प्राचीन भारतीय इतिहास के साहित्यिक स्रोत(Literary Sources Of Ancient Indian History)

भारतीय इतिहास एवं संस्कृति का आधार बहुत प्राचीन है। देश की सामाजिक संस्थाएँ इसी प्राचीनता के सहयोग से पल्लवित एवं पुष्पित हुई हैं। इसके विकास क्रम का इतिहास हजारों वर्षों का है जिसमें कई सामाजिक तत्वों का योगदान रहा है। अनेक बाह्य आक्रमणकारियों के अभियान के फलस्वरूप तथा विभिन्न शताब्दियों में होने वाले परिवर्तन और परिवर्द्धन भारतीय संस्कृति का अंग बन गया, लेकिन भारतीय समाज और संस्कृति का मूल आधार तत्व वही बना रहा जो प्राचीन काल में था। धार्मिक प्रवृत्ति भारतीय संस्कृति का मूल आधार है जिससे मानव का सारा जीवन प्रभावित होता रहा है। मानव में प्रकृति प्रदत्त सौन्दर्य की शोभा बनाये रखने की प्रवृत्ति का विकास हुआ। भारतीय मनुष्य में सभ्य जीवन के प्रारम्भ के साथ ही ज्ञान की बात को भी मान ली गयी। इतिहास जानना मानव के लिए आवश्यक था और समाज की आवश्यकता भी इसमें सन्निहित थी। लेकिन इस महान और महत्वपूर्ण विषय को संग्रहित करने में हमारी रूचि प्राचीन काल के प्रारम्भिक काल खण्डों में बिल्कुल ही नहीं थी। यही मूल कारण है कि विशाल भारत के इतिहास को जानने के लिए ऐतिहासिक साहित्य का अभाव है।

भारतवर्ष संसार के प्राचीनतम् एवं महानतम् देशों में अग्रगण्य है। ऐतिहासिक स्रोतों की दृष्टि से इतिहासकारों ने प्राचीन भारतीय इतिहास को तीन भागों में विभाजित किया है। जिस काल के लिए कोई लिखित सामग्री उपलब्ध नहीं है, जिसमें मानव का जीवन अपेक्षाकृत असभ्य था, ‘प्रागैतिहासिक काल’ कहलाता है। उस काल को इतिहासकारों ने ‘ऐतिहासिक काल’ कहा है जिसके लिए लिखित साधन उपलब्ध हैं और जिसमें मानव सभ्य बन गया था। प्राचीन भारत में एक ऐसा भी काल था जिसके लिए लेखन कला के प्रमाण तो हैं, किंतु या तो वे अपुष्ट हैं या फिर इनकी गूढ़ लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। इस काल को ‘आद्य इतिहास’ कहा गया है। हड़प्पा की संस्कृति और वैदिककालीन संस्कृति की गणना ‘आद्य इतिहास’ में ही की जाती है। इस प्रकार हड़प्पा संस्कृति के पूर्व का भारत का इतिहास ‘प्रागैतिहास’ और लगभग 600 ई.पू. के बाद का इतिहास ‘इतिहास’ कहलाता है।

इतिहासकार एक वैज्ञानिक की तरह उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री का अध्ययन एवं समीक्षा कर अतीत का वास्तविक चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्ययन के लिए शुद्ध ऐतिहासिक सामग्री अन्य देशों की तुलना में बहुत कम उपलब्ध है। भारत में यूनान के हेरोडोटस या रोम के लिवी जैसे इतिहास-लेखक नहीं हुए, इसलिए पाश्चात्य मनीषियों ने यह प्रवाद फैलाया कि भारतवर्ष में वहाँ के जन-जीवन की झांकी प्रस्तुत करने वाले इतिहास का पूर्णतया अभाव है क्योंकि प्राचीन भारतीयों की इतिहास की संकल्पना ठीक नहीं थी। फलीट की मान्यता है कि -‘प्रश्न उठता है कि प्राचीन भारतीयों में इतिहास रचना की शक्ति थी भी अथवा नहीं।’ निःसंदेह, प्राचीन भारतीयों की इतिहास की संकल्पना आधुनिक इतिहासकारों की इतिहास से भिन्न थी। आधुनिक इतिहासकार जहाँ घटनाओं में कार्य-कारण संबंध स्थापित करने का प्रयास करता है, वहीं भारतीय इतिहासकारों ने केवल उन्हीं घटनाओं का वर्णन किया है जिनसे जन-साधारण को कुछ शिक्षा मिल सके। महाभारत में भारतीयों की इतिहास-विषयक संकल्पना पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि ‘ऐसी प्राचीन रूचिकर कथा जिससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की शिक्षा मिल सके, ‘इतिहास’ कहलाती है।’ यही कारण है कि प्राचीन भारत का इतिहास राजनीतिक कम और सांस्कृतिक अधिक है। यद्यपि भारतीय समाज के निर्माण में धर्म की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है, किंतु अनेक सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कारण भी थे जिन्होंने भारत में अनेक आंदोलनों, संस्थाओं और विचारधाराओं को जन्म दिया। प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोतों को मुख्यतया दो भागों में विभाजित किया जा सकता हैं-

