May 2020

Year : 2025

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मध्य पाषाण काल:(Mesolithic Age)

मध्य पाषाणकाल का समय लगभग 10हजार से 5हजार ई0पू0 था। पुरा पाषाणकाल के अवसान के बाद पारिस्थितिकीय एवं पर्यावरणीय दशाओं में बदलाव आया। जलवायु में आर्दता आने के फलस्वरूप घने जंगलों एवं झाड़ियों का विकास हुआ तथा विशालकाय जीवों के स्थान पर छोटे- छोटे जीव-जन्तुओं का प्रादुर्भाव हुआ। मध्य पाषाणकाल को अंग्रेजी में मेसोलिथिक एज कहा जाता है। लेकिन यह मिडिल स्टोन एज अर्थात् जिसका शाब्दिक रूपान्तरण मध्य पाषाण काल है से नितान्त भिन्न है। मिडिल स्टोन एज शब्द दक्षिण अफ्रीका के प्रस्तर कालीन वर्गीकरण पर आधारित है। मध्य पाषण काल पुरापाषाण काल और नवपाषाण काल के बीच की कड़ी है। प्रारम्भ में पुराविद् पुरापाषाण काल एवं नवपाषण काल के मध्य एक लम्बा अन्तराल होने के कारण मध्य पाषाण काल का अस्तित्व नहीं स्वीकार करते थे। कुछ समय पूर्व तक मध्यपाषाण काल की स्थिति, उत्पत्ति एवं विकास एक समस्या थी क्योंकि लघुपाषाणिक उपकरण स्तरित जमावों से नहीं प्राप्त हुए थे। ये उपकरण अनेक स्थानों पर पृथ्वी से प्रतिवेदित हैं, किन्तु इससे समस्या का निराकरण नहीं हो सका। यूरोप एवं भारत के लघुपाषाण उपकरणों के विकास क्रम में भिन्नता है। भारत में मध्यपाषण काल के बाद मध्यपाषाणिक उपकरणों का विकास हुआ। स्तर क्रम की दृष्टि से मध्य पाषाण काल उच्च पूर्वपाषाण काल का परवर्ती एवं नवपाषाण काल का पूर्ववर्ती माना जाता है। भारत में अब निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि उच्च पूर्वपाषाणिक संस्कृतियों से ही मध्यपाषाण काल का विकास हुआ।                 यह काल पुरापाषाण काल और नवपाषाण काल दोनों संस्कृतियों की विशेषताओं को सहेजे हुए है। मध्यपाषाण काल को पुराविदों ने अनु-पुरापाषाण काल, आद्य-नव पाषाण काल एवं मध्यपाषाण काल, संक्रमण काल आदि विविध नामों से नामकरण किया। लेकिन यह काल मध्यपाषाण काल से अधिक प्रचलित हुआ। इस काल को ‘‘ मेसोलिथिक एज ’’ भी कहा जाता है। जो यूनानी शब्द  ‘‘ मेसोस ’’ एवं ‘‘ लिथाॅस ’’ से बना है। ‘ मेसोस ’ का अर्थ है-‘ मध्य ’ एवं ‘ लिथाॅस का अर्थ होता है ‘ पाषाण ’, अर्थात् मध्यपाषाण काल। इस काल के उपकरण अत्यन्त लघु हो जाते हैं। इन उपकरणों की लम्बाई लगभग 1-5 सेमी.माइक्रोलिथ होती है। इसलिए इन उपकरणों को लघुपाषाण उपकरण कहा गया। मध्यपाषाण काल का महत्व पूर्ववर्ती संस्कृतियों से अधिक है। मानव विकास के साथ ही यह धरती के विकास के इतिहास में भी एक नयी स्थिति का परिचायक है। उच्च पुरापाषाण काल तक अतिशीतल एवं अति वर्षा की स्थिति थी। जिसके फलस्वरूप पृथ्वी का अधिकांश भू-क्षेत्र दलदली या जल प्लावित थे अथवा हिम आच्छादित थे। जिसके कारण जलवायु मानव एवं वनस्पतियों के विकास के अनुकूल नहीं थी। लेकिन उच्चपुरापाषाण काल के अन्तिम चरण तक लगभग सभी भू-भागों में समशीतोष्ण जलवायु का प्रारम्भ हुआ। हिमाच्छिादित क्षेत्रों में बर्फ की चादरें उठने लगी और दलदली मैदान सूखने लगे। इस युग को ‘ सर्वनूतन युग ’ कहा गया। इन परिवर्तनों के फलस्वरूप पृथ्वी पर अनेक बदलाव हुए। जहाँ पहले बर्फ थी वहाँ अब घास के मैदान बन गया, अति वर्षा वाले भू-क्षेत्रों में घने जंगलों में परिवर्तित हाने लगा। जंगली घासों के उदय ने मानव को संभवतः अन्न उत्पादन के लिए प्रेरित किया होगा। अर्थात् इस काल को आधुनिक अनाजों का पूर्ववर्ती माना जा सकता है। इस जलवायु परिवर्तन के कारण धरती पर विचरण करने वाले जीव -जन्तुओं को भी प्रभावित किया। अपेक्षाकृत गर्म जलवायु के कारण विशालकाय मैमन एवं घने बालों वाले गैंडे धीरे-धीरे लुप्तप्राय होने लगे। और नवीन जीव-जन्तुओं का आर्विभाव इस धरातल पर हुआ, जैसे, बकरी, छोटे भेंड, हिरण आदि। इन परिवर्तनों से मानव अछूता नहीं रहा। क्योंकि कोई भी जीव विशेष कर मानव वातावरण से अलग नहीं रह सकता। उनका जीवन यापन एवं खानपान उन परिस्थितियों से प्रभावित होता