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सिन्धु सभ्यता में आर्थिक जीवन(Economic life in the Indus Valley Civilization)

प्राचीन भारतवर्ष वर्तमान भारत से बहुत बड़ा था। उसकी सीमा में वर्तमान पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश सम्मिलित था। वैदिक साहित्य में देश के रूप में भारत का उल्लेख नहीं मिलता। इसका उल्लेख सर्वप्रथम पुराणों में मिलता है।                 उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमादे्रश्चैव दक्षिणम्।                 वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।। (विष्णु पुराण) इस नाम का सबसे पहला आभिलेखिक उल्लेख खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख में मिलता है। यथा-                 दसमे च वसे दंड संधी सा (ममयो) भरदवस पठानं। अशोक के अभिलेखों में इसे जम्बूद्वीप कहा गया है। सिन्धु सभ्यता की भौगोलिक स्थिति एवं उन्नत आर्थिक अवस्थाओं के पीछे उन क्षेत्रों की तत्कालीन पारिस्थितिकी, उनका समुन्नत तकनीकी ज्ञान, शीघ्रगमन के लिए पहियों वाली गाड़ियों का प्रयोग और प्राकृतिक शथ्कत से पूर्ण संसाधनों के विकास ने महत्वपूर्ण योग प्रदान किया होगा। उत्खननों से प्राप्त पुरा सामग्रियों के तिथि निर्धारण के फलस्वरूप भारतीय सांस्कृतिक और आर्थिक इतिहास के विकास के अध्ययन को एक तैथिक आधार प्राप्त हुआ। मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा की विशालता एवं इसकी समृद्धि इस बात को स्पष्ट करती है कि सिन्धु सभ्यता के लोगों की आर्थिक स्थिति संतोषजनक थी। सैंधव सभ्यता के समृद्ध आर्थिक जीवन में कृषि, पशुपालन, विभिन्न प्रकार के उद्योग-धंधों तथा व्यापार-वाणिज्य का प्रमुख योगदान था। कृषकों के अतिरिक्त उत्पादन और व्यापार-वाणिज्य के विकास के कारण ही इस नगरीय सभ्यता का विकास हुआ था। कृषि पर आधारित अनाज उत्पादन की समुन्नत तकनीकों और विशेष शिल्पों का जब बहुत अधिक प्रयोग प्रारम्भ होता है तब किसान इतना अधिक अन्न उत्पन्न करने लगता है  िकवह उससे केवल अपना ही भरण-पोषण नहीं करता अपितु शासक, पुरोहित, सैनिक एवं शासक और वहाँ के निवासी और व्यापारी, शिल्पी भी उसके उत्पाद से ही अपनी-अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। कृषि – प्राचीन भारत की भौगोलिक बनावट ही कृषि और कृषिपरक क्रियाकलापों के विकास और विस्तार के लिए इतनी अनुकूल थी कि यहाँ अत्यन्त प्रारम्भ में ही श्री गणेश न हो जाता तो कोई आश्चर्य की बात होती। आज की अपेक्षा सिंधु प्रदेश की भूमि पहले बहुत ऊपजाऊ थी। ई.पू. चैथी सदी में सिकंदर के एक इतिहासकार ने कहा था कि सिंधु की गणना इस देश के उपजाऊ क्षेत्रों में की जाती थी। पूर्व काल में प्राकृतिक वनस्पतियों बहुत अधिक थीं, जिसके कारण यहाँ अच्छी वर्षा होती थी। पकी ईंटों की सुरक्षा-प्राचीरों से संकेत मिलता है कि नदियों में बाढ़ प्रतिवर्ष आती थी। सिंधु तथा उसकी सहायक नदियों द्वारा प्रति वर्ष लायी गयी उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी इस क्षेत्र की उर्वरता को बहुत बढ़ा देती थी, जो कृषि के लिये महत्त्वपूर्ण थी। यहाँ के लोग बाढ़ के उतर जाने के बाद नवम्बर के महीने में बाढ़ वाले मैदानों में बुआई कर देते थे और अगली बाढ़ के आने से पहले अप्रैल के महीने में गेहूँ तथा जौ की फसल काट लेते थे। सिंधु नदी घाटी के उपजाऊ मैदानों में मुख्यतः गेहूँ और जौ का उत्पादन किया जाता था। अभी तक नौ फसलों की पहचान की गयी है। गेहूँ बहुतायत में उगाया जाता था। जौ की दो और गेहूँ की तीन किस्में उपजाई जाती थीं। गेहूँ के बीज की दो किस्में स्परोकोकम तथा कम्पेस्टस उत्खनन में प्राप्त हुई हैं। बनावली में मिला जौ उन्नत किस्म का है। चावल की खेती केवल गुजरात (लोथल) और सम्भवतः राजस्थान में की जाती थी। लोथल से धान तथा बाजरे की खेती के अवशेष मिले हैं। इसके अलावा राई, खजूर, सरसों, तिल एवं कपास की भी खेती होती थी। सम्भवतः सबसे पहले कपास यहीं पैदा की गयी, इसीलिये यूनानी इस प्रदेश को ‘ सिंडन ’ कहते थे। यही नहीं, वे अनेक प्रकार के फल व सब्जियों भी उपजाते थे। हड़प्पाई पुरास्थलों के उत्खनन में पीपल, खजूर, नीम, नींबू, अनार एवं केला आदि के प्रमाण मिले हैं। इस समय खेती के कार्यों में प्रस्तर एवं काँसे के बने औजार प्रयुक्त होते थे। यहाँ कोई फावड़ा या हल का फाल तो नहीं मिला है, किन्तु कालीबंगा की प्राक् हड़प्पा सभ्यता के स्तर से जो कूट (हलरेखा) मिले हैं, उनसे स्पष्ट है कि राजस्थान में इस काल में हलों द्वारा खेतो की जुताई की जाती थी। धातु के हल के अवशेष अभी तक नहीं मिले हैं परन्तु इसकी उच्च कोटि की जुताई में सन्देह नहीं किया जा सकता है। बणावली में मिट्टी का  बना हुआ हल-जैसा एक खिलौना मिला है। डी, डी, कौशाम्बी महोदय का मत है कि सैन्धव लोगों को भारी हल का ज्ञान नहीं था। इस मत को इस प्रकार खण्डित किया जा सकता है-प्रथम बहावलपुर एवं बणावली से मिट्टी के बने हल का मिलना। दूसरे यह मत ऐसे भी खारिज हो जाता है कि बिना हल के गहरी जुताई नहीं किया जा सकता। यदि यह न हो तो अधिशेष नहीं निकल पायेगा और न ही नगरीकरण ही हो पायेगा। जबकि हम सभी जानते हैं कि  सैन्धव सभ्यता नगरीय सभ्यता थी। मेहरगढ़ (पाकिस्तान) से कृषि – गेहूँ, जौ, अंगूर एवं कपास का प्रमाण मिला है। सम्भवतः सिंचाई के लिये नदियों के जल का प्रयोग किया जाता था। जलाशयों एवं कुओं से भी सिंचाई किया जाता रहा होगा। फसलों की कटाई के लिये सम्भवतः पत्थर या काँसे की हँसिया का प्रयोग किया जाता था। मेहरगढ़ से हँसिया का साक्ष्य मिला है। अनाज रखने की टोकरियों के भी साक्ष्य मिले हैं। अतिरिक्त उत्पादन को राज्य द्वारा नियन्त्रित भंडार गृहों (कोठारों या अन्नागारों) में रखा जाता था। मोहनजोदड़ो से प्राप्त विशाल अन्नागार इसका प्रमाण है। अनाज को चूहों से बचाने के लिये मिट्टी की चूहेदानियों का प्रयोग किया जाता था। अनाज कूटने के लिये ओखली और मूसल का प्रयोग होता था। लोथल से आटा पीसने की पत्थर की चक्की (जाँता) के दो पाट मिले हैं। लोथल और रंगपुर से मिट्टी के कुछ बर्तनों में धान की भूसी मिली है। पशुपालन – सैंधव सभ्यता में कृषि के साथ-साथ पशुपालन का भी महत्त्वपूर्ण स्थान था। पशु कृषि एवं यातायात के साधन थे।मृद्भांडों तथा मुहरों पर बने चित्रों एवं अस्थि-अवशेषों से लगता है कि मुख्य पालतू पशुओं में डीलदार एवं बिना डील वाले बैल, भैंस, गाय, भेड़-बकरी, कुत्ते, गधे, खच्चर और सुअर आदि थे। हड़प्पाई लोग सम्भवतः बाघ, हाथी तथा गैंडे से भी परिचित थे, किन्तु हाथी व घोड़ा पालने के साक्ष्य प्रमाणित नहीं हो सके हैं। हड़प्पा से गधे की हड्उी प्राप्त हुई है। एस. आर. राव को

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सैन्धव सामाजिक जीवन(Saindhav Social Life)

