कल्याणी का चालुक्य युगीन संस्कृति: भाग-1(Kalyani’s Chalukya era culture: Part-1)
इतिहास के वातायन से अतीत का मूल्यांकन करना सहज कार्य नहीं है, विशेष कर जब ऐतिहासिक लिपियों, साक्ष्यों और चरित्रों की प्रामाणिकता का कोई ठोस आधार न हो। प्रत्येक देश में सामाजिक संगठन, विभाजन एवं स्तरीकरण का रूप उसकी अपनी भौगोलिक परिस्थितियों, जीवन की आवश्यकताओं, सांस्कृतिक परम्पराओं और ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया की अपनी विशेषतायें हैं। दक्षिणापथ का तात्पर्य उस भू-क्षेत्र से है, जो उत्तर में विन्ध्य पर्वत के दक्षिण पूर्वी सागर से लेकर पश्चिमी सागर पर्यन्त तथा दक्षिण में हिन्द महासागर तक विस्तृत था। दक्षिणापथ के उदीयमान राजवंशों में चालुक्य वंश का महत्वपूर्ण स्थान था। चालुक्यों की गतिविधयों को समझने के लिए तत्कालीन दक्षिण भारत के इतिहास को भली-भाँति जानना आवश्यक है क्योंकि न केवल राजनैतिक अपितु प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में भी चालुक्यों का उल्लेखनीय योगदान रहा है। चालुक्य वंश का अस्तित्व भारतीय इतिहास में दीर्घकालिक रहा। राष्ट्रकूट राजवंश के सुदीर्घ शासन अवधि के बाद दक्षिण भारत में कल्याणी के चालुक्यों नें अपने नवीन साम्राज्य की स्थापना की। अन्तिम राष्ट्रकूट कर्क द्वितीय को सत्ताच्युत कर तैलप द्वितीय ने जिस नवीन राजवंश की स्थापना की, वह कल्याणी के चालुक्य राजवंश के नाम से प्राचीन भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध हुआ। इस राजवंश को ही परवर्ती चालुक्य या पश्चिमी चालुक्य भी कहा जाता है। चालुक्य वंश के अध्ययन के लिए साहित्यिक साक्ष्यों एवं अभिलेखीय साक्ष्यों से जानकारी मिलती है। साहित्यिक ग्रन्थों में कश्मीरी कवि बिल्हण की रचना ‘विक्रमांकदेव चरित’ एवं कन्कड कवि रन्न कृत ‘गदायुद्ध’ विशेष महत्वूर्ण हैं। कवि बिल्हण कल्याणी के चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ के दरवारी कवि थे। जिन्हें विक्रमादित्य षष्ठ ने ‘विद्यापति’ की उपाधि प्रदान की थी। विक्रमांकदेवचरित में चालुक्य वंश की उत्पत्ति से लेकर विक्रमादित्य षष्ठ के राजा बनने, विवाह, विक्रमपुर नगर की स्थापना, विजयें आदि का विवरण इसमें सविस्तार मिलता है। गदायुद्ध से हमें तत्कालीन सामाजिक- सांस्कृतिक गतिविधयों की पर्याप्त जानकारी मिलती है। इसके अतिरिक्त विज्ञानेश्वर की मिताक्षरा से हमें विशेष ज्ञान प्राप्त होता है। अभिलेखीय साक्ष्यों से भी हमें महत्वपूर्ण सूचना मिलती है।
शासन पद्धतिः
चालुक्य राजवंश का अस्तित्व सुदीर्घ अवधि तक प्राचीन भारतीय इतिहास में बना रहा। भारत के विभिन्न प्रदेशों में इनकी अनेक शाखायें अपना शासन-प्रशासन चलाती थीं। जिसके कारण इनके राजनीतिक एवं प्रशासनिक संगठन भी भिन्न-भिन्न रहा। यहाँ हमारे अध्ययन का विषय कल्याणी के चालुक्य वंश की प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों की जानकारी प्राप्त करना है। प्रारम्भिक चालुक्यों का प्रशासन गुप्त-वाकाटकों का परवर्ती होने के कारण बहुत कुछ उनकी प्रशासनिक व्यवस्था से प्रभावित रहा। एक विस्तृत भू-भाग में फैले होने के कारण जिसमें विभिन्न बोली और भाषा वाले व्यक्ति रहते थे। जिनका प्रशासन के स्थानीय नियमों और नामों में काफी प्रभाव था। चालुक्यों की कोई अपनी शासन पद्धति नहीं थी, ऐसा साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्यों से ज्ञात होता है। इस राजवंश के शासक निरन्तर युद्ध एवं साम्राज्य विस्तार में के कारण लड़ाईयों में ही व्यतीत हुआ, जिससे इन्हें प्रशासनिक संगठन में बदलाव करने का अवसर नहीं मिला। अतः चालुक्यों का प्रशासन परम्परा, प्रयोग और विवके अर्थात् धर्मशास्त्रों के अनुसार चलता था। तत्कालीन अभिलेखों से राजतंत्र एवं प्रशासन पर कुछ प्रकाश पड़ता है।
राजाः
मानवीय संस्कृति की चार मुख्य प्रवृत्ति-धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष है। इनके प्रवर्तन के लिए समाज में समुचित वातावरण का होना आवश्यक है। इसके लिए समाज का संघटन करने का उत्तरदायित्व सदैव राजा एवं उच्चकोटि के विचारकों तथा आचार्यों पर रहा है। विचारक और आचार्य समाज की सुदृढ़ व्यवस्था के लिए योजनायें बनाते आये हैं और राजा उन योजनाओं को कार्य-रूप में परिणत कराने के लिए सूत्रधार रहा है। समाज-संघटन की योजना के अन्तर्गत राजा और प्रजा का जो सम्बन्ध स्थापित होता है, वह राजनीतिक जीवन का प्रथम रूप है।