है, जिनके बीच रहकर वह अपना जीवन यापन करता है। परिवर्तित जलवायु परिवर्तन से उसने सामंजस्य स्थापित करने के लिए उसकी जीवन पद्धति में भी बदलाव होना आवश्यक था। उच्चपाषाण काल तक मानव जीवन मुख्यतः आखेट पर ही निर्भर रहा। आखेट के लिए धनुष-बाण व्यापक पैमाने पर उपयोग होने लगा था। इस काल का मानव पशुओं के शिकार के अलावा मछली, कछुआ आदि जलचरों का शिकार अपनी भूख मिटाने के लिए करता था। हालैण्ड के ‘ पेस ’ नामक मध्य पाषाणिक पुरास्थल से लकड़ी की एक डोंगी मिली है जिसकी तिथि 6250 ई0पू0 है। अतः हम कह सकते हैं कि लकडी़ की डोंगी का सर्वप्रथम निर्माण का श्रेय मध्य पाषाणिक मानव ने किया था। लेकिन इस काल का मानव जंगली घास एवं वनस्पतियों के बीजों तथा फलों का संचय एवं प्रयोग करने लगा था। इसलिए उसे ‘ संचयक मानव ’ कहा जाता है। जो इस काल की विशेष उपलब्धि थी। इस समय खेती का प्रारम्भ एवं उद्योग के रूप में पशुपालन का शुभारम्भ नहीं हुआ था।                 उच्च पुरापाषाण काल के बाद विश्व में जलवायु परिवर्तन व्यापक पैमाने पर हुआ। मध्य पाषाण काल को काल की दृष्टि से नूतन काल के अन्तर्गत रख सकते हैं। नूतन कल्प के परिवर्तनों से सामंजस्य स्थापित करने के लिए उसे अपने उपकरणों में बदलाव करना आवश्यक था। उच्च पाषाण काल से ही परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी थी, लेकिन इस काल के अन्तिम चरण तक यह पूर्णतः स्पष्ट हो गयी। इस काल के उपकरणों का निर्माण संकरे एवं छोटे-छोटे ब्लेड पर होने लगा, जिसे फ्लूटेड से निकाला गया था। प्रारम्भ में विद्वानों की धारणा थी कि मध्य पाषाणिक, लघुपाषाणिक उपकरण पतनोन्मुख समाज का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन यह समीचीन नहीं है। यह मानव की प्रगति एवं तकनीकी ज्ञान का परिचायक है। इस काल में कई उपकरणों को जोड़कर एक नया उपकरण बनाया जाता था, इस लिए इन्हें संयोजन उपकरण की श्रेणी में रखा जाता है। ऐसे उपकरणों का प्रयोग दूर से फेंक कर बाण की तरह प्रयोग किया जाता था।                  भारत के लगभग सभी भू-भागों से मध्य पाषाणिक पुरास्थल प्रकाश में आयें हैं। भारत में मध्य पाषाणिक उपकरणों की खोज ए0 सी0 एल0 कार्लाइल महोदय ने 1867ई0 में विन्ध्य क्षेत्र में किया था। तब से लेकर आज तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों से मध्य पाषाणिक उपकरण प्रकाश में आते रहे हैं। इस युग में जनसंख्या में बृद्धि हुई। इस जनसंख्या बृद्धि का कारण जीविका की सर्वसुलभता थी। जिसके फलस्वरूप प्रव्रजन एवं स्थानान्तरण हुआ होगा। आवागमन एवं परिभ्रमण से लोग परस्पर मिलते जुलते...
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पाषाण कालः (Stone Age)

मानव सभ्यता के विकास का इतिहास किसी आकस्मिक घटना क्रम का परिणाम नहीं वरन् हजारों वर्षों के उत्थान-पतन के क्रमिक विकास का परिणाम है। मानव सभ्यता के इस उत्थान-पतन के इतिहास को अध्ययन की सुविधा अनुसार तीन युगों में विभक्त किया जाता है-प्रागैतिहासिक, आद्यैतिहासिक, तथा ऐतिहासिक । पृथ्वी पर मानव सभ्यता का आरंभिक काल प्रागैतिहासिक काल के नाम से अभिहित किया जाता है जो मानव के सांस्कृतिक विकास के एक बड़े हिस्से को समेटता है। 1833 ई. में फ्रांसीसी पुरातत्त्ववेत्ता पाॅल टरनल ने ‘पीरियड एण्ड-हिस्टाॅरिक’ शब्द का प्रयोग किया था। आज यह शब्द सिमटकर अंग्रेजी में प्रीहिस्ट्री और हिंदी में प्रागैतिहासिक काल हो गया है। प्रागैतिहासिक युग का अभिप्राय उस प्रारम्भिक युग से है, जब जीव तत्व अस्तित्व में आकर क्रमशः पशु-योनि एवं मानव-योनि में पर्दापण किया और इसका अन्त लेखन कला के प्रथम परिचय के साथ स्वीकार किया। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रागैतिहासिक काल वह है जिससे सम्बन्धित लिखित साक्ष्य पूर्णतया अनुपलब्ध है। डा0 धीरेन्द्रनाथ मजूमदार का मत है कि इस युग का प्रागैतिहासिक नामकरण का एक कारण यह भी प्रतीत होता है कि यह ऐतिहासिक युग से पूर्व की मानव-कथा का अध्ययन प्रस्तुत करता है। इस युग का मानव पूर्णरूपेण निरक्षर था। ऐतिहासिक तथा प्रागैतिहासिक काल के बीच विभाजक रेखा के रूप में साक्षरता को स्वीकार किया जा सकता है। डा0 श्रीराम गोयल का यह कथन तर्कसंगत लगता है कि प्रागैतिहासिक काल में मानव का साहित्य और मनोमय जगत अज्ञात ही रह जाता है यद्यपि कि अन्य प्रतीकों को उन्होंने खोज लिया था, ऐसा प्रतीत होता है। आरंभिक मानव के समक्ष दो कठिन समस्याएं थीं- एक तो भोजन की व्यवस्था करना और दूसरे जानवरों से स्वयं की रक्षा करना। मानव ने भोजन के लिए शिकार करने, जंगली फलों और कन्दों को तोड़ने-खोदने एवं जानवरों से अपनी रक्षा करने के लिए नदी उपत्यकाओं में सर्वसुलभ पाषाण-खण्डों को प्रयुक्त किया। सभ्यता के प्रारम्भिक चरण में मानव ( होमो सेपियंस ) पत्थर का औजार बनाता था, क्योंकि पत्थर उसे सरलता से उपलब्ध था। प्रागैतिहासिक काल का अध्ययन करने के लिए पुरातात्त्विक स्रोत के रूप में पाषाण उपकरण ही सर्वाधिक मात्रा में प्राप्त हुए हैं। पाषाण-उपकरणों की प्रधानता और उन पर मानव की निर्भरता के कारण इस आरंभिक काल को ‘ पाषाण काल ’ कहा जाता है।  मानव सभयता के विकास का प्राथमिक चरण पूर्व पाषाण काल का है। इस काल का आरम्भ नृतत्व शास्त्र के साक्ष्यों के आधार पर आज से लगभग 6 लाख वर्ष पूर्व माना गया। विभिन्न देशों से इस काल की जो सामग्रियाँ प्राप्त हुई हैं, उनके तुलनात्मक अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि प्रायः उन सभी देशों के आरम्भ्कि इतिहास का रूवरूप एक जैसा था। यूरोप, एशिया, अफ्रीका आदि सभी देशों में बेडौल एवं भद्दे उपकरण प्राप्त हुए हैं। भारत में पाषाणकालीन संस्कृति का अनुसंधान सर्वप्रथम 1863 ई. में प्रारंभ हुआ। सर्वप्रथम राबर्ट ब्रूस फुट नामक भारतीय जिओलाॅजिकल सर्वे के विद्वान ने, जो भारतीय प्रागैतिहास के पिता कहे जाते है, मद्रास के निकट पल्लवरम् नामक स्थान से पुरापाषाण काल के एक हस्त-कुठार की खोज की।  इसके बाद, इस प्रकार के उपकरणों की प्राप्ति का क्रम निरन्तर चलता रहा। किंग, ओन्डहम,  हैकेट, बीन ब्लैन्फर्ड आदि विद्वानों को अधिक संख्या में पाषाण कालीन उपकरण मिले। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक मद्रास (वर्तमान चेन्नई), बंबई ( वर्तमान मुम्बई ), मध्य प्रदेश, उड़ीसा, बिहार और उत्तर प्रदेश के स्थलों तथा मैसूर, हैदराबाद, रीवा, तलचर आदि से भी प्रागैतिहासिक संस्कृति के अनेक स्थल प्रकाश में आये। 1935 ई. में डी. टेरा एवं पैटरसन के निर्देशन में येल कैब्रिज अभियान दल ने शिवालिक की पोतवार ( पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त ) के पठारी भाग का सर्वेक्षण किया और वहाँ कई पुरा पाषाणकालीन उपकरण प्राप्त किये।  पूर्व पाषण काल के उपकरणों की प्राप्ति स्थलों से स्पष्ट होता है कि इस समय मनुष्य नदियों के किनारे एवं झीलों के तटों या पर्वतों की कंदराओं में निवास करता था। पूर्व पाषाण कालीन संस्कृति के उदय एवं विकास का समय प्रातिनूतन काल में लगभग 6 लाख वर्ष पूर्व माना जाता है। जो सहस्रों वर्षों तक चला। डा0 धीरेन्द्रनाथ मजूमदार के अनुसार इस अवधि में उत्तर एवं दक्षिण भारत में महत्वपूर्ण जलवायु परिवर्तनों का क्रम चलता रहा। उत्तर भारत में यह क्रम इस प्रकार रहा-1. प्रथम हिम युग, 2. प्रथम अन्तर्हिम युग, 3. द्वितीय हिम युग, 4. द्वितीय अन्तर्हिम युग, 5. तृतीय हिम युग, 6. तृतीय अन्तर्हिम युग, 7. चतुर्थ हिम युग, 8. हिमोत्तर युग। हिम युग अत्यधिक शीतप्रधान और अन्तर्हिम युग अपेक्षाकृत उष्ण था। दक्षिण भारत में भी जलवायु परिवर्तन का क्रम चलता रहा। यहाँ जो यह क्रम चला वह वृष्ट्यावर्तन और वृष्टिप्रत्यावर्तन काल अपेक्षाकृत शुष्क था। पूर्वपाषणकालीन संस्कृति का उदय एवं विकास इसी प्रकार की जलवायु सम्बन्धी परिवर्तनों की पृष्ठभूमि पर दर्शित होता है। मानव द्वारा प्रस्तर-उपकरणों के प्रयोग की एक लम्बी शृंखला है। अनगढ़ पत्थर के औजारों से लेकर परिष्कृत पाषाण-उपकरणों में मानव की विकसित होती बुद्धि-क्षमता सहज ही प्रतिबिंबित होती है। 