1. साहित्यिक स्रोत

2. पुरातात्त्विक स्रोत

1. साहित्यिक स्रोतः

                साहित्यिक स्रोत के अंतर्गत साहित्यिक ग्रंथों से प्राप्त ऐतिहासिक तथ्यों की समीक्षा की जाती है। ब्राह्मण और बौद्ध-जैन ग्रंथों से स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीयों में ऐतिहासिक बुद्धि पर्याप्त मात्रा में विद्यमान थी। कल्हण ने राजतरंगिणी में लिखा है कि ‘योग्य और सराहनीय इतिहासकार वही है जिसका अतीत कालीन घटनाओं का वर्णन न्यायाधीश के समान आवेश, पूर्वाग्रह व पक्षपात से मुक्त है।’ चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी लिखा है कि भारत के प्रत्येक प्रदेश में राजकीय अधिकारी प्रमुख घटनाओं को लिखते थे। भारत के प्राचीन साहित्यिक ग्रंथों से प्राचीन भारतीय इतिहास के बारे में पर्याप्त ज्ञान होता है। इन साहित्यिक स्रोतों को तीन भागों में बांटा जा सकता है-

                (क) धार्मिक साहित्य

                (ख) धर्मेत्तर (लौकिक) साहित्य

                (ग) विदेशी यात्रियों के विवरण

(क) धार्मिक साहित्य

                धार्मिक साहित्य को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- 1. ब्राह्मण साहित्य, 2. बौद्ध साहित्य और 3. जैन साहित्य।

ब्राह्मण साहित्य

वेद:

वैदिक ग्रन्थ के अन्तर्गत चारों वेद, ब्राह्मण साहित्य, वेदांग, अरण्यक एवं उपनिषद आते हैं। वेद आर्यों का सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं। वेद चार हैं-1.ऋग्वेद 2.सामवेद 3.यजुर्वेद 4.अथर्ववेद। वेद अपौरूषेय हैं। वेदों के संकलनकत्र्ता महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास को माना जाता है। वेद विद् धातु से बना है। जिसका अर्थ ज्ञान है। वेदों को श्रुति भी कहा जाता है क्योंकि इन्हें गुरू-शिष्य परम्परा के अनुसार कंठस्थ किया जाता था। वेदों को आर्यों का ज्ञानराशि कहा गया है। इन्हें संहिता भी कहा जाता है। वेदत्रयी के अन्तर्गत ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद आते हैं।         

ब्राह्मण साहित्य में सर्वाधिक प्राचीन व महत्त्वपूर्ण ग्रंथ ऋग्वेद है। इस ग्रंथ से प्राचीन आर्यों के धार्मिक सामाजिक एवं आर्थिक जीवन पर अधिक और राजनीतिक जीवन पर अपेक्षाकृत कम प्रकाश पड़ता है। इसमें 10 मण्डल और 1028 सूक्त हैं। पहला एव अन्तिम मण्डल बाद में जोड़ा गया। दूसरा और सातवाँ मण्डल सबसे प्राचीन हैं। ऋग्वेद के दसवें मण्डल के पुरूष सूक्त में सर्वप्रथम चारों वर्णों का उल्लेख मिलता है।ऋग्वेद में केवल एक राजनीतिक घटना दासराज्ञ युद्ध को छोड़कर किसी अन्य का उल्लेख नहीं मिलता। उत्तरवैदिक कालीन (लगभग 1000-600 ई.पू.) आर्यों के संबंध में ज्ञान प्राप्त करने के लिए यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद संहिताओं का उपयोग किया जाता है। यजुर्वेद और सामवेद के अधिकतर मंत्रा ऋग्वेद से ही लिये गये हैं, इसलिए अथर्ववेद अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण है। अथर्ववेद में आर्य-अनार्य संस्कृति के सम्मिश्रण का संकेत मिलता है। वैदिक परंपरा वेदों को अपौरुषेय अर्थात् दैवकृत मानती है जिसके संकलनकर्ता कृष्ण द्वैपायन माने जाते हैं। वेदों से आर्यों के प्रसार, पारस्परिक युद्ध, अनार्यों, दासों और दस्युओं से उनके निरंतर संघर्ष तथा उनके सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक संगठन की जानकारी प्राप्त होती है।

ब्राह्मण ग्रंथ:

 वैदिक मंत्रों तथा संहिताओं की गद्य-टीकाओं को ब्राह्मण कहा जाता है। सभी वेदों के अलग-अलग ब्राह्मण ग्रंथ हैं जिनकी रचना मूलतः यज्ञों एवं कर्मकांडों के विधान तथा उनकी क्रियाओं को भली-भाँति समझने के लिए की गई थी। इन ब्राह्मण ग्रंथों से उत्तर वैदिककालीन आर्यों के विस्तार और उनके धार्मिक विश्वासों का ज्ञान होता है। प्राचीन ब्राह्मणों में ऐतरेय, शतपथ, पंचविश, तैत्तरीय आदि विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। प्रत्येक ब्राह्मण एक वेद या संहिता से संबद्ध है। ऐतरेय और कौषीतकी ब्राह्मण द्धग्वेद से, शतपथ ब्राह्मण यजुर्वेद से, पंचविंश ब्राह्मण सामवेद से गोपथ ब्राह्मण अथर्ववेद से सम्बन्धित है।  ऐतरेय ब्राह्मण से राज्याभिषेक तथा अभिषिक्त नृपतियों के नामों की जानकारी मिलती है तो शतपथ ब्राह्मण गांधार, शाल्य, केकय, कुरु, पांचाल, कोशल तथा विदेह के संबंध में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ देता है। राजा परीक्षित की कथा ब्राह्मणों द्वारा ही अधिक स्पष्ट हो सकी है।

