गोविन्द तृतीय (793- 814 ई0)Rashtrakuta ruler Govind III (793-814 AD)
ध्रुव प्रथम के कई पुत्रों की जानकारी प्राप्त होती है। स्तंभ रणावलोक, (कम्बरस), कर्कसुवर्ण, गोविन्द तृतीय तथा इन्द्र के नाम स्पष्टतः प्राप्त होते है। ये चारो ही पुत्र योग्य एवं महत्वाकांक्षी थे। पिता के जीवन काल में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर रहे थे। स्तम्भ गंगों के पराजय के बाद गंगवाड़ी के शासक के रूप में शासन कर रहा था। कर्कसुवर्णवर्ष खानदेश के प्रशासन को संभाल रहा था। गोविन्द एवं इन्द्र अपने पिता के अभियानों में सहयोग कर रहे थे। बाद में गोविन्द उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ तथा इन्द्र को दक्षिणी गुजरात का प्रशासक बनाया। इन पुत्रों के मध्य सिंहासन के लिए संघर्ष अवश्यम्भावी था क्योंकि सभी अपनी व्यक्तिगत योग्यता एवं महत्वाकांक्षा से अवगत थे। इस स्थिति से बचने के लिए ध्रुव प्रथम ने अपने योग्यतम तृतीय पुत्र को युवराज नियुक्त कर दिया। युवराजत्व चिन्ह कण्ठिका से गोविन्द तृतीय को अलंकृत किया। यहाँ तक कि जब ध्रुव प्रथम इससे भी आश्वस्त न हुआ तो उसने गोविन्द के पक्ष में सिंहासन का परित्याग कर संन्यास ग्रहण करने का प्रस्ताव रखा किन्तु गोविन्द तृतीय इससे सहमत न हुआ। पैठन दानपत्रों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि गोविन्द तृतीय ने संस्कारगत रूप में पिता से राज्य प्राप्त किया था। कर्क के सूरतपत्र से ज्ञात होता है कि गोविन्द ने अपने पिता से युवराज पद ही नहीं वरन् सम्राट पद भी प्राप्त किया था।
“राज्याभिषेक कलशैरभिषिच्यदत्ताम्।
राजाधिराजपरमेश्वरतां स्वपित्राः।। (कर्क का सूरत अभिलेख)
उपर्युक्त विवरण से यह स्वयमेव संभावित है कि ध्रुव प्रथम ने समस्त उत्तराधिकार सम्बंधी आपत्तियों से गोविन्द तृतीय की सुरक्षा के लिए अपने जीवन काल में पूर्ण राजत्व प्रदान कर दिवंगत हुआ होगा। सिंहासनारोहण के बाद गोविन्द तृतीय ने प्रभूतवर्ष, जगत्तुंग, जनवल्लभ, कीर्तिनारायण तथा त्रिभुवन धवल जैसी उपाधियाँ धारण कीं।
गृहयुद्ध- ध्रुव प्रथम की मृत्यु के उपरांत एक वर्ष के पूर्व ही प्रकाशित पैठन दानपत्र से ज्ञात होता है कि गोविन्द तृतीय का सिंहासनारोहण संस्कार एकदम शान्तिपूर्ण ढंग से सम्पत्र हुआ। किन्तु स्तम्भ ने अपने अधिकारों से वंचित रह कर बड़ा अपमानित अनुभव किया। गोविन्द के विरुद्ध द्वादश राजाओं का एक संघ बनाकर विद्रोह करना प्रारंभ कर दिया। यद्यपि स्तंभ के समर्थक शासकों की सूची नहीं प्राप्त होती, किन्तु गोविन्द के अभियानों से ज्ञात होता है कि पड़ोसी शासकों ने स्तम्भ का साथ का साथ दिया होगा। संजन दानपत्रों के अनुसार अनेक उच्च पदाधिकारियों ने भी स्तंभ का पक्ष लिया था।
गोविन्द को इन परिस्थितियों का पहले से ही संदेह था, इसलिए इनके प्रतिरोध के लिए वह दृढ़ संकल्प एवं पूर्ण सन्नद्ध था। इन्द्र ने भी इस युद्ध में गोविन्द का सहयोग किया जिससे प्रसन्न होकर गोविन्द ने इसे दक्षिणी गुजरात का शासक नियुक्त किया था। गोविन्द अपनी व्यक्तिगत योग्यता एवं कूटनीतिक कुशलता के कारण अपने उद्देश्य में सफल हुआ। स्तंभ तथा उसके सहयोगी पराजित हुए। सज्जन दानपत्रों के अनुसार गोविन्द ने अपने शत्रुओं के साथ पूर्ण नम्रता का व्यवहार किया तथा स्तंभ को पुनः गंगवाड़ी का शासक नियुक्त कर दिया। स्तंभ के विद्रोह का दमन करने के पश्चात् गोविन्द तृतीय ने अपने उन समस्त पड़ोसियों को दण्डित करने के लिए अभियान प्रारंभ किया जो स्तंभ के साथ थे।
