प्राचीन भारतीय देव मण्डल में देवताओं के साथ -साथ गणों का भी उल्लेख प्राचीन भारतीय साहित्य में मिलता है। अथर्ववेद की तैत्तरीय संहिता में देवताओं के परिचारकों के रूप में गण देवताओं का भी उल्लेख मिलता है। ज्ञान का अथाह सागर वेद है। यह एक विशाल साहित्य का संग्रह है। महर्षि दयानन्द के अनुसार ‘‘विदन्ति- जाननित, विद्यन्ते- भवन्ति सर्वाः सत्य-विद्या यैः यत्र वस स वेदः।’’ अर्थात् जिसके अन्तर्गत सभी सत्य विद्याओं का ज्ञान प्राप्त होता है उसे वेद कहते हैं। प्राचीन भारतीय देवताओं का व्यापक वर्णन वैदिक साहित्य और संहिता गन्थ्रों में मिलता है। भारत की धार्मिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों को इन्हीं देवताओं ने प्रभावित किया है। प्राचीन भारत के लोग विभिन्न प्रकार के तंत्र मंत्र, जप, यज्ञ, हवन, पूजन आदि क्रिया ओं में विश्वास करते थे। उन तंत्र-मंत्र, जप आदि के द्वारा सिद्धि प्राप्त करने के लिए कुछ लोग समाज से दूर पर्वतीय क्षेत्रों में तथा नदियों के तटों पर अथवा जंगलों में निवास करते थे। सिद्धि के द्वारा अलौकिक शक्ति प्राप्त करने के कारण ही उन्हें अर्द्धदैवी -पुरुष कहा जाने लगा। उन अर्द्धदैवी -पुरुषों में गन्धर्वों का स्थान विशेष महत्त्वपूर्ण है। वे अलौकिक पुरुष माने जाते थे। अमरकोश में उन्हें गंधर्व, किन्नर, पिशाच, गुह्यक, सिद्ध आदि दस देवताओं की श्रेणी में गिनाया गया है। ‘‘विद्याधरोप्सरो यक्षरक्षे गन्धर्व किन्नराः, पिशाचो गुह्यकः सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः।’’ संभवतः सर्वप्रथम वे साधारण मानव थे, किन्तु कालान्तर में तंत्र-मंत्र तथा जादुई शक्ति प्राप्त कर लेने पर अर्द्धदैवी -पुरुष कहे जाने लगे। प्रमाणों से ज्ञात होता है कि गन्धर्व हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करते थे तथा शिव की पूजा अर्चना किया करते थे। स्कन्द पुराण में गन्धर्व, किन्नर, विद्याधर,अप्सरा, नाग आदि गण देवताओं का निवास स्थान देवताओं के साथ ही स्वर्ग में बताया गया है।गन्धर्व का पुरुषवाचक अर्थ वायु से उत्पन्न होने वाले उस समूह का नाम है जो शिव के अनुयायी (गण) के रूप में दिखाई देते हैं तथा जिनका आवास हिमालय का पर्वतीय क्षेत्र माना जाता है। पेंजर ने कथासरित्सागर के आधार पर यह बताने का प्रयास किया है कि प्राचीन काल में कुछ लोग तंत्र-मंत्र अथवा जादुई शक्ति प्राप्त करने के लिए सन्यस्त जीवन व्यतीत करते थे और उस मंत्र शक्ति (ज्ञान) को उपलब्ध कर लेने के पश्चात उसका (ज्ञान का) उपयोग अपने सही अथवा गलत उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए करते थे। कालान्तर में इस प्रकार की विद्याशक्ति (जिसे विज्ञान अथवा कला भी कहा जा सकता है) को अर्जित करने वाले लोग ही गन्धर्व या विद्याधर कहे जाने लगे। रामायण में भी इन्हें महाविद्याओं को ज्ञाता के रूप में उल्लिखित किया गया है। विद्या अथवा मंत्र शक्ति प्राप्त कर लेने पर उसी की सिद्धि आदि के उद्देश्य से ये लोग समाज से दूर जंगल अथवा पहाड़ियों पर निवास करने लगे। अप्सरायें, देव, दानव, यक्ष, गन्धर्व, पिशाच, नाग, किन्नर, विद्याधर आदि। कुछ विद्वानों का मानना है कि पूर्व बौद्ध काल में देवताओं के शास्वत शत्रु असुर, दानव, राक्षस, गन्धर्व , किन्नर तथा विद्याधर आदि अदृश्य रूप से उड़ते थे तथा वे सभी प्रकार के मंत्र अथवा जादुई