर-कंकाल प्राप्त हुए। 8 गर्त चूल्हों का भी उत्खनन किया गया। जो गोलाकार, अण्डाकार एवं अनियमित आकारों के हैं। इनका मुख चैड़ा तथा पेंदी अपेक्षाकृत कम चैड़ा है। संभवतः इनका उपयोग सामूहिक रूप में होता था। शवाधान क्षेत्र में छिछले एवं अण्डाकार कब्र भी खोदी गयी हैं। इनमें मृतकों को पश्चिम- पुरब दिशा में लिटाया गया था। शव को कब्र में रखने के पूर्व गर्त में 3-4 सेमी0 मोटी मिट्टी बिछाई जाती थी। एक हाथ शरीर के समानान्तर तथा दूसरा पेट पर रखा जाता था। कुछ मृतकों का एक हाथ कमर के नीचे जांघों के बीच में रखा हुआ मिला है। एक कब्र में चार शव- दो पुरूष एवं दो स्त्री को एक साथ दफनाया गया है। स्त्रियों को बायीं ओर और पुरूष को दायीं ओर लिटाकर दफनाया गया है। कब्रों को चूल्हें की मिट्टी एवं राख आदि से भरा जाता था। शव के साथ लघु पाषाण उपकरण, जानवरों की जली हुई एवं अधजली हड्डियाँ, जली मिट्टी के टुकड़े रखे जाते थे। जानवरों की हड्डियों को गाय, बैल, हाथी, भैंस, हिरण, बारहसिंघा, भेड़-बकरी, कछुआ एवं मछली आदि से समीकृत किया गया है। कंकाल औसतन 1.80 मीटर लम्बे एवं सुगठित शरीर वाले थे। स्त्री कंकाल अपेक्षाकृत छोटे आकार की हैं। एक चूल्हे के किनारे-किनारे स्तम्भ गर्त मिले हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि संभवतः मांस भूनने के लिए जानवरों को लट्ठों के सहारे टांगा जाता रहा होगा।
यहाँ से प्राप्त मध्य पाषाणिक उपकरणों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है। प्रथम वर्ग के उपकरण अपेक्षाकृत बड़े एवं मोटे हैं। इनमें समानान्तर बाहु ब्लेड, भूथडे़ ब्लेड, अर्द्धचन्द्र एवं स्क्रेपर आदि प्रमुख हैं। इन पर रासायनिक रंगाई अधिक है। चर्ट का प्रयोग उपकरणों के निर्माण के लिए किया गया है। इनके प्रमुख स्थलों में कुढ़ा ( इलाहाबाद ), सुलेमान पर्वतपुर, शाल्हीपुर ( प्रतापगढ़ ) तथा गढ़वा ( वाराणसी ) उल्लेखनीय हैं। दूसरे वर्ग के उपकरण आकार में छोटे हैं। इनमें समानान्तर बाहु ब्लेड, चान्द्रिक, भूथड़े ब्लेड, स्क्रेपर आदि मुख्य हैं। तृतीय वर्ग में त्रिभुज एवं सम्लम्ब चतुर्भुज आते हैं। ये उपकरण सरायनाहरराय, महदहा एवं बिछिया से मिले हैं। इनके निर्माण में चर्ट, चाल्सिडेनी, अगेट, कार्नेलियन एवं जैस्पर का प्रयोग किया गया है। पशुओं की हड्डियों एवं सींगों के उपकरण कम हैं। प्रथम वर्ग के उपकरणों को उच्च पूर्व एवं मध्य पाषाण काल के संक्रमण-काल में रखा जाता है। द्वितीय वर्ग के उपकरण ज्यामितिक हैं। इन्हें मध्य पाषाणिक संस्कृति के अन्तर्गत रखा गया है। गंगा घाटी के अधिकतर उपकरण इसी वर्ग के हैं।
मध्य पाषाणिक काल के सामाजिक जीवन पर भी इसके उत्खनन से प्रकाश पड़ता है। ये लोग संभवतः छोटे-छोटे समूहों में रहते रहे होगें। स्त्री-पुरूष के संयुक्त या युगल शवाघान का साक्ष्य सामाजिक व्यवस्था के आरम्भ का संकेत है। संचरण, आखेट एव युद्धों में संगठन आवश्यक था। इसलिए एक नायक की भी शुरूआत हुई होगी।