                आरण्यक: अरण्यों (जंगलों) में निवास करने वाले संन्यासियों के मार्गदर्शन के लिए लिखे गये आरयण्कों में दार्शनिक एवं रहस्यात्मक विषयों यथा- आत्मा, मृत्यु, जीवन आदि का वर्णन किया गया है। अथर्ववेद को छोड़कर अन्य तीनों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद और समावेद) के आरण्यक हैं। आरण्यकों में ऐतरेय आरण्यक, शांखायन आरण्यक, बृहदारण्यक, मैत्रायणी उपनिषद् आरण्यक तथा तवलकार आरण्यक (इसे जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण भी कहते हैं) प्रमुख हैं। ऐतरेय तथा शांखायन ऋग्वेद से, बृहदारण्यक शुक्ल यजुर्वेद से, मैत्रायणी उपनिषद् आरण्यक कृष्ण यजुर्वेद से तथा तवलकार आरण्यक सामवेद से संबद्ध हैं। यद्यपि इन आरण्यक ग्रंथों में विशेषतः प्राण-विद्या की महिमा का प्रतिपादन मिलता है, किंतु इनमें कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी हैं, जैसे- तैत्तिरीय आरण्यक में कुरु, पंचाल, काशी, विदेह आदि महाजनपदों का उल्लेख मिलता है।

                उपनिषद्: उपनिषद् भी उत्तर वैदिककालीन रचनाएं हैं जिनसे आर्यों के प्राचीनतम् दार्शनिक विचारों का ज्ञान होता है। उपनिषदों की कुल संख्या 108 बताई जाती है, किंतु ईश, केन, कठ, मांडूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, श्वेताश्वतर, बृहदारण्यक, कौषीतकी, मुंडक, प्रश्न, मैत्रायणी आदि प्रमुख उपनिषद् हैं। उपनिषद् गद्य और पद्य दोनों में हैं, जिसमें प्रश्न, मांडूक्य, केन, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और कौषीतकि उपनिषद् गद्य में हैं तथा ईश, कठ, केन और श्वेताश्वतर उपनिषद् पद्य में हैं। इन ग्रंथों से बिंबिसार के पूर्व के भारत की अवस्था का ज्ञान होता है। उपनिषदों की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा यह है कि जीवन का उद्देश्य मनुष्य की आत्मा का विश्व की आत्मा से मिलना है। उसी से मनुष्य को वास्तविक सुख मिल सकता है। इसको पराविद्या या अध्यात्म-विद्या कहा गया है। इन उपनिषदों से पता चलता है कि आर्यों का दर्शन विश्व के अन्य देशों के दर्शन से सर्वोत्तम तथा अधिक आगे था। भारत का प्रसिद्ध आदर्श वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ मुंडकोपनिषद् से ही लिया गया है। काशी के विद्वानों की सहायता से मुगल बादशाह दाराशिकोह ने उपनिषदों का फारसी भाषा में अनुवाद किया। उसने सिर्र-ए-अकबर के उपनाम से उपनिषदों का अनुवाद किया।

                वेदांग: वैदिक काल के अंत में वेदों के अर्थ को अच्छी तरह समझने के लिए छः वेदांगों की रचना की गई। वेदों के छः अंग हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंदशास्त्र और ज्योतिष। वैदिक स्वरों का शुद्ध उच्चारण करने के लिए शिक्षाशास्त्र का निर्माण हुआ। जिन सूत्रों में विधि और नियमों का प्रतिपादन किया गया है, वे कल्पसूत्र कहलाते हैं। कल्पसूत्र के चार भाग हैं- श्रौतसूत्र, गृहसूत्र, धर्मसूत्र और शुल्वसूत्र। श्रौतसूत्रों में यज्ञ-संबंधी नियमों का उल्लेख है। गृहसूत्रों में मानव के लौकिक और पारलौकिक कत्र्तव्यों का विवेचन है। धर्मसूत्रों में धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक कत्र्तव्यों का उल्लेख है। यज्ञ, हवन-कुंड, वेदी आदि के निर्माण का उल्लेख शुल्वसूत्र में किया गया है। व्याकरण-ग्रंथों में पाणिनि की अष्टाध्यायी महत्त्वपूर्ण है। ई.पू. की दूसरी शताब्दी में पतंजलि ने अष्टाध्यायी पर महाभाष्य लिखा जिससे पुष्यमित्र शुंग के संबंध में जानकारी प्राप्त होती है। यास्क ने निरुक्त (ई.पू. पाँचवीं शताब्दी) की रचना की, जिसमें वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति का विवेचन है। वेदों में अनेक छंदों का प्रयोग किया गया है। पिंगल ने छन्दशास्त्र नामक ग्रंथ की रचना की थी। त्रिष्टुप ऋग्वेद का प्रमुख छंद है। जिनसे पता चलता है कि वैदिक काल में ही छंदशास्त्र का विकास हो चुका था। ज्योतिष शास्त्र की भी प्राचीन काल में बड़ी उन्नति हुई। इसमें ब्रह्मांण, सौरमण्डल, ग्रह और नक्षत्रों आदि की चर्चा मिलती है। लगधमुनि की रचना वेदांग-ज्योतिष सबसे प्राचीन ज्योतिष ग्रन्थ है। बाद में इस पर वराह मिहिर ने बृहत्संहिता लिखी।