चालुक्यों के प्रारम्भिक लेखों से उनके पूर्वजों का कोई ज्ञान नहीं होता किन्तु परवर्ती लेखों में बादामी की मुख्य शाखा से सम्बद्ध करने का प्रयास किया गया है। दक्षिण भारत के इतिहास में कल्याणी के चालुक्य शासक साम्राज्य निर्माता के साथ- साथ संस्कृति के महान् उन्नायक थे। इनके शासनावधि में साहित्य, कला और प्रशासन के क्षेत्र में महती प्रगति हुई। चालुक्यों एवं उनके समकालीन राज्यों में राजा शासन सम्बन्धी गाड़ी की धुरी के समान था। चालुक्यों का प्रशासन एकतंत्रात्मक था। राजा शासन का सर्वोच्च अधिकारी होता था। वही सेना, शासन एवं न्याय तीनों का प्रमुख था। सैनिक क्षेत्र में वह बडे़-बड़े युद्ध का नेतृत्व करता था। असीमित शक्तियों से युक्त राजा निरकुंश नहीं था। कल्याणी के चालुक्य शासक राज्य के अधिकारियों एवं सामन्तों को उपाधियों का वितरण करता था। चालुक्य राजवंश का राजकीय चिन्ह देवी कात्यायनी द्वारा प्रदत्त ‘मयूरध्वज’ था तथा मुद्राओं पर ‘वराह’ का चिन्ह अंकित होता था। अभिलेखों में मंगलाचरण के रूप में एक छन्द में वराह रूप में विष्णु द्वारा धरती के उद्धार करने का विवरण मिलता है। इसमें कहा गया है कि भगवान विष्णु ने वराह रूप में धरती का उद्धार किया, उसी प्रकार ये अर्थात् चालुक्य भी पृथ्वी की रक्षा के लिए प्रकट हुए हैं। कौथेम ताम्रपट्ट अभिलेख में ‘सर्ववर्णधरम् धनुः’ मिलता है, जो चालुक्य नरेश इरिव-बेदंग सत्याश्रय के धनुष के बारे में कहा गया है। जिसका तात्पर्य है कि वह धनुष जो सभी वर्णों की समान रूप से रक्षा करता है एवं यह धनुष इन्द्रधनुष की तरह सभी रंग धारण करता है। चालुक्य शासक समस्तभुवनाश्रय, सर्वलोकाश्रय, विष्णुवर्धन और विजयादित्य जैसी उपाधियाँ अपनी विशेषनाम् (विशिष्टिता) के संदर्भ में धारण करते थे। कई शासको ने त्रिभुवनमल्ल, त्रैलोक्यमल्ल और आहवमल्ल का विरूद धारण किया था।
इस समय राजा का पद प्रायः आनुवंशिक होता था। जब तक कोई विशेष परिस्थिति न आ जाय तब तक राजा का बडा़ पुत्र ही उसका उत्तराधिकारी होता था। अनेक पुत्रों की स्थिति में बडे़ पुत्र को ही राजा का पद मिलता था। कभी-कभी योग्यता को भी आधार मानकर शासक का चयन कर लिया जाता था। जैसे सोमेश्वर प्रथम ने अपने बडे़ पुत्र सोमेश्वर द्वितीय के स्थान पर अपने छोटे पुत्र विक्रमादित्य षष्ठ को अपना उत्तराधिकारी बनाने का प्रस्ताव रखा था। यद्यपि विक्रमादित्य षष्ठ ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। कभी-कभी राजा के पुत्र हीन की स्थिति में राजा के अनुज को उत्तराधिकारी बनाया जाता था। जैसे जगदेकमल्ल के निःसंतान होने की स्थिति में तैलप तृतीय ने सिंहासन प्राप्त किया था। कल्याणी के राजाओं का राज्याभिषेक ‘किसुबोलल’ (पट्टदकल, बीजापुर) में होता था। अभिलेखों में इसे ‘समस्त नगरों में श्रेष्ठ एवं समस्त भुवनाश्रय श्रीपृथिवीबल्लभों का महवीर सिंहासन’ कहा गया है।
सम्राट में व्यक्तिगत योग्यता, सतत् प्रयत्नशीलता, महान् एवं सरल व्यक्तित्व और उत्साही जैसे गुणों का होना आवश्यक था। चालुक्य अभिलेखों में शासकों की जागरूकता, प्रयत्नशीलता और कत्र्तव्यनिष्ठा का परिचय मिलता है। राजा की दिनचर्या काफी कठिन होती थी। प्रतिदिन राजदरबार में बैठना, फरियादों को सुनना, भूमिदानों से संबन्धित राजाज्ञा जारी करना, अधिकारियों, नौकरशाहों से शासकीय विचार विमर्श करना, दूतों के संदेशों को सुनना, अनेक प्रकार की आज्ञायें (श्रीमुख का आदेश), विश्वस्त लोगों (आप्तपुरूष), और गुप्तचरों से विचार विमर्श करना आदि उसके नैमित्तिक कार्य थे। राजा अपने कत्र्तव्यों का पालन करते समय अपने पुरोहितों या धर्माचार्यों से परामर्श लेकर तत्कालीन प्रचलित सामाजिक एवं धार्मिक मान्यताओं का प्रजा से अनुपालन करा सकता था। चालुक्य शासक आर्थिक संघों, जनपद और समाज के द्वारा परम्परागत मान्य नियमों के अनुसार ही किसी विवादित प्रश्न पर निर्णय सुनाने पड़ते थे। चालुक्य अभिलेखों में राजगुरू नामक पुराहित का उल्लेख बार-बार हुआ है। प्रायः शैव ब्राहमण ही इस पद को धारण करता था।
युवराज-
चालुक्य युगीन प्रशासन के अन्तर्गत युवराज का पद बहुत ही महत्वपूर्ण होता था। प्रायः राजा अपने रहते ही युवराज का चयन कर लेता था। प्रायः विधान यह था कि ज्येष्ठ पुत्र को ही युवराज के पद पर प्रतिष्ठित किया जाता था। यदि राजा का कोई पुत्र न हो तो ऐसी स्थिति में किसी योग्य व्यक्ति को ,जो विश्वासपात्र हो, युवराज बनाया जाता था। युवराज पद की नियुक्ति के अवसर पर युवराज को राजकीय प्रतीक के रूप में एक ‘कण्ठिका’ (माला) पहनायी जाती थी। युवराज के रूप में राजा उसे किसी क्षेत्र का प्रशासक बना देता था।
