अभिव्यक्ति का सम्यक् माध्यम स्याद्वाद: एक विश्लेषण(An Analysis Of The Right Medium Of Expression)

सृजन शक्ति मानव का सबसे बड़ा गुण है। प्राचीन भारत में सभी धर्मों और सम्प्रदायों ने मानव के कल्याण के लिए निरन्तर प्रयास किया । आध्यात्मिक उन्नति के लिए सभी का प्रयास आदर योग्य रहा। जैन आचार्यों और मुनियों ने अपनी सृजन की साधना से मनुष्य की सृजनात्मकता को समृद्ध किया। ‘जिन धर्म’ अर्थात् जैन धर्म का आगमन भारत की पवित्र भूमि पर समस्त विश्व के मानव का कल्याण करने के लिए हुआ था। इस धर्म को जैन दर्शन में अनादि एवं अनन्त माना गया है। जैन धर्म किसी व्यक्ति या तीर्थंकर अथवा अवतार या किसी विशेष विचार या सिद्धान्त के नाम पर संकीर्ण और सम्प्रदायवादी नहीं है। जैन धर्म बहु कल्याण करने वाला धर्म है।

सप्तभंगी नय:

                जैन दर्शन में सात नय हैं, जिन्हें सप्तभंगी नय अथवा स्याद्वाद या अनेकान्तवाद भी कहा जाता है। यह तीर्थंकर महावीर स्वामी द्वारा प्रतिपादित एक महत्वपूर्ण दार्शनिक एवं तार्किक सिद्धान्त है। जैन दर्शन के अनुसार वस्तु अनन्त धर्मात्मक हैं। अभिव्यक्ति के द्वारा हम वस्तु के किसी एक ही गुण का वर्णन  एक समय में कर सकते हैं। इसलिए यह एकांगी विचार हो सकता है। अतः हमें चाहिए कि जब हम अपने गुण या अंश का वर्णन करें तब हमें अन्य गुणों या विचारों के अस्तित्व की स्वीकृति जरूरी है। जैन दर्शन में इसे ही स्याद्वाद कहा गया है। यह दर्शन मानकर चलता हैकि दुनिया के अनेक रूप, पक्ष और गुण हैं और मनुष्य उसके किसी एक रूप, पक्ष और गुण को ही ग्रहण कर सकता है। अतः उसका दृष्टिकोण या नय आंशिक और एक पक्षीय होता है। 

  स्याद्वाद का अर्थ:

स्याद्वाद दो शब्दों के योग से बना है-स्यात् एवं वाद। स्यात् का अर्थ है शायद अथार्त् पूर्व में कहा गया है, उस प्रकार का दृष्टिकोण और वाद का तात्पर्य सिद्धान्त। अतः स्याद्वाद वह सिद्धान्त है जो अपेक्षा को लेकर चलता है और भिन्न-भिन्न विचारों का समन्वय करता है। अपेक्षावाद, अनेकान्तवाद या कदाचितवाद, स्याद्वाद सभी का एक ही अर्थ है। अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में अन्तर केवल इतना है कि अनेकान्तवाद एक विचार का माध्यम है जबकि स्याद्वाद उसकी अभिव्यक्ति का साधन है। इस कारण स्याद्वाद को संशयवाद मान लिया जाता है। किन्तु भगवान् महावीर ने जिस प्रकार इसका प्रतिपादन किया, वह संशय एवं सन्देह को दूर करने का माध्यम है। जैन दर्शन में ‘स्यात्’ किसी पदार्थ के समस्त सम्भावित सापेक्ष मूल्यों एवं धर्मों का एक-एक रूप में अपेक्षा से प्रतिपादन करना है। स्यात् का अर्थ है- अपेक्षा। स्याद्वाद का अर्थ है अपेक्षावाद। यह स्यात् अनेकान्त को व्यक्त करता है। अनेकान्त को व्यक्त करने वाली भाषा-अभिव्यक्ति के मार्ग का नाम है स्याद्वाद। इस प्रकार विभिन्न अपेक्षाओं से पद-पदार्थ का प्रतिपादन करना स्याद्वाद है। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु के अनन्त गुण धर्म होते हैं। वस्तु के अनन्त धर्मों का ज्ञान मुक्त व्यक्ति (केवली) ही केवल ज्ञान के द्वारा प्राप्त कर सकता है। अतः साधारण मनुष्य किसी वस्तु का एक समय में एक ही धर्म जान सकता है। अनेकान्तात्मक अर्थ का कथन स्याद्वाद है- ‘अनेकान्तात्मकार्थ कथनं स्याद्वादः’। अतः स्याद्वाद ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धान्त है।

