प्राचीन भारत में सिंचाई व्यवस्था एवं जल- प्रबन्धन(Irrigation And Water Managment In Ancient India) (प्रारम्भ से लेकर मौर्य काल तक) (From Early To Mauryan Period)
मनुष्य के व्यक्तिगत और सामाजिक विकास के साथ उसके सामाजिक ढाँचें में भी परिवर्तन होता रहता है। इसी विकास-क्रम में हमें सभ्य समाज की रचना देखने को मिलती है।मानव मस्तिष्क विचारों का केन्द्र है। वह सामाजिक परिस्थितियों के साथ-साथ अपने विचारों में परिवर्तन जाता है। विचारों के माध्यम से ही मानव-चेतना आगे बढ़ती है। वह आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक भावनाओं को साकार तथा क्रियाशील बनाती और सिद्धान्त रूप में परिणत करती है।
सैन्धव सभ्यता में जल-प्रबन्धनः
सैन्धव घाटी की अन्नोत्पादन की प्रक्रिया में सिन्धु एवं उसकी सहायक नदियों का योगदान रहा। ताम्रपाषाणिक प्रथम नगरीय क्रान्ति में नदियों की वही भूमिका थी, जो कि छठी सदी ई0पू0 की द्वितीय नगरीय क्रान्ति में लोहे की। उत्तर में रावी नदी के बायें तट पर हड़प्पा तथा दक्षिण में सिन्धु नदी के दाहिने तट पर स्थित मोहनजोदड़ो नदियों की ही देन थे। सिन्धु-सभ्यता के युग में हड़प्पा और मोहनजोदड़ों के उपवर्ती प्रदेशों में कृषि होती थी। उसके लिये सिन्धु नदी का जल सिंचाई के काम में आता था। लगभग उसी युग में बलूचिस्तान में पत्थर के बने बाँधों के द्वारा नदियों का पानी रोककर सिंचाई करने की व्यवस्था थी। मश्काई घाटी में दो बाँध मिले हैं। इनके द्वारा ऊपर के पर्वत से आता हुआ पानी अभीष्ट दिशा में बहाया जाकर इकट्ठा किया जाता था और समयानुसार उससे सिचाई की जाती थी।
वास्तव में अन्नोत्पादन के लिये सिन्धु घाटी के लोग तीसरी सहस्त्राब्दि में दो प्रकार की प्रक्रिया पर निर्भर दिखाई देते हैं। प्रथम, सिन्धु तथा उसकी सहायक नदियों पर बन्धों का निर्माण, द्वितीय बाढ़ के समय नदी जल के फैलाव को तथा वर्षा के जल को खेतों के चारों ओर ऊँची-ऊँची मेड़ बना कर संचित कर लेना। डी0 डी0 कोसाम्बी ने प्रथम पद्धति को विशेष महत्त्व दिया है और कहा है कि सिन्धु की सहायक नदियों पर बन्धों को निर्मित कर देने से नदी का जल तथा उसके साथ लाई गई उपजाऊ मिट्टी भी दोनों तरफ फैल जाती थी। इस मिट्टी को नुकीले यन्त्र से धुरच कर बीज डाल दिया जाता था। किन्तु इस प्रक्रिया से होने वाली पैदावार उस उपज की अपेक्षा कम होती थी जो कि विकसित तरीके के हल से जोती गयी भूमि तथा नहरों से की गयी सिंचाई से प्राप्त होती है।
यदि आज इन बन्धों के अवशेष नहीं मिलते हैं, तो इसका कारण आर्यो द्वारा इनको विनष्ट करना है। डी0डी0 कोसाम्बी ने इस सम्बन्ध में ऋग्वेद से स्पष्ट तथा असन्दिग्ध उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। उन्होंने ऋग्वेद में प्रयुक्त ‘वृत्र’ तथा ‘रोधस’ शब्दों का उल्लेख किया है, जिनका अर्थ वास्तव में बाँध या अवरोध होता है। इन्द्र ने अपने बज्र से ‘वृत्र’ का बध कर नदियों के जल को मुक्त किया और यह जल सूखी भूमि पर चारों ओर फैल गया। बन्धे के अर्थ में वृत्र शब्द का प्रयोग ऋग्चेद में अन्यत्र भी हुआ है। ‘रोध’ शब्द भी मनुष्यकृत बन्धे के अर्थ में ऋग्वेद में प्रयुक्त मिलता है। जैसे- ‘रिणग्रोधाँसि कृत्रिमाण्येषां’। बन्धों के अतिरिक्त खेतों के चारों ओर मेड़ बना कर वर्षा ऋतु में जल को संचित कर उसमें खरीफ की खेती भी यहाँ के निवासी करते रहे होगें। इस प्रकार की खेती नदियों के किनारे ही सम्भव होती होगी।
