कल्याणी का चालुक्य राजवंश:भाग-2 (The chalukyan Dyansty Of Kalyani)

विक्रमादित्य पंचमः

                सत्याश्रय के बाद उसके भाई का पुत्र विक्रमादित्य पंचम 1008ई0 के लगभग उत्तारधिकारी हुआ। उसने मात्र छः या सात वर्ष ही शासन किया। कौथेम दानपत्र इसके शासनकाल का प्रथम लेख है। यह प्रशस्ति मात्र हैं फिर भी इसकी विशेषता यह है कि वह कल्याणी के चालुक्य वंश को बादामी के चालुक्य वंश से जोड़ते हुए दोनों की उत्पत्ति को एक समान हारितपुत्र, कौशितिकी गोत्र, सप्तमातृका परिरक्षित कार्तिकेय की पूजा करने वालों के रूप में जोड़ता है। इसकी बहन अक्का देवी 1010ई में कुन्सुकद (किंसुकाद) पर शासन करती थी। इसे लक्ष्मी का अवतार कहा गया है जिसने अनेक अवसरों पर ब्राहमणों को दान दिया था। विक्रमादित्य के सेनापति केसविजय ने पूरब में कोसल तक विजय अभियान किया था।

अय्यण द्वितीयः

                विक्रमादित्य पंचम की मृत्यु के बाद 1015ई0 में उसका अनुज अय्यण द्वितीय चालुक्य राजपीठ पर बैठा। इसने मात्र कुछ दिनों तक ही शासन किया। इसका अब तक कोई लेख नहीं प्राप्त हुआ है। जयसिंह द्वितीय के लेखों में इसकी प्रारम्भिक तिथि 1015ई0 ही ज्ञात होती है।

जयसिंह द्वितीयः

                अय्यण द्वितीय के बाद 1015ई0 में विक्रमादित्य पंचम का सबसे छोटा भाई जयसिंह द्वितीय चालुक्य सिंहासन पर आसीन हुआ। जिसे सिंगदेव, जगदेकमल्ल द्वितीय, त्रैलोक्यमल्ल, मल्लिकामोद एवं विक्रमसिंह आदि उपाधियों से विभूषित किया गया है। इसका शासन काल निरन्तर संघषों में बीता। 1019ई0 के पूर्व ही परमार भोज, कलचुरि गांगेयदेव, एवं चोल शासक राजेन्द्र प्रथम ने एक संघ बनाकर जयसिंह के साम्राज्य पर विभिन्न सीमाओं से अभियान शुरू किया।

परमारों से युद्धः

                जयसिंह द्वितीय का समकालीन परमार शासक भोज ने मुंज की हार का बदला लेने के लिए जयसिंह से युद्ध किया। 1020ई0 में राजा भोज ने उत्तरी कोंकण को जीत कर अधिकृत करने के उपलक्ष्य में दो उत्सव मनाया था। भोजचरित के अनुसार भोज ने मुंज की पराजय का बदला कर्णाटों से लिया। यशोवर्मन के कलवन पत्र के अनुसार भोज ने कर्णाट, लाट एवं कोंकण पर विजय किया था। यशोवर्मन भोज के सामन्त के रूप में नासिक पर शासन कर रहा था। 1020ई0 के लगभग भोज के लेखों  से पता चलता है कि उसने बादामी एवं मान्यखेट से आये ब्राहमणों को दान दिया था।  जबकि इसके विपरीत 1019ई0 के जयसिंह के बेलगाँव (बेलगाम्वे) दानपत्र से जयसिंह को भोज रूपी पंकज के लिए चन्द्र कहा गया है। 1024ई0 के मीरज पत्र के अनुसार यह कोंकण विजय के बाद कोल्हापुर में सैनिक शिविर डालकर उत्तरी क्षेत्रों पर विजय की योजना बना रहा था।

                उपर्युक्त विवरणों से स्पष्ट होता है कि आरम्भ में जयसिंह को भोज से परास्त होना पड़ा किन्तु शीघ्र ही परमारों द्वारा विजित क्षेत्रों को मुक्त करने में भी वह सफल हुआ।

