पाषाण कालः (Stone Age)
मानव सभ्यता के विकास का इतिहास किसी आकस्मिक घटना क्रम का परिणाम नहीं वरन् हजारों वर्षों के उत्थान-पतन के क्रमिक विकास का परिणाम है। मानव सभ्यता के इस उत्थान-पतन के इतिहास को अध्ययन की सुविधा अनुसार तीन युगों में विभक्त किया जाता है-प्रागैतिहासिक, आद्यैतिहासिक, तथा ऐतिहासिक । पृथ्वी पर मानव सभ्यता का आरंभिक काल प्रागैतिहासिक काल के नाम से अभिहित किया जाता है जो मानव के सांस्कृतिक विकास के एक बड़े हिस्से को समेटता है। 1833 ई. में फ्रांसीसी पुरातत्त्ववेत्ता पाॅल टरनल ने ‘पीरियड एण्ड-हिस्टाॅरिक’ शब्द का प्रयोग किया था। आज यह शब्द सिमटकर अंग्रेजी में प्रीहिस्ट्री और हिंदी में प्रागैतिहासिक काल हो गया है। प्रागैतिहासिक युग का अभिप्राय उस प्रारम्भिक युग से है, जब जीव तत्व अस्तित्व में आकर क्रमशः पशु-योनि एवं मानव-योनि में पर्दापण किया और इसका अन्त लेखन कला के प्रथम परिचय के साथ स्वीकार किया। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रागैतिहासिक काल वह है जिससे सम्बन्धित लिखित साक्ष्य पूर्णतया अनुपलब्ध है। डा0 धीरेन्द्रनाथ मजूमदार का मत है कि इस युग का प्रागैतिहासिक नामकरण का एक कारण यह भी प्रतीत होता है कि यह ऐतिहासिक युग से पूर्व की मानव-कथा का अध्ययन प्रस्तुत करता है। इस युग का मानव पूर्णरूपेण निरक्षर था। ऐतिहासिक तथा प्रागैतिहासिक काल के बीच विभाजक रेखा के रूप में साक्षरता को स्वीकार किया जा सकता है। डा0 श्रीराम गोयल का यह कथन तर्कसंगत लगता है कि प्रागैतिहासिक काल में मानव का साहित्य और मनोमय जगत अज्ञात ही रह जाता है यद्यपि कि अन्य प्रतीकों को उन्होंने खोज लिया था, ऐसा प्रतीत होता है। आरंभिक मानव के समक्ष दो कठिन समस्याएं थीं- एक तो भोजन की व्यवस्था करना और दूसरे जानवरों से स्वयं की रक्षा करना। मानव ने भोजन के लिए शिकार करने, जंगली फलों और कन्दों को तोड़ने-खोदने एवं जानवरों से अपनी रक्षा करने के लिए नदी उपत्यकाओं में सर्वसुलभ पाषाण-खण्डों को प्रयुक्त किया। सभ्यता के प्रारम्भिक चरण में मानव ( होमो सेपियंस ) पत्थर का औजार बनाता था, क्योंकि पत्थर उसे सरलता से उपलब्ध था। प्रागैतिहासिक काल का अध्ययन करने के लिए पुरातात्त्विक स्रोत के रूप में पाषाण उपकरण ही सर्वाधिक मात्रा में प्राप्त हुए हैं। पाषाण-उपकरणों की प्रधानता और उन पर मानव की निर्भरता के कारण इस आरंभिक काल को ‘ पाषाण काल ’ कहा जाता है।
मानव सभयता के विकास का प्राथमिक चरण पूर्व पाषाण काल का है। इस काल का आरम्भ नृतत्व शास्त्र के साक्ष्यों के आधार पर आज से लगभग 6 लाख वर्ष पूर्व माना गया। विभिन्न देशों से इस काल की जो सामग्रियाँ प्राप्त हुई हैं, उनके तुलनात्मक अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि प्रायः उन सभी देशों के आरम्भ्कि इतिहास का रूवरूप एक जैसा था। यूरोप, एशिया, अफ्रीका आदि सभी देशों में बेडौल एवं भद्दे उपकरण प्राप्त हुए हैं। भारत में पाषाणकालीन संस्कृति का अनुसंधान सर्वप्रथम 1863 ई. में प्रारंभ हुआ। सर्वप्रथम राबर्ट ब्रूस फुट नामक भारतीय जिओलाॅजिकल सर्वे के विद्वान ने, जो भारतीय प्रागैतिहास के पिता कहे जाते है, मद्रास के निकट पल्लवरम् नामक स्थान से पुरापाषाण काल के एक हस्त-कुठार की खोज की। इसके बाद, इस प्रकार के उपकरणों की प्राप्ति का क्रम निरन्तर चलता रहा। किंग, ओन्डहम, हैकेट, बीन ब्लैन्फर्ड आदि विद्वानों को अधिक संख्या में पाषाण कालीन उपकरण मिले। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक मद्रास (वर्तमान चेन्नई), बंबई ( वर्तमान मुम्बई ), मध्य प्रदेश, उड़ीसा, बिहार और उत्तर प्रदेश के स्थलों तथा मैसूर, हैदराबाद, रीवा, तलचर आदि से भी प्रागैतिहासिक संस्कृति के अनेक स्थल प्रकाश में आये। 1935 ई. में डी. टेरा एवं पैटरसन के निर्देशन में येल कैब्रिज अभियान दल ने शिवालिक की पोतवार ( पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त ) के पठारी भाग का सर्वेक्षण किया और वहाँ कई पुरा पाषाणकालीन उपकरण प्राप्त किये।
पूर्व पाषण काल के उपकरणों की प्राप्ति स्थलों से स्पष्ट होता है कि इस समय मनुष्य नदियों के किनारे एवं झीलों के तटों या पर्वतों की कंदराओं में निवास करता था। पूर्व पाषाण कालीन संस्कृति के उदय एवं विकास का समय प्रातिनूतन काल में लगभग 6 लाख वर्ष पूर्व माना जाता है। जो सहस्रों वर्षों तक चला। डा0 धीरेन्द्रनाथ मजूमदार के अनुसार इस अवधि में उत्तर एवं दक्षिण भारत में महत्वपूर्ण जलवायु परिवर्तनों का क्रम चलता रहा। उत्तर भारत में यह क्रम इस प्रकार रहा-1. प्रथम हिम युग, 2. प्रथम अन्तर्हिम युग, 3. द्वितीय हिम युग, 4. द्वितीय अन्तर्हिम युग, 5. तृतीय हिम युग, 6. तृतीय अन्तर्हिम युग, 7. चतुर्थ हिम युग, 8. हिमोत्तर युग। हिम युग अत्यधिक शीतप्रधान और अन्तर्हिम युग अपेक्षाकृत उष्ण था। दक्षिण भारत में भी जलवायु परिवर्तन का क्रम चलता रहा। यहाँ जो यह क्रम चला वह वृष्ट्यावर्तन और वृष्टिप्रत्यावर्तन काल अपेक्षाकृत शुष्क था। पूर्वपाषणकालीन संस्कृति का उदय एवं विकास इसी प्रकार की जलवायु सम्बन्धी परिवर्तनों की पृष्ठभूमि पर दर्शित होता है। मानव द्वारा प्रस्तर-उपकरणों के प्रयोग की एक लम्बी शृंखला है। अनगढ़ पत्थर के औजारों से लेकर परिष्कृत पाषाण-उपकरणों में मानव की विकसित होती बुद्धि-क्षमता सहज ही प्रतिबिंबित होती है। 