महदहाः
महदहा नामक मध्य पाषाणिक नामक पुरास्थल उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के पट्टी तहसील के महदहा नामक गाँव के पूरब में स्थित है। 1978ई0 में शारदा सहायक नहर परियोजना के चैड़ी करण के अन्तर्गत यह पुरास्थल प्रकाश में आया। 1978-79ई0 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद के प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के प्रो0 वी0 डी0 मिश्रा एवं प्रो0 जे0 एन0 पाल महोदय के संचालन में ‘ बचाव उत्खनन ’ का कार्य किया गया। यह पुरास्थल एक गोखुर झील के किनारे स्थित है। यहाँ के आवास क्षेत्र से मानव समाधियाँ मिली हैं। यहाँ से कुल 28 समाध्यिों एवं 35 गर्त चूल्हों का उत्खनन किया गया। उत्खनन से वधस्थल या बूचड़खाना, जिसमें जंगली जानवरों की अधजली हडिडयाँ,, सींग, दाँत आदि मिले होने के कारण, कहा गया। झील के 9-8वें स्तर से पुरापुष्प पराग का अस्तित्व प्रकाश में आया है। मृतक को पश्चिम दिशा में सिर करके दफनाने की प्रथा थी। महदहा में विस्तीर्ण शवाधान अधिक संख्या में मिले हैं। महदहा की 28 समाधियों में 26 में एक-एक मानव कंकाल मिले हैं। यहाँ से केवल दो युग्मित समाधि का साक्ष्य मिला है। जिनमें एक स्त्री एवं एक पुरूष साथ-साथ दफनाये गये हैं। शव के साथ अन्त्येष्टि सामग्री भी रखा मिला है। यहाँ से प्राप्त एक मानव कंकाल हिरण के सींग की बनी माला पहने हुए है। महदहा के उत्खनन से जो 35 गर्त चूल्हे मिले हैं, उनमें से कुछ चूल्हों के भीतरी भाग को लीप-पोत कर चिकना बनाया गया है। इन गर्त चूल्हों में राख, जली हुई मिट्टी, पशुओं की जली हुई हड्डियाँ आदि मिला है। एक गर्त चूल्हें से भैंसे का एक पूरा सिर मिला है। जिससे स्पष्ट होता है कि यहाँ के लोग मांस को भून कर खाते थे। महदहा से लघु पाषाण उपकरण कम संख्या में मिले हैं। प्रमुख उपकरणों में ब्लेड, बेधक, चान्द्रिक, खुरचनी, त्रिभुज एवं समलत्ब चतुर्भुज आदि उल्लेखनीय हैं। सीेग के बने उपकरण एवं आभूषण भी प्रकाश में आये हैं। जैसे- बाणाग्र, बेधक चाकू, आरी, आदि। यहाँ से पत्थर का सिल-लोढ़ा भी मिला है।
दमदमाः
दमदमा नामक मध्य पाषाणिक नामक पुरास्थल प्रतापगढ़ जिले की पट्टी तहसील में स्थित बारीकलाँ नामक गांव के दमदमा नामक स्थान स्थित है। यह पुरास्थल सई और उसकी सहायक पीली नदी के संगम पर स्थित मध्य पाषाणिक सामग्री को अपने में समेटे हुए है। इस पुरास्थल का उत्खनन 1982-83ई0 से 1986-87ई0 के बीच इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद के डा0 आर0 के0 वर्मा, प्रो0 वी0 डी0 मिश्रा, प्रो0 जे0 एन0 पाण्डेय एवं प्रो0 जे0 एन0 पाल के संयुक्त संयोजन में किया गया। उत्खनन के