गंगवाड़ी पर विजय- गंगवाड़ी उस अभियान का प्रथम शिकार हुआ। गंग नरेश शिवमार द्वितीय ध्रुव प्रथम के काल से राष्ट्रकूट बन्दीगृह में था। ऐसा प्रतीत होता है कि सिंहासनारोहण के बाद जब स्तंभ से विद्रोह का संकेत प्राप्त हुआ तो गोविन्द ने गंगनरेश को मुक्त कर दिया। मुक्त होने के बाद उसने “कोंगुणि राजाधिराज परमेश्वर श्रीपुरुष’’ जैसी स्वाधीनता सूचक उपाधियाँ धारण की। संभवतः शिवमार ने गोविन्द के विरुद्ध स्तंभ का साथ भी दिया। इसलिए राधनपुर लेख में अहंकारी तथा सज्जन दानपत्रों में कृतघ्न कहा गया है। राधनपुर दानपत्र के अनुसार गोविन्द ने बड़ी सरलता से उसे पराजित किया। 798 ई. के लगभग शिवमार पुनः बन्दी बनाया गया तथा गंगवाड़ी पुनः राष्ट्रकूट सीमा में सम्मिलित कर ली गई जहाँ कम से कम 802 ई. तक स्तंभ ने गवर्नर के रूप में शासन किया।
नोलम्बवाड़ी पर विजय- चित्तलदुर्ग से उपलब्ध कुछ लेखों से ज्ञात होता है कि नोलम्बवाड़ी का शासक चारुपोन्नेर जगत्तुंग प्रभूतवर्ष गोविन्द का सामन्त था। संभवतः गोविन्द तृतीय से भयभीत होकर उसने स्वयमेव अधीनता स्वीकार कर ली।
पल्लव विजय- तदुपरांत गोविन्द तृतीय ने काँची की ओर ध्यान दिया जहाँ पल्लव नरेश दन्तिवर्मन शासन कर रहा था। 803 ई. के ब्रिटिश संग्रहालय दानपत्र से गोविन्द तृतीय ने पल्लव नरेश दन्तिवर्मन को परास्त किया। ज्ञात होता है कि गोविन्द पल्लव विजय के पश्चात् रामेश्वरतीर्थ में शिविर डाले था। गोविन्द की यह विजय स्थायी न रही क्योकि शासनान्त में पुनः अभियान की आवश्यकता पड़ी थी।
वेंगी के चालुक्यों से संघर्ष- दक्षिणी सीमा को सुरक्षित करने के बाद गोविन्द ने पूर्वी सीमा पर चालुक्यों की शक्ति का दमन करना चाहा। इसके समकालीन चालुक्य शासक विष्णुवर्धन चतुर्थ एवं विजयादित्य नरेन्द्रराज थे। विजयादित्य ही संभवतः इसका कोपभाजन बना। दोनों वंशों में वंशानुगत शत्रुता चल रही थी। विजयादित्य नवारूढ़ शासक था। जो बुरी तरह से अपमानित हुआ। राधनपुर दानपत्र के अनुसार वेंगी नरेश अश्वशाला में घास डालने के लिए तथा सज्जनपत्रों के अनुसार सैनिक शिविर का फर्श साफ करने के लिए बाध्य हुआ था। चालुक्यों के ईदर दानपत्र के अनुसार उस समय द्वादशवर्षीय संघर्ष प्रारंभ हुआ तथा 108 बार युद्ध हुए। गोविन्द के काल में राष्ट्रकूटों को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई किन्तु अमोघवर्ष प्रथम के काल में परिणाम विपरित हुआ।
उत्तर भारतीय अभियान- नर्मदा के दक्षिण प्रायः सभी महत्वपूर्ण शासकों को पराजित करने के पश्चात् गोविन्द तृतीय ने उत्तर भारतीय अभियान की योजना बनाई। उत्तर भारत में ध्रुव प्रथम के प्रत्यावर्तन के बाद अनेक परिवर्तन दृष्टिगत होते हैं। वत्सराज की पराजय से प्रोत्साहित होकर धर्मपाल ने कन्नौज को अधिकृत कर लिया तथा इन्द्रायुद्ध को हटाकर अपने समर्थक चक्रायुद्ध को वहाँ का शासक नियुक्त किया। धर्मपाल के खालिमपुर दानपत्र से ज्ञात होता है कि भोज, मत्स्य, मद्र, कुरु, यदु, यवन अवन्ति तथा गान्धार के शासकों ने इसका अनुमोदन किया। किन्तु धर्मपाल की यह स्थिति स्थायी न रह सकी। प्रतिहार नरेश वत्सराज के पुत्र नागभट्ट द्वितीय ने डॉ. आर. सी. मजूमदार के अनुसार एक संघ बनाकर धर्मपाल एवं चक्रायुद्ध को पराजित किया। इस प्रकार 806 ई0 एवं 807 ई0 तक नागभट्ट द्वितीय उत्तर भारत की सर्वोच्च शक्ति के रूप में स्थिर हो चुका था।
गोविन्द तृतीय का उत्तर भारतीय अभियान पूर्ण सुनियोजित ढंग से संचालित हुआ। वेंगी, ओड्रक, कोशल तथा मालवा पर नियंत्रण रखने के लिए योग्य सेनापतियों की नियुक्ति कर अपने अनुज इन्द्र को प्रतिहारों के मूल-स्थान मालवा पर आक्रमण करने के लिए भेजा तथा स्वयं गंगा-यमुना दोआब की ओर बढ़ा।