युवराज अथवा राजपरिवार के सदस्यों की शिक्षा-दीक्षा के बारे में किसी निश्चित नियम या व्यवस्था की जानकारी हमें नहीं मिलती है। ऐसा प्रतीत होता है कि सब कुछ परम्परा के अनुसार चलता था। बिल्हण की रचना ‘विक्रमांकदेवचरित’ से इस पर कुछ प्रकाश पड़ता है। बिल्हण के अनुसार सोमेश्वर को वेद, आगम एवं इतिहास आदि का ज्ञान था। उसे सभी लिपियों का ज्ञान था और वह एक कुशल वक्ता भी था। इससे ज्ञात होता है कि युवराजों को शस्त्र आदि के साथ-साथ विविध प्रकार की समुचित शिक्षा- दीक्षा की व्यवस्था किया जाता था। चालुक्य प्रशासन में राजपरिवार के सदस्यों विशेष कर महिलाओं की सहभागिता भी होती थी। अक्कादेवी विक्रमादित्य पंचम के शासन काल में किसुकाड प्रान्त का प्रशासन संचालित कर रही थी। सोमेश्वर के समय में अक्कादेवी मयूरवर्मदेव के साथ-साथ बनवासी की प्रशासिका बनीं। इससे स्पष्ट होता है कि चालुक्य प्रशासन में पुरूषों के साथ कभी-कभी महिलाओं की भी सहभागिता होती थी। अक्कादेवी एक प्रशासक के साथ-साथ एक महान योद्धा भी थी, क्योंकि उसे युद्धओं में भैरवी-तुल्य कहा गया है। इसी प्रकार मैलालदेवी, जो विक्रमादित्य षष्ठ की पुत्री थी, अपने पति जयकेशी द्वितीय के साथ गोवा का प्रशासन संभाल रही थी।
मंत्रि-परिषदः
कल्याणी के चालुक्यों का प्रशासन समीपवर्ती राज्यों की प्रशासनिक इकाइयों का सम्मिलित रूप ही चालुक्य प्रशासन का मूल तत्व था। इन्हीं के आधार मूल तत्वों पर इस काल की प्रशासनिक इकाइयों का अध्ययन किया जा सकता है। किसी भी राज्य को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए उसकी अपनी एक मंत्रिपरिषद का होना आवश्यक है। प्राचीन धर्मशास्त्रों में मंत्रिपरिषद की महत्ता को निरूपित किया गया है। कौटिल्य के अनुसार राजत्वपद सहायकों की सहायता से ही संभव है, केवल एक पहिया कार्यशील नहीं होता। अतः राजा को चाहिए कि वह योग्य मंत्रियों की नियुक्ति करे और उनकी सम्मतियां सुने। लेकिन चालुक्य अभिलेखों में ‘मंत्रि-परिषद’ शब्द का स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं मिलता है। साथ ही प्रधानमंत्री, प्रधान अमात्य, सचिव आदि शब्दों का अभाव दिखाई पड़ता है। राजा राज्य का सर्वोच्च होता था और सभी अधिकार इसमें निहित था। लेकिन प्रश्न उठता है कि इतने बड़े साम्राज्य का संचालन अकेले राजा कर सकता था, संभवतः इन्होंने शासन कार्य के सुचारू रूप से संचालित करने के लिए कुछ मंत्रियों एवं अधिकारियों की नियुक्ति कर रखी हो। प्राचीन धर्मशास्त्रों में मंत्र शक्ति को राज्य का बीज एवं मूल माना गया है। राजा से उसकी रक्षा की अपेक्षा की गयी है। ऐसा माना जाता था कि राजा को सदैव राज्य की तीन प्रमुख शक्तियों से पूर्ण होना चाहिए। ये शक्तियाँ हैं-1. प्रभु शक्ति, जो सेवा और राजकोष पर आधिपत्य होने से प्राप्त होती है, 2. मंत्र शक्ति, जो सच्ची मंत्रणा से मिलती है, 3. उत्साह शक्ति, जो व्यक्तिगत पराक्रम से मिलती है। सोमेश्वर प्रथम के एक लेख में एक मानवरगडे, दो तंत्रपाल, प्रधान, अडप, सेनबोला एवं अलिय नामक अधिकारियों का उल्लेख मिलता है। लेकिन यह कहना मुश्किल है कि ये मंत्रिपरिषद के सदस्य थे या नहीं। संभवतः चालुक्यों की अपनी मंत्रिपरिषद रही, जिसमें राजा और उसके नजदीकी सदस्य रहते रहे होगें और राजा उनसे समय-समय पर सलाह लेता रहा होगा।
प्रशासनिक अधिकारीः
कल्याणी के चालुक्यों का केन्द्रीय प्रशासन का स्वरूप काफी परिवर्तित हो चुका था। चालुक्य अभिलेखों में कई प्रशासनिक अधिकारियों एवं कर्मचारियों का वर्णन मिलता है। उनमें मानवरगड़े, भाणसवरगड़े(बानसवरगड़े), अन्तःपुराध्यक्ष या अन्तःपुराधिकारी, तंत्राध्यक्ष, सांधिग्रिहिक, तंत्रपाल, भाण्डारि, माणिक भाण्डारिग, धर्माधिकृत, श्रीकरणाधिकारी, सर्वाध्यक्ष, कडितवरगडे आदि प्रमुख हैं। मानवरगडे राजप्रासाद का प्रशासनिक अधिकारी था। इसे कंचुकी या संवादी भी कहा जाता था। भाणसवरगडे या बानसवरगडे चैके या पाकशाला का अधिकारी था। यह राजकीय परिवार के भोजन की व्यवस्था करने वाला व्यवस्थापक था। अन्तःपुराध्यक्ष प्रायः सैनिक पृष्ठभूमि के लोग नियुक्त होते थे। अनन्तपाल नामक सेनापति कई वर्षों तक षष्ठ विक्रमादित्य के समय कंचुकी और भाणसवरगड़े के पदों