कुलोत्तुग प्रथम के सिहासनारोहण से चोल राजवंश में एक नवयुग का शुभारंभ हुआ। शताब्दियों से जो वेंगी मण्डल स्पष्ट रूप से चोलों के अधीन था अब अपने ही शासक द्वारा शासित चोल साम्राज्य का अभिन्न अंग बन गया। वेंगी में कुलोत्तुंग के ही पुत्र एवं पौत्रों ने शासन किया। कुलोत्तुंग ने साम्राज्यवादी नीति का परित्याग कर आंतरिक शांति एवं सुव्यवस्था पर अधिक ध्यान दिया। इसने चोल साम्राज्य को उस नीति पर आधारित किया जिसमें जनता ने सुखद वातावरण में निवास किया। प्रारंभिक युद्ध- सिंहासनारोहण के पूर्व ही इसने चित्रकूट के नागवंशी शासक एवं कुन्तल नरेश को पराजित कर विरुदराजभयंकर की उपाधि धारण की थी। वीर राजेन्द्र की मृत्यु के पश्चात् अधिराजेन्द्र की हत्या के कारण चोल साम्राज्य में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। कलिंगत्तुपरणि के अनुसार वैदिक क्रियाओं का ह्रास, जातियों का सम्मिश्रण, देवालयों पर अत्याचार, महिलाओं के स्त्रीत्व का विनाश तथा चतुर्दिक कलि का प्रभाव व्याप्त हो रहा था। इसी अंतराल में वैदिक मंत्रों का उच्चारण करते हुए तीन लोक के रक्षक अभय (कुलोत्तुंग प्रथम) का उदय हुआ। इससे यह प्रतिध्वनित होता है कि कुलोत्तुंग प्रथम के सिंहासनारोहण के पूर्व कोई क्रांति अवश्य हुई थी। इसीलिए इसके सिहासनारोहण का किसी ने विरोध नहीं किया। अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए कुलोत्तुंग ने सर्वप्रथम व्याप्त अराजकता से प्रजा को मुक्त किया। फलतः चोल राजगद्दी पर कुलोतुंग के आसीन होने से वेंगी और गंगैकोण्डचोलपुरम् की दो राजधानियों से शासित होने वाली पूर्वी चालुक्य और चोलों के दोनों राज्य एकीकृत सत्ता के भीतर आ गये। चालुक्यों से युद्ध (विक्रमादित्य षष्ठ)- वेंगी मण्डल चोलों के प्रत्यक्ष शासन में आने के कारण विक्रमादित्य षष्ठ प्रबलतम शत्रु के रूप में सामने आया। इसने कुलोत्तुंग प्रथम के सिंहासनारोहण का विरोध किया तथा इसके विरुद्ध अभियान भी किया। विक्रमांकदेवचरित के अनुसार अधिराजेन्द्र की हत्या के पश्चात् राजिंग (कुलोत्तुंग प्रथम) चोल सिंहासन पर आसीन हुआ। कुलोत्तुंग प्रथम ने सोमेश्वर द्वितीय के साथ संघ का निर्माण किया। एक ही साथ दोनों ने विक्रमादित्य षष्ठ को आक्रांत किया किन्तु असफल रहे। इस संघर्ष में कदम्ब, होयसल, यादव तथा पांड्यों ने विक्रमादित्य का समर्थन किया। बिल्हण के अनुसार भयंकर युद्ध के पश्चात् द्रविड़ नरेश पराजित हुए तथा सोमेश्वर द्वितीयबंदी बनाया गया। चोल लेखों में इस युद्ध का दूसरा ही रूप मिलता है। इसके अनुसार, ‘प्रारम्भ में चालुक्य शासक चोल राज्य की ओर बढ़ता हुआ कोलार जिले तक पहुँच गया। यहाँ चोलों से उसकी भिड़न्त हुई। चोल सेना ने विक्रमादित्य षष्ठ को तुंगभद्रा नदी तक खदेड़ दिया। दोनों में पुनः भीषण युद्ध हुआ। कुलोतुंग प्रथम का गंगमण्डलम् एवं शिंगणम् पर अधिकार हो गया तथा लूट में बहुत-सी सम्पत्ति एवं हाथी मिले।’ इस प्रकार जहाँ बिल्हण कुलोतुंग प्रथम की पराजय का उल्लेख करता है, वहीं चोल लेखों में इसे सफलता का श्रेय दिया गया है। चोल लेखों के अनुसार कुलोत्तुंग के अनुसार कुलोत्तुंग प्रथम ने नंगिलि से लेकर तुंगभद्रा तक की भूमि को शव से आवृत कर दिया। गंगमण्डलम एवं शिंगणम को अधिकृत कर विक्कलान (विक्रमादित्य षष्ठ) को प्रत्यावर्तन के लिए बाध्य किया। आभिलेखिक साक्ष्यों से यह विदित होता है कि विक्रमादित्य षष्ठ ने ही अभियान प्रारंभ किया तथा मैसूर के कोलार जिले में चोलों