October 2025

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प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्र पर पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों के विचार(Western Economists’ Views on Ancient Indian Economics)

भारतीय अर्थशास्त्र की विशेषता यह है कि उसका सम्बन्ध विभिन्न ज्ञान की शाखाओं से जुड़ा रहा है। इससे ज्ञान की एकता का प्रतिबिम्ब परिलक्षित होता है। तर्क के रूप में आन्वीक्षिकी ,एवं प्रयोगात्मक रूप में ‘वार्ता’ का प्रयोग मनुष्य के दैनिक कार्यों में प्रयुक्त होता रहा है। उस समय भी ज्ञान प्राप्ति के लिए पृथक-पृथक परम्पराएँ थीं। उनमें दार्शनिक, आध्यात्मिक, आर्थिक, नीतिविषयक ज्ञान का समावेश था। इस सम्बन्धा में उशनस््, वृहस्पति, भारद्वाज, पराशर, आदि की परम्पराओं का उल्लेख हमें प्राप्त होता है। प्राचीन आचार्यों के आर्थिक विचार तत्कालीन धार्मिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक विचारों के विचित्र मिश्रण थे। इन्हीं विचारों के क्रम में पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों ने उन्हें एक नया रूप देने का प्रयास किया। प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक अरस्तू के समय से विचारों का नया स्वरूप सामने आया। अरस्तू को कुछ लेखकों ने प्रथम विश्लेषणात्मक अर्थशास्त्री बतलाया है। अपने ‘पालिटिक्स’ नामक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ के प्रथम खण्ड में अरस्तू ने अर्थशास्त्र की परिभाषा तथा इसके विषय-क्षेत्र के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किये हैं। अरस्तू ने अर्थशास्त्र को ‘गृह प्रबन्ध’ का विज्ञान बताया है।  उनके अनुसार- पूर्ति विभाग का सम्बन्ध विनिमय तथा धन प्राप्ति से था। प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक जीवों ने भी अपनी ‘इकोनामिक्स’ नामक पुस्तक में अर्थशास्त्र को वह विज्ञान बताया था, जो गृह प्रबन्धन की समस्याओं का अध्ययन एवं मूल्यांकन करता है। मध्यकाल में आर्थिक विचारों का स्वरूप कुछ और ही था। ईसाई धर्म के प्रचार के कारण अर्थशास्त्र पर धर्मशास्त्र की अधिक छाप पड़ी। अतः इसे विशेष महत्व नहीं दी गई। फलतः आर्थिक विचारों के विकास का आकलन नहीं किया जा सका। मध्यकालीन चर्च पादरियों की विचारधारा धन प्राप्ति के प्रतिकूल थी। तत्कालीन विचारकों ने जीवन के आध्यात्मिक पक्ष पर अधिक बल दिया, आर्थिक पक्ष पर नहीं। ऐसी स्थिति में चिन्तकों, विचारकों तथा लेखकों ने अर्थशास्त्र के अध्ययन की ओर उदासीनता दिखाई। १८वीं शताब्दी के समय वणिकवादी विचारधारा का साम्राज्य बना रहा। उनका यह विश्वास था कि शक्तिशाली राज्य की स्थापना के लिए अधिक धन का होना अत्यावश्यक है। संसार में शक्तिशाली राज्य बनने के लिए राज्य को समृद्धशाली होना चाहिए। इस प्रकार की विचारधारा के प्रभाव के अधीन अर्थशास्त्र राज्य के लिये धन प्राप्ति का अध्ययन बन गया। हेनरिख ग्राटलीवान जस्ती ने कहा है- ‘‘राज्य का महान प्रबन्धन भी उन्हीं मौलिक सिद्धान्तों पर आधारित है जिन पर अन्य प्रबन्धन (गृह प्रबन्धन) आधारित है। दोनों संस्थाओं का उद्देश्य प्राप्त पदार्थों का उपयोग करने के लिए साधनों को प्राप्त करना है। यदि इन प्रबन्धनों में कोई अन्तर है, तो वह केवल यह है कि राज्य का गृह प्रवन्धन निजी व्यक्ति की प्रबंध की तुलना में अधिक महान् है। सर जेम्स स्टुवार्ट ने अपनी पुस्तक ‘एन इन्क्वायरी इन टु दि प्रिसिपिल्स आफ पालिटिक्स इकोनामी’ में अर्थशास्त्र विषयक सामग्री की व्याख्या करते हुए लिखा है- ‘‘सामान्यतया अर्थशास्त्र परिवार की सभी आवश्यकताओं की किफायत के साथ पूर्ति करने की कला है….. जो महत्व अर्थशास्त्र का परिवार के लिये है, वही महत्व राजनीतिक अर्थ-शास्त्र का राज्य के लिये है…।’’ एडम स्मिथ के समय अर्थशास्त्र धन का विज्ञान बन गया। स्मिथ महोदय की मान्यता है कि ‘‘अर्थशास्त्र राष्ट्रों के धन को प्रकृति तथा इसके कारणों का अनुसन्धान है।’’ जे बी के अनुसार अर्थशास्त्र उन विषयों का अध्ययन है, जिनके अनुसार धन प्राप्त किया जाता है। उन्होंने अपनी ‘‘ए ट्रिटाइज आन पोलिटिकल इकोनामी’’ नामक पुस्तक में लिखा है कि ‘‘राजनीतिक अर्थशास्त्र धन की प्रकृति की व्याख्या करता है तथा इसके नष्ट होने की घटना की विवेचना करता है।’’ जान शमसे मक्लुश के अनुसार राजनीतिक अर्थशास्त्र उन नियमों का विज्ञान है, जो ऐसी वस्तुओं के उत्पादन, संचय, वितरण तथा उपभोग का नियमन करते हैं, जो मनुष्यों के लिये आवश्यक तथा उपयोगी होती हैं और जिनका विनिमय मूल्य होता है। नासो विलियम सीनियर ने ‘एन आउट लाइन आफ दी सायन्स आफ पोलिटिकल इकानामी’ नामक पुस्तक में अर्थशास्त्र की परिभाषा के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा था- ‘‘राजनीतिक अर्थशास्त्री के अध्ययन का विषय. सुख नहीं है, बल्कि धन है। उसके आधार वाक्य उन कुछ थोड़े से सामान्य तर्क वाक्यों पर, जो स्वयं निरीक्षणों अथवा चेतना का परिणाम होते हैं तथा जिनको सिद्ध करने अथवा जिनका औपचारिक वर्णन करने की कोई आवश्यकता नहीं है, आधारित होते हैं। उसके आगमनात्मक अनुमान भी लगभग उतने ही सामान्य तथा अचूक होते हैं।’’ सीनियर ने अर्थशास्त्र के विषय क्षेत्र को बहुत सीमित करके इसे आमूर्त तथा निगमन विज्ञान बना दिया। जान स्टुअर्ट मिल ने अर्थशास्त्र की परिभाषा की व्याख्या करते हुए ‘एसेज आन अनसेटल्ड क्वेश्चन आन पोलिटकल इकानामी’ नामक पुस्तक में लिखा है कि ‘‘यह वह विज्ञान है जो उन सामाजिक घटनाओं को परिचालित करने वाले नियमों का अध्ययन करता है, जो मनुष्य जाति के धन का उत्पादन करने के सम्बन्ध में विद्यमान होती है तथा किसी अन्य लक्ष्य से प्रभावित नहीं होती।’’ बिट्रिश अर्थशास्त्रियों का यह दृढ़ विश्वास था कि समाज में वे सभी आर्थिक क्रियायें, जो व्यक्तिगत स्वार्थ की भावना से प्रेरित होती हैं, समाज के लिये भी हितकारी होती हैं। एडम स्मिथ के अनुसार धन सेवाओं और वस्तुओं का योग है। इस सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए स्मिथ ने लिखा है -‘‘प्रत्येक व्यक्ति आवश्यकताओं, सुविधाओं तथा मनोरंजन की वस्तुओं के उपभोग की मात्रा के अनुसार धनी अथवा दरिद्र होता है। अधिक वस्तुओं का उपभोग करने वाला व्यक्ति धनी और कम वस्तुओं का उपभोग करने वाला व्यक्ति निर्धन होता है।’’ कारलाइल महोदय ने अर्थशास्त्र की कड़ी आलोचना की है और उसे ‘‘कुबेर की विद्या’’ कहा है। रस्किन का मत है कि मानव जाति के अधिकांश व्यक्तियों के मस्तिष्क में समय-समय पर, जो बहुत से भ्रम रहे हैं, उनमें से सम्भवतः सबसे अधिक अनोखा तथा सबसे कम विश्वसनीय राजनीतिक अर्थशास्त्र विज्ञान ही है। इसके अतिरिक्त मार्शल महोदय अर्थशास्त्र को मानव जीवन की दशाओं को सुधारने का साधन मानते हैं। उनके अनुसार ‘‘राजनीतिक अर्थशास्त्र अथवा अर्थशास्त्र जीवन के साधारण व्यवसाय में मानव जाति का अध्ययन है। यह व्यक्तिगत तथा सामाजिक क्रियाओं के उस भाग का परीक्षण करता है, जिसका विशेष सम्बन्ध जीवन में कल्याण अथवा सुख से सम्बद्ध भौतिक पदार्थों की प्राप्ति तथा उपभोग से है।’’ उपरोक्त अर्थशास्त्रियों की परिभाषाएँ अपने-अपने विभिन्न दृष्टिकोणों का प्रतिफल है। यदि इन परिभाषाओं के मूल रूप को देखा जाय तो ज्ञात होता है कि यह उसी धन से सम्बद्ध है जिसका भारत्तीय विचारकों ने अनेक रूपों...
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चन्देल वंश के आरम्भिक शासक(Early rulers of the Chandela dynasty)

भारतीय इतिहास की कड़ियाँ देशी और विदेशी विद्वानों के गहन अनुसन्धान और अध्यवसाय से बहुत कुछ जुड़ी हैं, लेकिन अभी भी इतिहास की कुछ पर्तें काल के गर्भ में समायी हुई हैं। जो कुछ ऐतिहासिक तथ्य उद्घाटित भी हुए हैं,  उनके सम्बन्ध में नवीन अध्येताओं के द्वारा अर्जित ऐतिहासिक संकेतों और निधियों के सापेक्ष पुनर्विचार की आवश्यकता है। ऐतिहासिक सामग्रियों के अध्येताओं की कल्पना और अनुमान के कारण कई भ्रामक तथ्य वर्षों तक विद्वानों के बीच प्रतिष्ठित रहे हैं, लेकिन नई व्याख्या और नये तथ्य परक अनुसन्धानों से पुरानी मान्यताएँ समाप्त हो रही हैं। इन विपुल सामग्रियों के आधार पर इतिहास निर्माण की प्रक्रिया को सक्रिय करना इतिहासज्ञों का कार्य है। भारतीय इतिहास के उन पक्षों पर, जिनके सम्बन्ध में ज्ञातव्य तथ्यों का अभाव रहा है. अब बहुत मात्रा में सामग्री प्रकाश में आई है। उन सबका परीक्षण और अध्ययन करके भारतीय इतिहास की श्रृंखला को जोड़ने का जो भी तटस्थ प्रयास होगा, उसका स्वागत ही किया जायगा। खजुराहो की चर्चा ज्यों-ज्यों विश्वव्यापी बनती गई, त्यों-त्यों इतिहासकारों और जिज्ञासुओं की दृष्टि चन्देल राजवंश और उसकी परम्परा की ओर आकृष्ट हुई है। खजुराहो के शिल्प पर छायी हुई चन्देल संस्कृति की छाप के रहस्योद्घाटन का प्रयास देशी-विदेशी विद्वान् कर रहे हैं। उसके शिल्प की अंगभूत सामग्री और विषय-वस्तु का वैविध्य अध्येताओं की मान्यताओं को स्थिर ही नहीं होने देता। रहस्य से आवृत्त खजुराहो-शिल्प के सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवेश को समझने का प्रयास कई मान्य विद्वानों ने किया है। चंदेल वंश का वह इतिहास अत्यंत महत्त्व का जो वंश के चौथे महाराज नन्नुक के राज्यारोहण से प्रारंभ होकर राहिल के शासनकाल के अंत तक विस्तृत है। चंदेलों