1816ई0 में कोपेनहेगेन, डेनमार्क राष्ट्रीय संग्रहालय के अध्यक्ष सी जे थामसन ने पुरावशेषों के त्रिवर्गीय पद्धति अथवा त्रिकाल प्रद्धति का आविष्कार संग्रहीत पुरावशेषों के आधार पर किया। थामसन महोदय ने पाषाण उपकरणों या औजारों को सर्वप्रथम, कांस्य उपकरणों को उसके बाद तथा अन्त में लौह उपकरणों को रखा। जो इस प्रकार है-1. पाषाण युग 2. ताम्र/कांस्य युग, 3. लौह युग यह वर्गीकरण संभापित मानव के तकनीकी विकास के आधार पर किया गया था। कुछ वर्ष बाद डेनमार्क में वारसा द्वारा उत्खनन किया गया। जिसके फलस्वरूप स्तरीकरण जमाव क्रमशः फ्लिंट अर्थात् पाषाण, कांस्य और लौह उपकरणों के मिले। अतः इस आरम्भिक संकेत को आधार मानकर पुरातत्व विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मानव सभ्यता का तकनीकी विकास क्रमशः इन्हीं तीन काल क्रमों हुआ। लेकिन कुछ पुरातत्वविद् इस त्रिकाल प्रणाली के वर्गीकरण से असंतुष्ट थे। वे पुरावशेषों का वर्गीकरण उपकरणों का प्रयोग, परम्परागत प्रणाली से पुरावस्तुओं की व्याख्या, मानव के क्रमिक विकास आदि के आधार पर करना चाहते थे। सर्वप्रथम निलसन महोदय ने 1. बर्वर , 2. शिकारी या घुमक्कड , 3. कृषक , 4. सभ्यता इन चार वर्गों में विभाजित किया। लेकिन इस वर्गीकरण के माध्यम से मानव सभ्यता के क्रमिक विकास का पता तो चलता है लेकिन मानव के तकनीकी विकास की व्याख्या नहीं हो पाती है। सर्वप्रथम जान लुब्बक महोदय ने 1865ई0 में अपनी रचना ‘‘ प्रीहिस्टारिक टाईम्स ’’ में प्रागैतिहासिक काल का विभाजन – पुरापाषाण काल एवं नवपाषाण काल में किया। जान लुब्बक महोदय को इन पाषाण संस्कृतियों के उपकरणों, जानवरों के अवशेष एवं खाद्य सामग्रियों में अंतर देखने को मिली थी। मानव संस्कृतियों के विभाजन एवं मतभेद के साथ नये-नये पुरास्थलों की खोज निरन्तर होती रही तथा विकास के कई चरण देखने को हमें मिलते हैं। बाद में पुराविदों द्वारा इस काल का विभाजन निम्न पुरापाषाण काल, नव पाषाण काल, मध्य पुरा पाषाण काल और उत्तर पुरापाषाण काल के नाम से किया गया। नव अन्वेषणों के माध्यम से पुरापाषाण काल और नवपाषाण काल के बीच एक अन्य संस्कृति के विद्यमान होने का आभास मिलने जगा था। 1887ई0 में फ्रांस की ‘‘ मास द आजिल ’’ नामक पुरास्थल के उत्खनन से इस अन्तराल की पूर्ति के ठोस साक्ष्य लघु पाषाण उपकरणों के रूप में मिला। जो मध्य पाषाण काल के नाम से अभिहित किया गया। मानव-सभ्यता के इस काल को मुख्य रूप सेे तीन भागों में विभाजित किया गया है और प्रत्येक काल अपनी विशिष्टताओं एवं उपकरण बनाने की तकनीक में होने वाले क्रमिक विकास को सूचित करता है-
1. पुरा पाषाण काल
2. मध्य पाषाण काल
3. नव पाषाण काल
पषाण काल की संस्कृतियों के विभाजन की अनेक शब्दावलियाँ प्रचलित रही हैं और वर्तमान में भी प्रचलन में हैं। राबर्ट ब्रूसफुट ने 1816ई0 में पहली बार भारत की पुरातन संस्कृतियों का वर्गीकरण किया। इसके पूर्व भारतीय प्रागैतिहास यूरोप तथा अफ्रीका की प्रागैतिहासिक संस्कृतियों से प्रभावित रहा। रावर्ट ब्रूसफूट महोदय ने भारतीय पुरातन संस्कृतियों का वर्गीकीण- पुरापाषाण काल , नव पाषाण काल , प्रारम्भिक लौह काल , और उत्तर लौह काल किया। पाषाण उपकरणों का यह विभाजन मुख्य रूप से उपकरणों के आकार-प्रकार को आधार मान कर किया गया था। ये उपकरण विभिन्न स्तरों से प्राप्त होने के कारण एवं एक समान न होने के कारण समय का निर्धारण निश्चित रूप से नहीं हो पाता था। भारत के तमिलनाडु एवं आन्ध्रप्रदेश के पूर्वी तटीय क्षेत्रों से 1930ई0 -1932ई0 के मध्य एम. सी. बर्किट तथा एल. ए. कमियाडे ने एकत्रित पाषाण उपकरणों के अध्ययन और निष्कर्ष के आधार पुरापाषाण उपकरणों को चार श्रेणियों में विभाजित किया है। प्रथम श्रेणी में हैण्डएक्स एवं क्लीवर, द्वितीय श्रेणी में फलक पर बने हुए उपकरण और विकसित हैण्डएक्स आदि को सम्मिलित किया जाता है। तृतीय श्रेणी के अन्र्तगत ब्लेड, ब्यूरिन एवं स्क्रेपर आदि उपकरणों को सम्मिलित किया गया था। चतुर्थ श्रेणी लघु उपकरणों से सम्बन्धित थी। यह वर्गीकरण यूरोपीय प्रागैतिहासिक संस्कृतियों के समकक्ष था। 1961ई0 में दिल्ली में आयोजित प्रथम एशियाई पुरातत्व सम्मेलन में पुरातत्व वेत्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला कि भारत में पाषाणिक संस्कृतियों का जो विकास हुआ वह यूरोप की पाषाणिक संस्कृतियों से भिन्न था एवं अफ्रीका की संस्कृतियों के अधिक सन्निकट थी। इसलिए अफ्रीका के प्रागैतिहासिक अध्ययन में प्रयुक्त प्रारम्भिक पाषाण काल , मध्य पाषाण काल , एवं उत्तर पाषाण काल इन नामों के प्रयोग की संस्तुति पुरातत्व विद्वानों ने इस सम्मेलन में दिया। इसके बाद भारत में प्रागैतिहासिक अध्ययन में अफ्रीका में प्रचलित शब्दावली का प्रचलन हुआ। पुरा पाषाण काल में मानव ने जहाँ भारी एवं विषम औजारों के शल्क (फ्लेक) का उपयोग किया, वहीं मध्यपाषाण काल में सूक्ष्म पाषाण-उपकरणों की शुरूआत हुई। नव पाषाण काल की अर्थव्यवस्था का आधारभूत तत्त्व खाद्य-उत्पादन एवं पशुओं को पालतू बनाने की जानकारी भी रही। इसी काल में पहली बार मृद्भांडों के साक्ष्य मिलते हैं।