अनेकान्तवाद  और स्याद्वाद:

अनेकान्तवाद ज्ञानरूप है, स्याद्वाद वचनरूप है। अनेकान्तवाद व्यापक विचार दृष्टि है, स्याद्वाद उसकी अभिव्यक्ति का मार्ग है। अनेकान्त पदार्थ के ज्ञान का दर्शन है, स्याद्वाद उसके स्वरूप की विवेचना पद्धति है। स्याद्वाद से जिस पदार्थ का कथन है वह अनेकान्तात्मक है। इसलिए स्याद्वाद को अनेकान्तवाद भी कहते हैं। अनेकान्तवाद पदार्थ के एक-एक धर्म, एक-एक गुण को देखता है। स्याद्वाद पदार्थ के एक-एक धर्म, एक-एक गुण को मुख्य करके प्रतिपादन करने का माध्यम है। स्याद्वाद व्यक्ति को सचेत किए रहता है कि जो कथन है वह पूर्ण निरपेक्ष सत्य नहीं है। अपेक्षा दृष्टि से व्यक्त कथन आंशिक सत्य का उद्घाटन करता है। अनेकान्तवाद परस्पर प्रतीत्यमान विपरीत मूल्यों, धर्मों एवं लक्षणों को अंश-अंश रूप में जानकर समग्र एवं अनन्त को जान जाता है। स्याद्वाद दूसरे धर्म या लक्षणों का प्रतिरोध किए बिना धर्म-विशेष, लक्षण-विशेष का प्रतिपादन करता है। समस्त सम्भावित सापेक्ष गुणों एवं धर्मों को प्रतिपादित कर समग्र एवं अनन्त को अभिव्यक्त करने की वैज्ञानिक प्रविधि का नाम स्याद्वाद है।

जैन दार्शनिक परम्परा में प्रत्येक द्रव्य अथवा सत् पदार्थ परिणामी होने के कारण एक धर्म को छोड़कर दूसरा धर्म ग्रहण करता रहता है। इसी स्वभाव के कारण प्रत्येक सत् का उत्पाद तथा व्यय (नाश) भी होता रहता है। फिर भी इस प्रकार का परिणामशील होने पर भी सत् पदार्थ का अपनापन कभी भी नष्ट नहीं होता। यह उत्पाद एवं व्यय भी सदैव विद्यमान रहता है जिसे ध्रौव्य कहा गया है। इस प्रकार के विश्लेषण से पता चलता है कि उत्पाद और व्यय के साथ-साथ प्रत्येक सत् पदार्थ में ध्रौव्य नामक तीसरा धर्म भी है। ऐसी स्थिति में जिस प्रकार मिट्टी से निर्मित घट के नाश हो जाने पर भी दोनों अवस्थाओं में मिट्टी का तद्भाव अर्थात् अपनापन विद्यमान रहता है। उसी प्रकार किसी तत्व के सही स्वरूप् की जानकारी के लिए उसके अनेक धर्मों पर विचार करना चाहिए। इस अनन्त अथवा अनेक धर्मों के कारण ही वस्तु अनन्त धर्मात्मक अथ्वा अनेकांतात्मक कही जाती है। इस अनेकातात्मक वस्तु का विश्लेषण करने के लिए ‘स्यात्’ शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ कदाचित् हातिा है। वस्तु एतद्रूप ही नहीं अपितु उसके अन्य रूप भी हैं। इस सत्य ही अभिव्यक्ति ही स्यादवाद है। इस प्रकार स्यात् पूर्वक जो वाद अर्थात् वचन अथवा कथन है वही स्यादवाद है। अतः अनेकातात्मक अर्थ के कथन को ही स्याद्वाद कहा गया है। यही कारण है कि कहीं-कहीं स्याद्वाद को अनेकान्तवाद भी कहा जाता है। क्योंकि स्याद्वाद से जिस पदार्थ का कथन होता है वह अनेकान्तात्मक है और अनेकान्तात्मक अर्थ का कथन ही अनेकान्तवाद है। अतः स्यात्  अर्थात् अव्वय अनेकान्त का द्योतक है। इसीलिए स्याद्वाद का अनेकान्तवाद कहा गया है। अन्य अनेक जैन चिन्तकों के अनुसार अनेकान्तवाद वास्तविक सत्य का साक्षात्कार करने में सहायक होता है और इस अनेकान्त का प्रतिपादकवाद स्याद्वाद कहा जाता है।