शक्ति के विशेषाधिकारी समझे जाते थे। ये दुष्टात्मा भी माने जाते थे, इन्होने (गन्धर्व, किन्नर, यक्ष, विद्याधर, राक्षस आदि) तत्कालीन समाज के लोगों की सुरक्षा को खतरे में डाल दिया था। बौद्ध ग्रंथों के आधार पर यहाँ मेहता ने विद्याधरों और गन्धर्वों को दुष्टाचरण करने वाला माना है। किन्तु इसके विपरीत प्रोफेसर ए0 एल0 बाशम का विचार है कि प्राचीन काल में विद्याधरों को अंतरिक्ष जादूगर तथा रहस्यपूर्ण (गूढ़) जीव माना जाता था जो हिमालय की पहाड़ियों में जादू-टोने वाली नगरी में निवास करते थे। बाशम के विचार में गन्धर्व, विद्याधर सर्व साधारण के हितैषी थे तथा वे ऊपर आकाश में उड़ सकते थे और स्वेच्छया अपना रूप बदल भी सकते थे। अलबरूनी ने विध्द्याधरों को आठ प्रकार की दैवी जातियों में से एक माना है। इससे पता पलता है कि राक्षस, गन्धर्व अथवा विद्याधर माया जाल फैलाते थे जो कि क्षणिक होता था। प्रोफेसर के ए. एन. शास्त्री का विचार है कि मोरियर ( जिसे हम मौर्य कहते हैं) चक्रवाल सम्राट अथवा विद्याधर और नाग कहे जाते हैं। चूँकि मौर्य लोग उत्तर भारत में हिमालय के आस पास ही रहते थे, अतः स्पष्ट होता है कि विद्याधरों या गन्धर्व का आवास भी हिंमालय के पहाही भागों में रहा होगा। महाभारत के वनपर्व में विद्याधरों को गंधमादन पर्वत के उच्च शिखर पर गन्धर्व, किन्नर और नागों के साथ निवास करते हुए उल्लिखित किया गया है। इसी पर्व के एक अन्य स्थान पर अर्षिषेण गंधमादन पर्वत की शोभा का वर्णन करते हुए युधिष्ठिर से कहते है कि यहाँ विद्याधरों के गण भी सुन्दर फूलों के हार पहने हुए अत्यन्त मनोहर दिखाई पड रहे हैं। कथासरित्सागर तथा समराइच्चकहा में विद्यापरो को पर्वतों पर अथवा पहाड़ी वालें एकांत स्थान में निवास करते हुए उल्लिखित किया गया है। वहाँ उनके नगर ( विद्याधरपुरम् ) तथा उनके नगर शासक (विद्याधराधिप) भी होते थे। अपने ही समाज अववा समूह में जो विद्याधर शक्तिशाली (मंत्र अथवा विद्या की सिद्धि द्वारा अर्जित शक्ति से) होता था वह आसानी से उनका अधिपति बन जाता था तथा उन पर अपना शासन करता था। हिमालय में कुमायँ-गढ़वाल क्षेत्र के पूर्व मध्यकालीन कुछ हिन्दू शासकों को उनके दान-पत्रों के आधार पर कुछ मुसलमान लेखको ने 11वीं शदी के चंदेल शासक विद्याधर से संबंधित बताया है। किन्तु रामायण के उल्लेख से पता चलता है कि हनुमान जी लंका प्रस्थान करने के पूर्व महेन्द्र पर्वत पर सिद्ध, विद्याधर, तथा किन्नरों को खेलकूद करते हुए देखा था। जिससे स्पष्ट होता है कि विद्याधर उत्तर भारत में ही नहीं वरन् दक्षिण भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में भी निवास करते थे। सर्वप्रथम ये समाज से विरक्त होकर एकान्त निर्जन पहाड़ियों पर निवास करते थे, किन्तु समय की गति एवं परिवर्तनों से प्रभावित होकर वे अपना सम्बन्ध सामाजिक लोगों से भी जोड़ने लगे। प्राचीन भारतीय चित्रकला में विद्याधरों को उड़ते हुए चित्रित किया गया है। वे माला पहने हुए पुष्प वर्षा करने वाले देव के रूप में उत्कीर्ण किये गये हैं। भरहुत, सांची और अमरावती से प्राप्त बहुत से प्राचीन बौद्ध अवशेषों में तथा उदयगिरि एवं भुवनेश्वर (उड़ीसा) के निकट खण्डगिरि की जैन गुफाओं में भी इस तरह के चित्र देखने को मिलते हैं। विद्याधरों के चित्र कलाकारों द्वारा...
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