देवगिरि का यादव शासक सिंघण (सिंघण, सिंघन, सिंहन) द्वितीय(Singhan (Singhan, Singhan, Singhan) II, Yadava ruler of Devagiri)
देवगिरि का यादव शासक सिंघण (सिंघण, सिंघन, सिंहन) द्वितीय
जैतुगि के पश्चात् १२१० ई. के लगभग यादव वंश का सर्वशक्तिमान शासन सिंघण देवगिरि के सिंहासन पर आसीन हुआ। लगभग १० वर्षों तक युवराज के रूप में प्रशिक्षित होने के कारण इसने यादव साम्राज्य को पुरातन चालुक्य साम्राज्य के तुल्य विस्तृत किया। युवराज के रूप में ही इसने काकतियों तथा अन्य शासकों के विरुद्ध सफल अभियान किया था। परम्परानुसार इसका जन्म पर्णाखेत की नारसिंही देवी की कृपा से हुआ था। अतः दैवी शक्ति से सम्पन्न सिंघण अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति में सदैव सफल रहा।
होयसल – सिंहासनारोहण के पश्चात् १२११ ई. के लगभग सिंघण ने अपने सेनापति बीचण को होयसल साम्राज्य पर आक्रमण करने के लिए प्रेषित किया। कृष्णा एवं मलप्रभा की सीमा इसके पूर्व ही यादवों द्वारा उल्लंघित थी। १२०६ ई. के एक लेख से ज्ञात होता है कि बीजापुर जिले का अधिकांश भाग जीत कर केशवदेव को वहाँ का शासक नियुक्त किया था। गडग लेख के अनुसार १२१३ ई. तक धारवार यादवों के अधिकार क्षेत्र में आ गया था। यादव सेना ने अनंतपुर, बेलारी, चित्तलदुर्ग तथा शिमोगा जिलों को अधिकृत कर लिया। समकालीन होयसल नरेश बल्लाल द्वितीय इस अभियान को अवरुद्ध करने में असफल रहा। १२१५ ई. तक संपूर्ण वनवासी को अधिकृत कर सर्वाधिकारिन मयिदेव को शासक नियुक्त किया। ये समस्त क्षेत्र संपूर्ण १३वीं शताब्दी में यादवों द्वारा शासित रहा। किसी होयसल शासक द्वारा इसे मुक्त करने का प्रयास नहीं किया गया। होयसलों के अधीनस्थ सिंद विक्रमादित्य, गुत्तवीर विक्रमादित्य द्वितीय तथा अन्य सामंतों ने यादवों की अधीनता स्वीकार की। इन विजयों से प्रोत्साहित होकर सिंघण ने द्वारसमुद्र पर आक्रमण किया। होयसल सेनापति एलवरे संघर्ष करता हुआ मारा गया। इसी संघर्ष में कावेरी तट पर रंग नरेश जलाल्लदेव तथा विराट नरेश कक्कल्ल को भी पराजित किया। इस प्रकार तुंगभद्रा तक यादव साम्राज्य विस्तृत हो गया।
शिलाहार- कोल्हापुर में शिलाहार शासक भोज द्वितीय शासन कर रहा था। 1216 ई. के लगभग सिंहण ने भोज द्वितीय को आक्रांत कर पराजित किया। भोज द्वितीय पर इसने क्यो आक्रमण किया? इस संबंध में यह ज्ञात होता है कि भोज एक स्वतंत्र शासक के रूप में व्यवहार करने लगा था। इसके पिता विजयादित्य ने कल्याणी नरेग तैलप तृतीय को कलचुरि विज्जण से सुरक्षित किया था। जब होयसल एवं यादव भंयकर रूप से संघर्षरत थे उसी समय इसने स्वाधीनता सूचक उपाधियाँ धारण की। 1187 ई. में इसने कलिविक्रम तथा १२०५ ई. में परम भट्टारक राजाधिराज एवं पश्चिमचक्रवर्ती की उपाधियाँ ग्रहण की। यहाँ तक कि भोज ने यादवों पर आक्रमण भी कर दिया। इसको सदैव के लिए समाप्त करने के लिए सिंघण ने कोल्हापूर पर आक्रमण कर दिया। भोज ने परनाल अथवा पनहाला के दुर्ग में शरण ली। अंततः वहाँ भी भोज पराजित हुआ। इस संघर्ष के पश्चात् भोज द्वितीय का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता तथा १२१८ई. से अनेक यादव लेख इस क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं। सिंघण के एक अधिकारी तैलप ने कोल्हापुर के अम्बाबाई मंदिर के प्रवेश द्वार का जीर्णोद्धार कराया। इससे यह निश्चितरूपेण ज्ञात होता है कि कोल्हापुर यादवों के प्रत्यक्ष शासन में आ गया।
मालवा एवं गुजरात – चालुक्य एवं परमार शासक इस समय मुस्लिम अभियान से संत्रस्त थे। चालुक्य भीम तथा परमार अर्जुन वर्मा आपस में ही संघर्ष कर रहे थे। लाट का सामंत सिंह अर्जुनवर्मा की अधीनता स्वीकार कर रहा था।
