भिल्लम पंचम (देवगिरि का यादव शासक) Bhillama V (Yadav ruler of Devagiri)
कल्याणी के चालुक्यों के पतन के पश्चात् दक्षिण भारत के राजनीतिक रंग-मंच पर चार प्रमुख शक्तियाँ अवतरित हई। चालुक्य साम्राज्य का अधिकांश भाग देवगिरि के यादवों को प्राप्त हुआ। १३वीं शताब्दी में दक्षिणापथ का इतिहास यादवों से प्रभावित रहा। उनके समकालीन तीन प्रमुख अन्य राजवंश पांड्य, होयसल तथा काकतीय, चोल एवं चालुक्य साम्राज्य के उत्तराधिकारी के रूप में शासन किये। इनमें यादवों ने ही सर्वाधिक विस्तृत क्षेत्र को शासित किया। यद्यपि इनका इतिहास १३वीं शताब्दी में निश्चितरूपेण ज्ञात होता है फिर भी इनकी प्राचीनता ९वीं शताब्दी के अंत तक निर्धारित की जा सकती है। १३ वीं शताब्दी के पूर्व के शासकों के नाम हेमाद्रि के व्रतखण्ड तथा कुछ समकालीन लेखों से ज्ञात होते हैं किन्तु इनमें सत्यता कहाँ तक है निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।
यादवों ने अपना संबंध पौराणिक यदु से स्थपित करने का प्रयास किया है जो मूलतः मथुरा में निवास करते थे तथा बाद में काठियावाड के द्वारावती अथवा द्वारिका में आकर बस गये। इस पौराणिक आख्यान का कोई अभिलेखिक प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है। यद्यपि पौराणिक अनुश्रुति सात्वतों (यादवों) को पश्चिमी भारत से जोड़ती है तथा काठियावाड़ के खानदेश जैसे कुछ स्थानों में यादवों के होने के ऐतिहासिक भी है, इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि उनका कर्नाटक में शासन करने वाले यादवों से कोई सम्बन्ध था या नहीं। ७वीं शताब्दी में काठियावाड़ के सिंहपुर में एक यादव वंश के शासन का उल्लेख प्राप्त होता है किन्तु मथुरा से इनके आने का कोई संकेत नहीं है। यह भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि द्वारिका में सिंहपुर के यादवों के वंशज शासन किए हों।
द्वारिका से देवगिरि यादवों का प्रव्रजन अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि खानदेश में एक यादव परिवार काठियावाड के वल्लभी स्थान से आया, प्रमाणित होता है। काठियावाड में कोई भी ऐसा लेख अब तक प्राप्त नहीं हुआ है जिससे नवीं शताब्दी ई. में वहाँ से महाराष्ट्र में कोई यादव परिवार आकर बसा हो। जैन अनुश्रुति के अनुसार इस वंश के संस्थापक की माँ जिस समय गर्भवती थी उसी समय द्वारिका में भयंकर दैवी आपत्ति पड़ी। एक जैन साधु ने उसकी रक्षा की तथा नये स्थान पर उसने पुत्र को जन्म दिया। किन्तु इस दन्तकथा पर पूर्णतः विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि दक्षिण के अनेक राजवंश जैसे-होयसल एवं राष्ट्रकूट भी अपने को यदुवंशीय घोषित करते हैं तथा द्वारिका को अपना मूल स्थान बतलाते हैं। संभव है कि यादवों ने भी इस प्रकार की कल्पना की हो।
कर्नाटक क्षेत्र से उपलब्ध लेखों से धारवाड़ जिले में एक लघु यादव सामंत के शासन का ज्ञान 9वीं शताब्दी के अन्त में प्राप्त होता है। इसी समय नासिक में मुख्य यादव वंश का उदय हो रहा था किन्तु दोनों के मध्य सम्बन्ध नहीं था। इसलिए यादवों की कर्नाटक उत्पत्ति का भी समर्थन नहीं किया जा सकता। यादव शासक महादेव (1260-1270ई.) के मंत्री रहे हेमाद्रि ने अपने ग्रन्थ चतुवर्गचिन्तामणि के व्रतखण्ड की भूमिका में इस राजवंश के प्रारम्भिक राजाओं की वंशावली दी है।
