कल्याणी का चालुक्य युगीन संस्कृति: भाग-2(Kalyani’s Chalukya Era Culture:Part-2)

धार्मिक स्थितिः    

                भारतीय समाज में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान है। नैतिक नियमों के पालन से ही मानव का हित समभव है। धर्म के अन्तर्गत धार्मिक, सामाजिक संस्कार, परम्परायें, एवं नैतिक मान्यतायें आती हैं। प्राचीन काल से ही भारत में धार्मिक स्वतंत्रता रही है और इसी परम्परा में कल्याणी के चालुक्य शासक अत्यन्त सहिष्णु और धार्मिक प्रवृत्ति के थे। इस काल में सभी धर्मों के अनुयायिों में एक दूसरे धर्म के प्रति आदर भाव एवं सहनशीलता थी। इस काल की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि चालुक्य राजाओं द्वारा सभी धर्मों एवं सम्प्रदायों को बिना किसी भेद-भाव के उदारता पूर्वक दान दिया जाता था। तत्कालीन अभिलेखों का प्रायः मुख्य उद्देश्य धर्म की अभिवृद्धि करने के लिए किये गये यज्ञों तथा दानों को स्थायित्व प्रदान करना था। इस काल में समाज में मुख्यतः दो धर्मों का विशेष विकास हमें दिखाई पड़ता है। पहला वैदिक धर्म और दूसरा जैन धर्म। बौद्ध धर्म इस समय पतनोन्मुख था। तथापि चालुक्यों के काल में वैष्णव, शैव, जैन एवं बौद्ध धर्मों का अस्तित्व निरन्तर बना रहा।

                चालुक्य शासन काल में वैदिक धर्म और संस्कृति का काफी विकास हुआ था। इस काल में अनेक धार्मिक यज्ञों का अनुष्ठान सम्पादित किये गये। चालुक्य लेखों से पता चलता है कि दान प्राप्त ब्राह्मण विभिन्न वैदिक धर्म की शाखाओं से सम्बन्धित थे। इस काल में वैदिक धर्म से सम्बन्धित अनेक पौराणिक देवी -देवताओं का प्रचलन समाज में हुआ। इस समय दक्षिण भारत में शैव धर्म का व्यापक प्रचार एवं प्रसार हा रहा था। राजा अपने परिवार के सदस्यों के साथ अपने आराध्य शिव की दर्शनार्थ शिव मंदिरों में जाते थे और दान करते थे। दक्षिणापथ में इस काल में शैव धर्म से सम्बन्धित पाशुपत सम्प्रदाय सबसे अधिक लोकप्रिय था। बल्लिगावे, सूदि, कक्कनूर, श्रीशैलम आदि इस धर्म से सम्बन्धित प्रमुख केन्द्र थे। शैव धर्म से सम्बन्धित दूसरा प्रमुख सम्प्रदाय कालामुख सम्प्रदाय था। इसका प्रमुख केन्द्र बल्लिगावे था। चालुक्य कालीन एक लेख में सोमेश्वर नामक एक नैयायिक कालामुख का विवरण मिलता है। इस काल में शिव भक्त कार्तिकेय एवं सुब्रह्मण्य की भी पूजा करत थे। कर्नाटक का बेल्लारी कार्तिकेय पूजा का मुख्य केन्द्र था।

                शैव धर्म की भाँति दक्षिण भारत में वैष्णव धर्म काफी लोकप्रिय था। वातापी के चालुक्य शासक वैष्णव धर्म के अनयायी थे। लेकिन इस समय शैव धर्म काफी लोकप्रिय हो रहा था जिसके कारण वैष्णव धर्म की लोकप्रियता में कुछ गिरावट देखने को मिलती है। गदग लेख से ज्ञात होता है कि गदग में त्रैपुरूष एवं द्वादश नारायण का मंदिर था। इसी तरह पोंबुल्व में एक जीर्ण -क्षीर्ण वैष्णव मंदिर का पुनर्निर्माण जक्किमप्य नामक एक ब्राह्मण ने करवाया था। मैलार से प्राप्त एक लेख में 200 वैष्णव महाजनों द्वारा एक शिव मंदिर के प्रबन्धन की व्यवस्था दिये जाने का विवरण मिलता है। नागवानि का मधुसूदन मंदिर वैष्णव धर्म का प्रधान केन्द्र था।

