December 2020

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राष्ट्रकूट शासक दन्तिदुर्ग (735ई0 या 745-755 या 758ई0) (भाग- दो)Rashtrakuta ruler Dantidurga (735 AD or 745-755 or 758 AD) (Part-II)

इन्द्र प्रथम के बाद उसका पुत्र दन्तिदुर्ग उत्तराधिकारी हुआ। इसके सिंहासनारोहण की तिथि मूलतः 735 एवं 745 ई0 के मध्य निर्धारित कर सकते हैं। दन्तिदुर्ग ने उस राजवंश को एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में परिवर्तित किया। उसके सिंहासनारोहण के समय उत्तर में अरबों के आक्रमण से कच्छ, काठियावाड़ एवं गुजरात की कमर टूट चुकी थी। मैत्रक शासक शीलादित्य पंचम तथा गुर्जर नरेश जयभट्ट तृतीय ने उनके अभियान को अवरुद्ध करने का सफल प्रयास किया किन्तु स्थायी सफलता अर्जित करने में असमर्थ रहे। गुजरात के चालुक्य नरेश पुलकेशिन् ने जुनैद के आक्रमण को अवरुद्ध कर चालुक्य विक्रमादित्य द्वितीय द्वारा नव उपाधियों से विभूषित किया गया। चालुक्यों की स्थिति एकदम निर्बल हो चुकी थी। पल्लवों के साथ दीर्घकालीन संघर्ष से चालुक्यों की आर्थिक एवं सैनिक शक्ति क्षीण हो चुकी थी। दन्तिदुर्ग ने एक सफल राजनीतिज्ञ एवं कूटनीतिज्ञ के रूप में उन परिस्थितियों से लाभ उठाकर राष्ट्रकूट शक्ति-स्तम्भ को सुदृढ़ किया। दन्तिदुर्ग के शासनकाल की घटनाओं का विस्तृत विवरण ७५४ ई. के समनगद अनुदान पत्रों तथा एलोरा के खण्डित दशावतार गुहालेख में प्राप्त होती है। एलोरा, समनगद तथा इन्द्र तृतीय के वेगुभरा लेखों से यह ज्ञात होता है कि उसने काँची, कलिंग, श्रीशैल, कोसल, मालव, लाट, टंक तथा सिन्ध के शासकों को पराजित किया था। किन्तु इन साक्ष्यों से यह विदित नहीं होता कि उसने चालुक्यों को उपर्युक्त शासकों को पराजित करने के पूर्व या पश्चात् पराजित किया था। दन्तिदुर्ग के 742 ई0 के एलोरा पत्रों में ’पृथ्वीवल्लभ’ तथा ‘खड़गावलोक’ उपाधियों से विभूषित किया गया है जबकि इसी लेख में इसके पूर्ववर्ती शासकों को मात्र ‘समधिगत पञ्चमहाशब्द’ तथा ‘सामन्ताधिपति’ जैसी उपाधियाँ प्रदान की गई है। इससे यह अनुमान होता है कि 742 ई0 के लगभग ही इसने किसी युद्ध में विशिष्ट ख्याति अर्जित की थी। सम्भव हैं कि इसने चालुक्य विक्रमादित्य के सामन्त के रूप में अरबों से संघर्ष किया हो और उन्हें आगे बढ़ने से अवरुद्ध किया हो। प्रारम्भिक विजयें- सम्भवतः 747ई0 में विक्रमादित्य द्वितीय की मृत्यु तक यह चालुक्यो के आज्ञाकारी सामन्त के रूप में उनकी सहायता करता रहा। युवराज कीर्तिवर्मन के साथ 743 ई0 में ही इसने काँची पर आक्रमण कर सैनिक योग्यता का परिचय दिया था। काँची विजय से प्रत्यावर्तन  के बाद कर्नूल जिले में श्रीशैल के शासक को पराजित किया। अल्तेकर महोदय का अनुमान है उस समय सम्पूर्ण कर्णाटक कीर्तिवर्मन द्वितीय के अधीन था तथा उसके सामन्त के रूप में ही दन्तिदुर्ग ने कॉँची एवं शैल पर आक्रमण किया होगा। दुन्तिदुर्ग की इन सफलताओं ने उसे समीपवती शासकों को आक्रान्त करने के लिए प्रेरित किया। उसकी माँ चालुक्य राजकुमारी थी जिसमें सामाजिक महत्वाकांक्षा जन्म से ही विद्यमान थी। कर्णाटक पर चालुक्यों का शक्तिशाली शासन था। यह मात्र बरार एवं पश्चिमी मध्य प्रदेश का ही स्वामी था। इसलिए उसने सर्वप्रथम पूरब-पश्चिम की ओर अभियान प्रारम्भ किया। पूर्व में इसने कोसल, रायपुर के समीप सिरपुर के उदयन तथा रामटेक के समीप श्रीवर्धन के शासक जयवर्धन जो सम्भवतः पृथ्वीवल्लभ नाम से भी अभिहित है, को आक्रान्त किया। समनगद लेख के अनुसार दन्तिदुगर्ग की हस्तिसेना