नय दृष्टि:

साधारण मनुष्य का ज्ञान अपूर्ण एवं आंशिक होता है तथा उस ज्ञान के आधार पर जो परामर्श होता है उसे भी नय कहते हैं। नय किसी वस्तु को समझने के लिए विभिन्न दृष्टिकोण हैं। किसी भी वस्तु के सम्बन्ध में जो निर्णय होता है वह सभी दृष्टियों से सत्य नहीं होता। उसकी सत्यता उसके नय पर निर्भर करती है, अर्थात् उसकी सत्यता उस विशेष दृष्टि तथा विशेष विचार से ही मानी जाती है जिस विशेष दृष्टि से उसका परामर्श किया जाता है। इसके लिए जैन विचारकों ने हाथी एवं छः अन्धों का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है जो हाथी का आकार जानने के उद्देश्य से हाथी के भिन्न-भिन्न अंगों का स्पर्श कर हाथी को खंभे, रस्सी, सूप, अजगर, दीवार एवं छाती के समान मानने का आग्रह करते हैं। इस प्रकार हाथी के आकार के सम्बन्ध में पूर्णतया मतभेद हो जाता है। प्रत्येक अन्धें व्यक्ति को अपना ज्ञान ठीक लगता है, किन्तु जैसे ही उन्हें यह ज्ञात होता है कि प्रत्येक ने हाथी का एक-एक अंग ही स्पर्श किया है तब उनका मतभेद समाप्त हो जाता है।

विचारकों के बीच विवाद इसलिए होता है कि वे किसी विषय को भिन्न-भिन्न दृष्टि से देखते हैं तथा अपने ही मत को सत्य मानने का आग्रह करते हैं। दृष्टि साम्य होने पर मतभेद की सम्भावना समाप्त हो जाती है। इसी दृष्टि मतभेद के कारण ही विभिन्न दर्शनों में संसार के भिन्न-भिन्न वर्णन पाए जाते हैं। किन्तु कोई भी दर्शन यह नहीं मानता कि उसका दृष्टिकोण किसी दृष्टि विशेष पर निर्भर करता है। जिस प्रकार हाथी- अंधे के दृष्टान्त में प्रत्येक अन्धे व्यक्ति का ज्ञान अपने ढंग से स्पष्टतया सत्य है। उसी प्रकार विभिन्न दार्शनिक मत अपने अपने दृष्टिकोण  से सत्य हो सकते हैं।

इसी आधार पर जैन दर्शन में नय (परामर्श) सात प्रकार के माने गए हैं। पाश्चात्य तर्कशास्त्र में परामर्श के दो प्रकार माने जाते हैं- भावात्मक (अस्तिवाचक) तथा निषेधात्मक (नास्तिवाचक)। तर्कशास्त्र की दृष्टि से भावात्मक वाक्य का उदाहरण ‘घड़ा है’, तथा निषेधात्मक वाक्य का उदाहरण- ‘घड़ा नहीं है’ है। जैन दार्शनिक इस वर्गीकरण में सुधार करते हैं तथा सात प्रकार के परामर्श के अन्तर्गत इन दोनों नयों को भी सम्मिलित करते हैं। नय के वर्गीकरण को जैन दर्शन में सप्तभंगी नय कहा जाता है, जो निम्नलिखित हैं:

1.स्याद् अस्ति- यह प्रथम परामर्श है। उदाहरणस्वरूप यदि यह कहा जाय ’स्याद् घड़़ा लाल है’ तो इसका तात्पर्य यह है कि घड़ा सभी समय के लिए नहीं, बल्कि किसी विशेष देश, काल एवं प्रसंग में लाल है। यह भावात्मक वाक्य है।

2.स्याद् नास्ति- यह अभावात्मक परामर्श है। घड़े के सम्बन्ध में अभावात्मक परामर्श इस प्रकार होना चाहिए-’स्याद् घड़ा इस कमरे के अन्दर नहीं है।’ इसका तात्पर्य है कि एक विशेष रंग-रूप का घड़ा एक विशेष कमरे के अन्दर नहीं है। एक दूसरे दृष्टान्त द्वारा-स्याद् घड़ा काला नहीं है, अर्थात् कोई एक विशेष घड़ा विशेष स्थान, समय तथा परिस्थिति में काला नहीं है।

