April 2021

Year : 2025

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चोल शासक राजराज प्रथम (985-1014 ई.)Chola ruler Rajaraja I (985-1014 AD)

उत्तम चोल के पश्चात् 985 ई. के लगभग परांतक द्वितीय सुंदर चोल का पुत्र राजराज प्रथम चोल सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। जिसे प्रारंभिक लेखों में राजकेशरी अरुमोलिवर्मन की उपाधि से विभूषित किया गया है। इसके सिंहासनारोहण से चोल वंश के नवीन अध्याय का शुभारंभ हुआ। अपनी व्यक्तिगत योग्यताओं के आधार पर इसनं विजयालय शाखा की आधारशिला को इस प्रकार से सुदृढ़ किया कि इसके उत्तराधिकारी राजेन्द्र प्रथम ने चोल साम्राज्य को सम्पूर्ण दक्षिण एशिया पर विस्तृत कर लिया। सिंहासनारोहण के समय उत्तराधिकार में इसे एक लघु राज्य प्राप्त हुआ था जिसे अपने 30 वर्षीय शासन-काल में विस्तृत साम्राज्य के रूप में परिवर्तित कर दिया। प्रारंभिक विजयें- राजराज के शासन के 29वें वर्ष में प्रकाशित उसका तंजौर से प्राप्त अभिलेख उसकी विजयों का निम्नलिखित समाहार उपस्थित करता है। तदनुसार, जिसने अपनी ‘‘विजयिनी सेना द्वारा काण्डलूरशालै बन्दरगाह में (शत्रु के) जहाजों को नष्ट कर दिया, जिसने वेंगल-नाडु, गंगपाडि तडिंगैपाडि, नोलम्बपाडि, कुडुमलैनाडु, कोल्लम, कलिंगम्, ईडमण्डलम् तथा सिंहल के राजा के राज्य को जीता तथा जो भयंकर शक्ति का मालिक था, जो इरट्टपाडि के अर्द्धलक्ष (लाख) का मालिक था तथा जिसने समुद्र के 12 हजार (द्वीपों) को जीता।’’ केरल एवं पांडय युद्ध- शासन के प्रारंभिक वर्षों में ही इसने मुम्मडि चोल देव की उपाधि धारण की। चैथे वर्ष के लेखों से काण्डल्लून शालैक्कलमरुत की उपाधि प्राप्त होती है। जिससे केरल एवं पांडय विजय के संकेत प्राप्त होते हैं किन्तु 8वें वर्ष के पूर्व का कोई भी लेख केरल एवं पांडय राज्य से उपलब्ध नहीं हुआ है। तिरुवालंगाडु दानपत्र में विस्तृत दिग्विजय का उल्लेख है जिसके अनुसार राजराज ने दक्षिण दिशा में पांडय शासक अमरभुजंग को पराजित किया। दक्षिण में चोलों के विरुद्ध पांडय, केरल एवं सिंहल के मध्य संघ बना हुआ था। समकालीन केरल नरेश भास्कर रविवर्मन तिरूवडि पराजित हुआ। पांडय एवं केरल के शासकों ने राजराज की अधीनता स्वीकार की। यद्यपि यह विवाद का विषय बना हुआ है कि राजराज ने सर्वप्रथम केरल को पराजित किया अथवा पांडयों को। तिरुवालंगाडु पत्रों के अनुसार पांडय शासक को पराजित कर विलिनम तथा शालै के दुर्गों को अधिकृत किया। संभवतः राजराज ने पांडयों तथा केरलों पर दो बार आक्रमण किया जिसका संकेत तंजौर लेखों से प्राप्त होता है। डॉ. नीलकण्ठ शास्त्री के अनुसार ये दोनों विजयें एक साथ नहीं, अपितु दो अभियानों में की गयीं। पश्चिम के इन अभियानों का श्रेय कुछ अभिलेख चोल सेनापति और राजकुमार राजेन्द्र को देते हैं; जिसे वेंगी और गंगमण्डल का महादण्डनायक कहा गया है। इस अभियान की महत्वपूर्ण घटना उडगै एवं कुडमलैनाडू अथवा कुडमलनाडु के दुर्गों पर विजय मानी गई है। कुडमलैनाडु की समता कुर्ग तथा मलनाडु की समता पश्चिमी घाट से की गई है। कलिंगत्तुप्पराणि के अनुसार राजराज ने 18 वनों को पार करते हुए उडगै के दुर्ग को भस्मीभूत किया। इन विजयों के फलस्वरूप केरल एवं पांडय राज्य चोल साम्राज्य के स्थायी अंग बन गये। चंगाल्व- इसके एक गंग सेनापति को क्षत्रिय शिखामणि-कोंगाल्व की उपाधि दी गई है। संभवतः चंगाल्व कोई स्थानीय राजवंश था जिसने राजराज की अधीनता स्वीकार की। सिंहल- तिरुवालंगाडु दानपत्र में सिंहल विजय का विवरण देते हुए यह बतलाया गया है कि राम ने कपियों की सहायता से समुद्र सेतु का निर्माण कर लंकेश का वध किया था किन्तु राजराज प्रथम ने नौका से समुद्र पार करते हुए सिंहल नरेश को पराजित कर राम से अधिक वीरत्व का परिचय दिया। महावंश में राजराज के इस अभियान का कोई संकेत नहीं है किन्तु महेन्द्र पंचम के शासन काल में व्याप्त अराजकता का अवश्य उल्लेख है। इससे यह प्रतिध्वनित होता है कि जिस समय महेन्द्र पंचम सैनिक क्रांति के फलस्वरूप दक्षिण-पूर्व सिंहल के रोहण नामक स्थान पर शरण लिया हुआ था उसी समय राजराज प्रथम ने उत्तरी सिंहल को अधिकृत कर लिया तथा उसे मुम्मडि शोल मण्डलम के नाम से संबोधित किया। इस सिंहल विजय के फलस्वरूप उत्तरी सिंहल पर चोलों का स्थायी अधिकार स्थापित हो गया। सिंहल राजधानी अनुराधापुर को विनष्ट कर पोलान्नरूव को राजधानी बनाया जिसे जननाथ मंगलम नाम से संबोधित किया गया। उत्तरी सिंहल से राजराज के अनेक लेख उपलब्ध हुए हैं। पोलोन्नरूव को अनेक मंदिरों से इसने अलंकृत किया। इसके एक अधिकारी तालिकुमारन ने महातित्थ में राजराजेश्वर नाम के एक मंदिर का निर्माण कराया तथा इस नगर को राजराजपुर नाम से अभिहित किया। अन्य विजयें- उपर्युक्त युद्धों के पश्चात् राजराज प्रथम ने मैसूर की ओर ध्यान दिया। गंगपाडि, नोलम्बपाडि तथा तडिगैपाडि को आक्रांत कर गंगों तथा नीलम्बों को पराजित किया। शालैविजय के पश्चात् तट्टपाडि (तडिगैपाडि), तलैक्काडु, नीलम्बपाडि तथा पिरूडिगंगर-वलनाडु को अधिकृत करने का उल्लेख है। इन विजयों का विवरण राजराज के नवें वर्ष के लेखों से उपलब्ध होने लगता है। दक्षिणी अर्काट के एक लेख में कोलार के अधिकारी गंगरसायिर द्वारा दान देने का वर्णन प्राप्त होता है। कोंग से होते हुए राजराज ने इन क्षेत्रों को आक्रांत किया था। नीलम्बपाडि के अंतर्गत तुन्कूर, चित्तलदुर्ग, बंगलौर, कोलार, बेलारी, सेलम तथा उत्तरी अर्काट जिले सम्मिलित थे। गंगों के आंतरिक संघर्ष के फलस्वरूप राजराज का यह अभियान अत्यन्त ही सरल रहा। दीर्घ काल तक गंग एवं नोलम्ब चोलों की अधीनता स्वीकार करते रहे। पश्चिमी चालुक्य- राष्ट्रकूटों के पतन के पश्चात् कल्याणी के चालुक्यों का उदय हुआ जो राजराज प्रथम की साम्राज्यवादी नीति से सचेष्ट थे। 