सैन्धव सामाजिक जीवन मानव सभ्यता का आरम्भ भारत में ईसा से लगभग एक लाख वर्ष पूर्व हुआ। जब इस बात की चर्चा भारतीय शास्त्रों और पुराणों के आधार पर की जाती थी तो विदेशी ही नहीं भारतीय भी इसे मजाक मानते थे. लेकिन जब 1957 ई. में डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर, जिन्हें भारत में ‘पाषाण कला का पितामह’ कहा जाता है, ने भीमबेटिका या भीमबैठका (मध्य प्रदेश) के शैलाश्रय की खोज की। इस शैलाश्रय पुरास्थल से प्रागैतिहासिक काल में मानव के आवास के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। भीमबैठका से प्राप्त औजारों एवं अन्य वस्तुओं का काल निर्धारण जब किया गया तब विश्व के पुरातत्त्वविदों को यह मानना पड़ा कि भारत में निश्चय ही ईसा में लगभग एक लाख वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश के भीमबैठका में मानव निवास करता था। इतिहास में सिन्धु घाटी की सभ्यता के नाम से विख्यात हड़प्पा सभ्यता भारत की वह महान् सभ्यता है, जिसके आधार पर हम भारतीय गर्व से कह सकते हैं कि भारतीय स्त्री-पुरुषों ने बहुत ही सुनियोजित ढंग से नगरों में बसना आरम्भ कर दिया था। ग्रामों के साथ-साथ विशाल नगर स्थापित किये जा चुके थे और भौतिक साधनों की अधिकता से मानव-जीवन आनन्द एवं उल्लास से भर गया था। 1921ई. से पहले अतीत के खण्डहरों में दबी हुई इस सभ्यता का ज्ञान न होने से पूर्व यह माना जाता था कि भारतीय मानव विश्व सभ्यताओं की तुलना में बहुत बाद में सभ्य हुआ। भारतीयों के पास प्राचीनतम सभ्यता के रूप में ऋग्वैदिक संस्कृति का ही ज्ञान था। यह ऋग्वैदिक संस्कृति विश्व की प्राचीन सभ्यताओं-सुमेरियन, बेबीलोनियन, नील नदीघाटी की मिस्र सभ्यता से बहुत बाद की थी कि भारतीय मानव विश्व के अन्य स्रोतों की तुलना में जिन्दगी की कला में, रहन-सहन के साधनों में विद्वतापूर्ण तरक्की एक लम्बे सफर के बाद बहुत देर से कर पाया था। सिन्धु सभ्यता के इतिहास ने पूर्व न्यायाधीशों के निर्णयों को बदल दिया और यह साबित कर दिया कि भारत अपने उषाकाल में यौवन को प्राप्त कर चुका था। नव पाषाणकालीन संस्कृति की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है- गैर-धात्विक उपकरण और कृषि की जानकारी के साथ ग्रामीण जीवन का विकास। माना जाता है कि मानव ने सर्वप्रथम जिस धातु को औजारों में प्रयुक्त किया, वह ताँबा था और इसका सबसे पहले प्रयोग करीब 5000 ई.पू. में किया गया। जिस काल में मनुष्य ने पत्थर और ताँबे के औजारों का साथ-साथ प्रयोग किया, उस काल को ‘ताम्र-पाषाणिक काल’ कहते हैं। भारत की ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों में गैर-नगरीय और गैर-हड़प्पाई संस्कृतियों की गणना की जाती है। सर्वप्रथम इनका उदय दूसरी सहस्त्राब्दी ई.पू. में हुआ और जिनको अंत में लौह प्रयोक्ता संस्कृतियों ने विस्थापित कर दिया। तिथिक्रम के अनुसार भारत में ताम्रपाषाणिक बस्तियों की अनेक शाखाएँ हैं। कुछ तो प्राक् -हड़प्पाई है कुछ हड़प्पा संस्कृति के समकालीन हैं, और कुछ हड़प्पा के बाद की हैं। प्राक् हड़प्पाकालीन संस्कृति के अंतर्गत राजस्थान के कालीबंगा एवं हरियाणा के बनावली स्पष्टतः ताम्र-पाषाणिक अवस्था के हैं। कृषि का ज्ञान हो जाने के बाद प्राचीन कालीन मानव अधिकतर उस स्थान पर बसना पसन्द करते थे, जहाँ की भूमि कृषि के योग्य होती थी और सिंचाई की समुचित व्यवस्था होती थी। इसी कारण अधिकांश प्राचीन सभ्यताओं का विकास नई घाटी एवं उसके समीपवर्ती प्रदेशों में हुआ। सामाजिक जीवन – सिन्धु सभ्यता की लिपि अब तक न पढ़े आने के कारण सामाजिक जीवन के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। फिर भी सैंधव सभ्यता के विभिन्न स्थलों से पाये गये पुरावशेषों के आधार पर इस सभ्यता के सामाजिक जीवन, रहन-सहन आदि के बारे में कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। सैन्धव समाज में सामाजिक स्तरीकरण था। विद्वान, पुरोहित, योद्धा, व्यापारी, श्रमिक आदि को वर्ण व्यवस्था का पूर्व रूप मान सकते हैं। भवनों के आकार-प्रकार एवं आर्थिक विषमता के आधार पर लगता है कि विश्व की अन्य सभ्यताओं की भाँति हडप्पाई समाज भी वर्ग-विभेद पर आधारित था। दूसरे रक्षा प्राचीरों से घिरे दुर्ग इस ओर संकेत करते हैं कि यहाँ सम्पन्न व्यक्ति (पुरोहित तथा शासक वर्ग) रहता था। निचले नगर क्षेत्र में व्यापारी, अधिकारी, शिल्पी, एवं सैनिक रहते थे। कृषक, कुम्भकार, बढ़ई, जुलाहे, शिल्पी, श्रमिक आदि सैन्धव समाज के अन्य वर्ग रहे होंगे। मोहनजोदडो से प्राप्त कुछ कक्षों को कुम्हारों की बस्ती माना जाता है। बणावली से प्राप्त व्यापारी एवं आभूषण निर्माता के मकान, लोथल से प्राप्त बाजार वाली गली एवं नौसारों से प्राप्त मुहरों से व्यापारी वर्ग का अस्तित्व प्रमाणित होता है। उच्च वर्ग के लोग मूल्यवान धातु-पत्थरों के आभूषण प्रयोग करते थे, जबकि निम्नवर्गीय लोगों के आभूषण मिट्टी, सीप एवं घोंघे के होते थे। विशाल भवनों के निकट मिलने वाले छोटे आवासों से स्पष्ट है कि समाज में वर्ग-विभाजन विद्यमान था। प्राप्त पुरावशेषों से हडप्पाई समाज में शासक, कुलीन वर्ग, विद्वान, व्यापारी तथा शिल्पकार, कृषक और श्रमिक जैसे विभिन्न वर्गों के अस्तित्व की सूचना मिलती है। दुर्ग के निकट श्रमिकों की झोपड़ियाँ मिली हैं। इन हड़प्पाई श्रमिक-बस्तियों के आधार पर ह्नाीलर महोदय ने समाज में दास प्रथा के अस्तित्व का अनुमान किया है। डी. एच. गार्डेन का मत है कि सैन्धव स्थलों के उत्खनन से कतिपय ऐसी मूर्तियाँ मिली हैं, जिनमें पुरूषों एवं स्त्रियों को अपने घुटनों को बाँहों से घेरकर बैठे हुए दिखाया गया है। उनके शिरों पर गोल टोपी भी है। ये मूर्तियाँ गुलामों की हैं। इससे स्पष्ट है कि सैन्धव समाज में दास प्रथा का प्रचलन रहा होगा।  यद्यपि कुछ पुराविद् इससे सहमत नहीं हैं। इस सभ्यता के लोग युद्धप्रिय कम, शांतिप्रिय अधिक थे। परिवार – सम्भवतः समाज की इकाई परिवार था। उत्खनन में प्राप्त विशाल भवनों के आधार पर अनुमान है कि बड़े परिवारों में अनेक व्यक्ति रहते होंगे। खुदाई में प्राप्त बहुसंख्यक नारी-मूर्तियों से लगता है कि प्राक् -आर्य संस्कृतियों की भाँति सैंधव समाज भी मातृसत्तात्मक था। परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई थी, जिसमें पति-पत्नी उनके बच्चे होते थे। परिवार की देख-रेख, उनके भरण-पोषण आदि की व्यवस्था करना पति का कर्तव्य था। सैन्धव पुरास्थलों से प्राप्त स्त्री-मूर्तियाँ सिन्धु समाज की दो विशेषताओं की अभिव्यक्ति करती हैं, प्रथम स्त्री को भोग की वस्तु माना जाता था। द्वितीय स्त्री मूर्तियों से यह भी स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समाज में स्त्रियाँ विभिन्न प्रकार के कार्यों को सम्पादित करती थीं और पुरुषों का सहयोग करती रही होगी। ऐसा लगता

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प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्र पर पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों के विचार(Western Economists’ Views on Ancient Indian Economics)

भारतीय अर्थशास्त्र की विशेषता यह है कि उसका सम्बन्ध विभिन्न ज्ञान की शाखाओं से जुड़ा रहा है। इससे ज्ञान की एकता का प्रतिबिम्ब परिलक्षित होता है। तर्क के रूप में आन्वीक्षिकी ,एवं प्रयोगात्मक रूप में ‘वार्ता’ का प्रयोग मनुष्य के दैनिक कार्यों में प्रयुक्त होता रहा है। उस समय भी ज्ञान प्राप्ति के लिए पृथक-पृथक परम्पराएँ थीं। उनमें दार्शनिक, आध्यात्मिक, आर्थिक, नीतिविषयक ज्ञान का समावेश था। इस सम्बन्धा में उशनस््, वृहस्पति, भारद्वाज, पराशर, आदि की परम्पराओं का उल्लेख हमें प्राप्त होता है। प्राचीन आचार्यों के आर्थिक विचार तत्कालीन धार्मिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक विचारों के विचित्र मिश्रण थे। इन्हीं विचारों के क्रम में पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों ने उन्हें एक नया रूप देने का प्रयास किया। प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक अरस्तू के समय से विचारों का नया स्वरूप सामने आया। अरस्तू को कुछ लेखकों ने प्रथम विश्लेषणात्मक अर्थशास्त्री बतलाया है। अपने ‘पालिटिक्स’ नामक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ के प्रथम खण्ड में अरस्तू ने अर्थशास्त्र की परिभाषा तथा इसके विषय-क्षेत्र के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किये हैं। अरस्तू ने अर्थशास्त्र को ‘गृह प्रबन्ध’ का विज्ञान बताया है।  उनके अनुसार- पूर्ति विभाग का सम्बन्ध विनिमय तथा धन प्राप्ति से था। प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक जीवों ने भी अपनी ‘इकोनामिक्स’ नामक पुस्तक में अर्थशास्त्र को वह विज्ञान बताया था, जो गृह प्रबन्धन की समस्याओं का अध्ययन एवं मूल्यांकन करता है। मध्यकाल में आर्थिक विचारों का स्वरूप कुछ और ही था। ईसाई धर्म के प्रचार के कारण अर्थशास्त्र पर धर्मशास्त्र की अधिक छाप पड़ी। अतः इसे विशेष महत्व नहीं दी गई। फलतः आर्थिक विचारों के विकास का आकलन नहीं किया जा सका। मध्यकालीन चर्च पादरियों की विचारधारा धन प्राप्ति के प्रतिकूल थी। तत्कालीन विचारकों ने जीवन के आध्यात्मिक पक्ष पर अधिक बल दिया, आर्थिक पक्ष पर नहीं। ऐसी स्थिति में चिन्तकों, विचारकों तथा लेखकों ने अर्थशास्त्र के अध्ययन की ओर उदासीनता दिखाई। १८वीं शताब्दी के समय वणिकवादी विचारधारा का साम्राज्य बना रहा। उनका यह विश्वास था कि शक्तिशाली राज्य की स्थापना के लिए अधिक धन का होना अत्यावश्यक है। संसार में शक्तिशाली राज्य बनने के लिए राज्य को समृद्धशाली होना चाहिए। इस प्रकार की विचारधारा के प्रभाव के अधीन अर्थशास्त्र राज्य के लिये धन प्राप्ति का अध्ययन बन गया। हेनरिख ग्राटलीवान जस्ती ने कहा है- ‘‘राज्य का महान प्रबन्धन भी उन्हीं मौलिक सिद्धान्तों पर आधारित है जिन पर अन्य प्रबन्धन (गृह प्रबन्धन) आधारित है। दोनों संस्थाओं का उद्देश्य प्राप्त पदार्थों का उपयोग करने के लिए साधनों को प्राप्त करना है। यदि इन प्रबन्धनों में कोई अन्तर है, तो वह केवल यह है कि राज्य का गृह प्रवन्धन निजी व्यक्ति की प्रबंध की तुलना में अधिक महान् है। सर जेम्स स्टुवार्ट ने अपनी पुस्तक ‘एन इन्क्वायरी इन टु दि प्रिसिपिल्स आफ पालिटिक्स इकोनामी’ में अर्थशास्त्र विषयक सामग्री की व्याख्या करते हुए लिखा है- ‘‘सामान्यतया अर्थशास्त्र परिवार की सभी आवश्यकताओं की किफायत के साथ पूर्ति करने की कला है….. जो महत्व अर्थशास्त्र का परिवार के लिये है, वही महत्व राजनीतिक अर्थ-शास्त्र का राज्य के लिये है…।’’ एडम स्मिथ के समय अर्थशास्त्र धन का विज्ञान बन गया। स्मिथ महोदय की मान्यता है कि ‘‘अर्थशास्त्र राष्ट्रों के धन को प्रकृति तथा इसके कारणों का अनुसन्धान है।’’ जे बी के अनुसार अर्थशास्त्र उन विषयों का अध्ययन है, जिनके अनुसार धन प्राप्त किया जाता है। उन्होंने अपनी ‘‘ए ट्रिटाइज आन पोलिटिकल इकोनामी’’ नामक पुस्तक में लिखा है कि ‘‘राजनीतिक अर्थशास्त्र धन की प्रकृति की व्याख्या करता है तथा इसके नष्ट होने की घटना की विवेचना करता है।’’ जान शमसे मक्लुश के अनुसार राजनीतिक अर्थशास्त्र उन नियमों का विज्ञान है, जो ऐसी वस्तुओं के उत्पादन, संचय, वितरण तथा उपभोग का नियमन करते हैं, जो मनुष्यों के लिये आवश्यक तथा उपयोगी होती हैं और जिनका विनिमय मूल्य होता है। नासो विलियम सीनियर ने ‘एन आउट लाइन आफ दी सायन्स आफ पोलिटिकल इकानामी’ नामक पुस्तक में अर्थशास्त्र की परिभाषा के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा था- ‘‘राजनीतिक अर्थशास्त्री के अध्ययन का विषय. सुख नहीं है, बल्कि धन है। उसके आधार वाक्य उन कुछ थोड़े से सामान्य तर्क वाक्यों पर, जो स्वयं निरीक्षणों अथवा चेतना का परिणाम होते हैं तथा जिनको सिद्ध करने अथवा जिनका औपचारिक वर्णन करने की कोई आवश्यकता नहीं है, आधारित होते हैं। उसके आगमनात्मक अनुमान भी लगभग उतने ही सामान्य तथा अचूक होते हैं।’’ सीनियर ने अर्थशास्त्र के विषय क्षेत्र को बहुत सीमित करके इसे आमूर्त तथा निगमन विज्ञान बना दिया। जान स्टुअर्ट मिल ने अर्थशास्त्र की परिभाषा की व्याख्या करते हुए ‘एसेज आन अनसेटल्ड क्वेश्चन आन पोलिटकल इकानामी’ नामक पुस्तक में लिखा है कि ‘‘यह वह विज्ञान है जो उन सामाजिक घटनाओं को परिचालित करने वाले नियमों का अध्ययन करता है, जो मनुष्य जाति के धन का उत्पादन करने के सम्बन्ध में विद्यमान होती है तथा किसी अन्य लक्ष्य से प्रभावित नहीं होती।’’ बिट्रिश अर्थशास्त्रियों का यह दृढ़ विश्वास था कि समाज में वे सभी आर्थिक क्रियायें, जो व्यक्तिगत स्वार्थ की भावना से प्रेरित होती हैं, समाज के लिये भी हितकारी होती हैं। एडम स्मिथ के अनुसार धन सेवाओं और वस्तुओं का योग है। इस सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए स्मिथ ने लिखा है -‘‘प्रत्येक व्यक्ति आवश्यकताओं, सुविधाओं तथा मनोरंजन की वस्तुओं के उपभोग की मात्रा के अनुसार धनी अथवा दरिद्र होता है। अधिक वस्तुओं का उपभोग करने वाला व्यक्ति धनी और कम वस्तुओं का उपभोग करने वाला व्यक्ति निर्धन होता है।’’ कारलाइल महोदय ने अर्थशास्त्र की कड़ी आलोचना की है और उसे ‘‘कुबेर की विद्या’’ कहा है। रस्किन का मत है कि मानव जाति के अधिकांश व्यक्तियों के मस्तिष्क में समय-समय पर, जो बहुत से भ्रम रहे हैं, उनमें से सम्भवतः सबसे अधिक अनोखा तथा सबसे कम विश्वसनीय राजनीतिक अर्थशास्त्र विज्ञान ही है। इसके अतिरिक्त मार्शल महोदय अर्थशास्त्र को मानव जीवन की दशाओं को सुधारने का साधन मानते हैं। उनके अनुसार ‘‘राजनीतिक अर्थशास्त्र अथवा अर्थशास्त्र जीवन के साधारण व्यवसाय में मानव जाति का अध्ययन है। यह व्यक्तिगत तथा सामाजिक क्रियाओं के उस भाग का परीक्षण करता है, जिसका विशेष सम्बन्ध जीवन में कल्याण अथवा सुख से सम्बद्ध भौतिक पदार्थों की प्राप्ति तथा उपभोग से है।’’ उपरोक्त अर्थशास्त्रियों की परिभाषाएँ अपने-अपने विभिन्न दृष्टिकोणों का प्रतिफल है। यदि इन परिभाषाओं के मूल रूप को देखा जाय तो ज्ञात होता है कि यह उसी धन से सम्बद्ध है जिसका भारत्तीय विचारकों ने अनेक रूपों