फलस्वरूप 41 मानव शवाधान प्रकाश में आये, जिसमें से 5 युगल शवाधान थे। यहाँ से मिट्टी के कई पर्त वाले लेप से युक्त, एवं बिना लेप वाले गर्त चूल्हे, जली हुई मिट्टी के प्लास्टर से युक्त फर्श, जंगली जानवरों की हड्डी, लघु पाषाण उपकरण, सींग के बने उपकरण तथा आभूषण और मानव शवाधान आदि का उल्लेख किया जा सकता है। दमदमा के उत्सनन के दौरान एक ही कब्र में तीन मानव कंकाल एवं हाथी दाँत का लाकेट मिला है। दमदमा से प्रायः सभी स्तरों से वन्य पशुओं जैसे- हाथी, गैंडा़, चीतल जंगली सूअर, बारहसिंगा आदि की हड्डियाँ मिली हैं। इस प्रकार दमदमा के उत्खनन के बाद मध्य गंगा घाटी की मध्य पाषाणिक संस्कृति पर एक नवीन प्रकाश पड़ा है।
बेलन घाटीः
बेलन घाटी का प्रस्तर उद्योग की दृष्टि से भारतीय प्रागितिहास में विशेष महत्वपूर्ण स्थान है। भारत में कोई भी अन्य क्षेत्र इस प्रकार का नहीं है, जहाँ प्रस्तर यूगीन सभी संस्कृतियाँ एक ही स्थान पर परिलक्षित हों। बेलन घाटी में निम्न पूर्वपाषाणकाल से लेकर मध्यपाषाण काल तक की संस्कृति के साक्ष्य मिलते हैं। अतः प्रस्तर युगीन संस्कृति के अध्ययन का यह प्रमुख क्षेत्र है। बेलन घाटी के तीसरे ग्रैवेल की मटमैली सफेद मिट्टी के ऊपर 3 मीटर काली मिट्टी की परत मिलती है। इस स्तर से छोटे-छोटे कण एवं पत्थर की चिप्पियाँ मिली हैं। जो प्रातिनूतन एवं नूतन काल के संक्रमण काल में निर्मित हुआ लगता है। इस स्तर से उच्च पूर्व पाषाणिक उपकरणों के साथ अज्यामितिक लघूपाषाणिक उपकरण भी मिले हैं।
सिंगरौली क्षेत्रः
मिर्जापुर का सिंगरौली क्षेत्र लघुपाषाण उपकरण के लिए महत्वपूर्ण है। इसके ऊपरी धरातल के नीचे से प्राप्त लघुपाषाणिक उपकरण इस बात के प्रमाण हैं कि यहाँ पूर्व पाषाण काल के बाद मध्य पाषाण काल का विकास हुआ था। उपकरणों के निर्माण में दुधिया क्वार्टजाइट का प्रयोग किया गया था। श्री वी0 डी0 कृष्णस्वामी महोदय को इस क्षेत्र से 75 उपकरण मिले हैं। अज्यामितीय उपकरणों में समानान्तर बाहु ब्लेड़, भूथड़े, पाश्र्व ब्लेड, अस्त्राग्र एवं चान्द्रिक प्रमुख हैं।
मध्य प्रदेशः
मध्य प्रदेश के विभिन्न स्थानों से भी लघुपाषाणिक उपकरण प्राप्त हुए हैं। रीवां, सतना, सीधी, पन्ना, होशंगाबाद, सागर, जबलपुर, मन्दसोर, रायसेन, रतलाम, उज्जैन, खण्डवा, इन्दौर आदि जिलों के अनेक पुरास्थलों से उपकरण प्राप्त हुए हैं। मध्य प्रदेश के अनेक शिलाश्रयों जैसे- जम्बूद्वीप एवं जोरोथीद्वीप ( पंचमढ़ी के निकट ), आदमगढ़ ( होसंगाबाद ), एवं भीमबैठका ( रायसेन ) तथा घघरिया ( सीधी ) का उत्खनन किया जा चुका है। जम्बूद्वीप एवं जोरोथीद्वीप शिलाश्रयों के उत्खनन के परिणाम स्वरूप डा0 जी0 आर0 हण्टर महोदय को मानव कंकाल के साथ अन्त्येष्टि सामग्री के रूप में रखे गये लघु पाषाणिक उपकरण प्राप्त हुए हैं। आदमगढ़ शिलाश्रय मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में स्थित है। इस पुरास्थल का उत्खनन डा0 आर0 वी0 जोशी एवं एम0 डी0 खरे महोदय ने 1964ई0 में कराया था। यहाँ से प्राप्त लघुपाषाणिक उपकरणों में प्वाइंटस, त्रिभुज, स्क्रेपर, छिद्रक, ब्यूरिन, समानान्तर पाश्र्व वाले ब्लेड आदि प्राप्त हुए हैं। इस समय लोग जंगली पशुओं के शिकार के साथ पशुपालन भी करते थे। चीतल, साँभर, बारहसिंगा, शाही, खरगोश आदि प्रमुख जंगली जानवर हैं। पालतू पशुओं में गाय, बैल, बकरी, कुत्ता आदि प्रमुख हैं।
मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित भीमबैठका नामक पुरास्थल मध्य पाषाणकाल के अवशेषों की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। भारत में पाषाण काल के पितामह कहे जाने वाले डा0 विष्णुश्रीधर वाकड़कर महोदय ने इस पुरास्थल की खोज 1957ई0 में किया था। डा0 वाकड़कर महोदय ने 1972ई0 में यहाँ का उत्खनन कराया। 1973ई0 से 1976ई0 तक डा0 वी0 एन0 मिश्र एवं डा0 वाकड़कर ने उत्खनन कार्य सम्पन्न कराया। यहाँ पर 500 से अधिक शिलाश्रय एवं गुफायें हैं, जिनमें से अधिकांश में मध्य पाषाणिककाल के लघुपाषाण उपकरण मिलते हैं। यहाँ से एश्यूलियन संस्कृति से लेकर मध्य पाषाणकाल के उपकरण मिलते हैं। भीमबैठका के आॅडिटोरियम या सभा-कक्ष-गुफा से कला एवं कर्मकाण्डा़ें का नाटकीय प्रमाण मिलता है। यहीं से 25मी0 लम्बा सुरंग, तीन द्वार वाला कक्ष एवं एश्यूलियन संस्कृति की पत्थर की दीवार के निर्माण के साक्ष्य मिला है। भीमबैठका से अन्त्येष्टि का साक्ष्य मिलता है। आॅडिटोरियम गुफा से मध्य पाषाणिक शवाधान के दो उदाहरण मिलते हैं। इनमें से एक वयस्क का तथा दूसरा किसी बच्चे का है। बच्चे के गले में गुरियों की एक माला थी तथा उसको दफनाते समय मांस अर्पित किया गया था क्यों कि पास में ही किसी पशु की एक पसली मिली है। मध्य पाषाणिक उपकरण अज्यामितीय हैं। प्रमुख उपकरणों में त्रिभुज, चान्द्रिक, कुण्ठित ब्लेड, समलम्ब चतुर्भुज, स्क्रेपर आदि हैं।
राजस्थानः
राजस्थान के उदयपुर, चित्तौड़, भीलवाड़ा, अजमेर, टोंक, जयपुर, कोटा एवं झालार-पाटन जिलों से मध्य पाषाणिक अवशेष प्राप्त हुए हैं। राजस्थान के प्रमुख पुरास्थलों में बागोर, नीम बहेरा, मण्डपिया, नावा, लेसुआ, चामू, बुसावर, लोरडिया, तिलवाड़ा, सोजात, जाडन, कनवास, धनेडी आदि उल्लेखनीय हैं।
बागोरः
राजस्थान प्रान्त के बागोर नामक पुरास्थल भारत का सबसे बड़ा मध्य पाषाणिक पुरास्थल है। यह पुरास्थल भीलवाड़ा जिले में बनास नदी की सहायक कोठारी नदी के किनारे स्थित है। बागोर को वर्तमान में ‘ महासती टीला ’ के नाम से भी जाना जाता है। यह पुरास्थल 1967ई0 में प्रकाश में आया। इस पुरास्थल की खोज 1967ई0 में दकन कालेज, पुणे के डा0 वी0 एन0 मिश्र एवं साउथ एशिया इंस्टीट्यूट, हीडलवर्ग, जर्मनी के एल0 एस0 लेश्निक महोदय ने की थी। डा0 वी0 एन0 मिश्र महोदय ने 1967-1970ई0 के बीच यहाँ उत्खनन का कार्य सम्पन्न कराया। यह क्षेत्र 150सेमी बलुई मिट्टी का क्षेत्र है। बागोर के सम्पूर्ण आवासीय जमाव को सुविधा की दृष्टि से तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है-1. प्रथम काल खण्ड 2. द्वितीय काल खण्ड 3. तृतीय काल खण्ड।
