प्राचीन भारतीय साहित्य में सौन्दर्य बोध :Aesthetic Sence In Ancient Indian Literature (केश प्रसाधन के सन्दर्भ में)(With Refrence TO Hairstyle)

संस्कृति स्थूल एवं सूक्ष्म, मन एवं कर्म, भौतिक एवं आध्यात्मिक जीवन का परिष्कृत रूप है। यह मानव जीवन की पूर्णता के लिए ज्ञान-विज्ञान, धर्म-दर्शन, कला, साहित्य एवं पारंपरिक मूल्य आदि इहलौकिक एवं मोक्ष नामक पारलौकिक सुखानुभूति का मूलाधार है। यह व्यक्त्गित एवं सामाजिक जीवन की मति, रूचि एवं प्रवत्ति पुंज है। संस्कृति- सभ्यता के भिन्न सत्यम्, शिवम् एवं सुन्दरम् का प्रतीक है। यह जीवन के आभ्यंतरिक तत्त्वों का परिष्कृत एवं परिमार्जित रूप है। इसीलिए संस्कृति मानव जीवन का आंतरिक सौन्दर्य है। आन्तरिक सौन्दर्य से ही बाह्य सौन्दर्य की अभिव्यक्ति संभव है। सूर्य, चन्द्र, पर्वत, नदी, झरने, वृक्ष एवं वनस्पतियां आदि सभी प्राकृतिक तत्त्व सौन्दर्यमयी हैं। अतः कालान्तर में कला को भी व्यक्ति एवं समाज के बाह्य एवं आभ्यन्तर मनोभावों की अभिव्यक्ति का एक साधन मान लिया गया है। कलात्मक रूपों का ही नाम संस्कृति है। कला के द्वारा जो रूप उत्पन्न होते हैं उससे संस्कृति का क्षेत्र भरता है और संस्कृति की काया पुष्ट होती है। कला वर्तमान और भावी जीवन की आवश्यकता है। जीवन कला के बिना अपूर्ण है। लेकिन कला विलास परक नहीं होनी चाहिए। कला श्री और सौन्दर्य को प्रत्यक्ष करने का साधन है। जिसमें रस नहीं वह रसहीन होती है। जहाँ रस नहीं वहाँ प्राण नहीं रहता है। जिस जगह रस, प्राण और श्री तीनों एकत्र रहते हैं वहीं कला रहती है।

अलंकरण विधानः

                भारतीय कला में सौन्दर्य- विधान के लिए अनेक अलंकरणों का प्रयोग हुआ है। देवों के मूर्तरूप कला के शरीर हैं, तो भाँति- भाँति के अभिप्राय-अलंकरण उस शरीर के बाह्य मंडन हैं। इसके बिना कला संभ्रान्त नहीं होती। पत्र और पूष्पों से कला का शरीर श्री सम्पन्न बनाना आवश्यक है। लताओं और वृक्ष – वनस्पतियों ने कला के स्वरूप को अनेक प्रकार से सँवारने में सहायता दी है।

                समाजिक जीवन में शरीर को रमणीय बनाने की प्रक्रिया सदा से विशेष महत्वपूर्ण रही है। इस उद्देश्य से शरीर की बाह्यतः स्वच्छता करना, लेप लगाना, केश सँवारना, अलंकार धारण करना आदि सुसंस्कृत नागरिक के कार्य रहे हैं। प्रचीन काल से भारत इसमें अग्रणी रहा है।

                                          नकुण्डली नामुकुटी नास्रग्वी नाल्पभोगवान्।

                                          नमृष्टो न लिप्तांगो नासुगन्धश्च विद्यते।।

                                            नमृष्टाभोजी नादाता नाप्यनंगदनिष्कधृक्।

                                            नाहस्ताभरणो वापि दृश्यते नाप्यनात्मवान।।

                स्त्री और पुरूष दोनों ही प्रसाधन करते थे। स्त्रियों में नख से लेकर सिर तक प्रसाधन का प्रचलन था। पुरूषों में भी प्रसाधन-प्रियता पायी जाती है। सौन्दर्य- प्रसाधन दन्तधावन से आरम्भ होती है। पुरूष के लिए दाढ़ी-मूंछ और केश पूर्ण रूप से मुण्डन करने या कटवाने या स्वतंत्र रूप से बढ़ने की छूट रही है। स्त्रियाँ भी सिर के बाल कटा सकती थी। पुरूष भी फैशन के अनुरूप काट-छाँट कर सकता था। बृहत्संहिता से ज्ञात होता है कि दाढ़ी अनेक रंगों में रँगी जाती थी।

