राष्ट्रकूट राजवंश दक्षिण भारत की उन प्रमुख शक्तियों में विशिष्ट महत्व रखता है जिसने न मात्र दक्षिण वरन् अखिल भारतीय राजनीति को प्रभावित किया है। आठवीं शताब्दी ई. के मध्य दन्तिदुर्ग ने उस वंश की राजनीतिक प्रतिष्ठा को स्थायित्व प्रदान किया, इसीलिए प्रमुख राष्ट्रकूट शाखा को सामान्यतः दन्तिदुर्ग शाखा के नाम से अभिहित किया गया है। दन्तिदुर्ग शाखा के अतिरिक्त अन्य राष्ट्रकूट परिवारों के भी उल्लेख उपलब्ध होते हैं। छठीं एवं सातवीं शती में दक्षिणापथ के विभिन्न भागों में ऐसे किंचित सामन्तों के ज्ञान प्राप्त होते हैं जो राष्ट्रकूटों से सम्बद्ध प्रतीत होते हैं। मानपुर का अभिमन्यु प्राचीनतम राष्ट्रकूट शासक ज्ञात होता है जिसके दानपत्रों में इसे मानांक का प्रपौत्र, देवराज का पौत्र तथा भविष्य का पुत्र बतलाया गया है। यद्यपि दानपत्र तिथिविहीन है किन्तु लिपिगत विशेषताओं के आधार पर इसे ७वीं शती में निर्धारित कर सकते हैं। भगवानलाल इन्द्र जी ने मानपुर की समता मान्यखेत या मालखेद से की है किन्तु मानपुर तथा मान्यखेत की राजनीतिक प्रतिष्ठा तथा नामगत वैभिन्य के कारण इस मत में विश्वास नहीं किया जा सकता। यह मान्यपुर या मानपुर आधुनिक होशंगाबाद जिले में स्थित है। राष्ट्रकूटों का राजचिन्ह सिंह था जबकि मान्यखेत के राष्ट्रकूटों ने गरुड़ या शिव को ग्रहण किया था। इसलिए दोनों शाखाओं को एकीकृत नहीं किया जा सकता। बादामी के चालुक्य साम्राज्य के मध्य में दक्षिण मराठा क्षेत्र से सेन्द्रक परिवार की सूचना प्राप्त होती है जो चालुक्यों से सम्बन्धित थे। सातवीं शताब्दी में ये अपने पड़ोसी राष्ट्रकूटों से सम्बद्ध तो अवश्य थे किन्तु प्रमुख राष्ट्रकूट शाखा से भिन्न थे। राष्ट्रकूटों के निश्चित उल्लेख तीवरखेद तथा मुल्ताई दानपत्रों से भी प्राप्त होते हैं। फ्लीट ने इन्हें जारी करने वाले शासक को नन्दराज पढ़ा है। किन्तु सूक्ष्म अध्ययन के फलस्वरूप अल्तेकर ने नन्दराज स्वीकार किया है। तीवरखेद पत्र का समय 631-32ई0 तथा मुल्ताई पत्र का समय 709-10ई है। इन पत्रों से राष्ट्रकूटों की निम्नलिखित वंशावली प्राप्त होती है- १. दुर्गराज २. गोविन्दराज (पुत्र) ३. स्वामिकराज (पुत्र) ४. नन्नराज युधासुर (पुत्र) दन्तिदुर्ग की वंशावली नन्नराज से प्रारम्भ होती है। तीवरखेद तथा मुल्ताई पत्रों के अन्य शासकों के नाम दन्तिदुर्ग शाखा के शासकों के अधिक समीप हैं। सम्भव है कि दन्तिदुर्ग शाखा के राष्ट्रकूटों तथा उपर्युक्त रष्ट्रकूट शासकों में कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रक्त सम्बन्ध रहा हो। दोनों के राजचिन्ह एवं शासित क्षेत्रों में भी तादात्म्य है। कर्कराज द्वितीय के 757 ई. के अंतरोली-छरोली पत्रों से एक राष्ट्रकूट परिवार की जानकारी प्राप्त होती है। इस लेख से निम्नलिखित शासकों का क्रमिक ज्ञान प्राप्त होता है- १. कर्कराज प्रथम 2. ध्रुव (पुत्र) 3. गोविन्द (पुत्र) 4. कर्क द्वितीय (पुत्र) 750-770ई0 अन्तरोली-छरोली का पुरातन नाम स्थावरपल्लिका है जो सूरत से 10 मील उत्तर-पूर्व स्थित है। दानग्रहण करने वाला भड़ौच जिले में जम्बुसार का निवासी बतलाया गया है। इससे कर्क द्वितीय को सूरत एवं भड़ौच का शासक मान सकते हैं। कर्क द्वितीय दन्तिदुर्ग का समकालीन है। दोनों परिवारों में निकटतम सम्बन्ध प्रतीत होता है। भगवानलाल इन्द्र जी ने तो ध्रुव को दन्तिदुर्ग के पिता इन्द्रप्रथम का भाई माना है जो अस्वाभाविक नहीं हो सकता। डॉ. डी. आर. भण्डारकर ने अन्तरोली-छरोली