पुरा पाषाण काल:
पुरा पाषाणकालीन संस्कृति का विकास अत्यंत नूतन युग में हुआ। पुरा पाषाण काल को ‘ पैलियोलिथिक एज ’ कहा जाता है जो यूनानी भाषा केे ‘पैलियोस’ एवं ‘लिथोस’ के शब्दों से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है- पुराना पाषाण। पुरा पाषाण काल के शल्क निकाले गये पाषाण-उपकरण भारत के विभिन्न भागों से बड़ी संख्या में मिले हैं। इस काल के उपकरण एक प्रकार के सख्त पत्थर क्वाट्र्जाइट से बने हैं, इसलिए भारत में पुरा पाषाणकालीन मानव को ‘ क्वाटर्जाइट मानव ’ कहा जाता है। पाषाण-उपकरणों के आधार पर अनुमान लगाया जाता है कि इनका काल लगभग मोटेतौर पर पाँच लाख से आठ हजार ई.पू. के आसपास होगा।
भारत में पुरा पाषाणकालीन मानव के अवशेष नहीं मिले हैं, किंतु दिसम्बर, 1982 में मध्य प्रदेश के हौशंगाबाद जिले में नर्मदा नदी घाटी में स्थित हथनौरा नामक स्थल से एक मानव खोपड़ी (मस्तिष्क) का जीवाश्म प्राप्त हुआ है जिससे भारतीय प्रागैतिहासिक संस्कृति को समझने में सहायता मिली है। नृवैज्ञानिकों ने इस मस्तिष्क को होमो इरैक्टस समूह का बताया है, जबकि कुछ इसे होमो सेपियंस का साक्ष्य मानते हैं। यद्यपि इस नर्मदा मानव की तिथि और समय ज्ञात नहीं है, फिर भी इसे निम्न पुरा पाषाणकालीन मानव का साक्ष्य माना जा सकता है क्योंकि यह खोपड़ी उस काल के उपकरणों के साथ उत्खनन में मिली है। महाराष्ट्र के बोरी नामक स्थान की खुदाई में मिले अवशेषों से अनुमान किया गया है कि इस पृथ्वी पर मनुष्य की उपस्थिति लगभग चैदह लाख वर्ष पुरानी है। मोटेतौर पर भारत में मानव का अस्तित्व पंजाब में सिंधु और झेलम नदियों के बीच लगभग पाँच लाख वर्ष पूर्व रहा होगा।
गोल पत्थरों से बनाये गये प्रस्तर-उपकरण मुख्य रूप से सोहन नदी घाटी में मिलते हैं। सामान्य पत्थरों के कोर तथा फ्लाॅक्स प्रणाली द्वारा बनाये गये औजार मुख्य रूप से मद्रास (वर्तमान चेन्नई) में पाये गये हैं। इन दोनों प्रणालियों से निर्मित प्रस्तर के औजार सिंगरौली घाटी, मिर्जापुर एवं बेलन घाटी (इलाहाबाद) में मिले हैं। मध्य प्रदेश के भीमबैठका में मिली पर्वत-गुफाएं एवं शैलाश्रय (गुफा चित्रकारी) भी महत्त्वपूर्ण हैं। आंध्र प्रदेश के रेणिगुण्टा, येर्रगोण्डापालेम, महाराष्ट्र के भदणे, पटणे, गुजरात के विसदी आदि पुरास्थलों से उच्च पुरापाषाणिक उपकरण मिले हैं। संभवतः पुरा पाषाणकालीन मानव नीग्रो नस्ल का था, जैसे कि वर्तमान में अंडमान द्वीप के लोग हैं। नीग्रो नस्ल के मानव का कद छोटा होता है, बाल घुँघराले, त्वचा का रंग काला और नाक चपटी होती है।
पुरा पाषाण काल अन्य पाषाण कालों की अपेक्षा अधिक अवधि तक चला और इसके विकास के कम से कम तीन अलग -अलग चरण दृष्टिगत होते हैं तथा पुरा पाषाण काल में प्रयुक्त होने वाले प्रस्तर-उपकरणों के औजार-प्रौद्योगिकी एवं जलवायु में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर इस काल को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
- निम्न पुरापाषाण काल
2. मध्य पुरापाषाण काल
3. उच्च पुरापाषाण काल
निम्न पुरापाषाण कालः
पूर्व पाषाण कालीन मनुष्य अपनी बर्बर अवस्था में भी ज्ञान-विज्ञान की दिशा में धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। खाद्य-अखाद्य कन्दमूल फलों की पहचान उसे हो गयी थी, जिनमें आधुनिक वनस्पति विज्ञान के बीज दर्शित होते हैं। अपने शिकार को सफल बनाने के लिए मानव ने पशु -स्वभाव की जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया होगा। इसी संदर्भ में, उपर्युक्त अवधि एवं मौसम से संबन्धित ज्ञान भी संबर्द्धित हुआ होगा। बाद में प्रारम्भिक ज्ञान की इसी आधार शिला पर ही प्राणि विज्ञान, जलवायु विज्ञान, वनस्पति विज्ञान आदि अस्तित्व में आये। सम्पूर्ण विश्व के पुरा पाषाण काल पर दृष्टिपात करते हुए गार्डन चाइल्ड महोदय का मत है कि ‘‘ वन परम्परा में वनस्पति विज्ञान एवं जलवायु विज्ञान का मूल अन्तर्निहित है। ’’ पुरा पाषाकालीन मानव ने सर्वाधिक समय निम्न पुरापाषाण काल में बिताया। इस कालखण्ड का समय लगभग पाँच लाख वर्ष पूर्व से एक लाख वर्ष पूर्व माना जाता है। निम्न पुरा पाषाण काल की तिथि गुजरात के हिरण्य घाटी एवं राजस्थान के डिडवाना ( 3,90,000 वर्ष ) से यूरेनियम-थोरियम पद्धति के आधार पर निकाली गयी है। येदुरवाड़ी में 3,50,000 वर्ष तथा सोन घाटी में ऊष्मादीप्ति पद्धति के आधार पर 3,90,000 वर्ष निर्धारित किया गया है। इस काल में उपकरण बनाने के लिए कच्चे माल के रूप में विभिन्न प्रकार के पत्थर, जैसे- क्वार्टजाइट, चर्ट, क्वार्टज और बेसाल्ट आदि प्रयोग किये जाते थे। इस काल के उपकरणों में मुख्यतः हस्तकुठार (हैण्डएक्स), खण्डक-उपकरण (चाॅपिंग टूल्स), विदारणियां (क्लीवर) और गड़ांसे (चाॅपर) आदि सम्मिलित हैं। भारत की निम्न पुरापाषाण काल की संस्कृति को उपकरण एवं प्रसार क्षेत्र के आधार पर दो वर्गो में बाँटा जा सकता है-1. चाॅपर-चापिंग या पेबॅल संस्कृति , 2. एश्यूलियन या हैण्डएक्स संस्कृति । वर्तमान पाकिस्तान देश के पंजाब प्रान्त में बहने वाली सिन्धु नदी की सहायक सोहन नदी घाटी में सर्वप्रथम चाॅपर-चापिंग या पेबॅल संस्कृति के अस्तित्व का पता चला था, अतः इस संस्कृति को ‘‘ सोहन संस्कृति ’’ के