पर रह चुका था। सांधिविग्रहिक युद्ध और वैदेशिक सम्बन्धों का मंत्री था। मानसोल्लास में सांधिविग्रहिक में अनेक गुणों का होना आवश्यक बताया गया है, जैसे कई भाषाओं और लिपियों का ज्ञान, सामन्तों और मण्डलेश्वरों के साथ कुशल व्यवहार करने की क्षमता, तथा कूटनीति और आर्थिक मामलों में विशेषज्ञ होना चाहिए। इन्हीं गुणों के कारण ही केन्द्रीय अधिकारियों में वह महत्वपूर्ण अधिकारी रहा होगा। चालुक्य साम्राज्य अति विस्तृत होने के कारण एवं प्रशासन की सुविधा को दृष्टिगत रखते हुए दो भागों -लाट (उत्तरी भाग) और कर्णाट (कर्नाटक, दक्षिणी भाग) में विभाजित था। साम्राज्य के उत्तरी भाग अर्थात् लाट के लिए नियुक्त सांधिविग्रहिक को लाटसांधिविग्रहिक और दक्षिणी भाग अर्थात कर्णाट के लिए नियुक्त सांधिविग्रहिक को कर्णाटसांधिविग्रहिक कहा जाता था। ये दोनों प्रशासनिक पदाधिकारी अलग-अलग सामन्तों, अधीनस्थ राज्यों एवं अर्द्धस्वतंत्र प्रदेशों के साथ सम्बन्ध बनाने एवं मार्ग निर्देशन के लिए नियुक्त किये जाते थे। तंत्राध्यक्ष संभवतः प्रशासनिक अध्यक्ष होता था। तंत्रपाल पार्षद था। भाण्डारि राजकीय कोष का मुखिया या प्रमुख होता था। राजा के आदेशों को लिपिवद्ध या लिखने वाले करणम् और कडितवरगड़े कहे जाते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि ये अधिकारी अपने-अपने विभाग का कार्य देखते थे।
सैनिक पदाधिकारीः
कल्याणी के चालुक्य शासक बहुत ही महत्वाकांक्षी थे। चालुक्य साम्राज्य की सुरक्षा एवं संगठन के लिए चालुक्य राजाओं ने सैनिक प्रशासन पर विशेष बल दिया। सैनिक पदाधिकारियों में सेनाधिपति, महादण्डनायक या प्रचण्डदण्डनायक, दण्डनायक और करितुरंगसाहिनी का उल्लेख मिलता है। चालुक्य सेना मुख्यतः दो वर्गों में विभक्त थी- पैदल सेना और अश्व सेना। करितुरंगसाहिनी नामक पदाधिकारी के वर्णन से स्पष्ट है कि करि-हाथी, तुरंग-घोड़ा के दलों का अधिकारी, सेना में घोड़ों और हाथियों का प्रयोग व्यापक पैमाने पर होता था। चालुक्य अभिलेखों में पैदल सेना के अधिकारियों के नाम सेनाधिपति, महादण्डनायक दण्डनायक मिलते हैं। साहिनी जैसे सैनिक अधिकारी हाथियों की देखरेख करते थे। इन अधिकारियों को वेतन के बदले जमीन प्रदान की जाती थी। सैनिकों की नियुक्ति और संगठन के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं प्राप्त होती है। चालुक्यों की सेना एक राष्ट्रीय सेना के रूप में कार्य करती थी। चालुक्यों के अधिकतर सेनापति ब्राहमण होते थे। चालुक्य अभिलेखों में अनेक ब्राहमण सेनापतियों का वर्णन मिलता है। कभी-कभी सेनापति को सेनाप्रमुख के साथ-साथ अमात्य का भी पदभार दिया जाता था। सोमेश्वर प्रथम के समय दण्डनायक नागदेवय्य को सेनापति के साथ ही अमात्य का अतिरिक्त कार्यभार सौंपा गया था। सोट्टूर अभिलेख (सोमेश्वर द्वितीय) में बलदेवय्य नामक सेनापति को अनेक उपाधियों से युक्त बताया गया है- जैसे, श्रीमान महाप्रधान हेरिसांधिविग्रहीसेनाधिपति कडितवरगडे़दण्डनायक बलदेवय्य। इससे ज्ञात होता है कि कुछ विश्वस्त और समर्पित लोगों को अनेक पदों पर नियुक्त किया जाता था। वास्तव में जब विक्रमादित्य और जयसिंह दोनों ही सोमेश्वर द्वितीय के विरूद्ध आक्रामक थे, उस समय बलदेव एकमात्र उसके साथ बना रहा। चालुक्य अभिलेखों में कुछ विशिष्ट एवं ख्याति प्राप्त व्यक्तियों और पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं। लक्कुण्डी लेख में ढल्ल नामक एक पदाधिकारी, जो तैलप द्वितीय का विश्वासपात्र था, को राज्य के समस्त बोझ को ढोने वाला कहा गया है। अभिलेखों में उसे ‘महामात्राक्षपटलाधिकृत’ अर्थात् महामात्र या महामंत्री एवं ‘अक्षपटलिक’ (राजकीय कागजों के कार्यालय का प्रधान) कहा गया है। ढल्ल ने ही तैलप द्वितीय के लिए कोंकण, वेंगी एवं मालवा की विजय की थी। ढल्ल जन्म से ब्राहमण था। तैलप द्वितीय के बाद चालुक्य शासकों की सेवा में ढल्ल का योग्य पुत्र नागदेव विजेता और युद्धनायक के रूप में सदैव तत्पर रहा। सामेश्वर प्रथम आहवमल्ल के समय मधुवरस, जो वानसकुल का वशिष्ठगोत्र का ब्राहमण था, ने अपने कार्यों से अत्यन्त ख्याति अर्जित किया था। नागै लेख में उसे मधुसूदन कहा गया है। येऊर अभिलेख में रविदेव नामक एक सेनापति का उल्लेख मिलता है। वह सोमेश्वर द्वितीय के समय सेनाधिपति और हेरिसांधिविग्रहिक के पद पर कार्यरत था। विक्रमादित्य ने उसे ‘पंमहाशब्दो’ (अर्थात् श्रृंग, तमत, शंख, भेरि एवं जयघंट) की उपाधि प्रदत्त की थी। येऊर अभिलेख में उसकी प्रशंसा में सात श्लोक लिखा गया है। डा0 नीलकान्त शास्त्री महोदय का मत है कि यह कन्नड़ काव्य का उच्चतम् उदाहरण है, जिसका किसी अन्य भाषा में वास्तविक अनुवाद नहीं किया जा सकता।
चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ ने अपने शासन काल में सोमेश्वर चट्टोपाध्याय को धर्माधिकारी (न्यायाधीश) नियुक्त किया था। वह बहुत ही विद्वान था और उसे विधि, पद एवं क्रम अर्थात् शब्दों और व्याकरण ज्ञाता कहा गया है। इसने महाप्रधान दण्डनायकम् श्रीमद् अरूयमगडू सोमेश्वरमहोपाध्याय जैसी उपाधियाँ धारण की थी। गडग अभिलेख में कहा गया है कि चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ ने उसके वैदिक एवं आर्थिक ज्ञान के कारण ही सोमेश्वर चट्टोपाध्याय को अपना महामात्य (मुख्यमंत्री) और धर्माधिकारी (न्यायाधीश) नियुक्त किया था। विक्रमादित्य षष्ठ ने अपने एक अन्य सेनापति अनन्तपाल के माध्यम से वेंगी की विजय प्राप्त किया था।
सामन्तः
कल्याणी के चालुक्य शासकों के अधीन अनेक अधीनस्थ या सामन्त थे। ये ऐसे सामन्त राजा थे, जिन्हें विजय करने के बाद चालुक्य शासकों ने उन्हें उनके राज्य पर प्रतिष्ठापित कर दिया या जिन्होंने अपने आप भयवश चालुक्यों की अधीनता स्वीकार कर लिया था। ऐसे माण्डलिक राज्य थे-बेलगुत्ति तथा येलबुर्ग के सिन्द, सौन्दति या बेलगाम के रट्ट, उच्चगि के पाण्डय, गुत्तल के गुत्त, हंगल के कदम्ब, कोंकण के शिलाहार आदि। इन माण्डलिक राजाओं को सम्राट की अधीनता माननी पड़ती थी और लेखों में अपने सम्राट की उपाधि के साथ ही ‘तत्पादपद्योपजीवी’ जैसी अधीनता सूचक उपाधि का प्रयोग करना पड़ता था। इनकी अपनी सेना भी होती थी। साम्राज्य के विस्तार में इन सामन्तों की बड़ी अहम् भूमिका होती थी। लेकिन सम्राट की शक्ति कमजोर होने पर ये माण्डलिक अपनी स्वतंत्रता घोषित कर लेते थे।
प्रांतीय एवं स्थानीय प्रशासनः
इस काल में प्रशासनिक इकाईयों की संख्या और उनके आकार, उनमें कानून एवं व्यवस्था के लिए अभिकरण, कर वसूली तथा न्याय प्रणाली आदि का निर्णय ऐतिहासिक आधार पर होता था। साम्राज्य के विभिन्न प्रान्तों में इस दृष्टि से स्पष्ट रूप से कोई एक समान प्रणाली लागू करने का प्रयास नहीं किया गया था। धर्मग्रंथों के नियमों के अनुसार विजित प्रदेशों के शासकों को पूर्ववत् स्थिति में रहने दिया जाता था अर्थात् वे सम्राट को समय समय पर ‘कर’ देते थे। आवश्यकता पड़ने पर इन्हें अपनी सेना के साथ युद्ध भूमि में उपस्थित होना पड़ता था। चालुक्यों का शासन क्षेत्र अति विस्तृत होने के कारण केन्द्र से सभी भू-भागों पर नियन्त्रण स्थापित करना कठिन था। अतः प्रशासन की सुविधा के लिए सम्पूर्ण शासन क्षेत्र को राष्ट्र, विषय, नाडु, कम्पण, थाण (स्थान) और ग्राम नामक इकाईयों में बाँटा गया था। इन इकाईयों के आकार की सीमा सुनिश्चित नहीं थी गांव की संख्या के अनुसार बड़े एवं छोटे प्रशासकीय खण्डों का निर्माण किया जाता था। चालुक्य अभिलेखों में इनकी संख्या विभिन्न प्रकार से मिलती है। जैसे, कुन्तल वाला मुख्य भू-भाग या प्रान्त साढ़े सात लाख (गांव) वाला कहा गया है। लेकिन इस संख्या का वास्तविक अर्थ क्या है, इस पर विद्वानों में मतभेद है। लेकिन यह परम्परा सेउण शासकों के समय तक चलती रही।
इन प्रशासनिक इकाईयों के प्रशासक राष्ट्रपति, विषयपति, ग्रामकूटक, आयुक्तक, नियुक्तक, अधिकारिक और महत्तर कहलाते थे। राष्ट्रकूट काल से ही इन इकाईयों और अधिकारियों की नियुक्ति की जाती रही है। नाडु के शासन की जिम्मेदारी नाडरस की थी। नलगवुण्ड नामक अधिकारी उसकी सहायता करता था। कभी-कभी ग्राम के गवुण्ड या गामुण्ड नामक अधिकारी को नालगवुण्ड का पद मिल जाता था। चालुक्य प्रशासन में स्थानीय प्रशासन को अधिक महत्व दिया गया। इसका मुख्य केन्द्र गांव होता था। ग्राम के मुखिया को ‘ ग्रामकूटक ’ कहा जाता था। इसके अतिरिक्त अन्य अधिकारियों में उरूडेय, वेग्र्गडे, गवुण्ड, कुलकरणिसेनबोवा और तलार के नाम मिलते हैं। ग्रामकूटक की नियुक्ति के विषय में हमें कोई सूचना नहीं मिलती। ग्रामकूटक गांव में केन्द्रीय प्रशासन का प्रतिनिधित्व करता था। उरूडेय एवं वेग्र्गडे ग्राम प्रधान अथवा ग्रामकूटक नामक अधिकारी ही थे। गांव के प्रति ग्रामकूटक का उत्तरदायित्व अधिक था। उसे ही स्थानीय क्षेत्रों में शान्ति व्यवस्था एवं कानून व्यवस्था बनाना, राजस्व की बसूली और उसे राजकोष में जमा करना तथा समय- समय पर आवश्यक सूचना केन्द्रीय प्रशासन को देनी होती थी। इससे प्रतीत होता है कि ग्रामकूटक का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं सम्मान जनक था। संभवतः कुलकरणि एवं सेनबोवा एक प्रकार के लेखाकार और तलार गांव का चैकीदार प्रतीत होता है। इन स्थानीय अधिकारियों को गांव की जमीन दान करने एवं विक्रय का अधिकार प्राप्त था।