992 ई. के एक लेख के अनुसार चालुक्य शासक तैलप द्वितीय ने चोलों को पराजित कर उनसे 150 हस्ति छीन लिया। इस चोल शासक की समता राजराज प्रथम से की गई है। किन्तु राजराज का चालुक्यों के विरुद्ध असली संघर्ष तैलप के उत्तराधिकारी सत्याश्रय के समय ही आरम्भ हुआ। तैलप की कठिनाई यह थी कि उत्तर में उसे परमारों (मुंजराज) का भी सैनिक संघर्षों में सामना करना पड़ा, जिसके कई दौर चले। तैलप द्वितीय के पश्चात् सत्याश्रय चालुक्य सिंहासन पर आरूढ़ हुआ जो उत्तर में परमारों तथा दक्षिण में चोलों से आवृत्त था। 1003 ई. के लेख से ज्ञात होता है कि राजराज ने रट्टपाडि 7500 देशों को अधिकृत किया था। तिरुवालंगाडु पत्र के अनुसार तैलप का पुत्र सत्याश्रय युद्ध क्षेत्र में राजराज के समक्ष कष्टाश्रय बन गया। करन्डै पत्रों के अनुसार राजराज की हस्ति सेना ने तुंगभद्रा नदी में अवगाहन किया था। जिस प्रकार शिव ने अपनी जटा में गंगा को अवरुद्ध किया था उसी प्रकार बढ़ती हुई चालुक्य सेना को राजराज ने अवरुद्ध किया। 1007 ई. के...
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चोल राजवंश(Chola dynasty)

दक्षिण भारत के प्राचीनतम राजवंश- सुदूर दक्षिण के प्राचीन इतिहास में वहाँ की तीन परम्परागत राजनीतिक शक्तियों का वर्णन मिलता है। ये तीन शक्तियाँ थीं-चोल, चेर तथा पाण्ड्य। ये तीनों वंश प्रारंभ से ही सत्ता के लिए संघर्षरत थे। अशोक के लेखों में चोल मित्र राज्य के रूप में वर्णित हैं। उस समय भी पाण्ड्य निकटस्थ पड़ोसी थे। 13वीं शती तक यह राजवंश दक्षिण की राजनीति में किसी न किसी रूप में हस्तक्षेप करता रहा। अंततः परवर्ती पाण्ड्यों को अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। इस प्रकार चोलों का लगभग 1500 वर्षों का दीर्घ इतिहास है जो चार मुख्य चरणों में विभाजित है-प्रथम संगम युग, द्वितीय संगम युग एवं विजयालय शाखा के मध्य, तृतीय विजयालय से अधिराजेन्द्र तक तथा चतुर्थ कुलोत्तुंग प्रथम तथा उसके पश्चात् चोल-चालुक्य प्रशासन। चोलों का प्राचीनतम साहित्यिक साक्ष्य संगम साहित्य है। तमिलदेश अथवा सुदूर दक्षिण के इन राज्यों का उल्लेख प्राचीन संस्कृत साहित्य में यत्र-तत्र मिलता है। ईसा पूर्व चैथी शताब्दी के लगभग कात्यायन ने चोलों का उल्लेख किया है। अशोक के द्वितीय शिलालेख में पाण्ड्यों, सत्तियपुत्तों और केरलपुत्रों के साथ चोलों के स्वतन्त्र राज्य का उल्लेख मिलता है। इन राज्यों के साथ सम्राट अशोक का मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध था। तदुपरांत महावंश, सिलप्पदिकारम तथा मणिमेखलै से इनके परम्परागत इतिहास का ज्ञान प्राप्त होता है। विजयालय शाखा के बहुसंख्यक लेख उपलब्ध हैं। इस काल के ग्रंथों में ऐतिहासिक तथ्यों का विस्तृत विवेचन है। दिव्यसूरि चरित एवं गुरुपरम्परै में धर्म के साथ ही साथ राजनीतिक घटनाओं का भी उल्लेख किया गया है। वीरशोलियम, कलिंगत्तुप्परणि, याप्परुड़्गलक-करिकै तथा कुलोत्तुंग-शोलन्-पिल्लैत्तमिक्त इत्यादि पत्तपात्तु ग्रंथों में इस वंश का इतिहास सुरक्षित है। संगम साहित्य से ज्ञात अनेक तथ्यों की पुष्टि ‘पेरीप्लस ऑफ द इरीथ्रियन सी’ तथा टालमी के विवरणों से हो जाती है। परवर्ती चोल शासकों के अध्ययन के लिए दसवीं तथा ग्यारहवीं शती ई. में रचित शैव सन्तों के चरित पर्याप्त उपयोगी हैं। इनके आधार पर शेक्कलार ने तिरुतोण्डरपुराणम् नामक ग्रन्थ की रचना की। इसे पेरियपुराणम् भी कहा जाता है। चोल शासकों के शासन काल में तमिल भाषा का पूर्ण विकास हुआ। यत्र-तत्र संस्कृत के लेख भी उपलब्ध हुए हैं। तेलुगु क्षेत्रों में तेलुगु एवं कन्नड़ का भी प्रयोग प्राप्त होता है। परम्परानुसार चोल देश उत्तर एवं दक्षिण में बेल्लारू नदियों, पूर्व में समुद्र तथा कोट्टैकरै तक विस्तृत था जिसमें आधुनिक त्रिचनापल्ली एवं तंजौर जिले तथा पुरातन कुदप्पह स्टेट के कुछ भाग सम्मिलित हैं, कावेरी घाटी मुख्य अंग थी। चोल शब्द की उत्पत्ति के संबंध में अनेक व्याख्याएँ प्राप्त होती हैं। गेरिनी ने संस्कृत काल तथा कोल को इसका मूल स्वीकार करते हुए अनार्य प्रमाणित करने का प्रयास किया है। चोल अति प्राचीन काल से प्रचलित शब्द है। इन्हें किल्लि, बलवन तथा शेम्बियन इत्यादि नामों से पुकारा गया है। ज्ञान की वर्तमान अवस्था में ‘चोल’ को ही मूल शब्द स्वीकार करना अधिक सुविधाजनक होगा। प्रारंभिक इतिहास- चोलों के परम्परागत इतिहास का ज्ञान संगम साहित्य में वर्णित है जिसका समय ईसवी सन् के आस-पास स्वीकार किया गया है। इस प्रारंभिक तमिल साहित्य में पौराणिक इतिहास सुरक्षित है, वह परवर्ती अभिलेखों द्वारा कदाचित ही समर्थित है। शासकों की प्रशस्तियों में ऐतिहासिक पुट अत्यल्प है। पुरातात्विक साक्ष्यों में अभिलेख सर्वाधिक उपादेय है। लेकिन ये अभिलेख