चोलों से युद्धः

                चोल वंश का महानतम सम्राट राजेन्द्र प्रथम जयसिंह द्वितीय का दुश्मन था। राजराज प्रथम ने जिस चालुक्य भू-भाग को अधिकृत कर लिया था, जयसिंह ने उसे अधिगत करने का प्रयास किया। बेलगाँव और मीरज दानपत्रों के अनुसार जयसिंह ने चोल शासक को परास्त कर उन भु-भागों को अपने अधीन कर लिया। इसके विपरीत 1021ई0 के लगभग राजेन्द्र चोल के एक लेख में कहा गया है कि उसने मुशांगी (मास्की) के युद्ध में जयसिंह को पराजित कर पीछे खदेड़ दिया और उसके साढ़े सात लाख के खजाने को अपहृत कर लिया। राजेन्द्र प्रथम ने रट्टपाडि पर भी अधिकार कर लिया। तिरूवालंगाडु लेख में भी राजेन्द्र प्रथम को तैल वंश का विनाशक कहा गया है। 1022ई0 में अनन्तपुर जिले के कोट्टशिवराम में अनेक लेख प्राप्त हुए हैं। जिनमें से एक में वेंगी नरेश की पराजय का उल्लेख मिलता है। राजेन्द्र चोल ने अपने सेनापति चवनरस के साथ गंगवाडी़ तथा चेर राज्य तक पीछा भी किया। उसने द्वारसमुद्र तथा वलेयवतन को भी लूटा। शक्ति सन्तुलन के बाद दोनों के बीच संभवतः तुंगभद्रा नदी को विभाजक सीमा रेखा मान लिया गया।

अन्य घटनायें:

                1024ई0 के बाद जयसिंह के शासनकाल में किसी भयानक संघर्ष का कोई संकेत प्राप्त नहीं होता, यत्र-तत्र सामन्तों के छिटपुट विद्रोह की जानकारी मिलती है।

                जयसिंह द्वितीय की दो पत्नियों की जानकरी मिलती है- 1-सुग्गल देवी और 2-नोलम्ब राजकुमारी देवल देवी। उसकी एक पुत्री हम्मा अथवा आवल्ल देवी का उल्लेख मिलता है। जिसका विवाह सेउण नरेश भिल्लम तृतीय के साथ हुआ था। उसकी एक बहन का नाम अक्का देवी मिलता है। जिसके बारे में कहा जाता है कि वह युद्ध में भैरवी के समान शौर्य प्रदर्शित करती थी।

                चालुक्यों की राजधानी अभी भी मान्यखेट ही थी। क्योंकि चोल लेखों में मान्यखेट का उल्लेख तो है किन्तु कल्याणी का कोई संकेत नहीं मिलता है। अतः यह निश्चित है कि जयसिंह द्वितीय के शासन के अन्त अर्थात् 1042ई0 तक मान्यखेट नगर ही चालुक्यों की राजधानी रही। एतगिरि, कोलियाके, होट्टलकेरे आदि अन्यमहत्वपूर्ण राजनीतिक केन्द्र थे।

सोमेश्वर प्रथमः

                जयसिंह द्वितीय के बाद उसका पुत्र सामेश्वर प्रथम 1042-43ई0 में चालुक्य राजपीठ पर आसीन हुआ। इसका राज्यकाल चालुक्य राजवंश में सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। इसने त्रैलोक्यमल्ल, आहवमल्ल, वीरमार्तण्ड तथा राजनारायण की उपाधि धारण की। विल्हण के अनुसार इसने कल्याणी नगर को विभिन्न भवनों एवं मंदिरों से अलंकृत कर विश्व में अप्रतिम नगर के रूप में परिणत कर दिया। इससे यह ज्ञात होता है कि सोमेश्वर प्रथम ने मान्यखेट के स्थान पर कल्याणी को अपनी राजधानी बनाया। अपने दीर्घकालीन शासन काल में सोमेश्वर प्रथम विभिन्न युद्ध  में व्यस्त रहा जिसका विकराल रूप चोलों के साथ संघर्ष में प्राप्त होता है। विभिन्न सीमाओं पर शत्रुओं से घिरे रहते हुए भी इसने जिस अदम्य उत्साह से साम्राज्य की सुरक्षा और सीमावर्ती भागों में जो विस्तार किया, वह उसकी निर्भीकता, आत्मबल, सैन्य गुण तथा प्रशासनिक योग्यताओं का परिचायक है।

