चोल शासक राजराज प्रथम (985-1014 ई.)Chola ruler Rajaraja I (985-1014 AD)

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उत्तम चोल के पश्चात् 985 ई. के लगभग परांतक द्वितीय सुंदर चोल का पुत्र राजराज प्रथम चोल सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। जिसे प्रारंभिक लेखों में राजकेशरी अरुमोलिवर्मन की उपाधि से विभूषित किया गया है। इसके सिंहासनारोहण से चोल वंश के नवीन अध्याय का शुभारंभ हुआ। अपनी व्यक्तिगत योग्यताओं के आधार पर इसनं विजयालय शाखा की आधारशिला को इस प्रकार से सुदृढ़ किया कि इसके उत्तराधिकारी राजेन्द्र प्रथम ने चोल साम्राज्य को सम्पूर्ण दक्षिण एशिया पर विस्तृत कर लिया। सिंहासनारोहण के समय उत्तराधिकार में इसे एक लघु राज्य प्राप्त हुआ था जिसे अपने 30 वर्षीय शासन-काल में विस्तृत साम्राज्य के रूप में परिवर्तित कर दिया।

प्रारंभिक विजयें-

राजराज के शासन के 29वें वर्ष में प्रकाशित उसका तंजौर से प्राप्त अभिलेख उसकी विजयों का निम्नलिखित समाहार उपस्थित करता है। तदनुसार, जिसने अपनी ‘‘विजयिनी सेना द्वारा काण्डलूरशालै बन्दरगाह में (शत्रु के) जहाजों को नष्ट कर दिया, जिसने वेंगल-नाडु, गंगपाडि तडिंगैपाडि, नोलम्बपाडि, कुडुमलैनाडु, कोल्लम, कलिंगम्, ईडमण्डलम् तथा सिंहल के राजा के राज्य को जीता तथा जो भयंकर शक्ति का मालिक था, जो इरट्टपाडि के अर्द्धलक्ष (लाख) का मालिक था तथा जिसने समुद्र के 12 हजार (द्वीपों) को जीता।’’

केरल एवं पांडय युद्ध-

शासन के प्रारंभिक वर्षों में ही इसने मुम्मडि चोल देव की उपाधि धारण की। चैथे वर्ष के लेखों से काण्डल्लून शालैक्कलमरुत की उपाधि प्राप्त होती है। जिससे केरल एवं पांडय विजय के संकेत प्राप्त होते हैं किन्तु 8वें वर्ष के पूर्व का कोई भी लेख केरल एवं पांडय राज्य से उपलब्ध नहीं हुआ है। तिरुवालंगाडु दानपत्र में विस्तृत दिग्विजय का उल्लेख है जिसके अनुसार राजराज ने दक्षिण दिशा में पांडय शासक अमरभुजंग को पराजित किया।

दक्षिण में चोलों के विरुद्ध पांडय, केरल एवं सिंहल के मध्य संघ बना हुआ था। समकालीन केरल नरेश भास्कर रविवर्मन तिरूवडि पराजित हुआ। पांडय एवं केरल के शासकों ने राजराज की अधीनता स्वीकार की।

यद्यपि यह विवाद का विषय बना हुआ है कि राजराज ने सर्वप्रथम केरल को पराजित किया अथवा पांडयों को। तिरुवालंगाडु पत्रों के अनुसार पांडय शासक को पराजित कर विलिनम तथा शालै के दुर्गों को अधिकृत किया। संभवतः राजराज ने पांडयों तथा केरलों पर दो बार आक्रमण किया जिसका संकेत तंजौर लेखों से प्राप्त होता है। डॉ. नीलकण्ठ शास्त्री के अनुसार ये दोनों विजयें एक साथ नहीं, अपितु दो अभियानों में की गयीं। पश्चिम के इन अभियानों का श्रेय कुछ अभिलेख चोल सेनापति और राजकुमार राजेन्द्र को देते हैं; जिसे वेंगी और गंगमण्डल का महादण्डनायक कहा गया है।

इस अभियान की महत्वपूर्ण घटना उडगै एवं कुडमलैनाडू अथवा कुडमलनाडु के दुर्गों पर विजय मानी गई है। कुडमलैनाडु की समता कुर्ग तथा मलनाडु की समता पश्चिमी घाट से की गई है। कलिंगत्तुप्पराणि के अनुसार राजराज ने 18 वनों को पार करते हुए उडगै के दुर्ग को भस्मीभूत किया। इन विजयों के फलस्वरूप केरल एवं पांडय राज्य चोल साम्राज्य के स्थायी अंग बन गये।