नागभट्ट द्वितीय के काठियावाड़ के सामन्त बाहुकधवल के वलवर्मन के लेख में बाहुकधवल द्वारा कर्णाटक सेना के पराजय का उल्लेख है। संभवतः इन्द्र को कुछ क्षणिक असफलता प्राप्त हुई हो। कर्क के बड़ौदा दानपत्र के अनुसार इन्द्र ने एक गुर्जरनरेश को पराजित किया। मालवा तक गोविन्द के अधिकार से ज्ञात होता है कि अन्ततरू इन्द्र अपने अभियान में पूर्णतः सफल रहा। संभवतः मालवा को राष्ट्रकूट साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।
गोविन्द तृतीय का अभियान भी पूर्णतरू सफल रहा। अमोघवर्ष प्रथम के सज्जन पत्रों के अनुसार कोशल नरेश चन्द्रगुप्त पराजित हुआ (सज्जनपत्र श्लोक 22) चक्रकूट के शासक को पराजित करता हुआ दोआब तक पहुंचा। सज्जन पत्रों से नागभट्ट द्वितीय के पराजय का ज्ञान प्राप्त होता है। गंगा में गोविन्द तृतीय की सेना के अवगाहन से सम्पूर्ण हिमालय की कन्दराएँ गुंजरित हो गई। यह विवरण काव्यात्मक है क्यांेकि किसी राष्ट्रकूट लेख में गोविन्द तृतीय द्वारा कान्यकुब्ज के अधिकार का संकेत नहीं प्राप्त होता। किन्तु नागभट्ट द्वितीय निश्चितरूपेण पराजित हुआ उसे भी वत्सराज की भाँति राजस्थान की मरुभूमि में शरण लेनी पड़ी।
नागभट्ट द्वितीय की पराजय के बाद धर्मपाल एवं चक्रायुद्ध ने स्वयं गोविन्द तृतीय की अधीनता स्वीकार कर ली। एन. एन. दासगुप्ता के अनुसार गोविन्द तृतीय ने धर्मपाल को युद्ध में पराजित किया तथा धर्मपाल इस पराजय के बाद नागभट्ट द्वितीय से पराजित हुआ। किन्तु स्वयंमेवोपनतौ शब्द से युद्ध का कोई आधार नहीं ज्ञात होता तथा नागभट्ट द्वितीय से पराजित होने के बाद नागभट्ट द्वितीय के विजेता गोविन्द तृतीय से संघर्ष करने की स्थिति में भी धर्मपाल न रहा होगा। दूरदर्शक राजनीतिज्ञ के रूप में धर्मपाल ने आत्मसमर्पण ही किया होगा। डॉ. बी. पी. सिन्हा की धारणा है कि संभवतः धर्मपाल के श्वसुर राष्ट्रकूट सामन्त परवल ने धर्मपाल एवं गोविन्द तृतीय के मध्य संघ निर्माण के लिए भी प्रयास किया हो। डॉ. आर. डी. बनर्जी का यह विचार है कि नागभट्ट द्वितीय से पराजित होने के बाद धर्मपाल एवं चक्रायुद्ध ने गोविन्द तृतीय से सहायता की याचना की। किन्तु यहाँ यह ध्यातव्य है कि ‘‘उपनतौ’’ शब्द अधीनता स्वीकार करने का द्योतक है। इससे किसी संघ का अनुमान निराधार होगा। साथ ही यह विवरण नागभट्ट द्वितीय के पराजय के उपरांत है। यदि धर्मपाल एवं चक्रायुद्ध के सहायक रूप में गोविन्द तृतीय ने नागभट्ट को पराजित किया तो पुनः धर्मपाल एवं चक्रायुद्ध द्वारा अधीनता स्वीकार करने का प्रश्न कहाँ से आया? अधिक संभव यही प्रतीत होता है कि धर्मपाल ने ध्रुव प्रथम के अभियान का स्वरूप देखकर गोविन्द तृतीय के समक्ष बिना धन-जन की हानि किये आत्मसमर्पण करना ही श्रेयस्कर समझा।
गोविन्द तृतीय के उत्तरी अभियान की तिथि भी पूर्ण विवादास्पद है। जुलाई, 808 ई. राधनपुर पत्र में गुर्जरों की पराजय का विवरण है किन्तु 807-808 ई. के वानि डिंडोरी लेख में इसका संकेत नहीं है। इसी आधार पर फ्लीट, आर.सी. मजूमदार, आर. एस.त्रिपाठी तथा बी.सी. सेन प्रभृति विद्वानों ने उस अभियान की तिथि 807-808 ई. के मध्य स्वीकार किया है। अल्तेकर ने 806-807 ई. के मध्य इस तिथि को निर्धारित करने का प्रयास किया है। क्योंकि 804 ई.तक इसने काँची पर विजय किया होगा तथा 808-809 ई. के वानि-डिंडोरी लेख में गुर्जरों की पराजय का विवरण है। किन्तु बी.पी. सिन्हा तथा मिराशी ने इसे और भी पहले निर्धारित करने का प्रयास किया है। 802 ई. के मन्ने पत्रों की सत्यता पर विचार करते हुए मिराशी ने यह सुझाव दिया है कि इस समय तक गोविन्द तृतीय की समस्त विजय पूर्ण हो चुकी थीं। अन्य अनेक प्रमाणों के आधार पर बी.पी. सिन्हा ने 799-801 ई. के मध्य इस अभियान की तिथि स्वीकार किया है।