                सोमेश्वर प्रथम के समय भी इसके पिता के परम्परागत शत्रु थे और उनके साथ पूर्वजों की तरह आक्रामक युद्ध की ही नीति अपनानी पड़ी। 1047ई0 के नान्देर (हैदराबाद) अभिलेख में उसकी विजयों का उल्लेख मिलता है। जिसके अनुसार इसने मगध, कलिंग तथा अंग के शासकों का वध किया, इसके अभियान से भयाक्रान्त होकर कोंकण नरेश उसके चरणों में नतमस्तक हुआ, मालवेश्वर ने स्वयं अपनी राजधानी धारा में अंजलिबद्ध होकर उससे याचना की थी, उसने चोलों को युद्ध में पराजित किया तथा वेंगी और कलिंग के शासकों को अपने पक्ष में जीत लिया। इसी लेख में उसके ब्राहमण सेनापति नागवर्म का भी उल्लेख भी मिलता है जो राजा का दाहिना हाथ था, उसे भी बिन्ध्याधिमल, शिरच्छेदन, सेवणदिशापट्ट, चक्र-कूट, आदि उपाधियाँ दी गयी हैं। नान्देर लेख में मगध, कलिंग एवं अंग के विवरण एकदम अतिरिक्त और कवि कल्पना प्रसूत हैं। लकिन कोंकण, लाट एवं मालवा पर सोमेश्वर के आक्रमण और उन पर विजय प्राप्त करने सम्बन्धी उल्लेखों में ऐतिहासिक सत्यता के अन्य प्रमाण भी प्राप्त होते हैं।

कोंकण से संघर्षः

                1058ई0 के नागै (नागड़) लेख में सोमेश्वर के द्वारा कोंकण के विरूद्ध आक्रमण और विजय का उल्लेख मिलता है। जिसके अनुसार सेनापति मधुसूदन के नेतृत्व में सोमेश्वर ने कोंकण एवं माण्डव (माण्डू) पर विजय प्राप्त किया था। संभवतः कोंकण, सेंउण एवं विन्ध्य प्रमुख मल्ल भोज के साथ सोमेश्वर प्रथम के विरूद्ध एक संघ बनाया था। कोंकण पहले से ही चालुक्यों के अधीन था, किन्तु स्वाधीनता के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहा। संभव है कि कोंकण नरेश मुम्मुनि ने सोमेश्वर प्रथम का विरोध किया हो जिसे सेनापति मधुसूदन ने नियंत्रित किया।

परमार भोज से युद्धः

                नांदेर और नागै लेख माण्डव विजय का संकेत करते हैं। नागै लेख के अनुसार सोमेश्वर प्रथम ने धारा को ध्वस्त किया तथा माण्डव को अधिकृत कर लिया। इससे स्पष्ट होता है कि जहाँ नांदेर लेख में कहा गया है कि भोज की मृत्यु 1055ई0 में हुई थी, वहीं नागै लेख के अनुसार 1059ई0 तक भोज अवश्य जीवित रहा।

                विल्हण भी अपने विक्रमांकदेवचरित में अनेक बार भोज की पराजय का उल्लेख किया है। 1066ई0 के होट्टूर लेख में महामण्डलेश्वर जेमरस को भोज के लिए मृत्यु-अग्नि कहा गया है। जेमरस की यह प्रशंसा मात्र इसलिए है कि उसने भोज के विरूद्ध किये गये आक्रमण में भाग लिया था। जबकि परमारों के नागपुर लेख में भेज की कर्नाटक विजय का वर्णन मिलता है। जो भी हो दोनों वंशों के समवेत अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रारम्भ में भोज अपने उद्देश्य में सफल रहा होगा किन्तु बाद में सोमेश्वर प्रथम ने उसे दक्षिण में अपनी परम्परागत सीमा में नियंत्रित रहने के लिए बाध्य किया।

कलचुरि- चालुक्य युद्धः

विल्हण के अनुसार सोमेश्वर के आदेशानुसार विक्रमादित्य षष्ठ ने लाट, गुजरात एवं कलचुरियों को आक्रान्त किया। समकालीन कलचुरि शासक कर्ण एवं चालुक्य शासक भीम प्रथम प्रारम्भ में संभवतः भोज के विरूद्ध सोमेश्वर के साथ संघ बनाये थे। भोज की पराजय के बाद संघ विघ्टित हो गया तथा शक्ति सन्तुलन के लिए सोमेश्वर ने कलचुरियों एवं चालुक्यों को भी अपने अभियान का शिकार बनाया। संभव है कि इसे क्षणिक सफलता मिली हो।