अर्जुनवर्मा का विवाह होयसल राजकुमारी सर्वकला के साथ हुआ था जो संभवतः बल्लाल द्वितीय की पुत्री अथवा पौत्री थी। यह भी संभव है कि अर्जुन वर्मा ने यादवांे के विरुद्ध होयसलों की सहायता की हो। फलतः १२१५ ई. के पश्चात् सिंघण ने अर्जुन वर्मा को आक्रांत किया। हेमाद्रि के अनुसार अर्जुनवर्मा इस संघर्ष में पराजित हुआ एवं मारा गया। १२१६ या १७ ई. के पश्चात् अर्जुनवर्मा का कोई उल्लेख न प्राप्त होने के कारण हेमाद्रि का विवरण सत्य प्रतीत होता है। परमारों के पतन के पश्चात् लाट का शासक सिंह असहाय होकर चैलुक्य नरेश भीम की शरण में गया। हम्मीरमदमर्दन में इस संघ का उल्लेख तो अवश्य है किन्तु इसकी परवर्ती घटनाओं का कोई संकेत नहीं है। कीर्तिकौमुदी के अनुसार चैलुक्य मंत्री लवणप्रसाद ने सिंघण को लौटने के लिए बाध्य किया। यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि कीर्तिकौमुदी का यह विवरण सिंघण के किस अभियान की ओर संकेत करता है। संभव है कि लाट एवं गुजरात के संघ के फलस्वरूप सिंघण मालवा विजय से ही वापस लौट आया हो। गुजरात एवं लाट के शासकों ने इस समय अपनी विजय का दावा किया है किन्तु इसके विपरीत १२१८ई. के लगभग सिंघण ने मालवा एवं गुजरात विजय की घोषणा की हो।
१२२० ई. के लगभग सिंघण ने अपने सामन्त खोलेश्वर को द्वितीय बार मालवा एवं गुजरात की ओर भेजा। लाट में अभी भी चाहमान शासक सिंह शासन कर रहा था। गुजरात का चालुक्य सिंहासन जयन्तसिंह द्वारा अपहृत कर लिया गया था। भीम तथा उसके मंत्री लवण प्रसाद उसके निष्कासन में ही व्यस्त थे जिससे सिंह की कोई सहायता न कर सके। इस युद्ध में सिंह तथा उसके भाई सिंधुराज मारे गये। सिंधुराज का पुत्र संग्राम सिंह बंदी बनाया गया तथा लाट पर यादवों का अधिकार स्थापित हो गया। अम्बे अभिलेख में भडौच में खोलेश्वर द्वारा विजय स्तंभ स्थापित करने का उल्लेख है। सिंघण ने संग्रामसिंह को मुक्त कर अधीनस्थ शासक के रूप में नियुक्त किया।
संग्राम सिंह ने सिंघण को नवारूढ मालवा नरेश देवपाल को आक्रांत करने के लिए प्रोत्साहित किया। खोलेश्वर के साथ ही साथ सिंह ने भी यादव सेना का साथ दिया। इस अभियान से गुजरात की स्थिति अस्त-व्यस्त हो गई। कीर्तिकौमुदी तथा हम्मीरमदमर्दन में मालवा एवं गुजरात के इस अभियान का विवरण देते हुए यह बतलाया गया है कि लवण प्रसाद ने एक गुप्तचर द्वारा देवपाल नामंाकित परमार सेना का एक अश्व चुरवाया तथा दो गुप्तचर द्वारा उसे संग्रामसिंह को भेट स्वरूप प्रदान किया। इसी समय सिंघण के पास एक जाली पत्र भेजा गया कि संग्रामसिंह तथा देवपाल आपस में मिले हए हैं तथा सिंघण का वध करने का षड्यंत्र कर रहे हैं। प्रमाणस्वरूप देवपाल नामांकित संग्रामसिंह को दिया गया अश्व प्रस्तुत किया गया जिससे सिंघण इस पत्र पर विश्वास करने लगा। कीर्तिकौमुदी के अनुसार यद्यपि लवणप्रसाद उत्तरी शत्रुओं से आवृत्त था फिर भी सिंघण गुजरात पर आक्रमण करने का साहस न कर सका। लेखपद्धति के अनुसार लवण प्रसाद एवं सिंघण में एक संधि हुई जिसकी शर्तों के अनुसार सिंघण ने पुनः गुजरात पर न आक्रमण करने का वचन दिया। इस प्रकार १२३१ ई. के आसपास लवण प्रसाद एवं सिंघण के मध्य युद्ध का अंत हुआ।
अन्य संघर्ष – मालवा एवं गुजरात अभियान में सिंघण के व्यस्त होने के कारण उसके सामंतों ने अपनी स्वाधीनता घोषित करने का प्रयास किया। बेलगांव में रट्ट सामंत सतंभ से ही यादवों की अधीनता स्वीकार रहे थे। १२२८ ई. के लगभग रट्ट लक्ष्मीदेव द्वितीय ने संभवतः विद्रोह किया। फलतः सेनापति बीचण ने लक्ष्मीदेव द्वितीय को पराजित कर उसे मौत के घाट उतारा।