नाम से भी जाना जाता है। वहीं एश्यूलियन संस्कृति को हैण्ड एक्स संस्कृति भी कहा जाता है। प्रो0 किंग महोदय को 1864ई0 में मद्रास के समीप वद्मदुरै एवं अतिर्पक्कम् से इस संस्कृति के उपकरण सर्वप्रथम मिला था, इसलिए इसे ‘‘ मद्रासियन संस्कृति ’’ भी कहा जाता है। चाॅपर-चापिंग एवं फलक पेबॅल संस्कृति के प्रमुख उपकरण हैं। पेबॅल उपकरण नदी के प्रवाह में दूर तक प्रवाहित होने के कारण अनगढ़ पाषाण खण्ड जो गोलाकार स्वरूप धारण कर लेते हैं, पेबॅल कहलाते हैं। ये उपकरण अफ्रीका के ओल्डुवाई गार्ज नामक स्थान सपर मानव के प्रथत उपकरण अवशेष के रूप में निचले स्तर से मिलें हैं। भारत में इन उपकरणों की प्राप्ति सोहन घाटी (वर्तमान पाकिस्तान) में होती है। चाॅपर-चापिंग इन दो शब्दों का अर्थ समानार्थी होने के कारण विद्वानों को आपत्ति है। आर0 वी0 जोशी महोदय ने इन्हें एक पक्षीय या एक पाश्र्वीय तथा द्विपाश्र्वीय या द्विपक्षीय की संज्ञा दी है। एश्यूलियन संस्कृति के उपकरणों में हैण्डएक्स, क्लीवर, स्क्रेपर, क्रोड एवं फलक आदि प्रमुख हैं। इन उपकरणों का विकास पेबॅल उपकरणों ही माना जाता है। ये उपकरण अफ्रीका के ओल्डुवाई गार्ज के तृतीय स्तर से सर्वप्रथम मिला है। भारत में अधिकांश क्षेत्रों से इस प्रकार के उपकरण प्राप्त हुए हैं। बेलन घाटी, सोन, नर्मदा, कृष्णा नदी घाटियों से इस संस्कृति के उपकरण प्राप्त हुए हैं। मध्यप्रदेश के भीमबैठका नामक पुरास्थल के उत्खनन से इस प्रकार के उपकरण सबसे निचले स्तर से मिले हैं। भारत में निम्न पुरापाषाणिक संस्कृति को निम्नलिखित क्षेत्रों में बाॅटा जा सकता है-उत्तरी क्षेत्र, शिवालिक क्षेत्र, पश्चिमी क्षेत्र, दकन का पठारी क्षेत्र, दक्षिणी क्षेत्र, पूर्वी क्षेत्र तथा मध्य क्षेत्र। उत्तरी क्षेत्र में कश्मीर घाटी एवं हिमालय के शिवालिक क्षेत्र को सम्मिलित किया जाता है। 1935ई0 में येल कैम्ब्रिज अभियान दल के सदस्य हेल्मुत द तेरा तथा टी0 टी0 पीटरसन ने कश्मीर घाटी के प्रातिनूतन काल के जमाव का अध्ययन किया था। कश्मीर घाटी का यह जमाव करेवा कहलाता है। ऐसी झील जो जम जाये उसको करेवा कहते हैं। प्रारम्भ में हेल्मुत द तेरा और पीटरसन महोदय को मानव आवास के साक्ष्य नहीं मिला था लेकिन सांकलिया तहोदय को 1969ई0 में श्रीनगर से 65 किमी दूरी पर स्थित लिद्दर नदी पर स्थित पहलगाम से विशाल आकार का फलक एवं एक अनगढ़ हैण्डएक्स मिला था। 1970ई0में सांकलिया और आर0 वी0 जोशी महोदय को इस पुरास्थल का पुनः सर्वेक्षण के दौरान 9 उपकरणों को खोज निकाला, जो क्वार्टजाइट के बने थे। सबसे पहले 1928ई0 में डी0 एन0 वाडिया ने सोहन घाटी में उत्खनन किया था। इन्हें सोहन घाटी का पितामह कहा जाता है। 1951ई0 में ओलफ रूफर महोदय ने सतलज नदी की सहायक नदी सिरसा की घाटी में हिमाचल प्रदेश के नलगढ़ के समीप से निम्न पुरापाषाण काल से सम्बन्धित चाॅपर-चाॅपिंग उपकरण की खोज की थी। श्री वाई0 डी0 शर्मा महोदय ने 1954ई0 में व्यास नदी की सहायक नदी के तट पर स्थित दौलतपुर से चाॅपर-चॅपिंग शैली के निम्न पुरापाषाणिक उपकरण खोज निकाला। श्री बी0 बी0 लाल महोदय ने 1955ई0 में कांगड़ा जिले (हिमाचल प्रदेश) में गुलेर, देहरा, घलियारा एवं कांगड़ा का उत्खनन किया। बानगंगा नामक पुरास्थल से बी0 बी0 लाल महोदय को एक पक्षीय चाॅपर, उभयपक्षीय चाॅपिंग, पेबॅल हैण्डएक्स, समान्य हैण्डएक्स, क्रोड एवं फलक नामक निम्न पुरापाषाणिक उपकरण मिला जो क्वार्टजाइट, पेबॅल तथा पेबॅल-फलकों पर निर्मित हैं। चण्डीगढ़ के होशियारपुर से जी0 सी0 महापात्रा महोदय को 20 एश्यूलियन पुरास्थल खोज निकाला है। एच0 डी0 सांकलिया महोदय ने हैण्डएक्स के आकार एवं तकनीकी बनावट के आधार पर इन्हें 6 प्रकारों में विभाजित किया है। ये हैं-1. पीअर शेप्ड , 2. ट्रैंगुलर हैण्डएक्स , 3. लैन्सीओलेट या आॅलमण्ड , 4. आवेट हैण्डएक्स , 5. काॅरडेट या हार्टशेप्ड , 6. माइकोकियन हैण्डएक्स । पश्चिमी क्षेत्र के अन्तर्गत राजस्थान एवं गुजरात के भू-भाग आते हैं। राजस्थान प्रान्त के प्रमुख निम्न पुरापाषाणिक पुरास्थलों में डिडवाना, अमरापुर, जायल, सिंधी तालाब, भैसोरगढ़, सोनिता, जनकपुरा, चित्तौडगढ़, नागरी आदि प्रमुख हैं। राजस्थान के दक्षिणी-पूर्वी क्षेत्र में अनेक पुरास्थलों से पुरापाषाणिक उपकरण प्राप्त हुए हैं। एस0 आर0 राव एवं वी0 एन0 मिश्र ने इस क्षेत्र में अन्वेषण किया जिसके फलस्वरूप एश्यूलियन परम्परा के हैण्डएक्स, क्लीवर, क्रोड, फलक, आदि उपकरण प्राप्त हुए हैं। गुजरात प्रान्त के मुख्य पुरास्थलों में सावरमती घटी में स्थित हैं। जूनागढ़ एवं अमरोहा नामक पुरास्थल से ए0 आर0 मराठे महोदय ने एश्यूलियन संस्कृति के उपकरण खोज निकाला। हड़ोल, पधामली तथा बीरपुर, भदर, हिरण एवं कालूबार आदि प्रमुख पुरास्थल हैं। मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश का दक्षिणी पठारी भाग मध्य क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। मध्य प्रदेश के प्रमुख निम्न पुरापाषाणिक स्थलों में होसंगाबाद, नरसिंहपुर, सिहोर जबलपुर सतना, मैहर, रीवा, दमीत्रोह, आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। उत्तर प्रदेश के स्थित सोनभद्र, कमर्जानुर, इलाहाबाद का दक्षिणी पठारी भाग, चित्रकूट, हमीरपुर बाँदा, झाँसी एवं ललितपुर आदि में पुरापाषाणिक काल से सम्बन्धित अनुसंघान हुए हैं। 