1816ई0 में कोपेनहेगेन, डेनमार्क राष्ट्रीय संग्रहालय के अध्यक्ष सी जे थामसन ने पुरावशेषों के त्रिवर्गीय पद्धति अथवा त्रिकाल प्रद्धति का आविष्कार संग्रहीत पुरावशेषों के आधार पर किया। थामसन महोदय ने पाषाण उपकरणों या औजारों को सर्वप्रथम, कांस्य उपकरणों को उसके बाद तथा अन्त में लौह उपकरणों को रखा। जो इस प्रकार है-1. पाषाण युग 2. ताम्र/कांस्य युग, 3. लौह युग यह वर्गीकरण संभापित मानव के तकनीकी विकास के आधार पर किया गया था। कुछ वर्ष बाद डेनमार्क में वारसा द्वारा उत्खनन किया गया। जिसके फलस्वरूप स्तरीकरण जमाव क्रमशः फ्लिंट अर्थात् पाषाण, कांस्य और लौह उपकरणों के मिले। अतः इस आरम्भिक संकेत को आधार मानकर पुरातत्व विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मानव सभ्यता का तकनीकी विकास क्रमशः इन्हीं तीन काल क्रमों हुआ। लेकिन कुछ पुरातत्वविद् इस त्रिकाल प्रणाली के वर्गीकरण से असंतुष्ट थे। वे पुरावशेषों का वर्गीकरण उपकरणों का प्रयोग, परम्परागत प्रणाली से पुरावस्तुओं की व्याख्या, मानव के क्रमिक विकास आदि के आधार पर करना चाहते थे। सर्वप्रथम निलसन महोदय ने 1. बर्वर , 2. शिकारी या घुमक्कड , 3. कृषक , 4. सभ्यता इन चार वर्गों में विभाजित किया। लेकिन इस वर्गीकरण के माध्यम से मानव सभ्यता के क्रमिक विकास का पता तो चलता है लेकिन मानव के तकनीकी विकास की व्याख्या नहीं हो पाती है। सर्वप्रथम जान लुब्बक...
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सिक्ख – मुग़ल संबंध : एक विमर्श (Sikh-Mughal Relations: A Discussion)

डॉ एस एन वर्मा एसोसिएट प्रोफेसर इतिहास, राजकीय महाविद्यालय सेवापुरी वाराणसी। सिक्ख धर्म मध्यकालीन भक्ति आंदोलन का अनिवार्य उत्पाद था । अखिल भारतीय स्तर पर अपनी धमक दर्ज कराने के कारण इसे राष्ट्रीय स्वरूप  वाला अभिधान भी दिया  जाता है। इसके केंद्र में भक्ति  थी] जिसे  मुस्लिम आक्रमण से उत्पन्न पराजित मनोवृत्ति का परिणाम कहा जाता है। हजारी प्रसाद इसे  बारह आने  मुस्लिम पराजय का परिणाम मानते हैं । शेष दूसरी घटनाओं का प्रभाव जिसमे दक्षिण से आने वाली भक्ति भी शामिल थी। अधिकांश भारतीय विचारक अब दक्षिण से आये भक्ति प्रवाह को अधिक महत्त्व देने लगे है । रामानंद इस क्रांति के प्रसारक और उत्तर- दक्षिण सेतु मान लिए जाते हैं । इन्ही के प्रभाव के कारण उत्तर भारत मे कबीर] महाराष्ट्र में नामदेव] बंगाल में चैतन्य और पंजाब में नानक का उदय होता है । सबने अपने क्षेत्रों में नवीन चेतना] प्रगतिशीलता] मानवता] ईश्वर प्रेम] समाज सुधार आदि की बात करते हैं । भाषा के आधार पर अलग अलग दिखने वाले अपनी अपील में एकरूप  दिखते हैं । राजनीतिक रूप से मुस्लिम प्रभाव इन क्षेत्रों में अलग अलग समय पर स्थापित हुआ था । पंजाब तो सबसे पहले प्रभावित हुआ था। सल्तनत की स्थापना के बाद भी पंजाब अलग धार्मिक पृष्ठभूमि वाले मंगोलों से आक्रांत रहा। तैमूर के आक्रमण के समय तक मुस्लिम सत्ता पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थिर नही हो पाई थी। दिल्ली के सुल्तान कभी अलगाव] कभी दबाव तो कभी संघर्ष की नीति पर चलते रहे। शांति तब स्थापित हो पाई जब मङ्गोल नव -मुस्लिम के रूप में आ गए। पंजाब की  राजनीतिक और कृषीय व्यवस्था  ने एक साथ  परिवर्तन और अशांति देखी । अतः यहाँ विकसित सिक्ख धर्म के साथ दूसरे अन्य तथ्यों पर सोच विचार की आवश्यकता है। आजकल सिक्ख और हिन्दू धर्म मे घालमेल कर दिया गया है। क्या भक्ति आंदोलन के  सभी संत हिन्दू धर्म की पुनर्स्थापना चाहते थे] शायद नही। यदि उन संतो के विचार आज हिन्दू धर्म के अंग हैं तो सिक्खों के धर्म को क्योंकर हिन्दू धर्म का हिस्सा माना जाए। विशेषकर तब जब इस धर्म के संस्थापकों ने बाकायदा अलग धार्मिक विधान बना लिए थे। मसलन ]उनके पूजा स्थल] धार्मिक पुस्तक] आचार संहिता आदि सभी कुछ अलग हो गए थे जो अब तक विकसित धार्मिक प्रणालियों के आवश्यक अंग माने जाते थे।  