चंगाल्व-

इसके एक गंग सेनापति को क्षत्रिय शिखामणि-कोंगाल्व की उपाधि दी गई है। संभवतः चंगाल्व कोई स्थानीय राजवंश था जिसने राजराज की अधीनता स्वीकार की।

सिंहल-

तिरुवालंगाडु दानपत्र में सिंहल विजय का विवरण देते हुए यह बतलाया गया है कि राम ने कपियों की सहायता से समुद्र सेतु का निर्माण कर लंकेश का वध किया था किन्तु राजराज प्रथम ने नौका से समुद्र पार करते हुए सिंहल नरेश को पराजित कर राम से अधिक वीरत्व का परिचय दिया। महावंश में राजराज के इस अभियान का कोई संकेत नहीं है किन्तु महेन्द्र पंचम के शासन काल में व्याप्त अराजकता का अवश्य उल्लेख है। इससे यह प्रतिध्वनित होता है कि जिस समय महेन्द्र पंचम सैनिक क्रांति के फलस्वरूप दक्षिण-पूर्व सिंहल के रोहण नामक स्थान पर शरण लिया हुआ था उसी समय राजराज प्रथम ने उत्तरी सिंहल को अधिकृत कर लिया तथा उसे मुम्मडि शोल मण्डलम के नाम से संबोधित किया।

इस सिंहल विजय के फलस्वरूप उत्तरी सिंहल पर चोलों का स्थायी अधिकार स्थापित हो गया। सिंहल राजधानी अनुराधापुर को विनष्ट कर पोलान्नरूव को राजधानी बनाया जिसे जननाथ मंगलम नाम से संबोधित किया गया। उत्तरी सिंहल से राजराज के अनेक लेख उपलब्ध हुए हैं। पोलोन्नरूव को अनेक मंदिरों से इसने अलंकृत किया। इसके एक अधिकारी तालिकुमारन ने महातित्थ में राजराजेश्वर नाम के एक मंदिर का निर्माण कराया तथा इस नगर को राजराजपुर नाम से अभिहित किया।

अन्य विजयें- उपर्युक्त युद्धों के पश्चात् राजराज प्रथम ने मैसूर की ओर ध्यान दिया। गंगपाडि, नोलम्बपाडि तथा तडिगैपाडि को आक्रांत कर गंगों तथा नीलम्बों को पराजित किया। शालैविजय के पश्चात् तट्टपाडि (तडिगैपाडि), तलैक्काडु, नीलम्बपाडि तथा पिरूडिगंगर-वलनाडु को अधिकृत करने का उल्लेख है। इन विजयों का विवरण राजराज के नवें वर्ष के लेखों से उपलब्ध होने लगता है। दक्षिणी अर्काट के एक लेख में कोलार के अधिकारी गंगरसायिर द्वारा दान देने का वर्णन प्राप्त होता है। कोंग से होते हुए राजराज ने इन क्षेत्रों को आक्रांत किया था। नीलम्बपाडि के अंतर्गत तुन्कूर, चित्तलदुर्ग, बंगलौर, कोलार, बेलारी, सेलम तथा उत्तरी अर्काट जिले सम्मिलित थे। गंगों के आंतरिक संघर्ष के फलस्वरूप राजराज का यह अभियान अत्यन्त ही सरल रहा। दीर्घ काल तक गंग एवं नोलम्ब चोलों की अधीनता स्वीकार करते रहे।

पश्चिमी चालुक्य-

राष्ट्रकूटों के पतन के पश्चात् कल्याणी के चालुक्यों का उदय हुआ जो राजराज प्रथम की साम्राज्यवादी नीति से सचेष्ट थे। 992 ई. के एक लेख के अनुसार चालुक्य शासक तैलप द्वितीय ने चोलों को पराजित कर उनसे 150 हस्ति छीन लिया। इस चोल शासक की समता राजराज प्रथम से की गई है। किन्तु राजराज का चालुक्यों के विरुद्ध असली संघर्ष तैलप के उत्तराधिकारी सत्याश्रय के समय ही आरम्भ हुआ। तैलप की कठिनाई यह थी कि उत्तर में उसे परमारों (मुंजराज) का भी सैनिक संघर्षों में सामना करना पड़ा, जिसके कई दौर चले।