5 दिसम्बर 1982ई0 को मघ्य प्रदेश के होसंगाबाद जिले कि हथनोरा नामक पुरास्थल से श्री अरूण सोनकिया महोदय को मानव की खोपड़ी का जीवाश्म मिला, साथ ही वहीं से ‘‘ स्टेगोडॅन गनेशा ’’ एवं ‘‘ एलीफॅस हिसुड्रिकस ’’ नामक हाथियों का जीवाश्म मिला है। इन जमावों से ही एश्यूलियन हैण्डएक्स, क्लीवर आदि निम्न पुरापाषाणिक उपकरण प्राप्त हुए हैं। ए0 पी0 खत्री महोदय को नर्मदा घाटी में ओल्डुवाँ प्रकार के पेबॅल उपकरण मिला। यह उपकरण सर्वप्रथम महादेव-पिपरिया नामक पुरास्थल से प्राप्त हुए थे, इसलिए उनको महादेवियन नाम दिया गया। दमोह जिले में सोनार, वियरना घाटी में निम्न पुरापाषाणिक संस्कृति के लगभग 12 पुरास्थल प्रकाश में आये। डा0 निसार अहमद ने सोन नदी घाटी में 45 पुरास्थलों की खोज की थी। मध्य प्रदेश के सीधी जिले में सिंहावल, बघोर, पटपरा आदि महत्वपूर्ण पुरास्थलों की खोज डा0 निसार अहमद द्वारा किया गया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के पुरातत्वविद प्रो0 जी0 आर0 शर्मा के निर्देशन में 1975-1977ई0 के मध्य सोन घाटी का सर्वेक्षण किया गया। मध्य सोन घाटी के भूतात्विक जमावों में पशुओं के जीवाश्म प्राप्त हुए हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के पुरातत्वविद प्रो0 जी0 आर0 शर्मा और संयुक्त राज्य अमेरिका के कैलीफार्निया स्थित बर्कले विश्वविद्यालय के नृतत्व विभाग के पुराविदों द्वारा जे0 डी0 क्लार्क के संयुक्त निर्देशन में 1980-1982ई0 तक चुरहट से लेकर पुरब में गोपद-सोन के संगम के निकट स्थित बघोर तक मध्य सोन घाटी का भूतात्विक एवं पुरातात्विक सर्वेक्षण एवं अन्वेषण किया गया। अल्चिन महोदय द्वारा बघई नदी, कन्हारी, रेहुन्तिया तथा पाण्डव प्रपात आदि पुरास्थलों की खोज की गयी। नर्मदा घाटी में इस संस्कृति के अवशेष सीमेंट ग्रैवेल एवं सेण्डी पेवली ग्रैवेल से प्राप्त होते हैं। शैलाश्रयों के उत्खनन से भी यह संस्कृति स्तरीकृत निम्न पुरापाषाणिक संस्कृति जमाव के ऊपरी स्तरों से प्राप्त होते हैं। मैहर नामक पुरास्थल की खोज इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रो0 जे0 एन0 पाण्डेय के द्वारा किया गया था। महाराष्ट्र के प्रमुख पुरास्थलों में चिरकी नवासा, गंगापुर, भदने, यसर, बोरी और मेरगांव आदि प्रमुख हैं। नेवासा नामक पुरास्थल से निम्न पुरापाषाणिक उपकरणों के साथ ही मवेशी, हाथी, एवं घोड़े के जीवाश्म भी प्राप्त हुए हैं। बोरी नामक पुरास्थल की खोज का श्रेय दकन कालेज पुणे के विद्वानों को जाता है। यहाँ से प्राप्त ज्वालामुखी राख के जमाव की तिथि 13 लाख वर्ष आँकी गयी थी। बोरी के इस क्षेत्र में उपकरणों के निर्माण के लिए बेसाल्ट एवं डोलेाराइट पत्थरों का प्रयोग किया जाता था। दक्षिणी क्षेत्र के अन्तर्गत कर्नाटक के बीजापुर जिले में स्थित अनागबाड़ी एवं गुलबर्गा जिले में स्थित हुणसगी महत्वपूर्ण पुरास्थल हैं। इन पुरास्थलों से एश्यूलियन संस्कृति के उपकरण प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त आन्ध्र प्रदेश के प्रकाशम, गिद्लूर, नैल्लौरएवं करीमपुर तमिलनाडु के पल्लवरम, अतिरपक्कम, बडमदुरै, मानाजनकारन और चिंगलपेट जिले में स्थित गुडियम गुफा से इस काल के उपकरण मिले हैं। पूर्वी क्षेत्र के अन्तर्गत पश्चिम बंगाल के बाकुड़ा, पुरूलिया, वीरभूमि एवं मिदनापुर से न्म्नि पुरापाषाणिक उपकरण प्राप्त हुए हैं। निम्न पुरापाषाणकालीन उपकरण सिंधु, सरस्वती, ब्रह्मपुत्र और गंगा के मैदानों को छोड़कर संपूर्ण भारत के बहुत बड़े भाग से पाये गये हैं। इस काल का मानव आस्ट्रेलोपेथेकस था जो गुफाओं से परिचित तो था, किंतु आग से परिचित नहीं था।
मध्य पुरापाषाण काल:
स्तरीकरण की दृष्टि से मध्य पूर्व पाषाण कालीन उपकरणों की स्थिति मध्यवर्ती है। इसके नीचे के स्तर से निम्न पुरापाषाणिक उपकरण एवं ऊपरी स्तर से उच्च पुरापाषाणिक उपकरण मिलते हैं। 1954ई0 के पहले मध्य पुरापाषाण काल के विषय में हमें कोई जानकारी नहीं थी क्योंकि इसके पूर्व ऐसी सामग्री का अभाव था। लेकिन अनेक पुरास्थलों से ऐसे उपकरण मिल रहे, जिनमें लेवल्वा तकनीक का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित था। ये उपकरण निम्न पुरापाषाणिक हैण्डएक्स, क्लीवर एवं स्क्रैपर आदि से नितान्त भिन्न था। इस प्रकार के उपकरण 1930ई0 में बर्किट और कमियाडे को कर्नूल, महाराष्ट्र के खाण्डिवली से के0 आर0 यू0 टाड को और हुल्मत डी टेरा एवं पीटरसन को पंजाब तथा नर्मदा की काली मिट्टी में प्राप्त हो चुके हैं। इसमें फलकों की बहुलता थी। इसे फलक-ब्लेड-स्क्रेपर संस्कृति भी कहते हैं। इस काल में इन तीनों उपकरणों का प्रचलन था। ए0 के0 घोष महोदय ने इसे फलक संस्कृति कहा है, जबकि के0 डी0 बनर्जी ने इसे नेवासियन संस्कृति कहा है। इस काल के उपकरणों को मुस्तुरियन संस्कृति भी कहा जाता है, क्यों कि यही उपकरण पश्चिमी यूरोप की मुस्तुरियन संस्कृति में भी प्रचलित थे। इस काल के उपकरणों की विशेषता यह है कि ये उपकरण कोर से निकले फलक पर पुनगर्ढ़न (रिटचिंग) कर बनायें गये हैं। जिससे इन्हें फलक समूह के उपकरणों के अन्तर्गत रखा जाता है। बर्किट एवं कमियाडे ने इसे सिरीज-2 माना है। हुल्मत डी टेरा ने पंजाब के इस उद्योग को अन्त-सोहन की संज्ञा दी । नर्मदा की काली मिट्टी से उपलब्ध इस उद्योग को आद्य नव पाषाण युगीन उद्योग का नाम प्रदान किया गया। इस काल की खोज एच.