लेख के कर्क एवं गोविन्द के दन्तिदुर्ग शाखा के इन्द्र प्रथम का पिता एवं पितामह माना है। किन्तु उस मत का स्वीकार करने में अनेक बाधाएँ हैं। प्रथम तो दन्तिदुर्ग तथा कर्क के पूर्वजों के नाम में साम्य नहीं है। द्वितीय आपत्ति दोनों वशांवलियों के शासकों के काल के सम्बन्ध में है। कर्क द्वितीय जब दन्तिदुर्ग का समकालीन सम्भावित है तो वह दन्तिदुर्ग के पिता इन्द्र का पिता कैसे हो सकता है? चालुक्य विक्रमादित्य द्वितीय के नरवन पत्रों से ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूट शिवराज के पुत्र गोविन्दराज के अनुग्रह पर चालुक्य नरेश ने नरवन गाँव ब्राह्मणों को दान में दिया था। काल-निर्धारण के आधार पर गोविन्द की समता अन्तरोली-छरोली के गोविन्द से की जा सकती है किन्तु इस सम्बन्ध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कठिनाई यह है कि अंतरोली-छरोली लेख में गोविन्द का पिता ध्रुव है जबकि नरवन पत्रों में शिवराज। इसी प्रकार आभिलेखिक विवरणों के आधार पर हुल्टश तथा फ्लीट प्रभृति विद्वानों ने राष्ट्रकूटों के अन्य परिवारों का संकेत दिया है जो अधिक सत्याधृत नहीं हैं। इस सम्बन्ध में कोई भी निर्णायक मत नहीं दिया जा सकता कि राष्ट्रकूटों की कितनी शाखाएं थीं। बादामी के चालुक्य शासकों के अधीन अनेक राष्ट्रकूट परिवार राजनीतिक अधिकारियों के रूप में कार्यरत थे जिनमें दन्तिदुर्ग शाखा विशेष शक्तिशाली रही। अंत में इसी शाखा ने बादामी के चालुक्यों का विनाश कर स्वतंत्र राष्ट्रकूट सत्ता की स्थापना की। उद्भव- राष्ट्रकूटों की मुख्य शाखा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न कथाएँ तथा आभिलेखिक प्रमाण प्राप्त होते हैं, किन्तु किसी से भी संदेहरहित ज्ञान नहीं उपलब्ध होता है। इसीलिए विद्वानों ने इस विषय पर विभिन्र प्रकार की सम्भावनायें व्यक्त की हैं- 1. परवर्ती राष्ट्रकूट अभिलेखों में इस वंश को यदु से सम्बद्ध किया गया है। भगवानलाल इन्द्र जी का यह अनुमान है कि यह सिद्धान्त 930 ई0 से प्रारम्भ हुआ जबकि राष्ट्रकूटों ने सिंह के स्थान पर विष्णु के वाहन गरुड़ को राजचिन्ह के रूप में स्वीकार किया किन्तु यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सिंह मानपुर के राष्ट्रकूटों का राजचिन्ह था न कि मालखेद के राष्ट्रकूटों का। राष्ट्रकूटों के प्रारम्भिक मुहरों एवं पत्रों-यथा युवराज गोविन्द के असल पत्रों तथा गोविन्द तृतीय के पैथन दानपत्रों में गरुड़ चिन्ह का प्रयोग है। किंचित परवर्ती लेखों में आसन शिव लांछन का भी प्रयोग प्राप्त होता है किन्तु सिंह का कोई संकेत नहीं प्राप्त होता। राष्ट्रकूटों के यदुवंशी होने का प्रथम उल्लेख 871 ई0. के संजन दानपत्रों में दृष्टिगत होता है। गोविन्द तृतीय के 808 ई0 के वनिडिन्डोरि अभिलेख में इसके जन्म के विषय में यह वर्णन है कि राष्ट्रकूट वंश-क्षितिज पर गोविन्द के उदय से यह वंश उसी प्रकार अजेय हो गया जिस प्रकार मुरारि के जन्म से यदुवंश। यह सम्भाव्य है कि इसी उपमा के आधार पर इन्हें यदुवंशी कहना संदेह से परे नहीं है। 2. सर आर. जी. भण्डारकार ने यह सुझाव दिया है कि सम्भवतः यह वंश तुंग परिवार से उद्भूत हो क्योंकि कृष्ण तृतीय के देवली तथा कर्हाद दानपत्रों में यह स्पष्ट विवरण है कि यह वंश तुंग नाम के शासक से उत्पन्न हुआ था। उन पत्रों में रट्ट को तुंग वशज का पुत्र कहा गया है जिसे राष्ट्रकूट नाम का आधार माना...
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