3.स्याद् अस्ति-नास्ति च- वस्तु की सत्ता एक दृष्टिकोण से हो सकती है तथा अन्य दृष्टिकोण से नहीं भी हो सकती। घड़े के उदाहरण में घट लाल भी हो सकता है एवं लाल नहीं भी हो सकता है। ऐसी स्थिति में ‘स्याद् है स्याद् नहीं है’, का प्रयोग किया जाता है।

4.स्याद् अवक्तव्यम्- यदि किसी परामर्श में परस्पर विपरीत गुणों के सम्बन्ध में एक साथ विचार करना हो तो उसके विषय में ’स्याद् अवक्तव्यम्’ का प्रयोग होता है। लाल घट के सम्बन्ध में कहीं ऐसा भी हो सकता है कि जब उसके बारे में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि वह लाल है या काला। घड़े के इस रंग के लिए ’स्याद् अवक्तव्यम् का प्रयोग वांछनीय है।

5.स्याद् अस्ति अवक्तव्यम्- पहले एवं चतुर्थ नय को मिलाने पर पाँचवाँ नय प्राप्त होता है, इसके अनुसार कोई वस्तु एक ही समय में हो भी सकती है; फिर भी अवक्तव्यम् रह सकती है। किसी विशेष दृष्टि से घट को लाल कहा जा सकता है, किन्तु जब दृष्टि का स्पष्ट संकेत न हो तो घड़े के रंग का वर्णन असम्भव हो जाता है। अतः व्यापक दृष्टि से घड़़ा लाल है तथा अवक्तव्यम् भी है।

6.स्याद् नास्ति अवक्तव्यम्- दूसरे एवं चतुर्थ नय को मिलाने पर छठाँ नय बनता है। किसी विशेष दृष्टि से किसी वस्तु के विषय में नहीं है, कह सकते है। परन्तु दृष्टि स्पष्ट न होने पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। अतः घड़ा लाल नहीं है तथा अवक्तव्यम् भी है।

7.स्यात् अस्ति-नास्ति-अवक्तव्यम्- तीसरे एवं चतुर्थ नय को मिलाने पर सातवाँ नय बन जाता है। इसके अनसार एक दृष्टि से घड़ा लाल है दूसरी दृष्टि से लाल नहीं है, तथा जब दृष्टि अस्पष्ट हो तब अवक्तव्यम् है।

इस सप्तभंगीनय में प्रथम चार नय मूल हैं, तथा अन्य तीन नय प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय का मिश्रण है। अन्य दर्शन में भी चार नयों की चर्चा है। जैसे- बौद्ध धर्म के अव्याकृत में अस्ति, नास्ति, उभय तथा नोभय का दृष्टान्त मिलता है। अस्ति, नास्ति तथा अवक्तव्यम् पर एक साथ विवेचन करने पर केवल सात ही प्रकार बनते हैं; फलस्वरूप स्यात् वाक्यों को  न सात से कम ही माना जा सकता है और न सात से अधिक। इसी प्रकार वेदान्त में चार प्रकार के तर्क का निरूपण प्राप्त होता है।

किसी वस्तु अथवा उसके गंणों के विषय में कथन के जो सात सम्भावित प्रकार हैं, उनमें पहले दो प्रकार मुख्य हैं, अर्थात् साधारण स्वीकारात्मक यह कि अमुक वस्तु अपने स्वरूप में है, स्वद्रव्य (अपने भौतिक उपादान) में, स्वक्षेत्र (अपने स्थान) में तथा स्वकाल (अपने समय) में वर्तमान है। दूसरा साधारणनिषेधात्मक यह है कि अमुक वस्तु अपने पररूप (अर्थात् अन्य प्रकार) में, द्रव्य (अन्य भौतिक उपादान) में, क्षेत्र (अन्य स्थान) में एवं परकाल (अन्य समय) में विद्यमान नहीं है। दूसरा निषेधात्मक लक्ष्य है। इस सिद्धान्त का आग्रह है कि स्वीकृति एवम् निषेध दोनों परस्पर सम्बद्ध तथा सहचारी हैं। समस्त निर्णयों  के दो रूप होते हैं; सब पदार्थ हैं भी और नहीं भी हैं, अर्थात् सद्असदात्मक हैं- ‘स्वरूपेण सत्तात् पररूपेण न असत्त्वात्’। वस्तुतः प्रत्येक निषेध का एक सकारात्मक आधार होता है।

