उत्तर-पश्चिम भारत के प्राचीन नगर: मस्सागा, पुष्कलावती और तक्षशिला (The Ancient town of North West India,Massaga,Pushkalavati And Takshashila)

प्राचीन अर्थशास्त्रियों ने राजा को निर्देश दिया है कि वह धर्म के उदय अथवा उपार्जन (समुदयस्थान) के लिए बड़े-बड़े नगरों (स्थानीय-निवेश) का निर्माण करवाए। नगर का निर्माण उपयुक्त स्थानों, जैसे नदी के संगम (नदी संगमे), सर व तड़ाग के तटों पर वास्तुविद्याविशारदों द्वारा सम्पन्न कराया जाता था। नगर का निर्माण भूमि के अनुसार वृत्ताकार, दीर्घ (लम्बा) अथवा चतुरथ (चैकोर) रूप में किया जाता था। नगर के लिए पानी की व्यवस्था हेतु चारों ओर छोटी-छोटी नहरों का निर्माण भी आवश्यक था। नगर में बिक्री की वस्तुओं के संग्रह और विक्रय का प्रबन्ध तथा नगर में आने-जाने के लिए स्थल तथा वारि-पथ (जलमार्ग) दोनों प्रकार की सुविधा का प्रबन्ध आवश्यक था।

                जनपदों को बसाने के लिए कौटिल्य ने राजा को स्पष्ट निर्देश दिया है कि वह दूसरे देशों से जनों को लाकर अथवा अपनी आबादी को बढ़ाकर पुराने या नए जनपद बसाए। भारतीय अर्थशास्त्रियों के निर्देश के परिणामस्वरूप प्राचीन काल में भारत में नगरों के निर्माण की दिशा में राजाओं ने बहुत ध्यान दिया। यही कारण है कि सिकन्दर के समकालीन इतिहासकारों ने तत्कालीन भारत को अनेक बड़े और विशाल नगरों से परिपूर्ण बताया है। स्ट्रैबों लिखता है कि ‘हमें पहले के लेखकों से पता चलता है कि मेसीडोनियनों ने हिडासपिस (झेलम) और हिपनिस (व्यास) के बीच स्थित नौ राज्यों को जीता था, जिनमें 5,000 नगर थे। ग्लासाय के साम्राज्य में एरियन के अनुसार 37 नगर थे, जिनकी आबादी 5,000 से 10,000 थी। अकेले पोरस के राज्य में 2,000 नगर थे। मेगस्थनीज के अनुसार आन्ध्र पदेश में 30 नगर थे। पाड्य आदि दक्षिण के राज्यों में तीन-तीन सौ नगर थे। इस आलेख में उत्तर-पश्चिम भारत के मस्साका, तक्षशिला और पुष्कलावती पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।

मस्साका या मस्सागा

                उत्तर-पश्चिमी सीमान्त का नगर मस्सागा सम्भवतः मलकन्द दर्रे के उत्तर की ओर स्थित था। एरियन लिखता है कि अस्साकिनोई के प्रदेशों में एक महान् नगर था जिसे मस्सागा या मस्साका कहते हैं। यह उस राजशक्ति का केन्द्रस्थान है, जो सम्पूर्ण साम्राज्य का शासन करता है। कर्टियस के अनुसार मस्साका नगर प्रकृति और शिल्प से दृढ़ता के साथ परिवेष्ठित था। कर्टियस के विवरण से ज्ञात होता है कि मस्साका नगर दुर्ग के रूप में बना हुआ था। यह नगर पूरब में एक पहाड़ी नदी से घिरा हुआ था और उसके दोनों ओर चट्टानों के ऐसे ढ़ाल थे कि नगर तक पहुँचना बहुत कठिन था। दक्षिण और पश्चिम में प्रकृति ने ऊँची-ऊँची पहाड़ियों को खड़़ा कर दिया था जिससे नगर पूर्णतया सुरक्षित था। इस प्राकृतिक परिवेष्ठन के साथ नगर की रक्षा के निए एक विशाल खाई खुदी हुई थी तथा वह 35 स्टेडिया की परिधि की एक दीवार से घिरा था। इस दीवार की नींव पत्थर की थी और ऊपर का भाग ऐसी ईंटों का बना था, जो धूप में सुखाकर तैयार की गई थी। इस नगर-दुर्ग की रक्षा में उसके राजा अस्सकेनोस ने 38 हजार सेना लेकर सिकन्दर का प्रतिरोध किया था।