चोलों के साथ युद्धः

सामेश्वर प्रथम का चोल शासकों के साथ संघर्ष सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं दीर्घकालिक रहा। इस संघर्ष के विषय में हमें चालुक्य लेखों, विल्हण के विवरणों तथा चोलों के लेखों से भी सूचना मिलती है। राजराज के कलिदिण्डि तामप्रत्र एवं राजाधिराज प्रथम के प्रारम्भिक लेखों में युद्ध के पहले चरण का पूरा विवरण मिलता है। राजाधिराज ने सबसे पहले अपने शासन के 27वें वर्ष (1045ई0) के एक अभिलेख में चालुक्यों से युद्ध का उल्लेख करता है। इसमें धन्नाड के युद्ध का वर्णन है। धन्नाड से आशय धान्यकटक से है। इस युद्ध में राजाधिराजकी सेना ने आहवमल्ल को भी भयभीत कर दिया था। चोलों ने चालुक्यों से बहुत से हाथी और घोड़े छीन लिए। इसके बाद चोल कोल्लिपाक्कै की ओर बढ़ गये, जिसे उन लोगों ने भस्मसात कर दिया। पश्चिमी चालुक्यों के अभिलेखों में कुछ ऐसे संकेत हैं जिससे घटना क्रम का सटीक अनुमान किया जा सकता है। शाके 966 (1045ई0) के नरेमंगल अभिलेख में महामंडलेश्वर सोभनरस कोवेंगिपति कहा गया है। राजाधिराज चालुक्यों की सेना को वेंगी से पश्चिम में खदेड़कर कोल्लिपाक्कै (कुलपक) तक बढ़ गया। वहाँ उसका तीव्र प्रतिरोध हुआ। फिर वह आगे न बढ़ सका।

                युद्ध के द्वितीय चरण की जानकारी राजाधिराज प्रथम के शासन अवधि के 29वें एवं 30वें वर्ष के लेखों से होती है। इस अभियान का नेतृत्व स्वयं चोल सम्राट ने किया। उसने अनेक छोटे- छोटे राजाओं जैसे गंडरादित्य, नारायण, गणपति, और मधुसूदन को भगा दिया तथा कंणिलि में चालुक्यों के राजप्रासाद को ध्वस्त कर दिया और विक्रमनारायण की सेना को हरा दिया।

                कंणिलि युद्ध के बाद इसकी महत्वपूर्ण युद्ध पूंडि अथवा पुंडीर,जो कृष्णानदी के तट पर स्थित है, में हुई थी। इसमें तेलुगू राजा विच्चय की भूमिका सबसे महत्व की थी। इसमें विच्चय अपने माता-पिता को चोलों की दया पर छोड़ कर पलायित होने के लिए बाध्य हुआ। साथ ही अन्य चालुक्य सेनापति और हाथी बन्दी बना लिए गये। जब आहवमल्ल ने दया की याचना की तो उसे अपमानित किया गया। पुंडीर नगर को ध्वस्त कर दिया गया। उसके खण्डहरों को गधों से जुतवाया गया। चोल राजा आगे बढ़ कर चालुक्यों के येतिगिरि (यद्गिरि) में चालों ने एक विजय स्तम्भ स्थापित करवाया। जिस पर उनका राजचिन्ह ‘सिंह’ अंकित था। इसके बाद कल्याणपरम् नगर को भी नष्ट कर दिया गया। राजाधिराज ने इस उपलक्ष्य में अपना वीराभिषेक कराया और विजय राजेन्द्र की उपाधि धारण की। तंजौर जिले में दारसुरम (दारासुरम) नामक स्थान पर चालुक्य शैली में एक द्वारपालक की मूर्ति आज भी विद्यमान है जिस पर तमिल भाषा में इस आशय का लेख उडैयर श्री विजयन्द्र राजेन्द्रदेव द्वारा कल्याणपुर को भस्म कर लाया गया द्वारपाल अंकित है। इससे राजाधिराज द्वारा चालुक्यों की पराजय तथा कल्याणपुर के भस्मसात करने की पुष्टि हो जाती है।

                राजाधिराज के शासन के अन्तिम वर्षों में चोल- चालुक्य संघर्ष पुनः प्रज्जवलित हुआ। राजाधिराज और उसके अनुज राजेन्द्र द्वितीय ने चालुक्यों पर आक्रमण किया।इसके सहयोग से राजाधिराज सम्पूर्ण रट्टमण्डल को आक्रान्त करता हुआ कोप्पम नगर तक पहुँचा। आहवमल्ल ने इन्हें अवरूद्ध किया एवं युद्ध क्षेत्र में चालुक्य सेना ने राजाधिराज को ही अपना लक्ष्य बनाया। हाथी पर आरूढ़ राजाधिराज मृत्यु को प्राप्त हुआ तथा चोल सेना तें भगदड़ मच गयी। इसी समय राजेन्द्र द्वितीय चोल सेना को प्रोत्साहित करता हुआ आगे बढ़ा और सैन्य संचालन करने लगा। यद्यपि राजेन्द्र द्वितीय भी आहत था फिर भी विजयश्री ने चोलों का ही वरण किया। रक्तरंजित राजेन्द्र द्वितीय ने युद्ध क्षेत्र में ही अपना राज्यारोहण सम्पन्न किया तथा कोल्हापुर में जयस्तम्भ स्थापित किया। इस प्रकार कोप्पम युद्ध में भी सोमेश्वर प्रथम को पराजित होना पड़ा।