उपवेद एवं षड्दर्शनः

                वैदिक साहित्य की श्रेणी में उपवेदों एवं भारतीय दर्शन की 6 शाखाओं को भी स्थान दिया जाता है। उपवेद में सबसे प्रमुख स्थान आयुर्वेद का है। इसके अन्तर्गत विभिन्न रोगों की पहचान, उनकी दवा, जड़ी-बूटीयों आदि का महत्व बतलाया गया है। इसके जन्मदाता प्रजापति थे। अन्य उपवेदों में धनुर्वेद (युद्धकला), गंधर्ववेद (संगीतकला), और शिल्पवेद (भवन निर्माण कला) आते हैं। धनुर्वेद के जन्मदाता विश्वामित्र, गंधर्ववेद के नारद, और शिल्पवेद के विश्वकर्मा माने जाते हैं। इन ग्रन्थों से प्राचीन भारत में प्रचलित विधाओं का ज्ञान हमें प्राप्त होता है। दर्शन की शाखाओं में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा प्रमुख हैं। इनसे भारतीय दर्शन की विभिन्न आयामों का पता चलता है। न्याय दर्शन के प्रवर्तक गौतम थे। इसमें तर्क पर बल दिया गया है। वैशेषिक दर्शन के संस्थापक कणाद ऋषि थे, जिन्होंने पदार्थ को अपने दर्शन का आधार बनाया। सांख्य दर्शन ईश्वर में विश्वास नहीं करता है। इसके व्याख्याता कपिल थे। योग दर्शन को प्रभावशाली बनाने वाले महर्षि पतंजलि थे। जैमिनी पूर्व मीमांसा और बादरायण उत्तरमीमांसा के प्रतिपादक थे। इन दोनों ने क्रमशः व्यावहारिक धर्म और ब्रह्म के महत्व पर बल दिया।

स्मृतियां:

 ब्राह्मण ग्रंथों में स्मृतियों का भी ऐतिहासिक महत्त्व है जिनकी रचना सूत्र साहित्य के बाद हुई। इन स्मृतियों से मानव के संपूूर्ण जीवन से सम्बन्धित विधि-निषेधों की जानकारी मिलती है। संभवतः मनुस्मृति (लगभग 200 ई.पू. से 100 ई. के मध्य) एवं याज्ञवल्क्य स्मृति (100 ई. से 300 ई.) सबसे प्राचीन हैं। मेधातिथि, मारूचि, कुल्लूक भट्ट, गोविंदराज आदि टीकाकारों ने मनुस्मृति पर, जबकि विश्वरूप, अपरार्क, विज्ञानेश्वर आदि ने याज्ञवल्क्य स्मृति पर भाष्य लिखे हैं। नारद (300 ई. से 400 ई.) और पराशर (300 ई. से 500 ई.) की स्मृतियों से गुप्तकालीन सामाजिक व धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। बृहस्पति (300 ई. से 500 ई.) और कात्यायन (400 ई. से 600 ई.) की स्मृतियां भी गुप्तकालीन रचनाएं मानी जाती हैं। इसके अलावा गौतम, संवर्त, हरीत, अंगिरा आदि अन्य महत्त्वपूर्ण स्मृतिकार थे, जिनका समय संभवतः 100 ई. से लेकर 600 ई. तक था।

महाकाव्य:

 वैदिक साहित्य के उत्तर में रामायण और महाभारत नामक दो महाकाव्यों का प्रणयन हुआ। यद्यपि इन दोनों महाकाव्यों के रचनाकाल के विषय में विवाद है, फिर भी कुछ उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर इन महाकाव्यों का रचनाकाल चैथी शती ई.पू. से चैथी शती ई. के मध्य माना जा सकता है। रामायण की रचना महर्षि वाल्मीकि द्वारा पहली एवं दूसरी शताब्दी ई. के दौरान संस्कृत भाषा में की गई। रामायण में मूलतः 6,000 श्लोक थे, जो कालांतर में 12,000 हुए और फिर 24,000। इसे चतुर्विंशति सहस्त्री संहिता भी कहा गया है। रामायण में वर्णित व्यवसायों और भोजन से लगता है कि इस ग्रंथ में दो विभिन्न सांस्कृतिक स्तरों पर रहने वाले दो प्रमुख मानवीय वर्गों का वर्णन है। इससे उस समय की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है। रामकथा पर आधारित ग्रंथों का अनुवाद सर्वप्रथम भारत से बाहर चीन में किया गया। रामायण में शक और यवन नामक विदेशी जातियों का वर्णन मिलता है।

