December 2021

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प्राचीन सभ्यता जानने के साधन(Means of knowing ancient civilization)

इतिहास विषय महत्व का विषय तो रहा, लेकिन इतिहास लेखन का कोई स्कूल या सिद्धान्त नहीं रहा। इतिहास धर्मशास्त्रों, अर्थशास्त्रों, लौकिक साहित्य में स्वयं ही संग्र्रहीत होता रहा। लेकिन वह क्रमबद्ध नहीं था और इसमें प्रायः तिथियों का अभाव मिलता है। एल्फिन्स्टन ने स्पष्ट शब्दों में कहा है- ‘‘सिकन्दर के आक्रमण से पूर्व किसी भी महत्वपूर्ण तिथि को निर्धारित करना कठिन है।’’ प्राचीन सभ्यता जानने के साधन के किसी भी विषय का अध्ययन निश्चित सिद्धान्तों एवं फार्मूलों के आधार पर किया जाता है, जिसमें उक्त दो गुणों का अभाव होता है, अथवा स्पष्ट नहीं होते ऐसे विषय थोड़े समय तक जीवित रहते हैं। इसके उपरान्त उनका पतन हो जाता है। उदाहरणार्थ प्राचीन सभ्यता में मानव चिकित्सा शास्त्र तथा विज्ञान आदि विषयों के सम्बन्ध में जानते थे, उनकी शिक्षा प्राप्त करते थे तथा जीवन में उसका प्रयोग करते थे, परन्तु फिर भी उनका चिकित्साशास्त्र तथा विज्ञान इतना पूर्ण विकसित न था, जितना आजकल का है। इस प्रकार की भावना का केवल एक ही कारण था, निश्चित सिद्धान्तों एवं फार्मूनों का अभाव। रोमवासियों ने पुलों का निर्माण किया, मिस्र के शासकों ने पिरामिडों का निर्माण किया, परन्तु उनके कौशल का आधार क्या था यह अभी तक नहीं ज्ञात हो पाया। निश्चय ही रोमन समाज से सम्बन्धित विभिन्न अवशेष लिखित एवं अलिखित सामग्री आधुनिक विद्वानों को प्राप्त हुई जिसका अध्ययन करने के पश्चात् इस सभ्यताओं का स्पष्ट विवरण हमारे सम्मुख उभरता है, परन्तु इन अवशेषों से उक्त वर्णित कलाओं के सम्बन्ध में अभी तक किसी प्रकार का कोई भी सूत्र नहीं मिला है। इससे यही अनुमान लगाया जा सकता है कि मूर्तियों अथवा पिरामिडों का निर्माण यद्यपि निश्चित सिद्धान्तों एवं फार्मूलों पर किया गया था, परन्तु वे अलिखित थे, उनका ज्ञान कुछ लोगों तक ही सीमित था, तथा उनके बाद ही यह ज्ञान समाप्त हो गया, अन्यथा निश्चित रूप से आधुनिक मानव को उन सिद्धान्तों का ज्ञान होता, उनका वह अपने व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करता। आधुनिक सभ्यता इसी कारण पूर्ण मानी जाती है, क्योंकि इस सभ्यता में प्रत्येक कार्य निश्चित सिद्धान्तों एवं आदर्शों पर किया जाता है ताकि वे न केवल उनको ही लाभान्वित कर सके बल्कि भावी मानव को भी प्रभावित कर सकें, एवं विकास का आधार बन सकें, तथा आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन करके संशोधन कर सकें। उदाहरणस्वरूप अमेरिका का लिखित संविधान कालान्तर में स्वाधीन राष्ट्रों के संविधान का आधार बना तथा विभिन्न राष्ट्रों ने इसमें आवश्यक परिवर्तन कर अपनी परिस्थितियों के अनुरूप संविधान बनायें। इतिहास का अध्ययन भी निश्चित सिद्धान्तों, आदर्शों तथा फार्मूलों के आधार पर किया जाता है। इतिहास वह कोण है, जिसमें से कोई भी व्यक्ति अपने पूर्वजों के बारे में जान सकता है। इतिहास ही एक मात्र ऐसा विषय है, जो मानव को उसके विभिन्न पक्षों का ज्ञान कराता है। विश्व में कोई भी विषय ऐसा नहीं है जिसमें इतिहास की पृष्ठभूमि न हो, मानव का एक का अलग इतिहास है, विज्ञान का एक इतिहास है, कला का अपना इतिहास है, धर्म का अलग इतिहास है, जिसमें संसार के समस्त पदार्थ सम्मिलित है तथा इस पदार्थ को नष्ट करना मानव