प्राचीन भारत में बौद्ध शिक्षण केन्द्र :(Buddhist Teaching Centre In Ancient India)

                प्राचीन काल से लेकर आजतक भारत में अध्यापन पुण्य का कार्य माना गया है। गृहस्थ ब्राह्मण के पाँच महायज्ञों में ब्रह्मयज्ञ का स्थान सर्वोच्च था। ब्रह्मयज्ञ में विद्यार्थियों को शिक्षा देना प्रधान कर्म था। ब्रह्मयज्ञ के लिए प्रत्येक विद्वान गृहस्थ के लिए विद्यार्थियों का होना आवश्यक था। इन्हीं विद्यार्थियों में आचार्य के पुत्र भी होते थे। इस प्रकार प्रत्येक विद्वान गृहस्थ का घर विद्यालय था। ऐसे विद्यालयों का प्रचलन वैदिक काल में विषेष रूप से था। महाभारत में भी गृहस्थाश्रम में रहने वाले आचार्यों के अपने घर में अध्यापन करने के उल्लेख मिलते हैं।

उर्पयुक्त वैदिक विद्यालयों के सम्बन्ध में इतना तो निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि वे बड़े नगरों में नहीं होते थे। विद्यालयों की स्थिति साधारणतः नगरों से दूर वनों में होती थी। महर्षि गृहस्थ होने पर भी अपने रहने के लिए वनभूमि को ही प्रायः चुनते थे। जिन वनों, पर्वतों उपनद-प्रदेश को लोगों ने स्वास्थ्य संवर्धन के लिए उपयोगी माना और जहाँ ग्रीष्मऋतु का संताप प्रखर नहीं था, उन्हें आचार्यों ने अपने आश्रम और विद्यालयों के लिए चुना। विद्यालय प्रायः वहीं होते थे, जहाँ आचार्यों की गायों को चरने के लिए घास का मैदान होता था, हवन की समिधा वन के वृक्षों से मिल जाती थी और स्नान करने के लिए निकट ही सरोवर या सरिता होती थी। तत्कालीन वैदिक विद्यार्थी-जीवन में ब्रह्मचर्य और जप का विषेष महत्त्व था। इनकी सिद्धि के लिए नगर और ग्राम से दूर रहना अधिक समीचीन माना गया। उपनिषदों में ब्रह्मज्ञान के शिक्षक ऋषियों की आवास-भूमि अरण्य को ही बताया गया है। इन्हीं ब्रह्मज्ञानियों के समीप ब्रह्मज्ञान के विद्यार्थी आते थे। अरण्य में रहना ब्रह्मचर्य का पर्याय समक्षा जाने लगा।