गोविन्द तृतीय का उत्तर भारतीय अभियान शौर्य प्रदर्शनार्थ दिग्विजय स्वरूप था। उत्तर के शासकों ने इसका प्रभुत्व अवश्य स्वीकार किया किन्तु साम्राज्य सीमा में कोई वृद्धि न हुई। मध्य भारत के भी किसी क्षेत्र को इसने अधिकृत नहीं किया। मात्र मालवा को अपने प्रत्यक्ष शासन में रखा।
799 या 800 ई. के लगभग उत्तरी अभियान से मुक्त होकर वह पश्चिम की ओर बढ़ा। सज्जन पत्रों के अनुसार श्री भवन अर्थात् भड़ौच जिले के आधुनिक सर्भाेन के शासक शर्व को जब अपने गुप्तचरों से यह ज्ञात हुआ कि विन्ध्य पर्वत को पार करता हुआ गोविन्द तृतीय उसके क्षेत्र में प्रवेश कर रहा है तो बहुमूल्य उपहारों के साथ उसने गोविन्द का भव्य स्वागत किया। वर्षा ऋतु के कारण गोविन्द तृतीय को वहाँ अधिक दिनों तक ठहरना पड़ा। उसी समय इसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी अमोघवर्ष प्रथम का जन्म हुआ।
द्रविड़ शासकों के विद्रोह का दमन- उपर्युक्त अभियानों के कारण गोविन्द तृतीय राष्ट्रकूट राजधानी से अधिक समय तक अनुपस्थित रहा। उसकी अनुपस्थिति से लाभ उठा कर दक्षिण के अनेक सामन्तों ने अपनी स्वाधीनता घोषित करने का प्रयास किया। सज्जन पत्रों के अनुसार द्रविड़ नरेशों ने एक संघ बना कर गोविन्द तृतीय को अपदस्थ करने का षड्यंत्र तैयार कर रहे थे। इसीलिए गोविन्द सीधे दक्षिण की ओर बढ़ा तथा गंगवाड़ी, केरल, पाण्ड्य, चोल तथा काँची के सम्मिलित संघ को विघटित किया, सभी सदस्यों को पराजित किया। गंग सेना की अधिक क्षति हुई। काँची पुनरधिगत हुई। चोल एवं पाण्ड्य देश को रौंद डाला। इस भयंकर आक्रमण से भयभीत सिंहल नरेश ने अपनी तथा अपने मंत्री की अधीनता सूचक प्रतिमाएँ बनवाकर गोविन्द को उस समय समर्पित किया जब वह काँची में ठहरा हुआ था। गोविन्द ने अपनी राजधानी में शिव मंदिर के समक्ष उन्हें विजय-स्तंभ के रूप में स्थापित करा दिया।
इस प्रकार 802 ई. तक गोविन्द तृतीय समस्त भारत के सर्वश्रेष्ठ शासक के रूप में स्थिर हुआ। इसने पालों, प्रतिहारों, गंगों, चोलों, चालुक्यों, पाण्ड्यों तथा पल्लवों को पराजित कर हिमालय से लेकर कुमारी अन्तरीप तक राष्ट्रकूट शक्ति की प्रतिष्ठा स्थापित की। इसके पूर्व या पश्चात् किसी राष्ट्रकूट शासक ने साम्राज्य को इस प्रकार से विस्तृत नहीं किया था। इन्द्र तृतीय ने कन्नौज तक तथा कृष्णा तृतीय ने सम्पूर्ण दक्षिण भारत में विजय प्राप्त की थी किन्तु इन शासकों की सफलताएँ एक देशीय रहीं। इन्द्र तृतीय दक्षिण में असफल रहा तो कृष्ण तृतीय उत्तर की ओर न बढ़ सका था। गोविन्द तृतीय की शक्ति यहाँ तक बढ़ी हुई थी कि सिंहल नरेश ने भी भयभीत होकर बिना किसी संघर्ष के उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। राष्ट्रकूट लेखों में कृष्ण या अर्जुन से जो तुलना की गई है उसे मात्र प्रशस्ति नहीं कह सकते, वरन् सत्यता के धरातल पर ये उपमाएँ खरी निकलती हैं। गोविन्द की ये समग्र सफलताएँ उसकी वीरता, राजनीतिक दूरदर्शिता एवं सैनिक योग्यता के परिणाम हैं। सिकन्दर की भाँति शत्रु की शक्ति को तुच्छ समझते हुए इसने सदैव आक्रमण किया तथा विजयश्री ने इसी का वरण किया। इस प्रकार गोविन्द तृतीय निस्सन्देह राष्ट्रकूट राजवंश का योग्यतम शासक प्रमाणित होता है जो 814 ई. के लगभग दिवंगत हुआ।
अमोघवर्ष प्रथम ‘ शर्व ’ (814-880ई.)
