देवगिरि का यादव शासक रामचंद्र (रामदेव)Ramchandra (Ramdev), the Yadava ruler of Devagiri
१२७१ ई. के उत्तरार्द्ध में रामचंद्र ने देवगिरि के सिंहासन को अलंकृत किया जो इस वंश का अंतिम महत्वपूर्ण शासक था। इसका शासन काल राजनीतिक दृष्टिकोण से सर्वाधिक महत्वपूर्ण रहा क्योंकि इसी के काल में दक्षिण भारत पर मुसलमान आक्रमण प्रारंभ हुए जिससे दक्षिण की राजनीति एकदम परिवर्तित हो गई।
यद्यपि रामचंद्र ने षड्यंत्र के माध्यम से सिंहासन प्राप्त किया था किन्तु वैध उत्तराधिकारी होने के कारण इसके विरुद्ध कोई विद्रोह नहीं हुआ।
मालवा एवं गुजरात-
समकालीन मालवा का परमार शासक अर्जुनवर्मा द्वितीय अपने ही मंत्री से संघर्षरत था। यहाँ तक कि साम्राज्य विभाजित भी हो गया था। ऐसी परिस्थिति मे रामचंद्र का अभियान पूर्णतः सफल रहा। शक सम्वत् ११९४ के थाणा (थाना) अभिलेख में उसे ‘‘ मालवो के दीपों को बुझाने वाला तीव्र तुफान ’’ और शक सम्वत् ११९८ के उदरि अभिलेख में मालवराज अर्जुन के बहसंख्यक हाथियों को नष्ट करने वाला सिंह बताया गया है। मालवा अभियान के संदर्भ में ही उसका गुर्जरों से भी अनेक सीमावती संघर्ष हुए किन्तु किसी को स्थायी विजयश्री न प्राप्त हुई।
होयसल-
महादेव के शासन काल में यादव होयसलों से पराजित हए थे जिसके प्रतिशोध मे रामचंद्र ने १२७५ ई. में होयसल साम्राज्य पर आक्रमण किया। बनवासी एवं नोलम्बवाडी होते हुए द्वारसमुद्र के समीप बेलवाडी तक पहुँच गया। यादव सेनापति तिक्कमरस ने इसी स्थल से द्वारसमुद्र को आक्रांत करने की योजना बनाई। इसी समय होयसल नरेश नरसिंह ने सेनापति अंक तथा मयिदेव के नेतृत्व में एक सेना बेलवाडी भेजा। होयसल सेना पराजित हुई जिससे प्रोत्साहित होकर यादव सेनापति तिक्कमरस राजधानी पहुँच गया। होयसल सैनिकों ने राजधानी की सुरक्षा के लिए हर संभव प्रयास किया। नंगेय एवं गुल्लैय जैसे होयसल सेनापति मारे गये। अंत में अंकेय नायक दृढ विश्वास के साथ यादव सेना को निष्कासित करने के लिए अग्रसर हुआ। होयसल लेखों से ज्ञात होता है कि जिस तिक्कमरस ने एक ही क्षण में संपूर्ण द्वारसमुद्र को अधिकृत करने का प्रण किया था उसे अंकनायक ने पराजित किया। यादव सेनापति हरिपाल भयभीत हुआ। तिक्कमरस तथा जोगिदेव युद्ध से पलायित हुए। यादव सेना यद्यपि पराजित हुई किन्तु लूट में उसे अपार संपति पाप्त हुई।
इसके बाद होयसलों तथा यादवों के मध्य अनेक सीमावर्ती संघर्ष हुए। चूँकि होयसल राज्य नरसिंह एवं रामनाथ में विभाजित था इसलिए यादवों के सफल-प्रतिरोध में असमर्थ रहे।
उत्तर-पूर्व-
दक्षिण से मुक्त होने के पश्चात् रामचंद्र ने साम्राज्य विस्तार के लिए उत्तर-पूर्व की ओर अभियान किया। सर्वप्रथम बज्राकर (वैरगढ) तथा भण्डागार (भंदर) को आक्रांत किया। तदुपरांत त्रिपुरी को सहज ही अधिकृत किया। त्रिपुरी को ही केन्द्र मानकर मुसलमान राज्य को अधिकृत करने के लिए योजना बनायी। बनारस को मुसलमानों से मुक्त करने के लिए वहाँ तक आक्रमण किया। पुरुषोत्तमपुरी लेख से ज्ञात होता है कि बनारस को अधिकृत कर वहाँ एक सारंगधर मंदिर का निर्माण कराया। इस अभियान की तिथि बलवन की मृत्यु एवं जलालुद्दीन खिजली के राज्यारोहण के मध्य अर्थात १२८६ ई के पश्चात् मानी जाती है। यादव लेखों में कान्यकुब्ज एवं कैलाश तक विजय की घोषणा की गई है। किन्तु यह विश्वसनीय नहीं प्रतीत होता। इलाहाबाद के समीप कड़ा के सुबेदार से भी इसका संघर्ष हुआ।