बौद्ध शिक्षा के प्रवर्तक गौतम बुद्धः

बौद्ध शिक्षण-संस्थाओं के प्रसिद्व प्रवर्तक गौतम बुद्व थे। गौतम ने अपने दर्शन और धर्म के अनुकूल मानव-व्यक्तित्व के विकास की जो योजना बनायी, उसमें गृहस्थाश्रम का स्थान विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं था। गौतम के पहले भी कुछ ऐसे विचारक थे, जिनके मत से गृहस्थाश्रम की उपयोगिता किसी विद्वान या अग्रशोची व्यक्ति के लिए नहीं है। ऐसी परिस्थिति में कुछ विचारशील माता-पिता स्वयं अपने पुत्र को ब्रह्मपरायण बनाने के लिए निश्चय कर लेते थे और अपने बालक की अवस्था सोलह वर्ष हो जाने पर उसे सदा के लिए वन में भेज देते थे, जिससे वह अग्नि की पूजा करते हुए ब्रह्मलोकगामी हो जाय। ऋषि-प्रव्रज्या के अनुसार भी बाल्यावस्था से ही लोग प्रव्रजित हो सकते थे। ऋषि-प्रव्रज्या लेने वाले लोग प्रायः हिमालय पर्वत पर किसी आचार्य- महर्षि के सानिध्य में जीवन बिताते थे। कभी-कभी वे पर्वतीय प्रदेश छोड़कर नगरों की ओर आते जाते थे और नागरिकों को उपदेश देते थे। राजाओं द्वारा उनका आदर- सम्मान किया जाता था। ऋषि वर्षा ऋतु में किसी एक ही स्थान पर रहते थे। राजा के उद्यान में इनके लिए पर्णशाला बनायी जाती थी। वनों में रहते हुए ऋषि वनान्तर से फल-फूल आदि अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ लाते थे। ऋषियों की यह प्रव्रज्या अग्नि-पूजा के विरूद्ध थी। उनके जीवन-क्रम और अभ्यास बहुत कूछ ऐसे ही थे, जैसे परवर्ती युग में बौद्ध संस्कृति में प्रतिष्ठित हुए। अरक जातक के अनुसार बोधिसत्त्व एक बार ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर काम-भोगों को छोड़कर ऋषि-प्रव्रज्या अपना कर ब्रह्म-विहारों में समापन्न होकर अरक नाम के उपदेशक हुए। वे हिमालय प्रदेश में अनुयायियों के साथ रहते थे। अरक के उपदेश थे- प्रव्रजित को मैत्री, करूणा, मुदिता और उपेक्षा भावनाओं का अभ्यास करना चाहिए। मैत्री- भावना से चित्त अर्पणा, समाधि और ब्रह्मपरायणता प्राप्त करता है।

गौतम ने स्वयं कहा है कि प्राचीन काल में अनेक अर्हत् बुद्ध हो चुके हैं। फाह्यान ने लिखा है कि देवदत्त के अनुयायियों के भी संघ थे। वे पूर्व के तीन बुद्धों- कश्यप, ककुच्छद और कनक मुनि की भी पूजा करते थे, केवल शाक्यमुनि की नहीं। उपर्युक्त उल्लेखों से प्रतीत होता है कि गौतम ने व्यक्तित्व के विकास की जिन योजनाओं और समस्याओं को अपनाया, उनका पूर्व रूप भारतीय संस्कृति में सुदूर प्राचीन काल से चला आ रहा था।

गौतम ने प्रव्रज्या लेने वाले ऋषियों के संघीय रहन-सहन को अपनाया और उन्हीं की भाँति आजीवन व्रत-निष्ठ रहने का विधान बनाया। इस जीवन- विन्यास में उन्होंने अरण्यवास और पर्णशालाओं को बहुत महत्व नहीं दिया। बौद्ध विहार नगरों के आस- पास ही ऊँचे भवनों के रूप में बने। तत्काीन अनेक राजाओं और धनी लोगों ने गौतमबुद्ध के समय से ही विहारों के बनवाने का उत्तरदायित्व लिया। ऐसी परिस्थिति में विहारों का राज-प्रासाद के समकक्ष होना स्वाभाविक था।

जहाँ तक विहारों के नगरों के समीप होने का सम्बन्ध है, गौतम का स्पष्ट उद्देश्य था- नागरिकों के अवगाहन के लिए अपनी उदात्त विचार-धारा को सुलभ बनाना। इसमें गौतम को सफलता मिली।

भिक्षुओं को विहार में रहने की अनुमति गौतम ने राजगृह के नगर-सेठ के प्रार्थना करने पर दी थी। इसके पहले भिक्षु गौतम बुद्ध से शिक्षा लेने के लिए प्रातःकाल आ जुटते थे और दिन भर शिक्षा- ग्रहण करके रात्रि का समय वनों में, वृक्षों के नीचे, पर्वत की पाश्र्व-भूमि में, गुफाओं में बिता देते थे। गौतम बुद्ध चलते- फिरते महात्मा थे। उनकी शिष्य- मण्डली भी उनके साथ चलती- फिरती थी। जब शिष्यों की संख्या अधिक हो गयी तो सबको लेकर घूमना कठिन हो गया और उनको भवन में रहने की अनुमति दे दी गयी।