केश- विन्यासः

                स्नान के बाद केश को सुखाकर उसे सुगन्धित किया जाता था। सिन्धु-सभ्यता के समय से ही सौन्दर्य-संवर्धन के लिए केश-प्रसाधन का प्रचलन था। उस समय बाल पीछे की ओर जूड़े या चोटी के रूप में गंूथे जाते थे। बाल बाधने के लिए सूत के धागे का प्रयोग होता था। कंघियों का प्रयोग केश की सफाई और सजावट के लिए होता था। केश के बीच से माँग निकालने का प्रचलन रहा है। तेल के द्वारा केश को सुगन्धित किया जाता था। वैदिक काल में लोगों को केश प्रसाधन में अभिरूचि थी। उस समय साही के काँटे से सीमन्त बनाने का उल्लेख मिलता है। वैदिक साहित्य में कंघी के लिए कंकत शब्द का प्रयोग मिलता है। स्त्री और पुरूष दोनों केश को गंूथ कर ओपश(चोटी) बना लेते थे। कुछ लोग बनावटी चोटी लगाते थे। चैड़ी चोटियों को पृथुष्टुका और शिथिल चोटियों को विपितष्टुका कहा जाता था। सिर पर जूड़ा बनाने की रीति थी। पुरूष और स्त्री सिर के विभिन्न भागों में कपर्द बनाते थे। केश-विन्याश की विविधता रही है।

केश-विन्यास की विविधताः

                भारत एक विशाल देश है। अतः केश-विन्यास की विविधता भी स्वाभाविक है। नाट्यशास्त्र में कहा गया है कि ‘‘अवन्ति की स्त्रियों के केश में अलक और कुन्तल की विशेषता होती है। गौड़ देश की स्त्रियाँ अलक, शिखा, पाश टौर वेणियाँ बनाती हैं। आभीर देश की स्त्रियाँ दो वेणियाँ बनाती हैं। इनके केश- शिखण्डक क्रमशः ऊँचे रहते हैं। प्रोषितपतिका स्त्रियाँ केवल एक वेणी बनाती हैं।’’

                केशों के लिए जैन साहित्य में अलक, कबरी, केश, कुन्तल आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है। सुगन्धित जल से स्नान के बाद केश को धूप में सुखाया जाता था, फिर तेल आदि द्वारा केशों को संवार कर बाँधा जाता था। केश-प्रसाधन में पल्लव, विभिन्न प्रकार के पुष्प, पुष्पपराग, पुष्प-माला, मंजरी एवं सिन्दूर आदि का प्रयोग किया जाता था। महाकवि कालिदास ने अपने रघुवंश महाकाव्य में धूप से सुगन्धित केश को ‘धूपवास’ और धूपित केश को ‘आश्यान’ वर्णित किया है। मेघदूत में केश को सुगन्धित करने की विधि को ‘केश-संस्कार’ कहा गया है। जैन महापुराण में वर्णित है कि सफेद बाल वाले लोग बालों में हरिद्रार (खिजाब) लगाते थे। इससे ज्ञात होता है कि सफेद बाल को खिजाब द्वारा काला करने की परम्परा पहले से चली आ रही है।

वैदिक काल मे केश प्रशाधनः

                वैदिक काल में वप्ता नपित केश-कर्तन के द्वारा प्रसाधन करने के लिए नियुक्त होता था। राजकुलों के लिए नाई नियुक्त होते थे, जो राजाओं, रानियों, राजकुमारों तथा राजकुमारियों के बाल काटते थे और केश सुधारते थे। यदि कहीं केशों में से कुछ सफेद हो जाते थे तो उनको काला किया जाता था अथवा उखड़वा दिया जाता था। दाढ़ी को काँट-छाँट कर नाई उसे बार-बार सुन्दर बनाते थे। कुछ स्त्रियाँ आगे के बालों को घुँघराले बनवाती थी। उनको ‘प्रागुल्फा’ कहा जाता था।

                ऋक्संहिता में ‘शिखा’ शब्द का व्यवहार हुआ है और ब्राह्मणग्रन्थों में शिखा-सूत्र वाले ऋषियों का वर्णन मिलता है। वैदिक सोलह संस्कारों में उपनयन की तरह चूड़ाकरण भी एक संस्कार है। इससे सिद्ध होता है कि इसका कोई निश्चित और अत्यन्त महत्वपूर्ण उद्देश्य अवश्य था। इससे यह भी सिद्ध होता है कि यह संस्कार अत्यन्त प्राचीन है। दैनिक कत्र्तव्यों में स्नान के बाद अथवा जब शिखा खुली हुई, तो गायत्री मंत्र द्वारा इसमें ग्रन्थि देना आवश्यक कत्र्तव्य है। शिखा खुली रखकर इधर-उधर घूमना मना है बौर यह गर्हित तथा प्रायश्चितीय कर्म समझा जाता है। जिस पंकार प्रासादपुरूष परमपुरूष की कल्पित प्रतिकृति के अनुरूप है, उसी प्रकार मानव-शरीर भी प्रासादपुरूष की तरह परमपुरूष का विहारस्थल या खेलने की वस्तु है और उसकी प्रतिकृति के अनुरूप है। जिस प्रकार प्रासादपुरूष के शिखर पर पताका परमात्मा के अनन्त रूप का निर्देशक है उसी प्रकार शिखा या चूड़ा, मानव शरीर को सब ओर से पूर्णतः आवृत करने वाले परमात्मा के सर्वव्यापी तेज का निर्देशक है। काली और तारा के अनन्त रूप का द्योतक उनकी शिखा भी खुली और फैली हुई दिखायी जाती है। सुषुम्ना के भीतर चित्रिणी के भीतर ब्रह्मनाडी या ब्रह्मसूत्र है। यह मूलाधार से सहस्रार तक है। सहस्रार में जहाँ इसका मुख हे, वही शिखास्थान है। शास्त्रों में शरीर का नाम पुर भी मिलता है। इस शरीर रूपी नगर की स्थिति की साधना के लिए दृढ़ता प्रदान करने में शिखाक्रिया मूलस्तम्भ का काम करती है।