                महाभारत महाकाव्य रामायण से बृहद् है। मूल महाभारत का प्रणयनकत्र्ता वेदव्यास को बताया जाता है। इसका रचनाकाल ई.पू. चैथी शताब्दी से चैथी शताब्दी ई. माना जाता है। महाभारत में मूलतः 8,800 श्लोक थे और इसका नाम ‘जयसंहिता’ था। बाद में श्लोकों की संख्या 24,000 होने के पश्चात् यह वैदिक जन ‘भरत’ के वंशजों की कथा होने के कारण ‘भारत’ कहलाया। कालांतर में गुप्तकाल में श्लोकों की संख्या बढ़कर एक लाख होने पर यह शतसहस्री संहिता या महाभारत कहलाया। महाभारत का प्रारम्भिक उल्लेख आश्वलायन गृह्यसूत्र में मिलता है। इन महाकाव्यों से उत्तरवैदिक काल में आर्यों के राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जीवन का ज्ञान होता है। महाभारत में शक, यवन, पहलव, किरात, हूण आदि का विवरण मिलता है।

पुराण:

 प्राचीन भारत के इतिहास-निर्माण में पुराणों की उपयोगिता बहुत ही महत्वपूर्ण मानी गयी है। प्राचीन आख्यानों से युक्त ग्रंथ को ‘पुराण’ कहते हैं। इनकी रचना का श्रेय ‘सूत’ लोमहर्ष अथवा उनके पुत्र उग्रश्रवस या उग्रश्रवा को दिया जाता है। पुराणों की संख्या अठारह बताई गई है जिनमें मार्कण्डेय, ब्रह्मांड, वायु, विष्णु, भागवत और मत्स्य संभवतः प्राचीन माने जाते हैं, शेष बाद की रचनाएं हैं। सबसे पहले पार्जिटर महोदय ने पुराणें क ऐतिहासिक महत्व की ओर इमारा ध्यान आकृष्ट किया। इनकी रचना का नाम एन्शिएन्ट इण्डियन ट्रेडिशन्स एवं डायनेस्टीज आफ द कलिएज है। छान्दोग्य उपनिषद में नारदमुनि ने इतिहास- पुराण को पंचम वेद कहा है।

                ब्रह्मवैवर्त पुराण में पुराणों के पाँच लक्षण बताये गये हैं- सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरित। सर्ग बीज या आदिसृष्टि है, प्रतिसर्ग प्रलय के बाद की पुनर्सृष्टि को कहते हैं, वंश में देवताओं या ऋषियों के वंश-वृक्षों का वर्णन है, मन्वन्तर में कल्प के महायुगों का वर्णन है। वंशानुचरित पुराणों के वे अंग हैं जिनमें राजवंशों की तालिकाएं दी गई हैं और राजनीतिक अवस्थाओं, कथाओं और घटनाओं का वर्णन है। किंतु वंशानुचरित केवल भविष्य, मत्स्य, वायु, विष्णु, ब्रह्मांड तथा भागवत पुराणों में ही प्राप्त होता है। गरुड़-पुराण में पौरव, इक्ष्वाकु और बार्हद्रथ राजवंशों की तालिका मिलती है, किंतु इनकी तिथि अनिश्चित है।

                पुराणों की भविष्यवाणी शैली में कलियुग के नृपतियों की तालिकाओं के साथ शिशुनाग, नंद, मौर्य, शुंग, कण्व, आंध्र तथा गुप्तवंशों की वंशावलियां भी प्राप्त होती हैं। मौर्य वंश के संबंध में विष्णु पुराण में अधिक उल्लेख मिलते हैं, ठीक इसी प्रकार मत्स्य पुराण में आंध्र वंश का उल्लेख मिलता है। वायु पुराण से गुप्त सम्राटों की शासन-प्रणाली पर प्रकाश पड़ता है। इन पुराणों में शूद्रों और म्लेच्छों की वंशावली भी दी गई है। प्राचीन भारत का सांस्कृतिक इतिहास लिखने के लिए पुराण बहुत उपयोगी हैं। पुराण अपने वर्तमान रूप में संभवतः ईसा की तीसरी और चैथी शताब्दी में लिखे गये।

इस प्रकार ब्राह्मण साहित्य से प्राचीन भारत के सामाजिक तथा सांस्कृतिक इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है किंतु राजनीतिक इतिहास की अपेक्षित जानकारी नहीं मिल पाती है।

बौद्ध साहित्यः

                भारतीय इतिहास के साधन के रूप में बौद्ध साहित्य का विशेष महत्व है। सबसे प्राचीन बौद्ध साहित्य त्रिपिटक हैं। ‘पिटक‘ का शाब्दिक अर्थ ‘टोकरी’ है। त्रिपिटक तीन हैं- सुत्तपिटक, विनयपिटक और अभिधम्मपिटक। इन तीनों पिटकों का संकलन महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के उपरान्त आयोजित विभिन्न बौद्ध संगीतियों में किया गया। सुत्तपिटक में बुद्धदेव के धार्मिक विचारों और वचनों का संग्रह है। विनयपिटक में बौद्ध संघ, भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों के लिए आचरणीय नियमों का उल्लेख है और अभिधम्मपिटक में बौद्ध धर्म के दार्शनिक सिद्धांत हैं। त्रिपिटक से ईसा से पूर्व की शताब्दियों में भारत के सामाजिक व धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। दीर्घनिकाय में बुद्ध के जीवन से संबद्ध एवं उनके संपर्क में आये व्यक्तियों के विवरण हैं। संयुक्तनिकाय में छठी शताब्दी पूर्व के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन की जानकारी मिलती है। अंगुत्तरनिकाय में सोलह महानपदों की सूची मिलती है। खुद्दकनिकाय लघुग्रंथों का संग्रह है जो छठी शताब्दी ई.पू. से लेकर मौर्यकाल तक का इतिहास प्रस्तुत करता है।