                कोप्पम की पराजय का बदला लेने के लिए सोमेश्वर न वेंगी के उत्तराधिकार के युद्ध में प्रतिद्वन्द्वी उत्तराधिकारी विजयादित्य को उत्प्रेरित एवं सहायता देकर चोलों से कोप्पम युद्ध का बदला लेने के लिए युद्ध की भूमिका बनायी। सोमेश्वर प्रथम द्विगुणित तैयारी के साथ दण्डनायक बालादित्य तथा अन्य सेनापतियों के साथ मुडक्कारू के तट पर विशाल सेना भेजी। इस अवसर पर राजेन्द्र द्वितीय के साथ उसके अनुज वीर राजेन्द्र तथा पुत्र राजमहेन्द्र भी उपस्थित थे। राजमहेन्द्र के लेखों में मुडक्कारू के युद्ध का वर्णन मिलता है जिसमें आहवमल्ल पराजित हुआ था। वीरराजेन्द के लेखों में कूडलसंगमम् का कोई संकेत नहीं है। इससे यह संभव है कि कूडलसंगमम् तथा मुडक्कारू एक ही युद्ध के नाम हों। इस संघर्ष में सेनापति चामुण्डराज मारा गया और विक्रमादित्य पराजित हुआ। पश्चिमी चालुक्यों के लेखों में इस युद्ध का कोई वर्णन नहीं मिलता है। चोल लेखों में कूडलसंगमम् के द्वितीय युद्ध का उल्लेख प्राप्त होता है। संभवतः राजेन्द्र द्वितीय की मृत्यु के कारण वीर राजेन्द्र को वापस लौटना पड़ा।

                वीर राजेन्द्र के शासन वर्ष के पाँचवें वर्ष के लेखों से ज्ञात होता है कि भयभीत आहवमल्ल ने पुनः वेंगी को अधिकृत कर लिया। मणिमंगलम् लेख से ज्ञात होता है कि निरन्तर पराजित होने के बाद सोमेश्वर प्रथम ने पराजय की अपेक्षा मृत्यु को श्रेयस्कर समझा तथा वीरराजेन्द्र के पास निर्णायक युद्ध के लिए संदेश भेजा तथा कुडलसंगमम् में पुनः युद्ध का आमंत्रण दिया। वीरराजेन्द्र ने युद्ध की तैयारी के साथ युद्ध मैदान में आ पहुँचा लेकिन आहवमल्ल अनुपस्थित रहा। एक महीने तक इन्तजार के बाद वीर राजेन्द्र ने क्रुद्ध होकर सम्पूर्ण रट्टपाडि को रौंद डाला और सोमेश्वर प्रथम का एक पुतला बनाकर उसे अपमानित किया। अन्ततः तुंगभद्रा के तट पर अपना विजय स्तम्भ स्थापित किया। इसके बाद उसने वेंगी और कलिंग तक विजय प्राप्त किया।

                सोमेश्वर प्रथम के कम से कम चार पुत्रों की जानकारी प्राप्त होती है- सोमेश्वर द्वितीय, विक्रमादित्य षष्ठ, विजयादित्य और जयसिंह। विक्रमादित्य की सेवाओं से प्रसन्न होकर सोमेश्वर प्रथम ने उसे अपना युवराज घोषित करना चाहा किन्तु सोमेश्वर द्वितीय के पक्ष में अस्वीकार कर दिया। चालुक्य अभिलेखों में उसकी रानियों के नाम मिलते हैं- चन्द्र लकब्बे (चन्द्रिका देवी) मैलाल देवी, लीला देवी, होयसल देवी, केतल देवी, चामल देवी आदि।

                इस प्रकार सोमेश्वर प्रथम के शासन काल में वेंगी मण्डल सदैव इसके अधीन रहा, उत्तर की महान् शक्तियाँ भी इससे कुछ समय के लिए प्रभावित रहीं। जीवन पर्यन्त चोलों से संघर्षरत रहा तथा अनेक बार पराजित होने के बाद भी इसके साम्राज्य सीमा में न्यूनता नहीं आयी थी। इसका प्रभुत्व उत्तर विन्ध्य से लेकर दक्षिण में तुंगभद्रा तक के अधिकांश भू-भागों में व्याप्त था। इसका अन्त 1068ई0 में हुआ।

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