अलंकृत काव्यशैली में लिखे गये हैं। प्रमुख अभिलेखों में विजयालयकुल के प्रथम आदित्य के तिरुक्कलुक्कर्रम, तक्कोलम, तिलैतनम् लेख महत्वपूर्ण हैं। परान्तक के विषय में तोण्डैमान, तिरुवेगर्रियूर, किलमतुगूर तथा उत्तरमेरुर आदि अभिलेख विशेष सूचना प्रदान करते हैं। तंजौर अभिलेख, मेलपाडिलेख, बृहतलीडेन अनुदानपत्र, तिरुवालंगाडु अनुदान पत्र राजेन्द्र प्रथम के लिए तथा वीर राजेन्द्र के कन्याकुमारी लेख व तृतीय राजेन्द्र के तिरुवेन्द्रिपुरम अभिलेख से सूचना मिलती है। राजेन्द्र चोल के बाद के विवरण के लिए चोलों के अनेक लेख मिलते हैं। इसके अतिरिक्त समकालीन राजवंशों यथा- बाण, कदम्ब, वैदुम्ब, नोलम्ब, राष्ट्रकूट तथा पूर्वी चालुक्यों के कुछ लेखों से सहायता मिलती है। चोलों के इतिहास अध्ययन में इनकी मुद्रायें भी हमारी सहायता करती हैं। चोलों ने सोने, चाँदी एवं ताबें की मुद्रायें चलायी थी। जिससे इनकी राजनीतिक एवं आर्थिक गतिविधि एवं प्रगति का पता चलता है। जैसे- दो द्वीप स्तम्भों के बीच एक व्याघ्र बना हुआ है और ऊपर एक छत्र प्रदर्शित है। शायद यह चोलों द्वारा कल्याणी के चालुक्यों की विजय की ओर संकेत करता है। चोलों की कुछ मुद्रायें इनके द्वीपान्तर शासन को प्रमाण है। यहाँ से प्राप्त कुछ मुद्राओं पर हाथी अंकित है तथा तमिल में ‘मार’ लिखा है। इन पर ‘शंख-चक्र’ प्रतीक भी अंकित है। संभवतः ये मुद्रायें उस समय की है जब पाण्डयों ने चोलों को पराजित कर उरैयूर तथा तंजौर को भस्मीभूत कर पुनः चोलों का राज्य उन्हें वापस कर दिया था। इसके अतिरिक्त तंजौर का राजराजेश्वर मंदिर इनकी अद्भुत कला एवं धार्मिक विश्वास का सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है। चोल काल कांस्य मूर्तियों के निर्माण के लिए प्रसिद्ध है जो इनकी धातु विज्ञान की प्रगति का भी परिचायक है। संगम साहित्य में दो शासकों के अनेक अतिरंजित विवरण प्राप्त होते हैं -1. करिकाल तथा 2. कोच्चेनगणान्। उनके क्रम एवं काल की कोई स्पष्ट सूचना नहीं है। इन्हें सूर्यवंशी शासक बतलाया गया है। इसी प्रकार की परम्परा वीर राजेन्द्र के कन्याकुमारी लेख तथा कलिंगत्तुप्परणि एवं विक्रमशोलन-उला जैसे ग्रंथों में प्राप्त होती है। करिकाल- संगम युग का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शासक था जिसके पिता का नाम इलज्जेदचेन्नि था। जन्म से ही यह शत्रुओं द्वारा अपने अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। अंत में इसने किसी प्रकार शत्रुओं के बंदीगृह से मुक्त होकर सेना संगठित किया तथा शत्रुओं को पराजित कर सिंहासन को हस्तगत किया। करिकाल के काल में ‘वेन्नि’ के युद्ध को महत्वपूर्ण घटना माना गया है जिसमें इसने चेरों तथा पाण्ड्यों को पराजित किया। वेन्नि की समता तंजौर से 15 मील पूर्व ‘कोविलवेण्णि’ नामक स्थान से की गई है। इस संघर्ष में चेर एवं पाण्ड्य शासकों के साथ अनेक सामंतों ने भी भाग लिया था। वेण्णिक्कुयत्तियार ने इसमें करिकाल के वीरत्व का काव्यात्मक विवरण दिया है। इस युद्ध के पश्चात् करिकाल स्थायी रूप से चोल सिंहासन पर विराजमान हुआ। चेरों एवं पाण्ड्यों की पराजय से साम्राज्य विस्तार के लिए उसे स्वर्णिम अवसर उपलब्ध हुआ। वाहैप्परण्डले के युद्ध में नौ राजाओं के संघ को उसने विखण्डित किया। पट्टिनप्पालै से ज्ञात होता है कि असंख्य ओलियर ने आत्म-समर्पण किया, उत्तर एवं पश्चिम के शासक पराजित हुए। पाण्ड्य शक्ति का मंथन किया गया तथा...
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राष्ट्रकूट शासक गोविन्द चतुर्थ (930-36 ई.)(Rashtrakut ruler Govind IV-930-36)

सिंहासनारोहण के समय इसकी अवस्था लगभग 26 वर्ष की थी। प्रभूतवर्ष तथा अत्यधिक स्वर्णदान देने के कारण सुवर्णवर्ष की उपाधियों से विभूषित था। नृपतुंग, नृपतित्रिनेत्र, वीरनारायण, साहसांक तथा रट्टकन्दर्प की भी उपाधियाँ इसे प्रदान की गई थीं। वेंगी में राष्ट्रकूट समर्थक चालुक्य शासक-युद्धमल्ल भीम द्वारा अपदस्थ हुआ किन्तु गोविन्द ने कोई ध्यान न दिया। चालुक्य लेखों में भीम द्वारा गोविन्द के पराजय का भी संकेत प्राप्त होता है। गोविन्द चतुर्थ का शासन-काल सामरिक दृष्टिकोण से एकदम महत्वहीन था। सांगली, खरेपाटन, देवली तथा कर्हाद दान-पत्रों के अनुसार यह एक विलासी एवं अकर्मण्य शासक था जो नित्य नव-वनिताओं (नर्तकियों) से आवृत्त रहता था तथा प्रेम एवं आनन्द का जीवन व्यतीत कर रहा था। इसे साम्राज्य के अंतः एवं बाह्य घटनाओं का कोई ज्ञान न था। यद्यपि सांगली पत्र में गंगा-यमुना द्वारा इसके राजमहल में सेवा करने का उल्लेख है, किन्तु इससे यह अनुमान लगाना निरर्थक प्रयास होगा कि इसने इलाहाबाद तक विजय किया हो। संभव है कि इन्द्र तृतीय की सेना उत्तर से लौटते समय अभी तक इलाहाबाद में ठहरी हो। देवली एवं कर्हाद पत्रों से ज्ञात होता है कि गोविन्द चतुर्थ की विलासिता से उद्विग्न होकर सामंतों एवं जनता ने विद्रोह करना प्रारंभ कर दिया। पम्प के  ‘विक्रमार्जुनविजय’ के अनुसार बेमुलवाड के चालुक्य सामंत अरिकेसरिन् द्वितीय ने वेंगी के चालुक्य शासक विजयादित्य पंचम को प्रश्रय प्रदान किया। जब गोविन्द चतुर्थ ने विजयादित्य पंचम को वापस करने का आदेश दिया तो अरिकेसरिन् द्वितीय ने अस्वीकार कर दिया। दक्षिणी कर्णाटक में दोनों