प्राचीन भारतीय इतिहास के विकास में साहित्य की भाँति पुरातात्विक स्रोतें का विशेष योगदान रहा है। प्राचीन सिक्कों से लुप्त ऐतिहासिक घटनाओं को उद्घाटित करने में सहायता मिलती है। सिक्के इतिहास लेखन में एक महत्वपूर्ण उपकरण माना जाता है। जैसे मानव आदिम, जंगली जीवन से हटकर आवासीय समुदायों की ओर अग्रसर हुआ वैसे ही सामाजिक नियमों और भौतिक प्रगति किया। विकास पथ पर द्रुतगति से अग्रसरित मानव जाति को अपने व्यावहारिक जीवन में वस्तु विनिमय की अपेक्षा मुद्रा की आवश्यकता की प्रतीति कालक्रमेण देर से हुई। वस्तु विनिमय प्रणाली केरूपान्तर आज भी आधुनिक भारतीय समाज में विद्यमान हैं, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ दैनिक आश्यकता की वस्तुओं को अनाज, पुराने कपड़े या पशुधन के बदले प्राप्त किया जाता है। वास्तव में मुद्रा का सम्बन्ध व्यवहार से जुड़ा हुआ है। विदेशी विद्वानों की मान्यता रही है कि सिकन्दर के आगमन के बाद भारत में सिक्कों का प्रचलन हुआ। लेकिन पुरातात्विक उत्खनन से लब कार्षापण सिक्कों का पता चला तो विदेशी विद्वानों की धारणा खण्डित हो गयी। सत्य तो यह है कि भारत में प्राचीन काल से सिक्कों का प्रचलन हो गया था। अतः मुद्रा निर्माण के इतिहास को निम्नलिखित युगों में विभाजित करके उन पर विस्ताार से विचार किया जाना आवश्यक है।
मुद्रा निर्माण के इतिहास का युग निम्नलिखित है-
- सैन्धव-काल
- वैदिक काल में मुद्रा
- वैदिकोत्तर काल (ब्राह्मण एवं उपनिषद) काल
- सूत्रकाल से मौर्यकाल तक
(1) सैन्धव काल –
मुद्रा की प्राचीनता के सम्बन्ध में निश्चय ही सिन्धु सभ्यता का ज्ञानार्जन अपेक्षित होगा। यद्यपि सैन्धव सभ्यता एक नगरीय सभ्यता थी, तथापि इस युग में सिक्कों के निर्माण का कोई भी साक्ष्य प्राप्त नहीं है। सैन्धव पुरास्थलों से पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े मिले हैं। इन्हें मोहरें कहा गया है। सैन्धव-सभ्यता के तौल की इकाई 13.625 ग्रेन थी। मोहनजोदड़ा के उत्खनन से प्राप्त एक पात्र में प्राप्त रजत-खण्ड में से एक पर कीलाक्षर लिपि का उल्लेख है, तीन रजत खण्डांे की तौल लगभग 34, 45 व 66.5 ग्रेन है, एवं 4 खण्डों की तौल क्रमशः 45, 60, 61 व 64 ग्रेन है। बाद वाले 3 खण्ड पहले खण्ड से दूने हैं। दो खण्ड 52 एवं 57 ग्रेन के हैं। दो खण्ड 30.2 एवं 60.5 ग्रेन के हैं। ये धातु खण्ड अपने आप में मुद्रा ही प्रतीत होते हैं। लेकिन उनका आकार एवं तौल समान नहीं है। इन धातु खण्डों पर किसी प्रकार का लेख नहीं है और न ही किसी प्रकार के प्रतीक का ही अंकन किया गया है। इन्हें काट-काट कर मुद्रा का रूप प्रदान किया गया है। जो भी हो इन धातु खण्ड़ों को मुद्रा मानने में कठिनाई है।
(1) मैके महोदय ने इन्हें सिक्का नहीं माना है। मर्शल महोदय के अनुसार, ‘ये संभवतः ताबीज हैं।’ परन्तु इन धातु खण्ड़ों के मध्य कोई छिद्र नहीं है। अतः इसे ताबीज की संज्ञा नहीं दी जा सकती।
(2)इस प्रकार ये धातुखण्ड केवल सैन्धव नगर के ऊपर के स्तर से प्राप्त हुए हैं जो यह इंगित करता है कि इनका आविष्कार सैन्धव सभ्यता के परवर्ती काल में हुआ।