                चालुक्यों का शासन काल धार्मिक सहिष्णुता का काल था। वैष्णव तथा शैव धर्मों के साथ-साथ जैन धर्म की प्रगति विशेष उल्लेखनीय है। तत्कालीन समाज में जैन धर्म के अनुयायियों की संख्या अधिक थी। वे अपने धर्माचरण में पूर्ण स्वतंत्र थे। इस काल में बौद्ध धर्म की अपेक्षा जैन धर्म अधिक लोकप्रिय हो रहा था। चालुक्य लेखों में जैन धर्म के श्रेष्ठ जनों का सन्मार्ग पर चलने में आनन्द प्राप्त करने वाले गृहस्थों के रूप में उल्लेख मिलता है। (सागार सुमार्ग निरतार)। इस समय यहाँ अनेक जैन मंदिर का उल्लेख मिलता है। चोल आक्रमण के फलस्वरूप अनेक जैन मंदिरों को काफी नुकसान पहुँचा था। वासवपुराण के अनुसार होट्टलकेरे का शासक जयसिंह द्वितीय जैन था, जब कि उसकी पत्नी सुग्गलदेवी शैव धर्मानुयायी थी। बाद में सुग्गलदेपी के आग्रह पर उनके गुरू ने जयसिंह द्वितीय को शैव धर्म में दीक्षित किया। लेकिन यह वर्णन सत्य के कितना निकट है, कुछ नहीं कहा जा सकता है। चालुक्य शासक सत्याश्रय ने जैन कवि पम्प को संरक्षण प्रदान किया था।

                चालुक्य वंशीय नरेश ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे। अतः इसमें कोई आश्चार्य नहीं कि बौद्ध धर्म के निरन्तर हो रहे अवनति के कारण लोंगो का विश्वास कम होने लगा। यद्यपि चालुक्य शासकों ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनायी थी, किन्तु उनके द्वारा बौद्ध धर्म को कोई संरक्षण मिला, इसका कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। बौद्ध धर्म की अवनति इस समय अवश्य हो रही थी लेकिन यह पूर्णतया समाप्त नहीं हुआ था। क्योंकि चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा विवरण में अनेक बौद्ध मंदिरों, विहारों एवं संघारामों का उल्लेख किया है। इनके अवशेष आज भी मिलते हैं। दक्षिण भारत में बौद्ध धर्म की महायान शाखा का प्रचार-प्रसार था। बेलगावे एवं डंबल इस काल का प्रमुख बौद्ध केन्द्र था। डंबल में एक बौद्ध विहार था, जिसका निर्माण 16 सेट्टियों ने करवाया था। जो इस बात का प्रमाण है कि इन संस्थाओं को दान दिया जाता था, और इसे राजा की स्वीकृति रहती रही।

                चालुक्य काल की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि चालुक्य शासक धार्मिक जगत में सहिष्णु थे। सहिष्णुता की यह भावना भारत में बहुत पहले से चली आ रही है। चालुक्य शासक ब्राह्मण धर्म विशेषकर शैव धर्म के अनुयायी होते हुए भी जैन धर्म को संरक्षण प्रदान किया। इस समय ब्राह्मण और जैन धर्म का बोलबाला था। पौराणिक देवताओं के अनुयायियों में पूर्ण समरसता थी। परिवारों में वैयक्तिक आवश्यकता अनुसार इष्टदेव परिवर्तित होते रहते थे। प्रारम्भिक चालुक्य शासक वैष्णव धर्म के अनुयायी थे, किन्तु बाद के शासक शैव धर्म के अनुयायी बन गये। जैन धर्म को इस समय राजाश्रय प्राप्त था। अनेक चालुक्य शासकों ने जैन मंदिरों, मठों एवं विहारों को दान प्रदान किया। इससे यह कहा जा सकता है कि यह काल धार्मिक सहिष्णुता का काल था।