बौद्ध शिक्षा के केन्द्र- विहारः

                भिक्षुओं को बेघर होकर घूमने की परिस्थिति का अवलोकन करके राजगृह के सेठ ने उनके लिए 60 घर बनवाया। गौतम ने अनुमति दी थी कि भिक्षुओं के रहने के लिए पाँच प्रकार के घर हो सकते हैं- विहार, हठयोग, पासाद (प्रासाद), हम्मिय (हम्र्य) तथा गुहा। उन्होंने 60 घरों के दान का अनुमोदन करते हुए सेठ को इन शब्दों में धन्यवाद दिया- जो व्यक्ति संघ के लिए विहार का दान करता है, वह भिक्षुओं को जाड़े, गर्मी और वर्षा के प्राकृतिक प्रकोपों से बचाता है, मच्छरों और कीड़ों से उनकी रक्षा करता है तथा उष्ण वायु के झोकों से सुरक्षित रखता है। विहार-भवन में शान्तिपूर्वक बैठकर भिक्षु समाधि लगा सकते हैं और चित्त को एकाग्र करके चिन्तन कर सकते हैं। बुद्धिमान पुरूष अपने कल्याण की भावना से मनोरम विहारों को बनवायें और वहाँ विद्वान मनीषियों को आश्रय दें। जिन लोगों का अन्तःकरण शुद्ध है, उनके लिए प्रसन्न मन से भोजन, पेय, वस्त्र, आवास आदि का दान देना चाहिए। ऐसे लोग उपकृत होकर सत्पथ का प्रदर्शन करेंगे। सत्य ही सब प्रकार के शोकों को उन्मूलित करता है। सत्य को जानकर मानव पाप नहीं कर सकता।

जनता में बौद्ध संस्कृति के प्रति असीम उत्साह था। लोगों ने विहार बनवाना आरम्भ किया। गौतम बुद्ध सांस्कृतिक पर्यटन करते हुए वनों, उपवनों और आरामों में ठहरते थे। शनैः-शनैः इन आरामों का दान उन्हें मिलने लगा और इनमें विहार बनते गये।

पर्वतों की गुफाओं में रहना बौद्ध- योजना के अनुकूल है। गौतम के जीवनकाल में पर्वतों की प्राकृतिक गुफायें विहार- रूप में परिणत होने लगी थीं। कुछ राजा ऐसी गुफाओं के आस-पास भिक्षुओं की सुविधाओं के लिए उपवन लगवा देते थे।

श्रावस्तीः

श्रावस्ती के जेतवन विहार का निर्माण अनाथपिण्डक ने गौतम बुद्ध के जीवनकाल में कराया था। जेतवन विहार का क्षेत्रफल लगभग 130 एकड़ था। इसमें 120 भवन और शालायें थीं। उपदेश देने के लिए, समाधि लगाने के लिए तथा भोजन के लिए अलग- अलग शालायें निर्धारित थीं। साथ ही स्नानागार, औषधालय, पुस्तकालय, अध्ययन-कक्ष आदि बने हुए थे। इसके जलाशयों के चारों ओर घनी एवं मनोरम छाया थी। सारे भवन ऊँची दीवार से घिरे थे। पुस्तकालयों में बौद्ध धर्म के अतिरिक्त वैदिक तथा अन्य विचार-धाराओं के ग्रन्थों का संग्रह किया गया था। साथ ही तत्कालीन विज्ञान और शिल्प-शास्त्रों के ग्रन्थों का संग्रह किया गया था। विहार नगर से दूर होने के कारण नागरिकों के कोलाहल और व्यस्तता से क्षुब्ध नहीं हो सकता था, पर इतना दूर भी नहीं था कि नगर से प्राप्य सुबिधाओं का बहुत समय तक अभाव रहे। विहार में सर्वत्र छाया विराजती थी और दिन की कड़ी धूप और गर्मी में भी उपवन में विचरण किया जा सकता था। आराम की परिधि में अनेक स्रोतों से होकर जल प्रवाहित होता था। विहार में अनेक जलाशय बनाये गये थे। इन सबका जल शीतल, शुद्ध और स्वास्थ्यप्रद था। इस स्थान के सौन्दर्य-संवर्धन के लिए गौतम ने स्वयं आदेश दिया था-’ विहार -भूमि में वृक्ष लगाओ, और सड़को के किनारे वृक्षारोपण करो। गौतम ने बाड़ लगाकर जानवरों तथा अन्य पशुओं का आना-जाना बन्द करा दिया था और भरपूर पानी आने के लिए नहरें बनवायी थी।’