                जातक कथाएं: बौद्ध ग्रंथों में जातक कथाओं का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है जिनकी संख्या 549 है। जातकों में भगवान् बुद्ध के जन्म के पूर्व की काल्पनिक कथाएं हैं। भरहुत और साँची के स्तूप की वेष्टनी पर उत्कीर्ण दृश्यों से ज्ञात होता है कि जातकों की रचना ई.पू. पहली शताब्दी में आरंभ हो चुकी थी। इन जातकों का महत्त्व केवल इसीलिए नहीं है कि उनका साहित्य और कला श्रेष्ठ है, प्रत्युत् तीसरी शताब्दी ई.पू. की सभ्यता के इतिहास की दृष्टि से भी उनका वैसा ही ऊँचा मान है।

                अन्य बौद्ध ग्रंथ: लंका के इतिवृत्त महावंस और दीपवंस भी भारत के इतिहास पर प्रकाश डालते हैं। महावंस, दीपवंस व महाबोधिवंस तथा महावस्तु मौर्यकाल के इतिहास की जानकारी देते हैं। दीपवंस की रचना चैथी और महावंस की पाँचवीं शताब्दी ई. में हुई। मिलिंदपन्हो में यूनानी शासक मिनेण्डर और बौद्ध मिक्षु नागसेन का वार्तालाप है। इसमें ईसा की पहली दो शताब्दियों के उत्तर-पश्चिमी भारत के जीवन की झलक मिलती है। दिव्यावदान में अनेक राजाओं की कथाएं हैं जिनके अनेक अंश चैथी शताब्दी ई. तक जोड़े जाते रहे हैं। आर्यमंजुश्रीमूलकल्प में बौद्ध दृष्टिकोण से गुप्त राजाओं का वर्णन है। महायान से संबद्ध ललितविस्तर में बुद्ध की ऐहिक लीलाओं का वर्णन है। पालि की ‘निदान कथा’ बोधिसत्त्वों का वर्णन करती है। ‘विनय’ के अंतर्गत पातिमोक्ख, महावग्ग, चुग्लवग्ग, सुत विभंग एवं परिवार में भिक्खु-भिक्खुनियों के नियमों का उल्लेख है। प्रारम्भिक बौद्ध साहित्य थेरीगाथा से प्राचीन भारत के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन की जानकारी तो मिलती ही है, छठी शताब्दी ई.पू. की राजनीतिक दशा का भी ज्ञान होता है। इसके अलावा तिब्बती इतिहासकार लामा तारानाथ द्वारा रचित बौद्ध ग्रंथों- कंग्यूर और तंग्यूर का भी विशेष ऐतिहासिक महत्त्व है।

जैन साहित्यः

प्राचीन भारतीय इतिहास का ज्ञान प्राप्त करने के लिये जैन साहित्य भी बौद्ध साहित्य की ही तरह महत्त्वपूर्ण हैं। उपलब्ध जैन साहित्य प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में हैं। जैन आगमों में सबसे महत्त्वपूर्ण बारह अंग हैं। जैन ग्रंथ आचारांग सूत्रा में जैन भिक्षुओं के आचार नियमों का उल्लेख है। भगवतीसूत्र से महावीर के जीवन पर कुछ प्रकाश पड़ता है। नायाधम्मकहा में महावीर की शिक्षाओं का संग्रह है। उवासगदसाओ में उपासकों के जीवन-संबंधी नियम दिये गये हैं। अंतगडदसाओ और अणुतरोववाइद्वसाओ में प्रसिद्ध भिक्षुओं की जीवनकथाएं हैं। वियागसुयमसुत में कर्म-फल का विवेचन है। इन आगमों के उपांग भी हैं। इन पर अनेक भाष्य लिखे गये जो निर्युक्ति, चूर्णि व टीका कहलाते हैं।

                जैन आगम ग्रंथों को वर्तमान स्वरूप संभवतः 526 ई. में वल्लभी में प्राप्त हुआ। भगवतीसूत्र में सोलह महा.जनपदों का उल्लेख है। भद्रबाहु चरित्र से जैनाचार्य भद्रबाहु के साथ-साथ चंद्र्रगुप्त मौर्य के राज्यकाल की कुछ सूचनाएँ मिलती हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से आवश्यकसूत्र, कल्पसूत्र, उत्तराध्ययंसूत्र, वसुदेव हिण्डी, बृहत्कल्पसूत्र भाष्य, आवश्यकचूर्णि, कालिका पुराण, कथाकोश आदि महत्त्वपूर्ण जैन ग्रंथ है । किंतु हेमचंद्र्रकृत परिशिष्टपर्वन् विशेष महत्त्वपूर्ण है जो बारहवीं शताब्दी ई. की रचना है।