प्रारम्भ में यह राजवंश उत्तरी महाराष्ट्र में विकसित हुआ। यहीं बाद में देवगिरि नामक राजधानी की स्थापना हुई।
भिल्लम पंचम –
यह इस वंश का प्रथम शासक था जिसने साम्राज्यिक उपाधियाँ धारण की तथा अपनी मृत्यु के चार वर्ष पूर्व स्वाधीनता घोषित की। इसके सिंहासनारोहण के समय दक्षिणापथ की राजनीतिक स्थिति में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। कल्याणी का चालुक्य राजवंश पतनोन्मुख हो रहा था। कलचुरि सामंत विज्जल ने तैलप तृतीय को सिंहासन से च्युत कर दिया। तैलप तृतीय के सामंत-वारंगल के काकतीय, द्वारसमुद्र के होयसल सौन्दत्ति के रट्ट, कोकण के शिलाहार तथा उत्तरी महाराष्ट्र के यादवों ने विज्जल की अधीनता अस्वीकार कर दिया। ११८३ ई. के लगभग सोमेश्वर चतुर्थ ने चालुक्यों को मुक्त तो कर दिया किन्तु परिवर्तित परिस्थिति के अनुकूल शासन करने में असफल रहा। इस समय कर्ण का पुत्र भिल्लल पंचम मुख्य यादव राज्य से पृथक अन्य किसी स्थान पर अपनी शक्ति को सुदृढ कर रहा था। यहीं से इसने अनेक दुर्गों पर छापा मारते हुए सर्वप्रथम कोंकण को अधिकृत किया। हेमाद्रि के अनुसार उसने अन्तल नामक शासक से श्रीवर्धन अपहृत किया; प्रत्यंडक को पराजित किया। मंगलवेष्टक के राजा बिल्हण की हत्या की, कल्याण को अधिकृत किया और होयसल शासक को मौत के घाट उतार दिया। श्रीवर्धन कोंकण का बन्दरगाह था। अल्तेकर महोदय इसे नागपुर के समीप स्थित मानते हैं। प्रत्यंडक की पहचान संदिग्ध है। बिल्हण शोलापुर का शासक था और मंगलवेष्टक इसी जिले का छोटा-सा नगर था। इस प्रकार उत्तरी कोकण तथा मध्य महाराष्ट्र को अधिकृत कर अपने पैतृक राज्य की ओर बढ़ा। हेमाद्रि के अनुसार यादव राजलक्ष्मी ने वैध उत्तराधिकारियों का परित्याग कर योग्य एवं गुणवान भिल्लम पंचम का वरण किया। यद्यपि उसकी निश्चित तिथि ज्ञात नहीं होती किन्तु अधिक संभव है कि ११८०-८५ ई. के मध्य इसने सिन्नर के सिंहासन को सुशोभित किया होगा।
विजयें-
भिल्लम पंचम उत्तरी महाराष्ट्र की अपनी पैतृक भूमि से ही संतुष्ट न रहा। इसकी विजयों का क्रम निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। अधिक संभव है कि चालुक्यों की राजनीतिक अस्थिरता से दक्षिणी सीमा को सुरक्षित समझ कर इसने सर्वप्रथम मालवा एवं गुजरात की ओर आक्रमण किया हो।
मालवा एवं गुजरात की राजनीतिक स्थित अस्त-व्यस्त थी। परमार एवं चालुक्य आपस में ही संघर्षरत थे। मुतुगि लेख के अनुसार यह मालवों के लिए सिरदर्द तथा गुर्जर-प्रतिहारों के लिए भयंकर मेघगर्जन था। इसी समय मालवा एवं गुजरात पर मुसलमानों का भी आक्रमण हुआ जिससे चालुक्य-भिल्लम पंचम की सेना को अवरूद्ध करने में असमर्थ रहे। भिल्लम विजय करता हुआ मारवाड़ पहुँचा क्योंकि नाडोल के चाहमान शासक केल्हण ने भिल्लम को पराजित करने का दावा किया है। मुतुगि लेख में भिल्लम पंचम को अंग, वंग, नेपाल एवं पंचाल का भी विजेता कहा गया है। यह विवरण अतिशयोक्तिपूर्ण है क्योंकि गुजरात से आगे बढ़ने का कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता। इसने राजपूताना की सीमा तक विजय तो अवश्य किया किन्तु इससे इसकी सीमा में कोई वृद्धि न हुई।