ने यद्यपि इसी बीच अपनी एक सत्तात्मकता खो दी और कन्नौज के प्रतिहार सम्राटों की सार्वभौम सत्ता के अधीन संरक्षित जीवन व्यतीत किया, फिर भी उन्हें इसी अवस्था में अपने को बलशाली बनाने एवं शक्तिसंचय करने का सुनहरा अवसर प्राप्त हो गया। प्रतिहारों का अपने करद राज्यों पर बड़ा शिथिल नियंत्रण था, जिसके फलस्वरूप चंदेलों को किसी अन्य के आक्रमण से निश्चिंत रहते हुए अपनी शक्ति और व्यावहारिक रूप से एक सुदृढ़ सेना संगठित करने का अनायास सुयोग हाथ लगा। चंदेल शासकों ने सुगमता से अपने भविष्य की रचना की। हिंदुओं की मूर्तियों आदि को भंगकर उनके धर्म पर आघात करनेवाले और सिंघ जीतकर पूर्व की ओर अरब आक्रमणकारियों को परास्त कर प्रथम प्रतिहार शासक नागभट्ट ने बड़ी कीर्ति अर्जित कर ली थी परंतु यह अत्यंत खेद का विषय है कि इस वंश के इतिहास को विस्तार के साथ उपस्थित करने वाले अभिलेख भी कहीं इस प्रसंग की चर्चा नहीं करते कि नागभट्ट ने ही इस वंश की स्थापना की। डॉ स्मिथ इतना कहते हैं कि ‘ नागभट्ट भीनमल का राजा था ’ पर यह निश्चित नहीं करते कि प्रतिहार वंश के प्रथम उदीयमान शासक नागभट्ट ने ही इस वंश की स्थापना की। कुछ विश्वसनीय तथ्यों के आधार पर यह अवश्य प्रमाणित होता है कि नागभट्ट ने मंदोर पर अवश्य ही शासन किया होगा। उसका देश गुर्जरात्रा या मारवाड़ में था, यह भी निश्चित नहीं है। नागभट्ट का उत्तराधिकारी उसका भतीजा काकुस्थ या काक्कुक था, जिसका राज्यकाल डॉ. स्मिथ के अनुसार सन् ७४०ई. से ७८५ई. तक था. उसका भाई और उत्तराधिकारी देवशक्ति था और पुत्र वत्सराज। वत्सराज इस वंश का दूसरा विख्यात राजा था। वत्सराज की सर्वोत्तम उज्ज्वल कीर्ति यह थी कि उसने प्रसिद्ध भण्डिवंश के हाथों से कन्नौज का केंद्रीय शासन हस्तगत कर लिया था। कन्नौज के वर्मा वंश का राज्य अवनति पर था और वत्सराज ने उसे पदच्युत कर दिया। अभिलेखों से यह तो स्पष्ट नहीं होता कि उसने उस वंश के किस व्यक्ति से राज्य छीना, परंतु संभावना इंद्रराज की है। विजय का अनुमानित काल सन् ७८० ई. ठहरता है। इतना तो स्पष्ट है कि इस विजय का प्रभाव यमुना नदी के दक्षिणी भाग पर बिलकल नहीं पड़ा जहाँ चंदेल राजा अपने छोटे राज्य को बढ़ाने में संर्घषरत थे। वत्सराज की कीर्ति तब और द्विगुणित हुई जब उसने बंगाल के शासक गोपाल को परास्त किया। किंतु उसकी इन गौरवपूर्ण विजयों पर दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा ध्रुव ने उसे हराकर पानी फेर दिया। ऐसी अवस्था में वत्सराज के लिए यह असंभव था कि वह पूर्व मध्य भारत को थोड़ा भी प्रभावित करता। वह किसी भी प्रकार चंदेलों के खजुराहो से महोबा तक के द्रुतगति-प्रसार में बाधा न पहुँचा सका। यह कार्य उसके पुत्र नागभट्ट द्वितीय द्वारा संपादित हुआ, जिसने सर्वप्रथम आंध्र,  कलिंग, विदर्भ और अन्य राज्यों को विजित किया। उस समय कन्नौज के चले आते हुए करद राज्य भी रहे होंगे जिन्हें उसने पुनर्विजित किया होगा। उसके इसी दिग्विजय प्रयाण में मध्यभारत के सरदार और छोटे शासक पराजित किये गये। परंतु स्मरण रखने की बात यह है कि यमुना के दक्षिण भाग पर उसका आधिपत्य तब हुआ जब उसने कन्नौज को अपनी राजधानी बना लिया। अपनी शक्ति को इस प्रकार कन्नौज में प्रतिष्ठित कर लेने पर नागभट्ट द्वितीय ने निश्चित रूप से उन पड़ोसी राज्यों तो प्रभावित किया. जो अपनी छोटी सीमा में स्वतंत्रता भोग रहे थे। नन्नुक- बुन्देलखण्ड की राजनीति में नन्नुक के पर्दापण से बुन्देलखण्ड क्षेत्र में नन्नुक ने किस समय नये राजवंश की स्थापना की , इसका विवरण शिलालेखों में नहीं मिलता। बुन्देलखण्ड की राजनीति में नन्नुक के पर्दापण से राजपूत इतिहास में एक नये युग का सूत्रपात हुआ। कनिंघम महोदय की धारणा है कि धंगदेव 950 ई. के आसपास सिंहासनासीन हुआ। जो नन्नुक की छठवीं पीढ़ी में पैदा हुआ था। कनिंघम महोदय ने अनेक उदाहरणों के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि भारतीय औसत पीढ़ी 20 से 30 वर्ष तक होती है। इस प्रकार नन्नुक लगभग 800 ई. के 30 वर्ष आगे या 30 वर्ष पीछे सिंहासनासीन हुआ होगा। नन्नुक प्रारम्भ में प्रतिहारों का सामन्त था। बाद में दूर तक अपनी राज्यसीमा फैलाने वाले और महोबा को राजधानी बनाने वाले गौरवशाली शासक नन्नुक को कन्नौज के प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय (सन् ८१५-३३) की शक्तिशाली सेना का सामना सन् ८३२ ई में करना पड़ा और अंत में वह अधिकृत बना लिया गया। महत्त्व की बात यह है कि प्रतिहारों का क्रमिक विकास अनुकूल परिस्थितियों के कारण चंदेलों से अपेक्षाकृत अधिक दृढ़ था। अरब यात्री अल मसूदी ने सन् ८५१ ई में लिखा है कि प्रतिहार...