गोविन्द तृतीय के पश्चात् उसका अल्पवयस्क पुत्र अमोघवर्ष प्रथम 814 ई. के लगभग राष्ट्रकूट राजपीठ पर आसीन हुआ। इसे नृपत्तुंग, रट्टमार्तण्ड, वीरनारायण तथा असितधवल इत्यादि की उपाधियों से विभूषित किया गया है। राष्ट्रकूटों की वल्लभ या पृथ्वीवल्लभ उपाधियाँ भी उसे प्रदान की गई हैं। प्रारंभ में डॉ. अल्तेकर की यह धारणा थी इसका जन्म 808 ई. में हुआ था और इसका सिंहासनारोहण छः वर्ष की अवस्था में सम्पन्न हुआ किन्तु बाद में उन्होंने अपने मत में संशोधन करते हुए इसका जन्म काल 800 ई. तथा सिंहासनारोहण १३-१४ वर्ष की अवस्था में स्वीकार किया है।
प्रारंभिक कठिनाइयाँ- अमोघवर्ष प्रथम की अल्पवयस्कता के कारण गोविन्द तृतीय ने उसकी सुरक्षा के लिए समिति का निर्माण किया था जिसका मुख्य संरक्षक इन्द्र का पुत्र कर्क सुवर्णवर्ष था। 816 ई. के कर्क के नौसारी दानपत्र से ज्ञात होता है कि दो वर्षों तक उसका शासनकाल शांतिमय रहा। किन्तु शीघ्र ही आपत्ति मंडराने लगे। बालक को सिंहासन पर देखकर अनेक व्यक्तियों के हृदय में साम्राज्यिक पद की आकांक्षाएँ उत्पन्न होने लगीं। सामन्तों एवं मंत्रियों ने आज्ञा की अवहेलना करना प्रारंभ कर दिया। गंग शासक ने अपनी स्वाधीनता की घोषणा कर शत्रुओं को शरण दिया। आज्ञाकारी अधिकारियों की हत्याएँ की गईं। मानव जीवन एकदम अस्त-व्यस्त हो गया तथा अमोघवर्ष प्रथम को सिंहासन का परित्याग करना पड़ा। अमोघवर्ष के सज्जन पत्रों, कृष्ण द्वितीय के कायडवानी पत्र तथा कर्क के सूरत पत्रों से ज्ञात होता है किकर्क पातालमल्ल ने समस्त विरोधों का दमन कर अमोघवर्ष प्रथम को पुनः सिंहासन पर अधिष्ठित किया। इस घटना की तिथि 816 एवं 821 ई. के मध्य निर्धारित की जा सकती है क्योंकि 816 ई. के नौसारी दान पत्र में संघर्ष का कोई संकेत नहीं है किन्तु 821 के सूरत पत्रों में अमोघवर्ष प्रथम के पुनः सिंहासनारूढ़ होने का उल्लेख है।
इस विद्रोह के कारण एवं स्वरूप पर विचार किया जाय तो यह ज्ञात होता है कि अमोघवर्ष प्रथम का कोई भाई नहीं था जो विरोध करे। इसके चचेरे भाई अवश्य थे। एक चचेरा भाई कर्क इसका संरक्षक ही था जो सदैव इसकी रक्षा करता रहा। इसका दूसरा चचेरा भाई शंकरगण था जो स्तंभ का पुत्र था। यह गंग प्रशासन से वंचित था। गोविन्द तृतीय का ज्येष्ठ भ्राता का पुत्र होने के कारण मंत्रियों ने उसे भी सिंहासन के लिए प्रोत्साहित किया होगा। संभवतः मान्यखेत में ही कोई ऐसा वर्ग था जो गुजरात शाखा के कर्क के संरक्षण का विरोध कर रहा था। समकालीन वेंगी नरेश विजयादित्य द्वितीय ने भी अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए विद्रोहियों का साथ दिया होगा। वेंगी के चालुक्य शासक अम्म प्रथम के ईदर दान पत्र से विजयादित्य द्वितीय के शासन काल के द्वादश वर्षीय संघर्ष का विवरण प्राप्त होता है। रट्टों को 108 बार पराजित किए। इन्द्र तृतीय के बेग्रुमा दान पत्र से ज्ञात होता है चालुक्य समुद्र में डूबी हुई राष्ट्रकूट लक्ष्मी का अमोघवर्ष प्रथम ने उद्धार किया था। इससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि क्रांति के उत्तरार्द्ध में विजयादित्य द्वितीय ने उसका नेतृत्व किया। जब उसे सफलताएँ उपलब्ध होने लगी तो अन्य विरोधियों ने भी उसका समर्थन किया। इससे बाध्य होकर अमोघवर्ष प्रथम को पलायित होना पड़ा।