पुष्कलावती

                इस नगर का एक नाम पुष्करावती भी था। इस नगर की पहचान सुवास्तु एवं कुंभा के संगम पर स्थित आधुनिक चारसद्दा (चारषद्दा) से की जाती है। रामायण में इस नगर की स्थापना का श्रेय भरत को दिया गया है। उन्होंने इसका नाम अपने पुत्र पुष्क के नाम पर रखा था। पश्चिमी गान्धार के इस प्रसिद्ध नगर का उल्लेख पालिग्रन्थों में भी यदा-कदा मिलता है। गाथाओं के अनुसार बोधिसत्त्व ने अपने एक पूर्वजन्म में यहाँ पर एक भूखी व्याघ्री को अपना शरीर अर्पित किया था। पेरीप्लस के अनुसार यह नगर प्रसिद्ध व्यापारिक मार्गों पर स्थित था। टाल्मी तथा एरियन ने इसे विशाल राजधानी तथा घनी आबादी वाला नगर बताया हैं उ़त्तर-पश्चिम भारत वर्ष में स्थित होने के कारण इस नगर पर भी आक्रमण होते रहे हैं। सिकन्दर के आक्रमण के समय यह नगर गान्धार प्रान्त की राजधानी थी। सिकन्दर के आक्रमण ने इस नगर को बड़ी क्षति पहुँचाई। शकों एवं कुषाणों के आक्रमणों के कारण इस नगर की प्राचीन समृद्धि विलुप्त हो गई।

                कालान्तर में अपनी महत्त्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति के कारण इस नगर का पुनरोदय हुआ। वाणिज्य का केन्द्र होने के कारण इसके नष्ट वैभव का उद्धार होना स्वाभाविक था। श्वांनच्वांग के यात्रा-विवरण से पता चलता है कि उसके आगमन के समय यह नगर अत्यन्त समृद्ध था। उसके अनुसार इसकी परिधि लगभग तीन मील थी। इस जनाकीर्ण केन्द्र के निवास धन-धान्य से परिपूर्ण थे। नगर के पश्चिम द्वार पर एक देवमन्दिर था, जिसमें स्फटिकनिर्मित मूर्ति प्रतिष्ठित थी। इसके उपकण्ठ पर अशोक द्वारा निर्मित स्तूप अब भी विद्यमान था। इसके दर्शनार्थ अनेक बौद्ध धर्मानुयायी देश के विभिन्न भागों से यहाँ एकत्र होते थे। श्वांनच्वांग से यह भी ज्ञात होता है कि इस नगर के समीप और भी स्तूप तथा विहार विद्यमान थे। 

तक्षशिला

                तक्षशिला उत्तर-पश्चिम भारत का एक प्रसिद्ध नगर था। यह प्रारम्भ में पूर्वी गान्धार की राजधानी थी। रामायण में इस नगर की स्थापना का श्रेय भरत के पुत्र तक्ष को दिया गया है। महाभारत के अनुसार परीक्षित के ज्येष्ठ पुत्र जनमेजय का नागयज्ञ यहीं पर हुआ था। कुछ इतिहासकार तक्षशिला का सम्बन्ध शक्तिशाली तक्क जाति से जोड़ते हैं जो सिन्धु और चिनाब नदियों के बीच निवास करती थी। फाह्यान ने अपने यात्रा-विवरण में इसे ‘चु-शि-शु-लो’ कहा है जिसका अर्थ चीनी भाषा में ‘कटा सिर’ होता है। जातक कथाओं के अनुसार गौतम बुद्ध का जन्म एक बार दलिद्दी नामक ग्राम के एक ब्राह्मण-कुल में हुआ था। उन्होंने एक याचक को अपना सिर काटकर भिक्षा के रूप में समर्पित किया था। इस घटना के कारण इस नगर का यह नाम पड़ा।