के मध्य कहीं संघर्ष हुआ। अरिकेसरिन् ने इसे पराजित कर वडिग (अमोघवर्ष तृतीय) को मान्यखेत के सिंहासन पर अधिष्ठित किया। गोविन्द चतुर्थ का चाचा एवं इन्द्र तृतीय को सौतेला भाई अमोघवर्ष तृतीय देवली एवं कर्हाद पत्रों के अनुसार गोविन्द चतुर्थ को अपदस्थ कर मंत्रियों एवं प्रजा द्वारा शासक नियुक्त किया गया। अमोघवर्ष तृतीय का विवाह चेदि राजकुमारी के साथ हुआ था तथा त्रिपुरी में शांतिमय जीवन व्यतीत कर रहा था। अभिलेखीय साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि यह शासन के प्रति उदासीन था। राजशेखर के ‘विद्धशाल-भंजिका ’से भी यह संकेत प्राप्त होता है कि अमोघवर्ष तृतीय अपने श्वसुर युवराज प्रथम के यहाँ निर्वासित जीवनयापन कर रहा था। चेदि शासक ने इसे सिंहासन पर अधिष्ठित किया। उपर्युक्त साक्ष्यों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि गोविन्द चतुर्थ के विरुद्ध एक संघ का निर्माण किया गया था। यद्यपि अमोघवर्ष तृतीय इसमें सक्रिय न रहा किन्तु इसका महत्वाकांक्षी पुत्र कृष्ण तृतीय ने अपने लिए सिंहासन सुरक्षित करने हेतु अपने पिता को सिंहासनारूढ़ करने के लिए अवश्य ही संघ का संचालन किया होगा। चेदियों, चालुक्य, अरिकेसरिन् एवं अन्य मंत्रियों तथा उच्चपदाधिकारियों के सहयोग से यह अपने उद्देश्य में सफल रहा तथा 936 ई. में अमोघवर्ष तृतीय मान्यखेट के सिंहासन पर आसीन हुआ। इस युद्ध के उपरांत गोविन्द चतुर्थ जीवित था अथवा नहीं, निश्चित रूप से ज्ञात नहीं होता। परांतक प्रथम के तक्कोलम अभिलेख में गोविन्दवल्लभरायर का उल्लेख है जो परांतक का दामाद था। संभव है कि यह गोविन्द चतुर्थ ही रहा हो। बुतूग द्वारा अपने श्वसुर कृष्ण तृतीय को सहयोग दिये जाने का आरोप लगाया जाता है। इसीलिए कृष्ण तृतीय ने परांतक प्रथम के विरुद्ध भयंकर युद्ध किया हो। किन्तु इसे संभावना मात्र ही कह सकते हैं।                                                                 राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष तृतीय (936-939 ई.) अमोघवर्ष तृतीय ने मात्र तीन-चार वर्षों तक शासन किया जिसका व्यक्तिगत नाम वड्डिग था। उसने कुन्दक देवी जो कलचुरि युवराज प्रथम की पुत्री के साथ विवाह किया था। सिंहासनारोहण के समय वड्डिग की अवस्था लगभग ५० वर्ष की थी। इसके अनेक पुत्र थे जिनमें कृष्ण तृतीय ज्येष्ठ था। अन्य पुत्र जगत्तुंग, निरुपम तथा खोहिग इत्यादि थे। अमोघवर्ष तृतीय की पुत्री रेवकनीम्मडी थी जो राजमल्ल तृतीय के अन्य भाई गंग बुतूग के साथ विवाहित थी। अमोघवर्ष स्वाभाविकतः धार्मिक प्रवृत्ति का वृद्ध था। वह परम शैव था। शिव मंदिरों एवं ब्राह्मणों को अनेक बार दान दिया था। उसे आध्यात्मिक क्रियाओं में व्यस्त देखकर कृष्ण तृतीय सम्पूर्ण शासन का संचालन कर रहा था। उसने अपने बहनोई गंग बुतूग द्वितीय को गंग सिंहासन पर अधिष्ठित करने के लिए रावमल्ल (राजमल्ल) को पदच्युत करने की योजना बनाई। राजमल्ल के सहयोगी नोलम्ब दन्तिग एवं बप्पग युद्ध क्षेत्र में चल बसे, राजमल्ल भी अन्ततः वीरगति को प्राप्त हुआ तथा बुतूग द्वितीय गंग सिंहासन पर 937 ई. में आसीन हुआ। अमोघवर्ष तृतीय एवं कृष्ण तृतीय दोनों का विवाह चेदि राजकुमारियों के साथ हुआ था। अमोघवर्ष तृतीय को सिंहासन दिलाने में चेदियों का विशेष योगदान था। इसके बाबजूद युवराज कृष्ण तृतीय ने 938 ई. के लगभग चेदियों को आक्रांत किया तथा पराजित किया तदुपरान्त उसने चन्देल साम्राज्य के कालंजर एवं िचत्रकूट के दुर्गों को अधिकृत किया। यहाँ यह भी नहीं कहा जा सकता कि कृष्ण तृतीय ने चेदियों की सहायता के लिए चन्देलों पर आक्रमण किया है क्योंकि देवली पत्र में स्पष्ट उल्लेख है कृष्ण तृतीय ने अपनी माँ एवं पत्नी के अग्रजों को पराजित किया था। देवली पत्र के आधार पर अल्तेकर महोदय ने यह निष्कर्ष निकाला है कि कृष्ण तृतीय ने युवराज के रूप में ही बुतूग को गंग सिंहासन पर सुरक्षित किया तथा कालंजर एवं चित्रकूट के दुर्गों को अधिकृत किया। बघेलखण्ड से उपलब्ध कृष्ण तृतीय के जूरा लेख में उसे परमभट्टारक, परमेश्वर, महाराजाधिराज की उपाधि से अलंकृत किया गया है। या तो जूरा लेख इसके सिंहासनारोहण एवं काँची तंजौर विजय के बाद लिखा गया हो या यह भी संभव है कि कृष्ण तृतीय ने सिंहासनारोहण के पश्चात् बघेलखण्ड पर पुनरभियान किया हो तथा उसके बाद जूरा लेख उत्कीर्ण किया गया हो। श्रवणबेलगोला लेख में भी गंगों के विरुद्ध वड्डिग के अभियान का उल्लेख हुआ जिससे गंग बुतूग का सिंहासनारोहण अमोघवर्ष तृतीय के काल में प्रमाणित होता है। इस प्रकार एक युवराज के रूप में ही कृष्ण तृतीय ने अपने पराक्रम को पूर्ण प्रतिष्ठित कर दिया था। संभवतः 939 ई. के ग्रीष्म ऋतु में अमोघवर्ष तृतीय ब्रह्मलीन हुआ। राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय (939-67 ई.) फरवरी एवं दिसंबर, 939 ई. के मध्य कभी अमोघवर्ष तृतीय का पुत्र राष्ट्रकूट सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। इसे अकालवर्ष वल्लभेन्द्र तथा पृथ्वीवल्लभ परमेश्वर समस्त भुवनश्रय की उपाधियों से भी विभूषित किया गया है। कन्नड़ एवं तमिल अभिलेख में कत्रिचयुन् तत्र्जैयन्-कोण्ड की उपाधि प्रदान की गई है। एक युवराज के रूप में ही कृष्ण तृतीय अपने पराक्रम का पूर्ण परिचय दे चुका...