वेंगी के चालुक्यों से संघर्ष- 821 ई. तक कर्क पातालमल्ल ने समस्त विरोधी परिस्थितियों को नियंत्रित कर अमोघवर्ष प्रथम को सिंहासन पर अधिष्ठित किया। सिंहासन सुरक्षित करने के बाद वेंगी के चालुक्यों की ओर ध्यान दिया। परवर्ती राष्ट्रकूट लेखों से ज्ञात होता है कि अमोघवर्ष प्रथम ने विङ्गवल्ली के युद्ध में चालुक्यों को पराजित कर यम को राजसी भोज दिया था। चालुक्यों को भस्मीभूत करने के बाद ही इसकी क्रोधाग्नि शांत हुई। सिरूर पत्रों में इसे वेंगी नरेश द्वारा पूजित कहा गया है। अमोघवर्ष का समकालीन वेंगी नरेश विजयादित्य द्वितीय ही ज्ञात होता है जो अपने अपने शासनकाल के अंतिम दिनों में पराजित हुआ होगा।
वेंगी पर अमोघवर्ष प्रथम का अधिकार स्थायी न रह सका। वेंगी नरेश विजयादित्य तृतीय के सेनापति पाण्डुरंग ने 845-46 ई. में अमोघवर्ष प्रथम से वेंगी को वापस ले लिया। अमोघवर्ष प्रथम इस समय गुजरात की राष्ट्रकूट शाखा से संघर्षरत था, अतएव वेंगी की ओर पूर्ण ध्यान न दे सका। पाण्डुरंग ने राष्ट्रकूट सीमा का अतिक्रमण करना उचित न समझा। अमोघवर्ष प्रथम के काल में पुनः वेंगी से संघर्ष ज्ञात नहीं होता।
गंगों से संघर्ष- गंगवाड़ी के शासक सदैव राष्ट्रकूटों से संत्रस्त रहे। शिवमार द्वितीय ने 816 ई. के लगभग अमोघवर्ष के विरुद्ध क्रांति में भाग लिया किन्तु राष्ट्रकूट सेनापति द्वारा तुकूर जिले में केगिमोगेयुर युद्ध में मारा गया। शिवमार के पश्चात् उसके भतीजे राजमल्ल अपने देश का राष्ट्रकूटों से उसी प्रकार उद्धार किया जिस प्रकार विष्णु ने बाराह रूप में पृथ्वी का उद्धार किया था। दक्षिण गंगवाड़ी को उसने स्वाधीन कर लिया किन्तु उत्तरी गंगवाड़ी पर राष्ट्रकूट सेनापति वंकेय का अधिकार बना हुआ था। वंकेय ने कावेरी तक राजमल्ल को पराजित किया। इसी समय अमोघवर्ष प्रथम ने वंकेय को किसी क्रांति के शमनार्थ वापस बुला लिया। राजमल्ल ने इससे लाभ उठा कर पुनः अधिकांश गंगवाड़ी को अधिकृत कर लिया। इन घटनाओं को 830-835 ई. के मध्य रखा जा सकता है। अमोघवर्ष द्वारा पुनः किसी अभियान का कोई संकेत नही प्राप्त होता। 850 ई. के लगभग इसने अपनी पुत्री चन्द्रोवेलब्बा (चन्द्रवल्लभा) का विवाह राजमल्ल प्रथम के पौत्र बूतूग के साथ किया जिससे दोनों वंशों में मधुर सम्बंधों की स्थापना हुई।
लगभग 830 ई. तक अमोघवर्ष प्रथम चालुक्यों तथा गंगों से मुक्त हो गया था किन्तु दुर्भाग्यवश इसे शांतिमय जीवन व्यतीत करने का अवसर न प्राप्त हुआ। गुजरात की राष्ट्रकूट शाखा के साथ एक दीर्घकालीन संघर्ष प्रारंभ हुआ जो लगभग 25 वर्षों तक चलता रहा।
लाट की राष्ट्रकूट शाखा से सम्बंध- दक्षिणी गुजरात में इन्द्र गोविन्द तृतीय द्वारा शासक नियुक्त हुआ। इन्द्र की मृत्यु के बाद उसका पुत्र कर्क सुवर्णवर्ष अमोघवर्ष के संरक्षक के रूप में सदैव सहायता करता रहा। इसका अनुज गोविन्द इसकी अनुपस्थिति में गुजरात पर शासन कर रहा था। इस मत में विश्वास नहीं किया जा सकता कि गोविन्द ने अपने भाई कर्क के विरुद्ध विद्रोह कर गुजरात के शासक को हड़प लिया हो। 830 ई. के लगभग कर्क के पश्चात् उसका पुत्र ध्रुव उत्तराधिकारी हुआ जो 835 ई. तक अमोघवर्ष प्रथम का विश्वासपात्र बना रहा। इसी तिथि के बाद गुजरात शाखा के राष्ट्रकूटों का वल्लभ नामक शासक के साथ संघर्ष प्रारंभ हुआ जो कई पीढ़ियों तक चलता रहा।ध्रुव प्रथम इसी संघर्ष में दिवंगत हुआ। ध्रुव के पुत्र अकालवर्ष ने अथक प्रयास के बाद सिंहासन को प्राप्त किया किन्तु इसकी विजय निर्णायक न रही क्योकि अकालवर्ष के पुत्र ध्रुव द्वितीय ने भी इस संघर्ष को जारी रखा। इसे एक ओर गुर्जर सेना तथा दूसरी ओर वल्लभ सेना का मुकाबला करना पड़ा। इसके एक भाई ने शत्रु का साथ दिया। दूसरा भाई गोविन्द इसका सहयोग कर रहा था। 867 ई. तक आपत्तियों का तूफान अस्त हुआ तथा आसन पर सुदृढता से आसीन हुआ।