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देवगिरि का यादव शासक रामचंद्र (रामदेव)Ramchandra (Ramdev), the Yadava ruler of Devagiri

१२७१ ई. के उत्तरार्द्ध में रामचंद्र ने देवगिरि के सिंहासन को अलंकृत किया जो इस वंश का अंतिम महत्वपूर्ण शासक था। इसका शासन काल राजनीतिक दृष्टिकोण से सर्वाधिक महत्वपूर्ण रहा क्योंकि इसी के काल में दक्षिण भारत पर मुसलमान आक्रमण प्रारंभ हुए जिससे दक्षिण की राजनीति एकदम परिवर्तित हो गई। यद्यपि रामचंद्र ने षड्यंत्र के माध्यम से सिंहासन प्राप्त किया था किन्तु वैध उत्तराधिकारी होने के कारण इसके विरुद्ध कोई विद्रोह नहीं हुआ। मालवा एवं गुजरात- समकालीन मालवा का परमार शासक अर्जुनवर्मा द्वितीय अपने ही मंत्री से संघर्षरत था। यहाँ तक कि साम्राज्य विभाजित भी हो गया था। ऐसी परिस्थिति मे रामचंद्र का अभियान पूर्णतः सफल रहा। शक सम्वत् ११९४ के थाणा (थाना) अभिलेख में उसे ‘‘ मालवो के दीपों को बुझाने वाला तीव्र तुफान ’’ और शक सम्वत् ११९८ के उदरि अभिलेख में मालवराज अर्जुन के बहसंख्यक हाथियों को नष्ट करने वाला सिंह बताया गया है। मालवा अभियान के संदर्भ में ही उसका गुर्जरों से भी अनेक सीमावती संघर्ष हुए किन्तु किसी को स्थायी विजयश्री न प्राप्त हुई। होयसल- महादेव के शासन काल में यादव होयसलों से पराजित हए थे जिसके प्रतिशोध मे रामचंद्र ने १२७५ ई. में होयसल साम्राज्य पर आक्रमण किया। बनवासी एवं नोलम्बवाडी होते हुए द्वारसमुद्र के समीप बेलवाडी तक पहुँच गया। यादव सेनापति तिक्कमरस ने इसी स्थल से द्वारसमुद्र को आक्रांत करने की योजना बनाई। इसी समय होयसल नरेश नरसिंह ने सेनापति अंक तथा मयिदेव के नेतृत्व में एक सेना बेलवाडी भेजा। होयसल सेना पराजित हुई जिससे प्रोत्साहित होकर यादव सेनापति तिक्कमरस राजधानी पहुँच गया। होयसल सैनिकों ने राजधानी की सुरक्षा के लिए हर संभव प्रयास किया। नंगेय एवं गुल्लैय जैसे होयसल सेनापति मारे गये। अंत में अंकेय नायक दृढ विश्वास के साथ यादव सेना को निष्कासित करने के लिए अग्रसर हुआ। होयसल लेखों से ज्ञात होता है कि जिस तिक्कमरस ने एक ही क्षण में संपूर्ण द्वारसमुद्र को अधिकृत करने का प्रण किया था उसे अंकनायक ने पराजित किया। यादव सेनापति हरिपाल भयभीत हुआ। तिक्कमरस तथा जोगिदेव युद्ध से पलायित हुए। यादव सेना यद्यपि पराजित हुई किन्तु लूट में उसे अपार संपति पाप्त हुई। इसके बाद होयसलों तथा यादवों के मध्य अनेक सीमावर्ती संघर्ष हुए। चूँकि होयसल राज्य नरसिंह एवं रामनाथ में विभाजित था इसलिए यादवों के सफल-प्रतिरोध में असमर्थ रहे। उत्तर-पूर्व- दक्षिण से मुक्त होने के पश्चात् रामचंद्र ने साम्राज्य विस्तार के लिए उत्तर-पूर्व की ओर अभियान किया। सर्वप्रथम बज्राकर (वैरगढ) तथा भण्डागार (भंदर) को आक्रांत किया। तदुपरांत त्रिपुरी को सहज ही अधिकृत किया। त्रिपुरी को ही केन्द्र मानकर मुसलमान राज्य को अधिकृत करने के लिए योजना बनायी। बनारस को मुसलमानों से मुक्त करने के लिए वहाँ तक आक्रमण किया। पुरुषोत्तमपुरी लेख से ज्ञात होता है कि बनारस को अधिकृत कर वहाँ एक सारंगधर मंदिर का निर्माण कराया। इस अभियान की तिथि बलवन की मृत्यु एवं जलालुद्दीन खिजली के राज्यारोहण के मध्य अर्थात १२८६ ई के पश्चात् मानी जाती है। यादव लेखों में कान्यकुब्ज एवं कैलाश तक विजय की घोषणा की गई है। किन्तु यह विश्वसनीय नहीं प्रतीत होता। इलाहाबाद के समीप कड़ा के सुबेदार से भी इसका संघर्ष हुआ। रामचंद्र बनारस पर स्थायी अधिकार न रख सका। जैसे ही अलाउद्दीन कड़ा का गर्वनर हुआ, यादव सेना वापस लौटने के लिए बाध्य हई। जिस समय यादव सेना गंगाघाटी में व्यस्त थी उस समय कोंकण, खेद तथा महिम के शासकों ने विद्रोह कर दिया, जिन्हें रामचंद्र के पुत्र शंकरदेव ने नियंत्रित किया। तुर्क-अभियान- १२९२ ई. तक यादव साम्राज्य अपने उत्कर्ष की चरम सीमा पर पहुंच गया। उत्तर में बनारस तक के शासकों को पराजित कर रामचंद्र ने यादवों को सर्वोच्च शक्ति के रूप में परिवर्तित कर दिया किन्तु इसी समय उत्तर से मुसलमानों का आक्रमण प्रारंभ हुआ जिससे मात्र २० वर्षों के भीतर ही यादव साम्राज्य उत्तर भारतीय मुस्लिम साम्राज्य का अंग बन गयी। १२९४ ई. में ही कड़ा के गवर्नर के रूप में अलाउद्दीन ने रामचंद्र को आक्रांत किया। इस अभियान के कारणों पर प्रकाश डालते हुए यह बतलाया गया है कि अलाउद्दीन सम्राट बनने की इच्छा से साम्राज्यिक शक्ति का परिचय देना चाहता था। दूसरे रामचंद्र ने बनारस तक अभियान किया उसके प्रतिशोध से भी वह उत्प्रेरित था। अलाउद्दीन ने सुनियोजित ढंग से यादवों को आक्रांत किया। सर्वप्रथम अपने गुप्तचरों से यह सूचना प्राप्त की कि यादव सेना दक्षिण के अभियानों में व्यस्त है। ऐसी स्थिति में इसने चंदेरी को अधिकृत किया। तदुपरांत राजमहेन्द्री पर आक्रमण किया। राजमहेन्द्री में गृहयुद्ध चल रहा था जिससे वहाँ के शासक ने स्वयमेव अलाउद्दीन की अधीनता स्वीकार की। साचूर के शासक ने प्रतिरोध उत्पन्न किया किन्तु उसे पराजित करते हुए अलाउद्दीन ने देवगिरि को घेर लिया। रामचंद्र अचानक राजधानी में मुस्लिम सेना देख कर चकित रह गया। अलाउद्दीन के साथ ६००० एवं ८००० के मध्य अश्व सेना थी जबकि रामचंद्र की राजधानी में मात्र ४००० सेना अवशिष्ट थी। रामचंद्र ने अलाउद्दीन का प्रतिरोध तो अवश्य किया किन्तु पराजित होकर दुर्ग में शरण लेने के लिए बाध्य हुआ। रामचंद्र की योजना थी कि जब तक शंकरदेव दक्षिण से वापस नहीं लौटता तब तक तुर्क सेना को किसी तरह से रोके रहे। किन्तु अलाउद्दीन ने दुर्ग पर इस प्रकार से आक्रमण किया कि रामचंद्र संधि के लिए बाध्य हुआ। अलाउद्दीन ने अपार स्वर्ण, रत्न, ४० हस्ति एवं कई सौ अश्व के साथ संधि को स्वीकार किया। रामचंद्र ने अलाउद्दीन के साथ अपनी पुत्री का विवाह भी किया तथा एलिचपुर जिले से प्राप्त राजस्व वार्षिक कर के रूप में देना स्वीकार किया। जैसे ही मुस्लिम सेना प्रत्यावर्तन के लिए तैयार थी शंकरदेव आ पहुँचा। शंकरदेव के आगमन के पश्चात् ही घटना के संबंध में मुस्लिम इतिहासकार मौन है। इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार पिता की आज्ञा के विरुद्ध शंकरदेव ने अलाउद्दीन से संघर्ष किया किन्तु पराजित हुआ। इसामी के अनुसार शंकरदेव ने पिता को आज्ञा मान कर कोर्ड संघर्ष नहीं किया यद्यपि उसकी सेना अलाउद्दीन से अधिक थी। अलाउद्दीन के इस अभियान से यादवो की प्रशासनिक अयोग्यता का परिचय प्राप्त होता है, क्योंकि विन्ध्य की ओर कोई भी सुरक्षात्मक व्यवस्था नहीं की गई थी। खिजली सुल्तानों का प्रभुत्व सम्पूर्ण उत्तर भारत पर स्थापित था। दक्षिण में यादव, काकतीय, होयसल एवं पांड्य उनके समक्ष नगण्य थे। संभव है कि यदि ये सम्मिलित रूप से तुर्को का सामना किये होते तो