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देवगिरि का यादव शासक रामचंद्र (रामदेव)Ramchandra (Ramdev), the Yadava ruler of Devagiri

१२७१ ई. के उत्तरार्द्ध में रामचंद्र ने देवगिरि के सिंहासन को अलंकृत किया जो इस वंश का अंतिम महत्वपूर्ण शासक था। इसका शासन काल राजनीतिक दृष्टिकोण से सर्वाधिक महत्वपूर्ण रहा क्योंकि इसी के काल में दक्षिण भारत पर मुसलमान आक्रमण प्रारंभ हुए जिससे दक्षिण की राजनीति एकदम परिवर्तित हो गई। यद्यपि रामचंद्र ने षड्यंत्र के माध्यम से सिंहासन प्राप्त किया था किन्तु वैध उत्तराधिकारी होने के कारण इसके विरुद्ध कोई विद्रोह नहीं हुआ। मालवा एवं गुजरात- समकालीन मालवा का परमार शासक अर्जुनवर्मा द्वितीय अपने ही मंत्री से संघर्षरत था। यहाँ तक कि साम्राज्य विभाजित भी हो गया था। ऐसी परिस्थिति मे रामचंद्र का अभियान पूर्णतः सफल रहा। शक सम्वत् ११९४ के थाणा (थाना) अभिलेख में उसे ‘‘ मालवो के दीपों को बुझाने वाला तीव्र तुफान ’’ और शक सम्वत् ११९८ के उदरि अभिलेख में मालवराज अर्जुन के बहसंख्यक हाथियों को नष्ट करने वाला सिंह बताया गया है। मालवा अभियान के संदर्भ में ही उसका गुर्जरों से भी अनेक सीमावती संघर्ष हुए किन्तु किसी को स्थायी विजयश्री न प्राप्त हुई। होयसल- महादेव के शासन काल में यादव होयसलों से पराजित हए थे जिसके प्रतिशोध मे रामचंद्र ने १२७५ ई. में होयसल साम्राज्य पर आक्रमण किया। बनवासी एवं नोलम्बवाडी होते हुए द्वारसमुद्र के समीप बेलवाडी तक पहुँच गया। यादव सेनापति तिक्कमरस ने इसी स्थल से द्वारसमुद्र को आक्रांत करने की योजना बनाई। इसी समय होयसल नरेश नरसिंह ने सेनापति अंक तथा मयिदेव के नेतृत्व में एक सेना बेलवाडी भेजा। होयसल सेना पराजित हुई जिससे प्रोत्साहित होकर यादव सेनापति तिक्कमरस राजधानी पहुँच गया। होयसल सैनिकों ने राजधानी की सुरक्षा के लिए हर संभव प्रयास किया। नंगेय एवं गुल्लैय जैसे होयसल सेनापति मारे गये। अंत में अंकेय नायक दृढ विश्वास के साथ यादव सेना को निष्कासित करने के लिए अग्रसर हुआ। होयसल लेखों से ज्ञात होता है कि जिस तिक्कमरस ने एक ही क्षण में संपूर्ण द्वारसमुद्र को अधिकृत करने का प्रण किया था उसे अंकनायक ने पराजित किया। यादव सेनापति हरिपाल भयभीत हुआ। तिक्कमरस तथा जोगिदेव युद्ध से पलायित हुए। यादव सेना यद्यपि पराजित हुई किन्तु लूट में उसे अपार संपति पाप्त हुई। इसके बाद होयसलों तथा यादवों के मध्य अनेक सीमावर्ती संघर्ष हुए। चूँकि होयसल राज्य नरसिंह एवं रामनाथ में विभाजित था इसलिए यादवों के सफल-प्रतिरोध में असमर्थ रहे। उत्तर-पूर्व- दक्षिण से मुक्त होने के पश्चात् रामचंद्र ने साम्राज्य विस्तार के लिए उत्तर-पूर्व की ओर अभियान किया। सर्वप्रथम बज्राकर (वैरगढ) तथा भण्डागार (भंदर) को आक्रांत किया। तदुपरांत त्रिपुरी को सहज ही अधिकृत किया। त्रिपुरी को ही केन्द्र मानकर मुसलमान राज्य को अधिकृत करने के लिए योजना बनायी। बनारस को मुसलमानों से मुक्त करने के लिए वहाँ तक आक्रमण किया। पुरुषोत्तमपुरी लेख से ज्ञात होता है कि बनारस को अधिकृत कर वहाँ एक सारंगधर मंदिर का निर्माण कराया। इस अभियान की तिथि बलवन की मृत्यु एवं जलालुद्दीन खिजली के राज्यारोहण के मध्य अर्थात १२८६ ई के पश्चात् मानी जाती है। यादव लेखों में कान्यकुब्ज एवं कैलाश तक विजय की घोषणा की गई है। किन्तु यह