डी. संकालिया ने की थी। नेवासा प्रवरा नदी के तट पर स्थित है। इसका उत्खनन एच0 डी0 सांकलिया महोदय ने 1954ई0 में किया था। नेवासा इस संस्कृति का प्रारूप स्थल है। यहाँ से सांकलिया महोदय को तीन प्रस्तर उद्योग मिले, जिन्हें उन्होंने क्रमशः सिरीज-1, 2 एवं 3 कहा। सिरीज-1 में निम्न पुरा पाषाणिक हैण्डएक्स, क्लीवर एवं स्क्रैपर रखे गये थे। जो प्रथम ग्रैवेल से प्राप्त हुए थे। इन्हें प्रवरा नदी के प्रथम उच्चयन काल से सम्बन्धित किया गया है। प्रवरा नदी के द्वितीय ग्रैवेल के उपकरण प्रथम ग्रैवेल के उपकरणों से भिन्न हैं। आकार एवं तकनीक की दृष्टि से इन उपकरणों को कर्नूल, खाण्डिवली, पंजाब एवं नर्मदा की काली मिट्टी के उपकरणों के निकट रखा जा सकता है। नेवासा का द्वितीय ग्रैवेल प्रवरा नदी के द्वितीय उच्चयन से सम्बन्धित है। इसमें फलक, स्क्रेपर तथा ब्लेड की प्रमुखता थी। उपकरण पहले की अपेक्षा आकार में छोटे एवं सुडौल थे। इनके निर्माण में चर्ट और जैस्पर का उपयोग किया गया था। स्तर विन्यास के बाद जिन उपकरणों को सांकलिया महोदय ने सिरीज -2 कहा, उन्हें ही मध्य पुरापाषाणिक कहा गया। इसका समय एक लाख से चालीस हजार वर्ष पूर्व के लगभग माना जाता है। इस काल का मानव नियण्डर्थल माना जाता है। इस काल के मानव ने क्वार्टजाइट के स्थान पर अधिकतर उपकरण फिलण्ट, चर्ट, जैस्पर जैसे चमकीले पत्थर का प्रयोग किया। शल्क उपकरण उद्योग पुरापाषाण कालीन उपकरण तकनीक की विशेषता है। इस तकनीक के अंतर्गत बुटिकाश्म (पेबल) पर चोट करके उससे शल्क निकाले जाते हैं। फलकों की अधिकता के कारण इस काल की संस्कृति को फलक संस्कृति कहा जाता है। इस काल के उपकरणों में छोटे और मध्यम आकार की हस्तकुठार, विदारणी (क्लीवर) तथा विभिन्न प्रकार की खुरचनी (स्क्रैपर), बेधक (बोरर) और चाकू प्रमुख हैं।
इस काल के उपकरणों में आकार-प्रकार तथा कच्चे माल की उपलब्धता के आधार पर क्षेत्रीय भिन्नता देखने को मिलती है। जिन स्थलों पर मध्य पुरा पाषाकालीन उपकरण निम्न पुरा पाषाणकालीन उपकरणों से विकसित हुए हैं, ऐसे स्थलों में मानव-निवास की निरंतरता देखने को मिलती है। मध्य पुरापाषाणकालीन उपकरण मध्य भारत, दकन, राजस्थान, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक तथा उड़ीसा से पाये गये हैं। इस काल के कुछ महत्त्वपूर्ण स्थल हैं- भीमबैठका (भीमबेटका), नेवासा, पुष्कर, ऊपरी सिंधु की रोहिणी पहाड़ियाँ, नर्मदा के किनारे समानापुर आदि। मध्य पुरापाषाण काल क्रमिक रूप से उच्च पुरापाषाण काल के रूप में विकसित हुआ।
उच्च पुरापाषाण काल :
कुछ समय पहले तक भारतीय प्रागितिहास में उच्च पुरापाषाणिक काल की स्थिति अनिश्चित तथा पुराविदों के लिए समस्या थी। 1954ई0 में एच0 डी0 सांकलिया महोदय को महाराष्ट्र के नेवासा के द्वितीय ग्रैवेल से कुछ उपकरण मिलें, जिन्हें उन्होंने सिरीज-2 की संज्ञा प्रदान किया। इसे मध्य पुरापाषाण काल का माना गया। इससे मध्य पुरापाषाण काल के बारे में ज्ञान होता है, लेकिन उच्च पुरापाषाणिक काल के बारे में हम अनभिज्ञ ही रहे। ऐसी स्थिति में कल्पना की गयी कि भारत में इसका विकास ही नहीं हुआ था। लेकिन दिल्ली में आयोजित प्रथम एशियन कांग्रेस में वी0 सुब्बाराव ने यह प्रस्ताव रखा कि भारत में उच्च पुरापाषाणिक संस्कृति के अवशेष नहीं मिलते, इसलिए यहाँ के प्रस्तर उद्योगों का नामकरण अफ्रीका की प्रस्तर संस्कृतियों के समान अर्ली, मिडिल, एवं उत्तर या लेट स्टोन एज स्वीकार किया जाना चाहिए। लेकिन विद्वानों ने इसे नजर अन्दाज कर दिया। बर्किट एवं कामियाडे ने 1930ई0 में कर्नूल से प्राप्त प्रस्तर उद्योग को सिरीज-3 कहा। ये उपकरण सिरीज-2 के उपकरणों के पूर्ववर्ती और लघुपाषाणिक सिरीज-4 के पूर्ववर्ती थे। बर्किट महोदय को लम्बे फलकित ब्लेड एवं ब्यूरिन मिले, जो लैटराइट के ऊपर आधारित था। उपकरणों का निर्माण चर्ट से किया गया था। 1964ई0 के बाद भारत के अनेक पुरास्थलों से इस प्रकार के उपकरण प्रकाश में आये, जिन्हें उच्च पुरापाषाणिक कहा जा सकता है। प्रो0 जी0 आर0 शर्मा और उनके सहयागियों ने मिर्जापुर, वाराणसी, इलाहाबाद आदि जिलों में ऐसे अनेक पुरास्थलों की खोज की जहाँ पर ब्लेड एवं ब्यूरिन स्तरित जमावों में मिले थे। दक्षिणी इलाहाबाद में बेलन घाटी से उच्च पुरा पाषाणिक उपकरण एक निश्चित स्तर से मिले हैं। भारत में इस काल को उत्तर पुरापाषाण काल या सूक्ष्म-पाषाण काल भी कहा जाता है। इसे श्रेष्ठ पाषाण काल भी कहा जाता है। इसका समय चालीस हजार वर्ष पूर्व से दस हजार ई.