साधारणतः विहार सभी बौद्ध संघ की वस्तु होते थे। भ्रमण करते हुए भिक्षु सभी विहारों में समान अधिकार से बस सकते थे। जेतवन के विहार का दान देते समय अनाथपिण्डक ने संकल्प किया था- ‘ मैं अखिल विश्व के भिक्षुओं के उपयोग के लिए इसे देता हूँ। सभी भिक्षु जो यहाँ हैं, अथवा भविष्य में आयेंगे, यहाँ सुविधापूर्वक रहें।‘

गौतम के जीवन काल के बाद बौद्ध संस्कृति की धारा में प्र्याप्त बल रहा। इसके सर्वप्रथम उन्नायक सम्राट अशोक हुए। उन्होंने भिक्षुओं के निवास के लिए असंख्य विहारों का निर्माण कराया, जिनमें से कुछ अब भी मिलते हैं। ईसवी शती के पहले से ही अजन्ता में बौद्ध शिक्षण हेतु गुफा विहारों की रचना का शुभारम्भ हुआ और आठवीं शती नई- नई गुफायें बनती रहीं। इन गुफाओं में गुप्तकालीन चित्र और मूर्तियों का आदर्श भव्य है।

फाहृयान एवं हवेनसांग के वृतान्तों में विहारः

चैथी शती के विहारों की स्थिति का वर्णन फाह्यान के उल्लेखों से मिलता है। इसके अनुसार कश्यप बुद्ध का संघाराम  पर्वत काटकर बनाया गया था। यह पाँच मंजिला था। इनमें से प्रत्येक तल किसी न किसी पशु-पक्षी की आकृति का बना था। पहला तल हाथी के आकार का था। दूसरा तल सिंह के आकार का था। तीसरा घोड़े के आकार का था। चैथा बैल के आकार का था, और पाँचवा कबूतर के आकार था। सबसे ऊपर एक जल-प्रपात था।

फाह्यान के विवरणानुसार सुवास्तु प्रदेश के उद्यान जनपद में 500 संघाराम थे। पेशावर (पुरूषपुर) जनपद के संघाराम में 600 भिक्षु रहते थे। आधुनिक काबुल के लोई प्रदेश में 3000 भिक्षुओं के रहने का प्रबन्ध था। मथुरा और उसके आस-पास  के विहारों में 3000 से अधिक भिक्षु रहते थे।

फाह्यान के बाद चीनी यात्री हवेनसाँग भारत में रहकर विभिन्न प्रदेशों का भ्रमण करते हुए तत्कालीन शिक्षण- संस्थाओं का प्रादेशिक क्रम से ऐतिहासिक वर्णन किया है। इसके अनुसार उस समय भारत में लगभग 6000 विहार थे और उसमें ढाई लाख भिक्षु और उनके आचार्य रहते थे।