रामचंद्र बनारस पर स्थायी अधिकार न रख सका। जैसे ही अलाउद्दीन कड़ा का गर्वनर हुआ, यादव सेना वापस लौटने के लिए बाध्य हई।
जिस समय यादव सेना गंगाघाटी में व्यस्त थी उस समय कोंकण, खेद तथा महिम के शासकों ने विद्रोह कर दिया, जिन्हें रामचंद्र के पुत्र शंकरदेव ने नियंत्रित किया।
तुर्क-अभियान-
१२९२ ई. तक यादव साम्राज्य अपने उत्कर्ष की चरम सीमा पर पहुंच गया। उत्तर में बनारस तक के शासकों को पराजित कर रामचंद्र ने यादवों को सर्वोच्च शक्ति के रूप में परिवर्तित कर दिया किन्तु इसी समय उत्तर से मुसलमानों का आक्रमण प्रारंभ हुआ जिससे मात्र २० वर्षों के भीतर ही यादव साम्राज्य उत्तर भारतीय मुस्लिम साम्राज्य का अंग बन गयी।
१२९४ ई. में ही कड़ा के गवर्नर के रूप में अलाउद्दीन ने रामचंद्र को आक्रांत किया। इस अभियान के कारणों पर प्रकाश डालते हुए यह बतलाया गया है कि अलाउद्दीन सम्राट बनने की इच्छा से साम्राज्यिक शक्ति का परिचय देना चाहता था। दूसरे रामचंद्र ने बनारस तक अभियान किया उसके प्रतिशोध से भी वह उत्प्रेरित था।
अलाउद्दीन ने सुनियोजित ढंग से यादवों को आक्रांत किया। सर्वप्रथम अपने गुप्तचरों से यह सूचना प्राप्त की कि यादव सेना दक्षिण के अभियानों में व्यस्त है। ऐसी स्थिति में इसने चंदेरी को अधिकृत किया। तदुपरांत राजमहेन्द्री पर आक्रमण किया। राजमहेन्द्री में गृहयुद्ध चल रहा था जिससे वहाँ के शासक ने स्वयमेव अलाउद्दीन की अधीनता स्वीकार की। साचूर के शासक ने प्रतिरोध उत्पन्न किया किन्तु उसे पराजित करते हुए अलाउद्दीन ने देवगिरि को घेर लिया।
रामचंद्र अचानक राजधानी में मुस्लिम सेना देख कर चकित रह गया। अलाउद्दीन के साथ ६००० एवं ८००० के मध्य अश्व सेना थी जबकि रामचंद्र की राजधानी में मात्र ४००० सेना अवशिष्ट थी। रामचंद्र ने अलाउद्दीन का प्रतिरोध तो अवश्य किया किन्तु पराजित होकर दुर्ग में शरण लेने के लिए बाध्य हुआ। रामचंद्र की योजना थी कि जब तक शंकरदेव दक्षिण से वापस नहीं लौटता तब तक तुर्क सेना को किसी तरह से रोके रहे। किन्तु अलाउद्दीन ने दुर्ग पर इस प्रकार से आक्रमण किया कि रामचंद्र संधि के लिए बाध्य हुआ। अलाउद्दीन ने अपार स्वर्ण, रत्न, ४० हस्ति एवं कई सौ अश्व के साथ संधि को स्वीकार किया। रामचंद्र ने अलाउद्दीन के साथ अपनी पुत्री का विवाह भी किया तथा एलिचपुर जिले से प्राप्त राजस्व वार्षिक कर के रूप में देना स्वीकार किया। जैसे ही मुस्लिम सेना प्रत्यावर्तन के लिए तैयार थी शंकरदेव आ पहुँचा।
शंकरदेव के आगमन के पश्चात् ही घटना के संबंध में मुस्लिम इतिहासकार मौन है। इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार पिता की आज्ञा के विरुद्ध शंकरदेव ने अलाउद्दीन से संघर्ष किया किन्तु पराजित हुआ। इसामी के अनुसार शंकरदेव ने पिता को आज्ञा मान कर कोर्ड संघर्ष नहीं किया यद्यपि उसकी सेना अलाउद्दीन से अधिक थी।
अलाउद्दीन के इस अभियान से यादवो की प्रशासनिक अयोग्यता का परिचय प्राप्त होता है, क्योंकि विन्ध्य की ओर कोई भी सुरक्षात्मक व्यवस्था नहीं की गई थी।
