चोल राजवंश(Chola dynasty)

दक्षिण भारत के प्राचीनतम राजवंश-

सुदूर दक्षिण के प्राचीन इतिहास में वहाँ की तीन परम्परागत राजनीतिक शक्तियों का वर्णन मिलता है। ये तीन शक्तियाँ थीं-चोल, चेर तथा पाण्ड्य। ये तीनों वंश प्रारंभ से ही सत्ता के लिए संघर्षरत थे। अशोक के लेखों में चोल मित्र राज्य के रूप में वर्णित हैं। उस समय भी पाण्ड्य निकटस्थ पड़ोसी थे। 13वीं शती तक यह राजवंश दक्षिण की राजनीति में किसी न किसी रूप में हस्तक्षेप करता रहा। अंततः परवर्ती पाण्ड्यों को अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। इस प्रकार चोलों का लगभग 1500 वर्षों का दीर्घ इतिहास है जो चार मुख्य चरणों में विभाजित है-प्रथम संगम युग, द्वितीय संगम युग एवं विजयालय शाखा के मध्य, तृतीय विजयालय से अधिराजेन्द्र तक तथा चतुर्थ कुलोत्तुंग प्रथम तथा उसके पश्चात् चोल-चालुक्य प्रशासन।

चोलों का प्राचीनतम साहित्यिक साक्ष्य संगम साहित्य है। तमिलदेश अथवा सुदूर दक्षिण के इन राज्यों का उल्लेख प्राचीन संस्कृत साहित्य में यत्र-तत्र मिलता है। ईसा पूर्व चैथी शताब्दी के लगभग कात्यायन ने चोलों का उल्लेख किया है। अशोक के द्वितीय शिलालेख में पाण्ड्यों, सत्तियपुत्तों और केरलपुत्रों के साथ चोलों के स्वतन्त्र राज्य का उल्लेख मिलता है। इन राज्यों के साथ सम्राट अशोक का मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध था। तदुपरांत महावंश, सिलप्पदिकारम तथा मणिमेखलै से इनके परम्परागत इतिहास का ज्ञान प्राप्त होता है। विजयालय शाखा के बहुसंख्यक लेख उपलब्ध हैं। इस काल के ग्रंथों में ऐतिहासिक तथ्यों का विस्तृत विवेचन है। दिव्यसूरि चरित एवं गुरुपरम्परै में धर्म के साथ ही साथ राजनीतिक घटनाओं का भी उल्लेख किया गया है। वीरशोलियम, कलिंगत्तुप्परणि, याप्परुड़्गलक-करिकै तथा कुलोत्तुंग-शोलन्-पिल्लैत्तमिक्त इत्यादि पत्तपात्तु ग्रंथों में इस वंश का इतिहास सुरक्षित है। संगम साहित्य से ज्ञात अनेक तथ्यों की पुष्टि ‘पेरीप्लस ऑफ द इरीथ्रियन सी’ तथा टालमी के विवरणों से हो जाती है। परवर्ती चोल शासकों के अध्ययन के लिए दसवीं तथा ग्यारहवीं शती ई. में रचित शैव सन्तों के चरित पर्याप्त उपयोगी हैं। इनके आधार पर शेक्कलार ने तिरुतोण्डरपुराणम् नामक ग्रन्थ की रचना की। इसे पेरियपुराणम् भी कहा जाता है।

चोल शासकों के शासन काल में तमिल भाषा का पूर्ण विकास हुआ। यत्र-तत्र संस्कृत के लेख भी उपलब्ध हुए हैं। तेलुगु क्षेत्रों में तेलुगु एवं कन्नड़ का भी प्रयोग प्राप्त होता है।

परम्परानुसार चोल देश उत्तर एवं दक्षिण में बेल्लारू नदियों, पूर्व में समुद्र तथा कोट्टैकरै तक विस्तृत था जिसमें आधुनिक त्रिचनापल्ली एवं तंजौर जिले तथा पुरातन कुदप्पह स्टेट के कुछ भाग सम्मिलित हैं, कावेरी घाटी मुख्य अंग थी।

चोल शब्द की उत्पत्ति के संबंध में अनेक व्याख्याएँ प्राप्त होती हैं। गेरिनी ने संस्कृत काल तथा कोल को इसका मूल स्वीकार करते हुए अनार्य प्रमाणित करने का प्रयास किया है। चोल अति प्राचीन काल से प्रचलित शब्द है। इन्हें किल्लि, बलवन तथा शेम्बियन इत्यादि नामों से पुकारा गया है। ज्ञान की वर्तमान अवस्था में ‘चोल’ को ही मूल शब्द स्वीकार करना अधिक सुविधाजनक होगा।