दुर्भाग्य से किसी समकालीन लेख में ‘ वल्लभ ’ का व्यक्तिगत नाम नहीं ज्ञात होता है। ऐसा शासक मात्र अमोघवर्ष प्रथम ही ज्ञात होता है जो गुजरात के राष्ट्रकूटों की तीन पीढ़ियों का समकालीन रहा हो। राष्ट्रकूटों की ‘ पृथ्वीवल्लभ ’ की उपाधि बहुत ही लोकप्रिय रही है। इसे कभी-कभी मात्र वल्लभ ही कहा गया है। यह प्रतिहार राजा भोज प्रथम भी नहीं हो सकता क्योंकि उसने वल्लभ की उपाधि धारण नहीं की थी। साथ ही ध्रुव द्वितीय भोज प्रथम एवं वल्लभ नामक दो शासकों से दो सीमाओं पर संघर्ष किया था। अतएव वल्लभ भोज प्रथम नहीं हो सकता। कन्नूर लेख के अनुसार अमोघवर्ष प्रथम ने अपने सम्बंधी सामंत के विद्रोह को दबाने के लिए बंकेय को गंगवाड़ी से बुलाया था। यह विद्रोह गुजरात के राष्ट्रकूटों का ही प्रतीत होता है।
प्रतिहारों से संघर्ष- ऐसा संभाव्य है कि 835 ई. के बाद अमोघवर्ष प्रथम एवं गुजरात के चचेरे भाइयों के मध्य मैत्री सम्बन्ध किन्हीं कारणों से समाप्त हो गया, या तो अमोघवर्ष प्रथम ही कृतघ्न निकला हो अथवा ध्रुव प्रथम ही अपने पिता कर्क द्वारा अमोघवर्ष प्रथम की सुरक्षा की भावना से अहंकारी हो गया हो तथा मुख्य राष्ट्रकूट शाखा के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी हो। ध्रुव प्रथम युद्ध में मारा गया; तदुपरांत उसका पुत्र अकालवर्ष किसी तरह सिंहासन को सुरक्षित कर युद्ध जारी रखा। इसी समय 850 ई. के लगभग अमोघवर्ष प्रथम ने अपने विश्वासपात्र सेनापति को गंगवाड़ी से वापस बुलाया। इस समय तक अकालवर्ष की मृत्यु हो चुकी थी तब उसका पुत्र ध्रुव द्वितीय उत्तराधिकारी हुआ था। 860 ई. के लगभग दोनों शाखाओं में बाध्य होकर शांति स्थापना हुई क्योंकि दोनों ही प्रतिहार मिहिरभोज से भयभीत थे। ध्रुव द्वितीय दोनों का दो सीमाओं पर सामना करने में असमर्थ रहा तथा अमोघवर्ष प्रथम की सेवाओं को ग्रहण करने के लिए बाध्य हुआ। ध्रुव द्वितीय को 867 ई. में भोज का विजेता कहा गया है। इस सम्बन्ध में यह कहना अत्युक्ति न होगी कि ध्रुव द्वितीय अकेले भोज प्रथम के समक्ष नगण्य था। भोज प्रथम की वास्तविक शत्रुता अमोघवर्ष प्रथम से थी। अमोघवर्ष की सहायता से ही ध्रुव द्वितीय को किंचित नाममात्र की सफलताएँ उपलब्ध हुई होंगी। भोज प्रथम उत्तरी गुजरात एवं काठियावाड़ को अधिकृत कर संतुष्ट रहा होगा और पुनः अमोघवर्ष प्रथम के काल में राष्ट्रकूट-प्रतिहार संघर्ष का कोई संकेत नहीं प्राप्त होता है।
परबल के पठारी स्तंभ लेख से मालवा में एक राष्ट्रकूट परिवार का ज्ञान प्राप्त होता है। इस लेख के अनुसार जेज्ज के बड़े भाई तथा परबल के पितामह ने कर्णाट सेना को पराजित कर लाट को जीता था। परबल के पिता कर्कराज ने नामावलोक को पराजित किया था। जेज्ज या उसके बड़े भाई की समता स्थिर नहीं हो पाई है। यह भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि लाट का राष्ट्रकूट शाखा के साथ इनका संघर्ष प्रारंभ हआ हो। डॉ. भण्डारकर की धारणा है कि जेज्ज गोविन्द तृतीय का छोटा भाई रहा होगा। नामावलोक की समता प्रतिहार नागभट्ट द्वितीय से की गई है। किसी प्रकार दक्षिण गुजरात की राष्ट्रकूटों से इनमें वैमनस्य की बात प्रमाणित नहीं होती है।