पूर्वमध्यकाल (लगभग 600 ई. से 1200 ई.) में अनेक जैन कथाकोशों और पुराणों की रचना हुई, जैसे हरिभद्र सूरि (705 ई. से 775 ई.) ने समरादित्य कथा, धूर्ताख्यान और कथाकोश, उद्योतन सूरि (778 ई.) ने कुवलयमाला, सिद्धर्षि सूरि (605 ई.) ने उपमितिभव प्रपंच कथा, जिनेश्वर सूरि ने कथाकोश प्रकरण और नवीं शताब्दी ई. में जिनसेन ने आदि पुराण और गुणभद्र ने उत्तर पुराण की रचना की। इन जैन ग्रंथों से तत्कालीन भारतीय सामाजिक और धार्मिक दशा पर प्रकाश पड़ता है।

(ख) धर्मेतर (लौकिक) साहित्य

धार्मिक साहित्य का उद्देश्य मुख्यतया अपने धर्म के सिद्धांतों का उपदेश देना था, इसलिए उनसे राजनीतिक गतिविधियों पर कम प्रकाश पड़ता है। राजनैतिक इतिहास-संबंधी जानकारी की दृष्टि से धर्मेतर साहित्य अधिक उपयोगी हैं। धर्मेतर साहित्य में पाणिनी का ‘अष्टाध्यायी’ यद्यपि एक व्याकरण-ग्रंथ है, फिर भी इससे मौर्यपूर्व तथा मौर्यकालीन राजनीतिक, सामाजिक व धार्मिक अवस्था पर कुछ प्रकाश पड़ता है। विशाखदत्त के ‘मुद्राराक्षस’, सोमदेव के ‘कथासरित्सागर’ और क्षेमेंद्र्र के ‘बृहत्कथामंजरी’ से मौर्यकालीन कुछ घटनाओं की सूचना मिलती है। कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ के कुछ अध्यायों से मौर्य-शासन के कत्र्तव्य, शासन-व्यवस्था, न्याय आदि अनेक विषयों के संबंध में ज्ञान होता है। अर्थशास्त्र में कूटनीति और राष्ट्राध्यक्षों की सुरक्षा के उपाय इतिहास की अमर धरोहर है और अभी भी राष्ट्राध्यक्षों एवं प्रशासकों को मार्ग निर्देशित करते हैं। कामन्दक के ‘नीतिसार’ (लगभग 400 ई. से 600 ई.) से शासन प्रबन्ध, न्याय व्यवस्था और कूटनीति के सिद्धान्तों और व्यवहार पर विस्तृत प्रकाश पड़ता है। इससे गुप्तकालीन राज्यतंत्र पर कुछ प्रकाश पड़ता है। प्राचीन राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था के विधि- विधानों का ज्ञान हम इस ग्रन्थ से प्राप्त करते हैं। सोमदेव सूरि का ‘नीतिवाक्यामृत’ (दसवीं शताब्दी ई. के अंत) अर्थशास्त्र की ही कोटि का ग्रंथ है।

पतंजलि का ‘महाभाष्य’ और कालीदासकृत ‘मालविकाग्निमित्र’ शुंगकालीन इतिहास के प्रमुख स्रोत हैं। महाभाष्य के लेखक पतंजलि शुंग राजा पुष्यमित्र शुंग के समकालीन थे। इन्होंने पाणिनी के व्याकरण के सिद्धान्तों को सरलता से समझाने के लिए भाषा विज्ञान के इस ग्रन्थ की रचना की। अनेक पौराणिक कथानक उद्धरण के रूप में इस ग्रन्थ में संकलित हैं। शुंग नरेश पुष्यमित्र शुंग के द्वारा अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन करना इससे सिद्ध होता है। मालविकाग्निमित्र में कालिदास ने पुष्यमित्र शुंग के पुत्र अग्निमित्र तथा विदर्भराज की राजकुमारी मालविका की प्रेमकथा का उल्लेख किया है। ज्योतिष ग्रंथ ‘गार्गी संहिता’ में यवनों के आक्रमण का उल्लेख है। कालीदास के ‘रघुवंश’ में संभवतः समुद्रगुप्त के विजय-अभियानों का वर्णन है। सोमदेव के ‘कथासरित्सागर’ और क्षेमेंद्र्र के ‘बृहत्कथामंजरी’ में राजा विक्रमादित्य की कुछ परंपराओं का उल्लेख है। शूद्रक के ‘मृच्छकटिक’ नाटक और दंडी के ‘दशकुमार चरित’ में भी तत्कालीन समाज का चित्राण मिलता है।