स्थानीय प्रशासनिक इकाईयों में ग्राम के अतिरिक्त बड़े-बड़े कस्वे एवं नगर भी थे। नगरों को पट्टन अथवा पुर कहा जाता था। इन्हें नगरपत्तन भी कहते थे। नगर काफी बड़े होते थे और उनमें व्यावसायिकों एवं व्यापारियों की बस्तियाँ बसी होती थी। समुद्र के किनारे बसे हुए नगरों को पत्तन कहा जाता था। यहाँ से व्यापारिक वस्तुयें भेजी जाती थी। इसके प्रशासनिक अधिकारी पट्टनस्वामी कहलाता था। नगरों के प्रधान को नगराध्यक्ष कहा जाता था। बड़े -बड़े कस्वों को उर कहा जाता था। उर का शासन उरगवुण्डु या उरोदेय नामक अधिकारी के अधीन था। लेकिन इन स्वायत्तशासी संस्थाओं को नियंत्रित करने के लिए कोई संविधान था या नहीं, इस पर कोई स्पष्ट प्रकाश नहीं पड़ता। इन संस्थाओं के प्रशासन के संबन्ध में कई लेख मिलते हैं। 10082ई0 के एक लेख से ज्ञात होता है कि शान्ति सेट्टि के नेतृत्व में 500 (निवासियों) ने ब्राहमणों से एक जमीन क्रय किया था। एक अन्य लेख में कहा गया है कि दण्डनायक नागवर्म ने पट्टण पुलिगिरे के ब्रह्मेश्वरगिरि के 120 महाजनों से भूमि क्रय किया। शायद यह जमीन दान देने के लिए क्रय की जाती थीं। दान के समय दण्डनायक, सेट्टि, गाउण्ड आदि नगर के सभी अधिकारियों की उपस्थिति आवश्यक होती थी और इन्हें दान का साक्षी बनाया जाता था। इन उल्लेखों के आधार पर डा0 नीलकान्त शास्त्री महोदय ने अनुमान लगाया है कि महानगर में महाजनों की तीन समितियाँ होती थी।। इनमें एक नगर के सामान्य मामलों के लिए होती थी। दूसरी ब्राहमण निवासियों के लिए थी। जो उनके निवास, सम्पत्ति आदि समस्याओं का समाधान करती थी। तीसरी समिति नगर के श्रेणियों से समबन्धित थी। इन समितियों या सभाओं की संख्या भिन्न-भिन्न होती थी। इन समितियों को यह अधिकार प्राप्त था कि वे जमीन क्रय-विक्रय कर सकती थीं, मुकदमें दायर और सुनने का भी अधिकार था। इन समितियों की कार्यसमितियाँ या उपयमितियाँ भी होती थीं। लेकिन इनके विधान एवं गठन के विषय में हम कुछ नहीं कह सकते हैं।
न्याय व्यवस्थाः
कल्याणी के चालुक्य शासक को राज्य की सम्पूर्ण शक्तियाँ प्राप्त थीं। राजा ही मुख्य न्यायाधीश होता था। राज्य की कार्यपालिका एवं न्याय पालिका की समस्त अधिकार उसे प्राप्त था। राजा को किसी नये विषय पर कानून बनाने का अधिकार था और वह नियम अधीनस्थ न्यायालयों पर लागू होता था। इससे स्पष्ट है कि समय-समय पर आवश्यकतानुसार नये कानून बनाये जा सकते थे लेकिन इस बात पर विशेष बल दिया जाता था कि वह परम्परा या धर्मशास्त्रों के विपरीत न हो। राजा के न्यायालय के साथ ही साथ प्रान्तों, विषयों, नाडुओं एवं गांवों आदि तें निचली अदालतें होती थीं। असन्तुष्ट व्यक्ति इनके निर्णय के खिलाफ राज्य के सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकता था और राजा का निर्णय अन्तिम माना जाता था। लेकिन इन न्यायालयों के गठन, दण्ड और उनके स्वरूप आदि पर हमारे पास साक्ष्यों का प्रायः अभाव है।
राजस्व व्यवस्थाः
चालुक्यों की आर्थिक स्थिति काफी सुदृढ़ थी। तत्कालीन अभिलेखों से चालुक्य साम्राज्य की आर्थिक स्थिति पर प्रकाश पड़ता है। इस सम्बन्ध मे उपलब्ध साक्ष्यों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि साम्राज्य की आर्थिक स्थिति मजबूत होने के कारण चालुक्य शासक प्रतिवर्ष बिना किसी व्यवधान के विजय अभियान चलाने में सक्षम थे। राजा और राजपरिवार के सदस्यों द्वारा प्रत्येक वर्ष, ब्राह्मणों व्यापारियों और धार्मिक संस्थाओं को दान देते थे। इस काल के आर्थिक जीवन में कृषि और व्यापार की बहुलता थी। जनसामान्य का अधिकांश भाग गांवों में रहती थी, जहाँ वे कृषि के साथ पशुपालन का व्यवसाय भी करते थे। अतः राजस्व के स्रोत के रूप में गांव सबसे महत्वपूर्ण इकाई थी। सामान्य रूप से यह माना जाता था कि समस्त भूमि राजा की है, अतः राजकीय सम्पत्ति होने के कारण राज्य को सबसे अधिक राजस्व भूमिकर से ही प्राप्त होती थी। राजकीय राजस्व की प्राप्ति, उसके संग्रह और व्यय के विषय में हमें कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिलता। अप्रत्यक्ष प्रमाणों से इनके विषय में जानकारी मिलती है। जैसे, भूमिदान आदि। ये कर स्थानीय, प्रयोजन विशेष वाले और प्रायः सीमा बन्धित ही थे। चालुक्य अभिलेखों से ज्ञात होता है कि कर लगाने का अधिकार अपनी-अपनी सीमा के अन्दर केन्द्रीय शासन, प्रान्तीय शासन और स्थानीय प्रशासन जैसे, नगर सभा, व्यावसायिक संगठनों, ग्राम सभाओं और मंदिरों जैसे धार्मिक संस्थाओं को भी प्राप्त थे।