प्रारंभिक इतिहास-

चोलों के परम्परागत इतिहास का ज्ञान संगम साहित्य में वर्णित है जिसका समय ईसवी सन् के आस-पास स्वीकार किया गया है। इस प्रारंभिक तमिल साहित्य में पौराणिक इतिहास सुरक्षित है, वह परवर्ती अभिलेखों द्वारा कदाचित ही समर्थित है। शासकों की प्रशस्तियों में ऐतिहासिक पुट अत्यल्प है। पुरातात्विक साक्ष्यों में अभिलेख सर्वाधिक उपादेय है। लेकिन ये अभिलेख अलंकृत काव्यशैली में लिखे गये हैं। प्रमुख अभिलेखों में विजयालयकुल के प्रथम आदित्य के तिरुक्कलुक्कर्रम, तक्कोलम, तिलैतनम् लेख महत्वपूर्ण हैं। परान्तक के विषय में तोण्डैमान, तिरुवेगर्रियूर, किलमतुगूर तथा उत्तरमेरुर आदि अभिलेख विशेष सूचना प्रदान करते हैं। तंजौर अभिलेख, मेलपाडिलेख, बृहतलीडेन अनुदानपत्र, तिरुवालंगाडु अनुदान पत्र राजेन्द्र प्रथम के लिए तथा वीर राजेन्द्र के कन्याकुमारी लेख व तृतीय राजेन्द्र के तिरुवेन्द्रिपुरम अभिलेख से सूचना मिलती है। राजेन्द्र चोल के बाद के विवरण के लिए चोलों के अनेक लेख मिलते हैं। इसके अतिरिक्त समकालीन राजवंशों यथा- बाण, कदम्ब, वैदुम्ब, नोलम्ब, राष्ट्रकूट तथा पूर्वी चालुक्यों के कुछ लेखों से सहायता मिलती है।

चोलों के इतिहास अध्ययन में इनकी मुद्रायें भी हमारी सहायता करती हैं। चोलों ने सोने, चाँदी एवं ताबें की मुद्रायें चलायी थी। जिससे इनकी राजनीतिक एवं आर्थिक गतिविधि एवं प्रगति का पता चलता है। जैसे- दो द्वीप स्तम्भों के बीच एक व्याघ्र बना हुआ है और ऊपर एक छत्र प्रदर्शित है। शायद यह चोलों द्वारा कल्याणी के चालुक्यों की विजय की ओर संकेत करता है। चोलों की कुछ मुद्रायें इनके द्वीपान्तर शासन को प्रमाण है। यहाँ से प्राप्त कुछ मुद्राओं पर हाथी अंकित है तथा तमिल में ‘मार’ लिखा है। इन पर ‘शंख-चक्र’ प्रतीक भी अंकित है। संभवतः ये मुद्रायें उस समय की है जब पाण्डयों ने चोलों को पराजित कर उरैयूर तथा तंजौर को भस्मीभूत कर पुनः चोलों का राज्य उन्हें वापस कर दिया था। इसके अतिरिक्त तंजौर का राजराजेश्वर मंदिर इनकी अद्भुत कला एवं धार्मिक विश्वास का सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है। चोल काल कांस्य मूर्तियों के निर्माण के लिए प्रसिद्ध है जो इनकी धातु विज्ञान की प्रगति का भी परिचायक है।

संगम साहित्य में दो शासकों के अनेक अतिरंजित विवरण प्राप्त होते हैं -1. करिकाल तथा 2. कोच्चेनगणान्। उनके क्रम एवं काल की कोई स्पष्ट सूचना नहीं है। इन्हें सूर्यवंशी शासक बतलाया गया है। इसी प्रकार की परम्परा वीर राजेन्द्र के कन्याकुमारी लेख तथा कलिंगत्तुप्परणि एवं विक्रमशोलन-उला जैसे ग्रंथों में प्राप्त होती है।

करिकाल-

संगम युग का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शासक था जिसके पिता का नाम इलज्जेदचेन्नि था। जन्म से ही यह शत्रुओं द्वारा अपने अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। अंत में इसने किसी प्रकार शत्रुओं के बंदीगृह से मुक्त होकर सेना संगठित किया तथा शत्रुओं को पराजित कर सिंहासन को हस्तगत किया।

करिकाल के काल में ‘वेन्नि’ के युद्ध को महत्वपूर्ण घटना माना गया है जिसमें इसने चेरों तथा पाण्ड्यों को पराजित किया। वेन्नि की समता तंजौर से 15 मील पूर्व ‘कोविलवेण्णि’ नामक स्थान से की गई है। इस संघर्ष में चेर एवं पाण्ड्य शासकों के साथ अनेक सामंतों ने भी भाग लिया था। वेण्णिक्कुयत्तियार ने इसमें करिकाल के वीरत्व का काव्यात्मक विवरण दिया है।