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गोविन्द तृतीय (793- 814 ई0)Rashtrakuta ruler Govind III (793-814 AD)

ध्रुव प्रथम के कई पुत्रों की जानकारी प्राप्त होती है। स्तंभ रणावलोक, (कम्बरस), कर्कसुवर्ण, गोविन्द तृतीय तथा इन्द्र के नाम स्पष्टतः प्राप्त होते है। ये चारो ही पुत्र योग्य एवं महत्वाकांक्षी थे। पिता के जीवन काल में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर रहे थे। स्तम्भ गंगों के पराजय के बाद गंगवाड़ी के शासक के रूप में शासन कर रहा था। कर्कसुवर्णवर्ष खानदेश के प्रशासन को संभाल रहा था। गोविन्द एवं इन्द्र अपने पिता के अभियानों में सहयोग कर रहे थे। बाद में गोविन्द उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ तथा इन्द्र को दक्षिणी गुजरात का प्रशासक बनाया। इन पुत्रों के मध्य सिंहासन के लिए संघर्ष अवश्यम्भावी था क्योंकि सभी अपनी व्यक्तिगत योग्यता एवं महत्वाकांक्षा से अवगत थे। इस स्थिति से बचने के लिए ध्रुव प्रथम ने अपने योग्यतम तृतीय पुत्र को युवराज नियुक्त कर दिया। युवराजत्व चिन्ह कण्ठिका से गोविन्द तृतीय को अलंकृत किया। यहाँ तक कि जब ध्रुव प्रथम इससे भी आश्वस्त न हुआ तो उसने गोविन्द के पक्ष में सिंहासन का परित्याग कर संन्यास ग्रहण करने का प्रस्ताव रखा किन्तु गोविन्द तृतीय इससे सहमत न हुआ। पैठन दानपत्रों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि गोविन्द तृतीय ने संस्कारगत रूप में पिता से राज्य प्राप्त किया था। कर्क के सूरतपत्र से ज्ञात होता है कि गोविन्द ने अपने पिता से युवराज पद ही नहीं वरन् सम्राट पद भी प्राप्त किया था। “राज्याभिषेक कलशैरभिषिच्यदत्ताम्। राजाधिराजपरमेश्वरतां स्वपित्राः।। (कर्क का सूरत अभिलेख) उपर्युक्त विवरण से यह स्वयमेव संभावित है कि ध्रुव प्रथम ने समस्त उत्तराधिकार सम्बंधी आपत्तियों से गोविन्द तृतीय की सुरक्षा के लिए अपने जीवन काल में पूर्ण राजत्व प्रदान कर दिवंगत हुआ होगा। सिंहासनारोहण के बाद गोविन्द तृतीय ने प्रभूतवर्ष, जगत्तुंग, जनवल्लभ, कीर्तिनारायण तथा त्रिभुवन धवल जैसी उपाधियाँ धारण कीं। गृहयुद्ध- ध्रुव प्रथम की मृत्यु के उपरांत एक वर्ष के पूर्व ही प्रकाशित पैठन दानपत्र से ज्ञात होता है कि गोविन्द तृतीय का सिंहासनारोहण संस्कार एकदम शान्तिपूर्ण ढंग से सम्पत्र हुआ। किन्तु स्तम्भ ने अपने अधिकारों से वंचित रह कर बड़ा अपमानित अनुभव किया। गोविन्द के विरुद्ध द्वादश राजाओं का एक संघ बनाकर विद्रोह करना प्रारंभ कर दिया। यद्यपि स्तंभ के समर्थक शासकों की सूची नहीं प्राप्त होती, किन्तु गोविन्द के अभियानों से ज्ञात होता है कि पड़ोसी शासकों ने स्तम्भ का साथ का साथ दिया होगा। संजन दानपत्रों के अनुसार अनेक उच्च पदाधिकारियों ने भी स्तंभ का पक्ष लिया था। गोविन्द को इन परिस्थितियों का पहले से ही संदेह था, इसलिए इनके प्रतिरोध के लिए वह दृढ़ संकल्प एवं पूर्ण सन्नद्ध था। इन्द्र ने भी इस युद्ध में गोविन्द का सहयोग किया जिससे प्रसन्न होकर गोविन्द ने इसे दक्षिणी गुजरात का शासक नियुक्त किया था। गोविन्द अपनी व्यक्तिगत योग्यता एवं कूटनीतिक कुशलता के कारण अपने उद्देश्य में सफल हुआ। स्तंभ तथा उसके सहयोगी पराजित हुए। सज्जन दानपत्रों के अनुसार गोविन्द ने अपने शत्रुओं के साथ पूर्ण नम्रता का व्यवहार किया तथा स्तंभ को पुनः गंगवाड़ी का शासक नियुक्त कर दिया। स्तंभ के विद्रोह का दमन करने के पश्चात् गोविन्द तृतीय ने अपने उन समस्त पड़ोसियों को दण्डित करने के लिए अभियान प्रारंभ किया जो स्तंभ के साथ थे। गंगवाड़ी पर विजय- गंगवाड़ी उस अभियान का प्रथम शिकार हुआ। गंग नरेश शिवमार द्वितीय ध्रुव प्रथम के काल से राष्ट्रकूट बन्दीगृह में था। ऐसा प्रतीत होता है कि सिंहासनारोहण के बाद जब स्तंभ से विद्रोह का संकेत प्राप्त हुआ तो गोविन्द ने गंगनरेश को मुक्त कर दिया। मुक्त होने के बाद उसने “कोंगुणि राजाधिराज परमेश्वर श्रीपुरुष’’ जैसी स्वाधीनता सूचक उपाधियाँ धारण की। संभवतः शिवमार ने गोविन्द के विरुद्ध स्तंभ का साथ भी दिया। इसलिए राधनपुर लेख में अहंकारी तथा सज्जन दानपत्रों में कृतघ्न कहा गया है। राधनपुर दानपत्र के अनुसार गोविन्द ने बड़ी सरलता से उसे पराजित किया। 798 ई. के लगभग शिवमार पुनः बन्दी बनाया गया तथा गंगवाड़ी पुनः राष्ट्रकूट सीमा में सम्मिलित कर ली गई जहाँ कम से कम 802 ई. तक स्तंभ ने गवर्नर के रूप में शासन किया। नोलम्बवाड़ी पर विजय- चित्तलदुर्ग से उपलब्ध कुछ लेखों से ज्ञात होता है कि नोलम्बवाड़ी का शासक चारुपोन्नेर जगत्तुंग प्रभूतवर्ष गोविन्द का सामन्त था। संभवतः गोविन्द तृतीय से भयभीत होकर उसने स्वयमेव अधीनता स्वीकार कर ली। पल्लव विजय- तदुपरांत गोविन्द तृतीय ने काँची की ओर ध्यान दिया जहाँ पल्लव नरेश दन्तिवर्मन शासन कर रहा था। 