मानव सभ्यता के विकास का इतिहास किसी आकस्मिक घटना क्रम का परिणाम नहीं वरन् हजारों वर्षों के उत्थान-पतन के क्रमिक विकास का परिणाम है। मानव सभ्यता के इस उत्थान-पतन के इतिहास को अध्ययन की सुविधा अनुसार तीन युगों में विभक्त किया जाता है-प्रागैतिहासिक, आद्यैतिहासिक, तथा ऐतिहासिक । पृथ्वी पर मानव सभ्यता का आरंभिक काल प्रागैतिहासिक काल के नाम से अभिहित किया जाता है जो मानव के सांस्कृतिक विकास के एक बड़े हिस्से को समेटता है। 1833 ई. में फ्रांसीसी पुरातत्त्ववेत्ता पाॅल टरनल ने ‘पीरियड एण्ड-हिस्टाॅरिक’ शब्द का प्रयोग किया था। आज यह शब्द सिमटकर अंग्रेजी में प्रीहिस्ट्री और हिंदी में प्रागैतिहासिक काल हो गया है। प्रागैतिहासिक युग का अभिप्राय उस प्रारम्भिक युग से है, जब जीव तत्व अस्तित्व में आकर क्रमशः पशु-योनि एवं मानव-योनि में पर्दापण किया और इसका अन्त लेखन कला के प्रथम परिचय के साथ स्वीकार किया। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रागैतिहासिक काल वह है जिससे सम्बन्धित लिखित साक्ष्य पूर्णतया अनुपलब्ध है। डा0 धीरेन्द्रनाथ मजूमदार का मत है कि इस युग का प्रागैतिहासिक नामकरण का एक कारण यह भी प्रतीत होता है कि यह ऐतिहासिक युग से पूर्व की मानव-कथा का अध्ययन प्रस्तुत करता है। इस युग का मानव पूर्णरूपेण निरक्षर था। ऐतिहासिक तथा प्रागैतिहासिक काल के बीच विभाजक रेखा के रूप में साक्षरता को स्वीकार किया जा सकता है। डा0 श्रीराम गोयल का यह कथन तर्कसंगत लगता है कि प्रागैतिहासिक काल में मानव का साहित्य और मनोमय जगत अज्ञात ही रह जाता है यद्यपि कि अन्य प्रतीकों को उन्होंने खोज लिया था, ऐसा प्रतीत होता है। आरंभिक मानव के समक्ष दो कठिन समस्याएं थीं- एक तो भोजन की व्यवस्था करना और दूसरे जानवरों से स्वयं की रक्षा करना। मानव ने भोजन के लिए शिकार करने, जंगली फलों और कन्दों को तोड़ने-खोदने एवं जानवरों से अपनी रक्षा करने के लिए नदी उपत्यकाओं में सर्वसुलभ पाषाण-खण्डों को प्रयुक्त किया। सभ्यता के प्रारम्भिक चरण में मानव ( होमो सेपियंस ) पत्थर का औजार बनाता था, क्योंकि पत्थर उसे सरलता से उपलब्ध था। प्रागैतिहासिक काल का अध्ययन करने के लिए पुरातात्त्विक स्रोत के रूप में पाषाण उपकरण ही सर्वाधिक मात्रा में प्राप्त हुए हैं। पाषाण-उपकरणों की प्रधानता और उन पर मानव की निर्भरता के कारण इस आरंभिक काल को ‘ पाषाण काल ’ कहा जाता है। मानव सभयता के विकास का प्राथमिक चरण पूर्व पाषाण काल का है। इस काल का आरम्भ नृतत्व शास्त्र के साक्ष्यों के आधार पर आज से लगभग 6 लाख वर्ष पूर्व माना गया। विभिन्न देशों से इस काल की जो सामग्रियाँ प्राप्त हुई हैं, उनके तुलनात्मक अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि प्रायः उन सभी देशों के आरम्भ्कि इतिहास का रूवरूप एक जैसा था। यूरोप, एशिया, अफ्रीका आदि सभी देशों में बेडौल एवं भद्दे उपकरण प्राप्त हुए हैं। भारत में पाषाणकालीन संस्कृति का अनुसंधान सर्वप्रथम 1863 ई. में प्रारंभ हुआ। सर्वप्रथम राबर्ट ब्रूस फुट नामक भारतीय जिओलाॅजिकल सर्वे के विद्वान ने, जो भारतीय प्रागैतिहास के पिता कहे जाते है, मद्रास के निकट पल्लवरम् नामक स्थान से पुरापाषाण काल के एक हस्त-कुठार की खोज की। इसके बाद, इस प्रकार के उपकरणों की प्राप्ति का क्रम निरन्तर चलता रहा। किंग, ओन्डहम, हैकेट, बीन ब्लैन्फर्ड आदि विद्वानों को अधिक संख्या में पाषाण कालीन उपकरण मिले। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक मद्रास (वर्तमान चेन्नई), बंबई ( वर्तमान मुम्बई ), मध्य प्रदेश, उड़ीसा, बिहार और उत्तर प्रदेश के स्थलों तथा मैसूर, हैदराबाद, रीवा, तलचर आदि से भी प्रागैतिहासिक संस्कृति के अनेक स्थल प्रकाश में आये। 1935 ई. में डी. टेरा एवं पैटरसन के निर्देशन में येल कैब्रिज अभियान दल ने शिवालिक की पोतवार ( पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त ) के पठारी भाग का सर्वेक्षण किया और वहाँ कई पुरा पाषाणकालीन उपकरण प्राप्त किये। पूर्व पाषण काल के उपकरणों की प्राप्ति स्थलों से स्पष्ट होता है कि इस समय मनुष्य नदियों के किनारे एवं झीलों के तटों या पर्वतों की कंदराओं में निवास करता था। पूर्व पाषाण कालीन संस्कृति के उदय एवं विकास का समय प्रातिनूतन काल में लगभग 6 लाख वर्ष पूर्व माना जाता है। जो सहस्रों वर्षों तक चला। डा0 धीरेन्द्रनाथ मजूमदार के अनुसार इस अवधि में उत्तर एवं दक्षिण भारत में महत्वपूर्ण जलवायु परिवर्तनों का क्रम चलता रहा। उत्तर भारत में यह क्रम इस प्रकार रहा-1. प्रथम हिम युग, 2. प्रथम अन्तर्हिम युग, 3. द्वितीय हिम युग, 4. द्वितीय अन्तर्हिम युग, 5. तृतीय हिम युग, 6. तृतीय अन्तर्हिम युग, 7. चतुर्थ हिम युग, 8. हिमोत्तर युग। हिम युग अत्यधिक शीतप्रधान और अन्तर्हिम युग अपेक्षाकृत उष्ण था। दक्षिण भारत में भी जलवायु परिवर्तन का क्रम चलता रहा। यहाँ जो यह क्रम चला वह वृष्ट्यावर्तन और वृष्टिप्रत्यावर्तन काल अपेक्षाकृत शुष्क था। पूर्वपाषणकालीन संस्कृति का उदय एवं विकास इसी प्रकार की जलवायु सम्बन्धी परिवर्तनों की पृष्ठभूमि पर दर्शित होता है। मानव द्वारा प्रस्तर-उपकरणों के प्रयोग की एक लम्बी शृंखला है। अनगढ़ पत्थर के औजारों से लेकर परिष्कृत पाषाण-उपकरणों में मानव की विकसित होती बुद्धि-क्षमता सहज ही प्रतिबिंबित होती है। 1816ई0 में कोपेनहेगेन, डेनमार्क राष्ट्रीय संग्रहालय के अध्यक्ष सी जे थामसन ने पुरावशेषों के त्रिवर्गीय पद्धति अथवा त्रिकाल प्रद्धति का आविष्कार संग्रहीत पुरावशेषों के आधार पर किया। थामसन महोदय ने पाषाण उपकरणों या औजारों को सर्वप्रथम, कांस्य उपकरणों को उसके बाद तथा अन्त में लौह उपकरणों को रखा। जो इस प्रकार है-1. पाषाण युग 2. ताम्र/कांस्य युग, 3. लौह युग यह वर्गीकरण संभापित मानव के तकनीकी विकास के आधार पर किया गया था। कुछ वर्ष बाद डेनमार्क में वारसा द्वारा उत्खनन किया गया। जिसके फलस्वरूप स्तरीकरण जमाव क्रमशः फ्लिंट अर्थात् पाषाण, कांस्य और लौह उपकरणों के मिले। अतः इस आरम्भिक संकेत को आधार मानकर पुरातत्व विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मानव सभ्यता का तकनीकी विकास क्रमशः इन्हीं तीन काल क्रमों हुआ। लेकिन कुछ पुरातत्वविद् इस त्रिकाल प्रणाली के वर्गीकरण से असंतुष्ट थे। वे पुरावशेषों का वर्गीकरण उपकरणों का प्रयोग, परम्परागत प्रणाली से पुरावस्तुओं की व्याख्या, मानव के क्रमिक विकास आदि के आधार पर करना चाहते थे। सर्वप्रथम निलसन महोदय ने 1. बर्वर , 2. शिकारी या घुमक्कड , 3. कृषक , 4. सभ्यता इन चार वर्गों में विभाजित किया। लेकिन इस वर्गीकरण के माध्यम से मानव सभ्यता के क्रमिक विकास का पता तो चलता है लेकिन मानव के तकनीकी विकास की व्याख्या नहीं हो पाती है। सर्वप्रथम जान लुब्बक...
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