सिन्धु सभ्यता में आर्थिक जीवन(Economic life in the Indus Valley Civilization)
प्राचीन भारतवर्ष वर्तमान भारत से बहुत बड़ा था। उसकी सीमा में वर्तमान पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश सम्मिलित था। वैदिक साहित्य में देश के रूप में भारत का उल्लेख नहीं मिलता। इसका उल्लेख सर्वप्रथम पुराणों में मिलता है। उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमादे्रश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।। (विष्णु पुराण) इस नाम का सबसे पहला आभिलेखिक उल्लेख खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख में मिलता है। यथा- दसमे च वसे दंड संधी सा (ममयो) भरदवस पठानं। अशोक के अभिलेखों में इसे जम्बूद्वीप कहा गया है। सिन्धु सभ्यता की भौगोलिक स्थिति एवं उन्नत आर्थिक अवस्थाओं के पीछे उन क्षेत्रों की तत्कालीन पारिस्थितिकी, उनका समुन्नत तकनीकी ज्ञान, शीघ्रगमन के लिए पहियों वाली गाड़ियों का प्रयोग और प्राकृतिक शथ्कत से पूर्ण संसाधनों के विकास ने महत्वपूर्ण योग प्रदान किया होगा। उत्खननों से प्राप्त पुरा सामग्रियों के तिथि निर्धारण के फलस्वरूप भारतीय सांस्कृतिक और आर्थिक इतिहास के विकास के अध्ययन को एक तैथिक आधार प्राप्त हुआ। मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा की विशालता एवं इसकी समृद्धि इस बात को स्पष्ट करती है कि सिन्धु सभ्यता के लोगों की आर्थिक स्थिति संतोषजनक थी। सैंधव सभ्यता के समृद्ध आर्थिक जीवन में कृषि, पशुपालन, विभिन्न प्रकार के उद्योग-धंधों तथा व्यापार-वाणिज्य का प्रमुख योगदान था। कृषकों के अतिरिक्त उत्पादन और व्यापार-वाणिज्य के विकास के कारण ही इस नगरीय सभ्यता का विकास हुआ था। कृषि पर आधारित अनाज उत्पादन की समुन्नत तकनीकों और विशेष शिल्पों का जब बहुत अधिक प्रयोग प्रारम्भ होता है तब किसान इतना अधिक अन्न उत्पन्न करने लगता है िकवह उससे केवल अपना ही भरण-पोषण नहीं करता अपितु शासक, पुरोहित, सैनिक एवं शासक और वहाँ के निवासी और व्यापारी, शिल्पी भी उसके उत्पाद से ही अपनी-अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। कृषि – प्राचीन भारत की भौगोलिक बनावट ही कृषि और कृषिपरक क्रियाकलापों के विकास और विस्तार के लिए इतनी अनुकूल थी कि यहाँ अत्यन्त प्रारम्भ में ही श्री गणेश न हो जाता तो कोई आश्चर्य की बात होती। आज की अपेक्षा सिंधु प्रदेश की भूमि पहले बहुत ऊपजाऊ थी। ई.पू. चैथी सदी में सिकंदर के एक इतिहासकार ने कहा था कि सिंधु की गणना इस देश के उपजाऊ क्षेत्रों में की जाती थी। पूर्व काल में प्राकृतिक वनस्पतियों बहुत अधिक थीं, जिसके कारण यहाँ अच्छी वर्षा होती थी। पकी ईंटों की सुरक्षा-प्राचीरों से संकेत मिलता है कि नदियों में बाढ़ प्रतिवर्ष आती थी। सिंधु तथा उसकी सहायक नदियों द्वारा प्रति वर्ष लायी गयी उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी इस क्षेत्र की उर्वरता को बहुत बढ़ा देती थी, जो कृषि के लिये महत्त्वपूर्ण थी। यहाँ के लोग बाढ़ के उतर जाने के बाद नवम्बर के महीने में बाढ़ वाले मैदानों में बुआई कर देते थे और अगली बाढ़ के आने से पहले अप्रैल के महीने में गेहूँ तथा जौ की फसल काट लेते थे। सिंधु नदी घाटी के उपजाऊ मैदानों में मुख्यतः