803 ई. के ब्रिटिश संग्रहालय दानपत्र से गोविन्द तृतीय ने पल्लव नरेश दन्तिवर्मन को परास्त किया। ज्ञात होता है कि गोविन्द पल्लव विजय के पश्चात् रामेश्वरतीर्थ में शिविर डाले था। गोविन्द की यह विजय स्थायी न रही क्योकि शासनान्त में पुनः अभियान की आवश्यकता पड़ी थी। वेंगी के चालुक्यों से संघर्ष- दक्षिणी सीमा को सुरक्षित करने के बाद गोविन्द ने पूर्वी सीमा पर चालुक्यों की शक्ति का दमन करना चाहा। इसके समकालीन चालुक्य शासक विष्णुवर्धन चतुर्थ एवं विजयादित्य नरेन्द्रराज थे। विजयादित्य ही संभवतः इसका कोपभाजन बना। दोनों वंशों में वंशानुगत शत्रुता चल रही थी। विजयादित्य नवारूढ़ शासक था। जो बुरी तरह से अपमानित हुआ। राधनपुर दानपत्र के अनुसार वेंगी नरेश अश्वशाला में घास डालने के लिए तथा सज्जनपत्रों के अनुसार सैनिक शिविर का फर्श साफ करने के लिए बाध्य हुआ था। चालुक्यों के ईदर दानपत्र के अनुसार उस समय द्वादशवर्षीय संघर्ष प्रारंभ हुआ तथा 108 बार युद्ध हुए। गोविन्द के काल में राष्ट्रकूटों को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई किन्तु अमोघवर्ष प्रथम के काल में परिणाम विपरित हुआ। उत्तर भारतीय अभियान- नर्मदा के दक्षिण प्रायः सभी महत्वपूर्ण शासकों को पराजित करने के पश्चात् गोविन्द तृतीय ने उत्तर भारतीय अभियान की योजना बनाई। उत्तर भारत में ध्रुव प्रथम के प्रत्यावर्तन के बाद अनेक परिवर्तन दृष्टिगत होते हैं। वत्सराज की पराजय से प्रोत्साहित होकर धर्मपाल ने कन्नौज को अधिकृत कर लिया तथा इन्द्रायुद्ध को हटाकर अपने समर्थक चक्रायुद्ध को वहाँ का शासक नियुक्त किया। धर्मपाल के खालिमपुर दानपत्र से ज्ञात होता है कि भोज, मत्स्य, मद्र, कुरु, यदु, यवन अवन्ति तथा गान्धार के शासकों ने इसका अनुमोदन किया। किन्तु धर्मपाल की यह स्थिति स्थायी न रह सकी। प्रतिहार नरेश वत्सराज के पुत्र नागभट्ट द्वितीय ने डॉ. आर. सी. मजूमदार के अनुसार एक संघ बनाकर धर्मपाल एवं चक्रायुद्ध को पराजित किया। इस प्रकार 806 ई0 एवं 807 ई0 तक नागभट्ट द्वितीय उत्तर भारत की सर्वोच्च शक्ति के रूप में स्थिर हो चुका था। गोविन्द तृतीय का उत्तर भारतीय अभियान पूर्ण सुनियोजित...
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राष्ट्रकूट शासक गोविन्द द्वितीय एवं ध्रुव प्रथम(Rashtrakuta ruler Govind II and Dhruva I)

कृष्ण प्रथम के उपरांत उसका ज्येष्ठ पुत्र गोविन्द द्वितीय उत्तराधिकारी हुआ जिसे प्रभूतवर्ष, विक्रमावलोक अथवा प्रतापावलोक इत्यादि उपाधियों से विभूषित किया गया है। एक युवराज के रूप में उसने वेंगी के चालुक्यों को पराजित कर अपने शौर्य का परिचय दिया था। 773 ई. के लगभग सिंहासनारोहण के बाद दौलताबाद दानपत्रों के अनुसार पारिजात नामक शासक को पराजित कर गोवर्धन की रक्षा की थी। किन्तु अभी तक यह निश्चितरूपेण स्थिर नहीं किया जा सका कि यह पारिजात कौन था तथा गोवर्धन की रक्षा की आवश्यकता क्यों पड़ी। चूँकि गोवर्धन नासिक जिले में है जहाँ उसका अनुज ध्रुव गर्वनर के रूप में शासन कर रहा था। संभव है कि ध्रुव ने किसी प्रकार विद्रोह किया हो जिसे अस्थायी रूप से इसने पराजित किया हो। गोविन्द द्वितीय का शासन काल सिंहासनार्थ संघर्षों से परिपूर्ण रहा। यह एक विलासप्रिय तथा अकर्मण्य शासक रहा। कर्हाद पत्रों के अनुसार गोविन्द ने सम्पूर्ण शासनाभार अपने अनुज ध्रुव पर छोड़ दिया तथा स्वयं आनन्द सागर में लिप्त हो गया। ध्रुव ने गोविन्द द्वितीय की अयोग्यता से लाभ उठा कर सिंहासन को हड़पने की योजना बनाई। कभी तो यह गोविन्द द्वितीय की अधीनता स्वीकार करता एवं कभी स्वतंत्र शासक के रूप में दानपत्रों को जारी करता। जैसे ही गोविन्द द्वितीय को यह आभास हुआ, उसने ध्रुव को प्रशासन से पृथक् कर दिया। इस आंतरिक कलह से उत्साहित होकर सामन्तों ने  अपनी स्वाधीनता घोषित करना प्रारंभ किया। दौलताबाद पत्रों के अनुसार ध्रुव ने राष्ट्रकूट राज्य-लक्ष्मी को प्रतिस्थापित करने के लिए गोविन्द द्वितीय को सिंहासन से पदच्युत करना चाहा। गोविन्द द्वितीय ने सिंहासन की लिप्सा से काँची, गंगवाडी, वेंगी तथा मालवा के शासक का एक संघ बना कर ध्रुव को नियंत्रित करने के लिए आगे बढ़ा। गोविन्द द्वितीय के मित्रराज्य समयानुकूल उपस्थित होने में असमर्थ रहे तथा ध्रुव संघ को विघटित कर राष्ट्रकूट सिंहासन को प्राप्त करने में सफल रहा। डॉ. डी. आर. भण्डारकर ने ध्रुव के पिम्पेरी पत्रों के आधार पर इसका समय 775 ई. माना है। किन्तु अल्तेकर ने इस घटना की तिथि 780 ई. के लगभग माना है। गोविन्द द्वितीय के विषय में इसके बाद कोई सूचना नहीं प्राप्त होती। संभवतः इसी युद्ध में वह परलोकवासी हो गया। 