की हत्या करने के समान होगा। यह केवल इतिहास का कोश है, जिसने महान दार्शनिक सुकरात, प्लेटो, अरस्तु, कन्फूशियस, सिसरो, आर्यभट्ट, कालिदास, होमर, बर्जिल की कृतियों को सुरक्षित रखा, जिसने मानव को वेद, पुराण, रामायण, बाइबिल, कुरान आदि धार्मिक पुस्तकों को दिया। यह केवल इतिहास में सम्भव है कि मानव सब कुछ देख सकता है तथा अतीत का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। जिस तरह हिटलर और मुसोलिनी कहा करते थे कि “राज्य के अन्दर सब कुछ है, राज्य के बाहर कुछ नहीं।’’ इसी को यदि हम इस प्रकार कहें कि ‘‘इतिहास के अन्दर सब कुछ है, इतिहास के बाहर कुछ भी नहीं’’, तो अतिशयोक्ति न होगी। इसी कारण हम देखते हैं कि आधुनिक विश्व की समस्त सरकारें अपने बालकों को इतिहास की शिक्षा अनिवार्य रूप से दिलवाती हैं, ताकि उनके भावी नागरिक अपने देश के साथ-साथ विश्व इतिहास का ज्ञान प्राप्त कर सकें उससे लाभान्वित होकर अपने देश एवं विश्व को लाभान्वित कर सकें। इतिहासकारों को इतिहास की रचना करते समय विभिन्न बातों को ध्यान में रखना पड़ता है, जैसे जहाँ तक सम्भव हो तथ्यों के आधार पर इतिहास की रचना करना, ‘अनुमान’, ‘विश्वास’, ‘प्रतीत’ आदि शब्दों को अपनी रचना में स्थान न देना। पुनः निष्पक्ष होकर इतिहास की रचना करना। इसी कारण हम देखते हैं कि आधुनिक विद्वान यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस के इतिहास को, चीन के आरम्भिक समय में इतिहास पर लिखी गयी पुस्तकों को एवं भारतीय सभ्यता में रामायण एवं महाभारत युग के समय की रचनाओं को इतिहास की श्रेणी में नहीं रखते, क्योंकि उनमें अतिशयोक्ति है, वे एकपक्षीय हैं तथा वास्तविक रूप में इतिहास न होकर कहानी अधिक प्रतीत होते हैं, इसके विपरीत आधुनिक इतिहासकार अपनी सीमाओं से सभ्यता का इतिहास, परिचित है, उनका उल्लंघन करना एक प्रकार पाप समझते हैं। उक्त वर्णित सिद्धान्तों के आधार पर ही हमने इस पुस्तक की रचना करने का लघु प्रयास किया है। परन्तु यहाँ यह कहना असम्भव न होगा कि ‘अनुमान’,  ‘विश्वास’, ‘प्रतीत’, ‘आभास’ आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है, क्योंकि प्राचीन सभ्यता के इतिहास को जानने से सम्बन्धित जितने भी स्रोत हंै उसमें अधिकांश अलिखित हैं और जो लिखित भी हैं, उनमें से बहुत सी सभ्यता की भाषाओं को अभी तक  पढ़ा नहीं जा सका है। जैसे सिन्धु घाटी और क्रीट को लिपियाँ। इसी प्रकार जो लिखित अवशेष हैं वे अतिशयोक्ति से परिपूर्ण हैं उनमें सारांश निकालने के लिए अनुमान आदि शब्दों का आश्रय परमावश्यक है। पुनः प्राचीन सभ्यता का चित्रण करने के लिए इतिहासकार जिन स्रोतों का आश्रय लेते हैं उनका वर्णन करने से पूर्व यहाँ यह कहना आवश्यक है कि भूगर्भशास्त्री का सहयोग प्राप्त करना इतिहासकार के लिए उतना ही आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है, जितना कि वैज्ञानिकों के लिए फार्मूलों का ज्ञान होना, अथवा वकीलों को संविधान तथा प्रचलित विधियों का ज्ञान होना। प्राचीन मानव के इतिहास की रचना करने के लिए निःसन्देह ‘अनुमान’ आदि शब्दों का यद्यपि प्रयोग किया गया है, तथापि कुछ स्रोत हैं जो प्राचीन इतिहास की रचना करने में अधिक सहायता करते है। इन स्रोतों को दो भागों में विभक्त किया जाता है। प्रथम लिखित अवशेष, द्वितीय अलिखित अवशेष। लिखित अवशेष में वे पुस्तकें जाती है,...
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