विश्वसनीय नहीं प्रतीत होता। इलाहाबाद के समीप कड़ा के सुबेदार से भी इसका संघर्ष हुआ। रामचंद्र बनारस पर स्थायी अधिकार न रख सका। जैसे ही अलाउद्दीन कड़ा का गर्वनर हुआ, यादव सेना वापस लौटने के लिए बाध्य हई। जिस समय यादव सेना गंगाघाटी में व्यस्त थी उस समय कोंकण, खेद तथा महिम के शासकों ने विद्रोह कर दिया, जिन्हें रामचंद्र के पुत्र शंकरदेव ने नियंत्रित किया। तुर्क-अभियान- १२९२ ई. तक यादव साम्राज्य अपने उत्कर्ष की चरम सीमा पर पहुंच गया। उत्तर में बनारस तक के शासकों को पराजित कर रामचंद्र ने यादवों को सर्वोच्च शक्ति के रूप में परिवर्तित कर दिया किन्तु इसी समय उत्तर से मुसलमानों का आक्रमण प्रारंभ हुआ जिससे मात्र २० वर्षों के भीतर ही यादव साम्राज्य उत्तर भारतीय मुस्लिम साम्राज्य का अंग बन गयी। १२९४ ई. में ही कड़ा के गवर्नर के रूप में अलाउद्दीन ने रामचंद्र को आक्रांत किया। इस अभियान के कारणों पर प्रकाश डालते हुए यह बतलाया गया है कि अलाउद्दीन सम्राट बनने की इच्छा से साम्राज्यिक शक्ति का परिचय देना चाहता था। दूसरे रामचंद्र ने बनारस तक अभियान किया उसके प्रतिशोध से भी वह उत्प्रेरित था। अलाउद्दीन ने सुनियोजित ढंग से यादवों को आक्रांत किया। सर्वप्रथम अपने गुप्तचरों से यह सूचना प्राप्त की कि यादव सेना दक्षिण के अभियानों में व्यस्त है। ऐसी स्थिति में इसने चंदेरी को अधिकृत किया। तदुपरांत राजमहेन्द्री पर आक्रमण किया। राजमहेन्द्री में गृहयुद्ध चल रहा था जिससे वहाँ के शासक ने स्वयमेव अलाउद्दीन की अधीनता स्वीकार की। साचूर के शासक ने प्रतिरोध उत्पन्न किया किन्तु उसे पराजित करते हुए अलाउद्दीन ने देवगिरि को घेर लिया। रामचंद्र अचानक राजधानी में मुस्लिम सेना देख कर चकित रह गया। अलाउद्दीन के साथ ६००० एवं ८००० के मध्य अश्व सेना थी जबकि रामचंद्र की राजधानी में मात्र ४००० सेना अवशिष्ट थी। रामचंद्र ने अलाउद्दीन का प्रतिरोध तो अवश्य किया किन्तु पराजित होकर दुर्ग में शरण लेने के लिए बाध्य हुआ। रामचंद्र की योजना थी कि जब तक शंकरदेव दक्षिण से वापस नहीं लौटता तब तक तुर्क सेना को किसी तरह से रोके रहे। किन्तु अलाउद्दीन ने दुर्ग पर इस प्रकार से आक्रमण किया कि रामचंद्र संधि के लिए बाध्य हुआ। अलाउद्दीन ने अपार स्वर्ण, रत्न, ४० हस्ति एवं कई सौ अश्व के साथ संधि को स्वीकार किया। रामचंद्र ने अलाउद्दीन के साथ अपनी पुत्री का विवाह भी किया तथा एलिचपुर जिले से प्राप्त राजस्व वार्षिक कर के रूप में देना स्वीकार किया। जैसे ही मुस्लिम सेना प्रत्यावर्तन के लिए तैयार थी शंकरदेव आ पहुँचा। शंकरदेव के आगमन के पश्चात् ही घटना के संबंध में मुस्लिम इतिहासकार मौन है। इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार पिता की आज्ञा के विरुद्ध शंकरदेव ने अलाउद्दीन से संघर्ष किया किन्तु पराजित हुआ। इसामी के अनुसार शंकरदेव ने पिता को आज्ञा मान कर कोर्ड संघर्ष नहीं किया यद्यपि उसकी सेना अलाउद्दीन से अधिक थी। अलाउद्दीन के इस अभियान से यादवो की प्रशासनिक अयोग्यता का परिचय प्राप्त होता है, क्योंकि विन्ध्य की ओर कोई भी सुरक्षात्मक व्यवस्था नहीं की गई थी। खिजली सुल्तानों का प्रभुत्व सम्पूर्ण उत्तर भारत पर स्थापित था। दक्षिण में यादव, काकतीय, होयसल एवं पांड्य उनके समक्ष नगण्य थे। संभव है कि यदि ये सम्मिलित रूप से तुर्को का सामना किये होते तो...