तैलप द्वितीय के पश्चात् सत्याश्रय चालुक्य सिंहासन पर आरूढ़ हुआ जो उत्तर में परमारों तथा दक्षिण में चोलों से आवृत्त था। 1003 ई. के लेख से ज्ञात होता है कि राजराज ने रट्टपाडि 7500 देशों को अधिकृत किया था। तिरुवालंगाडु पत्र के अनुसार तैलप का पुत्र सत्याश्रय युद्ध क्षेत्र में राजराज के समक्ष कष्टाश्रय बन गया। करन्डै पत्रों के अनुसार राजराज की हस्ति सेना ने तुंगभद्रा नदी में अवगाहन किया था। जिस प्रकार शिव ने अपनी जटा में गंगा को अवरुद्ध किया था उसी प्रकार बढ़ती हुई चालुक्य सेना को राजराज ने अवरुद्ध किया।

1007 ई. के होत्तूर लेख के अनुसार राजराज के पुत्र राजेन्द्र प्रथम ने बीजापुर जिले के दानूर नामक स्थान पर आक्रमण किया तथा अनेक स्त्री, बच्चों एवं ब्राह्मणों का वध किया। इस अत्याचार को अवरुद्ध करने के लिए सत्याश्रय आगे बढ़ा तथा चोलों को प्रत्यावर्तन के लिए बाध्य किया।

उपर्युक्त विवरण से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि चोलों ने मैसूर विजय के उपरांत पश्चिमी चालुक्यों पर आक्रमण कर तुंगभद्रा नदी तक चोल साम्राज्य को विस्तृत कर लिया। गंग और वेंगी के पुराने छोटे राज्य अब चोल साम्राज्य के अंग हो गये और अपने शासन के अन्तिम दिनों में राजराज ने दण्डनायक के विरुदों वाले अपने गवर्नरों की नियुक्ति वहाँ कर दी।

वेंगी-

राजराज के शासन काल में वेंगी की राजनीतिक स्थिति एकदम बिगड़ चुकी थी। जटाचोड़ भीम ने दनार्णव की हत्या कर उसके दो पुत्र-शक्तिवर्मन एवं विमलादित्य को निष्कासित कर दिया। प्रारंभ में ये दोनों राजकुमार पूर्वी गंग शासक कामार्णव के यहाँ शरण लिये किन्तु जब जटाचोड़ भीम ने कामार्णव को आक्रांत किया तो बाध्य होकर ये चोल राजदरबार में शरण लिए। चोल लेखों से इन घटनाओं का कोई स्पष्ट विवरण नहीं उपलब्ध होता किन्तु शक्तिवर्मन के लेखों से यह ज्ञात होता है कि 999 ई. के लगभग राजराज ने जटाचोड़ भीम पर आक्रमण किया। शक्तिवर्मन को भीम के सेनापति बद्देम तथा महाराज का विजेता बतलाया गया है। राजराज ने शक्तिवर्मन को वेंगी के सिंहासन पर अधीनस्थ शासक के रूप में अधिष्ठित किया। शक्तिवर्मन ने 12 वर्षों तक वेंगी पर शासन किया। वेंगी के चालुक्यों के साथ स्थायी संबंध स्थापित करने के लिए राजराज ने अपनी पुत्री कुन्दवै देवी का विवाह विमलादित्य के साथ सम्पन्न किया।

चोलों से पराजित होने के पश्चात् भीम ने संभवतः पश्चिमी चालुक्य नरेश सत्याश्रय का प्रश्रय लिया। फलतः वेंगी मण्डल चोलों एवं चालुक्यों के मध्य संघर्ष का कारण बना। सेब्रोलु लेखों के अनुसार 1006 ई. के लगभग सत्याश्रय के सेनापति बायलनम्बी ने वेंगी को आक्रांत कर धरणीकोट तथा यनमदल के दुर्गों को विनष्ट किया। संभवतः चालुक्यों को वेंगी से विमुख करने के लिए युवराज राजेन्द्र प्रथम ने रट्टमण्डल पर आक्रमण किया जिसका विवरण होत्तूर लेख में उपलब्ध होता है। इस प्रकार वेगी पर चोलों का प्रभाव बना रहा।

मालदीव-

राजराज के शासन काल के अंतिम वर्ष के लेखों के अनुसार इसने 12000 प्राचीन समुद्री द्वीपों अर्थात् मालदीव पर विजय का उल्लेख प्राप्त होता है। यद्यपि इस समुद्री अभियान का विस्तृत विवरण प्राप्त नहीं होता किन्तु इसे राजेन्द्र प्रथम के अभियानों का प्रथम चरण मान सकते हैं। मालदीव की विजय से हम कह सकते हैं कि राजराज की नौसेना अत्यन्त सुदृढ़ तथा सबल थी।

