May 2021

Year : 2025

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चोल शासक कुलोत्तुंग प्रथम(Chola ruler Kulottung I)

कुलोत्तुग प्रथम के सिहासनारोहण से चोल राजवंश में एक नवयुग का शुभारंभ हुआ। शताब्दियों से जो वेंगी मण्डल स्पष्ट रूप से चोलों के अधीन था अब अपने ही शासक द्वारा शासित चोल साम्राज्य का अभिन्न अंग बन गया। वेंगी में कुलोत्तुंग के ही पुत्र एवं पौत्रों ने शासन किया। कुलोत्तुंग ने साम्राज्यवादी नीति का परित्याग कर आंतरिक शांति एवं सुव्यवस्था पर अधिक ध्यान दिया। इसने चोल साम्राज्य को उस नीति पर आधारित किया जिसमें जनता ने सुखद वातावरण में निवास किया। प्रारंभिक युद्ध- सिंहासनारोहण के पूर्व ही इसने चित्रकूट के नागवंशी शासक एवं कुन्तल नरेश को पराजित कर विरुदराजभयंकर की उपाधि धारण की थी। वीर राजेन्द्र की मृत्यु के पश्चात् अधिराजेन्द्र की हत्या के कारण चोल साम्राज्य में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। कलिंगत्तुपरणि के अनुसार वैदिक क्रियाओं का ह्रास, जातियों का सम्मिश्रण, देवालयों पर अत्याचार, महिलाओं के स्त्रीत्व का विनाश तथा चतुर्दिक कलि का प्रभाव व्याप्त हो रहा था। इसी अंतराल में वैदिक मंत्रों का उच्चारण करते हुए तीन लोक के रक्षक अभय (कुलोत्तुंग प्रथम) का उदय हुआ। इससे यह प्रतिध्वनित होता है कि कुलोत्तुंग प्रथम के सिंहासनारोहण के पूर्व कोई क्रांति अवश्य हुई थी। इसीलिए इसके सिहासनारोहण का किसी ने विरोध नहीं किया। अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए कुलोत्तुंग ने सर्वप्रथम व्याप्त अराजकता से प्रजा को मुक्त किया। फलतः चोल राजगद्दी पर कुलोतुंग के आसीन होने से वेंगी और गंगैकोण्डचोलपुरम् की दो राजधानियों से शासित होने वाली पूर्वी चालुक्य और चोलों के दोनों राज्य एकीकृत सत्ता के भीतर आ गये। चालुक्यों से युद्ध (विक्रमादित्य षष्ठ)- वेंगी मण्डल चोलों के प्रत्यक्ष शासन में आने के कारण विक्रमादित्य षष्ठ प्रबलतम शत्रु के रूप में सामने आया। इसने कुलोत्तुंग प्रथम के सिंहासनारोहण का विरोध किया तथा इसके विरुद्ध अभियान भी किया। विक्रमांकदेवचरित के अनुसार अधिराजेन्द्र की हत्या के पश्चात् राजिंग (कुलोत्तुंग प्रथम) चोल सिंहासन पर आसीन हुआ। कुलोत्तुंग प्रथम ने सोमेश्वर द्वितीय के साथ संघ का निर्माण किया। एक ही साथ दोनों ने विक्रमादित्य षष्ठ को आक्रांत किया किन्तु असफल रहे। इस संघर्ष में कदम्ब, होयसल, यादव तथा पांड्यों ने विक्रमादित्य का समर्थन किया। बिल्हण के अनुसार भयंकर युद्ध के पश्चात् द्रविड़ नरेश पराजित हुए तथा सोमेश्वर द्वितीयबंदी बनाया गया। चोल लेखों में इस युद्ध का दूसरा ही रूप मिलता है। इसके अनुसार, ‘प्रारम्भ में चालुक्य शासक चोल राज्य की ओर बढ़ता हुआ कोलार जिले तक पहुँच गया। यहाँ चोलों से उसकी भिड़न्त हुई। चोल सेना ने विक्रमादित्य षष्ठ को तुंगभद्रा नदी तक खदेड़ दिया। दोनों में पुनः भीषण युद्ध हुआ। कुलोतुंग प्रथम का गंगमण्डलम् एवं शिंगणम् पर अधिकार हो गया तथा लूट में बहुत-सी सम्पत्ति एवं हाथी मिले।’ इस प्रकार जहाँ बिल्हण कुलोतुंग प्रथम की पराजय का उल्लेख करता है, वहीं चोल लेखों में इसे सफलता का श्रेय दिया गया है। चोल लेखों के अनुसार कुलोत्तुंग के अनुसार कुलोत्तुंग प्रथम ने नंगिलि से लेकर तुंगभद्रा तक की भूमि को शव से आवृत कर दिया। गंगमण्डलम एवं शिंगणम को अधिकृत कर विक्कलान (विक्रमादित्य षष्ठ) को प्रत्यावर्तन के लिए बाध्य किया। आभिलेखिक साक्ष्यों से यह विदित होता है कि विक्रमादित्य षष्ठ ने ही अभियान प्रारंभ किया तथा मैसूर के कोलार जिले में चोलों से संघर्ष हुआ। चोल सेना ने तुंगभद्रा तक चालुक्यों का पीछा किया। विक्रमाशीलनाउला के अनुसार कुलोत्तुंग ने पश्चिमी तट पर कोंकण एवं कन्नड़ देशों को भी अधिकृत किया। इसी समय विक्रमादित्य षष्ठ के अनुज जयसिंह ने विक्रमादित्य के विरुद्ध शत्रुओं का समर्थन किया तथा विद्रोह प्रारंभ किया। कुलोत्तुंग प्रथम का इस विद्रोह में क्या योगदान था? निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। वेंगी पर कलचुरियों का आक्रमण वेंगी- जिस समय कुलोत्तुंग दक्षिण के अभियान में व्यस्त था उसी समय वेंगी पर त्रिपुरी के कलचुरि नरेश यशः कर्णदेव ने आक्रमण किया किन्तु कुलोत्तुंग उसके अभियान को विफल कर दिया। वी.वी. मिराशी के अनुसार इसमें यशः कर्णदेव को रत्नपुर के जाजल्लदेव से भी सहायता मिली थी, क्योंकि उसने रत्नपुर के लेख में चेदि शासक के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध का उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि वेंगी पर कलचुरियों का प्रभाव स्थापित न हो सका और कुलोतुंग ने इसे विफल कर दिया। सिंहल का स्वतन्त्र होना- कुलोतुंग के चोल राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित होने के समय तक श्रीलंका में चोल प्रभुत्व समाप्त हो गया था। श्रीलंका के राजकुमार कित्ति ने रोहण क्षेत्र को चोलों के आधिपत्य से मुक्त कर दिया। 1070 ई. के लगभग विजयबाहु ने पोलोन्नरूवा पर अधिकार कर लिया और 1073 ई. में उसने सिंहल के स्वतन्त्र शासक के रूप में अपना अभिषेक कराया। महावंश के अनुसार विजयबाहु ने अपने शासन के 15वें वर्ष में अनुराधापुर में प्रवेश किया अर्थात इसे अपने अधीन कर लिया। विजयबाहु के दूतों का चोलों द्वारा अपना और इसके प्रतिशोध में कुलोतुंग के दूतों के साथ श्रीलंका के शासक के दुर्व्यवहार के परिणाम स्वरूप बाद में दोनों राजाओं के बीच हुए युद्ध आदि से सम्बन्धित महावंश का विवरण अतिशयोक्ति पूर्ण है। 