                बौद्ध ग्रन्थों में इस नगर का विशेष वर्णन मिलता है। एक जातक के अनुसार वाराणसी का कोई शासक आक्रमण के उददेश्य से प्रेरित होकर अपनी शक्तिशाली सेना के साथ तक्षशिला पहुँचा था, किन्तु इस नगर के प्रधान द्वार के ऊपर निर्मित शिखर के सौन्दर्य से वह इतना प्रभावित हुआ कि उसने आक्रमण का विचार ही त्याग दिया। इस नगर के भीतर भव्य भवन सुशोभित थे।

                बौद्ध ग्रन्थों से पता चलता है कि इस नगर की बौद्धिक क्षेत्र में विशेष प्रसिद्धि थी। देश के सुदूर भागों के विद्यार्थी यहाँ अध्ययन के निमित्त बहुसंख्या में एकत्र होते थे। यहाँ तक कि राजकुलों से सम्बन्धित व्यक्ति भी इस विद्या-केन्द्र में अध्ययन करने के लिए आया करते थे। काशी के राजकुमारों की शिक्षा प्रायः यहीं सम्पादित होती थी। जातकों के अनुसार कोशल के राजकुमार प्रसेनजित तथा बिम्बिसार के अवैध पुत्र जीवक की शिक्षा तक्षशिला में ही सम्पन्न हुई थी। पाणिनि और कौटिल्य भी इसी विश्वविद्यालय के छात्र थे। राजगुह, मिथिला तथा उज्जैनी के नागरिक भी ज्ञानार्जन के लिए यहाँ आते थे। तक्षशिला में केवल उच्च शिक्षा प्रदान की जाती थी। यहाँ वही विद्यार्थी अध्ययन के लिए आते थे जो किसी एक क्षेत्र में विशेष-योग्यता प्राप्त करना चाहते थे। जीवक ने चिकित्साशास्त्र की शिक्षा के लिए यहाँ सात वर्षों तक अध्ययन किया था। काशी के दो नवयुक इस नगर में धनर्विद्या सीखने आए थे। वेद, व्याकरण, दर्शन, नक्षत्र-विद्या , ज्योतिष, कृषि, इन्द्रजाल, संगीत, नृत्य,  एवं चित्रकला में विद्यार्थी यहाँ पारंगत बनाए जाते थे। विषय के संकलन में कोई जाति-प्रतिबन्ध नहीं था। क्षत्रिय ब्राह्मणों के साथ वेदों का अध्ययन कर सकते थे। ब्राह्मण धनुर्विद्या का अध्ययन कर सकता था। वाराणसी के एक राजपुरोहित ने अपने पुत्र को धनुर्विद्या के अध्ययन के लिए तक्षशिला भेजा था।

                तक्षशिला नगर में आधुनिक विद्यालयों की भाँति संगठित शिक्षण-संस्थाएं नहीं थीं। यहाँ विद्वान् पण्डित रहते थे जिनका घर ही विद्यालय होता था। एक ही पण्डित के घर पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या 20 तक होती थी। योग्यता की स्वीकृति के लिए विद्यार्थी को परीक्षा नहीं देनी पड़ती थी। प्रतिदिन के अध्यापन-कार्य में शिक्षक विद्यार्थी के ज्ञान का अनुमान लगा लेता था। विद्यार्थियों को प्रायः निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। आचार्य के घर में विद्यार्थी के भोजन एवं विश्राम की व्यवस्था हो जाती थी। बदले में वह आचार्य के घर का कार्य एवं उसकी परिचर्या करता था। केवल धनी विद्यार्थियों के द्वारा ही दक्षिणा देने का उल्लेख कहीं-कहीं मिलता है। जैसे काशी के एक राजकुमार ने तक्षशिला में अपने आचार्य को एक हजार मुद्राओं की थैली भेट की थी। कभी-कभी राजकुमार यहाँ पर अलग घर लेकर भी  रहते थे। विद्यार्थी अत्यन्त अनुशासित एवं संयमी होते थे। अध्यापक का अपने विद्यार्थी के ऊपर पूर्ण नियन्त्रण रहता था। जातकों से पता चलता है कि राजवर्ग के लोग भी प्रायः शारीरिक दण्ड के भागी बनते थे।