खिजली सुल्तानों का प्रभुत्व सम्पूर्ण उत्तर भारत पर स्थापित था। दक्षिण में यादव, काकतीय, होयसल एवं पांड्य उनके समक्ष नगण्य थे। संभव है कि यदि ये सम्मिलित रूप से तुर्को का सामना किये होते तो तुर्क अभियान कभी भी सफल न हो पाता। साथ ही परमारों एवं चालुक्यों को निर्बल बना कर यादवों ने तुर्क-अभियान के मार्ग को और भी सुगम बना दिया।
जैसे ही रामचंद्र अलाउद्दीन से पराजित हुआ, काकतीय शासक प्रतापरुद्र तथा होयसल नरेश बल्लाल द्वितीय ने यादवों पर आक्रमण कर दिया। जिसके फलस्वरूप अनंतपुर, रायचुर, सांतलिग एवं बनवासी यादवों के हाथ से निकल गये।
१३०३ ई. एवं १३०४ ई. तक रामचंद्र अलाउद्दीन को निरंतर वार्षिक कर भेजता रहा। जैसे ही अलाउद्दीन की सेना काकतीय प्रतापरुद्र से पराजित हुई, शंकरदेव ने अपने पिता को वार्षिक कर भेजने से मना कर दिया। शंकरदेव ने गुजरात के शासक कर्ण की पुत्री देवलदेवी के साथ विवाह करने का निश्चय किया, जिसकी माँ कमला देवी पहले से ही अलाउद्दीन के बंदीगृह में थी तथा देवलदेवी को भी अपने पास रखना चाहता था।
१३०७ ई. के लगभग मालवा विजय के पश्चात् सुल्तान ने एक सेना मलिक अहमद के नेतृत्व में देवलदेवी को अधिकृत करने के लिए भेजी तथा द्वितीय सेना मलिक काफूर के अधीन यादवों को नियंत्रित करने हेतु प्रेषित किया। इसामी के अनुसार रामचंद्र ने पहले ही सुल्तान के पास एक गुप्त संदेश भेजा था कि वह अपने पुत्र के हाथों बंदी बना हुआ है जिसके साथ इसकी कोई सहानुभूति नहीं है। काफूर ने देवगिरि के समीप शंकरदेव को पराजित किया एवं रामचंद्र को बंदी बना कर दिल्ली भेज दिया। दिल्ली में रामचंद्र के साथ उदारतापूर्वक व्यवहार किया गया। अलाउद्दीन ने इसे पुनः देवगिरि के सिंहासन पर अधिष्ठित कर नौसारी को व्यक्तिगत जागीर के रूप में प्रदान किया। रामचंद्र को राज-ए-राजन की उपाधि से विभूषित किया गया।
अलाउद्दीन के इस व्यवहार से रामचंद्र अत्यंत ही प्रसन्न हुआ तथा आजीवन उसका वफादार बना रहा। उसके पश्चात् देवगिरि को केन्द्र मानकर तुकों ने दक्षिण भारत के अन्य राज्यों पर आक्रमण किया। दो वर्ष पश्चात् जब द्वारसमुद्र पर आक्रमण करने के पूर्व अलाउद्दीन की सेना देवगिरि में ठहरी हुई थी तो उस समय रामचंद्र ने अनेक प्रकार से सहायता करते हुए अपने सेनापति पुरुषोत्तम को भी साथ भेजा। यादवों ने सुल्तान की सहायता कर न केवल अपनी वफादारी का परिचय दिया अपितु परंपरागत शत्रु होयसल नरेश बल्लाल द्वारा पराजय का प्रतिशोध भी लिया।
रामचंद्र के शासनकाल की अंतिम तिथि निश्चित रूप से ज्ञात नहीं होती। स्थूलतः हम १३११ ई. इसकी अंतिम तिथि स्वीकार कर सकते हैं। रामचंद्र ने अपने ४० वर्षीय शासन काल के प्रारंभिक वर्षों में अपनी शक्ति का तो परिचय दिया किन्तु मुस्लिम शक्ति के समक्ष आत्मसमर्पण कर अपनी राजनीतिक अदरदर्शिता का परिचय दिया। दक्षिण के अन्य राज्यों के विरुद्ध सुल्तान की सहायता कर इसने उत्तर-भारत के जयचंद्र का कार्य किया। यदि दक्षिण के समकालीन चारों राज्यों ने समवेत रूप से अलाउद्दीन का विरोध किया होता तो संभवतः मुस्लिम सत्ता की स्थापना न हो पाती।