ने माही तथा महानदी में अवगाहन किया जिससे महाकोसल अर्थात मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ क्षेत्र पर विजय का संकेत प्राप्त होता है। उस समय कोशल नरेश कौन था? निश्चितरूपेण ज्ञात नहीं होता। सम्भवतः प्रत्यावर्तन के समय कलिंग को भी इसने पराजित किया। पल्लव शासक नन्दिवर्मन द्वितीय के उदयेन्दिरम लेख में उसे उदयन एवं व्याघ्रराज का विजेता कहा गया है। सम्भव है कि चालुक्यों के स्वाभाविक शत्रु पल्लव शासक नन्दिवर्मन द्वितीय के साथ दन्तिदुर्ग ने संघ का निर्माण किया हो और दोनों सम्मिलित रूप से सिरपुर एवं श्रीवर्धन पर आक्रमण किया हो। दुव्रिया महोदय ने बहूर लेख के आधार पर प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि दन्तिदुर्ग ने अपनी पुत्री शंखा का विवाह नन्दिवर्मन के साथ किया था किन्तु इस मत में सबसे बडी आपत्ति यह है कि बहूर लेख में शंखा को राष्ट्रकुट राजकुमारी तो कहा गया है किन्तु उसके पिता का नाम नहीं दिया गया है। दशावतार गुहालेख में काँची विजय का उल्लेख है, साथ ही कोसल राज्य के विजय में पल्लव नरेश के साथ संघ की भी कल्पना की जाती है। चूंकि नन्दिवर्मन परमेश्वरवर्मन का पुत्र एवं उत्तराधिकारी न था। इसलिए सम्भव है कि नन्दिवर्मन ने का्ँची के सिंहासन को हड़पने के लिए दन्तिदुर्ग से मैत्री की हो तथा उसे काँची का सिंहासन दिलाने के लिए काँची पर आक्रमण भी करना पड़ा हो। पूर्व में अपनी शक्ति सुदृढ़ करने के बाद दन्तिदुर्ग ने नन्दीपुरी के गुर्जरों तथा नौसारी के चालुक्यों की ओर ध्यान दिया। अरब आक्रमण के फलस्वरूप ये राज्य पहले से ही अस्त-व्यस्त थे। दन्तिदुर्ग को सरलतापूर्वक सफलता प्राप्त हुई। गुजरात के चालुक्य शासक पुलकेशिन तथा गुर्जर नरेश रट्ट तृतीय के किसी उत्तराधिकारी का ज्ञान नहीं प्राप्त होता। दन्तिदुर्ग ने चचेरे भाई गोविन्द को दक्षिणी गुजरात का शासक नियुक्त किया तथा नन्दीपुरी को भी राष्ट्रकूट राज्य में सम्मिलित किया। चालुक्यों पर विजय- दन्तिदुर्ग की इस बढ़ती हुई शक्ति से चालुक्य शासक कीर्तिवर्मन द्वितीय भयभीत हुआ।  उसने नौसारी की चालुक्य शाखा को पुनसर््थापित करने का अवश्य ही प्रयास भी किया होगा। जिससे दन्तिदुर्ग के साथ संघर्ष अपरिहार्य हो गया। दोनों के मध्य कहाँ संघर्ष हुआ? अनिश्चित है। सम्भवतः मध्य महाराष्ट्र में कहीं दोनों के बीच निर्णायक संघर्ष हुआ। दन्तिदुर्ग अपनी योजना में सफल हुआ। 754 ई0 में दन्तिदुर्ग द्वारा दिये गये एक गाँव के दान का विवरण उपलब्ध होता है। उसके बाद भी कीर्तिवर्मन पूर्णतः पराजित नहीं हुआ क्योंकि सितम्बर, 757 ई0 में भीमा नदी के तट पर उसकी विजयवाहिनी के शिविर का उल्लेख प्राप्त होता है। चालुक्यों के विनाश का कार्य कृष्ण प्रथम ने पूर्ण किया। इसीलिए वानिडिन्डोरी, राधनपुर तथा बड़ौदा इत्यादि दानपत्रों में चालुक्यों के उन्मूलन का श्रेय कृष्ण प्रथम को दिया गया है। इनके विपरीत कृष्ण प्रथम के ही काल के भारत इतिहास संशोधक मण्डल, तेलगाँव, तथा भाण्डुक लेखों में चालुक्य विजय का श्रेय दन्तिदुर्ग को ही दिया गया है। डॉ. अल्तेकर महोदय का यह अनुमान है कि कृष्ण प्रथम के बाद उसके पुत्र-पौत्र उत्तराधिकारी हुए, जिनकी वंशावली में दन्तिदुर्ग का नाम ही कम प्राप्त होता है। साथ ही कार्य की पूर्णता कृष्ण प्रथम द्वारा हुई। इसीलिए कृष्ण प्रथम को भी यह श्रेय दिया गया है जबकि वास्तव में दन्तिदुर्ग ने कीर्तिवर्मन द्वितीय को शक्तिहीन बना दिया था। उपर्युक्त...
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