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भिल्लम पंचम (देवगिरि का यादव शासक) Bhillama V (Yadav ruler of Devagiri)

कल्याणी के चालुक्यों के पतन के पश्चात् दक्षिण भारत के राजनीतिक रंग-मंच पर चार प्रमुख शक्तियाँ अवतरित हई। चालुक्य साम्राज्य का अधिकांश भाग देवगिरि के यादवों को प्राप्त हुआ। १३वीं शताब्दी में दक्षिणापथ का इतिहास यादवों से प्रभावित रहा। उनके समकालीन तीन प्रमुख अन्य राजवंश पांड्य, होयसल तथा काकतीय, चोल एवं चालुक्य साम्राज्य के उत्तराधिकारी के रूप में शासन किये। इनमें यादवों ने ही सर्वाधिक विस्तृत क्षेत्र को शासित किया। यद्यपि इनका इतिहास १३वीं शताब्दी में निश्चितरूपेण ज्ञात होता है फिर भी इनकी प्राचीनता ९वीं शताब्दी के अंत तक निर्धारित की जा सकती है। १३ वीं शताब्दी के पूर्व के शासकों के नाम हेमाद्रि के व्रतखण्ड तथा कुछ समकालीन लेखों से ज्ञात होते हैं किन्तु इनमें सत्यता कहाँ तक है निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। यादवों ने अपना संबंध पौराणिक यदु से स्थपित करने का प्रयास किया है जो मूलतः मथुरा में निवास करते थे तथा बाद में काठियावाड के द्वारावती अथवा द्वारिका में आकर बस गये। इस पौराणिक आख्यान का कोई अभिलेखिक प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है। यद्यपि पौराणिक अनुश्रुति सात्वतों (यादवों) को पश्चिमी भारत से जोड़ती है तथा काठियावाड़ के खानदेश जैसे कुछ स्थानों में यादवों के होने के ऐतिहासिक भी है, इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि उनका कर्नाटक में शासन करने वाले यादवों से कोई सम्बन्ध था या नहीं। ७वीं शताब्दी में काठियावाड़ के सिंहपुर में एक यादव वंश के शासन का उल्लेख प्राप्त होता है किन्तु मथुरा से इनके आने का कोई संकेत नहीं है। यह भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि द्वारिका में सिंहपुर के यादवों के वंशज शासन किए हों। द्वारिका से देवगिरि यादवों का प्रव्रजन अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि खानदेश में एक यादव परिवार काठियावाड के वल्लभी स्थान से आया, प्रमाणित होता है। काठियावाड में कोई भी ऐसा लेख अब तक प्राप्त नहीं हुआ है जिससे नवीं शताब्दी ई. में वहाँ से महाराष्ट्र में कोई यादव परिवार आकर बसा हो। जैन अनुश्रुति के अनुसार इस वंश के संस्थापक की माँ जिस समय गर्भवती थी उसी समय द्वारिका में भयंकर दैवी आपत्ति पड़ी। एक जैन साधु ने उसकी रक्षा की तथा नये स्थान पर उसने पुत्र को जन्म दिया। किन्तु इस दन्तकथा पर पूर्णतः विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि दक्षिण के अनेक राजवंश जैसे-होयसल एवं राष्ट्रकूट भी अपने को यदुवंशीय घोषित करते हैं तथा द्वारिका को अपना मूल स्थान बतलाते हैं। संभव है कि यादवों ने भी इस प्रकार की कल्पना की हो। कर्नाटक क्षेत्र से उपलब्ध लेखों से धारवाड़ जिले में एक लघु यादव सामंत के शासन का ज्ञान 9वीं शताब्दी के अन्त में प्राप्त होता है। इसी समय नासिक में मुख्य यादव वंश का उदय हो रहा था किन्तु दोनों के मध्य सम्बन्ध नहीं था। इसलिए यादवों की कर्नाटक उत्पत्ति का भी समर्थन नहीं किया जा सकता। यादव शासक महादेव (1260-1270ई.) के मंत्री रहे हेमाद्रि ने अपने ग्रन्थ चतुवर्गचिन्तामणि के व्रतखण्ड की भूमिका में इस राजवंश के प्रारम्भिक राजाओं की वंशावली दी है। प्रारम्भ में यह राजवंश उत्तरी महाराष्ट्र में विकसित हुआ। यहीं बाद में देवगिरि नामक राजधानी की स्थापना हुई। भिल्लम पंचम – यह इस वंश का प्रथम शासक था जिसने साम्राज्यिक उपाधियाँ धारण की तथा अपनी मृत्यु के चार वर्ष पूर्व स्वाधीनता घोषित की। इसके सिंहासनारोहण के समय दक्षिणापथ की राजनीतिक स्थिति में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। कल्याणी का चालुक्य राजवंश पतनोन्मुख हो रहा था। कलचुरि सामंत विज्जल ने तैलप तृतीय को सिंहासन से च्युत कर दिया। तैलप तृतीय के सामंत-वारंगल के काकतीय, द्वारसमुद्र के होयसल सौन्दत्ति के रट्ट, कोकण के शिलाहार तथा उत्तरी महाराष्ट्र के यादवों ने विज्जल की अधीनता अस्वीकार कर दिया। ११८३ ई. के लगभग सोमेश्वर चतुर्थ ने चालुक्यों को मुक्त तो कर दिया किन्तु परिवर्तित परिस्थिति के अनुकूल शासन करने में असफल रहा। इस समय कर्ण का पुत्र भिल्लल पंचम मुख्य यादव राज्य से पृथक अन्य किसी स्थान पर अपनी शक्ति को सुदृढ कर रहा था। यहीं से इसने अनेक दुर्गों पर छापा मारते हुए सर्वप्रथम कोंकण को अधिकृत किया। हेमाद्रि के अनुसार उसने अन्तल नामक शासक से श्रीवर्धन अपहृत किया; प्रत्यंडक को पराजित किया। मंगलवेष्टक के राजा बिल्हण की हत्या की, कल्याण को अधिकृत किया और होयसल शासक को मौत के घाट उतार दिया। श्रीवर्धन कोंकण का बन्दरगाह था। अल्तेकर महोदय इसे नागपुर के समीप स्थित मानते हैं। प्रत्यंडक की पहचान संदिग्ध है। बिल्हण शोलापुर का शासक था और मंगलवेष्टक इसी जिले का छोटा-सा नगर था। इस प्रकार उत्तरी कोकण तथा मध्य महाराष्ट्र को अधिकृत कर अपने पैतृक राज्य की ओर बढ़ा। हेमाद्रि के अनुसार यादव राजलक्ष्मी ने वैध उत्तराधिकारियों का परित्याग कर योग्य एवं गुणवान भिल्लम पंचम का वरण किया। यद्यपि उसकी निश्चित तिथि ज्ञात नहीं होती किन्तु अधिक संभव है कि ११८०-८५ ई. के मध्य इसने सिन्नर के सिंहासन को सुशोभित किया होगा। विजयें- भिल्लम पंचम उत्तरी महाराष्ट्र की अपनी पैतृक भूमि से ही संतुष्ट न रहा। इसकी विजयों का क्रम निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। अधिक संभव है कि चालुक्यों की राजनीतिक अस्थिरता से दक्षिणी सीमा को सुरक्षित समझ कर इसने सर्वप्रथम मालवा एवं गुजरात की ओर आक्रमण किया हो। मालवा एवं गुजरात की राजनीतिक स्थित अस्त-व्यस्त थी। परमार एवं चालुक्य आपस में ही संघर्षरत थे। मुतुगि लेख के अनुसार यह मालवों के लिए सिरदर्द तथा गुर्जर-प्रतिहारों के लिए भयंकर मेघगर्जन था। इसी समय मालवा एवं गुजरात पर मुसलमानों का भी आक्रमण हुआ जिससे चालुक्य-भिल्लम पंचम की सेना को अवरूद्ध करने में असमर्थ रहे। भिल्लम विजय करता हुआ मारवाड़ पहुँचा क्योंकि नाडोल के चाहमान शासक केल्हण ने भिल्लम को पराजित करने का दावा किया है। मुतुगि लेख में भिल्लम पंचम को अंग, वंग, नेपाल एवं पंचाल का भी विजेता कहा गया है। यह विवरण अतिशयोक्तिपूर्ण है क्योंकि गुजरात से आगे बढ़ने का कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता। इसने राजपूताना की सीमा तक विजय तो अवश्य किया किन्तु इससे इसकी सीमा में कोई वृद्धि न हुई। सोमेश्वर चतुर्थ, बल्लाल, मालवा एवं गुजरात विजय के पश्चात् भिल्लम पंचम ने कल्याणी की ओर ध्यान दिया। कल्याणी का चालुक्य शासक सोमेश्वर चतुर्थ ११८३ ई. के लगभग कलचुरि सामंत को पराजित कर अपनी राजधानी को मुक्त तो कर लिया किन्तु यह शांतिपूर्वक इस विजय का उपभोग न कर सका। उत्तर से भिल्लम पंचम तथा