प्रथम काल खण्ड को लगभग 5000ई0पू0 से 2800ई0पू0 के बीच रखा जाता है। इस स्तर से अधिक संख्या में लघुपाषाण उपकरण एवं पशुओं की हड्डियाँ प्राप्त हुई हैं। इससे पता चलता है कि इन लोगों की अर्थव्यवस्था आखेट एवं संचय पर आश्रित रही होगी। संभवतः इन्होंने स्थायी आवास का भी निर्माण शुरू कर दिया था क्योंकि पत्थर के टुकड़ों से बने हुए फर्श के साक्ष्य मिले हैं। बागोर से प्राप्त कब्रों से पता चलता है कि मृतकों को पश्चिम-पूरब दिशा में चित्त लिटाकर दफनाया जाता था। प्रमुख उपकरणों में पुनर्गठित ब्लेड, सम एवं विषम बाहु त्रिभुज, समलम्ब एवं विषम बाहु चतुर्भुज, चान्द्रिक, बाणाग्र एवं स्क्रेपर उल्लेखनीय हैं।
द्वितीय काल खण्ड को 2800ई0पू0 से 600ई0पू0 के मध्य रखा जा सकता है। इस काल खण्ड से लघुपाषाण उपकरण एवं पशुओं की हड्डियाँ मिली हैं। इस काल खण्ड में लोग धातु का भी प्रयोग करने लगे थे। साथ ही मृदभाण्डों का भी उपयोग प्रारम्भ हो गया था। शवाधान पहले की तरह था। इस समय संभवतः खेती एवं पशुपालन का भी आरम्भ हो गया था। इस काल खण्ड की दो कब्रों से 5 ताम्र उपकरण भी प्रकाश में आये हैं। ये हैं- तीन बाणाग्र, एक भालाग्र, एवं एक तकुआकार नोकदार सुई।
तृतीय काल खण्ड की अवधि 600ई0पू0 से 200ई0पू0 के मध्य निर्धारित की गयी है। इस काल में लघुपाषाणिक उपकरण की संख्या कम हो गयी एवं हड्डी के भी उपकरण अत्यल्प हो जाती है। इस काल में लोहे का भी प्रयोग प्रारम्भ हो जाता है। गुरिया प्रचुर संख्या में मिली है। जिसका उपयोग अलंकरण के रूप में होता था। इस काल की प्रमुख विशेषताओं में चक्र निर्मित मृदभाण्ड, लौह उपकरण, कांच के बने मनके एवं ईंटों की बनी इमारतें उल्लेखनीय हैं। इस काल का एक नर कंकाल मिला है जो उत्तर-दक्षिण दिशा में दफनाया गया है।
गुजरातः
मध्य एवं उत्तरी गुजरात प्रान्त के अनेक पुरास्थलों से मध्य पाषाणिक संस्कृति के अवशेष प्रकाश में आये हैं। सावरमती घाटी में स्थित लंघनाज एवं अखाज और माही नदी घाटी में स्थित अमरापुर प्रमुख मध्य पाषाणिक पुरास्थल हैं। इसके अलावा बलसाँड़ा, हीरपुर, पावागढ़, मिताली, तरसंग शिलाश्रय, लोटेश्वर कनेवाल रतनपुर, धमसुरा आदि प्रमुख पुरास्थल हैं।
लंघनाजः