                पालि साहित्य से पता चलता है कि पाँचवीं शताब्दी के प्रारम्भिक भाग में यह नगर हखामनी सम्राट दारा प्रथम के समय में पारसीक साम्राज्य में सम्मिलित हुआ। पर्सीपोलस और नक्शेरूस्तम लेख से ज्ञात होता है कि तक्षशिला के आसपास का भूभाग बहुत ही सम्पन्न और जनाकीर्ण था जिससे पारसीक सम्राट को बहुत आय होती थी। इस आधिपत्य का ऐतिहासिक प्रभाव यह पड़ा कि उत्तर-पश्चिम भारत में स्वदेशी ब्राह्मी लिपि के स्थान पर खरोष्ठी लिपि का विकास हुआ।

                चैथी शताब्दी ईसा पूर्व में सिकन्दर ने इस नगर पर आक्रमण किया। इस समय यहाँ आम्भि शासन कर रहा था। उसका राज्य सिन्ध और झेलम नदियों के बीच में फैला हुआ था। यूनानी लेखकों ने इस नगर की गणना महान् और समृद्ध नगरों में की है। अरिस्टोबुलस के अनुसार ‘मेसोडोनियन लोग बसन्त के प्रारम्भ में इस महान् नगर में पहुँचे थे। तक्षशिला में ही उन्होंने पहले-पहल भारतीय बरसात की बौछारें देखी थी। स्ट्रैबो ने लिखा है कि तक्षशिला सिन्धु और हिडासपिस के बीच स्थित था। यह एक बड़ा नगर था और इसका शासन-विधान उत्तम था। इसके आसपास का प्रदेश विस्तृत और उर्वर था। यहाँ की आबादी बहुत घनी थी। प्लिनी ने भी इसके महान् उत्कर्ष का उल्लेख किया है। एरियन के अनुसार तक्षशिला एक विशाल और जनाकीर्ण नगर था। सिन्धु तथा हिडापिसपिस के बीच के नगरों में यह सबसे अधिक आबादी वाला नगर था। अपोलोनियस ने लिखा है कि तक्षशिला यूनानी नगरों की तरह दीवार से घिरा नगर था, जो विस्तार में निनेवह के बराबर था। यूनानी लेखकों द्वारा उल्लिखित तक्षशिला सम्भवतः कालकसराय से एक मील उत्तर-पूर्व साहूधरी के निकट था। जातकों से ज्ञात होता है कि तक्कसिला गान्धार राष्ट्र की राजधानी व मुख्य नगरी थी जो विद्या का महान् केन्द्र थी। यहाँ दूर-दूर से विद्यार्थी विद्या व शिल्प सीखने आते थे।

                यूनानी लेखकों के अनुसार यहाँ बहुविवाह एवं सती प्रथा प्रचलित थी। अरिस्टोबुलस ने तक्षशिला के कुछ रीति-रिवाजों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि यहाँ के गरीब लोग अपनी विवाह-योग्य कन्याओं को बाजार में ले जाकर प्रदर्शित करते हैं और स्वीकृत शर्तों पर जो युवक लड़की से विवाह करना चाहता है, उससे शादी कर देते हैं। यहाँ के लोग कई विवाह कर सकते हैं। मृतकों को गिद्धों को खाने के लिए फेंक दिया जाता है। यहाँ की कुछ जातियों में स्त्रियाँ मृत-पति के साथ चिता में बैठकर अपने को जला देती हैं ।

                मौर्य शासन काल में यह नगर उनके उत्तर-पश्चिम प्रान्त का प्रधान-केन्द्र था। बिन्दुसार के काल में अशोक तक्षशिला का राज्यपाल था। इस स्थान से प्राप्त एक लेख में अशोक का नाम प्रियदर्शी मिलता है। दिव्यावदान से ज्ञात होता है कि बिन्दुसार के काल में इस सीमान्त प्रदेश के कर्मचारियों के विरुद्ध जनता ने विद्रोह कर दिया था जिसका दमन करने के लिए अशोक को भेजा गया था। उसके आगमन का सन्देश पाते ही तक्षशिला-नागरिक श्रद्धा के कारण भारावनत हो उठे थे। उन्होंने कुमार से शोषण करने वाले कर्मचारियों की घोर निन्दा की थी। अशोक के शासन काल में कुणाल तक्षशिला का राज्यपाल बनाया गया। इस नरेश के राज्यकाल में भी इस नगर के नागरिकों ने एक बार विद्रोह किया था। इस विद्रोह को दबाने के लिए कुणाल को भेजा गया। यहाँ के नागरिक कुणाल से प्रभावित थे। उन्होंने आत्म-समर्पण करते हुए मौर्य कर्मचारियों के क्रूर-शासन की ओर उसका ध्यान आर्षित किया था।