पू. के लगभग माना जाता है। इस काल का मानव संभवतः होमो सैपियंस था। आधुनिक मानव का उदय इसी काल में हुआ। इस काल के सूक्ष्म पाषाण-उपकरण कुछ परिष्कृत पत्थरों, जैसे- चर्ट, चेल्सेडनी, क्रिस्टल, जैस्पर, कार्नलियन, एगेट आदि से बनाये गये हैं। क्रोड (कोर) से सावधानीपूर्वक निकाले गये समानान्तर सिरों वाले ब्लेड इस काल के उपकरणों की विशेषता हैं। ब्लेड तकनीक से उपकरणों का निर्माण किये जाने के कारण इस काल को ‘ ब्लेड संस्कृति ’ भी कहा जाता है। ब्लेड पतले और संकरे आकार का फलक था जिसके दोनों किनारे एक समान होते थे, किंतुु चैड़ाई लम्बाई की दुगुनी होती थी। शल्कों और फलकों (ब्लेड) पर बने उपकरणों में परिष्कृत और छोटे आकार के बेधक ( प्वांइण्ट्स ), खुरचनी ( स्क्रैपर ) तथा तक्षणी (ब्यूरिन) आदि सम्मिलित हैं। इसके अलावा कुछ नये प्रकार के उपकरण भी अस्तित्व में आने लगे, जैसे- त्रिकोण, समलम्ब, तीरों के नोंक, अर्द्धचंद्र्राकार आदि। इलाहाबाद जिले की मेजा तहसील में बेलन घाटी क्षेत्र में स्थित लोंहदा नामक नाले के तृतीय ग्रैवेल के अपरदित जमाव से हड्डी की बनी हुई मातृदेवी की एक मूर्ति मिली है। भारत में उच्च पाषाणिक काल के भूतात्विक स्तर से प्राप्त यह एकमात्र मूर्ति है। कुछ विद्वान इसे हारपून मानते हैं। इस काल में चित्रकला के क्षेत्र में भी प्रगति हुई। महाराष्ट्र के पटडे (जलगाँव जिला) पुरास्थल से प्राप्त शुतुरमुर्ग के तीन अण्डकवकों पर चित्रकारी की गयी है। इसके अलावा यहीं से सीपी के बने हुए मनके भी मिले हैं। इसके अलावा मेहताखेड़ी महाराष्ट्र का प्रमुख पुरास्थल है। आन्ध्र प्रदेश के मुग्छतला, चिन्ता मनुगावी शिलाश्रयों से ब्यूरिन अधिक संख्याा में मिले हैं। इसके अतिरिक्त रेनीगुण्टा, बटमचेर्ला, वेमुला, कर्नूल आदि महत्वपूर्ण उच्च पुरापाषाणिक पुरास्थल हैं। राजस्थान के चन्द्रेसाल एवं मध्य प्रदेश का रामनगर प्रसिद्ध पुरास्थल है। मध्य प्रदेश के भीमबैठका से मानव निर्मित चित्रांकन प्राप्त होता है। साक्ष्यों से लगता है कि संयुक्त उपकरणों का विकास इसी सांस्कृतिक चरण से आरंभ हो गया था। उच्च पुरापाषाणकालीन उपकरण राजस्थान, गंगा व बेलन घाटी के भागों से, मध्य तथा पश्चिम भारत, गुजरात, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक से प्राप्त हुये हैं। इस काल का मानव खेती करना नहीं जानता था। क्योंकि इस समय कृषि, पशुपालन एवं मृदभाण्डों के प्रचलन का प्रायः अभाव था। अतः इस काल का मानव उत्पादक नहीं था।
प्रसार-क्षेत्र एवं उपकरण प्ररूप :
कश्मीर घाटी से लेकर प्रायद्वीपीय भारत में फैली पुरापाषाणीय संस्कृति की विभिन्न बस्तियों में पर्यावरण एवं उपकरण-तकनीक-संबंधी उल्लेखनीय अंतर पाये जाते हैं। उत्तर भारत में पंजाब में नदी-वेदिकाओं के तट पर पत्थर के टुकड़ों को उपकरणों के रूप में प्रयुक्त किया गया, संपूर्ण दक्षिण भारत के मानव ने बड़े पत्थरों को गढ़कर हस्त-कुठार एवं अन्य उपकरणों का रूप प्रदान किया।
कश्मीर घाटी:
1928 ई. में पुरातत्त्वविद् वाडिया ने इस क्षेत्र से पाषाण-उपकरणों को प्राप्त किया। 1939 ई. तक पंजाब (वर्तमान पाकिस्तान) के केवल एक भाग से पुरा पाषाणकालीन संस्कृतियों के तीन-चार स्तर प्राप्त हुए थे। इन चार स्तरों का नाम सिंधुु नदी की एक सहायक नदी सोहन या सोन नदी के नाम पर प्राक् सोहन, आरंभिक सोहन, उत्तर सोहन तथा विकसित सोहन नाम दिया गया। इन स्तरों पर मुख्यतः खण्डक उपकरण, शल्क उपकरण तथा फलक या ब्लेड उद्योग के उपकरण प्राप्त हुए हैं। उपकरणों के अन्य वर्गों के नाम उन उपकरणों की कार्यात्मक शैली या तकनीक के आधार पर दिये गये हैं। ये उपकरण मानव की बौद्धिक क्षमता और मानसिक विकास को प्रतिबिंबित करते हैं। सोहन घाटी से हस्तकुठार और खण्डक उपकरण प्राप्त हुए हैं और इनके मुख्य स्थल हैं- अदियल, बलवल और चैंतरा।
1935 ई. में डी. टेरा एवं पैटरसन के नेतृत्व में येल कैम्ब्रिज अभियान दल ने कश्मीर से लेकर दक्षिणी पाकिस्तान में विस्तृत सर्वेक्षण किया और सिंधु तथा सोहन नदियों की भू-वैज्ञानिक संरचना का संबंध कश्मीर घाटी में अत्यंत नूतन युग में हिमानियों के जमने एवं पिघलने की प्रक्रिया से जोड़ा। द्वितीय हिमयुग के दौरान कश्मीर घाटी में पोतवार पठार पर भारी वर्षा हुई, जिसमें पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़े नदी के वेग में बह आये और उन पर सतह का निर्माण हुआ, जिसे ‘बोल्डर कोंग्लोमेरेट’ कहा गया है। मानव की सर्वप्रथम उपस्थिति सिंधु और सोहन के सबसे ऊपर की सतह बोल्डर कोंग्लोमेरेट में मानी जाती है। इस स्तर में बड़े-बड़े शल्क (चाॅपर), क्वार्टजाइट के खंडित पेब्बल इत्यादि हैं। इनमें से कुछ पत्थर के टुकड़ों को उपकरणों के रूप में पहचाना गया है जो पुरा पाषाणकालीन मानव के प्रथम निर्माण है।
सोहन उद्योग के उपकरण खंडित पेब्बल और शल्क के रूप में नदी-वेदिकाओं (टैरेस) में सिंधु और सोहन की वर्तमान सतह से क्रमशः 125 मी. और 65 मी. की ऊँचाई से पाये गये हैं। नदी, झील या समुद्र के किनारे के साथ नीचे की तरफ बने क्षेत्र को वेदिका (टैरेस) कहते हैं। जलवायुवीय परिवर्तन के कारण वेदिका (टैरेस) का निर्माण होता है। वेदिका (टैरेस) जितना ऊँचा होता है, उतना ही पुराना होता है। अंतर्हिमानी युग के दौरान कश्मीर घाटी और पंजाब के मैदानों की जलवायु में परिवर्तन हुआ जिससे सिंधु और सोहन नदी मे अनेक वेदिकाओं का निर्माण हुआ। द्वितीय हिमावर्तन काल में बनी वेदिका के उपकरणों को ‘ आरंभिक सोहन ’ कहा गया है जिसमें हस्तकुठार जैसे क्रोड तथा शल्क दोनों प्रकार के उपकरण हैं। ‘ हस्त-कुठार ऐसा प्रस्तर-उपकरण था जिसमें कई फलक निकाल कर एक तरफ धार बनाकर हस्त-कुठार का रूप दिया जाता था। ’ तृतीय हिमावर्तन काल में सोहन नदी की दूसरी वेदिका का निर्माण हुआ। इस समय के उपकरण अपेक्षाकृत परिष्कृत हैं। यहाँ भी फलक उपकरणों की प्रधानता है, किंतु इस स्तर से ब्लेड भी प्राप्त हुए हैं। 1932 ई. में कर्नल टाड ने पिण्डीघेव से ब्लेड प्रकार के अपेक्षाकृत छोटे उपकरणों की खोज की। उत्तरकालीन सोहन उद्योग के उपकरण चैंतरा से प्राप्त हुए हैं। चैंतरा को उत्तर एवं दक्षिण की परंपराओं का मिलन-स्थल कहा गया है क्योंकि यहाँ से सोहन संस्कृति के आरंभिक फलक उपकरण और दक्षिण भारत की हस्त-कुठार परंपरा के उपकरण भी मिलते हैं। यद्यपि दोनों प्रकार के उपकरण एक ही स्तर के जमाव से मिले हैं, किंतु ये उसी स्तर पर अलग-अलग स्थानों से प्राप्त हुए हैं।