गेहूँ और जौ का उत्पादन किया जाता था। अभी तक नौ फसलों की पहचान की गयी है। गेहूँ बहुतायत में उगाया जाता था। जौ की दो और गेहूँ की तीन किस्में उपजाई जाती थीं। गेहूँ के बीज की दो किस्में स्परोकोकम तथा कम्पेस्टस उत्खनन में प्राप्त हुई हैं। बनावली में मिला जौ उन्नत किस्म का है। चावल की खेती केवल गुजरात (लोथल) और सम्भवतः राजस्थान में की जाती थी। लोथल से धान तथा बाजरे की खेती के अवशेष मिले हैं। इसके अलावा राई, खजूर, सरसों, तिल एवं कपास की भी खेती होती थी। सम्भवतः सबसे पहले कपास यहीं पैदा की गयी, इसीलिये यूनानी इस प्रदेश को ‘ सिंडन ’ कहते थे। यही नहीं, वे अनेक प्रकार के फल व सब्जियों भी उपजाते थे। हड़प्पाई पुरास्थलों के उत्खनन में पीपल, खजूर, नीम, नींबू, अनार एवं केला आदि के प्रमाण मिले हैं। इस समय खेती के कार्यों में प्रस्तर एवं काँसे के बने औजार प्रयुक्त होते थे। यहाँ कोई फावड़ा या हल का फाल तो नहीं मिला है, किन्तु कालीबंगा की प्राक् हड़प्पा सभ्यता के स्तर से जो कूट (हलरेखा) मिले हैं, उनसे स्पष्ट है कि राजस्थान में इस काल में हलों द्वारा खेतो की जुताई की जाती थी। धातु के हल के अवशेष अभी तक नहीं मिले हैं परन्तु इसकी उच्च कोटि की जुताई में सन्देह नहीं किया जा सकता है। बणावली में मिट्टी का बना हुआ हल-जैसा एक खिलौना मिला है। डी, डी, कौशाम्बी महोदय का मत है कि सैन्धव लोगों को भारी हल का ज्ञान नहीं था। इस मत को इस प्रकार खण्डित किया जा सकता है-प्रथम बहावलपुर एवं बणावली से मिट्टी के बने हल का मिलना। दूसरे यह मत ऐसे भी खारिज हो जाता है कि बिना हल के गहरी जुताई नहीं किया जा सकता। यदि यह न हो तो अधिशेष नहीं निकल पायेगा और न ही नगरीकरण ही हो पायेगा। जबकि हम सभी जानते हैं कि सैन्धव सभ्यता नगरीय सभ्यता थी। मेहरगढ़ (पाकिस्तान) से कृषि – गेहूँ, जौ, अंगूर एवं कपास का प्रमाण मिला है। सम्भवतः सिंचाई के लिये नदियों के जल का प्रयोग किया जाता था। जलाशयों एवं कुओं से भी सिंचाई किया जाता रहा होगा। फसलों की कटाई के लिये सम्भवतः पत्थर या काँसे की हँसिया का प्रयोग किया जाता था। मेहरगढ़ से हँसिया का साक्ष्य मिला है। अनाज रखने की टोकरियों के भी साक्ष्य मिले हैं। अतिरिक्त उत्पादन को राज्य द्वारा नियन्त्रित भंडार गृहों (कोठारों या अन्नागारों) में रखा जाता था। मोहनजोदड़ो से प्राप्त विशाल अन्नागार इसका प्रमाण है। अनाज को चूहों से बचाने के लिये मिट्टी की चूहेदानियों का प्रयोग किया जाता था। अनाज कूटने के लिये ओखली और मूसल का प्रयोग होता था। लोथल से आटा पीसने की पत्थर की चक्की (जाँता) के दो पाट मिले हैं। लोथल और रंगपुर से मिट्टी के कुछ बर्तनों में धान की भूसी मिली है। पशुपालन – सैंधव सभ्यता में कृषि के साथ-साथ पशुपालन का भी महत्त्वपूर्ण स्थान था। पशु कृषि एवं यातायात के साधन थे।मृद्भांडों तथा मुहरों पर बने चित्रों एवं अस्थि-अवशेषों से लगता है कि मुख्य पालतू पशुओं में डीलदार एवं बिना डील वाले बैल, भैंस, गाय, भेड़-बकरी, कुत्ते, गधे, खच्चर और सुअर आदि थे। हड़प्पाई लोग सम्भवतः बाघ, हाथी तथा गैंडे से भी परिचित थे, किन्तु हाथी व घोड़ा पालने के साक्ष्य प्रमाणित नहीं हो सके हैं। हड़प्पा से गधे की हड्उी प्राप्त हुई है। एस. आर. राव को