नालन्दाः

सातवीं शती की कुछ बौद्ध संस्थाओं के विश्वविद्यालय रूप में विकसित होने के उल्लेख मिलते हैं। इनमें नालन्दा, बलभी, विक्रमशिला आदि सारे एशिया में प्रख्यात थे। हवेनसांग के अनुसार नालन्दा- क्षेत्र को 500 सेठों ने दस करोड़ स्वर्ण मुद्रायें देकर मोल लिया था और गौतम बुद्ध को समर्पित किया था। यहीं पर गौतम के प्रसिद्ध शिष्य सारिपुत्र का जन्म हुआ था। यहाँ के आम्रवन में कई दिनों तक रहकर गौतम ने शिष्यों को सदाजार और विनय की शिक्षा दी थी। संभवतः इन सब बातों का विचार करके ही अशोक ने वहाँ पर एक विहार का निर्माण कराया थां फिर शक्रादित्य (संभवतः कुमारगुप्त 414-445ई0) ने यहाँ पर एक बडे़ विहार की स्थापना  की। आगे चल कर पाँचवीं शती में बुद्धगुप्त, नरसिंहगुप्त, बालादित्य, वज्र आदि अनेक राजाओं ने विहार बनवाये।इसकी ख्याति इतनी बढी़ कि केवल भारत के ही नहीं, अपितु अन्य देशों के राजाओं ने नालन्दा में विहार बनवा कर अपनी कीर्ति अमर की। सुमात्रा के राजा बालपुत्र ने 9वीं शती में विहार बनवाया था और अपने मित्र राजा देवपाल से नालन्दा के लिए पाँच गाँवों का दान करवाया था। आठवीं षती के यशोवर्मा के शिलालेख में नालन्दा की विहारावली के सम्बन्ध में कहा गया है कि इनकी शिखर- श्रेणी बादलों का चुम्बन करती थी, मानों विधाता ने पृथ्वी के लिए आकाश में विराजमान मनोरम माला बना दी हो।

नालन्दा विश्वविद्यालय के सघन कुंजों उपवनों में हवेनसांग का मन रमता था। मनोरम कासारों के रूचिर जल में नील कमल अपनी पँखुरियों का विकास करते थे। विद्यालय की शोभा कनक- वृक्षों से विशेष मनोहर प्रतीत होती थी। इनके रक्तिम कुसुमों के गुच्छे चित्ताकर्षक थे। आम्रमंजरी और उसके हरित पत्र मन को मोह लेते थे। विद्यालय के समीप दस स्नानागार बने थे। नहाने के समय घण्टा बजता था। भवनों की उच्चता का निरूपण करते हुए हवेनसांग लिखता है- इसका मानमंदिर प्रातःकाल के कुहरे में अदृश्य हो जाता है, इसके ऊपर के कमरे मानों बादल में छिपे रहते हैं। पर्वतों के समान ऊँचे विद्यालयों के शिखर पर ललित कलाओं की शिक्षा दी जाती थी। इनकी खिड़कियों से लोग वायु और बादलों के परिवर्तन का अनुमान कर लेते थे। यहीं से सूर्य और चन्द्र भी दिखाई पड़ते थे। बाह्य उंदिर के चार विभाग हैं। इसकी बलभि रंगीन है ओर इसके लाल स्तम्भों पर मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। स्तम्भों का प्रसाधन-कर्म मन को मोह लेता है। छत के खपड़ों से प्रतिफलित होकर सूर्यरश्मि सहस्रों भागों में बिखर जाती है। मंदिरों के बनाने में सुन्दर ईंटों को इस प्रकार जोड़ा गया है कि उनके जोड़ दिखाई नहीं पड़ते। 

नालन्दा का विश्वविद्यालय बहुत विशाल था। उसकी खुदाई से जो अवशेष मिले हैं, उनको देखने से उपर्युक्त कथन की पुष्टि होती है। इसका क्षेत्र एक मील लम्बा और आधा मील चैड़ा खोदा गया है। भवनों के अवशेषों से ज्ञात होता है कि उनकी सापेक्षिक अवस्थिति का परिकल्पन विशद विवेचन के बाद ही किया गया था। मुख्य भवन में सात बड़े हाल थे। इसके अतिरिक्त 300 कमरे व्याख्यान के लिए थे। सबसे बड़ा विहार 203 फुट लम्बा और 168 फुट चैड़ा था। विहार की कोठरियाँ 9.5 फुट से लेकर 12 फुट तक लम्बी हैं।