इस युद्ध के पश्चात् करिकाल स्थायी रूप से चोल सिंहासन पर विराजमान हुआ। चेरों एवं पाण्ड्यों की पराजय से साम्राज्य विस्तार के लिए उसे स्वर्णिम अवसर उपलब्ध हुआ। वाहैप्परण्डले के युद्ध में नौ राजाओं के संघ को उसने विखण्डित किया। पट्टिनप्पालै से ज्ञात होता है कि असंख्य ओलियर ने आत्म-समर्पण किया, उत्तर एवं पश्चिम के शासक पराजित हुए। पाण्ड्य शक्ति का मंथन किया गया तथा इरुगोवेल परिवार विनष्ट कर दिया गया। इन विजयों से सम्पूर्ण कावेरी घाटी पर करिकाल का आधिपत्य स्थापित हो गया।

करिकाल के पारिवारिक जीवन के विषय में ज्ञान का अभाव है। इसकी एक पुत्री आदिमन्दि का ज्ञान प्राप्त होता है जिसका विवाह चेर राजकुमार आट्टन अत्ति के साथ हुआ था। यह राजकुमार कावेरी नदी में डूब गया था किन्तु आदिमन्दि की पतिभक्ति की शक्ति (सतीत्व) ने उसे पुनर्जीवित कर दिया।

करिकाल वैदिक धर्म में निष्ठा रखने वाला था। इस शासक की इतनी अधिक किंवदन्तियाँ प्राप्त होती हैं कि इसकी लोकप्रियता में संदेह नहीं किया जा सकता।

नलंगिल्लि एवं नेडुँगिल्लि-

नलंगिल्लि एवं नेडुँगिल्लि के मध्य गृह-युद्ध दीर्घकाल तक चलता रहा जिसका अंत कारियारू के युद्ध में नेडुँगिल्लि की मृत्यु के साथ हुआ। ये क्रमशः युहार एवं उरैयूर से शासन कर रहे थे।

किल्लिबलवन-

किल्लिबलवन की भी अनेक प्रशस्तियाँ प्राप्त होती हैं जिसकी मृत्यु कुलमुर्रम स्थान पर हुई थी। इसने उरैयूर में शासन किया तथा चेरों को पराजित किया

कोप्येरूज्जोलन-

 इसका भी केन्द्र उरैयूर रहा। इसके दो पुत्रों तथा उसके मध्य संघर्ष के अनेक विवरण उपलब्ध होते हैं। अंततः उसने आत्महत्या कर ली।

इनके अतिरिक्त पेरूनर्किल्लि, इलज्जेड्चेत्रि, सेरूप्पालि तथा पेरूम-तिरूमाबलवन इत्यादि अन्य राजकुमारों के नाम संगम साहित्य में सुरक्षित हैं।

कोच्चेड्.गणान-

संगम युग का करिकाल की भाँति दूसरा महत्वपूर्ण चोल शासक था जिसकी अनेक परम्पराएँ प्राप्त होती हैं। 10वीं तथा 11वीं शती के लेखों एवं कलिंगत्तुप्परणि तथा विक्रम शोलन उला जैसे काव्यों में इस शासक की पौराणिक गाथाएँ वर्णित है। इसे चेरों का विजेता कहा गया है। राजनीति की अपेक्षा धर्म में इसकी अभिरुचि अधिक थी।

उपर्युक्त शासकों के काल के संबंध में अनेक भ्रांतियाँ प्राप्त होती हैं। विभित्र मतों की समीक्षा करते हुए इन संगमयुगीन चोल शासकों का समय प्रो. नीलकान्त शास्त्री ने ईसा की प्रथम तीन या चार शताब्दी स्वीकार किया है।

संगम युग के अंत तथा विजयालय के प्रारंभ के मध्य-

संगम युग के पश्चात् पाण्ड्यों तथा पल्लवों के उदय के फलस्वरूप चोलों का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो गया। इसीलिए विजयालय के पूर्व लगभग तीन शताब्दियों तक चोलों का इतिहास तिमिराच्छादित है। इस अंतराल में चोल-नरेश लघु सामंत के रूप में उरैयूर के समीप अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे थे। बुद्धदत्त ने चोल देश में कलभ्रों के शासन का उल्लेख किया है।

चीनी यात्री ह्वेनसांग जब 639-40 ई. में अमरावती एवं काँची गया तो उसने चोलों का उल्लेख किया है। कुट्ट पट्ट जिले के अनेक पाषाण लेखों तथा दो महत्वपूर्ण ताम्रपत्रों में चोलों की चार पीढ़ियों तक के शासकों का विवरण प्राप्त होता है। लिपिगत विशेषताओं के आधार पर इन्हें 8वीं शताब्दी का परवर्ती नहीं कह सकते। इन शासको का क्षेत्र रेनान्डु के आसपास माना गया है।

तमिल क्षेत्र में चोलों की स्थिति का कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। इस अंतराल का कोई पुरातात्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। पल्लवों ने सम्पूर्ण तमिल क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया जिसकी गर्वोक्ति पल्लव लेखों में प्राप्त होती है।