वैदिक काल में जलाशयः
वैदिक साहित्य के अनुसार आर्य- कृषकों की सिंचाई प्रधानता कुओं से उसी प्रकार होती थी, जैसे आजकल होती है। तत्कालीन कुओं के नाम ‘अवत’ और ‘उत्स’ मिलते हैं। जल चक्र से निकाला जाता था। उस चक्र से वरत्रा (रस्सी) सम्बद्ध होता था और वरत्रा से कोश लगाारहता था। लकड़ी के कुण्ड से आहाव में जल डाला जाता था। जल को सुर्मी या सुषिरा(नाली) से खेतों तक पहुँचाया जाता था। कुल्या नहरों के समान थीं, जिससे जलाशयों में पानी इकट्ठा किया जाता था।
शं न आपो धन्वन्या शमु सन्त्व नूप्याः।
शं न खनित्रिमा आपः शमु या कुम्भं,
आ मृताः शिवा नः सन्तु वार्षिकीः।
अथर्ववेद में वर्णित जल के उपर्युक्त स्रोत एवं उसके महत्व से वैदिक कालीन भारतीय कृषक पूर्णतः परिचित थे। उपर्युक्त विरिण सिंचाई के साथ जल की विविधता का भी परिचायक है। यथा, एक कृषि वर्षा द्वारा, दूसरी नहरों के जल से और तीसरी कृषि हिम-पर्वतों के पिघले हुये बर्फ जल से सम्पन्न होती थी। नदी आदि के जल की प्रसिद्धि थी ही। ऋग्वेद में भी चार प्रकार के जल का उल्लेख हुआ है:-
1. दिव्य जल -यह वर्षा जल, विशेष कर स्वाति नक्षत्र में बरसे हुए जल का नाम है।
2. स्त्रवणशील जल- ये नदियों में होते हैं।
3. खनित्रिमा जल- यह खोदे हुए कूप या बावड़ी का जल है।
4. स्वयंजा जल- यह पर्वतीय निर्झर-जल है।
अथर्ववेद में भी इनका उल्लेख मिलता है। ये सभी प्रकार के जल कृषि कार्य के लिए उपयोगी बताए गए हैं। वैदिक काल में सिंचाई के मुख्यतः दो साधन थे-
1.प्राकृतिक, और 2. कृत्रिम।
प्राकृतिक सिंचाई नदी, झील, झरना और वर्षा जैसे स्वाभाविक जल स्रोतों द्वारा होती थी और कृत्रिम सिंचाई कुँआ, नहर, जलाशय आदि कृत्रिम जल स्रोतों द्वारा होती थी।
महाकाव्य युग में सिंचाई व्यवस्थाः
रामायण और महाभारत के युग से सिंचाई के लिए जलाशयों का प्रचलन विशेष रूप से बढ़ा। इसके पहले के युग में प्रायः लोग नदियों के तट पर रहा करते थे और उनको सिंचाई के लिय नहरों का पानी पर्याप्त होता था, पर नदियों से दूर के प्रदेशों में जलाशय के जल से सिंचाई की सर्वोत्तम व्यवस्था हो सकती थी। जलाशय दो प्रकार के होते थे- प्राकृतिक नालों को बाँधकर अथवा भूमि को खोदकर बनाये हुए। महाभारत के अनुसार कृषि वर्षा के अधीन नहीं छोड़ी जानी चाहिए। महाभारत कालीन तड़ागों के चारों ओर वृक्ष आरोपित होते थे। कई तालाबों में केवल वर्षा में जल रहता था। बड़े तालाबों में चर्ष भर जल पूरा रहता था।
सिंचाई के लिए कभी-कभी गाँव के सभी लोग सम्मिलित होकर बाँध बनवाते थे। पूरा गाँव उसमें धन लगाता था और प्रत्येक के लिए आवश्यक था कि वह स्वयं काम में जुटे। यदि कोई स्वयं नहीं जाता था तो उसे व्यय में तो भागीदार होना पड़ता था, पर लाभ में उसे कोई भाग नहीं मिलता था। खेती के लिए बीस हल से जोती जाने योग्य भूमि पर एक कुआँ बनाने का विधान था। सिंचाई करने योग्य भूमि में अनेक जलाशय ऊपर- नीचे बने होते थे। ऊँचाई पर बने जलाशयों से नीचे के जलाशयों में पानी भरता रहता था। सिंचाई के लिए जलाशयों का महत्त्व लोगों ने स्पष्ट रूप से समझ लिया था। सेतुबन्ध(जलाशय) अनाज की उत्पत्ति के हेतु हैं, अच्छी वर्षा से जो खेती हो सकती है, वह नित्य ही सेतुबन्धों के द्वारा सम्भव है। वायु की शक्ति से जल ऊपर खींचकर सिंचाई होने लगी थी।