हिन्दू धर्म इस मानक पर धर्म नही बल्कि जीवन दर्शन था। इस आलेख में सिक्ख धर्म के विकास क्रम के साथ मुगलों के साथ इसके सम्बन्धों की जांच पड़ताल की कोशिश की गई है। क्या यह संबंध केवल धार्मिक मुठभेड़  ही बना रहा  या फिर इसके मूल में अन्यान्य तत्त्व थे। यह जन्मना भारतीय धर्म तो है लेकिन क्या यह अखिल भारतीय मुक्ति का आकांक्षी रहा है। हिन्दू फोल्ड के अंतर्गत इसे शामिल करने की मंशा कुछ और तो नही है। इन प्रश्नों का उत्तर आज जनमानस में कौतूहल का विषय है। 1-सिक्ख धर्म की स्थापना का इतिहास गुरु नानक को सिक्ख धर्म का प्रवर्तक माना जाता है। उनका जन्म  कार्तिक पूर्णिमा के दिन 1469 ईस्वी में पंजाब के रावी नदी के किनारे  गुजरांवाला जिले के तलवंडी नामक स्थान  पर हुआ था। उनके जन्म के समय तक पंजाब पर इस्लाम का पूर्ण प्रभाव स्थापित हो गया था। पानीपत] सरहिन्द] पाक पट्टन] मुल्तान] उच्छ आदि सूफी संतों और फकीरों से भरा  पड़ा था। अतः नानक की भाषा व्यंग्यात्मक की बजाय प्रेम और सहानुभूति की है। उन्होंने दलितों को उचित सम्मान देकर इस्लाम अपनाने से रोका लेकिन वापस हिंदू धर्म मे बने रहने की अपील नही की। धर्म और समाज के बाहर वे राजनीतिक चेतना के प्रसार की बात  आरम्भ से ही कहते हैं। लोंगो के निराशा भाव को दूर करके आशा विश्वास और पौरुष का संचार उनका लक्ष्य बन गया। बाबर के आक्रमण के समय की दुश्वारियों को उन्होंने महसूस किया था। एक समाज सुधारक के रूप में उन्होंने जाति प्रथा का खंडन किया] हिन्दू- मुस्लिम समन्वय] स्त्री सुधार की वकालत की। स्त्रियों को आध्यात्मिक साधना और अन्य क्षेत्रों में पुरुषों के समान अधिकार दिया। प्रायः  अन्य संत केवल धार्मिक और सामाजिक  जीवन को केंद्र में रखते रहे लेकिन नानक  इस दृष्टि की व्यापकता में भी आगे रहे। उनके विचारों में जनतांत्रिक सिद्धान्तों के महत्त्वपूर्ण सूत्र मिलते हैं जो समाजवादी समाज का पूर्वाभास देते हैं। यह अकारण नही था कि उनके अनुयायियों ने एक बिशिष्ट सामाजिक राजनीतिक वर्ग बना लिया। यह हिन्दू सामाजिक ढांचे की मान्यता का उतना ही विरोध करता है जितना कि मुगल नीतियों का। कहा जाता है कि नानक और बाबर की मुलाकात भी हुई थी। बाबर उनके आध्यात्मिक विचारो से प्रभावित भी था । उनकी नीतियां ही आगे चलकर  गोविंद सिंह के धार्मिक सैन्यवाद में परिणत हुईं। उनके उपदेशों का आधार इतना सशक्त था कि आगे चलकर सिक्ख धर्म ने एक प्रभावशाली पूर्ण धर्म का स्वरूप धारण किया। 1538 में नानक की मृत्यु के बाद अंगद दूसरे गुरु हुए जिनका नॉमिनेशन नानक ने अपने जीवनकाल में ही कर दिया था। अमरदास तीसरे गुरु हुए ] और रामदास चौथे] उनके समय तक सिक्ख अलग समुदाय के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। सिक्ख अपने गुरुओं को भगवान का अवतार और दैवीय शक्ति सम्पन्न मानने लगे ।यह धारणा बन गयी कि  नानक की आत्मा  ही अंगद] अमरदास रामदास तक यात्रा की है बाद में यह गोविंद सिंह तक  चलती चली गयी। अधिंकाश सिक्ख जाट समुदाय से जुड़े थे जो स्वाभाविक रूप से मेहनती और बहादुर थे। उनके मन मे गुरुओं के प्रति अगाध सम्मान था] एक आवाज पर अपनी जान न्यौछावर करने को तैयार थे। अब तक के सभी गुरु सांसारिक चकाचौंध से दूर आध्यात्मिक प्रकर्ष के हिमायती थे। यद्यपि सभी ने गृहस्थ जीवन का परित्याग नही किया था लेकिन रामदास के  समय से ही धन संग्रह की प्रवृत्ति आरम्भ हो गयी। अकबर ने उन्हें  500 बीघा जमीन दान की जिससे कि अमृतसर में मंदिर और तालाब का निर्माण किया जा सके।  मियां मीर एक मुस्लिम था जिसने  अमृतसर के गुरुद्वारे का प्रथम पत्थर रखा था। अतः दोनों समूहों में अनबन होने का कोई कारण नही था। अब तक उत्तराधिकार नियम पैतृक नही हुआ था। जब रामदास ने अपने पुत्र अर्जुनदास को गुरु का पद दिया] तभी से पैतृक अधिकार का समावेश हुआ।  अमरदास और रामदास के बीच जामाता...