भूमिकर प्रायः उपज का 1/6 भाग निर्धारित थी। भूमिकर का निर्धारण करते समय भूमि की उर्वरता, शुष्क भूमि, जंगल, निर्जन, उद्यान एवं चारागाह आदि को ध्यान में रखकर किया जाता था। अतः स्पष्ट है कि चालुक्यों के शासन काल में कर की दर को निर्धारित करते समय भूमि की किस्म और फसलों की गुणवत्ता का ध्यान रखा जाता था। कभी-कभी भूमिकर बढ़ा दिया जाता था, जो 1/6 की जगह 1/8 यय 1/12 तक पहुँच जाती थी। प्रमुख करों का विवरण इस प्रकार है-सिद्धाय (परम्परागत कर या निश्चित कर), सन्तेवाण (सप्ताह में एक दिन के लिए लगने वाली दुकानों से लिया गया कर), गण्डेरे (तेल निकालने वाले कोल्हू पर लगने वाला कर), ताम्बूल कर, शूलबल (मनोरंजन करने वाले नर्तक एवं गायकों पर लगने वाला कर), कले (संगीत से सम्बन्धित सामानों पर लिया जाने वाला कर), कण्णडिवण (वेश्याओं और देवदासियों से लिया जाता था), गृहकर, शंकु (मार्गकर), एवं दण्डाय (अर्थदण्ड से प्राप्त धन) आदि प्रमुख हैं। चालुक्य लेखों में अपुत्रिकाद्रव्य पद का प्रयोग मिलता है। जब कोई निःसन्तान व्यक्ति मर जाता था तब उसकी समस्त सम्पत्ति राज्य की हो जाती थी।
ब्रह्मदेय या ब्रह्मदाय, ब्राहमणों को दिया गया भूमिदान था। जबकि मंदिरों को दिया गया भूमिदान देवदेय या देवदाय कहलाता था। इसके अतिरिक्त मठों, विहारों, राज्य कर्मचारियों, सेनापतियों और सैनिकों को सेवा के बदले जमीन दी जाती थी। बीजापुर जिले से प्राप्त बिना तिथि वाले लेख में कहा गया है कि मंदिर, मठ, विहार और विद्यालय जैसी संस्थायें राजकीय भूमिदान, अधिकारियों द्वारा दिये गये दान, एवं जन साधारण द्वारा दिये गये अन्नदान, वस्त्रदान, वस्तुदान, दीपदान, तेलदान, पशुदान आदि के सहारे ही सभी सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों को चलाती थीं। दान की शर्तों में यह उल्लिखित होता था कि कितना भाग किस मद में खर्च होगा। इसकी देखरेख करने के लिए मंदिरों की प्रबन्ध समितियाँ करती थीं। कल्याणी के चालुक्य लेखों से परिहारों अर्थात् विमुक्तियों के विषय में जानकारी मिलती है। जब कोई गांव दान दिया जाता था, तो उससे राज्य को मिलने वाली समस्त आय दान कर दी जाती थी अर्थात् उक्त गांव से राज्य किसी प्रकार का कर नहीं ले सकता था। लेकिन कभी-कभी इन प्रतिहारों से एकमुस्त धनराशि ली जाती थी। नीलगुण्ड ताम्रपत्र लेख से ज्ञात होता है कि जब चालुक्य विक्रम संवत् 48 में द्रविड़ देश में 400 ब्राहमणों को दान दिया गया और उसके साथ कृष्णपल्लिका का दान भी सम्मिलित कर दिया गया, तो सम्राट ने आदेश दिया कि विमुक्तियों अर्थात् दानप्राप्त ब्राह्मणों को वहाँ के भूस्वामी (देशस्वामी) को 400 सुवर्ण पिण्डदान अर्थात् लगान प्रतिवर्ष देंगे। भूमिदानों से सम्बन्धित विमुक्तियों के विवरणों से कई अन्य राजकीय करों की जानकारी प्राप्त होती है। इस दृष्टि से खारेपाटन अभिलेख 1008ई0, जो शिलाहार माण्डलिक रट्टराज का है, में मत्तमयूर (शैव) शाखा के एक ब्राह्मण (आचार्य) को सभी परिहारों से युक्त तीन गांवों के दान का उल्लेख मिलता है। इसमें इसकी सीमी का निर्धारण किया गया है। इस अभिलेख में वर्णित है कि उनसे प्राप्त होने वाले राजकीय करों (सर्वराजकीय-आभ्यांतर सिद्धिः) से विमुक्ति देते हुए यह आदेशित किया गया है कि उनमें चाटों एवं भाटों अर्थात् सैनिक और अर्धसैनिक का प्रवेश बंद कर दिया जाता है। मंदिरों एवं मठों को विभिन्न प्रकार की जनसेवा-खर्चों के लिए दान की गयी भूमि को ‘तलवृत्ति’ कहा जाता था। किसी प्रकार की सेवा के बदले दान या स्वीकृत अथवा प्रदत्त की गयी भूमि को वृत्ति कहा जाता था। जयसिंह द्वितीय के मीरज अभिलेख (1024ई0) में परिहारों के अतिरिक्त अन्य करों की सूची में अन्नकर, स्वर्णकर और जमीन के अन्तर गड़ी हुई सम्पत्ति एवं जमा धनराशि का विवरण मिलता है। इसमें राजकीय अधिकारियों को स्पष्ट निर्देश है कि वहाँ की इस नयी व्यवस्था में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा। अधिकारियों को यह भी