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भिल्लम पंचम (देवगिरि का यादव शासक) Bhillama V (Yadav ruler of Devagiri)

कल्याणी के चालुक्यों के पतन के पश्चात् दक्षिण भारत के राजनीतिक रंग-मंच पर चार प्रमुख शक्तियाँ अवतरित हई। चालुक्य साम्राज्य का अधिकांश भाग देवगिरि के यादवों को प्राप्त हुआ। १३वीं शताब्दी में दक्षिणापथ का इतिहास यादवों से प्रभावित रहा। उनके समकालीन तीन प्रमुख अन्य राजवंश पांड्य, होयसल तथा काकतीय, चोल एवं चालुक्य साम्राज्य के उत्तराधिकारी के रूप में शासन किये। इनमें यादवों ने ही सर्वाधिक विस्तृत क्षेत्र को शासित किया। यद्यपि इनका इतिहास १३वीं शताब्दी में निश्चितरूपेण ज्ञात होता है फिर भी इनकी प्राचीनता ९वीं शताब्दी के अंत तक निर्धारित की जा सकती है। १३ वीं शताब्दी के पूर्व के शासकों के नाम हेमाद्रि के व्रतखण्ड तथा कुछ समकालीन लेखों से ज्ञात होते हैं किन्तु इनमें सत्यता कहाँ तक है निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। यादवों ने अपना संबंध पौराणिक यदु से स्थपित करने का प्रयास किया है जो मूलतः मथुरा में निवास करते थे तथा बाद में काठियावाड के द्वारावती अथवा द्वारिका में आकर बस गये। इस पौराणिक आख्यान का कोई अभिलेखिक प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है। यद्यपि पौराणिक अनुश्रुति सात्वतों (यादवों) को पश्चिमी भारत से जोड़ती है तथा काठियावाड़ के खानदेश जैसे कुछ स्थानों में यादवों के होने के ऐतिहासिक भी है, इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि उनका कर्नाटक में शासन करने वाले यादवों से कोई सम्बन्ध था या नहीं। ७वीं शताब्दी में काठियावाड़ के सिंहपुर में एक यादव वंश के शासन का उल्लेख प्राप्त होता है किन्तु मथुरा से इनके आने का कोई संकेत नहीं है। यह भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि द्वारिका में सिंहपुर के यादवों के वंशज शासन किए हों। द्वारिका से देवगिरि यादवों का प्रव्रजन अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि खानदेश में एक यादव परिवार काठियावाड के वल्लभी स्थान से आया, प्रमाणित होता है। काठियावाड में कोई भी ऐसा लेख अब तक प्राप्त नहीं हुआ है जिससे नवीं शताब्दी ई. में वहाँ से महाराष्ट्र में कोई यादव परिवार आकर बसा हो। जैन अनुश्रुति के अनुसार इस वंश के संस्थापक की माँ जिस समय गर्भवती थी उसी समय द्वारिका में भयंकर दैवी आपत्ति पड़ी। एक जैन साधु ने उसकी रक्षा की तथा नये स्थान पर उसने पुत्र को जन्म दिया। किन्तु इस दन्तकथा पर पूर्णतः विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि दक्षिण के अनेक राजवंश जैसे-होयसल एवं राष्ट्रकूट भी अपने को यदुवंशीय घोषित करते हैं तथा द्वारिका को अपना मूल स्थान बतलाते हैं। संभव है कि यादवों ने भी इस प्रकार की कल्पना की हो। कर्नाटक क्षेत्र से उपलब्ध लेखों से धारवाड़ जिले में एक लघु यादव सामंत के शासन का ज्ञान 9वीं शताब्दी के अन्त में प्राप्त होता है। इसी समय नासिक में मुख्य यादव वंश का उदय हो रहा था किन्तु दोनों के मध्य सम्बन्ध नहीं था। इसलिए यादवों की कर्नाटक उत्पत्ति का भी समर्थन नहीं किया जा सकता। यादव शासक महादेव (1260-1270ई.) के मंत्री रहे हेमाद्रि ने अपने ग्रन्थ चतुवर्गचिन्तामणि के व्रतखण्ड की भूमिका में इस राजवंश के प्रारम्भिक राजाओं की वंशावली दी है। प्रारम्भ में यह राजवंश उत्तरी महाराष्ट्र में विकसित हुआ। यहीं बाद में देवगिरि नामक राजधानी की स्थापना हुई। भिल्लम पंचम – यह इस वंश का प्रथम शासक था जिसने साम्राज्यिक उपाधियाँ धारण की तथा अपनी मृत्यु के चार वर्ष पूर्व स्वाधीनता घोषित की। इसके सिंहासनारोहण के समय दक्षिणापथ की राजनीतिक स्थिति में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। कल्याणी का चालुक्य राजवंश पतनोन्मुख हो रहा था। कलचुरि सामंत विज्जल ने तैलप तृतीय को सिंहासन से च्युत कर दिया। तैलप तृतीय के सामंत-वारंगल के काकतीय, द्वारसमुद्र के होयसल सौन्दत्ति के रट्ट, कोकण के शिलाहार तथा उत्तरी महाराष्ट्र के यादवों ने विज्जल की अधीनता अस्वीकार कर दिया। ११८३ ई. के लगभग सोमेश्वर चतुर्थ ने चालुक्यों को मुक्त तो कर दिया किन्तु परिवर्तित परिस्थिति के अनुकूल शासन करने में असफल रहा। इस समय कर्ण का पुत्र भिल्लल पंचम मुख्य यादव राज्य से पृथक अन्य किसी स्थान पर अपनी शक्ति को सुदृढ कर रहा था। यहीं से इसने अनेक दुर्गों पर छापा मारते हुए सर्वप्रथम कोंकण को अधिकृत किया। हेमाद्रि के अनुसार उसने अन्तल