लंघनाज गुजरात का सबसे महत्वपूर्ण मध्य पाषाणिक पुरास्थल है। यह पुरास्थल सावरमती नदी के तट पर स्थित है। इस पुरास्थल को प्रकाश में लाने का श्रेय 1941-42ई0 के प्रथम गुजरात प्रागैतिहासिक अभियान को है। इस पुरास्थल के उत्खनन कत्र्ताओं में डा0 एच0 डी0 सांकालिया,दकन कालेज, पूना, प्रो0 बी0 सुब्बाराव, बडौदा विश्वविद्यालय एवं के0 यू0 आर0 कैनेडी का नाम सर्वोपरि है। लंघनाज के सांस्कृतिक जमाव को तीन उपकालों में बाँटा जा सकता है। लंघनाज के उत्खनन से ज्ञात होता है कि इस स्थल को मध्य पाषाणिक मानव ने आवास एवं समाधि स्थल दोनों रूपों में प्रयोग किया था। उत्खनन सामग्री में मुख्य रूप से मानव कंकाल, हड्डियां, लघुपाषाणिक उपकरण एवं मृदभाण्डों के टुकड़े आदि प्राप्त हुए हैं। साथ ही आधुनिक मृदभाण्ड, लोहे का एक बाणाग्र,, गदाशीर्ष, तांबे का एक चाकू एवं कृष्णलोहित मृदभाण्ड के टुकडे भी मिले हैं। उपकरणों के निर्माण के लिए चर्ट, चाल्सिडेनी, क्वाटर््ज, कार्नेलियन का उपयोग किया जाता था। डा0 सांकालिया महोदय का मत है कि ये पत्थर इस क्षेत्र में नहीं मिलते, अतः इन पत्थरों को मोदसा के मझम नदी से लाये जाते रहे होंगे। लंघनाज के उत्खनन में लघुपाषाण उपकरण के साथ ही घिसे गेरू एवं सैण्डस्टोन के फनाकार टुकडे़ भी मिले हैं। मानव कंकालों के साथ डेण्टेलियम शेल तथा चिपटे चक्रिक मनके भी मिले हैं। ऐसे आभूषणों का प्रयोग महदहा में भी होता था। लंघनाज से जिन पशुओं की हड्डियाँ मिली हैं उनमें गाय, सूअर, हिरण, बारहसिंगा, भैंस, गैंडा आदि मुख्य हैं। लंघनाज से प्राप्त 14 मानव कंकालों में से 13 को पैर मोड़कर दाहिनी करवट लिटाकर दफनाया गया है। मुडी़ हुई अवस्था में समाधिस्थ कंकाल लंघनाज की विशेषता है। अधिकांश शवों को पश्चिम-पूरब दिशा में रख्कर दफनाया गया था। कुछ कंकालों के कपाल टूटे हैं। लंघनाज के लोगों की अर्थव्यवस्था आखेट एवं मछली के शिकार पर आधारित प्रतीत होती है। शिकार प्रस्तर उपकरणों द्वारा किया जाता था।
आन्ध्र प्रदेशः
लघुपाषाण उपकरण के अध्ययन की दृष्टि से आन्ध्र प्रदेश भी महत्वपूर्ण है। आन्ध्र प्रदेश के कर्नूल जिले के तीन पुरास्थलों-गिद्दलूर, नन्दीकनामादर्रा एवं निम्न गोदावरी से मध्य पाषाणिक उपकरण प्रतिवेदित हुए हैं। गुण्टूर जिले के नागार्जुनीकोण्डा और चित्तूर जिले के रेणिगुण्टा नामक स्थलों से भी इस प्रकार के उपकरण मिले हैं। बर्किट एवं कामियाडे महोदय ने कर्नूल में भिन्न-भिन्न कालों की चार संस्कृतियों की विद्यमानता की ओर संकेत किया है। चित्तूर जिले में स्थित रेणिगुण्टा नामक पुरास्थल के उपकरणों की खोज दकन कालेज, पुणे के एम0 एल0 के0 मूर्ति ने की थी। उपकरणों के निर्माण में क्वाटर्ज का प्रयोग किया गया है। छोटे-छोटै कोर, स्क्रेपर, चान्द्रिक एवं त्रिकोणाकार लघुपाषाण उपकरण इस क्षेत्र के प्रतिवेदित उपकरण हैं।
महाराष्टः