स्पष्ट कर दिया गया था कि वे ‘कर’ और ‘बाधा’ (आकस्मिक कर) एवं ‘शुल्क’ (व्यापारिक वस्तुकर) भी न वसूल करें। यह शर्त सभी को मान्य होंगी। शास्त्रों के विद्वान अध्यापकों को जो भूमि प्रदान की जाती थी वह ‘भट्टवृत्ति’ कहलाती थी। भट्ट का तात्पर्य विद्वान होता है। इसी प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों को अक्षरज्ञान का पाठ सिखाने वाले अध्यापकों को पारिश्रमिक के रूप में जो भूमि प्रदान की जाती थी उसे ‘अक्करिवृत्ति’ कहा जाता था। मंदिर के रखरखाव और पूजा आदि के लिए जो जमीन प्रदान की जाती थी वह देवभोग कहलाती थी। ऐसी भूमि का विधिवत सीमांकन किया जाता था। चालुक्य अभिलेखों में ‘कुमारवृत्ति’ का उल्लेख मिलता है। राजकुमारों या युवराज को आवश्यक खर्च आदि के लिए जो भूमि आवंटित होती थी वह ‘कुमारवृत्ति’ कहलाती थी। डा0 नीलकान्त शास्त्री महोदय का मत है कि सैनिक सेवा में रत सेनापतियों को विशाल भू-खण्ड प्रदान किया जाता था, जिसे ‘जीवित’ अथवा ‘अणुग जीवित’ कहा गया है। सेनापतियों को ऐसे प्रदत्त भूमि के हस्तान्तरण का भी अधिकार प्राप्त था। जिसे ’प्रतिसामन्तीकरण’ (सबइन्फ्यूडेशन) कहा जा सकता है। सामान्य तौर से परम्परागत करों में किसी प्रकार का संशोधन या परिवर्तन नहीं किया जाता था। लेकिन आवश्यकतानुसार इसमें संशोधन किया जा सकता था। चालुक्य शासक तैलप द्वितीय के समय एक अन्याय पूर्ण कर का विरोध जनता द्वारा किये जाने पर पुराने कर की बहाली की गयी थी। राजस्व अधिकारियों में अधिष्ठापक, दण्डायद वेग्र्गडे, दण्डनायक, शुकंद आदि के नाम मिलते हैं। ग्राम समितियाँ भी कर संग्रह में सहायता करती थीं।
आर्थिक जीवनः
प्राचीन भारत में व्यापार करने के जिए स्थान-स्थान पर छोटी-छोटी संस्थायें होती थीं, जिन्हें श्रेणी, सार्थवाह, या व्यावसायिक संघ आदि के नाम से जाना जाता था। यही स्थिति कल्याणी के चालुक्यों के समय भी थी। तत्कालीन लेखों में ऐसी संस्थाओं को श्रेणी और इनके प्रमुख को श्रेष्ठिन कहा जाता था। इसका मुख्य कार्य अपने संघ के कार्यों का सुचारू ढ़ंग से संचालन करना और संघ के प्रतिनिधि के रूप में भाग (क्षेत्र) के व्यवसाय पर ध्यान देना था। अभिलेखों में गायों के चरागाह एवं गाय चराने वालों के लिए भूमि अनुदान का उल्लेख मिलता है। जिससे दुग्ध एवं पशुपालन वयवसाय के अस्तित्व का ज्ञान होता है। चालुक्य अभिलेखों में बढ़ईगीरी, चर्मउद्योग, वस्त्रोद्योग, स्वर्णकारी, भाण्ड उद्योग आदि की चर्चा मिलती है। इस काल में व्यापारिक श्रेणियों का महत्व बढ़ गया था। व्यापार-वाण्ज्यि के द्वारा आर्थिक प्रगति में निरन्तर प्रगति हो रही थी। व्यापार आन्तरिक और विदेशी व्यापार दोनों होते थे। सामानों की आपूर्ति के लिए गाड़ियों एवं पशुवाहनों का प्रयोग किया जाता था। समाज में विभिन्न न्रकार के उद्योगों की श्रेणियों का उल्लेख अभिलेखों में मिलता है, जिनसे उस समय की सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती थी। जैसे, तैलिक श्रेणी के अधीन बड़ी-बड़ी तेल पिसक (मिल) थीं जो तेल की जरूरत की पूर्ति करती थी। इन मिलों पर समय-समय पर कर लगाया जाता था। इस संगठन के लोग धार्मिक कार्यों में सहयोग प्रदान करते थे। तत्कालीन ताम्रपत्रों का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि इनके उत्कीर्णक ताम्रकार अपने धन्धे में निपुण थे। कचनार नामक श्रेणी के लोग सोने- चाँदी का काम करती थी। युद्ध में प्रयुक्त रथों से रथ सेना के विषय में जानकारी मिलती है। रथ में लकड़ी का काम संभवतः वर्धकी (बढ़ई) तथा लोहे का कार्य लुहार करता रहा होगा। तत्कालीन प्रस्तर कलाकृतियों से स्पष्ट होता है कि इस काल में शिल्प उद्योग अत्यन्त उन्नतशील था। शिल्पियों का कार्य मंदिरों, मठों, गुफाओं, भवनों, मुर्तियों एवं शिलालेखों का निर्माण करना था। इनकी कृतियों को देखने से उनकी कला सिद्धता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इन शिल्पियों का अपना स्वतंत्र संघ होता था, जिनका उल्लेख अभिलेखों में मिलता है। इसी प्रकार खारेपाटन अभिलेख (रट्टराज) अभिलेख में द्वीपान्तर से आने वाले जहाजों पर प्रति जहाज एक गद्याण सोना लेने की बात कही गयी है। अरूयवोले-500 के स्वामियों की श्रेणी के विषय में कहा गया है कि ये स्थल एवं जल मार्ग से यात्रा करते थे और 6 महाद्वीपों के देशों में जाते थे। कर्नाटक का विदेशों से व्यापारिक सम्बन्ध था। लेकिन इस विषय में जानकारी का अभाव है।