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देवगिरि का यादव शासक सिंघण (सिंघण, सिंघन, सिंहन) द्वितीय(Singhan (Singhan, Singhan, Singhan) II, Yadava ruler of Devagiri)

                  देवगिरि का यादव शासक सिंघण (सिंघण, सिंघन, सिंहन) द्वितीय जैतुगि के पश्चात् १२१० ई. के लगभग यादव वंश का सर्वशक्तिमान शासन सिंघण देवगिरि के सिंहासन पर आसीन हुआ। लगभग १० वर्षों तक युवराज के रूप में प्रशिक्षित होने के कारण इसने यादव साम्राज्य को पुरातन चालुक्य साम्राज्य के तुल्य विस्तृत किया। युवराज के रूप में ही इसने काकतियों तथा अन्य शासकों के विरुद्ध सफल अभियान किया था। परम्परानुसार इसका जन्म पर्णाखेत की नारसिंही देवी की कृपा से हुआ था। अतः दैवी शक्ति से सम्पन्न सिंघण अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति में सदैव सफल रहा। होयसल – सिंहासनारोहण के पश्चात् १२११ ई. के लगभग सिंघण ने अपने सेनापति बीचण को होयसल साम्राज्य पर आक्रमण करने के लिए प्रेषित किया। कृष्णा एवं मलप्रभा की सीमा इसके पूर्व ही यादवों द्वारा उल्लंघित थी। १२०६ ई. के एक लेख से ज्ञात होता है कि बीजापुर जिले का अधिकांश भाग जीत कर केशवदेव को वहाँ का शासक नियुक्त किया था। गडग लेख के अनुसार १२१३ ई. तक धारवार यादवों के अधिकार क्षेत्र में आ गया था। यादव सेना ने अनंतपुर, बेलारी, चित्तलदुर्ग तथा शिमोगा जिलों को अधिकृत कर लिया। समकालीन होयसल नरेश बल्लाल द्वितीय इस अभियान को अवरुद्ध करने में असफल रहा। १२१५ ई. तक संपूर्ण वनवासी को अधिकृत कर सर्वाधिकारिन मयिदेव को शासक नियुक्त किया। ये समस्त क्षेत्र संपूर्ण १३वीं शताब्दी में यादवों द्वारा शासित रहा। किसी होयसल शासक द्वारा इसे मुक्त करने का प्रयास नहीं किया गया। होयसलों के अधीनस्थ सिंद विक्रमादित्य, गुत्तवीर विक्रमादित्य द्वितीय तथा अन्य सामंतों ने यादवों की अधीनता स्वीकार की। इन विजयों से प्रोत्साहित होकर सिंघण ने द्वारसमुद्र पर आक्रमण किया। होयसल सेनापति एलवरे संघर्ष करता हुआ मारा गया। इसी संघर्ष में कावेरी तट पर रंग नरेश जलाल्लदेव तथा विराट नरेश कक्कल्ल को भी पराजित किया। इस प्रकार तुंगभद्रा तक यादव साम्राज्य विस्तृत हो गया। शिलाहार- कोल्हापुर में शिलाहार शासक भोज द्वितीय शासन कर रहा था। 1216 ई. के लगभग सिंहण ने भोज द्वितीय को आक्रांत कर पराजित किया। भोज द्वितीय पर इसने क्यो आक्रमण किया? इस संबंध में यह ज्ञात होता है कि भोज एक स्वतंत्र शासक के रूप में व्यवहार करने लगा था। इसके पिता विजयादित्य ने कल्याणी नरेग तैलप तृतीय को कलचुरि विज्जण से सुरक्षित किया था। जब होयसल एवं यादव भंयकर रूप से संघर्षरत थे उसी समय इसने स्वाधीनता सूचक उपाधियाँ धारण की। 1187 ई. में इसने कलिविक्रम तथा १२०५ ई. में परम भट्टारक राजाधिराज एवं पश्चिमचक्रवर्ती की उपाधियाँ ग्रहण की। यहाँ तक कि भोज ने यादवों पर आक्रमण भी कर दिया। इसको सदैव के लिए समाप्त करने के लिए सिंघण ने कोल्हापूर पर आक्रमण कर दिया। भोज ने परनाल अथवा पनहाला के दुर्ग में शरण ली। अंततः वहाँ भी भोज पराजित हुआ। इस संघर्ष के पश्चात् भोज द्वितीय का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता तथा १२१८ई. से अनेक यादव लेख इस क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं। सिंघण के एक अधिकारी तैलप ने कोल्हापुर के अम्बाबाई मंदिर के प्रवेश द्वार का जीर्णोद्धार कराया। इससे यह निश्चितरूपेण ज्ञात होता है कि कोल्हापुर यादवों के प्रत्यक्ष शासन में आ गया। मालवा एवं गुजरात – चालुक्य एवं परमार शासक इस समय मुस्लिम अभियान से संत्रस्त थे। चालुक्य भीम तथा परमार अर्जुन वर्मा आपस में ही संघर्ष कर रहे थे। लाट का सामंत सिंह अर्जुनवर्मा की अधीनता स्वीकार कर रहा था। अर्जुनवर्मा का विवाह होयसल राजकुमारी सर्वकला के साथ हुआ था जो संभवतः बल्लाल द्वितीय की पुत्री अथवा पौत्री थी। यह भी संभव है कि अर्जुन वर्मा ने यादवांे के विरुद्ध होयसलों की सहायता की हो। फलतः १२१५ ई. के पश्चात् सिंघण ने अर्जुन वर्मा को आक्रांत किया। हेमाद्रि के अनुसार अर्जुनवर्मा इस संघर्ष में पराजित हुआ एवं मारा गया। १२१६ या १७ ई. के पश्चात् अर्जुनवर्मा का कोई उल्लेख न प्राप्त होने के कारण हेमाद्रि का विवरण सत्य प्रतीत होता है। परमारों के पतन के पश्चात् लाट का शासक सिंह असहाय होकर चैलुक्य नरेश भीम की शरण में गया। हम्मीरमदमर्दन में इस संघ का उल्लेख तो अवश्य है किन्तु इसकी परवर्ती घटनाओं का कोई संकेत नहीं है। कीर्तिकौमुदी के अनुसार चैलुक्य मंत्री लवणप्रसाद ने सिंघण को लौटने के लिए बाध्य किया। यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि कीर्तिकौमुदी का यह विवरण सिंघण के किस अभियान की ओर संकेत करता है। संभव है कि लाट एवं गुजरात के संघ के फलस्वरूप सिंघण मालवा विजय से ही वापस लौट आया हो। गुजरात एवं लाट के शासकों ने इस समय अपनी विजय का दावा किया है किन्तु इसके विपरीत १२१८ई. के लगभग सिंघण ने मालवा एवं गुजरात विजय की घोषणा की हो। १२२० ई. के लगभग सिंघण ने अपने सामन्त खोलेश्वर को द्वितीय बार मालवा एवं गुजरात की ओर भेजा। लाट में अभी भी चाहमान शासक सिंह शासन कर रहा था। गुजरात का चालुक्य सिंहासन जयन्तसिंह द्वारा अपहृत कर लिया गया था। भीम तथा उसके मंत्री लवण प्रसाद उसके निष्कासन में ही व्यस्त थे जिससे सिंह की कोई सहायता न कर सके। इस युद्ध में सिंह तथा उसके भाई सिंधुराज मारे गये। सिंधुराज का पुत्र संग्राम सिंह बंदी बनाया गया तथा लाट पर यादवों का अधिकार स्थापित हो गया। अम्बे अभिलेख में भडौच में खोलेश्वर द्वारा विजय स्तंभ स्थापित करने का उल्लेख है। सिंघण ने संग्रामसिंह को मुक्त कर अधीनस्थ शासक के रूप में नियुक्त किया। संग्राम सिंह ने सिंघण को नवारूढ मालवा नरेश देवपाल को आक्रांत करने के लिए प्रोत्साहित किया। खोलेश्वर के साथ ही साथ सिंह ने भी यादव सेना का साथ दिया। इस अभियान से गुजरात की स्थिति अस्त-व्यस्त हो गई। कीर्तिकौमुदी तथा हम्मीरमदमर्दन में मालवा एवं गुजरात के इस अभियान का विवरण देते हुए यह बतलाया गया है कि लवण प्रसाद ने एक गुप्तचर द्वारा देवपाल नामंाकित परमार सेना का एक अश्व चुरवाया तथा दो गुप्तचर द्वारा उसे संग्रामसिंह को भेट स्वरूप प्रदान किया। इसी समय सिंघण के पास एक जाली पत्र भेजा गया कि संग्रामसिंह तथा देवपाल आपस में मिले हए हैं तथा सिंघण का वध करने का षड्यंत्र कर रहे हैं। प्रमाणस्वरूप देवपाल नामांकित संग्रामसिंह को दिया गया अश्व प्रस्तुत किया गया जिससे सिंघण इस पत्र पर विश्वास करने लगा। कीर्तिकौमुदी के अनुसार यद्यपि लवणप्रसाद उत्तरी शत्रुओं से आवृत्त था फिर भी सिंघण गुजरात पर आक्रमण करने का साहस

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उड़ीसा में जैन धर्म का प्रचार