से संघर्ष हुआ। चोल सेना ने तुंगभद्रा तक चालुक्यों का पीछा किया। विक्रमाशीलनाउला के अनुसार कुलोत्तुंग ने पश्चिमी तट पर कोंकण एवं कन्नड़ देशों को भी अधिकृत किया। इसी समय विक्रमादित्य षष्ठ के अनुज जयसिंह ने विक्रमादित्य के विरुद्ध शत्रुओं का समर्थन किया तथा विद्रोह प्रारंभ किया। कुलोत्तुंग प्रथम का इस विद्रोह में क्या योगदान था? निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। वेंगी पर कलचुरियों का आक्रमण वेंगी- जिस समय कुलोत्तुंग दक्षिण के अभियान में व्यस्त था उसी समय वेंगी पर त्रिपुरी के कलचुरि नरेश यशः कर्णदेव ने आक्रमण किया किन्तु कुलोत्तुंग उसके अभियान को विफल कर दिया। वी.वी. मिराशी के अनुसार इसमें यशः कर्णदेव को रत्नपुर के जाजल्लदेव से भी सहायता मिली थी, क्योंकि उसने रत्नपुर के लेख में चेदि शासक के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध का उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि वेंगी पर कलचुरियों का प्रभाव स्थापित न हो सका और कुलोतुंग ने इसे विफल कर दिया। सिंहल का स्वतन्त्र होना- कुलोतुंग के चोल राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित होने के समय तक श्रीलंका में चोल प्रभुत्व समाप्त हो गया था। श्रीलंका के राजकुमार कित्ति ने रोहण क्षेत्र को चोलों के आधिपत्य से मुक्त कर दिया। 1070 ई. के लगभग विजयबाहु ने पोलोन्नरूवा पर अधिकार कर लिया और 1073 ई. में उसने सिंहल के स्वतन्त्र शासक के रूप में अपना अभिषेक कराया। महावंश के अनुसार विजयबाहु ने अपने शासन के 15वें वर्ष में अनुराधापुर में प्रवेश किया अर्थात इसे अपने अधीन कर लिया। विजयबाहु के दूतों का चोलों द्वारा अपना और इसके प्रतिशोध में कुलोतुंग के दूतों के साथ श्रीलंका के शासक के दुर्व्यवहार के परिणाम स्वरूप बाद में दोनों राजाओं के बीच हुए युद्ध आदि से सम्बन्धित महावंश का विवरण अतिशयोक्ति पूर्ण है। 1088 ई. में कुलोतुंग ने अपनी पुत्री सुत्तमल्लियार का विवाह सिंहल के राजकुमार वीरप्पेरुमाल के साथ कर दिया। इस प्रकार दोनों के मध्य शत्रुता समाप्त हो गयी। पाण्डयों से युद्ध- सिंहल की स्वाधीनता से प्रोत्साहित होकर पाडयों ने भी विद्रोह करना प्रारंभ किया। इन्हें नियंत्रित करने के लिए कुलोत्तुंग ने पूरी शक्ति लगा दी। कुलोतुंगशोलन तथा पिड्डयैतमिड् जैसे ग्रन्थों से इन उपद्रवों से सम्बद्ध अनेक युद्धों के विवरण प्राप्त होते हैं। पाँचवें वर्ष के एक लेख में एक पांडय शासक के सिरत्छेदन का उल्लेख प्राप्त होता है। 11वें वर्ष के लेखों से इन घटनाओं का वास्तविक विवरण उपलब्ध होने लगता है। चिदम्बरम के एक तिथिहीन संस्कृत लेख से ज्ञात होता है कि कुलोत्तुंग ने पंचपांडयों को पराजित कर कोहारू के दुर्ग को भस्मीभूत किया। तमिल लेखों के अनुसार वन में छिपे हुए पंचपांडयों को पराजित कर उनसे सह्याद्रि तक के भूभाग को छीन लिया। विक्रमशीलनउला के अनुसार कुलोत्तुंग ने दो बार पांडयों तथा केरलों को पराजित किया। कलिंगत्तुपरणि से यह ज्ञात होता है कि पांडयों एवं चेरों को पराजित कर विलिनम तथा शोले को अधिकृत किया। कुलोत्तुंग ने पांडय क्षेत्र से इसके लेख भी अत्यल्प प्राप्त हुए हैं। इस विजय के लगभग 15 वर्षों पश्चात् दक्षिण में एक क्रांति हुई जिसे सेनापति नरलोकबीर ने नियंत्रित किया। सिंहल से पुनःयुद्ध- सिंहल में चोलों की पराजय के प्रतिशोध के लिए कुलोत्तुंग ने...
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