पुरातात्विक अन्वेषणों एवं अनुसंधानों के फलस्वरूप महाराष्ट्र राज्य के अनेक पुरास्थलों से मध्य पाषाणिक उपकरण प्रकाश में आये हैं। मुम्बई के खाण्डिवली तथा मार्वे नामक पुरास्थलों पर टाड महोदय को मध्य पाषाण युगीन संस्कृति के लघुपाषाणिक उपकरण प्राप्त हुए हैं। मार्वे से लघुपाषाणिक उपकरण मृदभाण्डों के साथ मिले हैं। इसके अतिरिक्त पैठन, नासिक, अहमदनगर एवं पूणे आदि जिलों के अनेकों पुरास्थल प्रकाश में आये हैं। प्राप्त उपकरणों में अर्द्धचान्द्रिक, छिद्रक, ब्लेड एवं ब्यूरिन आदि मुख्य हैं। ये उपकरण चर्ट, अगेट, क्वार्टज एवं चाल्सिडनी से बने हैं।
पश्चिम बंगालः
बीरभानपुरः
बीरभानपुर नामक पुरास्थल पश्चिम बंगाल के वर्दवान जिले में दुर्गापुर के समीप दामोदर नदी के तट पर स्थित है। प्रो0 बी0 बी0 लाल महोदय को 1954ई0 में इस पुरास्थल के बारे में पता चला था। डा0 लाल ने इसे बीरभानपुर लघुपाषाण उद्योग की संज्ञा दी है। पश्चिम बंगाल के अन्य प्रमुख मध्य पाषाणिक पुरास्थलों में देजरी, मलानदीघी एवं गोपालपुर आदि उल्लेखनीय हैं। डा0 लाल महोदय ने 1954ई0 में बीरभानपुर पुरास्थल का सीमित पैमाने पर उत्खनन कराया। 1957ई0 में उन्होंने वहाँ पुनः उत्खनन कराया। बीरभानपुर लघुपाषाण उद्योग की विशेषता यह है कि इसके उपकरणों के साथ मिट्टी के वर्तन नहीं मिले हैं। यहाँ से स्क्रेपर, ब्लेड, छिद्रक, बेधक, चान्द्रिक, कोर, एवं ब्यूरिन आदि उपकरण मिले हैं। बीरभानपुर से ज्यामितीय प्रकार के उपकरण अधिक मिले हैं।
बिहारः
सर्वेक्षणों एवं अनुसंधानों के परिणाम स्वरूप बिहार एवं झारखण्ड राज्य के भागलपुर, राजगीर, रांची, संथाल परगना, पलामू, आदि जिलों के अनेकानेक स्थलों से मध्यपाषाणिक उपकरण प्रकाश में आये हैं। ऐसे स्थलों में रांची के कुचझरिया, संथाल परगना के बुद्धूडीह, दउर, दुबरकुण्ड, चोरडीह, धोलाजुरी, इन्दपहारी, दुमोर, भेलाडीह, चैधरीडीह, धोरलाश, कमकरशोला, टेपरा, जोर खुटिया, पलामू जिले में मरबनिया, प्रतापपुर, बिहार राज्य के भागलपुर जिले में अम्बरपुर, धालतौर, हेंचुला, कुमरहट, लगबा, राजापोखर आदि प्रमुख हैं। इन पुरास्थलों से अज्यामितिक एवं ज्यामितिक लघुपाषाणिक उपकरण प्राप्त हुए हैं।
उड़ीसाः
उडीसा प्रान्त के मयूरभंज, सुन्दरगढ़, पुरी, क्योंझर एवं धेनकनाल आदि जिलों से मध्यपाषाणिक उपकरण प्राप्त हुए हैं। 1940ई0 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के नृतत्व विभाग की तरफ से मयूरभंज के कुलियाना का उत्खनन किया गया। यहाँ के स्तरीय जमावों का विधिवत अध्ययन डा0 निर्भय कुमार बसु एवं धरणीसेन ने किया। कुचाई नामक पुरास्थल का उत्खनन डा0 बी0 के0 थापर महोदय ने 1961-62ई0 में कराया था। यहाँ के पाषाण उपकरणों का निर्माण क्वार्टजाइट, चर्ट एवं जैस्पर से किया गया है। अधिकांश लघुपाषाण उपकरण अज्यामितिक प्रकार के हैं।
तमिलनाडुः
टेरी उद्योगः