780 ई. के लगभग ध्रुव निरापद सम्राट के रूप में राष्ट्रकूट राजपीठ पर आसीन हुआ। ध्रुव धारावर्ष ( 780-93 ई0) अपने अग्रज गोविन्द द्वितीय को अपदस्थ कर राष्ट्रकूट सिंहासन पर आसीन हुआ। धारावर्ष, निरुपम तथा कलिवल्लभ की उपाधियों को धारण किया। गोविन्द द्वितीय के धुलिया पत्रों तथा जिनसेन के हरिवंश पुराण के आधार पर अल्तेकर ने इसके सिंहासनारोहण की तिथि 780 ई. लगभग मानी है। हरिवंश पुराण के अनुसार कृष्ण का पुत्र क्षीरवल्लभ 783 ई. में दक्षिण में शासन कर रहा था।                                 शाकेष्वब्दशतेषु सप्तम् दिशां पंचोत्तरेषतरोम ।                             पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्णनृपजेश्रीवल्लभे दक्षिणाम्।। गोविन्द द्वितीय तथा ध्रुव दोनों ने श्रीवल्लभ की उपाधि धारण की थी। चूँकि गोविन्द की मृत्यु 783 ई. के पहले ही हो गयी थी, इसलिए हरिवंश पुराण में सभवतः ध्रुव प्रथम का उल्लेख हुआ है। वेंगी नरेश विष्णुवर्धन चतुर्थ की पुत्री शील महादेवी इसकी राजमहिषी थी। गोविन्द द्वितीय एवं ध्रुव के गृहयुद्ध के कारण आन्तरिक स्थिति निर्बल हो चली थी। इसलिए सिंहासन प्राप्त कर उसने सर्वप्रथम उन राज्यों को सम्प्रभ्ता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया जो इसके विरुद्ध अपना सिर उठा रहे थे तलकाड, वेंगी, काँची तथा मालवा के शासकों ने गोविन्द द्वितीय का साथ देकर स्वाभाविक शत्रुता मोल ली थी। गंगवाड़ी पर विजय- ध्रुव ने सर्वप्रथम अपने दक्षिणी पड़ोसी गंगवाड़ी की ओर ध्यान दिया जो कृष्ण प्रथम के काल में राष्ट्रकूटों की अधीनता स्वीकार कर रहे थे। समकालीन गंगशासक शिवमार द्वितीय कृष्ण प्रथम द्वारा पराजित श्रीपुरुष का पुत्र था। ध्रुव ने उसे दण्डित करने के लिए गंगवाड़ी को आक्रांत किया। गंग लेखों से ज्ञात होता है कि शिवमार ने राष्ट्रकूटों, चालुक्यों एवं हैहयों से युक्त बल्लभ सेना को पराजित किया था। किन्तु ध्रुव के समक्ष यह एकदम निर्बल था। राष्ट्रकूट लेखों में न मात्र शिवमार की पराजय वरन् उसे बन्दी बनाने का भी उल्लेख है। गंगों के मन्ने लेख से ज्ञात होता है कि शिवमार चतुर्दिक आपत्तियों से ग्रस्त था। ध्रुव का अभियान पूर्णतः सफल रहा। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र स्तंभ रणावलोक को गंगवाड़ी का शासक नियुक्त किया। पल्लव विजय- गंगों को पराजित करने के बाद ध्रुव ने काँची के पल्लवों की ओर ध्यान दिया जिसने राष्ट्रकूट गृहयुद्ध में गोविन्द द्वितीय का साथ दिया था। पल्लव नरेश दन्तिवर्मन पराजित हुआ राधनपुर अनुदान पत्र के अनुसार एक ओर समुद्र तथा दूसरी ओर राष्ट्रकूटों की अगणित सेनारूपी समुद्र से घिर जाने पर पल्लव शासक भयभीत हो गया और अपनी सेना के बहुत से हाथी ध्रुव को भेंट की तथा उपहार में ध्रुव को अनेक हाथी प्राप्त हुए। ध्रुव प्रथम दक्षिणी सीमा को सुरक्षित कर राजधानी वापस आया। इन युद्धों में ध्रुव को अपने श्वसुर वेंगीनरेश विष्णुवर्धन चतुर्थ से सैनिक सहायता प्राप्त हुई थी। उत्तर भारत पर अभियान- अब ध्रुव उत्तर-भारत की राजनीति में हस्तक्षेप करने के लिए तत्पर हुआ। ध्रुव के कई उत्तराधिकारियों ने विन्ध्य पार कर उत्तर की शक्तियों को प्रभावित करने का प्रयास किया। उस अभियान के क्या कारण हो सकते हैं, इस सम्बंध में विद्वानों ने विभिन्न संभावनायें व्यक्त की है। कारण- पालवंशीय गौड़ नरेश धर्मपाल का विवाह एक राष्ट्रकूट राजकुमारी रण्णादेवी के साथ हुआ था जो परवल की पुत्री थी। यह परवल कौन था? फ्लीट महोदय ने गोविन्द तृतीय माना है। संभव है कि यह कोई राष्ट्रकूट सामन्त रहा हो। किंचित विद्वानों की यह धारणा है कि पालों के निमंत्रण पर उनके सहायक के रूप में ध्रुव ने वत्सराज पर आक्रमण किया था। अल्तेकर के अनुसार – ध्रुव द्वारा धर्मपाल की पराजय से यह धारणा मान्य नहीं हो सकती है। किन्तु यह विचार एकदम निराधार भी नहीं कहा जा सकता क्यांेकि उसी प्रकार की घटना जयचंद एवं मूहम्मद गोरी के काल में भी घटी थी। जयचंद द्वारा मुहम्मद गोरी समर्थित था किन्तु पृथ्वीराज तृतीय के बाद मुहम्मद गोरी ने जयचंद को भी पराजित। किया था। संभव है कि ध्रुव प्रथम ने भी इसी तरह का व्यवहार किया हो।  इस अभियान को प्रतिक्रियावादी नीति का परिणाम भी स्वीकार किया गया है। दक्षिण भारत प्रारंभ से ही उत्तर भारतीय शक्तियों द्वारा अभिभूत रहा। आर्यों के आगमन काल से यह क्रम प्रारंभ हुआ। नन्दों, मौर्यों...