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कल्याणी का चालुक्य युगीन संस्कृति: भाग-2(Kalyani’s Chalukya Era Culture:Part-2)

धार्मिक स्थितिः                     भारतीय समाज में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान है। नैतिक नियमों के पालन से ही मानव का हित समभव है। धर्म के अन्तर्गत धार्मिक, सामाजिक संस्कार, परम्परायें, एवं नैतिक मान्यतायें आती हैं। प्राचीन काल से ही भारत में धार्मिक स्वतंत्रता रही है और इसी परम्परा में कल्याणी के चालुक्य शासक अत्यन्त सहिष्णु और धार्मिक प्रवृत्ति के थे। इस काल में सभी धर्मों के अनुयायिों में एक दूसरे धर्म के प्रति आदर भाव एवं सहनशीलता थी। इस काल की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि चालुक्य राजाओं द्वारा सभी धर्मों एवं सम्प्रदायों को बिना किसी भेद-भाव के उदारता पूर्वक दान दिया जाता था। तत्कालीन अभिलेखों का प्रायः मुख्य उद्देश्य धर्म की अभिवृद्धि करने के लिए किये गये यज्ञों तथा दानों को स्थायित्व प्रदान करना था। इस काल में समाज में मुख्यतः दो धर्मों का विशेष विकास हमें दिखाई पड़ता है। पहला वैदिक धर्म और दूसरा जैन धर्म। बौद्ध धर्म इस समय पतनोन्मुख था। तथापि चालुक्यों के काल में वैष्णव, शैव, जैन एवं बौद्ध धर्मों का अस्तित्व निरन्तर बना रहा।                 चालुक्य शासन काल में वैदिक धर्म और संस्कृति का काफी विकास हुआ था। इस काल में अनेक धार्मिक यज्ञों का अनुष्ठान सम्पादित किये गये। चालुक्य लेखों से पता चलता है कि दान प्राप्त ब्राह्मण विभिन्न वैदिक धर्म की शाखाओं से सम्बन्धित थे। इस काल में वैदिक धर्म से सम्बन्धित अनेक पौराणिक देवी -देवताओं का प्रचलन समाज में हुआ। इस समय दक्षिण भारत में शैव धर्म का व्यापक प्रचार एवं प्रसार हा रहा था। राजा अपने परिवार के सदस्यों के साथ अपने आराध्य शिव की दर्शनार्थ शिव मंदिरों में जाते थे और दान करते थे। दक्षिणापथ में इस काल में शैव धर्म से सम्बन्धित पाशुपत सम्प्रदाय सबसे अधिक लोकप्रिय था। बल्लिगावे, सूदि, कक्कनूर, श्रीशैलम आदि इस धर्म से सम्बन्धित प्रमुख केन्द्र थे। शैव धर्म से सम्बन्धित दूसरा प्रमुख सम्प्रदाय कालामुख सम्प्रदाय था। इसका प्रमुख केन्द्र बल्लिगावे था। चालुक्य कालीन एक लेख में सोमेश्वर नामक एक नैयायिक कालामुख का विवरण मिलता है। इस काल में शिव भक्त कार्तिकेय एवं सुब्रह्मण्य की भी पूजा करत थे। कर्नाटक का बेल्लारी कार्तिकेय पूजा का मुख्य केन्द्र था।                 शैव धर्म की भाँति दक्षिण भारत में वैष्णव धर्म काफी लोकप्रिय था। वातापी के चालुक्य शासक वैष्णव धर्म के अनयायी थे। लेकिन इस समय शैव धर्म काफी लोकप्रिय हो रहा था जिसके कारण वैष्णव धर्म की लोकप्रियता में कुछ गिरावट देखने को मिलती है। गदग लेख से ज्ञात होता है कि गदग में त्रैपुरूष एवं द्वादश नारायण का मंदिर था। इसी तरह पोंबुल्व में एक जीर्ण -क्षीर्ण वैष्णव मंदिर का पुनर्निर्माण जक्किमप्य नामक एक ब्राह्मण ने करवाया था। मैलार से प्राप्त एक लेख में 200 वैष्णव महाजनों द्वारा एक शिव मंदिर के प्रबन्धन की व्यवस्था दिये जाने का विवरण मिलता है। नागवानि का मधुसूदन मंदिर वैष्णव धर्म का प्रधान केन्द्र था।                 चालुक्यों का शासन काल धार्मिक सहिष्णुता का काल था। वैष्णव तथा शैव धर्मों के साथ-साथ जैन धर्म की प्रगति विशेष उल्लेखनीय है। तत्कालीन समाज में जैन धर्म के अनुयायियों की संख्या अधिक थी। वे अपने धर्माचरण में पूर्ण स्वतंत्र थे। इस काल में बौद्ध धर्म की अपेक्षा जैन धर्म अधिक लोकप्रिय हो रहा था। चालुक्य लेखों में जैन धर्म के श्रेष्ठ जनों का सन्मार्ग पर चलने में आनन्द प्राप्त करने वाले गृहस्थों के रूप में उल्लेख मिलता है। (सागार सुमार्ग निरतार)। इस समय यहाँ अनेक जैन मंदिर का उल्लेख मिलता है। चोल आक्रमण के फलस्वरूप अनेक जैन मंदिरों को काफी नुकसान पहुँचा था। वासवपुराण के अनुसार होट्टलकेरे का शासक जयसिंह द्वितीय जैन था, जब कि उसकी पत्नी सुग्गलदेवी शैव धर्मानुयायी थी। बाद में सुग्गलदेपी के आग्रह पर उनके गुरू ने जयसिंह द्वितीय को शैव धर्म में दीक्षित किया। लेकिन यह वर्णन सत्य के कितना निकट है, कुछ नहीं कहा जा सकता है। चालुक्य शासक सत्याश्रय ने जैन कवि पम्प को संरक्षण प्रदान किया था।                 