सैन्धव सामाजिक जीवन मानव सभ्यता का आरम्भ भारत में ईसा से लगभग एक लाख वर्ष पूर्व हुआ। जब इस बात की चर्चा भारतीय शास्त्रों और पुराणों के आधार पर की जाती थी तो विदेशी ही नहीं भारतीय भी इसे मजाक मानते थे. लेकिन जब 1957 ई. में डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर, जिन्हें भारत में ‘पाषाण कला का पितामह’ कहा जाता है, ने भीमबेटिका या भीमबैठका (मध्य प्रदेश) के शैलाश्रय की खोज की। इस शैलाश्रय पुरास्थल से प्रागैतिहासिक काल में मानव के आवास के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। भीमबैठका से प्राप्त औजारों एवं अन्य वस्तुओं का काल निर्धारण जब किया गया तब विश्व के पुरातत्त्वविदों को यह मानना पड़ा कि भारत में निश्चय ही ईसा में लगभग एक लाख वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश के भीमबैठका में मानव निवास करता था। इतिहास में सिन्धु घाटी की सभ्यता के नाम से विख्यात हड़प्पा सभ्यता भारत की वह महान् सभ्यता है, जिसके आधार पर हम भारतीय गर्व से कह सकते हैं कि भारतीय स्त्री-पुरुषों ने बहुत ही सुनियोजित ढंग से नगरों में बसना आरम्भ कर दिया था। ग्रामों के साथ-साथ विशाल नगर स्थापित किये जा चुके थे और भौतिक साधनों की अधिकता से मानव-जीवन आनन्द एवं उल्लास से भर गया था। 1921ई. से पहले अतीत के खण्डहरों में दबी हुई इस सभ्यता का ज्ञान न होने से पूर्व यह माना जाता था कि भारतीय मानव विश्व सभ्यताओं की तुलना में बहुत बाद में सभ्य हुआ। भारतीयों के पास प्राचीनतम सभ्यता के रूप में ऋग्वैदिक संस्कृति का ही ज्ञान था। यह ऋग्वैदिक संस्कृति विश्व की प्राचीन सभ्यताओं-सुमेरियन, बेबीलोनियन, नील नदीघाटी की मिस्र सभ्यता से बहुत बाद की थी कि भारतीय मानव विश्व के अन्य स्रोतों की तुलना में जिन्दगी की कला में, रहन-सहन के साधनों में विद्वतापूर्ण तरक्की एक लम्बे सफर के बाद बहुत देर से कर पाया था। सिन्धु सभ्यता के इतिहास ने पूर्व न्यायाधीशों के निर्णयों को बदल दिया और यह साबित कर दिया कि भारत अपने उषाकाल में यौवन को प्राप्त कर चुका था। नव पाषाणकालीन संस्कृति की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है- गैर-धात्विक उपकरण और कृषि की जानकारी के साथ ग्रामीण जीवन का विकास। माना जाता है कि मानव ने सर्वप्रथम जिस धातु को औजारों में प्रयुक्त किया, वह ताँबा था और इसका सबसे पहले प्रयोग करीब 5000 ई.पू. में किया गया। जिस काल में मनुष्य ने पत्थर और ताँबे के औजारों का साथ-साथ प्रयोग किया, उस काल को ‘ताम्र-पाषाणिक काल’ कहते हैं। भारत की ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों में गैर-नगरीय और गैर-हड़प्पाई संस्कृतियों की गणना की जाती है। सर्वप्रथम इनका उदय दूसरी सहस्त्राब्दी ई.पू. में हुआ और जिनको अंत में लौह प्रयोक्ता संस्कृतियों ने विस्थापित कर दिया। तिथिक्रम के अनुसार भारत में ताम्रपाषाणिक बस्तियों की अनेक शाखाएँ हैं। कुछ तो प्राक् -हड़प्पाई है कुछ हड़प्पा संस्कृति के समकालीन हैं, और कुछ हड़प्पा के बाद की हैं। प्राक् हड़प्पाकालीन संस्कृति के अंतर्गत राजस्थान के कालीबंगा एवं हरियाणा के बनावली स्पष्टतः ताम्र-पाषाणिक अवस्था के हैं। कृषि का ज्ञान हो जाने के बाद प्राचीन कालीन मानव अधिकतर उस स्थान पर बसना पसन्द करते थे, जहाँ की भूमि कृषि के योग्य होती थी और सिंचाई की समुचित व्यवस्था होती थी। इसी कारण अधिकांश प्राचीन