यह विश्वविद्यालय 12वीं शती तक चलता रहा। 12वीं शती के अन्तिम चरण में बख्तियार खिलजी द्वारा इसका विध्वंश कर दिया गया। 11वीं शती में पाल राजाओं का संरक्षण पाकर विक्रमशिला का विश्वद्यिालय नालन्दा से बढ़कर महत्वपूर्ण हो चुका था।

नालन्दा विश्वद्यिालय में विद्यार्थियों और आचार्यों की सम्मिलित संख्या लगभग 10000 थी। शीलभद्र सर्वोच्च आचार्य थे। नालन्दा में बौद्ध साहित्य के अतिरिक्त व्याकरण, तर्क और दर्शन आदि की शिक्षा दी जाती थी और वैदिक संस्कृति के ग्रन्थों का अनुशीलन किया जाता था। नालन्दा में पढ़ने के लिए चीन, कारिया, तिब्बत, जापान आदि देशों से विद्यार्थी आते थे।

नालन्दा का समकालीन बलभि का बौद्ध विश्वद्यिालय काढियावाड़ प्रदेश में प्रतिष्ठित रहा है। आचार्य स्थिरमित की अध्यक्षता में इस विहार की नींव पड़ी थी। यहाँ के विहारों की संख्या धीरे- धीरे बढ़ती रही। हवेनसांग के समय यहाँ एक सौ से अधिक विहार थे। इसका समूल विनाश आठवीं शती के अन्तिम चरण में अरबों के आक्रमण के फलस्वरूप हो गया।

विक्रमशिलाः

नालन्दा की भाँति बिहार प्रदेश में विक्रमशिला का विश्वविद्यालय आठवीं शती से तेरहवीं शती तक चलता रहा। इसकी स्थापना पालवंशी शासक धर्मपाल ने गंगा नदी के तट पर एक पहाड़ी के ऊपर विहार बनवा कर की थी। फिर तो प्रायः सभी पाल शासकों ने समय- समय पर आवश्यक सहायता देकर तथा मंदिर, विहार और विद्यालय -भवन बनवा कर इस विश्वविद्यालय को नित्य सवंर्धित किया। विश्वविद्यालय की उच्चता और सुदृढ़ता का इससे बढ़कर क्या प्रमाण हो सकता है कि इसके विनाश करने वाले बख्तियार खिलजी को यह राजकीय दुर्ग से सतायुक्त नगर प्रतीत हुआ और इसी भ्रम से बहुत चावपूर्वक उसने इस संस्था का सर्वस्व विनाश कर डाला।

विक्रमशिला विश्वविद्यालय में भारत के तत्कालीन महान् आचार्यों को चुन-चुन कर स्थान दिया गया और यह संस्था सैकड़ों सालों तक केवल भारत में ही नहीं, अपितु समग्र एशिया में प्रख्यात हो गयी। तिब्बत के छात्रों से विक्रमशिला का एक छात्रावास भरा रहता था। यहाँ विद्यार्थियों की संख्या लगभग 3000 थी।

धर्मपाल ने जो विहार बनवाया था, उसके चारों ओर सुदृढ़ दीवार थी। मध्य में भव्य बौद्ध मंदिर था। इसकी भित्तियों पर महाबोधि के दृष्यों का तक्षण किया गया था। धर्मपाल ने 108  आचार्यों की नियुक्ति की और साथ ही सुव्यवस्था के लिए अन्य पदाधिकारियों का चुनाव किया था। यहाँ के अनेकानेक विद्वानों ने विभिन्न ग्रन्थों की रचना की, जिनका बौद्ध साहित्य और इतिहास में नाम है। उन विद्वानों में प्रसिद्ध हैं- रक्षित, विरोचन, ज्ञानपद, जेतारि, रत्नाकर शान्ति, ज्ञानश्री मित्र दीपंकर और अभयंकर। दीपंकर ने सैकड़ों ग्रन्थों की रचना की थी। वह इस शिक्षा- केन्द्र के महान् प्रतिभाशाली व्यक्तियों में अकेला था। बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ वह तिब्बत भी गया था। इस विश्वविद्यालय का समस्त व्यय बड़े- बड़े लोगों के दान और भेंट पर आधृत था। आवास और भोजन का प्रबन्ध विश्वविद्यालय की ओर से किया जाता था। भिक्षु- अध्यापक प्रबन्ध में हाथ बँटाते थे। छह द्वार- पण्डितों की समिति द्वारा इसका संचालन होता था जिसका प्रधान महास्थविर होता था।