प्रायद्वीपीय भारत:
इस क्षेत्र के अंतर्गत गंगा के मैदानों का दक्षिणी भाग आता है जो हस्त-कुठार संस्कृति का गढ़ माना जाता है। सर्वप्रथम इस संस्कृति के उपकरण मद्रास (चेन्नई) में पाये गये, इसलिए इन्हें ‘ मद्रास-कुठार उपकरण ’ भी कहा जाता है। 1863 ई. में राबर्ट ब्रूस फुट ने पल्लवरम् से हस्तकुठार प्राप्त किया था। हाल के शोधों से सिद्ध हो गया है कि मद्रासी परंपरा की हस्त-कुठार संस्कृति लगभग पूरे भारत के विभिन्न क्षेत्रों- आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, चेन्नई, मैसूर, महाराष्ट्र, गुजरात, पूर्वी राजस्थान, उत्तर प्रदेश के पठार क्षेत्र, पश्चिम बंगाल, सिंधु, कश्मीर, असम तथा आंध्र प्रदेश के तटीय प्र्रदेशों, तमिलनाडु और केरल आदि में फैली थी। प्रारम्भिक पाषाण काल में मानव की उपस्थिति नदी के आसपास तथा नदी घाटी से थोड़ी दूरी तक ही सीमित थी। हस्त-कुठार और अन्य उपकरण सर्वप्रथम पश्चिमी पंजाब में मिले हैं जो द्वितीय अंतर्हिमानी युग के थे। प्रायद्वीपीय भारत में ये नर्मदा के निक्षेप से प्राप्त हुए हैं जो लैटराइट मिट्टी के थे। इन निक्षेपों में लुप्त हो चुके जानवर, जैसे- जंगली हाथी, जंगली घोड़े तथा जंगली दरियाई घोड़े आदि के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं।
प्रायद्वीपीय भारत में प्रारम्भिक पाषाण काल के जो उपकरण मिले हैं, उनमें पेब्बल से बने हस्त-कुठार, गड़ासे और खण्डक-उपकरण, विदारणियां, बुटिकाश्म के अतिरिक्त हत्थे के साथ बनाये गये उपकरण, दो धारों वाले उपकरण तथा चोंचदार उपकरण भी शामिल हैं जो काटने और बेधने के लिए प्रयुक्त किये जाते थे। कर्नाटक के घाटप्रभा नदी घाटी में बटमदुरै से एश्युलियन संस्कृति ( विशेष प्रकार के हस्त-कुठार जो फ्रांस में पाये गये थे ) के हस्त-कुठार बड़ी मात्रा में मिले हैं। अनगावडी और बगलकोट घाटप्रभा के दो महत्त्वपूर्ण स्थल हैं, जहाँ से प्रारम्भिक और मध्य पुरापाषाण काल के उपकरण प्राप्त हुए हैं। अट्टिरमपक्कम और गुडियम (तमिलनाडु) से हस्तकुठार, शल्क, ब्लेड और खुरचनी जैसे उपकरण प्राप्त किये गये हैं। नर्मदा और गोदावरी घाटी से कुछ ऐसे जानवरों के अवशेष पाये गये हैं जो मानव द्वारा शिकार किये गये जानवरों के हैं। स्पष्ट है कि इस काल में मानव की जीवन-शैली शिकार और खाद्य-संग्रह पर आधारित थी।
पुरा पाषाणकालीन संस्कृति:
जानवरों के अवशेष पुरा पाषाण काल के मानव के खान-पान और जीवन-शैली के विषय में अधिक जानकारी प्रदान करते हैं। इस काल में मानव का जीवन पूर्णरूप से शिकार पर निर्भर था। आग और कृषि से अनभिज्ञ पुरा पाषाणकालीन मानव खानाबदोश जीवन जीता था और शिकार के लिए पूरी तरह पाषाण-उपकरणों पर आश्रित था। इसलिए यह काल आखेटक एवं खाद्य-संग्रहण काल के रूप में जाना जाता है। चयनित शिकार का इस काल में कोई साक्ष्य नहीं मिला है। कुछ स्थानों पर कुछ विशेष जानवरों के अवशेष अधिक मात्रा में मिले हैं, किंतु इसका कारण उस क्षेत्र-विशेष में उनकी अधिक संख्या हो सकती है या उनका सरलता से शिकार किया जाना हो सकता है। पौधों और जानवरों के माँस पर आधारित शिकारी खाद्य-संग्राहकों का खान-पान आर्द्र और शुष्क मौसम के अनुसार बदलता रहता था।
चट्टानों पर की गई चित्रकारी, जो कहीं-कहीं पत्थरों को खोदकर की गई है, से भी प्रारम्भिक मानव की जीवन-शैली और सामाजिक जीवन के विषय में जानकारी मिलती है। उच्च पुरापाषाण काल की प्रारम्भिक चित्रकारी के नमूने मध्य प्रदेश के भीमबैठका से मिले हैं। भीमबैठका से प्राप्त चट्टान पर की गई चित्रकारी शिकार की सफलता के लिए किये गये कर्मकांडों का हिस्सा है। इन चित्रों में हरा और गाढ़ा लाल रंग भरा गया है और इनमें मुख्यतः हाथी, शेर, गैंडा और वराह को चित्रित किया गया है। इन चित्रों में शिकारी गतिविधियों को दर्शाया गया है। चित्रों से पता चलता है कि इस काल में मानव छोटे-छोटे समूहों में रहता था तथा उसका जीवन पौधों और जानवरों से मिलने वाले संसाधनों पर आधारित था। राजस्थान के बागौर से प्राप्त एक तिकोने आकार के पत्थर की व्याख्या मादा उर्वरता के रूप में की गई है।
अभी पारिवारिक जीवन का विकास नहीं हुआ था। मानव गुफाओं में उसी प्रकार रहता था जैसे संघाओ (उत्तर-पश्चिम पाकिस्तान) या कुर्नूल (आंध्र प्र्रदेश) में मानव चटटानों से बने आश्रय-स्थलों में रहता था। इस प्रकार के अनेक साक्ष्य मध्य प्रदेश के भीमबैठका तथा भारत के दूसरे स्थानों से भी प्राप्त हुए हैं। मानव-बस्तियाँ अधिकतर घने जंगलों और पानी के स्रोतों के निकट होती थीं। कुल मिलाकर पुरा पाषाणकालीन मानव केवल उपभोक्ता था, अभी उत्पादक नहीं बन सका था।