सभ्यताओं का विकास नई घाटी एवं उसके समीपवर्ती प्रदेशों में हुआ। सामाजिक जीवन – सिन्धु सभ्यता की लिपि अब तक न पढ़े आने के कारण सामाजिक जीवन के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। फिर भी सैंधव सभ्यता के विभिन्न स्थलों से पाये गये पुरावशेषों के आधार पर इस सभ्यता के सामाजिक जीवन, रहन-सहन आदि के बारे में कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। सैन्धव समाज में सामाजिक स्तरीकरण था। विद्वान, पुरोहित, योद्धा, व्यापारी, श्रमिक आदि को वर्ण व्यवस्था का पूर्व रूप मान सकते हैं। भवनों के आकार-प्रकार एवं आर्थिक विषमता के आधार पर लगता है कि विश्व की अन्य सभ्यताओं की भाँति हडप्पाई समाज भी वर्ग-विभेद पर आधारित था। दूसरे रक्षा प्राचीरों से घिरे दुर्ग इस ओर संकेत करते हैं कि यहाँ सम्पन्न व्यक्ति (पुरोहित तथा शासक वर्ग) रहता था। निचले नगर क्षेत्र में व्यापारी, अधिकारी, शिल्पी, एवं सैनिक रहते थे। कृषक, कुम्भकार, बढ़ई, जुलाहे, शिल्पी, श्रमिक आदि सैन्धव समाज के अन्य वर्ग रहे होंगे। मोहनजोदडो से प्राप्त कुछ कक्षों को कुम्हारों की बस्ती माना जाता है। बणावली से प्राप्त व्यापारी एवं आभूषण निर्माता के मकान, लोथल से प्राप्त बाजार वाली गली एवं नौसारों से प्राप्त मुहरों से व्यापारी वर्ग का अस्तित्व प्रमाणित होता है। उच्च वर्ग के लोग मूल्यवान धातु-पत्थरों के आभूषण प्रयोग करते थे, जबकि निम्नवर्गीय लोगों के आभूषण मिट्टी, सीप एवं घोंघे के होते थे। विशाल भवनों के निकट मिलने वाले छोटे आवासों से स्पष्ट है कि समाज में वर्ग-विभाजन विद्यमान था। प्राप्त पुरावशेषों से हडप्पाई समाज में शासक, कुलीन वर्ग, विद्वान, व्यापारी तथा शिल्पकार, कृषक और श्रमिक जैसे विभिन्न वर्गों के अस्तित्व की सूचना मिलती है। दुर्ग के निकट श्रमिकों की झोपड़ियाँ मिली हैं। इन हड़प्पाई श्रमिक-बस्तियों के आधार पर ह्नाीलर महोदय ने समाज में दास प्रथा के अस्तित्व का अनुमान किया है। डी. एच. गार्डेन का मत है कि सैन्धव स्थलों के उत्खनन से कतिपय ऐसी मूर्तियाँ मिली हैं, जिनमें पुरूषों एवं स्त्रियों को अपने घुटनों को बाँहों से घेरकर बैठे हुए दिखाया गया है। उनके शिरों पर गोल टोपी भी है। ये मूर्तियाँ गुलामों की हैं। इससे स्पष्ट है कि सैन्धव समाज में दास प्रथा का प्रचलन रहा होगा। यद्यपि कुछ पुराविद् इससे सहमत नहीं हैं। इस सभ्यता के लोग युद्धप्रिय कम, शांतिप्रिय अधिक थे। परिवार – सम्भवतः समाज की इकाई परिवार था। उत्खनन में प्राप्त विशाल भवनों के आधार पर अनुमान है कि बड़े परिवारों में अनेक व्यक्ति रहते होंगे। खुदाई में प्राप्त बहुसंख्यक नारी-मूर्तियों से लगता है कि प्राक् -आर्य संस्कृतियों की भाँति सैंधव समाज भी मातृसत्तात्मक था। परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई थी, जिसमें पति-पत्नी उनके बच्चे होते थे। परिवार की देख-रेख, उनके भरण-पोषण आदि की व्यवस्था करना पति का कर्तव्य था। सैन्धव पुरास्थलों से प्राप्त स्त्री-मूर्तियाँ सिन्धु समाज की दो विशेषताओं की अभिव्यक्ति करती हैं, प्रथम स्त्री को भोग की वस्तु माना जाता था। द्वितीय स्त्री मूर्तियों से यह भी स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समाज में स्त्रियाँ विभिन्न प्रकार के कार्यों को सम्पादित करती थीं और पुरुषों का सहयोग करती रही होगी। ऐसा लगता...
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