गुप्तोत्तरकाल का इतिहास जानने के प्रमुख साधन राजकवियों द्वारा लिखित अपने संरक्षकों के जीवनचरित और स्थानीय इतिवृत्त हैं। जीवनचरितों में सबसे प्रसिद्ध बाणभट्टकृत ‘हर्षचरित’ में हर्ष की उपलब्धियों का वर्णन है। बाणभट्ट हर्षवर्धन के समकालीन थे। हर्षचरित में केवल हर्षवर्धन का ही पूर्ण इतिहास नहीं अपितु इससे शुंग, कण्व वंश, एवं गुप्तकाल के विष्सय में भी जानकारी मिलती है। बाणभट्ट की अन्य रचना कादम्बरी और चण्डीशतक है। वाक्पतिराज के ‘गौडवहो’ में कन्नौज नरेश यशोवर्मा की, बिल्हण के ‘विक्रमांकदेवचरित’ में परवर्ती चालुक्य नरेश विक्रमादित्य की और सन्ध्याकर नंदी के ‘रामचरित’ में बंगाल शासक रामपाल की उपलब्धियों का वर्णन है। इसी प्रकार जयसिंह ने ‘कुमारपाल चरित’ में और हेमचंद्र्र ने ‘द्वयाश्रय काव्य’ में गुजरात के शासक कुमारपाल का, परिमल गुप्त (पद्मगुप्त) ने ‘नवसाहसांक चरित’ में परमार वंश का और जयानक ने ‘पृथ्वीराज विजय’ में पृथ्वीराज चैहान की उपलब्धियों का वर्णन किया है। चंद्रवरदाई के ‘पृथ्वीराज रासो’ से चहमान शासक पृथ्वीराज तृतीय के संबंध में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं। इन जीवनचरितों में तत्कालीन राजनीतिक स्थिति का पर्याप्त ज्ञान तो होता है, किंतु इन ग्रंथों में अतिशयोक्ति के कारण इन्हें शुद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं माना जा सकता है।

परमार वंश के राजा भोज ने अनेक ग्रंथों की रचना की थी। यथा- रामायण चम्पु ,मुक्तिकल्पतरू, आयुर्वेद सर्वस्य,समरांगण सूत्रधार, राजमृगांक, सरस्वती कण्ठाभरण, श्रृंगार प्रकाश, तत्व प्रकाश एवं राजमार्तण्ड आदि। इनमें उस समय की विभिन्न कलाओं और विज्ञानों का इतिहास सुरक्षित है। तत्व प्रकाश में शैव धर्म के सिद्धान्तों की व्याख्या मिलती हैएवं समरांगण सूत्रधार भवन निर्माण कला का शास्त्रीय ग्रन्थ है। इससे आज के वास्तु-विद्या के इंजीनियर भी बहुत कुछ सीख सकते हैं।

प्राचीन भारतीय साहित्य में कल्हणकृत ‘राजतरंगिणी’ एकमात्रा विशुद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ है। इसमें कल्हण ने कथावाहिक रूप में प्राचीन ऐतिहासिक ग्रंथों, राजाओं का प्रशस्तियों आदि उपलब्ध स्रातों के आधार पर कश्मीर का ऐतिहासिक वृतांत प्रस्तुत किया है। इस ग्रंथ का रचनाकाल 1148-50 ई. माना जा सकता है। इस प्रसिद्ध ग्रंथ में कश्मीर के नरेशों से संबंधित ऐतिहासिक तथ्यों का निष्पक्ष विवरण देने का प्रयास किया गया है। इसमें क्रमबद्धता का पूरी तरह निर्वाह किया गया है, किंतु सातवीं शताब्दी ई. के पूर्व के इतिहास से संबद्ध विवरण पूर्णतया विश्वसनीय नहीं हैं।

सुदूर दक्षिण भारत के जन-जीवन पर ईसा की पहली दो शताब्दियों में लिखे गये संगम साहित्य से स्पष्ट प्रकाश पड़ता है। दक्षिण भारत में भी राजकवियों ने अपने संरक्षकों की उपलब्धियों का वर्णन करने के लिये कुछ जीवनचरित लिखे। ऐसे ग्रंथों में ‘नंदिवकलाम्बकम्’, ओट्टक्तूतन का ‘कुलोत्तुंगज-पिललैत्त मिल’, जय गोंडार का ‘कलिंगत्तुंधरणि’, ‘राज-राज-शौलन-उला’और ‘चोलवंश चरितम्’ प्रमुख हैं।

गुजरात में भी अनेक इतिवृत्त लिखे गये जिनमें ‘रासमाला’, सोमेश्वरकृत ‘कीर्ति कौमुदी’, अरिसिंह का ‘सुकृत संकीर्तन’, मेरुतुंग का ‘प्रबंध सुकृत कीर्ति कल्लोलिनी’ और बालचंद्र्र का ‘वसंत विलास’ अधिक प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार सिंधु में भी इतिवृत्त मिलते हैं, कवि राजशेखर के दो ग्रन्थ- प्रबन्ध कोष और काव्यमीमांसा बहुत महत्वपूर्ण हैं। इनसे गुजरात के इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है। काव्यमीमांसा के एक कथानक से पता चलता है कि प्राचीन काल में एक कायर राजा ने युद्ध में पराजित होकर अपनी रानी को शत्रु खसादिपति को देना स्वीकार कर लिया। राजा के छोटे भाई ने रानी के वेश में शत्रु शिविर में जाकर खसादिपति की हत्या कर दी। यह कथानक रामगुप्त और महारानी ध्रुवदेवी की ऐतिहासिकता को सिद्ध करता है। जिनके आधार पर जयसिंह के ‘हमीर मद-मर्दन’ और वस्तुपाल एवं तेजपाल प्रशस्ति, उदयप्रभु की‘ पर तेरहवीं शताब्दी के आरंभ में अरबी भाषा में सिंधु का इतिहास लिखा गया। इसका फारसी अनुवाद ‘चचनामा’ उपलब्ध है।

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