प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्र पर पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों के विचार(Western Economists’ Views on Ancient Indian Economics)

भारतीय अर्थशास्त्र की विशेषता यह है कि उसका सम्बन्ध विभिन्न ज्ञान की शाखाओं से जुड़ा रहा है। इससे ज्ञान की एकता का प्रतिबिम्ब परिलक्षित होता है। तर्क के रूप में आन्वीक्षिकी ,एवं प्रयोगात्मक रूप में ‘वार्ता’ का प्रयोग मनुष्य के दैनिक कार्यों में प्रयुक्त होता रहा है। उस समय भी ज्ञान प्राप्ति के लिए पृथक-पृथक परम्पराएँ थीं। उनमें दार्शनिक, आध्यात्मिक, आर्थिक, नीतिविषयक ज्ञान का समावेश था। इस सम्बन्धा में उशनस््, वृहस्पति, भारद्वाज, पराशर, आदि की परम्पराओं का उल्लेख हमें प्राप्त होता है।

प्राचीन आचार्यों के आर्थिक विचार तत्कालीन धार्मिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक विचारों के विचित्र मिश्रण थे। इन्हीं विचारों के क्रम में पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों ने उन्हें एक नया रूप देने का प्रयास किया। प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक अरस्तू के समय से विचारों का नया स्वरूप सामने आया। अरस्तू को कुछ लेखकों ने प्रथम विश्लेषणात्मक अर्थशास्त्री बतलाया है। अपने ‘पालिटिक्स’ नामक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ के प्रथम खण्ड में अरस्तू ने अर्थशास्त्र की परिभाषा तथा इसके विषय-क्षेत्र के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किये हैं।

अरस्तू ने अर्थशास्त्र को ‘गृह प्रबन्ध’ का विज्ञान बताया है।  उनके अनुसार- पूर्ति विभाग का सम्बन्ध विनिमय तथा धन प्राप्ति से था। प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक जीवों ने भी अपनी ‘इकोनामिक्स’ नामक पुस्तक में अर्थशास्त्र को वह विज्ञान बताया था, जो गृह प्रबन्धन की समस्याओं का अध्ययन एवं मूल्यांकन करता है।

मध्यकाल में आर्थिक विचारों का स्वरूप कुछ और ही था। ईसाई धर्म के प्रचार के कारण अर्थशास्त्र पर धर्मशास्त्र की अधिक छाप पड़ी। अतः इसे विशेष महत्व नहीं दी गई। फलतः आर्थिक विचारों के विकास का आकलन नहीं किया जा सका। मध्यकालीन चर्च पादरियों की विचारधारा धन प्राप्ति के प्रतिकूल थी। तत्कालीन विचारकों ने जीवन के आध्यात्मिक पक्ष पर अधिक बल दिया, आर्थिक पक्ष पर नहीं। ऐसी स्थिति में चिन्तकों, विचारकों तथा लेखकों ने अर्थशास्त्र के अध्ययन की ओर उदासीनता दिखाई।

१८वीं शताब्दी के समय वणिकवादी विचारधारा का साम्राज्य बना रहा। उनका यह विश्वास था कि शक्तिशाली राज्य की स्थापना के लिए अधिक धन का होना अत्यावश्यक है। संसार में शक्तिशाली राज्य बनने के लिए राज्य को समृद्धशाली होना चाहिए। इस प्रकार की विचारधारा के प्रभाव के अधीन अर्थशास्त्र राज्य के लिये धन प्राप्ति का अध्ययन बन गया।

हेनरिख ग्राटलीवान जस्ती ने कहा है- ‘‘राज्य का महान प्रबन्धन भी उन्हीं मौलिक सिद्धान्तों पर आधारित है जिन पर अन्य प्रबन्धन (गृह प्रबन्धन) आधारित है। दोनों संस्थाओं का उद्देश्य प्राप्त पदार्थों का उपयोग करने के लिए साधनों को प्राप्त करना है। यदि इन प्रबन्धनों में कोई अन्तर है, तो वह केवल यह है कि राज्य का गृह प्रवन्धन निजी व्यक्ति की प्रबंध की तुलना में अधिक महान् है।

सर जेम्स स्टुवार्ट ने अपनी पुस्तक ‘एन इन्क्वायरी इन टु दि प्रिसिपिल्स आफ पालिटिक्स इकोनामी’ में अर्थशास्त्र विषयक सामग्री की व्याख्या करते हुए लिखा है- ‘‘सामान्यतया अर्थशास्त्र परिवार की सभी आवश्यकताओं की किफायत के साथ पूर्ति करने की कला है….. जो महत्व अर्थशास्त्र का परिवार के लिये है, वही महत्व राजनीतिक अर्थ-शास्त्र का राज्य के लिये है…।’’

एडम स्मिथ के समय अर्थशास्त्र धन का विज्ञान बन गया। स्मिथ महोदय की मान्यता है कि ‘‘अर्थशास्त्र राष्ट्रों के धन को प्रकृति तथा इसके कारणों का अनुसन्धान है।’’

जे बी के अनुसार अर्थशास्त्र उन विषयों का अध्ययन है, जिनके अनुसार धन प्राप्त किया जाता है। उन्होंने अपनी ‘‘ए ट्रिटाइज आन पोलिटिकल इकोनामी’’ नामक पुस्तक में लिखा है कि ‘‘राजनीतिक अर्थशास्त्र धन की प्रकृति की व्याख्या करता है तथा इसके नष्ट होने की घटना की विवेचना करता है।’’