प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के ज्ञान के साधन स्वरूप यहाँ की विभिन्न धार्मिक परम्पराओं का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। इन धार्मिक परम्पराओं में मूलतः ब्रlहाण, जैन, एवं बौद्ध परम्परायें प्रमुख हैं। जिनके अनुयायियों ने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन की जटिलताओं को सुगम बनाने के लिए अपने-अपने साहित्य में सच्चे आचारों एवं विचारों का प्रतिपादन किया है। यही प्राचीन परम्पराएं हमारे अतीत की थाती हैं। भारतीय जन-जीवन की भौतिक एवं आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति के साधन स्वरूप इन धार्मिक परम्पराओं का ऐतिहासिक अध्ययन भी आवश्यक है। जैन परम्पराओं का सृजन अति प्राचीन रहा है। बौद्धग्रन्थ दीघनिकाय में निर्ग्रन्थ धर्म के चातुर्याम का उल्लेख है। इस चातुर्याम धर्म का उपदेश महावीर से पूर्व पार्श्वनाथ ने ही दिया था। महावीर स्वामी ने इसी धर्म का अनुकरण किया था और इन चातुर्यामों अर्थात् सत्य, अहिंसा, अचौर्य एवं अपरिग्रह में एक और व्रत अर्थात् ब्रह्मचर्य जोड़कर इस धर्म के अन्तर्गत पांच महाव्रतों के पालन का उपदेश दिया। वैदिक काल में उल्लिखित व्रात्य श्रमण धर्म के प्रारम्भिक रूप थे और जैन धर्म के अनुरूप आचरण करते थे। स्पष्टतः महावीर द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म एवं जैन आचारावली का प्रारम्भ ऋग्वैदिक काल से ही हो गया था, जो वैदिक धर्म के विरोधी ऋषभदेव द्वारा चलाये हुए यति धर्म अथवा मुनिधर्म के रूप में उदित होकर एक के बाद एक करके चौबीसवें तीर्थंकर महावीर के काल तक उन्हीं के द्वारा प्रतिपादित निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय अथवा जैन धर्म के रूप में सामने आया। ‘जैन’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘जिनन्’ अराधना से हुई। ‘जिन्’ शब्द का अर्थ ‘जेता’ होता है जिसे अर्हत् अर्थात् तीर्थंकर कहा जाता है। उत्तर भारत के काशी एवं बिहार से उद्भूत यह धर्म धीरे-धीरे सम्पूर्ण उत्तर एवं दक्षिण भारत में फैल गया। मौर्यकाल में भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिण भारत की ओर श्रमणों के एक वर्ग के प्रस्थान कर जाने के बाद उत्तर भारत में वाराणसी एवं मथुरा से होते हुए राजस्थान एवं तदनन्तर गुजरात आदि प्रदेशों तक के भूभागों में तथा बिहार एवं बंगाल के मध्य से होते हुए उड़ीसा एवंत मिल देशों तक दिगम्बर जैन धर्म का प्रचार हुआ। उत्तर एवं दक्षिण भारत के प्रसिद्ध नगरों में इस धर्म के प्रचार के लिये राजाओं, महाराजाओं एवं धनिक वर्ग के लोगों ने जैन श्रमणों को अनेक दान दिये, चैत्यों एवं मठों का निर्माण कराया तथा जैन तीर्थंकर की मूर्तियों एवं मंदिर निर्मित कराये। अत्यन्त प्राचीन काल से ही हम उड़ीसा को भी जैन धर्म के प्रचार का केन्द्र पाते हैं। संभवतः यह धर्म बिहार एवं बंगाल से होते हुए उड़ीसा में प्रविष्ट हुआ होगा। जैन आगम धर्म कल्पसूत्र से ज्ञात होता है कि भगवान महावीर ने जैन धर्म के प्रचार के निमित्त बंगाल के पणिय भूमि में अपना एक वर्ष व्यतीत किया था। आवश्यक नियुक्ति में उल्लेख मिलता है कि महावीर स्वामी ने तोसलि एवं मौसली नामक स्थानों की यात्रा की थी। तोसलि की पहचान आधुनिक उड़ीसा में कटक के समीप स्थिति भू-भाग से की जाती है। इसका समर्थन आचारांगसूत्र’ से होता है जिसके अनुसार भगवान महावीर स्वामी ने पश्चिमी बंगाल एवं दक्षिणी बंगाल वाले भू-भागों तक जाकर अपने धर्म का उपदेश दिया था। इस प्रकार ऐतिहासिक दृष्टि से उड़ीसा में जैन धर्म का प्रवेश राजा नन्दवर्धन के समय में ही हो गया था। व्यवहार भाष्य’ से पता चलता है कि उड़ीसा में तोसलिक नरेश ने जिन् मूर्ति सुरक्षित रखी थी। स्पष्टतया उड़ीसा में जैन धर्म का प्रचार कार्य महावीर स्वामी के काल से ही प्रारम्भ हो गया था। डॉ० काशी प्रसाद जायसवाल ने इस सम्बन्ध में कलिंग शासक खारवेल के हाथी गुम्फा अभिलेख की 14वीं पंक्ति के आधार पर बताया है कि महावीर स्वामी ने स्वयं कलिंग में कुमारी नामक पहाड़ी पर जैन धर्म का उपदेश दिया था ऐतिहासिक दृष्टि से मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद ही कलिंग एक महत्वपूर्ण राजनीतिक इकाई के रूप में उदित हुआ, इसका प्रमाण हाथीगुम्फा लेख है। इस लेख से ज्ञात होता है कि कलिंग की जिस जिन् मूर्ति को नन्दराजा तिवससत पूर्व कलिंग से मगध ले गया था, उसे खारवेल पुनः अपने देश ले आया। यह अभिलेख अर्हतों एवं सिद्धों के नमस्कार से प्रारम्भ होता है। इससे वहाँ अर्हतों के स्मारक अवशेषों का भी पता चलता है। इस लेख से स्पष्ट होता कि नन्दराजा द्वारा मगध ले जाने वाली जिन् प्रतिमा लगभग चौथी शताब्दी ई०पू० में निर्मित हुई होगी। खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से पता चलता है कि उसने अपनी पत्नी के साथ कुमारी (उदयगिरि) स्थित अर्हतों के अवशेषों पर जैन साधुओं को निवास करने की सुविधा प्रदान की और अनेक स्तम्भों एवं मन्दिरों का निर्माण करवाया। इसके अतिरिक्त इन्हीं पहाड़ियों पर स्थित अनन्तगुम्फा, रानीगुम्फा, एवं गणेशगुम्फा, लगभग 150 ई० पू० से 50 ई० पू० के मध्य निर्मित की गयी थी। अनन्तगुम्फा के प्रत्येक प्रवेशद्वार पर तीन फणों से युक्त दो सर्पों का चित्रण सम्भवत: जैन धर्म के तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ से सम्बद्ध होने का सूचक है। इसी प्रकार रानीगुम्फा एवं गणेशगुम्फाओं में उत्कीर्ण चित्रों को भी पार्श्वनाथ से सम्बन्धित किया जा सकता है। किन्तु इस सम्बन्ध में डॉ० वी० यस० अग्रवाल ने इन दोनों दृश्यों की पहचान वासवदत्ता एवं शकुन्तला के जीवन दृश्यों से की है। सातवीं शताब्दी में ह्वेनसांग के विवरणों से ज्ञात होता है कि उस समय कलिंग में जैन धर्म प्रचलित था। इसी प्रकार जैन ग्रन्थों में जैन धर्म के केन्द्र के रूप में पुरिय या पुरी का भी उल्लेख मिलता है। पुरी जिले में स्थित यह क्षेत्र जीवंत स्वामी की प्रतिमा के लिए विख्यात था जहाँ अनेक जैन श्रावक भी रहते थे। आवश्यक निर्युक्ति एवं आवश्यक चूर्णी से ज्ञात होता है कि जब वैर स्वामी पुरी पधारे थे, उस समय यहाँ का शासक बौद्ध धर्म का अनुयायी था। किन्तु छठी-सातवीं शताब्दी के बाणसुर लेख से ज्ञात होता है कि उसकी रानी कल्याण देवी ने धार्मिक कार्य के लिए जैन श्रमणों को भूमिदान दी थी। नौवीं दसवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक उद्योत केसरी के अतिरिक्त अन्य शासकों से संरक्षण न मिलने पर भी उदयगिरि एवं खण्डगिरि की गुफाओं में लोकप्रिय बना रहा। इसकी पुष्टि उड़ीसा के अन्य स्थानों से प्राप्त होने वाली जैन मूर्तियों से होती है। ललाटेन्दु या सिन्धु राजा गुम्फा लेख से पता  चलता है कि उद्योत केसरी ने अपने शासन के पांचवें वर्ष में प्रसिद्ध कुमार पर्वत पर नष्ट तालाबों

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चन्देलों की उत्त्पति-२(ORIGIN OF CHANDEL)