कला एवं साहित्यः

                भारतीय कला सदा से ही धर्म की सहचरी रही है। जिसके फलस्वरूप इसका विकास धर्म के माध्यम से देवालयों तथा भवनों के निर्माण के रूप में होता रहा। कल्याणी के चालुक्य शासकों ,सेनापतियों एवं अधिकारियों द्वारा निर्मित अनेक मंदिर उस समय की कला के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इस अवधि में अनेक चालुक्य शासकों ने ब्राह्मण धर्म को राजाश्रय प्रदान किया। चालुक्य शासकों की उदार सहिष्णुता के कारण जैन धर्म के अनेक मंदिरों का भी निर्माण हुआ। जिनसे उस काल की स्थापत्य, मूर्ति और वित्रकला पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। चालुक्यों की राजनैतिक उत्थान-पतन के साथ ही उनकी कलाशैलियों की धारायें भी अपने आप प्रादुर्भूत होती गयी। मधुसूदन, जो चालुक्य शासक सोमेश्वर प्रथम का सेनापति था, द्वारा  नागै में एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया गया था। जिसका शिखर काफी ऊँचा गगनचुम्वी की तरह था। उसके सभी मण्डप चित्रों से सजाया गया था। इस मंदिर में गरूड़ स्तम्भों से युक्त एक नाट्यशाला भी था, जिसमें तीन मंजिला ऊँचे गोपुर था। इसमें एक अनुष्ठान भवन  बना था। जहाँ सभी धर्मों के लोग एकत्र होकर अपने -अपने भजनों का गायन करते थे और आपस में शास्त्रार्थ करते थे। इस मंदिर में एक मठ भी था, जहाँ वेद, वेदांग और अन्य वैदिक साहित्य का अध्यापन किया जाता था। इस मठ का तोरण एवं प्राकार विशाल था। इस मंदिर के अतिरिक्त बालेश्वर मंदिर (हलगोण्डि, 1090ई0) जो चाण्डरस द्वारा निर्मित मंदिर था, की समानता इन्द्र के विमान से की गयी है। इसका आश्य यह है कि इस मंदिर की परिकल्पना चक्रों के ऊपर उसके रथ को खींचने वाले घोड़े सहित की गयी थी। इसी तरह कर्नाटक के शिकारपुर तालुका से प्राप्त एक लेख से पता चलता है कि अतुल्य मेच्चरस ने 1090ई0 में संगमेश्वर मंदिर (लक्ष्मेश्वर के समीप) में सोने से निर्मित एक कलश दान की थी। बेलगांव से प्राप्त 1159ई0 के एक अभिलेख में सेनापति कौशिराज द्वारा एक मंदिर के निर्माण का उल्लेख मिलता है। जिसके विषय में कहा गया है कि उसमें प्रयुक्त समस्त भवन सामग्री पहले से ही पूरी तरह तराशी गयी, रंगी हुई, मूर्तियों और चित्रों से युक्त एवं अनेक प्रकार के प्राकृतिक दृश्यों एवं आकृतियों से सुसज्जित करके यहाँ पर लायी गयी थी। इसी मंदिर के सामने ही उसने एक विशाल भवन बनवाया था। जिसमें बड़े-बड़े कमरे, उसमें विश्राम हेतु चैकियाँ, नरम गद्दे और सभी प्रकार के वर्तन थे। जिसे उसने विद्वान ब्राह्मणों को दान किया था। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कल्याणी के चालुक्य शासक कला प्रेमी थे।