नामक शासक से श्रीवर्धन अपहृत किया; प्रत्यंडक को पराजित किया। मंगलवेष्टक के राजा बिल्हण की हत्या की, कल्याण को अधिकृत किया और होयसल शासक को मौत के घाट उतार दिया। श्रीवर्धन कोंकण का बन्दरगाह था। अल्तेकर महोदय इसे नागपुर के समीप स्थित मानते हैं। प्रत्यंडक की पहचान संदिग्ध है। बिल्हण शोलापुर का शासक था और मंगलवेष्टक इसी जिले का छोटा-सा नगर था। इस प्रकार उत्तरी कोकण तथा मध्य महाराष्ट्र को अधिकृत कर अपने पैतृक राज्य की ओर बढ़ा। हेमाद्रि के अनुसार यादव राजलक्ष्मी ने वैध उत्तराधिकारियों का परित्याग कर योग्य एवं गुणवान भिल्लम पंचम का वरण किया। यद्यपि उसकी निश्चित तिथि ज्ञात नहीं होती किन्तु अधिक संभव है कि ११८०-८५ ई. के मध्य इसने सिन्नर के सिंहासन को सुशोभित किया होगा। विजयें- भिल्लम पंचम उत्तरी महाराष्ट्र की अपनी पैतृक भूमि से ही संतुष्ट न रहा। इसकी विजयों का क्रम निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। अधिक संभव है कि चालुक्यों की राजनीतिक अस्थिरता से दक्षिणी सीमा को सुरक्षित समझ कर इसने सर्वप्रथम मालवा एवं गुजरात की ओर आक्रमण किया हो। मालवा एवं गुजरात की राजनीतिक स्थित अस्त-व्यस्त थी। परमार एवं चालुक्य आपस में ही संघर्षरत थे। मुतुगि लेख के अनुसार यह मालवों के लिए सिरदर्द तथा गुर्जर-प्रतिहारों के लिए भयंकर मेघगर्जन था। इसी समय मालवा एवं गुजरात पर मुसलमानों का भी आक्रमण हुआ जिससे चालुक्य-भिल्लम पंचम की सेना को अवरूद्ध करने में असमर्थ रहे। भिल्लम विजय करता हुआ मारवाड़ पहुँचा क्योंकि नाडोल के चाहमान शासक केल्हण ने भिल्लम को पराजित करने का दावा किया है। मुतुगि लेख में भिल्लम पंचम को अंग, वंग, नेपाल एवं पंचाल का भी विजेता कहा गया है। यह विवरण अतिशयोक्तिपूर्ण है क्योंकि गुजरात से आगे बढ़ने का कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता। इसने राजपूताना की सीमा तक विजय तो अवश्य किया किन्तु इससे इसकी सीमा में कोई वृद्धि न हुई। सोमेश्वर चतुर्थ, बल्लाल, मालवा एवं गुजरात विजय के पश्चात् भिल्लम पंचम ने कल्याणी की ओर ध्यान दिया। कल्याणी का चालुक्य शासक सोमेश्वर चतुर्थ ११८३ ई. के लगभग कलचुरि सामंत को पराजित कर अपनी राजधानी को मुक्त तो कर लिया किन्तु यह शांतिपूर्वक इस विजय का उपभोग न कर सका। उत्तर से भिल्लम पंचम तथा...
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देवगिरि का यादव शासक सिंघण (सिंघण, सिंघन, सिंहन) द्वितीय(Singhan (Singhan, Singhan, Singhan) II, Yadava ruler of Devagiri)

                  देवगिरि का यादव शासक सिंघण (सिंघण, सिंघन, सिंहन) द्वितीय जैतुगि के पश्चात् १२१० ई. के लगभग यादव वंश का सर्वशक्तिमान शासन सिंघण देवगिरि के सिंहासन पर आसीन हुआ। लगभग १० वर्षों तक युवराज के रूप में प्रशिक्षित होने के कारण इसने यादव साम्राज्य को पुरातन चालुक्य साम्राज्य के तुल्य विस्तृत किया। युवराज के रूप में ही इसने काकतियों तथा अन्य शासकों के विरुद्ध सफल अभियान किया था। परम्परानुसार इसका जन्म पर्णाखेत की नारसिंही देवी की कृपा से हुआ था। अतः दैवी शक्ति से सम्पन्न सिंघण अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति में सदैव सफल रहा। होयसल – सिंहासनारोहण के पश्चात् १२११ ई. के लगभग सिंघण ने अपने सेनापति बीचण को होयसल साम्राज्य पर आक्रमण करने के लिए प्रेषित किया। कृष्णा एवं मलप्रभा की सीमा इसके पूर्व ही यादवों द्वारा उल्लंघित थी। १२०६ ई. के एक लेख से ज्ञात होता है कि बीजापुर जिले का अधिकांश भाग जीत कर केशवदेव को वहाँ का शासक नियुक्त किया था। गडग लेख के अनुसार १२१३ ई. तक धारवार यादवों के अधिकार क्षेत्र में आ गया था। यादव सेना ने अनंतपुर, बेलारी, चित्तलदुर्ग तथा शिमोगा जिलों को अधिकृत कर लिया। समकालीन होयसल नरेश बल्लाल द्वितीय इस अभियान को अवरुद्ध करने में असफल रहा। १२१५ ई. तक संपूर्ण वनवासी को अधिकृत कर सर्वाधिकारिन मयिदेव को शासक नियुक्त किया। ये समस्त क्षेत्र संपूर्ण १३वीं शताब्दी में यादवों द्वारा शासित रहा। किसी होयसल शासक द्वारा इसे मुक्त करने का प्रयास नहीं किया गया। होयसलों के अधीनस्थ सिंद विक्रमादित्य, गुत्तवीर विक्रमादित्य द्वितीय तथा अन्य सामंतों ने यादवों की अधीनता स्वीकार की। इन विजयों से प्रोत्साहित होकर सिंघण ने द्वारसमुद्र पर आक्रमण किया। होयसल सेनापति एलवरे संघर्ष करता हुआ मारा गया। इसी संघर्ष में कावेरी तट पर रंग नरेश जलाल्लदेव तथा विराट नरेश कक्कल्ल को भी पराजित किया। इस प्रकार तुंगभद्रा तक यादव साम्राज्य विस्तृत हो गया। शिलाहार- कोल्हापुर में शिलाहार शासक भोज द्वितीय शासन कर रहा था। 