२. वाक्पति (लगभग ८५०-७० ई०) शासन काल नन्नुक की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र तथा उत्तराधिकारी’ वाक्पति सन् ८५० ई० के लगभग चन्देल सिहासन पर प्रतिष्ठित हुए। शिलालेखों में इस बात का उल्लेख नहीं है कि उसने कितने समय तक शासन किया, पर अनुमानतः नमुक की भांति वह भी २० वर्ष तक शासन करता रहा। इस आधार पर उसका राज्यकाल सन् ८७० ई० तक माना जाता है। कन्नौज के प्रतिहारों के विरुद्ध विद्रोह करने का जो प्रतिफल उसके पिता नलुक को उठाना पड़ा उसे वह भली प्रकार समझता था। उत्तरी भारत की राजनीतिक दक्षा का सम्प अध्ययन करके वह मिहिरभोज का सामन्त बना रहा और अनेक युद्धों में उसने प्रतिहारों को महत्वपूर्ण सहायता की। वह अपने पिता की भांति अवसरवादी न था। गुजरात के ध्रुव द्वितीय द्वारा मिहिरभोज के पराजित होने पर भी जब कि प्रतिहार-भाग्य-सूर्य पतनोन्मुख हो रहा था, सहायक बना रहा। यह अवसर था जब वाक्पति अपनी भाग्य परीक्षा के हेतु विद्रोह कर सकता था, किन्तु वह बुद्धिमत्ता और पराक्रम में पृथु तथा काकुस्थ जैसे पौराणिक नरेशों से भी बढ़कर था। वह प्रतिहारों का हितैषी ही बना रहा। मिहिरभोज ने भी उसकी शक्ति तथा सत्संकल्प से प्रभावित होकर उसे कुछ सुविधाएं प्रदान की थीं, जिनसे उसने विन्ध्य पर्वत को अपनी कोड़ा- भूमि बनाया।’             उसका राज्य खजुराहो, महोबा और इनके निकटवर्ती प्रदेश तक ही सीमित था तथा बुन्देलखण्ड का अधिकांश भाग कलचुरि राज्य में सम्मिलित था।’ नचुक अपने नव-निर्मित राज्य का उपभोग बहुत दिनों तक न कर सका। रामभद्र के उत्तराधिकारी मिहिरभोज ने लगभग ८३६ ई० में सिंहासनासीन होने पर प्रतिहार राज्य की बिखरी हुई शक्ति का संगठन करके नाग- भट्ट द्वारा प्रदत्त दान-पत्रों को पुनर्जीवित किया। मिहिरभोज ने नक को भी अछूता नहीं छोड़ा नक को अपनी शक्ति पिपासा का परित्याग करके मिहिरभोज के सामन्त पद से ही संतोष करना पड़ा। २. वाक्पति (लगभग ८५०-७० ई०) शासन काल नबुक की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र तथा उत्तराधिकारी’ वाक्पति सन् ८५० ई० के लगभग चन्देल सिहासन पर प्रतिष्ठित हुए। शिलालेखों में इस बात का उल्लेख नहीं है कि उसने कितने समय तक शासन किया, पर अनुमानतः नमुक की भांति वह भी २० वर्ष तक शासन करता रहा। इस आधार पर उसका राज्यकाल सन् ८७० ई० तक माना जाता है। कन्नौज के प्रतिहारों के विरुद्ध विद्रोह करने का जो प्रतिफल उसके पिता नलुक को उठाना पड़ा उसे वह भली प्रकार समझता था। उत्तरी भारत की राजनीतिक दक्षा का सम्प अध्ययन करके वह मिहिरभोज का सामन्त बना रहा और अनेक युद्धों में उसने प्रतिहारों को महत्वपूर्ण सहायता की। वह अपने पिता की भांति अवसरवादी न था। गुजरात के ध्रुव द्वितीय द्वारा मिहिरभोज के पराजित होने पर भी जब कि प्रतिहार-भाग्य-सूर्य पतनोन्मुख हो रहा था, सहायक बना रहा। यह अवसर था जब वाक्पति अपनी भाग्य परीक्षा के हेतु विद्रोह कर सकता था, किन्तु वह बुद्धिमत्ता और पराक्रम में पृथु तथा काकुस्थ जैसे पौराणिक नरेशों से भी बढ़कर था। वह प्रतिहारों का हितैषी ही बना रहा। मिहिरभोज ने भी उसकी शक्ति तथा सत्संकल्प से प्रभावित होकर उसे कुछ सुविधाएं प्रदान की थीं, जिनसे उसने विन्ध्य पर्वत को अपनी कोड़ा- भूमि बनाया।’ ३-४. जयशक्ति तथा विजयशक्ति (लगभग ८७०-९० ई०) वाक्पति के पश्चात् उसका पुत्र जयदशक्ति गद्दी पर बैठा। उसने अपने अनुज विजय- शक्ति के साथ चन्देलों के उत्कर्ष में वृद्धि की। किन्तु राजनीतिक क्षेत्र में उसने कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं दिया। चन्देल वंशीय लेखों में इन दोनों भाइयों के वीरोचित कार्यों का उल्लेख है और दोनों को “वीर” की उपाधि से सम्मानित किया गया। इन दोनों भाइयों का काल उनके मिहिरभोज (८३६-८५ १०) तथा महेन्द्रपाल प्रथम (८८५-९१० ई०) के शासन काल में पड़ता है। ये दोनों प्रतिहार नरेश बड़े शक्तिशाली विजेता थे। ध्रुव द्वितीय द्वारा मिहिरभोज के पराजित होने पर अयशक्ति तथा विजयशक्ति ने उसे शक्ति-संचय में योग दिया। मिहिरभोज ने राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय (८७५-९११ ई०) से भी युद्ध कर कन्नौज की श्रीवृद्धि की। दोनों शक्तिशाली भाइयों ने इन युद्धों में महत्वपूर्ण भाग लेकर शत्रुओं का दमन किया।’ महेन्द्रपाल प्रथम के शासन काल में इन्हें अपने शयं प्रदर्शन का अच्छा अवसर मिला। अपने पिता तथा पितामह की भांति महेन्द्रपाल में भी उत्साह तथा पराक्रम था। उसने बंगाल नरेश को पराजित किया और मगध तथा उत्तरी बिहार को अपने राज्य में मिला लिया। दक्षिण भारत में भी आक्रमण करके सौराष्ट्र तक का भू-भाग अपने राज्य में मिला लिया, जहां उसके सामन्त बल वर्मा और अवन्ति वर्मा शासन करते थे। विजयदशक्ति भी अपने अग्रज की ही भांति शक्तिशाली था। उपरोक्त युद्धों में उसने साहसपूर्ण भाग लिया। किन्तु शिलालेखों में जयशक्ति, जेजा अथवा जेजाक का उल्लेख नहीं मिलता है। यद्यपि उसके नाम पर ही यह देश जेजति अथवा जाति कहलाया। जयशक्ति के नाम का निर्देश न होने का कारण संभवतः यह रहा हो कि उसने राजनीति से विश्राम ले लिया हो अथवा अनेक प्रतिहार युद्धों में भाग लेने के कारण अकाल में ही उसकी मृत्यु हो गयी हो और इस कारण इस देश का नाम जेजाभुक्ति’ अथवा जेजाकभुक्ति पड़ा हो। उसको अकाल मृत्यु की संभावना इससे भी प्रतीत होती है कि उसके पश्चात् उसका पुत्र नहीं, बल्कि उसका भाई चन्देल नरेश बना। कुछ भी हो, इन दोनों भाइयों ने चन्देल उत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त किया, जिसका निर्देश चन्देल शिलालेखों में भी है। उनके अभ्युदय काल के प्रारम्भ होने के पूर्व उनके पिता वाक्पति तथा पितामह लुक की ख्याति समाप्तप्राय भी अस्तु, खजुराहो के दो के अतिरिक्त अन्य अभिलेखों में यहीं दोनों भाई चन्देल वंश के आदि पुरुष माने जाते हैं। ५. राहिल (लगभग ८९०-९१० ई०) विजयशक्ति के पुत्र तथा उत्तराधिकारी राहिल के शासन से चन्देल राज्य की नीव पड़ती है। यद्यपि यह प्रतिहारों का सामन्त ही था, फिर भी उसे कुछ सुविधायें प्राप्त भी जो उसके पूर्वजों को सुलभ नहीं थी। प्रतिहार साम्राज्य की शक्ति क्षीण हो रही थी। यद्यपि वह देव की भांति शक्तिशाली प्रतीत होता था। वंश के अनुसार ने भी में प्रतिहार नरेशों का साथ दिया। बिलालेखों में उसकी वीरता का उल्लेख मिलता है। स राहो प्रशस्तिकार का कथन है कि “उसका (राहिल का) स्मरण कर शत्रुओं को रात्रि में नींद थी। वह युद्ध रूपी महायज्ञ से कभी सन्तुष्ट न होता था तलवार ही उसका इति पात्र तथा शत्रुओं की रुधिर पार ही आवृति थी। शत्रु ही बलिपशु थे और पैर रूपी

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चन्देलों की उत्त्पति-भाग १ (ORIGIN OF CHANDEL)

चन्देल भाग १ महाराज हर्ष को मृत्यु के पश्चात् रुधौज में महान राज्य सन्ति हुई। अर्जुन’ यशो- नत ने एक के बाद एक की सिहासन के लिए अपनी भाग्य-परोक्षा की. किन्तु समय उसके अनुकूल था और उन्हें मिली। इन्दाष के निर्बल शासन ने अनेक पड़ोसी नरेशों को कोज को हस्तमाल करने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके लिए कतीज सरेशों राष्ट्रों तथा पाल राजाओं का एक पक्षीय संघर्ष प्रारम्भ हुआ। इन युद्धों के कारण ढाबे में बड़ी अशान्ति रहो और प्रतिहार नरेश नागभट्ट द्वितीय ने इस स्थिति का लाभ उठाकर चन्यच को पराजित करके कमीज को अपने राज्य में मिला लिया। किन्तु शान्ति तब भी स्थापित हुई। बंगाल ने अपने के वैर शोधन के लिए नागभट्ट पर कम कर दिया। पर उसे न मिली और मुद्रिर (मुंगेर) के युद्ध में उसे पति होना पड़ा। राष्ट्रकूट नरेश तथा तृतीय ने भी कज राजनीति में भाग दिया और चकाता को पराजित किया किन्तु गृहकलह के कारण उन्हें दक्षिण जाना पड़ा। गोविन्द तृतीय के बाद उनका पुत्र अमोष वर्ष सन् ८१४ ई० में राष्ट्र- सिहासन पर बैठा। पर उसके शासन में भी गृह शान्त न हुआ। इन परिस्थितियों के नाम को अपनी स्थिति संभालने का अवसर मिल गया। उसने अपनी शक्ति संगठित करके (उत्तरी काठियावाड़) (पूर्वी राजपूताना किरात (हिमालय प्रदेश), रुक (भारत के अरव निवासी) तथा कोपशाम्बी के एस नरेशों को युद्ध में पराजित किया। किन्तु उसका उत्तराधिकारी रामभद्र एक था। अतः उसके शासन काल मे अथवा नागभट्ट के ही अन्तिम दिनों मे बन्ने भन्८३१ ई० में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। देशक हेम्बलों कथा के आधार पर इस वंश के कमाल चन्द्र के पुत्र चन्द्रवमा थे, जिनके रोचकों का वर्णन चन्दबरदाई के राम्रो तथा जनभूतियों में है। भगवान् चन्द्र ने स्वयं प्रकट होकर अपने पोडशवर्षीय पुत्र चन्द्रवर्मा को पारस पत्थर प्रदान कर राजनीति की शिक्षा दी। अपनी माता के अपयश को दूर करने के लिए खजुराहो महायज्ञ की पूर्णाहुति के बाद कालिंजर दुर्ग का निर्माण करके चन्द्रवर्मा ने अपने लिए एक राज्य की स्थापना की। उसने अनेक पुढ किये और अनेक राजाओं को पराजित किया। रोम तथा सीलोन (लंका) के राजा उसके करद थे। महाकवि चन्द ने भी अपने रासो में लिखा है कि १२ घंटे से कुछ ही अधिक में वह सिहोरा तथा गहौरा प्रान्तों को जीत कर असंख्य घोडे, गाय व बैल लूट कर कालिंजर वापस गया। किन्तु चन्द्रवर्मा की ऐतिहासिकता संदिग्ध है, क्योंकि किसी भी चन्देल मिळाले अथवा ताम्रपत्र में उसका निर्देश नहीं है। यदि वह वास्तव में इस वंश का प्रवर्तक होता और उसके कार्य ऐसे महान होते, जिनका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है; तो प्रशस्तिकार उसका वर्णन अपने अभिलेखों में अवश्य करते । चन्देल शिलालेखों के आधार पर इस वंश का उद्भव महर्षि अत्रि से माना जाता है। अनेक खजुराहो शिलालेखों में महर्षि अत्रि के पुत्र चन्द्र अथवा चन्द्रात्रेय को इस वंश का आदि पुरुष मानकर उनकी बड़ी प्रशंसा की गई है। महाराज बंगदेव के खजुराहो शिलालेख वर्णित चन्द्र की प्रशंसा राम्रो तथा जनश्रुतियों के चन्द्र के तुल्य ही है, किन्तु ये दोनों चन्द्र एक ही है; यह बात ऐतिहासिकता से परे है। महर्षि अत्रि तथा उनके पुत्र चन्द्रात्रेय वैदिक युगीन थे, अस्तु, चन्देलों से उनका सीधा संबंध असंभव है। इसके अतिरिक्त कुछ चन्देल लेखों में इस वंश के आदि पुरुष चन्द्र का वर्णन रजनीपति’ के रूप में किया गया है, महर्षि अत्रि के पुत्र के रूप में नहीं। हेमवती के पुत्र चन्द्रवर्मा को ऐतिहासिक पुरुष मानने में पुनः एक कठिनाई उपस्थित होती है। उसकी सुदूर विजय तथा रोम और सीलोन (लका) नरेशों का उसका करद होना, उसके स्वयं के व्यक्तित्व को संदिग्ध बना देता है। यदि यह मान लिया जाय कि चन्द्रवर्मा ने चन्देल- वंशीय प्रथम नरेश नन्नुक से कुछ पीढ़ियों पूर्व राज्य किया, तो हेमवती कथा में वर्णित चन्द्र-प्रशंसा व्यर्थ हो जाती है, क्योंकि उस समय महाराज यशोवर्मा और उनके पूर्व सम्राट् हर्ष का शासन समस्त उत्तर भारत में था। इसके अतिरिक्त किसी भी भारतीय नरेश ने रोम तथा सीलोन नरेश को अपना करद नहीं बनाया। डॉ. हेमचन्द रे ने चन्द्रवर्मा को महाराज ननुक का विरुद सूचक शब्द माना है और चन्देल अभिलेखों के आधार पर यह मत उचित प्रतीत होता है। खजुराहो शिलालेख में यह वर्णन है कि नक ने दिग्वधू आननों को अपने पराक्रम रूपी चन्दन से विभूषित किया और उसके सभी शत्रु उसके अभूतपूर्वं पराक्रम के समक्ष नत मस्तक थे।” १. मनुक (सन् ८३१-८५०६०) की तिथि लों में इस निर्देश नहीं मिता कि कमेंट में एक नए राजवंश की स्थापना की राह जैन मंदिर है९५४ ई० में महाराज मंगदेव शासन करते थे।’ उनका शासन सन् १००२६०, एक अन्य खजुराहो द्वारा प्रतीत होता है। इन दोना तिथियों के आधार पर जारी धारणा है कि अंगदेव सन् १५० ६० के लगभग सिहासनासीन हुए। अंगदेव श्री नीड़ी में पैदा हुए थे। कनियम ने अनेक उदाहरणों के आधार पर यह नया है कि भारतीय औसत पीड़ी २० से ३० वर्ष तक होती है। अस्तु सन् ८०० ई० से २० वर्ष पूर्व अथवा ३० वर्ष पश्चात् सिंहासनासीन हुआ होगा। साधारणतया जाता है कि न सन ८३० ई० के लगभग सिंहासना हुआ। न पहिले प्रतिहारों का किन्तु राम ८३० ई० के लगभग नागभट्ट द्वितीय की मृत्यु के उपरान्त उत्तरी भारतका बड़ा ही था और प्रतिहार राज्य पतनोन्मुख हो रहा था। इस परिस्थिति से म उठाकर नक ने उस समय चन्देल राज्य की स्थापना की। जैसा कि ऊपर विवेचन किया गया है, उसने लगभग २० वर्ष तक शासन किया। इस भांति उसका राज्य से ८५० ई० तक रहा। चरित्र बुन्देलखण्ड की राजनीति में नशुक के पदार्पण से राजपूत इतिहास में एक सूत्रपात हुआ। यह कन्नौज के प्रतिहार नरेश नागभट्ट द्वितीय का सामन्त था। नामको मृत्यु के बाद उसके पुत्र रामभद्र के निर्बल शासनकाल में नशुक ने विद्रोह का झंडा गाड़ कर एक राज्य स्थापित किया। सम्भवतः उसी समय उसने ‘नृपति’ तथा ‘महिपति’ को उपाधियों की। चंदेल वंशीय-लेखों में उसका उल्लेख राजाज्ञा रूपी स्वर्ण की मोटी के रूप में हुआ है।” अस्तु, प्रतीत ऐसा होता है कि प्रतिहार नरेश नागभट्ट द्वितीयको मृत्यु के उपरान्त उ निर्वल उत्तराधिकारी की राजाज्ञा रूपी सुवर्ण में उसने कोई मूल्य न देखा तब शासन अपने हाथ में लेकर वह स्वतंत्र हो गया। १. मनुक (सन् ८३१-८५०६०) की तिथि लों में इस निर्देश नहीं