चोल शासक विजयालय-

साम्राज्यिक चोलों का प्रथम शासक विजयालय था जिसने उरैयूर के समीप इस वंश की राजनीतिक प्रतिष्ठा स्थापित की। त्रिचिनापल्ली जिले से उपलब्ध एक लेख में परकेशरी द्वारा प्रदत्त भूमि-दान का उल्लेख है। तिरूवालंगाडु दानपत्र के अनुसार विजयालय ने तंजौर को अधिकृत कर वहाँ निशुम्भसूदिनी (दुर्गा) मंदिर का निर्माण कराया। हुल्टश की धारणा है कि कांचीपुरम तथा शुचीन्द्रम तक जो परकेशरि नामयुक्त लेख है, विजयालय से ही सम्बद्ध है किन्तु प्रो. शास्त्री ने पल्लवों के सामंत के रूप में विजयालय को इसके साम्राज्य में संदेह व्यक्त किया है।

पाण्ड्य नरेश वरगुणवर्मन समकालीन शक्तिशाली शासक था जिसके अधीन तंजौर में मुत्तरैय शासन कर रहे थे जिनके लेख शेन्दले से प्राप्त हुए हैं। पल्लव सामंत विजयालय तंजौर को अधिकृत किया। उससे उत्तेजित होकर पाण्ड्यों ने पल्लवों पर आक्रमण किया। फलतः आदित्य प्रथम के काल में श्रीपुरम्बियम का निर्णायक संघर्ष हुआ।

विजयालय की तिथि उसके समकालीन लेखों में अज्ञात है। इसके पौत्र परांतक प्रथम की तिथि 907 ई. कीलहार्न महोदय ने निर्धारित की है। आदित्य प्रथम के तक्कोलम लेख में सूर्य-ग्रहण का विवरण है जिसे 870-71 ई. के गणना के आधार पर निश्चित किया गया है। 870 ई. के आदित्य प्रथम की सिंहासनारोहण तिथि ज्ञात होती है। सामान्यतः विजयालय का शासन-काल 20 वर्षों का स्वीकार करते हुए 850-870 ई. विजयालय का काल मान सकते हैं।

चोल शासक आदित्य प्रथम

विजयालय के पश्चात् उसका पुत्र आदित्य प्रथम उत्तराधिकारी हुआ जिसने पल्लवों एवं पाण्ड्यों के मध्य प्रसिद्ध श्रीपुरम्बियम के युद्ध में भाग लिया था। पल्लव नरेश अपराजित तथा पाण्ड्य शासक वरगुणवर्मन अनेक सामंतों से समर्थित थे। गंगशासक पृथ्वीपति प्रथम पल्लवों तथा मुत्तरैयर पाण्ड्यों के साथ सहयोग कर रहे थे। आदित्य प्रथम के संबंध में कोई निश्चित सूचना नहीं प्राप्त होती। टी.ए. गोपीनाथ राव का अनुमान है कि आदित्य प्रथम ने पाण्ड्य शासक वरगुणवर्मन के साथ पल्लव शासक नृपत्तुंग वर्मन अपराजित के विरुद्ध संघर्ष किया। किन्तु नृपत्तुंग वर्मन एवं अपराजित का तादात्म्य असंगत है। प्रो. शास्त्री ने यह आपत्ति व्यक्त की है कि यदि आदित्य प्रथम ने पांड्यों का साथ दिया तो कैसे वह इतने शीघ्र श्री पुरम्बियम युद्ध के विजेता अपराजित को पदच्युत करने में सफल हुआ। इससे यह अधिक समीचीन प्रतीत होता है कि आदित्य प्रथम ने पल्लव अपराजित का समर्थन किया हो। आदित्य प्रथम ने जिस किसी का भी साथ दिया हो, इसका सुपरिणाम उसे ही उपलब्ध हुआ।

अनबिल पत्रों से ज्ञात होती है कि आदित्य ने कावेरी के तटों को सह्याद्रि से समुद्र तक शिवायतनों से अलंकृत किया। तिरुवालंगाडु पत्रों तथा कन्याकुमारी लेख से स्पष्टतः आदित्य प्रथम द्वारा पल्लव-नरेश की पराजय की जानकारी प्राप्त होती है। तिल्लैस्थानम से प्राप्त एक लेख से उसकी पुष्टि होती है जिसके अनुसार तौण्डैनाड तक अपनी शक्ति का विस्तार किया। इस प्रकार आदित्य ने तौण्डैमण्डलम को अधिकृत कर पल्लव शक्ति को विनष्ट किया जिसकी तिथि स्थूलतः 890 ई. तक मान सकते हैं।

परांतक प्रथम के काल में पल्लवों से संघर्ष के संकेत प्राप्त होते हैं। इससे यह आभासित होता है कि पल्लव शक्ति अभी भी अवशिष्ट थी।