जान शमसे मक्लुश के अनुसार राजनीतिक अर्थशास्त्र उन नियमों का विज्ञान है, जो ऐसी वस्तुओं के उत्पादन, संचय, वितरण तथा उपभोग का नियमन करते हैं, जो मनुष्यों के लिये आवश्यक तथा उपयोगी होती हैं और जिनका विनिमय मूल्य होता है।

नासो विलियम सीनियर ने ‘एन आउट लाइन आफ दी सायन्स आफ पोलिटिकल इकानामी’ नामक पुस्तक में अर्थशास्त्र की परिभाषा के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा था- ‘‘राजनीतिक अर्थशास्त्री के अध्ययन का विषय. सुख नहीं है, बल्कि धन है। उसके आधार वाक्य उन कुछ थोड़े से सामान्य तर्क वाक्यों पर, जो स्वयं निरीक्षणों अथवा चेतना का परिणाम होते हैं तथा जिनको सिद्ध करने अथवा जिनका औपचारिक वर्णन करने की कोई आवश्यकता नहीं है, आधारित होते हैं। उसके आगमनात्मक अनुमान भी लगभग उतने ही सामान्य तथा अचूक होते हैं।’’ सीनियर ने अर्थशास्त्र के विषय क्षेत्र को बहुत सीमित करके इसे आमूर्त तथा निगमन विज्ञान बना दिया। जान स्टुअर्ट मिल ने अर्थशास्त्र की परिभाषा की व्याख्या करते हुए ‘एसेज आन अनसेटल्ड क्वेश्चन आन पोलिटकल इकानामी’ नामक पुस्तक में लिखा है कि ‘‘यह वह विज्ञान है जो उन सामाजिक घटनाओं को परिचालित करने वाले नियमों का अध्ययन करता है, जो मनुष्य जाति के धन का उत्पादन करने के सम्बन्ध में विद्यमान होती है तथा किसी अन्य लक्ष्य से प्रभावित नहीं होती।’’

बिट्रिश अर्थशास्त्रियों का यह दृढ़ विश्वास था कि समाज में वे सभी आर्थिक क्रियायें, जो व्यक्तिगत स्वार्थ की भावना से प्रेरित होती हैं, समाज के लिये भी हितकारी होती हैं।

एडम स्मिथ के अनुसार धन सेवाओं और वस्तुओं का योग है। इस सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए स्मिथ ने लिखा है -‘‘प्रत्येक व्यक्ति आवश्यकताओं, सुविधाओं तथा मनोरंजन की वस्तुओं के उपभोग की मात्रा के अनुसार धनी अथवा दरिद्र होता है। अधिक वस्तुओं का उपभोग करने वाला व्यक्ति धनी और कम वस्तुओं का उपभोग करने वाला व्यक्ति निर्धन होता है।’’

कारलाइल महोदय ने अर्थशास्त्र की कड़ी आलोचना की है और उसे ‘‘कुबेर की विद्या’’ कहा है। रस्किन का मत है कि मानव जाति के अधिकांश व्यक्तियों के मस्तिष्क में समय-समय पर, जो बहुत से भ्रम रहे हैं, उनमें से सम्भवतः सबसे अधिक अनोखा तथा सबसे कम विश्वसनीय राजनीतिक अर्थशास्त्र विज्ञान ही है।

इसके अतिरिक्त मार्शल महोदय अर्थशास्त्र को मानव जीवन की दशाओं को सुधारने का साधन मानते हैं। उनके अनुसार ‘‘राजनीतिक अर्थशास्त्र अथवा अर्थशास्त्र जीवन के साधारण व्यवसाय में मानव जाति का अध्ययन है। यह व्यक्तिगत तथा सामाजिक क्रियाओं के उस भाग का परीक्षण करता है, जिसका विशेष सम्बन्ध जीवन में कल्याण अथवा सुख से सम्बद्ध भौतिक पदार्थों की प्राप्ति तथा उपभोग से है।’’

उपरोक्त अर्थशास्त्रियों की परिभाषाएँ अपने-अपने विभिन्न दृष्टिकोणों का प्रतिफल है। यदि इन परिभाषाओं के मूल रूप को देखा जाय तो ज्ञात होता है कि यह उसी धन से सम्बद्ध है जिसका भारत्तीय विचारकों ने अनेक रूपों में चर्चा की है। समय और परिस्थितियों के अनुसार विचारों में कुछ परिवर्तन होता अवश्य दिखाई पड़ता है। प्रागैतिहासिक काल के प्राप्त चिह्नों के आधार पर भी तत्कालीन आर्थिक विचारों का पता चलता है। वैदिक काल में तो विचारकों ने धन एवं अर्थशास्त्र के विभिन्न विचारों की नींव ही डाल दी थी। उस समय के आर्थिक विचारक धन में वृद्धि करने, कृषि को फलवती तथा अधिक उपजाऊ करने के लिये इन्द्र तथा वरुण की उपासना करने का उल्लेख करते हैं। इस प्रकार से ये विचार उत्तरोत्तर परिपक्व होते गये ।

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