शिक्षा व्यवस्थाः

                प्राचीन काल में शिक्षा का उद्देश्य न केंवल किताबी ज्ञान तक सीमित माना अपितु विभिन्न शास्त्रीय ज्ञान के साथ ही उसे व्यक्ति में अन्तर्दृष्टि, अन्तज्र्योति, अन्तज्र्ञान और संस्कार प्रदान करने वाली थी। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्त्त्वि का सर्वांगीण विकास करना था। प्राचीन काल में शिक्षा को प्रकाश पुंज माना जाता था, जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सच्चे मार्ग का पथ प्रदर्शक करता है। शिक्षा से ही व्यक्ति ज्ञानवान होता है। शिक्षा एक प्रकार से कल्पवृक्ष के रूप में है, जो सभी की मनोकामना को पूर्ण करती है। इसी के द्वारा व्यक्ति इहलोक और परलोक में लौकिक एवं आध्यात्मिक हितों को प्राप्त करता है। दक्षिण भारत में शिक्षा की अत्यन्त व्यापकता थी। चालुक्य शासन काल में शिक्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार था, जिसके स्पष्ट उल्लेख उस समय के अभिलेखों और साहित्यिक कृतियों में मिलते हैं। शिक्षा कैसे और किस प्रकार दी जाती थी, इसके उद्धरण प्राप्त हाते हैं। अध्ययन और अध्यापन का कार्य प्रायः ब्राह्मण वर्ग ही करता था। लेकिन इसका मतलव यह नहीं है कि गैर ब्राह्मणों की शिक्षा-क्षेत्र में कमी थी। ह्वेनसांग के अनुसार चालुक्य लोंगो को विद्या का व्यसन था। इस काल में छात्र गुरूकुल अथवा विद्वान ब्राह्मणों के पास रहकर शिक्षा ग्रहण करता था। प्रत्येक गांव में विद्यार्थियों को शिक्षा आरम्भ कराने और प्राथमिक शिक्षा देने वाले अध्यापक नियुक्त होते थे। चालुक्य अभिलेखों में अनेक ग्रामभोगी विद्वान ब्राह्मणों को आचार्य कहा गया है। दक्षिणापथ में बसे हुए चरित्रवान, विशेषज्ञ और अध्ययन अध्यापनरत ब्राह्मणों को ब्रह्मपुरी कहा जाता था। राज्य की ओर से इन आचार्यों को अक्करिगवृत्ति (अक्षरवृत्ति) मिलती थी। इसी प्रकार नगरों में भी शिक्षा केन्द्रों का संचालन होता था। ये आचार्य विद्वान एवं बुद्धिजीवी होते थे। अभिलेखों में इन्हें वेदों की किसी न किसी शाखा का ज्ञाता कहा गया है। चालुक्य शासकों ने इन आचार्यों को भरण पोषण हेतु कुछ ग्राम दान दिया था। जो वृत्तियाँ कहलाती थी। मधुसूदन द्वारा 1058ई0 में नागै के मंदिर में स्थापित ‘घटिका’ (विद्यालय) के 200 वेदपाठी छात्रों, शास्त्रों के अध्ययन में रत 50 छात्रों, शास्त्र पढ़ाने वाले 3 अध्यापकों, 3 वेद पढ़ाने वाले अध्यापकों एवं एक पुस्तकालयाध्यक्ष के लिए प्रदान की गयी दान की आय से उनके भोजन एवं वस्त्रों आदि की व्यवस्था सुनिश्चित की गयी थी। इसके अतिरिक्त आचार्यों को भिन्न-भिन्न विषयों के आधार पर 30, 35, अथवा 45 मत्तर की मुक्त भूमि प्रदान की गयी थी। तत्कालीन अभिलेखों में अनेक जैन आचार्यों का भी उल्लेख मिलता है जो निश्चित रूप से अध्ययन अध्ययपन में रत थे। इस काल में अनेक बौद्ध मठ शिक्षा के केन्द्र थे। ह्वेनसांग ऐसे कई बौद्ध मठों का उल्लेख करता है। 1024ई0 के मारोल अभिलेख में कहा गया है कि अनन्तवीर्यमुक्त नामक एक जैन आचार्य व्याकरण, निरूक्त, गणित, कामशास्त्र, ज्योतिष, शकुन, छंद, विधिशास्त्र, गांधर्व, अलंकार, काव्य और नाट्यशास्त्र, सिद्धान्त और प्रमाण आदि विषयों एवं शास्त्रों के ज्ञाता थे।

साहित्यः

                साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है। किसी भी देश-काल की सामाजिक तथा साहित्यिक स्थिति को ज्ञात करने के लिए हमें उस देश या काल के साहित्य का अध्ययन करना पड़ता है। इस काल के अभिलेखों से भी तत्कालीन कवियों एवं उनकी कृतियों पर भी पर्याप्त प्रकाश नहीं पड़ता। यद्यपि चालुक्य शासकों की अभिरूचि साहित्य के क्षेत्र में अधिक थी। वे समय-समय पर विद्वानों को प्रचुर मात्रा में दानादि देकर सृजनात्मक कार्यों में सहयोग प्रदान करते थे। वे स्वयं विद्वान थे एवं विद्वानों को आदर तथा आश्रय देते थे। इस समय कल्याणी विद्वानों, कवियों और लेखकों का आश्रय स्थल बन गया था।