(3) इनका निर्माण निश्चित तौल में नहीं है। अतः इसे सिक्के की संज्ञा नहीं दे सकते।
(4) मिस्र में सिक्कों के प्रचलन से पूर्व धातु निर्मित छल्ले प्रचलित थे, जिनकी तौल 91, 92 ग्रेन थी।
(5) बेबिलोन में धातु खण्डों का प्रचलन विनिमय के रूप में होता था, न कि सिक्के के रूप में।
स्पष्ट है कि सिन्धु सभ्यता यद्यपि नगरीय सभ्यता थी तथापि मौद्रिक उपलब्धि से अनभिज्ञ रही।
(२) वैदिक काल में मुद्रा –
वैदिक कालीन समाज कबायली था। जो जनो के द्वारा निर्मित था। तत्कालीन अर्थव्यवस्था कृषि एवं पशुपालन पर आधारित था। ऋग्वैदिक काल में वस्तु विनिमय का प्रचलन था। ऋग्वेद में गायों द्वारा मूर्ति खरीदने का विवरण मिलता है (क्रीणांत धेनुभिः)। ऋग्वेद में एक अन्य स्थान पर उल्लेख मिलता है कि इन्द्र की मूर्ति को सहस्र या दस सहस्र गायों पर भी नहीं बेचने का विवरण मिलता है। वैदिक साहित्य में ‘कृष्णल’, ‘सुवर्ण’, ‘शतमान’ व ‘निष्क’ आदि का उल्लेख मिलता है। परवर्तीकाल में ये सिक्कों के नाम थे। अतः डा0 भण्डारकर महोदय की धारणा है कि ‘पूर्व वैदिककाल में सिक्कों का प्रचलन था।’
परन्तु वास्तविकता के ज्ञानार्जन के लिए और भी गहराई में जाना अपेक्षित है। वास्तव में वैदिक कालीन व्यवस्था कृषिकर्म पर आश्रित थी। इस काल में मनुष्य की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति वस्तु-विनिमय माध्यम से की जातो थी। विनिमय के लिए ‘गाय’ का प्रयोग होता था, जिसके निम्न प्रमाण हैं।
(1) ऋग्वेद में एक स्थल पर कहा गया है कि भरतों की सेना गायों को प्राप्त करने के लिए युद्धार्थ प्रस्तुत हुई।
(2) इन्द्र के पशुधन की चोरी हो गई, जिसके लिए वह शरमा (कुतिया) को भेजता है।
(3) ऋग्वेद में एक ऋषि द्वारा सहस्र गायों के बदले एक इन्द्र की मूर्ति प्राप्त करने का उल्लेख है।
‘‘ क दशर्भिमय इन्द्रं क्रीणाति धेनुभिः।’’
(4) पाणिनि की अष्टाध्यायी में भी पशुओं को विनिमय के रूप में वर्णित किया गया है।
‘‘गोपुच्छेनं क्रीतं गोपुच्छकम्।’’
(5) समकालीन सभ्यताओं में भी यही प्रथा लक्षित होती है। होमर के युग में भी पशुओं के माध्यम से विनिमय किया जाता था। प्राचीन रोम में जुर्माने की रकम बैलों के रूप से वसूल की जाती थी।
वैदिक युग में स्वर्ण व ताम्र से लोग पूर्णतः परिचित थे, लेकिन रजत का अत्यल्प व परवर्ती काल में उल्लेख मिलता है। परवर्ती काल में ताम्र के सिक्के ‘पण’, ‘कर्ष’ या ‘कार्षापण’ कहलाते थे। समस्त वैदिक साहित्य में इनका प्रयोग नहीं हुआ है। इसके अतिरिक्त कोई अन्य ऐसा शब्द भी नहीं मिलता है, जिसका तात्पर्य ताम्र मुद्राओं से स्थापित किया जा सके। स्वर्ण पंजाब व सिन्ध की नदियों से एकत्र किया जाता था। सुरक्षात्मक दृष्टि से उसे भूमिगत कर लिया जाता था।
(अ) कोष – स्वर्ण कणों को हिरण्यपिण्ड के रूप में सम्भवतः इकट्ठा किया जाता था। इनका प्रयोग दान-दक्षिणा के रूप में प्रयोग किया जाता था। ‘दिवोदास’ के द्वारा अपने पुरोहित को 10 हिरण्यपिण्ड, 10 वस्त्र, 10 अश्व के साथ-साथ कोष देने का उल्लेख प्राप्त होता है-