1088 ई. में कुलोतुंग ने अपनी पुत्री सुत्तमल्लियार का विवाह सिंहल के राजकुमार वीरप्पेरुमाल के साथ कर दिया। इस प्रकार दोनों के मध्य शत्रुता समाप्त हो गयी। पाण्डयों से युद्ध- सिंहल की स्वाधीनता से प्रोत्साहित होकर पाडयों ने भी विद्रोह करना प्रारंभ किया। इन्हें नियंत्रित करने के लिए कुलोत्तुंग ने पूरी शक्ति लगा दी। कुलोतुंगशोलन तथा पिड्डयैतमिड् जैसे ग्रन्थों से इन उपद्रवों से सम्बद्ध अनेक युद्धों के विवरण प्राप्त होते हैं। पाँचवें वर्ष के एक लेख में एक पांडय शासक के सिरत्छेदन का उल्लेख प्राप्त होता है। 11वें वर्ष के लेखों से इन घटनाओं का वास्तविक विवरण उपलब्ध होने लगता है। चिदम्बरम के एक तिथिहीन संस्कृत लेख से ज्ञात होता है कि कुलोत्तुंग ने पंचपांडयों को पराजित कर कोहारू के दुर्ग को भस्मीभूत किया। तमिल लेखों के अनुसार वन में छिपे हुए पंचपांडयों को पराजित कर उनसे सह्याद्रि तक के भूभाग को छीन लिया। विक्रमशीलनउला के अनुसार कुलोत्तुंग ने दो बार पांडयों तथा केरलों को पराजित किया। कलिंगत्तुपरणि से यह ज्ञात होता है कि पांडयों एवं चेरों को पराजित कर विलिनम तथा शोले को अधिकृत किया। कुलोत्तुंग ने पांडय क्षेत्र से इसके लेख भी अत्यल्प प्राप्त हुए हैं। इस विजय के लगभग 15 वर्षों पश्चात् दक्षिण में एक क्रांति हुई जिसे सेनापति नरलोकबीर ने नियंत्रित किया। सिंहल से पुनःयुद्ध- सिंहल में चोलों की पराजय के प्रतिशोध के लिए कुलोत्तुंग ने...
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चोल शासक राजेन्द्र प्रथम-परकेशरीवर्मन (1014 ई.-1044 ई.): गंगैकोण्ड(Chola ruler Rajendra Pratham-Parakeshivarman (1014 AD-1044 AD): Gangaikond)

राजराज के पश्चात् उसका पुत्र राजेन्द्र प्रथम 1012 ई. में चोल सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। लगभग तीन वर्षों तक पिता-पुत्र ने साथ-साथ शासन संभाला क्योंकि राजेन्द्र के तीसरे शासन वर्ष में राजराज द्वारा दिये गये एक दान का उल्लेख प्राप्त होता है। दीर्घ काल तक युवराज के रूप में प्रशिक्षित होने के कारण राजेन्द्र प्रशासनिक क्षेत्र में पूर्णतः दक्ष था। उत्तराधिकार में आधुनिक मद्रास तथा आंध्र एवं मैसूर के कुछ क्षेत्र प्राप्त हुए थे। उत्तरी सिंहल भी चोल साम्राज्य का एक अंग था। अपने 33 वर्षीय शासन काल में राजेन्द्र ने चोल साम्राज्य को न मात्र दक्षिण भारत वरन् दक्षिण-पूर्व एशिया के अधिकांश द्वीपों को अधिकृत कर समकालीन इतिहास के विशालतम  साम्राज्य के रूप में परिवर्तित कर दिया। शासन के प्रारंभिक वर्षों में ही लगभग 1018 ई. में इसने अपने पुत्र राजाधिराज को युवराज घोषित किया। यद्यपि राजाधिराज उसका ज्येष्ठ पुत्र नहीं था। तथापि वह उसके तीन पुत्रों में सर्वाधिक योग्य था। हुल्टज का मत है कि ‘राजाधिराज अपने पूर्ववर्ती (राजेन्द्र चोल) का सहसंरक्षक रहा प्रतीत होता है और ऐसा नहीं लगता कि उसके (सह-संरक्षक) के रहते वह राजकीय कार्यों का स्वतन्त्र नियन्त्रक रहा हो।’ अनेक राजकुमारों को विभिन्न क्षेत्रों के शासक के रूप में नियुक्त कर प्रशासन को सुदृढ किया। प्रारंभिक विजयें-  तिरुमन्निवलर से ज्ञात होता है कि शासन के तीसरे वर्ष तक राजेन्द्र ने इडितुरैनाडु, वनात्तृवनवासी, कोल्लिपाक्कै तथा मण्णैक्डक्कम को अधिकृत किया। इडितुरैनाडु की समता कृष्णा एवं तुंगभद्रा के मध्य इडेडोर नामक स्थान से की गयी है। कोल्लिपाक्कै हैदराबाद से 45 मील उत्तर-पूर्व कुल्पक नामक स्थान है। मण्णैक्कडक्कम को मान्यखेत से एकीकृत किया गया है। राजेन्द्र का यह अभियान उसके युवराज काल में अथवा सिंहासनरोहण से पश्चात् सम्पन्न हुआ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। चालुक्यों की राजधानी मान्यखेत से कल्याणी में परिवर्तित हो चुकी थी। संभव है कि राजेन्द्र ने सत्याश्रय के उत्तराधिकारी विक्रमादित्य पंचम को आक्रांत कर मान्यखेत में उसे पराजित किया हो। लेख के अनुसार इसी अभियान के संदर्भ में इसने वनवासी को अधिकृत किया था। वास्तविकता यह प्रतीत होती है कि किसी अन्य अभियानों में वनवासी के कदम्बों को पराजित किया हो जो कल्याणी के चालुक्यों की अधीनता स्वीकार कर रहे थे। सिंहल विजय- इसके शासन काल के पंचम वर्ष के लेखों से इसके सिंहल अभियान की सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। महावंश के अनुसार सिंहल नरेश महेन्द्र पंचम के 36वें शासन वर्ष तक चोलों ने सिंहल को अधिकृत कर लिया था। गीगर ने इसका काल 1016 ई. निर्धारित किया है। इस विजय के फलस्वरूप राजेन्द्र ने सिंहल तथा सिंहल में सुरक्षित पांडय राजमुकुट को अपहृत कर लिया। सम्पूर्ण ईडमण्डलम् पर चोलों का अधिकार स्थापित हो गया। पोलोन्नरूव तथा कोलम्बो संग्रहालय से राजेन्द्र के अनेक लेख प्राप्त हुए हैं। सीलोन (सिंहल) की अपनी विजय के फलस्वरूप उस सम्पूर्ण द्वीप पर राजेन्द्र प्रथम का अधिकार हो गया और अपने पिता के अधूरे कार्य को पूरा किया। उसने वहाँ अनेक अभिलेख उत्कीर्ण करवाये। वहाँ अनेक शैव और वैष्णव मन्दिर बनवाये गये। महेन्द्र पंचम की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र कस्सप दक्षिणी सिंहल को मुक्त करने में सफल हुआ तथा विक्रमबाहु प्रथम के नाम से शासन किया। केरल युद्ध- 1018 ई. के लेखों के अनुसार राजेन्द्र ने केरल नरेश के राजमुकुट एवं बहुमूल्य धनराशि का अपहरण किया। तिरूवालंगाडु पत्रों से एक दिग्विजय का विवरण प्राप्त होता है जिसके अनुसार उसने केरल राज के ‘राजमुकुट और लाल किरणों को बिखेरने वाले कण्ठमाल’ को छीन लिया था उसने ‘समुद्र द्वारा पूरी तरह सुरक्षित अनेक प्राचीन द्वीपों’ को हथिया लिया जहाँ ‘शंखों की ध्वनि होती रहती थी।’ उसने ‘‘शाण्डिमत्तिवु में रखे गये उस सम्पूर्ण स्वर्ण से बने मुकुट को छीन लिया, जो लक्ष्मी द्वारा पहनने योग्य था।’’ पांडय- तिरुवालंगाडु अभिलेख के अनुसार राजेन्द्र ने ‘दिग्विजय’ की इच्छा से अपनी राजधानी की रक्षा की पूरी व्यवस्था की…अप्रतिम चोलराज उत्तम चोल ने दक्षिण दिशा की विजय यात्रा पाण्डयराज को जीत लेने की इच्छा से प्रारम्भ की…. सूर्यकुलतिलक दण्डनाथ (राजेन्द्र) ने पाण्डयराज पर चढ़ाई कर दी, उसने भागकर अगस्त्य ऋषि के गृह मलयपर्वत में शरण ले ली। ….राजराज के पुत्र (राजेन्द्र) ने पाण्डय राजाओं के यशः रूपी कलंकरहित मोतियों को छीन लिया।’ भयरहित मधुरान्तक (मदुरै को जीतने वाले राजेन्द्र) ने सहयाद्रि को पारकर बहुत बड़ी सेना के साथ केरल पर चढ़ाई कर दी। …अन्ततः वह राजधानी लौट आया। राजेन्द्र के सेनापति दण्डनाथ द्वारा पांडयों की पराजय का उल्लेख प्राप्त होता है। पांडय शासक ने अगस्त्य के निवास-स्थल मलय पर्वत पर शरण लिया। राजेन्द्र ने अपने ही पुत्रों को चोल पांडय नाम से उन क्षेत्रों का शासक नियुक्त किया। केरल एवं पांडय की ये विजयें राजेन्द्र प्रथम के काल में सम्पन्न हुईं अथवा राजराज की विजयों के ही परिवर्तित रूप हैं। संभवतः राजेन्द्र ने कोई नई विजयें नहीं की। मात्र केरल एवं पांडय के प्रशासन में सुधार करने हेतु अपने पुत्रों को वहाँ का शासक नियुक्त किया। जयवर्मन सुंदर चोल पांडय मदुरा का शासक नियुक्त किया। पश्चिमी चालुक्य- कल्याणी के चालुक्यों में 1016 ई. के लगभग विक्रमादित्य पंचम के पश्चात् उसका पुत्र जयसिंह उत्तराधिकारी हुआ जिसे बेलगाँव लेख में चोलों एवं चेरों का विजेता कहा गया है। तमिल प्रशस्ति के अनुसार राजेन्द्र रट्टपाडि को अधिकृत कर मुशंगि के युद्ध में जयसिंह को पलायित होने के लिए बाध्य किया। मुशंगि की समता उच्छगि दुर्ग अथवा मास्की से की गई है। जयसिंह यद्यपि मुशंगि के युद्ध में पराजित हुआ फिर भी उसने तुंगभद्रा तक चालुक्य साम्राज्य को पूर्णतः सुरक्षित रखा। वेंगी- चोल-चालुक्य संघर्ष दो सीमाओं पर तीव्रतम रूप में चल रहा था। वेंगी में शक्तिवर्मन के पश्चात् विमलादित्य उत्तराधिकारी हुआ जो 1019 ई. तक जीवित रहा। तदुपरांत विमलादित्य की चोल महारानी कुन्दवै देवी से उत्पन्न पुत्र राजराज नरेन्द्र उत्तराधिकारी हुआ। राजराज नरेन्द्र का सौतेला भाई विष्णुवर्द्धन विजयादित्य सप्तम चालुक्य शासक जयसिंह द्वारा समर्थित था। इसने राजराज नरेन्द्र के सिंहासनारोहण संस्कार को विघ्नित किया। कलिंग तथा ओड्ड के शासकों ने जयसिंह के साथ विजयादित्य सप्तम का सहयोग किया। तमिल लेखों से यह ज्ञात होता है कि चोल सेनापति अरैयन राजराज ने सम्मिलित संघर्ष को पराजित कर राजराज नरेन्द्र के सिंहासन को सुरक्षित किया और उसके साथ अपनी पुत्री अमंगादेवी का विवाह कर दिया। लेकिन राजराज नरेन्द्र को अपदस्थ करने तथा वेंगी की गद्दी प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर ली। इसी समय चालुक्य सेनापति चावणरस ने...
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