संस्कृत साहित्यः

                पूर्ववर्ती काल के समान ही चालुक्य साम्राज्य की शैक्षणिक व्यवस्था में संस्कृत को प्राथमिक स्थान प्राप्त था। इतना ही नहीं, तत्कालीन प्रायः सभी राज्यों की राजभाषा संस्कृत थी। चालुक्य शासकों एव उनके सामन्तों के लेख, आदेश, अधिकार, अपनी रचना के समय संस्कृत अध्ययन की पल्लवित अवस्था के साक्षी हैं। चालुक्य कालीन संस्कृत साहित्य के विकास में चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ का समय सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। विक्रमादित्य का दीर्घकालीन शासन काल शांति का काल माना जा सकता है। यद्यपि इसके पूर्व के संस्कृत साहित्य के लेखकों में वादिराज का नाम अग्रगण्य माना जाता है। सोमदेवसूरि के शिष्य वादिराज की मुख्य रचना ‘यशोधरचरित’ एवं ‘पाश्र्वनाथचरित’ हैं। चालुक्य कालीन संस्कृत साहित्य  के लेखकों में कश्मीरी कवि बिल्हण का नाम अग्रगण्य है। चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ में विद्वानों के प्रति बहुत बड़ा सम्मान भाव था और उसी से आकृष्ट होकर बिल्हण कश्मीर से चलकर विक्रमादित्य षष्ठ के दरवार में आश्रय प्राप्त किया। गुणग्राही एवं विद्या अनुरागी सम्राट ने बिल्हण की बहुमुखी प्रतिभा पहचान ली। राजा उसकी प्रतिभा से प्रसन्न होकर इन्हें सम्मान सहित राजसभा के मुख्य पण्डित के पद पर नियुक्त कर दिया और ‘विद्यापति’ की उपाधि से विभूषित हुआ तथा उसे सवारी के लिए हाथी और सम्मान सूचक नीलाछत्र प्रदान किया गया। इसने चालुक्यराज विक्रमादित्य के जीवनचरित एव उपलब्धियों के आधार पर ‘विक्रमांकदेवचरित’ नामक अमर काव्य की रचना की। इनकी अन्य रचना ‘कर्णसुन्दरीनाटिका’ एवं ‘चैरपंचाशिका’ है। बिल्हण ने अपनी रचना में अपने शासक के पूर्वजों के परिचय के साथ ही आहवमल्ल प्रथम सोमेश्वर द्वारा युवराज बनने के आग्रह, बड़े भाई के रहते युवराज पद का त्याग, सहित विक्रमादित्य के राज्यारोहण आदि का वर्णन किया गया हैं। इसकी भाषा सरल, किन्तु प्रांजल है। विक्रमादित्य षष्ठ के शासन काल के दूसरे महत्वपूर्ण लेखक, न्यायशास्त्री एवं संस्कृत विद्वान विज्ञानेश्वर थे। विज्ञानेश्वर विक्रमादित्य षष्ठ के राजदरवार के दूसरे रत्न थे। इन्होंने ‘याज्ञवल्क्यस्मृति’ की प्रसिद्ध टीका ‘मिताक्षरा’ लिखी, जो हिन्दू विधि के स्त्रोतग्रंथ के रूप में समस्त उत्तर भारत वर्ष में प्रतिष्ठित हुई। चालुक्य शासक सोमेश्वर तृतीय प्रसिद्ध शासक के साथ ही महान कवि भी थे। सोमेश्वर तृतीय की गणना उन अनेक शासकों -विक्रमादित्य, हर्ष, भत्तृहरि, भोज, और शूद्रक की श्रेणी में की जाती है जो शासक के साथ ही महान लेखक एवं कवि थे। उसने ‘मानसोल्लास’ अथवा ‘अभिलाषार्थचिन्तामणि’ नामक ग्रंथ की रचना की। यह 100 अध्यायों में विभक्त है। उसकी उपाधि ‘सर्वचक्रवर्ती’ थी, जो उसकी विद्वता को सिद्ध करती है। चालुक्य राजा, उनके सामन्त एवं आश्रितों द्वारा संस्कृत के विद्वानों और साहित्यिक व्यक्तियों को दिये गये उदार संरक्षण ने इस साहित्यिक गतिविधि को और अधिक प्रोत्साहन दिया। अन्य अनेक लेखकों एवं विद्वानों के नाम भी इस काल में प्राप्त होते हैं, जो संस्कृत साहित्य के रचनाकार थे। सोमदेवसूरि के शिष्य वादिराज की मुख्य रचना ‘यशोधरचरित’ एवं ‘पाश्र्वनाथचरित’ हैं। वादिराज चालुक्य शासक जयसिंह द्वितीय के समकालीन जैन लेखक थे। धनंजय नामक एक अन्य कवि का वर्णन वादिराज ने अपनी रचनाओं में किया है। धंनजय की रचना का नाम ‘द्विसंधानकाव्य’ है। डा0 नीलकान्त शास्त्री का मत है कि ‘राघवपाण्डवीय’ नामक संस्कृत काव्य भी चालुक्य काल में लिखा गया, जिसकी अभिनवपम्प ने भी प्रशंसा की है। इसी समय लाट देश के कायस्थवंशी लेखक सोढ्ढल ने ‘उदयसुन्दरी कथा’ नामक कथा ग्रंथ की रचना किया।