तमिलनाडु राज्य का तिन्नेवली जिला लघुपाषाण उपकरण के लिए महत्वपूर्ण रहा है। यहाँ लघुपाषाण उपकरण लाल एवं जमे हुए बालू टीलों से प्राप्त हुए हैं, जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘ टेरी ’ कहा जाता है। यहाँ के मध्य पाषाणिक स्थलों को प्रकाश में लाने का श्रेय रावर्ट ब्रूस फूट को है। इसके बाद 1942ई0 में ए0 अप्यपन ने इस जनपद के सकेरपुरम् नामक पुरास्थल के लघुपाषाणिक उपकरणों का अध्ययन किया। अन्य पुराविदों, जिन्होंने तिन्नेवली क्षेत्र का अध्ययन किया है, में प्रो0 जाइनर, बी0 अल्चिन, वी0डी0 कृष्णास्वामी मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं। 1956ई0 में जाइनर एवं अल्चिन ने तूतीकोरन एवं तिरूचेन्दूर तालुका में 11 टेरी पुरास्थलों की भूतात्विक पृष्ठभूमि एवं पुरातात्विक अवशेषों का विस्तृत अध्ययन किया। मेगनानपुरम्, कत्तमपुली, कुथन्कुली, सवायारपुरम्, कट्टलनकुलम, कुलत्तूर, पट्टनतरूवइ, सुरगुंडी़, नाजरेथ, मनाडु एवं कयमोलि नामक ये पुरास्थल हैं जो अश्मीभूत बालुका स्तूपों पर स्थित हैं। ये सभी पुरास्थल ताम्रपर्णी नदी के तट पर स्थित हैं। यहाँ से भी ज्यामितीय एवं अज्यामितीय प्रकार के उपकरण मिले हैं। ये उपकरण चर्ट एवं क्वार्टज पत्थर पर बने हुए हैं।
कर्नाटकः
कर्नाटक प्रान्त के रायचूर, चित्तलदुर्ग, बंगलोर, बेलगांव, गुलवर्गा आदि जिलों में हुए अनुसंधानों से अनेक मध्य पाषाणिक पुरास्थल प्रकाश में आये हैं। बेल्लारी जिले में स्थित संगनकल्लू नामक पुरास्थल का उत्खनन 1946ई0 में बी0 सुब्बाराव ने कराया था। जिसके फलस्वरूप ऊपर से नीचे की ओर तीन उपविभाग मिले। यहाँ से प्राप्त अधिकांश उपकरण चर्ट और जैस्पर निर्मित हैं। प्रमुख उपकरणों में समानान्तर बाहु ब्लेड, एवं चान्द्रिक की गणना की जाती है। संगनकल्लू का महत्व इस दुष्टि से अधिक है कि यहाँ नवपाषाणिक धरातल के नीचे लघुपाषाणिक धरातल मिलता है।
शोरापुर-द्वावः
कर्नाटक प्रान्त के गुलवर्गा जिले में अवस्थित कृष्णा एवं भीमा नदियों के संगम पर शोरापुर दोआब का अन्वेषण दकन कालेज, पुणे के के0 पद्दैया ने किया था। यहाँ से प्राव्त उपकरण अधिकांशतः चर्ट पर बने हैं। प्रमुख उपकरणों में ब्लेड, चान्द्रिक, छिद्रक, ब्यूरिन आदि हैं।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि मध्य पाषाण काल एक सांस्कृतिक संक्रमण काल था, जबकि मानव पुरापाषाणिक जीवन शैली को पूरी तरह सक छोड़ नहीं पाया था और न ही एक व्यवस्थित जीवन शैली को अपना पाया था। इस काल काल को प्राचीन पाषाण काल का उत्तरार्द्ध भी कहा जाता है। इस युग का मनुष्य आखेट के साथ-साथ पशुपालन को भी अपनाने लगा था। समकालिक मनुष्य मानव सभ्यता का प्रारत्भिक चरण पार कर चुका था और अब वह नयी तकनीक की सहायता से अपेक्षाकृत सुगम जीवन व्यतीत करने के प्रयास में था। इन प्रयासों से उसके सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन में कुछ परिवर्तन भी आया। फिर भी उनका यह जीवन निम्न स्तर का ही रहा।