प्रत्येक देश में सामाजिक संगठन, विभाजन एवं स्तरीकरण का स्वरूप उसकी अपनी भौगोलिक परिस्थितियों, जीवन की आवश्यकताओं, सांस्कृतिक परम्पराओं और ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया का परिणाम होता है। भारत की सामाजिक व्यवस्था की अपनी विशेषता है। भारतीय सामाजिक संरचना का प्राचीनतम् ज्ञात रूप वर्ण व्यवस्था है। भारतीय चिन्तकों ने इसे सदैव ही उच्च गौरव और महत्व दिया है। यह भारतीय समाज की आधारशिला है। यदि एक शब्द के द्वारा पूरी भारतीय व्यवस्था का बोध कराना हो तो वर्णाश्रम शब्द का उपयोग निरन्तर होता रहा है। वर्णो की दैवी उत्पत्ति की कल्पना वर्ण-व्यवस्था की श्रेष्ठता के साथ ही उसकी प्राचीनता की सूचक है। समाज का सदस्य होने पर भी मनुष्य की कुछ ऐसी आवश्यकताएँ होती हैं जिनका उसके लिए विशेष महत्व होता है। समष्टि रूप में ये आवश्यकताएँ सामाजिक जीवन की मौलिक आवश्यकता बन जाती हैं। इसकी पूर्ति से ही समाज का उत्थान, कल्याण और विकास सुचारू रूप से हो सकता है। इसी के अनुरूप प्राचीन भारत की सामाजिक संस्थाओं में उन कार्यविधियों, उपकरणों, क्रियाओं और व्यवहारों का समावेश है जो समाज के विभाजन के स्वरूप को वैज्ञानिक, दार्शनिक और व्यावहारिक स्वरूप प्रदान करते हैं। धर्मसूत्रों में वर्ण-व्यवस्था अपने विकसित और सुस्थिर रूप में मिलती है। इसका निर्वाह स्मृतियों में किया गया है। धर्मशास्त्रों के विविध विधानों में वर्ण-व्यवस्था ही प्रमुख आधार है। आश्रम और संस्कारों के अनुष्ठान में ही नहीं प्रशासनिक कार्यों, न्यायालयीय प्रक्रिया और विधि के नियमों में भी वर्ण के आधार पर अन्तर देखने को मिलता है। वास्तव में सामाजिक जीवन के विविध पहलू, जो धर्मशास्त्रीय कल्पना के व्यापक आयाम में समाहित हैं, पद-पद पर वर्णभेद के आधार पर अन्तर को परिलक्षित करते हैं। प्राचीन भारत में ऐसे शाश्वत मूल्यों का निर्धारण किया गया, जिनके आधार पर भौतिक और आघ्यात्मिक उपलब्धियाँ समान रूप से सुलभ हो सकें। जबकि पश्चिमी जगत की संस्कृति में धर्म और राज्य के बीच प्रायः संघर्ष होता रहा है। सामाजिक वर्ग भिन्नता एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। विश्व के प्रायः सभी देशों में इसका अस्तित्व बना रहा। परन्तु यह भिन्नता कहीं भी इतनी जटिल नहीं रही जितनी भारतीय समाज में। प्राचीन भारत में वर्ण-व्यवस्था का एक स्थायी आधार होते हुए भी इसकी धारणा निरन्तर परिवर्तनशील रही है। समाज को निरन्तर प्रगतिशील और समयानुकूल बनाने के लिए भारतीय सामाजिक चिन्तकों ने कतिपय शाश्वत मूल्यों का निर्धारण किया। वर्ण-व्यवस्था इन शाश्वत मूल्यों में से एक थी। व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए वर्णो की व्यवस्था की गयी। व्यक्ति और समूह के अस्तित्व को मानव जगत् में ही नहीं, देवलोक में भी स्वीकार किया गया। ‘ताण्डय ब्राह्मण’ (6. 9. 