                मौर्यों के उपरान्त यह नगर हिन्द-यवन राजाओं के साम्राज्य में सम्मिलित हुआ। बेसनगर के गरुड़-स्तम्भ-लेख से पता चलता है कि तक्षशिला के यूनानी शासक अण्टियालकीडस के दरबार से भागवत मतावलम्बी हेलियोडोरस नामक राजदूत शुंग नरेश भागभद्र (भद्रक) के दरबार में आया था। यवनों के शासन काल में इस नगर का पुनिर्माण एक निश्चित योजना के अनुसार किया गया। हिन्द-यवनों के काल में तक्षशिला की कला विशेषरूप से प्रभावित हुई। मुद्रा-निर्माण की शैली में परिवर्तन आया। अब पंचमार्क आहत सिक्कों के स्थान पर यूनानी ढ़ंग से सिक्के ढ़ाले गए। इनकी तौल एथेंस की मुद्राओं के तौल के आधार पर निर्धारित की गई। सिक्कों ऊपर यूनानी भाषा में राजाओं के विरुद उत्कीर्ण किए गए। राजाअें के चित्र एवं मुद्राओं के प्रकार यूनानी आदर्श पर आधारित थे। तक्षशिला से प्राप्त मृण्मूर्तियों एवं बर्तनों पर भी यूनानी प्रभाव परिलक्षित होता है। इतिहासकारों का अनुमान है कि इस नगर में शिल्पविद्या के विद्यार्थियों को यूनानी आधार पर मुद्राओं एवं प्रतिमाओं का निर्माण करना सिखायाा जाता था। हिन्द-यवन शासन ने भाषा एवं साहित्य को भी प्रभावित किया जिससे तक्षशिला की शिक्षा-पद्धति का प्रभावित हो़ना स्वाभाविक था। अपोलोनियस के अनुसार पहली शताब्दी ईस्वी में इस नगर के भारतीय एवं यूनानी एक-दूसरे के दर्शन को जानते थे। इसके आसपास के ग्राम-निवासी यूनानी भाषा लिख और पढ़ सकते थे। इससे लगता है कि यूनानियों के शासन काल में यूनानी अनुशीलन तक्षशिला के पाठ्यक्रम में सम्मिलित था।

                हिन्द-यवनों के बाद यह नगर शकों और पह्लवों के अधीन रहा। जिस समय पह्लव सम्राट फ्राओट्स इस नगर में राज्य कर रहा था, उस समय उसके दरबार में 44 ईसा पूर्व के आसपास तियाना का अपोलोनियस यहाँ आया था। उसने लिखा है कि यह नगर निनवेह के समान विशाल आकार का है। यूनानी नगरों की भाँति इसकी किलेबन्दी की गई थी और सड़कों की बनावट एथेंस के सड़कों जैसी थी। नगर के भीतर एक प्रसिद्ध सूर्यमन्दिर था। यहाँ के राजकीय प्रासाद से बहुत सादगी टपकती थी। इस दृष्टि से यह बेबीलोनिया के राजप्रासादों से कुछ भिन्न था।