कन्नड़ साहित्यः

                चालुक्य अभिलेखों सें ज्ञात होता है कि इस काल में मुख्य रूप से दो भाषाओं का प्रचलन था। उनमें प्रथम संस्कृत तथा दूसरी कन्नड़ थी। यद्यपि साहित्य का सृजन संस्कृत भाषा में ही मिलता है। अभिलेखों की भाषा भी प्रायः संस्कृत ही रही है, किन्तु बाद के अभिलेखों में कहीं-कहीं संस्कृत के साथ-साथ कन्नड़ शब्दों का भी प्रयोग मिलता है। कन्नड़ साहित्य का प्राप्त सबसे प्राचीन ग्रंथ राष्ट्रकुट शासक नृपतुंग द्वारा रचित अलंकार शास्त्र ‘कविराजमार्ग’ है। कन्नड़ भाषा में लिखा गया पहला लेख मल्लवि रचित बेलतुरू लेख है। यद्यपि यह चोल शासक राजेन्द्र द्वितीय के समय का है। कन्नड़ का जो प्रारम्भ राष्ट्रकूट युग में हुआ था, वह चालुक्यों के समय भी निरन्तर गतिमान रहा। चालुक्य नरेश सोमेश्वर द्वितीय के समय (1068ई0) में जैन लेखक शान्तिनाथ और शास्त्रार्थी को सोमेश्वर के सेनापति लक्ष्मण भूप के अधीन बनवासी में अर्थाधिकारी के पद पर नियुक्त किया गया था। जैन कवि शान्तिनाथ ने ‘सुकुमारचरित’ नामक ग्रंथ की रचना की थी, जिसमें एक राजकुमार के गृहत्याग का उल्लेख मिलता है। उदयादित्य के सान्धिविग्रही नागवर्माचार्य ने ‘चन्द्रचूडा़मणिशतक’ नामक ग्रंथ की रचना की, जो काव्यात्मक शैली में सांसारिक त्याग की नैतिक महत्ता का वर्णन करता है। कन्नड़ भाषा के त्रिरत्न -रन्न, पम्प एवं पोन्न इस सतय के प्रसिद्ध लेखक थे। कवि रन्न का जन्म मदुवोलल में एक चुड़िहार परिवार में हुआ था। इन्होंने अपनी योग्यता के बल पर अपनी पहचान बनायी। चालुक्य नरेश तैलप द्वितीय ने इनकी योग्यता से प्रभावित होकर इन्हें ‘कविचक्रवर्ती’ की उपाधि प्रदान की और उन्हें दण्ड, चैरी (चंवर), हाथी और छत्र आदि की महत्तासूचक सुविधाएँ प्रदान की गयी थीं। इसकी प्रमुख रचनाओं में ‘अजितपुराण’, गदायुद्ध, रन्नकंद, परशुरामचरित एवं चकेश्वरचरिते हैं। अजितपुराण नामक ग्रंथ एक चम्पूकाव्य है, जो अजितनाथ नामक जैन तीर्थंकर का जीवनवृत्त है। रन्न नामक विद्वान स्वयं इसे ‘काव्यरत्न’ और ‘पुराणतिलक’ की संज्ञा प्रदान करते हैं।  ‘गदायुद्ध’ अथवा ‘साहसभीम विजय’ नामक ग्रंथ की रचना भी रन्न ने ही किया था। ‘गदायुद्ध’ में महाभारत की कथा का अनुसरण किया गया है। इसमें अपने आश्रयदाता राजा सत्याश्रय को भीम की उपाधि प्रदान की गयी है। यह चालुक्य शासक सत्याश्रय से सम्बद्ध एक वीरकाव्य है। इस ग्रंथ में सत्याश्रय के पराक्रम एवं युद्धों का वर्णन मिलता है। कन्नड़ साहित्य का सबसे प्राचीन गद्यकाव्य ‘चाउण्डरायपुराण’ है। कन्नड़ भाषा का दूसरा श्रेष्ठ कवि नागवर्मा था, जो अजितसेन का शिष्य था। नागवर्मा कौण्डिन्य ब्राह्मण था। इसने ‘चाउण्डाम्बुधि’ नामक एक छन्दशास्त्रीय ग्रंथ की रचना की थी। यह कन्नड़ साहित्य की पहली छन्दशास्त्रीय रचना है। इनकी एक अन्य रचना ‘कर्नाटक कादम्बरी’ है, जो बाणभट्ट की रचना ‘कादम्बरी’ की अनुकृति है। चालुक्य शासक जयसिंह द्वितीय का सांधिविग्रहिक दुर्गसिंह ने ‘पंचतंत्र’ की रचना की । इस ग्रंथ में कुल पाँच प्रकरण हैं। चन्द्रराज ने ‘मदनतिलक’ नामक ग्रंथ की रचना किया था। यह इस युग का एक प्रसिद्ध विद्वान था। श्रीधराचार्य चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम के समय का एक ब्राह्मण कन्नड़ साहित्यकार था। इसने कन्नड़ में ज्योतिष ग्रंथ की रचना की। इसकी रचना का नाम ‘जातक तिलक’ है। नागचन्द्र अथ्वा अभिनवपम्प के नाम से विख्यात कन्नड़ लेखक कन्नड़ साहित्य के दूसरे त्रिरत्न थे। इनकी रचना ‘मल्लिनाथपुराण’ है। जिसमें जैन धर्म के 19वें तीर्थंकर मल्लिनाथ का जीवन चरित वर्णित है। इनकी सबसे चर्चित रचना ‘रामचन्द्रचरितपुराण’ अथवा ‘पम्परामायण’ है। जो रामायण के आदर्श पर राम की कथा का जैन दृष्टिकोण से लिखा गया है। नयसेन नामक एक अन्य जैन कवि ने ‘धर्मामृत’ नामक ग्रंथ में जैन धर्म के सिद्धान्तों या शिक्षाओं का वर्णन किया है। इसने संस्कृत शब्दों के स्थान पर कन्नड़ शब्दों का प्रयोग किया है। नागवर्मा द्वितीय की रचना ‘काव्यालोकन’ अलंकार एवं व्याकरण से सम्बन्धित ग्रंथ है।

                कन्नड़ साहित्य के सम्बर्द्धन में वीर शैवों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वीर शैव लेखकों में बसव एवं अन्य लेखकों ने ‘वचन साहित्य’ को जन्म दिया। इनका समस्त धार्मिक साहित्य कन्नड़ भाषा में ही लिखे गये। इसमें जीवन की अनिश्चितता का वर्णन मिलता है। बसव के अलावा अन्य लेखकों में मंचन्न, श्रीपति पण्डित, मल्लिकार्जुन रेणुकाचार्य, पण्डितराध्य, एवं विश्वेश्वराचार्य आदि प्रमुख हैं। लिंगायत लेखकों में ‘पापशतक’ के लेखक हरीश्वर, वीरेश्वरचरिते, राघवांक आदि प्रमुख है। 

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