करंदै पत्र के अनुसार राजराज ने बाणराज को पराजित कर भोगदेव का वध किया। इस अभियान का भी विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं होता।

राजराज-प्रथम केवल विजेता ही नहीं अपितु एक सुयोग्य शासक भी था। उसने अपने विभिन्न शासन सम्बन्धी कार्यों द्वारा अपने साम्राज्य की नींव सुदृढ़ कर दी। भूमि कर नियत करने के उद्देश्य से भूमि की ठीक-ठीक पैमाइश तथा कर की दर निश्चित करना, एक सुदृढ़ तथा सुकेन्द्रित व्यवस्था द्वारा जो आधुनिक शासन के सेक्रेटिरियेट से मिलती जुलती थी, देश के शासन-संगठन को पूर्णता तक पहुँचा देना और उपर्युक्त स्थानों पर केन्द्रीय सरकार के प्रतिनिधि अधिकारियों की नियुक्ति करना, हिसाब की जाँच.पड़ताल तथा नियन्त्रण की व्यवस्था को प्रोत्साहित करना, जिसके द्वारा ग्रामसभाओं तथा अन्य लोक संगठनों के आय-व्यय का निरीक्षण किया जाता था, किन्तु उनकी स्वतन्त्रता या कार्यारम्भ की प्रवृत्ति पर कोई आघात नहीं होने पाता था, एक शक्तिशाली स्थायी सेना तथा जहाजी बेड़े का निर्माण जिसने राजेन्द्र के समय में अधिक सफलता प्राप्त की, इन बातों से पता चलता है कि राजराज दक्षिण भारत के साम्राज्य निर्माताओं में सबसे महान था।

राजराज स्वयं शिव का परम भक्त था, किन्तु प्राचीन भारत के सभी महान शासकों की भाँति वह धर्म के मामले में सहिष्णु था। उसने अपने राज्य में वैष्णव सम्प्रदाय को फलने-फूलने का अवसर प्रदान किया और उसने श्रीमार विजयोत्तुंगवर्मन को बौद्ध बिहार बनवाने की अनुमति दे दी थी। स्वयं राजराज ने इस बौद्ध बिहार को एक गाँव दान में दिया था। वह मंदिरों का निर्माता भी था। उसने तंजौर में अपने आराध्य देव शिव का एक सुन्दर मंदिर बनवाया। इस मंदिर का नाम उसी के नाम के आधार पर राजराजेश्वर पड़ा। यह मंदिर अपने अंगानुपात, सादी रूपरेखा, सजीव मूर्तियों तथा असाधारण अलंकरणों की सुचारुता के लिए प्रसिद्ध है। मंदिर की भित्ति पर राजराज प्रथम की विजयों का वृतान्त खुदा है और यदि यह लेख प्रस्तुत न होता तो उस महान् नृपति के चरित का अधिकांश लुप्त हो जाता।

इसके लेखों में इसे मुम्मुडि चोल, अरूमोलि, जयनगोंड, चोलेन्द्रसिंह, शिवपादेशेखर, क्षत्रिय शिखामणि, जननाथ, राजमार्तण्ड, राजेन्द्रसिंह, राजाश्रय, नित्यविनोद, केरलान्तक सिंहलान्तक तथा रविकुलमाणिक्य इत्यादि उपाधियों से विभूषित किया गया है। नीलकण्ठशास्त्री के अनुसार, ‘राजराज के तीस वर्षों का शासनकाल चोल राजतन्त्र का निर्माणात्मक काल था। नौकरशाही और सेना के संगठन में, कला और वास्तु में, धर्म और साहित्य में हम उस शकितसम्पन्न क्रियात्मकता को पाते हैं जो तत्कालीन प्रगतिशील साम्राज्यवाद के रूप में प्रस्फुटित हुई। राष्ट्रकूटों के आक्रमणों से जो छोटा-सा चोल राज्य अभी पूरी तरह उबर भी नहीं पाया था, वह राजराज के शासन के अन्त होते-होते एक सुसंगठित और बृहद साम्राज्य के रूप में परिणत हो गया जिसका कौशलपूर्ण संगठन और प्रशासन था, जिसके पास एक शक्तिशाली सेना थी, गहरे आय स्रोत थे और बड़े-बड़े कृत्यों हेतु सम्पन्न साधन थे।’ उसके ‘मडै’ नामक सोने के सिक्के सिंहल से प्राप्त हुए हैं।

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Dr vishwanath verma

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