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प्राचीन भारत में आकाशचारी देव गंधर्व(praacheen bhaarat mein aakaashachaaree dev gandharv)

प्राचीन भारतीय देव मण्डल में देवताओं के साथ -साथ गणों का भी उल्लेख प्राचीन भारतीय साहित्य में मिलता है। अथर्ववेद की तैत्तरीय संहिता में देवताओं के परिचारकों के रूप में गण देवताओं का भी उल्लेख मिलता है। ज्ञान का अथाह सागर वेद है। यह एक विशाल साहित्य का संग्रह है। महर्षि दयानन्द के अनुसार ‘‘विदन्ति- जाननित, विद्यन्ते- भवन्ति सर्वाः सत्य-विद्या यैः यत्र वस स वेदः।’’ अर्थात् जिसके अन्तर्गत सभी सत्य विद्याओं का ज्ञान प्राप्त होता है उसे वेद कहते हैं। प्राचीन भारतीय देवताओं का व्यापक वर्णन वैदिक साहित्य और संहिता गन्थ्रों में मिलता है। भारत की धार्मिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों को इन्हीं देवताओं ने प्रभावित किया है। प्राचीन भारत के लोग विभिन्न प्रकार के तंत्र मंत्र, जप, यज्ञ, हवन, पूजन आदि क्रिया ओं में विश्वास करते थे। उन तंत्र-मंत्र, जप आदि के द्वारा सिद्धि प्राप्त करने के लिए कुछ लोग समाज से दूर पर्वतीय क्षेत्रों में तथा नदियों के तटों पर अथवा जंगलों में निवास करते थे। सिद्धि के द्वारा अलौकिक शक्ति प्राप्त करने के कारण ही उन्हें अर्द्धदैवी -पुरुष कहा जाने लगा। उन अर्द्धदैवी -पुरुषों में गन्धर्वों का स्थान विशेष महत्त्वपूर्ण है। वे अलौकिक पुरुष माने जाते थे। अमरकोश में उन्हें गंधर्व, किन्नर, पिशाच, गुह्यक, सिद्ध आदि दस देवताओं की श्रेणी में गिनाया गया है। ‘‘विद्याधरोप्सरो यक्षरक्षे गन्धर्व किन्नराः, पिशाचो गुह्यकः सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः।’’  संभवतः सर्वप्रथम वे साधारण मानव थे, किन्तु कालान्तर में तंत्र-मंत्र तथा जादुई शक्ति प्राप्त कर लेने पर अर्द्धदैवी -पुरुष कहे जाने लगे। प्रमाणों से ज्ञात होता है कि गन्धर्व हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करते थे तथा शिव की पूजा अर्चना किया करते थे। स्कन्द पुराण में गन्धर्व, किन्नर, विद्याधर,अप्सरा, नाग आदि गण देवताओं का निवास स्थान देवताओं के साथ ही स्वर्ग में बताया गया है।गन्धर्व का पुरुषवाचक अर्थ वायु से उत्पन्न होने वाले उस समूह का नाम है जो शिव के अनुयायी (गण) के रूप में दिखाई देते हैं तथा जिनका आवास हिमालय का पर्वतीय क्षेत्र माना जाता है। पेंजर ने कथासरित्सागर के आधार पर यह बताने का प्रयास किया है कि प्राचीन काल में कुछ लोग तंत्र-मंत्र अथवा जादुई शक्ति प्राप्त करने के लिए सन्यस्त जीवन व्यतीत करते थे और उस मंत्र शक्ति (ज्ञान) को उपलब्ध कर लेने के पश्चात उसका (ज्ञान का) उपयोग अपने सही अथवा गलत उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए करते थे। कालान्तर में इस प्रकार की विद्याशक्ति (जिसे विज्ञान अथवा कला भी कहा जा सकता है) को अर्जित करने वाले लोग ही गन्धर्व या विद्याधर कहे जाने लगे। रामायण में भी इन्हें महाविद्याओं को ज्ञाता के रूप में उल्लिखित किया गया है। विद्या अथवा मंत्र शक्ति प्राप्त कर लेने पर उसी की सिद्धि आदि के उद्देश्य से ये लोग समाज से दूर जंगल अथवा पहाड़ियों पर निवास करने लगे। अप्सरायें, देव, दानव, यक्ष, गन्धर्व, पिशाच, नाग, किन्नर, विद्याधर आदि। कुछ विद्वानों का मानना है कि पूर्व बौद्ध काल में देवताओं के शास्वत शत्रु असुर, दानव, राक्षस, गन्धर्व , किन्नर तथा विद्याधर आदि अदृश्य रूप से उड़ते थे तथा वे सभी प्रकार के मंत्र अथवा जादुई शक्ति के विशेषाधिकारी समझे जाते थे। ये दुष्टात्मा भी माने जाते थे, इन्होने (गन्धर्व, किन्नर, यक्ष, विद्याधर, राक्षस आदि) तत्कालीन समाज के लोगों की सुरक्षा को खतरे में डाल दिया था। बौद्ध ग्रंथों के आधार पर यहाँ मेहता ने विद्याधरों और गन्धर्वों को दुष्टाचरण करने वाला माना है। किन्तु इसके विपरीत प्रोफेसर ए0 एल0 बाशम का विचार है कि प्राचीन काल में विद्याधरों को अंतरिक्ष जादूगर तथा रहस्यपूर्ण (गूढ़) जीव माना जाता था जो हिमालय की पहाड़ियों में जादू-टोने वाली नगरी में निवास करते थे। बाशम के विचार में गन्धर्व, विद्याधर सर्व साधारण के हितैषी थे तथा वे ऊपर आकाश में उड़ सकते थे और स्वेच्छया अपना रूप बदल भी सकते थे। अलबरूनी ने विध्द्याधरों को आठ प्रकार की दैवी जातियों में से एक माना है। इससे पता पलता है कि राक्षस, गन्धर्व अथवा विद्याधर माया जाल फैलाते थे जो कि क्षणिक होता था। प्रोफेसर के ए. एन. शास्त्री का विचार है कि मोरियर ( जिसे हम मौर्य कहते हैं) चक्रवाल सम्राट अथवा विद्याधर और नाग कहे जाते हैं। चूँकि मौर्य लोग उत्तर भारत में हिमालय के आस पास ही रहते थे, अतः स्पष्ट होता है कि विद्याधरों या गन्धर्व का आवास भी हिंमालय के पहाही भागों में रहा होगा। महाभारत के वनपर्व में विद्याधरों को गंधमादन पर्वत के उच्च शिखर पर गन्धर्व, किन्नर और नागों के साथ निवास करते हुए उल्लिखित किया गया है। इसी पर्व के एक अन्य स्थान पर अर्षिषेण गंधमादन पर्वत की शोभा का वर्णन करते हुए युधिष्ठिर से कहते है कि यहाँ विद्याधरों के गण भी सुन्दर फूलों के हार पहने हुए अत्यन्त मनोहर दिखाई पड रहे हैं। कथासरित्सागर तथा समराइच्चकहा में विद्यापरो को पर्वतों पर अथवा पहाड़ी वालें एकांत स्थान में निवास करते हुए उल्लिखित किया गया है। वहाँ उनके नगर ( विद्याधरपुरम् ) तथा उनके नगर शासक (विद्याधराधिप) भी होते थे। अपने ही समाज अववा समूह में जो विद्याधर शक्तिशाली (मंत्र अथवा विद्या की सिद्धि द्वारा अर्जित शक्ति से) होता था वह आसानी से उनका अधिपति बन जाता था तथा उन पर अपना शासन करता था। हिमालय में कुमायँ-गढ़वाल क्षेत्र के पूर्व मध्यकालीन कुछ हिन्दू शासकों को उनके दान-पत्रों के आधार पर कुछ मुसलमान लेखको ने 11वीं शदी के चंदेल शासक विद्याधर से संबंधित बताया है। किन्तु रामायण के उल्लेख से पता चलता है कि हनुमान जी लंका प्रस्थान करने के पूर्व महेन्द्र पर्वत पर सिद्ध, विद्याधर, तथा किन्नरों को खेलकूद करते हुए देखा था। जिससे स्पष्ट होता है कि विद्याधर उत्तर भारत में ही नहीं वरन् दक्षिण भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में भी निवास करते थे। सर्वप्रथम ये समाज से विरक्त होकर एकान्त निर्जन पहाड़ियों पर निवास करते थे, किन्तु समय की गति एवं परिवर्तनों से प्रभावित होकर वे अपना सम्बन्ध सामाजिक लोगों से भी जोड़ने लगे। प्राचीन भारतीय चित्रकला में विद्याधरों को उड़ते हुए चित्रित किया गया है। वे माला पहने हुए पुष्प वर्षा करने वाले देव के रूप में उत्कीर्ण किये गये हैं। भरहुत, सांची और अमरावती से प्राप्त बहुत से प्राचीन बौद्ध अवशेषों में तथा उदयगिरि एवं भुवनेश्वर (उड़ीसा) के निकट खण्डगिरि की जैन गुफाओं में भी इस तरह के चित्र देखने को मिलते हैं। विद्याधरों के चित्र कलाकारों द्वारा...
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