दशाश्वान् दशकोशान्दश वस्त्राधि भोजना।
दशो हिरण्यपिण्डान् दिवोदास सामिषम्।।
यहाँ पर ‘कोष’ का तादात्म्य सिक्के से कदापि नहीं किया जा सकता।
(ब) निष्क – परवर्ती काल में निष्क स्वर्ण का सिक्का था। अब प्रश्न उठता है कि क्या वैदिक काल में भी निष्क एक स्वर्ण सिक्का था ? उत्तर नकारात्मक पक्ष में ही प्रस्तुत होता है। क्योंकि –
(1) निष्क का अनेक प्रयोग स्वर्णाभूषणों (खादि, रुक्म, कर्णशोमन) के साथ हुआ है। जैसे एक स्थल पर कहा गया है कि, ‘रुद्रदेव विश्व रूप निष्क धारण करते हैं।’
संभव है कि निष्क पर विभिन्न प्रकार के रूप अंकित किए जाते हों। ‘विश्व रूप’ विशेषण निश्चय ही निष्क की भव्यता की ओर संकेत देता है।
(2) ऊषा के द्वारा प्रस्तुत प्रातःकालीन दृश्य की तुलना निष्क-निर्माण से की गई है, जो उसकी भव्यता का द्योतन करता है- ‘‘निष्क द्यावा कृष्णसे, सृजं वा दुर्हितदिवा। ’’
(3) ऋग्वेद में कक्षीवत ऋषि को राजा से 100 अश्व व 100 निष्क की प्राप्ति का उल्लेख है।
अथर्ववेद में एक स्थल पर एक ऋषि को किसी राजा से प्राप्त वस्तुओं में 100 निष्क, 300 अश्व 10000 गायों का उल्लेख है। ध्यातव्य है कि कालान्तर में निष्क का प्रयोग सिक्के के रूप में होने लगा था। कहीं पर भी ‘खादि’, ‘रुक्म’ या कर्णशोभन देने की बात नहीं कही गई है।
(4) ऋग्वेद में कहीं भी निष्क के द्वारा क्रय-विक्रय का उल्लेख नहीं मिलता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि वैदिक काल में निष्क सिक्का नहीं था।
(स) मना – ऋग्वेद में एक स्थल पर इन्द्र से ‘मना’ प्राप्त करने की आकांक्षा व्यक्त की गई है- ‘‘आनोभर व्यज्जनं ग्रामध्श्रमम्यंजम सचा मना हिरण्यया।’’
मना का सामान्य अर्थ ‘इच्छा’से है। अतः इस अर्थ के आधार पर कहा जा सकता है कि याचक इन्द्र से कृपादृष्टि प्राप्त करना चाहता था। परन्तु इस मना से अनायास ही ध्यान बेबिलोनियन मीना की ओर आकृष्ट हो जाता है। बेबिलोन में सिक्कों के प्रचलन से पूर्व स्वर्ण व रजत के निश्चित तौल के पिण्ड विनिमय के लिए प्रचलित थे, जिन्हें ‘मीना’ कहा जाता था ।
परन्तु ध्यातव्य है कि इस अर्थ को स्वीकार करने पर भी ‘मीना’ सिक्कों से प्रचलन के पूर्व की स्थिति का ही द्योतन करता है।
स्पष्ट है कि डा0 भण्डारकर द्वारा कथित सिक्के ‘कृष्ण्ल’, ‘सुवर्ण’, ‘निष्क’, व ‘शतमान’ आदि का प्रयोग पूर्व वैदिक काल में क्रय-विक्रय के ही प्रसंग में होता था। इस प्रकार इन्हें मुद्रा मानना सर्वथा अपरिहार्य है।
(3) उत्तर-वैदिक काल-
उत्तर-वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों एवं उपनिषदों में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं मिलता है जिससे मुद्रा के अस्तित्व का निश्चयात्मक एवं विवादरहित प्रमाण प्राप्त हो।
(1) निष्क ? (अ) पंचविश ब्राह्मण में ब्रात्यों के प्रसंग में रजत निष्क का प्रयोग हुआ है। परन्तु ब्रात्य आर्येतर थे जो संभवतः निष्क का आभूषण के रूप में प्रयोग करते थे।