                इस प्रकार ब्रह्मचर्या को परमपुरूषार्थ बनाने वाले परमार्थी भारतीयों के लिए चूड़ा या शिखा हृदय, मस्तक, और आँखों की तरह एक अनिवार्य अंग है। इसके बिना सभी ब्रह्मकर्म दिव्यांग माने जाते हैं। जो यज्ञसूत्र के रूप और कर्म हैं वे ही शिखा के भी हैं। इसलिए संन्यास ग्रहण करते समय सूत्र के साथ शिखा का भी त्याग कर दिया जाता है।   

कालिदास के ग्रन्थों में केश विन्यासः

                महाकवि कालिदास के ग्रन्थों में शिखाधारी मुण्डित सिर और लम्बें बालों वाले लोगों का उल्लेख मिलता है। जब पुरूष लम्बे-लम्बे बाल रखते थे तो वे उनको केश-वेष्टन से बाँधते थे। वे दाढ़ी बनाते, किन्तु शोक के समय वे उसको लम्बी बढने देते थे। दाढ़ी के लिए ‘श्मश्रु’ का प्रयोग मिलता है। बालकों के बाल ग्रथित थे जो काकपक्ष कहलाते थे। क्योंकि वे अगल-बगल लटककर काक के पंख की तरह दिखाई पड़ते थे।

                केश को स्नान के बाद सुखा कर उसे धूप जला कर उसके धूयें से सुगन्धित बनाने की रीति पुरूष और स्त्री दोनों के लिए समान रूप् से प्रचलित थी। यदि किसी के बाल सफेद होने लगते थे तो वह उन्हें जिन द्रव्यों से काला करता था, उनके प्रभाव से बालों में यदि कहीं दुर्गन्ध उत्पन्न होती तो उसे सुगन्धित तेल, गन्ध धूप से सुवासित करना पड़ता था।

                  स्त्रियाँ लम्बे बाल रखती, तेल लगाती और कंघी करतीं और तब उनको सीमन्त से विभाजित करतीं और चोटियों में गूहती थीं। वे चोटियों में और सीमन्त पर पुष्प, मोती तथा रत्न खोंसती थीं पतिवियुक्ता स्त्रियाँ न बालों में तेल लगाती और न कंघी करतीं और न अपनी चोटियों को ही फिर से गूहने के लिए खोलती थीं।

                वैदिक काल में सिर के बालों के गुच्छों को कसने के लिए कुरीर नामक अलंकार पहना जाता था। कुम्भ(कुम्ब) नामक अलंकार सिर पर धारण किया जाता था। गुप्तकाल में सिर के अलंकरों के नाम चूड़ामणि, मुक्तगुण और किरीट मिलता है। स्त्रियाँ ललाट के ऊपर सीमन्त के आरम्भ स्थान पर एक मणि पहनती थीं। इसका नाम चूड़ामणि था और यह सीमन्त-चुम्बी होता था। स्त्रियाँ अपनी वेणियों में स्वर्ण-माला गूँथती थीं। अलकों में मुक्ताजाल लगाने का प्रचलन था।

धातुओं के अतिरिक्त प्रकृति की अन्य मनोरम वस्तुओं से सिर का श्रृंगार किया जाता था। श्रीकृष्ण के सिर पर मोर-पंख की छटा विराजती है। श्रृंगार के अनेक उपकरणों में पुष्प का स्थान मुख्य था और जन-साधारण की सौन्दर्य-रचना में इसका प्रमुखता से प्रयोग किया जाता था। जहाँ धनी लोग स्वर्ण-तन्तु से अपने केश-पाश को बाँधते थे, वहीं ग्वाले वन की लताओं से जटाजूट बाँध लेते थे। सौन्दर्य अभिवृद्धि के लिए स्त्री-पुरूष द्वारा पुष्पों का विभिन्न प्रकार से प्रसाधन के रूप् में प्रयोग करने का उल्लेख जैन साहित्य में मिलता है। विविध प्रकार के पुष्पों एवं पल्लवों से निर्मित आभूषणों का प्रचलन प्राचीन काल में था। दक्षिण भारत में पुष्प-प्रसाधन की प्राचीन कला अपने अभिनव रूप में आज भी स्त्रियों में प्रचलित है।

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