पल्लवों पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् आदित्य प्रथम एक शक्तिशाली शासक के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। गंग शासक जो प्रारंभ में पल्लवों की अधीनता स्वीकार करते थे, अब चोलों की अधीनता स्वीकार करने लगे। उदयेन्दिरम दानपत्र के अनुसार मारसिंह के पुत्र पृथ्वीपति द्वितीय ने राजकेशरी (आदित्य प्रथम) के 24वें शासन वर्ष में तक्कोलम के मंदिर में रजतपात्र दिया था।

कोंगुदेश-राजाक्कल से ज्ञात होता है कि तंजौर में अभिषिक्त होने के प्श्चात् आदित्य कांेगुदेश गया जिसे अपने राज्य में सम्मिलित कर तलकाड नगर को अधिकृत किया। यद्यपि यह ग्रंथ अधिक परवर्ती है किन्तु इस विवरण में संदेह नहीं व्यक्त किया जा सकता। परांतक के अनेक लेख कोंगुदेश से उपलब्ध हुए हैं किन्तु कोंगु विजय का उसके शासन काल में कोई उल्लेख नहीं है। इससे कोंगु विजय का श्रेय आदित्य को ही दिया जा सकता है। उसने पश्चिमी गंगों से तलकाड को अपहृत किया होगा। पांड्य शासक श्रीपरांतक वीरनारायण ने भी कोंगु विजय का दावा किया है। संभव है कि कोंगु देश का कुछ भाग इसने पांड्यों से भी अधिकृत किया हो।

तिल्लैस्थानम के एक तिथिहीन लेख से ज्ञात होता है कि इसका चेर शासक स्थाणुरवि से बड़ा ही मधुर संबंध था। इसको और अधिक पुष्ट करने के लिए आदित्य ने अपने पुत्र परांतक का विवाह एक चेर राजकुमारी के साथ किया था। आदित्य प्रथम ने अन्य राजवंशों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किया। इसकी एक महारानी पल्लववंशीया थी। इलंगोन-पिच्चि जो वल्लवरैपर (राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय) की पुत्री थी, इसकी प्रधान महिषी थी।

चोल वंश के इस प्रथम शक्तिशाली शासक की मृत्यु चित्तूर जिले में कालहस्ति के समीप तोण्डैमानाड स्थान पर हुई जहाँ इसके पुत्र परांतक ने कोदण्ड रामेश्वर एवं आदित्येश्वर नाम से एक मंदिर का निर्माण कराया। वह परम शैव था। इसने 872-907 ई. के मध्य चोल वंश की राजनीतिक प्रतिष्ठा में पूर्ण वृद्धि की।

 चोल शासक परान्तक प्रथम

श्रीपुरम्बियम युद्ध के अवसर पर चोल संभवतः पल्लवों की अधीनता में उरैयूर तथा तंजौर पर शासन कर रहे थे। आदित्य प्रथम ने चोल साम्राज्य को उत्तर में एक ओर कालहस्ति से लेकर दक्षिण में कावेरी तक विस्तृत किया जो इसके पुत्र परांतक प्रथम को उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ।

परांतक प्रथम ने 907 से 955 ई. अर्थात् लगभग 48 वर्षों तक शासन किया। प्रारंभ में ही राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय के उस प्रयास को विफल किया जिससे वह अपने पौत्र कन्नरदेव को चोल सिंहासन पर अधिष्ठित करने की योजना बनायी थी। नित्य नूतन विजयों के फलस्वरूप कन्याकुमारी तक चोल साम्राज्य को विस्तृत किया। यहाँ तक कि सिंहल पर भी इसने आक्रमण किया।

पांडय युद्ध-

 सिंहासनारूढ़ होते ही इसने पांडय देश को आक्रांत किया। इसके शासन के तीसरे वर्ष में ही इसे मदुरैकोण्ड की उपाधि से विभूषित किया है। सिन्नमनूर तथा उदयेन्दिरम पत्रों से ज्ञात होता है कि पाण्डय शासक राजसिंह युद्ध से पलायित हुआ। महावंश के अनुसार सिंहल नरेश कस्सप पंचम के सेनापति सक्क की सहायता से पांडय शासक ने चोलों को अवरूद्ध करने का प्रयास किया। सेनापति सक्क प्लेग से ग्रस्त होकर दिवंगत हुआ तथा सिंहल सेना वापस बुला ली गई।

उपर्युक्त विवरण से यह ज्ञात होता है कि प्रथम बार चोलों से पराजित होने के पश्चात् राजसिंह ने सिंहल से सहायता ली किन्तु दैवी प्रकोप के कारण सिंहली सेना सहायता करने में असफल रही। इसके बीसवें वर्ष के दो लेखों में वेल्लूर युद्ध का विवरण उपलब्ध होता है जिसमें पाण्डय एवं सिंहल सेनाएँ पराजित हुईं। इससे यह संभावित प्रतीत होता है कि वेल्लूर में चोलों एवं पाण्डयों का निर्णायक संघर्ष हुआ जिसमें पाण्डय पराजित हुए। इस युद्ध की तिथि 915 ई. के लगभग स्वीकार की गई है।