बुद्ध के जीवन काल में ही श्रावस्ती बौद्ध धर्म और शिक्षा का प्रमुख केन्द्र बन चुका था। प्रमुख श्रेष्ठि अनाथपिण्डक ने बुद्ध के समय में नगर के निकट जेतवन विहार का निर्माण करवाया था जहाँ बौद्ध ज्ञान और आचार की शिक्षा दी जाती थी। आग लग जाने के कारण इसका विनाश हो गया था। बुद्ध के समय में ही इसका पुनर्निर्माण हुआ। जेतवन काफी प्रशस्त और विस्तृत था। सम्राट अशोक और हर्ष के समय में श्रावस्ती विहार बौद्ध ज्ञान और दर्शन का प्रमुख केन्द्र था। जहाँ दूर- दूर से भिक्षु आकर ज्ञान प्राप्त करते थे।

कश्मीरः

उपर्युक्त विश्वविद्यालयी शिक्षा केन्द्रों के अतिरिक्त देश में अनेक बौद्ध शिक्षा केन्द्र थे, जहाँ विभिन्न प्रकार की शिक्षा दी जाती थी। हवेनसांग को अन्य शास्त्रों के अतिरिक्त कोश, न्याय, हेतु आदि की शिक्षा कश्मीर स्थित विहार के वृद्ध भिक्षु ने दी थी। हवेनसांग ने कान्यकुब्ज स्थित भद्र नामक बौद्ध विहार में तीन महीने रहकर आचार्य वीर्यसेन से त्रिपिटक का ज्ञान प्राप्त किया था। उसने वाराणसी के तीस ऐसे विहारों का उल्लेख किया है जो सर्वास्तिवाद सिद्धान्त के प्रधान अध्ययन केन्द्र थे।

ओदन्तपुरीः

ओदन्तपुरी का विहार कभी बहुत अभ्युदयशील रहा। अभयंकर के समय में इस विहार में 1,000 भिक्षु रहते थे। प्रभाकर नामक आचार्य का इस विहार से गहरा सम्बन्ध रहा है। पाल वंश के राजाओं ने इस संस्था के संबर्धन के लिए भरपूर सहायता दी और वैदिक एवं बौद्ध विचार- धारा के असंख्य ग्रन्थों का दान करके इसे समृद्धशाली बनाया।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भारत के शिक्षा केन्द्रो के प्रति महामनीषियों की सदैव श्रद्धा रही है। कविवर गुरू रवीन्द्रनाथ ने प्रसिद्ध जगदीश चन्द्र बसु को जो पत्र लिखा था, उसमें उसी प्राचीन परम्परागत प्रकृति-प्रेम की झलक है, जो वैदिक कुलपतियों के हृदय में सदैव विराजमान रहा। इस पत्र में उन्होंने लिखा है – ‘‘पश्चिमी देशों के छात्र यहाँ पढ़ने आयेगें। उनके लिए विशाल भवन बनाने की आवश्यकता नहीं। जो तुम्हारी झोपड़ी में प्राचीन प्रथा के अनुसार धरती पर बैठकर पढ़ना चाहेंगे, उनको ही आने दिया जायेगा। तुम यहाँ पर विशाल बरगद के वृक्ष की घनी छाया में अपने उपकरणों को रखकर बैठोगे तो प्राचीन ऋषि- मुनि भी अप्रत्यक्ष रूप से तुम्हारी सराहना करेंगे। भारत के विस्तृत मैदान तथा आकाश तुम्हारा हार्दिक स्वागत करने को उत्सुक हैं।’

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