2) में मनुष्य को देवताओं का ग्राम (समूह) कहा गया है (नरो वै देवानां ग्रामः)। मनुष्य को देवताओं का ग्राम इसलिए कहा गया है कि उसमें ऋषि, पितर, देव, असुर और गन्धर्व आदि के अंश विद्यमान होते हैं। इस प्रकार मनुष्य में स्वभावतः अपने अंशी या धर्मी की कुछ प्रवृत्तियों का समन्वय होता है। इसी समन्वय के कारण उसे सामाजिक प्राणी कहा गया है। मनुष्य के द्वारा ही जब समाज की रचना होती है, तो निश्चित ही समाज की उन्नति में मनुष्य की उन्नति भी अनुस्यूत है। समाज की सीमाएँ व्यापक हैं। परिवार, देश, राष्ट्र ये उसी के ही उत्तरोत्तर विकास के परिणाम हैं। सामान्य तौर पर वर्ण- व्यवस्था द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का वर्गीकरण किया जाता है और प्रायः यह समझा जाता है कि इस व्यवस्था द्वारा प्राचीन भारत में समाज को चार वर्णो में विभाजित किया हुआ था। ‘ वर्ण ’ का अर्थ – प्राचीन कालीन ‘ वर्ण ’ शब्द के अवधारणा की व्याख्या के लिए उसके अर्थ और व्युत्पत्ति पर प्रकाश डालना आवश्यक है। वर्ण शब्द संस्कृत के ‘वृ’ धातु से निस्सृत हुआ है। ‘’ वर्ण शब्द तीन धातुओं से बन सकता है। जिनके अर्थ अलग-अलग हैं। ‘ वर्ण वर्णने ’ धातु से वर्ण शब्द वर्णन करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जिसे वर्ण के प्रमुख लाक्षणिक अर्थो, जैसे- व्यवसाय, गुण, सामाजिक परिस्थिति या कर्तव्यों के वर्णन करने के रूप में लिया जा सकता है। ‘ वर्ण प्रेरणे ’ धातु से वर्ण का अर्थ प्रेरित करना है अथवा विशिष्ट कर्तव्यों को भलीभाँति पूर्ण करने की प्रेरणा देना है। इसी तरह ‘ वृअ् वरणे ’ धातु से वर्ण शब्द निष्पन्न हुआ है। इसका अर्थ है ‘ वरण करना ’ या चुनना। जिसे व्यवसाय चयन के सन्दर्भ में लिया जा सकता है। क्योंकि वर्ण शब्द का अर्थ सामाजिक वर्ग से लिया गया है। अतः उपर्युक्त सन्दर्भ में अन्तिम धातु से इस शब्द की व्युत्पत्ति उचित प्रतीत होती है। शब्दकोष में ‘ वर्ण ’ के अनेक अर्थ मिलते हैं। क्रिया के रूप में इसका अर्थ रंगना, वर्णन करना, लिखना, चित्रण करना, अंकित करना, प्रशंसा करना, स्वीकार करना है और संज्ञा के रूप में इसका अर्थ आभा, रंग, त्वचा का रंग, जाति, वर्ण, प्रजाति, एक अक्षर ध्वनि, एक शब्द ध्वनि, प्रतिष्ठा, बाह्य स्वरूप, शरीर आवरण और धार्मिक अनुष्ठान इत्यादि है। ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर ‘ वर्ण ’ शब्द का अर्थ रंग से लिया गया है। ( ऋग्वेद, 1. 65.5, 4. 5. 13, 9. 97 दृ 15 9. 105. 1, ) मूइर ने रंग-भेद को वर्ण-व्यवस्था के उद्भव का मूल स्रोत बताया है। ( मूइर, जे0 ओरिजनल संस्कृत टेक्स्ट, भाग 1, पृ0 140।) ऋग्वेद में ‘ वर्ण ’ शब्द का प्रयोग अनेकशः दो परस्पर विरोधी समुदायों यथा- आर्य और दास में क्रमशः श्वेत और अश्वेत रंग ( ऋ0,1. 179.6 उभौ वर्णावृषिरूग्रः ) के आधार पर भेद स्थापित करने के सम्बन्ध में इसी ग्रन्थ में दस्युओं का बध करके आर्य वर्ण के रक्षार्थ उसका उल्लेख किया गया है। (ऋ0 1. 130.8)। उल्लेखनीय है कि यहाँ के मूल आदिवासियों को आर्य वर्ग शत्रु समझते थे और उनके लिए ऋग्वेद में ‘ दास ’ ( दास तथा दस्यु शब्दों का सम्बन्ध दस् ( उपक्ष्ये ) धातु से है। जिसका अर्थ है- नुकसान पहुँचाना अथवा नाश करना। ‘ दास ’ की व्याख्या निरूक्त में ‘ दासो दस्यतेरूपदासयति कर्माणि ’ मिलती है। जिसकी व्याख्या करते हुए दुर्गाचार्य ने लिखा है ‘ उपदासयति उपक्षयति कृत्यादीनि कर्माणि। ’ ) या दस्यु ( ‘दस्यु’ की व्याख्या निरूक्त में इस प्रकार मिलती है ‘ दस्यतेः क्षयार्थात् उपदस्यन्ति अस्मिन् रसा, उपदासयति कर्माणि वा ’ नि0 7,23 ) अर्थात् जिसके कारण...
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