महावंश से यह भी विदित होता है कि राजसिंह चोलों से पराजित होने के पश्चात् राज्य का परित्याग कर सिंहल में महातित्थ स्थान पर गया। यहाँ पर अपने राजमुकुट तथा अन्य बहुमूल्य वस्तुओं को छोड़ कर राजसिंह ने केरल में शरण ली। तिरुवालंगाडु पत्रों के अनुसार पाण्ड्य नरेश ने सिंहल से केरल में अपना निवास बनाया क्योंकि इसकी माँ वानवन महादेवी केरल की राजकुमारी थी।

सिंहल युद्ध-

चोलों से पराजित होने के पश्चात् राजसिंह ने जो राजमुकुट सिंहल में छोड़ा था उसे हस्तगत करने के लिए परांतक प्रथम ने उदय चतुर्थ के शासन काल में सिंहल पर आक्रमण किया। सर्वप्रथम एक दूत भेज कर सिंहल से पाण्डय राजमुकुट प्राप्त करना चाहा किन्तु सिंहल नरेश ने उसे प्रदान न किया। इस समय सिंहल में कोई क्रांति व्याप्त थी फलतः उदय ने पाण्ड्य राजमुकुट के साथ रोहण में शरण ली। चोल सेना रोहण में प्रवेश करने में असमर्थ रही। अतएव बाध्य होकर वापस लौट आई।

चोल परांतक प्रथम को इस अभियान में केरल, कोदुम्बालूर तथा अन्य कई शासकों ने सहयोग प्रदान किया था। परांतक के एक पुत्र अरिकुल केशरी का विवाह कोदुम्बालूर वंशीय तेन्नवन इलंगोवेलार की पुत्री पूदि आदित्य पिंडारि के साथ हुआ था। जिससे दोनों वंशों में निकट संबंध ज्ञात होता है।

अन्य युद्ध-

शोलिंगपुर शिलालेख से ज्ञात होता है कि गंग पृथ्वीपति द्वितीय ने परांतक से वाराणिराज की उपाधि प्राप्त की थी। उदयेन्दिरम् पत्रों के अनुसार परांतक ने दो बाण शासकों को उन्मूलित किया था तथा वैदुम्बों को पराजित किया था। प्रारंभ में ही कृष्ण द्वितीय (राष्ट्रकूट) ने चोल सिंहासन को अधिकृत करने के लिए बाणों के साथ उत्तर-पश्चिम से चोल साम्राज्य पर आक्रमण किया था। चोल सेनापति गंग पृथ्वीपति द्वितीय ने 910-11 ई. के लगभग बल्लाल के युद्ध में इन्हें पराजित किया। कन्याकुमारी लेख के अनुसार कृष्णराज को पराजित कर परांतक ने वीर चोल की उपाधि धारण की। दो बाण शासक जो परांतक से पराजित हुए संभवतः विक्रमादित्य द्वितीय तथा विजयादित्य तृतीय रहे। इन्हें राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय का संरक्षण प्राप्त था फिर भी पराजित हुए थे।

वैदुम्ब 9वीं शताब्दी में रेनांडु 7000 पर बाणों की अधीनता में शासन कर रहे थे। कृष्ण तृतीय के लेखों में वैदुम्ब महाराज शन्दयन तिरुवयन तथा तिरुवयन श्रीकण्ठ के नाम उपलब्ध होते हैं। परांतक प्रथम का समकालीन वैदुम्ब शासक शन्दयन तिरुवयन अथवा उसका निकटस्थ उत्तराधिकारी रहा होगा। वैदुम्बों ने भी चोलों के विरुद्ध राष्ट्रकूटों से सहायता ली थी। यह युद्ध भी 915 ई. में हुआ था।

पूर्वी चालुक्य साम्राज्य के दक्षिण भाग में शित्पुलिनाडु नामक स्थान था। तिरूवेरियूर से उपलब्ध दो लेखों के अनुसार परांतक के एक अधिकारी मारन परमेश्वर ने शित्पुलिनाडु तथा नेल्लोर को विनष्ट किया था। इस क्षेत्र से परांतक के किसी लेख के न प्राप्त होने से यह संभावित प्रतीत होता है कि इस अभियान का कोई निश्चित परिणाम न निकला।