मौर्य काल में सिंचाई व्यवस्थाः
आचार्य कौटिल्य का कहना है कि ‘‘धन लगाकर स्वयं परिश्रम करके बनाये हुए तालाब आदि से, हाथ से जल ढोकर खेत सींचने पर, किसानों को अपनी उपज का पाँचवा हिस्सा राजा के लिए देना चाहिए। इसी प्रकार तालाबों से यदि कन्धे से पानी ढोकर सींचा जाय तो किसान अपनी उपज का चैथा हिस्सा राजा को दे। यदि छोटी नहर या नालियाँ बनाकर उनके द्वारा खेतों को सींचा जाये, तो उपज का तीसरा हिस्सा राजा को दिया जाना चाहिए।’’
उपर्युक्त कथन से स्पष्ट हो जाता है कि सिंचाई के लिए 1/5, 1/4, 1/3 भाग कर के रूप में निर्धारित किया गया था। सिंचाई के लिए वे दो प्रकार बाँध बनाने की व्यवस्था देते हैं। इसी क्रम में कौटिल्य बाँध को हानि पहुँचाने वालों के लिए दण्ड की भी व्यवस्था का निर्देश करते हैं।
कृषि नीति के अन्जर्गत सिंचाई अथवा तल संसाधन का विशेष महत्त्व था। जल की उचित व्यवस्था के अभाव में खेती तथा अन्नोत्पादन सम्बन्धी सभी प्रयास निष्फल हो जाते हैं। राज्य को चाहिए कि बन्धा या तालाब आदि का निर्माण कराये और यदि कोई व्यक्ति स्वयं इस प्रकार का निर्माण करा रहा हो तो उसे आवश्यकता अनुसार भूमि, मार्ग या उपकरण आदि सुलभ कराये। कौटिल्य के अनुसार सर्वोत्तम जनपद वह है, जो अदेवमातृक हो अर्थात् जो खेती के लिए वर्षा के जल पर निर्भर न रहता हो तथा जहाँ नदी, झील, ताल आदि प्रचुर मात्रा में सुलभ हों। ऐसे जनसन्निवेशों में जो देवमातृक हैं, वहाँ खेती के लिए नदी आदि का जल सुलभ न हो एवं जहाँ के किसान खेती के लिए वर्षा पर ही निर्भर रहते हों, वहाँ राज्य या व्यक्ति विशेष द्वारा जल प्रबन्धन ‘सेतु’ का महत्त्व बहुत बढ़ जाता है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में इन कृत्रिम जल संसाधनों का कितना अधिक महत्त्व था, यह इस सम्बन्ध में कौटिल्य द्वारा दी गयी व्यवस्था से ज्ञात हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति नवीन तड़ाग या बन्धा निर्मित कराता है, तो उसे पाँच वर्ष तक कर में छूट दी जाती थी, यदि किसी व्यक्ति द्वारा भग्न तड़ाग आदि का जीणोद्धार किया गया हो तो वार वर्ष की, यदि बहुत काल तक उपेक्षा के कारण कोई तड़ाग घास एवं झाड़ियों से ढक गया हो और उसकी सफाई करायी गई तो तीन वर्ष की और यदि कोई सूखी एवं परती पड़ी भूमि को खेती योग्य बनाता है तो दो वर्ष तक कर में छूट राज्य द्वारा दी जाती थी। पुण्य कार्य मानते हुए यदि कभी किसी व्यक्ति ने धर्मसेतु या तड़ाग को बनवाया हो और बाद में कोई अन्य व्यक्ति ऐसे तड़ाग को बन्धक रख दे या उसका विक्रय कर दे तो ऐसे व्यक्ति पर मध्यम कोटि का दण्ड लगाया जाता था।
जल संसाधन सम्बन्धी इस प्रकार की व्यवस्था जिसमें तड़ागादि के निर्माण में कर छूट एवंउसे विनष्ट करने में दण्ड का निर्धारण कृषि को समृद्धि करने में अवश्य ही सहायक होगी। राज्य स्तर पर भी इस काल में सिंचाई की व्यवस्था की जाती थी। जैसा कि महाक्षत्रप रूद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में उसके राष्ट्रिक वैश्य पुष्यगुप्त ने सुदर्शन झाील का निर्माण कराया था और पुनः अशोक के शासन काल में उसके अधीनस्थ यवनराज तुषाष्प ने इस झील से अनेक छोटी-छोटी नालियाँ बनवाई थीं। सिंचाई के लिए किए गए इस प्रकार के कार्य जो व्यक्तिगत और राजकीय दोनों स्तर पर थे, मौर्य शासकों की कृषि नीति के ही अनुभाग थे।