पालों से सम्बंध- अमोघवर्ष एवं पालों के सम्बंध में भी कोई निर्णायक तथ्य ज्ञात नहीं होता है। सिरूर लेख के अनुसार इसे अंग, वंग एवं मगध का विजेता कहा गया है। नारायण पाल के बादल स्तंभ लेख में पालों द्वारा द्रविड़ों के पराजय का उल्लेख है। डॉ. अल्तेकर इसे नारायण पाल मानते हैं तथा द्रविड़ का तात्पर्य राष्ट्रकूट अमोघवर्ष प्रथम से लेते हैं। डॉ. बी. पी. सिन्हा उसे देवपाल के काल का वितरण मानते हुए काँची तक विजय का समर्थन मुंगेर दानपत्रों के आधार पर करते हैं। डा0 एच0 सी0 रायचैधरी द्रविड़ों को राष्ट्रकूटों से भिन्न मानते हैं क्यांेकि राष्ट्रकूट गोविन्द तृतीय को भी द्रविड़ों का विजेता कहा गया है। उनके अनुसार द्रविड़ का तात्पर्य पाण्ड्यों से है। डॉ. बी. पी. सिन्हा ने मुंगेर पत्र के विवरण के आधार पर इन्हें पल्लव बतलाया है।
पाल एवं राष्ट्रकूट लेखों के सम्यक् अध्ययन से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि देवपाल के शासन-काल में विन्ध्य क्षेत्र से पालों ने राष्ट्रकूटों पर आक्रमण किया होगा जिसका कुछ संकेत मुंगेर पत्र से प्राप्त होता है। अमोघवर्ष की दुर्बलता से वह लाभान्वित भी हुआ होगा। नारायण पाल के शासनकाल में अमोघवर्ष प्रथम ने कलिंग होते हुए उत्तर की ओर अभियान किया होगा किन्तु कोई विशिष्ट सफलता न प्राप्त हुई होगी। नारायण पाल तथा अमोघवर्ष प्रथम दोनों ही विपत्तिग्रस्त रहे, सीमावर्ती संघर्ष हुए होंगे किन्तु किसी को भी निर्णायक सफलता न प्राप्त हुई होगी।
इस प्रकार अमोघवर्ष प्रथम का शासनकाल राजनीतिक दृष्टिकोण से सफल नहीं कहा जा सकता। इसे मालवा, वेंगी तथा गंगवाड़ी से हाथ धोना पड़ा। गुजरात के राष्ट्रकूटों जैसे लघु सामन्तों ने भी उसे बीस वर्षों तक चैन न लेने दिया। उसमें वह शक्ति न थी कि उत्तर में पालों एवं प्रतिहारों को आक्रांत कर सके।
प्रशासक की अपेक्षा विद्वता के क्षेत्र में अमोघवर्ष प्रथम अधिक महत्व रखता है। शासन के उत्तरार्द्ध में जैनधर्म के प्रति इसके झुकाव से सैनिक योग्यता में अवश्य ही न्यूनता आई होगी। प्रमुख कन्नड़ काव्य ‘ कविराजमार्ग ’ का या तो यह रचयिता रहा होगा या उत्प्रेरक। ‘आदिपुराण ’ के लेखक जिनसेन उसके धार्मिक गुरु थे। महावीराचार्य ने अपने ‘ गणित सारसंग्रह ’ में उसे जैनधर्म का समर्थक बतलाया है। किन्तु अन्य धर्मों में भी इसकी प्रगाढ़ निष्ठा थी। सज्जन पत्रों के अनुसार एक बार प्रजा को कष्टमुक्त करने के लिए इसने अपने वामहस्त की एक उँगली महालक्ष्मी को समर्पित कर दिया था। भट्टअकलंक ने ‘ कर्णाटकशब्दानुशासनम ’ में अमोघवर्ष की तुलना शिवि एवं दधीचि से किया है।
अमोघवर्ष प्रथम हिन्दू परम्परा का अनुसरण करते हुए संन्यास की ओर भी उन्मुख हुआ था। 860 ई. के पश्चात् इसने साम्राज्य में शान्तिस्थापना कर अनेक बार आध्यात्मिक चिंतन के लिए सिंहासन छोड़ा था। इसकी अनुपस्थिति में उसका पुत्र कृष्ण द्वितीय शासन भार सम्हालता रहा। यही कारण है कि पिता-पुत्र की तिथियों में अनेकधा अतिक्रमण प्राप्त होते है।
अमोघवर्ष प्रथम के शासन काल की अन्तिम तिथि मार्च, 878 ई. तथा कृष्ण द्वितीय की प्रथम तिथि 883 ई. है। 878 ई. में अमोघवर्ष की अवस्था लगभग 78 वर्ष की थी इसलिए 880 ई. कृष्ण द्वितीय के सिंहासनारोहण की तिथि स्वीकार कर सकते है।
अमोघवर्ष को दो पुत्रियों तथा एक पुत्र का ज्ञान प्राप्त होता है। रेवकनीम्मडी सबसे बड़ी थी, जो एक गंग राजकुमार से विवाहित थी तथा रायचुर दोआब में शासन सम्हाल रही थी। चन्द्रोवेलम्बा सबसे छोटी थी जिसका विवाह एक अन्य गंग राजकुमार गुणदत्तरंग बूतुग के साथ हुआ था।