चालुक्य वंशीय नरेश ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे। अतः इसमें कोई आश्चार्य नहीं कि बौद्ध धर्म के निरन्तर हो रहे अवनति के कारण लोंगो का विश्वास कम होने लगा। यद्यपि चालुक्य शासकों ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनायी थी, किन्तु उनके द्वारा बौद्ध धर्म को कोई संरक्षण मिला, इसका कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। बौद्ध धर्म की अवनति इस समय अवश्य हो रही थी लेकिन यह पूर्णतया समाप्त नहीं हुआ था। क्योंकि चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा विवरण में अनेक बौद्ध मंदिरों, विहारों एवं संघारामों का उल्लेख किया है। इनके अवशेष आज भी मिलते हैं। दक्षिण भारत में बौद्ध धर्म की महायान शाखा का प्रचार-प्रसार था। बेलगावे एवं डंबल इस काल का प्रमुख बौद्ध केन्द्र था। डंबल में एक बौद्ध विहार था, जिसका निर्माण 16 सेट्टियों ने करवाया था। जो इस बात का प्रमाण है कि इन संस्थाओं को दान दिया जाता था, और इसे राजा की स्वीकृति रहती रही।                 चालुक्य काल की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि चालुक्य शासक धार्मिक जगत में सहिष्णु थे। सहिष्णुता की यह भावना भारत में बहुत पहले से चली आ रही है। चालुक्य शासक ब्राह्मण धर्म विशेषकर शैव धर्म के अनुयायी होते हुए भी जैन धर्म को संरक्षण प्रदान किया। इस समय ब्राह्मण और जैन धर्म का बोलबाला था। पौराणिक देवताओं के अनुयायियों में पूर्ण समरसता थी। परिवारों में वैयक्तिक आवश्यकता अनुसार इष्टदेव परिवर्तित होते रहते थे। प्रारम्भिक चालुक्य शासक वैष्णव धर्म के अनुयायी थे, किन्तु बाद के शासक शैव धर्म के अनुयायी बन गये। जैन धर्म को इस समय राजाश्रय प्राप्त था। अनेक चालुक्य शासकों ने जैन मंदिरों, मठों एवं विहारों को दान प्रदान किया। इससे यह कहा जा सकता है कि यह काल धार्मिक सहिष्णुता का काल था। कला एवं साहित्यः                 भारतीय कला सदा से ही धर्म की सहचरी रही है। जिसके फलस्वरूप इसका विकास धर्म के माध्यम से देवालयों तथा भवनों के निर्माण के रूप में होता रहा। कल्याणी के चालुक्य शासकों ,सेनापतियों एवं अधिकारियों द्वारा निर्मित अनेक मंदिर उस समय की कला के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इस अवधि में अनेक चालुक्य शासकों ने ब्राह्मण धर्म को राजाश्रय प्रदान किया। चालुक्य शासकों की उदार सहिष्णुता के कारण जैन धर्म के अनेक मंदिरों का भी निर्माण हुआ। जिनसे उस काल की स्थापत्य, मूर्ति और वित्रकला पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। चालुक्यों की राजनैतिक उत्थान-पतन के...
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कल्याणी का चालुक्य युगीन संस्कृति: भाग-1(Kalyani’s Chalukya era culture: Part-1)

इतिहास के वातायन से अतीत का मूल्यांकन करना सहज कार्य नहीं है, विशेष कर जब ऐतिहासिक लिपियों, साक्ष्यों और चरित्रों की प्रामाणिकता का कोई ठोस आधार न हो। प्रत्येक देश में सामाजिक संगठन, विभाजन एवं स्तरीकरण का रूप उसकी अपनी भौगोलिक परिस्थितियों, जीवन की आवश्यकताओं, सांस्कृतिक परम्पराओं और ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया की अपनी विशेषतायें हैं। दक्षिणापथ का तात्पर्य उस भू-क्षेत्र से है, जो उत्तर में विन्ध्य पर्वत  के दक्षिण पूर्वी सागर से लेकर पश्चिमी सागर पर्यन्त तथा दक्षिण में हिन्द महासागर तक विस्तृत था। दक्षिणापथ के उदीयमान राजवंशों में चालुक्य वंश का महत्वपूर्ण स्थान था। चालुक्यों की गतिविधयों को समझने के लिए तत्कालीन दक्षिण भारत के इतिहास को भली-भाँति जानना आवश्यक है क्योंकि न केवल राजनैतिक अपितु प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में भी चालुक्यों का उल्लेखनीय योगदान रहा है। चालुक्य वंश का अस्तित्व भारतीय इतिहास में दीर्घकालिक रहा। राष्ट्रकूट राजवंश के सुदीर्घ शासन अवधि के बाद दक्षिण भारत में कल्याणी के