                प्रथम शताब्दी ईस्वी के उत्तरार्द्ध में यह नगर कुषाणों के द्वारा छीन लिया गया। एक कुषाणकालीन लेख ‘तक्सिला सिल्वर स्क्राल इंस्क्रिप्शन’ में यहाँ के धर्मराजिका स्तूप का उल्लेख मिलता है। इस लेख के अनुसार उरशादेशीय इन्तप्रिय के पुत्र के द्वारा, जो वाह्लीक एवं नवाचल नगर का रहने वाला था, धर्मराजिका स्तूप के निकट वर्तमान अपने बोधिसत्व-गृह में भगवान् गौतम बुद्ध का देहावशेष पुण्यार्जन के निमित्त प्रतिष्ठापित किया गया। चैथी शताब्दी ईस्वी के अन्तिम चरण में फाह्यान तक्षशिला आया था जिसने यहाँ के कई स्तूपों का उल्लेख किया है। पाँचवीं शताब्दी में इस नगर पर हूणों ने आक्रमण किया जिससे नगर के मठों और विहारों को काफी क्षति पहुँची। श्वानच्वांग के यात्रा के समय इस नगर की आभा क्षीण हो चुकी थी। नगर में बौद्ध-भिक्षुओं की संख्या सबसे अधिक थी जो महायान धर्म के अनुयायी थे। इसके अधिकांश मठ ध्वस्त हो चुके थे। यहाँ का स्थानीय शासक कश्मीर-नरेश के अधीनस्थ था। श्वानच्वांग के अनुसार नगर के उत्तर-पश्चिम दिशा में ‘एलापत्र का सरोवर’ था जिसके निर्मल जल में विभिन्न रंग के कमल खिले हुए थे। इसके दक्षिण-पूर्व के पास ही अशोक का एक स्तूप था जिसकी ऊँचाई 100 फीट थी। नगर के उत्तर में अशोक द्वारा बनवाया गया एक दूसरा स्तूप था। जनश्रुति के अनुसार इसकी आराधना से एक स्त्री चर्मरोग से मुक्त हो गई थी। इसके पास ही एक प्राचीन विहार था जिसमें कुमारलब्ध नामक सौत्रान्तिक बौद्ध आचार्य ने अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया था। नगर के दक्षिण-पूरब में अशोक निर्मित एक और स्तूप था। स्थानीय परम्परा के अनुसार कुणाल की सौतेली माँ ने इसी स्थान पर उसकी आँखें निकलवाई थी। चीनी यात्री ने नगर के आसपास कुछ अन्य स्तूपों एवं विहारों का उल्लेख किया है। उसके अनुसार यहाँ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी भी बड़ी संख्या में निवास करते थे जिनके सिद्धान्त अधिकांशतः बौद्ध धर्म से लिए गए थे। इन लोगों की देव प्रतिमाएं गौतम बुद्ध की प्रतिमाओं की भाँति हुआ करती थीं और  इनकी धार्मिक क्रियाएं बौद्ध परिपाटी के समान थीं। ये लोग अपने सिर का बाल छोटा रखते थे और प्रायः नंगे रहते थे। उनमें से कुछ कभी-कभी श्वेत वस्त्र पहन लिया करते थे। इसी भिन्नता के कारण वे बौद्धों से अलग हो गए थे।

                तक्षशिला के अवशेष आधुनिक रावलपिण्डी के उत्तर-पश्चिम में लगभग 20 मील की दूरी पर स्थित हैं।  इसकी रक्षा के प्राकृतिक साधन, भूमि की उर्वरता तथा प्राचीन व्यापारिक मार्गों के साथ इसका सम्बन्ध इसके आर्थिक विकास में सहायक सिद्ध हुए होंगे। तक्षशिला के भग्नावशेष एक-दूसरे से लगभग साढ़े तीन मील की दूरी पर तीन स्थानों से उपलब्ध हुए है-भिर माउण्ड, सरकप और सिरमुख। भिर माउण्ड उत्तर से दक्षिण तक 1210 गज और पूरब से पश्चिम तक 730 गज गज लम्बा है। स्थानीय परम्परा के अनुसार तक्षशिला सबसे पहले भिर माउण्ड पर ही बसा हुआ था। उत्खनन से इसका समर्थन भी होता है। जमीन की सतह से भिर माउण्ड की ऊँचाई लगभग 70 फीट है। इस स्थान पर बसा नगर वैज्ञानिक ढ़ंग से बसाया गया था।

                द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व के प्रारम्भिक भाग में पंजाब की विजय के उपरान्त हिन्द-यवन राजाओं ने सरकप तक्षशिला के नए नगर का निर्माण किया। पंजाब की एक स्थानीय परम्परा के अनुसार सरकप का यह नाम तन्नामधारी एक राक्षस के नाम पर पड़ा था। हिन्द-यवन राजाओं के काल में इस नगर के चारों ओर मिट्टी की दीवार थी। ऐसेज प्रथम के काल में इसमें पत्थर चुन कर लगाए गए। स्थान-स्थान पर बुर्ज बनाए गए जिसमें नगर-रक्षक सैनिक रहते थे। दीवार में प्रत्येक दिशा में एक बड़ा द्वार बना हुआ था। सरकप के प्राचीन अवशेषों में सबसे महत्त्वपूर्ण वहाँ का राजमहल है, जो नगर के मध्य में था और बहुत बड़ा था। इसकी दीवारों और खम्भों में पत्थर लगाए गए थे। राजमहल की सादगी इसकी प्रमुख विशेषता थी। बनावट की दृष्टि से यह असीरिया के महलों के समान था। इसका निर्माण पह्लवों के काल में हुआ था। नागरिकों के घर भी सादे बने हुए थे। मार्शल के अनुसार भिर माउण्ड के घरों से ये अधिक अच्छे थे।