धारवार के गुप्त, हंगल तथा गोवा के कदम्ब शासकों ने यादवों के स्थान पर यसलों की अधीनता स्वीकार की। बीचण ने उन्हें भी नियंत्रित किया। गोवा का कदम्ब शासक त्रिभुवन मल्ल पराजित हुआ। अन्य शासकों ने पुनः यादवों की अधीनता स्वीकार की।
कोल्हापुर में शिलाहार शासक भोज द्वितीय को भी परनाल अथवा पनहाला के दर्ग में शाजित किया। इस प्रकार पश्चिमी सीमा के सभी सामंतों ने पुनः यादव सत्ता को स्वीकार किया।
काकतीय- काकतियों में इस समय गणपति शासन कर रहा था जो प्रारंभ में यादव बंदीगृह में था। गणपति सदैव यादवों का वफादार बना रहा। काकतीय लेखों में ने यादवों के विरुद्ध कभी भी सिर उठाने का साहस न किया हो। का संकेत है किन्तु यादव लेखों में इसका कोई संकेत नहीं है।
मालवा एवं गुजरात पर पुनः अभियान- 1231 ईं के लगभग सिंघण ने संभवतः चैथी बार गुजरात पर विजय पाने का प्रयास किया। गुजरात में लवण प्रसाद तथा उसके पुत्र वीरधवल के पश्चात् वीरधवल का पुत्र बीसलदेव शासक हुआ। यादव सेनापति खोलेश्वर की मृत्यु के बाद इसका पुत्र राम सेनापति हुआ जिसने सिंहण को बीसलदेव पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया।
लाट का सामंत यादवों के अधीन था इसलिए नर्मदा तक यादव सेना निर्विरोध पहुँच गई। नर्मदा पार कर यादव तथा चैलुक्य सेना के मध्य भयंकर संघर्ष हुआ जिसमें यादव सेनापति राम मारा गया। गुजरात लेखों मे बीसलदेव को यादव सेना का विजेता कहा गया है। इसके विपरीत यादव लेखराम की मृत्यु के साथ यादव विजय की पुष्टि करते हैं। संभवतः यह संघर्ष अनिर्णीत रहा। इसके बाद सिंघण के काल में उत्तरी अभियान का कोई उल्लेख नहीं है।
सिंघण के इन अभियानों के फलस्वरूप यादवों का कोई विशेष लाभ तो नहीं हुआ किन्तु चैलुक्य एवं परमार शक्ति पूर्णतः जर्जरित हो गई जिससे मुस्लिम आक्रमणकारियों का अभियान सुगम हो गया।
मथुरा एवं बनारस – १२०६ ई. के एक पाटन लेख से ज्ञात होता है कि मथुरा तथा बनारस के शासक यादव सेना से भयभीत थे। हेमाद्रि के विवरण से ज्ञात होता है कि सिंघण ने जाजल्ल तथा कक्कुल को पराजित किया था। जाजल्ल एवं कक्कुल नाम से कलचुरि शासक ज्ञात होते हैं किन्तु समकालीन त्रिपुरि के कलचुरियों के इतिहास में इस नाम के शासकों का कोई ज्ञान उपलब्ध नहीं होता। मथुरा एवं बनारस पर इस समय मुसलमानों का अधिकार बना हुआ था। यह संभव प्रतीत होता है कि मथुरा एवं बनास के शासक मुसलमानों से भयभीत होकर मध्य प्रान्त की पहाड़ियों में छिपें हों तथा उन्होंने स्थानीय नाम जाजल्ल एवं कक्कुल से अपने को संबोधित किया हो। यहीं जबलपुर के समीप ही मथुरा एवं बनारस के इन छिपे हुए शासकों से सिंघण का सीमावर्ती संघर्ष हुआ जिन्हें हेमाद्रि ने जाजल्ल एवं कक्कुल की संज्ञा प्रदान की है।
किंचित यादव लेखों में यादव सेनापति खोलेश्वर, राम अथवा बीचण को सिंध पंचाल, बंगल, अंग, केरल एवं पांड्य का विजेता कहा गया है जो एकदम काल्पनिक है।
राजनीतिक विजेता के साथ ही साथ सिंघण साहित्य एवं साहित्यकारों का भी आश्रयदाता था। सारंगदेव का संगीत रत्नाकर इसी के दरबार में लिखा गया था। चंगदेव तथा नामक दो खगोलशास्त्री इसके दरबार के महत्वपूर्ण ज्योतिषी थे।
यादव साम्राज्य इसके शासन काल में अपने उत्कर्ष की चरमसीमा पर पहुँच गया। होयसल, काकतीय, परमार अथवा चालुक्य किसी में भी इतनी शक्ति न थी जो इसे चुनौती दे सकें। इसका साम्राज्य उत्तर में भडौच एवं नागपुर से लेकर दक्षिण गिर्साेप्प एवं कर्नूल तक विस्तृत था। इसका पुत्र जैतुगि इसी के शासन काल में चल बसा। इसलिए १२४० ई. के लगभग इसकी मृत्यु के पश्चात् इसका पौत्र कृष्ण उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ।