सोमेश्वर चतुर्थ, बल्लाल, मालवा एवं गुजरात विजय के पश्चात् भिल्लम पंचम ने कल्याणी की ओर ध्यान दिया। कल्याणी का चालुक्य शासक सोमेश्वर चतुर्थ ११८३ ई. के लगभग कलचुरि सामंत को पराजित कर अपनी राजधानी को मुक्त तो कर लिया किन्तु यह शांतिपूर्वक इस विजय का उपभोग न कर सका। उत्तर से भिल्लम पंचम तथा दक्षिण से बल्लाल ने चालुक्य साम्राज्य को अधिकृत करना चाहा। सोमेश्वर चतुर्थ ने सर्वप्रथम दक्षिण की ओर सेनापति ब्रह्म को भेजा, जो बल्लाल द्वारा पराजित हुआ। सोमेश्वर चतुर्थ अपनी राजधानी की रक्षा करने में असमर्थ रहा तथा वनवासी में जयन्तीपुर नमक स्थान पर शरण लिया। इस प्रकार भिल्लम पंचम जब कल्याणी की ओर बढ़ा उस समय कल्याणी पर होयसलों का अधिकार था। बल्लाल इस युद्ध में पराजित हुआ तथा कल्याणी का परित्याग कर इसे अपनी राजधानी द्वारसमुद्र वापस लौटना पड़ा। इस प्रकार संपूर्ण चालुक्य साम्राज्य भिल्लम के अधिकार में आ गया। तदुपरांत होयसल साम्राज्य में हसन जिले तक इसने आक्रमण किया। हेमाद्रि ने इस संघर्ष में बल्लाल की मृत्यु का उल्लेख किया है किन्तु अभिलेखिक साक्ष्यों से यह निर्विवाद रूप से ज्ञात होता है कि इस युद्ध के बाद भी बल्लाल जीवित रहा। भिल्लम के लेखों से ज्ञात होता है कि ११८६ई. से इसने नवीन शासन वर्ष की गणना प्रारंभ की जो कल्याणी के विजय की तिथि है।
कल्याणी में पराजित होने के पश्चात् वल्लाल ने लगभग दो वर्षों तक अपनी शक्ति में वृद्धि किया तथा दक्षिणी चालुक्य साम्राज्य को अधिकृत करने का प्रयास किया। ११८९ ई. तक इसने वनवासी तथा नोलम्बवाडी को अधिकृत कर बीजापुर तथा धारवार की ओर बढ़ा। भिल्लम पंचम ने इसे अवरूद्ध करने के लिए धारवार की ओर प्रस्थान किया। ११९१ ई. में यह गडग में ठहरा हुआ था। शीघ्र ही इसके पश्चात् यादव तथा होयसल सेनाओं में सोरतूर नामक स्थान पर भयंकर संघर्ष हुआ जिसमें बल्लाल पूर्णतः सफल रहा तथा यादव सेना पराजित हुई। होयसल लेखों से ज्ञात होता है कि बल्लाल ने बेलबोल तक विजय प्राप्त किया तथा असंख्य यादव सेना का वध किया।
इस संघर्ष में यादव सेनापति जैत्रपाल मारा गया। होयसलों ने एरम्बर, बुरुगोद, गुत्ति तथा हङ्गल को अधिकृत कर लिया। कृष्णा तथा मलप्रभा नदियाँ यादव एवं होयसल साम्राज्य की सीमाएँ बनीं।
११९१ ई. के एक होयसल लेख में भिल्लम के वध का संकेत है किन्तु यह विवरण एकदम अतिशयोक्तिपूर्ण है। वास्तव में इस संघर्ष में सेनापति जैत्रपाल का वध हुआ था जिसका स्पष्ट उल्लेख गडग लेखों में प्राप्त होता है। इस युद्ध के समय तक भिल्लम पंचम अति वृद्ध हो गया था और यह संभव है कि इस पराजय से चिंतित होकर कुछ ही समय के बाद दिवंगत हुआ हो।
तथापि यादववंश के इतिहास में भिल्लम पंचम के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता। उसने सिन्नेर के एक छोटे सरदार तन्त्र की राजनीति में हस्तक्षेप करके उसके अत्यन्त कमजोर और आपस में लड़ने वाले समूहों का अन्त किया। एक सशक्त, स्वतन्त्र और उन्नतिशील यादववंश की एक तरह से नींव डाली, मालवा और गुजरात की विजयों द्वारा अपनी और अपने वंश की प्रतिष्ठा बढ़ायी, कोंकण, खानदेश तथा दक्षिणी महाराष्ट्र और उत्तरी कर्नाटक के क्षेत्रों को उनके अनेक दुर्गों सहित जीतकर एक विशाल क्षेत्र पर अपनी सत्ता स्थापित की तथा कल्याणी पर अधिकार करके पूर्णतः वहाँ शासन करने वाले चालुक्यों के उत्तराधिकारी बने। यादव वंश के शासकों में सबसे पहले इसने ही महाराजाधिराज, परमेश्वर तथा परमभट्टारक की उपाधि धारण की। कालेगाँव अभिलेख में उसे सार्वभौम शासक तथा गडग अभिलेख में कृष्ण का अवतार कहा गया है। उसने लगभग ११९३ ई. तक शासन किया।