(ब) सुवर्ण निष्क का भी गोपथ ब्राह्मण में वर्णन मिलता है, जिसमें कहा गया है कि कुरु-पांचाल के ऋषि उद्दालक आरुणि ने अपने ध्वज में निष्क धारण किया था। उनकी घोषणा थी कि जो उन्हे शास्त्रार्थ में पराजित करेगा, उसे वे ‘निष्क’ देंगे।
स्पष्ट है कि यहाँ भी निष्क का प्रयोग क्रय-विक्रय के प्रसंग में नहीं है।
(स) छान्दोग्योपनिषद में एक राजा के किसी ऋषि से अध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति हेतु 1000 रथ, 10000 गाय, 1000 गाँव एवं 1 निष्क देने की घोषणा का उल्लेख है।
यहाँ वस्तुओं की तुलना में निष्क पर्याप्त मूल्यवान दिखाई देता है। परन्तु कहीं भी विनिमय का संकेत नहीं है।
(2) शतमान – शतमान तत्कालीन समय में दक्षिणा के रूप में प्रयुक्त होता था।
‘‘तस्य वै भीणि शतमानानि हिरण्यानि दक्षिणां।’’
राजसूय यज्ञ के अवसर पर रथ दौड़ में रथ के पहिए में दो शतमान बांधे जाते थे। जो कालान्तर में दक्षिणा में दे दिए जाते थे। शतमान को एक स्थल पर वृत्ताकार बताया गया है। अन्यत्र शतमान के 100 वर्ष के जीवन व्यतीत करने के लिए यज्ञकर्ता द्वारा शतमान देने का उल्लेख है- ‘शतमानं भवति शतायुर्वे पुरुषः।’
(3) सुवर्ण ? – परवर्तीकाल में सुवर्ण 80 रत्ती या 144 ग्रेन का सिक्का था। उत्तर वैदिक काल में शतमान के विकल्प के रूप में इसे दिया जाना, इसके निश्चित की सूचना देता है।
(4) पाद- उत्तर वैदिक काल में ‘पाद’ का भी वर्णन मिलता है जिसका अर्थ 1.5 या आधा होता था। वृहदारण्यक उपनिषद में राजा जनक द्वारा 100 गायों के दान करने का उल्लेख है, जिनमें से प्रत्येक गाय की सींग में 10 पाद बँधे हुए थे।
पतंजलि ने ‘पादनिष्क’ या ‘पनिष्क’ का वर्णन किया है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि उत्तर वैदिक साहित्य में ‘निष्क’, ‘सुवर्ण’, ‘शतमान’ व ‘पाद’ का उल्लेख दान के प्रसंग में मिलता है न कि क्रय-विक्रय के प्रसंग में। इन पर कोई राज्योचित चिन्ह मिलता है या नहीं, अभी अस्पष्ट है। इनके निश्चित तौल के विषय में भी हम अनभिज्ञ हैं। प्रायः गायें अब भी वस्तु विनिमय की साधन थी।
(5) कृष्णल- तैत्तरीय ब्राह्मण में कृष्णल का उल्लेख मिलता है।
‘कृष्णलं कृष्णलं वाजसृदभयः प्रयच्छर्ति।
रत्ति (रत्तिका) को कृष्णल कहते थे। वास्तव में रत्ति पेड़ का फल है, किन्तु इसका अर्थ यह है कि स्वर्ण-पिण्ड से काटकर एक-एक रत्ती दिया जा रहा हो। कृष्ण्ल कोई सिक्का नहीं हो सकता, क्योंकि परवर्तीकाल में यह सिक्का नहीं था।
- सूत्रकाल से मौर्यकाल तक –
इस काल तक आते-आते निश्चित रूप से सिक्कों के प्रचलन का संकेत मिलता है। इस काल के सिक्कों के इतिहास के बारे में बौद्ध साहित्य, पाणिनि की अष्टाध्यायी, श्रौत सूत्र, त्रिपिटक साहित्य, महाभारत ए एवं पुरातात्विक स्रोतों आदि से विवरण प्राप्त होता है। इस काल में स्वर्ण सिक्कों का प्रचलन सामान्य बात थी। इसके साथ ही मुद्रा की प्रमाणिकता भी सिद्ध थी। निष्क एक मुख्य मुद्रा थी। शतमान का प्रयोग उपहार एवं विनिमय के लिए किया जाता था। शतमान एवं कार्षापण ये दो रजत मुद्राएँ थी।