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चन्देलों की उत्पत्ति ( Origin of Chandel)

चन्देलों की उत्पत्ति चन्देलों की उत्पत्ति का विषय बड़ा ही विवादग्रस्त है। डॉक्टर स्मिथ सरीखे विद्वानों की धारणा है कि चन्देलों की उत्पत्ति भर, गोंड आदि जातियों से हुई, परन्तु श्री चिन्तामणि विनायक वैद्य प्रभृति भारतीय विद्वानों की राय है कि चन्देल विशुद्ध आयं क्षत्रिय सन्तान हैं। चन्देलों की उत्पत्ति की उनकी एक अपनी भी कथा है, जिसके अनुसार चन्देल वंश के संस्थापक चन्द्र वर्मा की उत्पत्ति बनारस के गहरवार राजा इन्द्रजीत के ब्राह्मण पुरोहित हेमराज की कन्या हेमवती से हुई थी। इस कथा के अनुसार एक बार जब हेमवती रति तालाब में स्नानाथं गई हुई थी, तब भगवान् चन्द्र उसके रूप से आकर्षित होकर वहां प्रकट हुए और उसे आशीर्वाद दिया कि उसका पुत्र बड़ा ही महान तथा समस्त भू-मण्डल का स्वामी होगा। भगवान् चन्द्र ने उसे कालिंजर के निकट ‘आसु’ नामक स्थान में जाने तथा पुत्रोत्पत्ति के पश्चात् केन नदी पार करके खजुराहो जाकर चिन्तामणि वैन्य’ के साथ रहने का आदेश दिया। भगवान् चन्द्र के आदेशानुसार हेमवती काशी से कालिंजर चली गई और वह पवित्र नदियों में स्नान करती हुई तथा अपने पुत्र के हित की कामना से अनेक देवी-देवताओं की जारा- धना करती हुई चार माह रही। अन्त में प्रसव काल समाप्त होने पर वैशाख कृष्ण एकादशी सोम- वार सम्वत् २०४९ को केन नदी के तट पर वह पुत्रवती हुई। भगवान् चन्द्र ने अन्य देवताओं के साथ इस महोत्सव को सम्पन्न किया। वृहस्पति ने जन्मांक बनाया और शिशु का नाम चन्द्रवर्मा रखा गया। पोडश वर्ष की आयु में चन्द्रवर्मा ने एक सिंह का वध कर दिया। उसी समय भगवान् चन्द्र उसके समक्ष प्रकट हुए और उसे पारस पत्थर देकर राजनीति की शिक्षा दी। तदनन्तर चन्द्रवर्मा ने कालिंजर दुर्ग का निर्माण किया। उसने अपनी मां का लांछन दूर करने के लिए खजुराहो में एक यज्ञ किया तथा ८५ मंदिर बनवाये। अन्त में वह महोत्सव नगर अथवा        महोबा गया और वही अपनी राजधानी बनायी। अनेक युद्धों के पश्चात् चन्द्रवर्मा ने अपना सुद्ध राज्य स्थापित किया और जनश्रुति ऐसी है कि जब तक चन्द्रवर्मा के वंशज अपने नाम के साथ ब्रह्म अथवा वर्मन शब्द प्रयुक्त करेंगे, अपवित्रता से बचेंगे, नीच, एकाक्ष तथा कोड़ी से दूर रहेंगे और ब्रह्म वध तथा मंदिरा पान न करेंगे, तब तक राज्य सुदृढ रहेगा। कहा यह जाता है कि जब तक उपरोक्त प्रतिबन्धों का पालन हुआ, यह वंश निरन्तर उन्नति करता रहा, परन्तु महाराज परमदिदेव द्वारा इनका पालन न करने पर वह पतनोन्मुख हुआ। • डॉ० स्मिथ इस हेमवती कथा को अधिक महत्व नहीं देते हैं। उनकी धारणा है कि अन्य राजपूत वंशों की भाँति चन्देलों की उत्पत्ति भी संदिग्ध एवं अनिश्चित है। वे इस कथा को केवल इतना ही महत्व देते हैं कि इससे इस वंश को चन्द्रवंशी राजपूतों में सम्मिलित होने का एक प्र मिल गया तथा ब्राह्मण पूर्वजा होने के कारण इस वंश के सम्मान की वृद्धि हुई। उनकी राय है कि चन्देलों की उत्पत्ति भर तथा गोंडों से है, क्योंकि वे न तो उत्तर-पश्चिम के प्रवासी थे और न शक तथा हूणों से ही उनका कोई सम्बन्ध था। अस्तु, विदेशी सम्मिण से पृथक होने के कारण ‘चन्देलों के पूर्वज गोड तथा अन्य आदिम जातियों के अधिक सन्निकट हो जाते हैं, जिन्हें सुसंगठित करके उन्होंने अपने राज्य की स्थापना की। चन्देलों तथा गोंडों की कुलदेवी मनियादेवी इन दोनों जातियों में परस्पर निकटतम सम्बन्ध स्थापित करती है। मनियादेवी का मंदिर केन नदी के तट पर प्राचीत मनियागह के भग्न दुर्ग में है। इस देवी का दूसरा मंदिर हमीरपुर जिले के भारेल नामक ग्राम में है। यह भारेल भर नरेशों की राजधानी प्रतीत होता है। यहाँ की प्राप्त मूर्तियों से प्रकट होता है कि भरो की भी कुलदेवी मनियादेवी है।’ मनियादेवी की उपासना से चन्देल गोड तथा भरों के सन्निकट आ जाते हैं। चन्देलों तथा गोंडों के वैवाहिक सम्बन्ध १६वीं शताब्दी तक पाए जाते हैं, जब कि चन्देल राजकुमारी दुर्गावती का विवाह गढ़ा मंडला के गांव सरदार के साथ हुआ था। चन्देल तथा भरो के सीधे वैवाहिक सम्बन्ध के निर्देश नहीं मिलते, किन्तु उनके दूरवर्ती सम्वन्ध के कुछ उदाहरण दिए जाते हैं। श्री चन्द्रशेखर बनर्जी ने एक चन्देल राजकुमार तथा सरबार सरदार की कन्या के १. हमीरपुर गजेटियर, भाग २२, पृष्ठ १२६, आक्यों० सर्वे रिपोट्स, भाग २१. पृष्ठ ७१ । २. इण्डि० एण्टी० १९०८, पृष्ठ १३६ ।। –इस कया की प्रसिद्धि कुछ पाषाण स्तम्भों से भी प्रकट होती है। इनमें परस्पर हाथ पकड़े हुए स्त्री पुरुष के दो चित्र अंकित हैं। इस स्तम्भ में ऊपर बाईं ओर केवल एक खुले हुए हाथ का चित्र अंकित है। राहिनी ओर पन्द्र तब सूर्य के चित्र हैं (जे० ए० एस० पी० १८७७, पृष्ठ २३४-२३५), किन्तु सूर्य और चन्द्र साथ-साथ उदय नहीं होते। सूर्य-चन्द्र का एक साथ अंकन सम्भवतः हेमवती कवा की ओर निर्देश करता है, क्योंकि उस कथा में यह उल्लेख है कि प्रीष्म ऋतु में जब सूर्य की किरणें प्रखरतम हो रही थीं, भगवान् चन्द्र हेमवती के सम्मुख आये जे० ए० एस० बी० १८६८, पृष्ठ १८६) । वैवाहिक सम्बन्ध का उल्लेख किया है। सरवारों तथा भरों अन्य आदिम जातियों में परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध आज भी पाये जाते हैं। इन वैवाहिक सम्बन्धों से चन्देलों को भरो व गोंडों आदि की निकटता का बोध होता है। श्री चिन्तामणि विनायक का मत है कि चन्देल विशुद्ध चन्द्राय है।’ उनको राय है कि महाकवि चन्द्र बति ३६ श्रेष्ठ राजपूत कुलों में चन्देलों की गणना उनके विशुद्ध क्षत्रिय होने का प्रमाण है। निस्सन्देह रासो में यह उल्लेख है कि ब्रह्मा ने यह घोषित किया था कि हेमवती का पुष महान क्षत्रिय नरेश होगा। परन्तु ३६ राजपूत वंशों में हूण जीत आदि भी सम्मिलित हैं, जिनके राजपूत होने का प्रमाण कहीं भी नहीं मिलता है। अस्तु इस सूची की प्रामाणिकता संदिग्ध प्रतीत होती है। फिर इस सूची का निर्माण उस समय हुआ था, जब कि चन्देलों की पराजय पृथ्वी- राज द्वारा हो चुकी थी।” अतः संभव है कि चन्देलों के पूर्व गौरव के विचार से अथवा अपने सर- क्षक पृथ्वीराज को अधिक गौरवान्वित करने की दृष्टि से उसके द्वारा पराजित चन्देलों के महत्व को दिखाने के विचार से महाकवि चन्द ने ३६ कुलीन राजवंशों की सूची में चन्देलों को स्थान दिया हो। अपने मत की पुष्टि के लिए श्री का विचार है कि हूण और कुशाण आक्रमण के समय चन्देल

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