                अन्त में यह नगर सिरमुख में बसाया गया। इसका निर्माण कुषाणों के काल में पहली शताब्दी में किया गया। इसके चारों ओर पत्थर की दीवार बनी हुई थी जिसकी चैड़ाई साढ़े 18 फीट थी। सरकप और सिरमुख के दुर्गों में कई दृष्टियों से अन्तर था। सिरमुख के दुर्ग में चिकने पत्थर की चिनाई की गई थी जबकि सरकप के दुर्ग के पत्थर अपेक्षाकृत खुरदुरे थे। सिरमुख की दीवार में छेद बने हुए थे ताकि दुर्ग के भीतर के सैनिक छिद्रों से बाहर की शत्रु-सेना पर बाण से प्रहार कर सकें। सरकप के बुर्ज आयताकार तथा अन्दर से ठोस बने हुए थे। किन्तु सिरमुख के बुर्ज अर्द्धवृत्ताकार थे और भीतरी भाग भी ठोस नहीं था। सिरमुख का नगर आयताकार बना हुआ था। रक्षा के प्राकृतिक साधनों के अतिरिक्त कृत्रिम साधनों से भी वह अधिक सम्पन्न था।

                तक्षशिला के प्राचीन स्मारकों में धर्मराजिका स्तूप विशेष उल्लेखनीय है। दिव्यावदान में अशोक की उपाधि ‘धर्मराज’ मिलती है। इस आधार पर फोगेल का अनुमान है कि इसका निर्माण अशोक के काल में हुआ था। दिव्यावदान में स्पष्ट कहा गया है कि अशोक धर्मराजिका का निर्माणकत्र्ता था। स्तूप वृत्ताकार एवं चबूतरे पर निर्मित है जिसके चारों ओर चबूतरे पर ही प्रदक्षिणापथ का निर्माण किया गया है। इस स्तूप के निर्माण में पत्थरों का भी प्रयोग किया गया है। तक्षशिला के अन्य स्मारकों में कुणाल का स्तूप है जिसका उल्लेख श्वानच्वांग ने अपने यात्रा-विवरण में किया है। मार्शल ने इसकी पहचान इस स्थान पर वर्तमान एक स्तूप से की है जिसका आधार आयताकार है। आधार के ऊपर क्रमशः तीन चबूतरे बने हैं। प्रस्तर-खण्डों के उपयोग द्वारा आधार को ठोस बनाने का प्रयास किया गया है।

                तक्षशिला नगर गान्धार कला का भी प्रतिष्ठित केन्द्र था। उत्तर-पश्चिम भारत में स्थित होने के कारण आरम्भिक काल से ही यह नगर विदेशी सम्पर्क में बना रहा। इस नगर में यूनानी, पारसी, शक, पह्लव, कुषाण बसे हुए थे। यही कारण है कि यहाँ की कला के ऊपर पाश्चात्य प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। गान्धार कला का विषय यद्यपि पूर्णरूप से भारतीय है, किन्तु इसकी शैली निर्विवाद रूप से यूनानी है। यह कला प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व से पाँचवीं शताब्दी तक विशेष रूप से प्रचलित थी। इस शैली में निर्मित मूर्तियाँ अधिकांशतः गौतम बुद्ध की हैं। तक्षणकारों ने इनके निर्माण में सौन्दर्य को प्रधानता दी है। इनके निर्माण में स्वातघाटी के भूरेदार प्रस्तर-खण्डों का प्रयोग किया गया है। गौतम की कुछ मूर्तियाँ बनावट की दृष्टि से यूनान की अपोलो की मूर्तियों से साम्य रखती हैं।

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