निष्क –
इस काल में पूर्व की अपेक्षा सोने के सिक्कों का प्रचलन अधिक बढ़ गया। अष्टाध्यायी में निष्क व सुवर्ण के सम्बन्ध में अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं, द्विनिष्क, त्रिनिष्क, जो क्रय-विक्रय के प्रसंग में किए गये हैं-
(अ) ‘असमासे निष्काविभ्यः’
(ब) ‘द्वित्रिपूर्वान्निष्कान्’
(स) ‘सत् सहस्रान्ताच्च निष्कान्’
इस काल में निष्कशतिक एवं निष्कसाहस्रिक का उल्लेख आर्थिक अवस्था का बोध कराने के लिए किया गया है।
पतंजलि के महाभाष्य में निष्क धन एवं सतनिष्क धन का विवरण मिलता है। जातक साहित्य में भी इस प्रकार के उद्धरण मिलते हैं। विनयपिटक में उल्लेख मिलता है कि अनाथपिण्डक ने बुद्ध के वर्षावास के लिए जेतवन की भुमि पर सोने के सिक्के बिछाकर उसे क्रय किया था। इसका चित्रण साँची स्तूप के तोरण पर मिलता है। बेसन्तर जातक में एक राजकुमार को 1000 निष्क दिए जाने का उल्लेख मिलता है। निष्क एक बड़ा सिक्का था। पतंजलि महोदय ने पनिष्क या पाद निष्क का उल्लेख अपने महाभाष्य में किया है। जो निष्क का एक चैथाई भाग था।
शतमान –
शतमान का प्रयोग इस काल में निश्चय ही क्रय-विक्रय के प्रसंग में होता था। पाणिनि की अष्टाध्यायी में शतमान का विवरण मिलता है। उनके अनुसार शतमान उसे कहते हैं जिसको शतमान द्वारा क्रय किया जाय (शतमानेन क्रीतं शातमानम्)। इससे निष्कर्ष निकलता है कि पूर्व की भाँति शतमान सिक्के के लिए प्रयुक्त होता रहा। देवताओं के नाना रूपों को ध्यान में रखते हुए विविधता के लिए स्वर्ण व रजत शतमान की दक्षिणा होगी, क्योंकि मानव जीवन 100वर्षों का माना गया है-
‘‘रजतं हिरण्यं दक्षिणा नानारूपतया शतमानं भवति शतायुर्वे पुरुषः।’’
कात्यायन श्रौतसूत्र में अश्वमेध के प्रसंग में रजत के शतमान उल्लेख है। इसका तात्पर्य यह है कि वैदिक काल के बाद ही सिक्कों के लिए रजत का प्रयोग किया गया। यही कारण है कि सूत्र साहित्य, त्रिपिटक ग्रंथों एवं व्याकरण ग्रंथों में रजत सिक्कों का विवरण मिलता है। एक शतमान 100 रत्ती के बराबर होता था। इससे स्पष्ट है कि बौद्ध कालीन भारत में एक प्रचलित सिक्का प्रणाली का प्रचलन अवश्य था।
पुरातात्विक साक्ष्य –
उत्खनन से पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर विद्वानों का मत है कि छठीं शताब्दी ई० पू० के लगभग रजत शतमान का प्रयोग होता था। डा0 वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार 1924 ई0 में तक्षशिला के भीर टीले से प्राप्त आहत मुद्राओं में से दो सिक्के सिकन्दर के बाद का मिला है। इसका समय 400 ई0 पू0 के आस-पास माना जा सकता है।
कार्षापण –
कार्षापण मुख्यतः सूत्रकाल का शब्द है, जिसका उल्लेख सर्वत्र मिलता है। कार्षापण को पालि भाषा में कहापण कहा जाता है। इस काल में इसका प्रयोग सिक्के के रूप में किया जाता था। पाणिनि ने इसके दोनों नामों ‘पण’ व ‘कार्षापण’ का उल्लेख किया है। उन्होंने ‘पादकार्षापण’, ‘भाषक’, ‘द्विभाषक’, ‘विशतिक’ व ‘गिंशतिक’ का उल्लेख किया है।