1216 ई. के लगभग सिंहण ने भोज द्वितीय को आक्रांत कर पराजित किया। भोज द्वितीय पर इसने क्यो आक्रमण किया? इस संबंध में यह ज्ञात होता है कि भोज एक स्वतंत्र शासक के रूप में व्यवहार करने लगा था। इसके पिता विजयादित्य ने कल्याणी नरेग तैलप तृतीय को कलचुरि विज्जण से सुरक्षित किया था। जब होयसल एवं यादव भंयकर रूप से संघर्षरत थे उसी समय इसने स्वाधीनता सूचक उपाधियाँ धारण की। 1187 ई. में इसने कलिविक्रम तथा १२०५ ई. में परम भट्टारक राजाधिराज एवं पश्चिमचक्रवर्ती की उपाधियाँ ग्रहण की। यहाँ तक कि भोज ने यादवों पर आक्रमण भी कर दिया। इसको सदैव के लिए समाप्त करने के लिए सिंघण ने कोल्हापूर पर आक्रमण कर दिया। भोज ने परनाल अथवा पनहाला के दुर्ग में शरण ली। अंततः वहाँ भी भोज पराजित हुआ। इस संघर्ष के पश्चात् भोज द्वितीय का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता तथा १२१८ई. से अनेक यादव लेख इस क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं। सिंघण के एक अधिकारी तैलप ने कोल्हापुर के अम्बाबाई मंदिर के प्रवेश द्वार का जीर्णोद्धार कराया। इससे यह निश्चितरूपेण ज्ञात होता है कि कोल्हापुर यादवों के प्रत्यक्ष शासन में आ गया। मालवा एवं गुजरात – चालुक्य एवं परमार शासक इस समय मुस्लिम अभियान से संत्रस्त थे। चालुक्य भीम तथा परमार अर्जुन वर्मा आपस में ही संघर्ष कर रहे थे। लाट का सामंत सिंह अर्जुनवर्मा की अधीनता स्वीकार कर रहा था। अर्जुनवर्मा का विवाह होयसल राजकुमारी सर्वकला के साथ हुआ था जो संभवतः बल्लाल द्वितीय की पुत्री अथवा पौत्री थी। यह भी संभव है कि अर्जुन वर्मा ने यादवांे के विरुद्ध होयसलों की सहायता की हो। फलतः १२१५ ई. के पश्चात् सिंघण ने अर्जुन वर्मा को आक्रांत किया। हेमाद्रि के अनुसार अर्जुनवर्मा इस संघर्ष में पराजित हुआ एवं मारा गया। १२१६ या १७ ई. के पश्चात् अर्जुनवर्मा का कोई उल्लेख न प्राप्त होने के कारण हेमाद्रि का विवरण सत्य प्रतीत होता है। परमारों के पतन के पश्चात् लाट का शासक सिंह असहाय होकर चैलुक्य नरेश भीम की शरण में गया। हम्मीरमदमर्दन में इस संघ का उल्लेख तो अवश्य है किन्तु इसकी परवर्ती घटनाओं का कोई संकेत नहीं है। कीर्तिकौमुदी के अनुसार चैलुक्य मंत्री लवणप्रसाद ने सिंघण को लौटने के लिए बाध्य किया। यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि कीर्तिकौमुदी का यह विवरण सिंघण के किस अभियान की ओर संकेत करता है। संभव है कि लाट एवं गुजरात के संघ के फलस्वरूप सिंघण मालवा विजय से ही वापस लौट आया हो। गुजरात एवं लाट के शासकों ने इस समय अपनी विजय का दावा किया है किन्तु इसके विपरीत १२१८ई. के लगभग सिंघण ने मालवा एवं गुजरात विजय की घोषणा की हो। १२२० ई. के लगभग सिंघण ने अपने सामन्त खोलेश्वर को द्वितीय बार मालवा एवं गुजरात की ओर भेजा। लाट में अभी भी चाहमान शासक सिंह शासन कर रहा था। गुजरात का चालुक्य सिंहासन जयन्तसिंह द्वारा अपहृत कर लिया गया था। भीम तथा उसके मंत्री लवण प्रसाद उसके निष्कासन में ही व्यस्त थे जिससे सिंह की कोई सहायता न कर सके। इस युद्ध में सिंह तथा उसके भाई सिंधुराज मारे गये। सिंधुराज का पुत्र संग्राम सिंह बंदी बनाया गया तथा लाट पर यादवों का अधिकार स्थापित हो गया। अम्बे अभिलेख में भडौच में खोलेश्वर द्वारा विजय स्तंभ स्थापित करने का उल्लेख है। सिंघण ने संग्रामसिंह को मुक्त कर अधीनस्थ शासक के रूप में नियुक्त किया। संग्राम सिंह ने सिंघण को नवारूढ मालवा नरेश देवपाल को आक्रांत करने के लिए प्रोत्साहित किया। खोलेश्वर के साथ ही साथ सिंह ने भी यादव सेना का साथ दिया। इस अभियान से गुजरात की स्थिति अस्त-व्यस्त हो गई। कीर्तिकौमुदी तथा हम्मीरमदमर्दन में मालवा एवं गुजरात के इस अभियान का विवरण देते हुए यह बतलाया गया है कि लवण प्रसाद ने एक गुप्तचर द्वारा देवपाल नामंाकित परमार सेना का एक अश्व चुरवाया तथा दो गुप्तचर द्वारा उसे संग्रामसिंह को भेट स्वरूप प्रदान किया। इसी समय सिंघण के पास एक जाली पत्र भेजा गया कि संग्रामसिंह तथा देवपाल आपस में मिले हए हैं तथा सिंघण का वध करने का षड्यंत्र कर रहे हैं। प्रमाणस्वरूप देवपाल नामांकित संग्रामसिंह को दिया गया अश्व प्रस्तुत किया गया जिससे सिंघण इस पत्र पर विश्वास करने लगा। कीर्तिकौमुदी के अनुसार यद्यपि लवणप्रसाद उत्तरी शत्रुओं से आवृत्त था फिर भी सिंघण गुजरात पर आक्रमण करने का साहस...
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