940 ई. के पश्चात् परांतक प्रथम का साम्राज्य इतना अधिक विस्तृत हो गया था कि अनेक प्रशासनिक कठिनाइयाँ उत्पन्न होने लगीं। गंग पृथ्वीपति द्वितीय की मृत्यु के कारण विश्वासपात्र सेनापति का अभाव हो गया। उसके पश्चात् बुतूग द्वितीय राष्ट्रकूटों के साथ सम्बद्ध हो गया। बाणों तथा वैदुम्बों ने भी राष्ट्रकूटों का समर्थन किया। इनसे सुरक्षा के लिए परांतक प्रथम ने अपने पुत्र राजादित्य को तिरुमुनैपाडि-नाडु का शासक नियुक्त किया।

राष्ट्रकूटों में कृष्ण तृतीय दक्षिण भारत को एकबद्ध करने के लिए प्रयत्नशील था। यद्यपि इसके अभियानों का क्रम निश्चित रूप से ज्ञात नहीं होता फिर भी इसके कई अभियानों की संभावना व्यक्त की गई है। शोलपुरम तथा सिद्धलिंगमदम लेखों से कृष्ण तृतीय के तोण्डैमण्डलम विजय के उल्लेख प्राप्त होते हैं। 949 ई. के लगभग तक्कोलम नामक स्थान पर चोल एवं राष्ट्रकूट सेनाओं का निर्णायक संघर्ष हुआ। अतकूर लेख के अनुसार मूवडी-चोल-राजादित्य इस युद्ध में मारा गया। इस लेख के एक अन्य विवरण के अनुसार राष्ट्रकूट सेनापति गंगबूतुग द्वितीय ने राजादित्य को ही अपना लक्ष्य बनाया तथा हाथी के हौदे में राजादित्य की मृत्यु हुई। तिरुवालंगाडु तथा लीडन पत्रों के अनुसार कृष्णराज पर विजय के पश्चात् राजादित्य दिवंगत हुआ। इनसे यह निश्चित रूप से अनुमान लगाया जा सकता है कि राजादित्य की मृत्यु के पश्चात् चोल सेना पराजित हुई। कृष्ण तृतीय के इस अभियान के फलस्वरूप उत्तरी अर्काट, दक्षिणी अर्काट तथा चिंगलपेट जिलों पर राष्ट्रकूटों का अधिकार स्थापित हो गया। कृष्ण तृतीय की कंचियुम-तंजैयुमकोण्ड की उपाधियों से काँचीपुरम तथा तंजौर पर राष्ट्रकूटों का अधिकार प्रमाणित होता है। यद्यपि पांडिचेरी से दक्षिण राष्ट्रकूटों का कोई लेख नहीं प्राप्त हुआ है किन्तु इस अभियान से चोल साम्राज्य समाप्तप्राय हो गया।

परांतक प्रथम की कम से कम 11रानियों के नाम प्राप्त होते हैं जिनमें कोक्किलान तथा केरल राजकुमारी सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। राजादित्य, गण्डरादित्य, उत्तमशीलि तथा अरिन्जय इसके पुत्रों के नाम प्राप्त होते हैं। इसने हेमगर्भ तथा तुलाभार दानों को सम्पन्न किया। 955 ई. के लगभग इसकी मृत्यु के समय इसके कम से कम चार पुत्र जीवित थे। किन्तु चोल साम्राज्य राष्ट्रकूटों द्वारा अव्यवस्थित कर दिया गया था।

चोल शासक गण्डरादित्य

परांतक प्रथम के पश्चात् लगभग 30 वर्षों तक चोल इतिहास अंधकारमय रहा। इस अंतराल का उत्तराधिकार क्रम भी निश्चित रूपेण निर्धारित नहीं किया जा सकता। विभिन्न शासकों की तिथियाँ एक-दूसरे के शासन काल में अतिक्रमण करती हैं। इसलिए शासन अवधि भी निर्धारित करना दुष्कर है। विभिन्न अभिलेखिक साक्ष्यों के आधार पर प्रोफेसर शास्त्री ने गण्डरादित्य को परांतक प्रथम का निकटस्थ उत्तराधिकारी माना है।

त्रिचिनापल्ली जिले के राजकेशरी उपाधियुक्त अनेक लेखों को गण्डारादित्य से सम्बद्ध किया गया है। इस समय तक राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय दक्षिण के विजित क्षेत्रों को संगठित करने में व्यस्त था। गण्डरादित्य का एक सामंत सिद्धवडवन दक्षिणी अर्काट जिले के परवर्ती क्षेत्रों पर शासन कर रहा था। कृष्ण तृतीय के बहुसंख्यक लेखों से यह ज्ञात होता है कि गण्डरादित्य चोल साम्राज्य को अधिकृत करने में असफल रहा। गण्डरादित्य की महारानी शेम्बियम महादेवी से उत्तम चोल उत्पन्न हुआ। गण्डरादित्य साहित्य-प्रेमी था। चिदम्बरम मन्दिर की स्तुति का लेखक इसी को माना गया है। इसका शासनकाल 957 ई. के आस-पास समाप्त हुआ।