बौद्ध तथा वेदान्ती जैन के स्याद्वाद की कड़ी आलोचना करते हैं। बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने स्याद्वाद को पागलों का प्रलाप कहा तथा जैनियों  को निर्लज्ज बताया। शान्तरक्षित ने भी यही बात कही। स्याद्वाद जो सत् एवं असत्, एक और अनेक, भेद एवं अभेद, सामान्य और विशेष जैसे परस्पर विपरीत तत्वों को मिलाता है, पागल व्यक्ति की बौखलाहट है। इसी प्रकार शंकराचार्य ने भी स्याद्वाद को अनिश्चितता का सूचक बताया है। एक ही श्वाँस उष्ण एवं शीत नहीं हो सकता। भेद एवं अभेद, नित्यता एवं अनित्यता, यथार्थता एवं अयथार्थता, सत् एवं असत् अन्धकार एवं प्रकाश की तरह एक ही काल में एक ही वस्तु में नहीं रह सकते।

किसी वस्तु को ’है’ एवं ‘नहीं है’कहना अनिश्चितता का सूचक है। रामानुज का कहना है कि सत्ता एवं निःसत्ता के समान परस्पर विरुद्ध धर्म प्रकाश एवं अन्धकार की भाँति इकट्ठा नहीं किए जा सकते। विधि एवं निषेध परस्पर विपरीत धर्म हैं एवं स्याद्वाद विपरीत धर्मों का एकत्र समर्थन करता है।

किन्तु स्याद्वाद पर यह आरोप मिथ्या है। जैन दर्शन के अनुसार एक दृष्टि से जो नित्य प्रतीत लगता है वही दूसरी दृष्टि से अनित्य है। स्याद्वाद यह नहीं कहता कि जो नित्यता है वही अनित्यता है या जो एकता है वही अनेकता है। नित्यता एवं अनित्यता, एकता एवं अनेकता आदि परस्पर विपरीत धर्म हैं यह सत्य है; किन्तु उनका विरोध अपनी दृष्टि से है वस्तु की दृष्टि से नहीं। वस्तु  दोनों को आश्रय देती है, दोनों की सत्ता से ही वस्तु का स्वरूप पूर्ण होता है। जब एक वस्तु द्रव्य दृष्टि से नित्य एवं पर्याय दृष्टि से अनित्य है तो उसमें विरोध का कोई प्रश्न ही नहीं है। इस प्रकार स्याद्वाद पर परस्पर विपरीत धर्मों को एकत्र आश्रय देने का आरोप मिथ्या है।

       भेद एवं अभेद के लिए भिन्न-भिन्न आश्रय मानने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। जो वस्तु भेदात्मक है वही वस्तु अभेदात्मक है। उसका परिवर्तन-धर्म भेद की प्रतीति का कारण है। दोनों धर्म अखण्ड वस्तु के ही धर्म हैं। भेद-अभेद दोनों का आश्रय एक ही है। एक ही वस्तु में सामान्य एवं विशेष दोनों रहते हैं।

स्याद्वाद एवं सापेक्षवाद:

                इस प्रकार स्याद्वाद को सन्देहवाद नहीं माना जा सकता। यह ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धान्त है। जैन मतानुसार ज्ञान निर्भर करता है, स्थान, काल तथा दृष्टिकोण पर। इसलिए यह सापेक्षवाद है। सापेक्षवाद दो प्रकार का होता है- विज्ञानवादी सापेक्षवाद तथा वस्तुवादी सापेक्षवाद। विज्ञानवादी सापेक्षवाद के अनुसार वस्तु की सत्ता देखने वाले पर निर्भर करती है। वस्तु का कोई निजी गुण नहीं है। वस्तु का गुण अनुभवकर्ता की अनुभूति पर निर्भर करता है। इसके विपरीत वस्तुवादी सापेक्षवाद के अनुसार वस्तुओं का गुण देखने वाले पर निर्भर नहीं करता अपितु ये मानव मन से स्वतन्त्र हैं। वस्तुवादी सापेक्षवाद वस्तुओं की स्वतन्त्र सत्ता में विश्वास करते हैं। जैन का सापेक्षवाद वस्तुवादी है क्योंकि इसकी मान्यता है कि वस्तु के अनन्त गुण देखने वाले पर निर्भर नहीं करते, बल्कि उनकी स्वतन्त्र सत्ता है। जैन वस्तु की वास्तविकता में विश्वास करता है। इस प्रकार स्याद्वाद कथन का अहिंसावादी माध्यम है।

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