चोल शासक अरिञ्जय

गण्डरादित्य के पश्चात् उसका अनुज अरिञ्जय उत्तराधिकारी हुआ जिसे अरिन्दम तथा अरिकुलकेशरी नामों से सम्बोधित किया गया है। इसका शासनकाल अत्यल्प रहा इसने चोल साम्राज्य को मुक्त कराने के लिए अथक प्रयास किया। राजराज प्रथम के काल में मेल्पाडि नामक स्थान पर आर्सर में दिवंगत शासक की स्मृति में एक मंदिर के निर्माण का उल्लेख है। इसलिए मेल्पाडि के समीप आर्सर को होना चाहिए। संभव है कि राष्ट्रकूटों से संघर्ष करते हुए अरिञ्जय मारा गया हो।

चोल शासक सुन्दर चोल

अरिञ्जय के पश्चात् उसकी महारानी कल्याणी से उत्पन्न पुत्र सुंदर चोल परांतक द्वितीय उत्तराधिकारी हुआ जिसे मदुरैकोण्ड राजकेशरी की उपाधि से विभूषित किया गया है। सिंहासनारूढ़ होते ही इसने दक्षिण की ओर ध्यान दिया। लीडन दानपत्र तथा करण्डै दानपत्रों के अनुसार पाण्ड्य शासक वीर पांड्य तथा सुंदर चोल के मध्य चेवूर नामक स्थानपर भयंकर संघर्ष हुआ जिसमें वीर पांड्य मारा गया। इस संघर्ष में सुंदर चोल का पुत्र आदित्य चोल सेना का सेनापतित्व कर रहा था। तिरुवलंगाडु दानपत्र में भी वीर पांड्य के पराजय का उल्लेख है किन्तु इसकी मृत्यु का कोई संकेत नहीं है। पाण्ड्य शासक सिंहल नरेश से समर्थित था। महावंश के अनुसार सिंहल नरेश महेन्द्र चतुर्थ ने नागद्वीप तक विजय प्राप्त किया था। संभव है कि यह अभियान चोलों के विरुद्ध पाण्ड्यों के समर्थन के रूप में हुआ हो। संभवतः पार्थिवेन्द्र वर्मन तथा विक्रमकेशरी को भी वीर पांड्य के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ा था। इस अभियान के फलस्वरूप राष्ट्रकूटों द्वारा अधिकृत अधिकांश भू-भाग चोलों के अधिकार में आ गया।

दक्षिणी अर्काट, उत्तरी अर्काट तथा चिंगलपेट जिलों से कृष्ण तृतीय के लेख अत्यल्प तथा चोलों के लेख अत्यधिक प्राप्त हुए हैं। सुंदर चोल की मृत्यु काँचीपुरम में हुई तथा इसकी एक महारानी द्वारा सती होने का भी उल्लेख प्राप्त होता है।

इसके शासन-काल में संस्कृत एवं तमिल दोनों ही भाषाओं का विकास हुआ। बौद्ध धर्म का प्रचार भी इसके शासन काल में दक्षिण भारत में हुआ।

सुन्दर चोल के शासनांत में गृहयुद्ध के संकेत प्राप्त होते हैं। उदेयारगुडी लेख के अनुसार आदित्य द्वितीय की हत्या षडयंत्र द्वारा की गयी थी। सुन्दर चोल इस हत्या के पश्चात् या तो स्वाभाविक मृत्यु को प्राप्त हुआ अथवा शोकग्रस्त होकर दिवंगत हुआ। उत्तम चोल ने इस षडयन्त्र में विशेष भाग लिया तथा आदित्य द्वितीय की हत्या के पश्चात् चोल सिंहासन का उत्तराधिकारी बना। यद्यपि जनता सुन्दर चोल के पुत्र राजराज को शासक नियुक्त करने के पक्ष में थी किन्तु गृहयुद्ध की स्थिति को समाप्त करने के लिये राजराज ने सिंहासनार्थ कोई प्रयास न किया तथा उत्तम चोल सिंहासन पर आरूढ़ हुआ।

चोल शासक उत्तम चोल

सुंदर चोल द्वारा स्थापित चोल साम्राज्य को सुरक्षित रखने में यह पूर्णतः सफल रहा। इसके शासन काल के अनेक अभिलेख एवं ताम्रपत्र उपलब्ध हुए हैं। इन साक्ष्यों से इसके शासन काल की सामाजिक एवं प्रशासनिक स्थिति का तो ज्ञान प्राप्त होता है किन्तु इसके राजनीतिक इतिहास पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता।

इसके लेखों में इसकी पाँच रानियों के नाम प्राप्त होते हैं। इसके एक पुत्र मधुरान्तक गण्डरादित्य का ज्ञान प्राप्त होता है जो उच्च अधिकारी के रूप में कार्य कर रहा था। 985 ई. के लगभग उत्तम चोल के शासन का अंत हुआ तथा इस राजवंश में एक नये युग का शुभारंभ हुआ।

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