चालुक्यों नें अपने नवीन साम्राज्य की स्थापना की। अन्तिम राष्ट्रकूट कर्क द्वितीय को सत्ताच्युत कर तैलप द्वितीय ने जिस नवीन राजवंश की स्थापना की, वह कल्याणी के चालुक्य राजवंश के नाम से प्राचीन भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध हुआ। इस राजवंश को ही परवर्ती चालुक्य या पश्चिमी चालुक्य भी कहा जाता है। चालुक्य वंश के अध्ययन के लिए साहित्यिक साक्ष्यों एवं अभिलेखीय साक्ष्यों से जानकारी मिलती है। साहित्यिक ग्रन्थों में कश्मीरी कवि बिल्हण की रचना ‘विक्रमांकदेव चरित’ एवं कन्कड कवि रन्न कृत ‘गदायुद्ध’ विशेष महत्वूर्ण हैं। कवि बिल्हण कल्याणी के चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ के दरवारी कवि थे। जिन्हें विक्रमादित्य षष्ठ ने ‘विद्यापति’ की उपाधि प्रदान की थी। विक्रमांकदेवचरित में चालुक्य वंश की उत्पत्ति से लेकर विक्रमादित्य षष्ठ के राजा बनने, विवाह, विक्रमपुर नगर की स्थापना, विजयें आदि का विवरण इसमें सविस्तार मिलता है। गदायुद्ध से हमें तत्कालीन सामाजिक- सांस्कृतिक गतिविधयों की पर्याप्त जानकारी मिलती है। इसके अतिरिक्त विज्ञानेश्वर की मिताक्षरा से हमें विशेष ज्ञान प्राप्त होता है। अभिलेखीय साक्ष्यों से भी हमें महत्वपूर्ण सूचना मिलती है। शासन पद्धतिः                 चालुक्य राजवंश का अस्तित्व सुदीर्घ अवधि तक प्राचीन भारतीय इतिहास में बना रहा।  भारत के विभिन्न प्रदेशों में इनकी अनेक शाखायें अपना शासन-प्रशासन चलाती थीं। जिसके कारण इनके राजनीतिक एवं प्रशासनिक संगठन भी भिन्न-भिन्न रहा। यहाँ हमारे अध्ययन का विषय कल्याणी के चालुक्य वंश की प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों की जानकारी प्राप्त करना है। प्रारम्भिक चालुक्यों का प्रशासन गुप्त-वाकाटकों का परवर्ती होने के कारण बहुत कुछ उनकी प्रशासनिक व्यवस्था से प्रभावित रहा। एक विस्तृत भू-भाग में फैले होने के कारण जिसमें विभिन्न बोली और भाषा वाले व्यक्ति रहते थे। जिनका प्रशासन के स्थानीय नियमों और नामों में काफी प्रभाव था।  चालुक्यों की कोई अपनी शासन पद्धति नहीं थी, ऐसा साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्यों से ज्ञात होता है। इस राजवंश के शासक निरन्तर युद्ध एवं साम्राज्य विस्तार में के कारण लड़ाईयों में ही व्यतीत हुआ, जिससे इन्हें प्रशासनिक संगठन में बदलाव करने का अवसर नहीं मिला। अतः चालुक्यों का प्रशासन परम्परा, प्रयोग और विवके अर्थात् धर्मशास्त्रों के अनुसार चलता था। तत्कालीन अभिलेखों से राजतंत्र एवं प्रशासन पर कुछ प्रकाश पड़ता है। राजाः मानवीय संस्कृति की चार मुख्य प्रवृत्ति-धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष है। इनके प्रवर्तन के लिए समाज में समुचित वातावरण का होना आवश्यक है। इसके लिए समाज का संघटन करने का उत्तरदायित्व सदैव राजा एवं उच्चकोटि के विचारकों तथा आचार्यों पर रहा है। विचारक और आचार्य समाज की सुदृढ़ व्यवस्था के लिए योजनायें बनाते आये हैं और राजा उन योजनाओं को कार्य-रूप में परिणत कराने के लिए सूत्रधार रहा है। समाज-संघटन की योजना के अन्तर्गत राजा और प्रजा का जो सम्बन्ध स्थापित होता है, वह राजनीतिक जीवन का प्रथम रूप है। चालुक्यों के प्रारम्भिक लेखों से उनके पूर्वजों का कोई ज्ञान नहीं होता किन्तु परवर्ती लेखों में बादामी की मुख्य शाखा से सम्बद्ध करने का प्रयास किया गया है। दक्षिण भारत के इतिहास में कल्याणी के चालुक्य शासक साम्राज्य निर्माता के साथ- साथ संस्कृति के महान् उन्नायक थे। इनके शासनावधि में साहित्य, कला और प्रशासन के क्षेत्र में महती प्रगति हुई। चालुक्यों एवं उनके समकालीन राज्यों में राजा शासन सम्बन्धी गाड़ी की धुरी के समान था। चालुक्यों का प्रशासन एकतंत्रात्मक था। राजा शासन का सर्वोच्च अधिकारी होता था। वही सेना, शासन एवं न्याय तीनों का प्रमुख था। सैनिक क्षेत्र में वह बडे़-बड़े युद्ध का नेतृत्व करता था। असीमित शक्तियों से युक्त राजा निरकुंश नहीं था। कल्याणी के चालुक्य शासक राज्य के अधिकारियों एवं सामन्तों को उपाधियों का वितरण करता था। चालुक्य राजवंश का राजकीय चिन्ह देवी कात्यायनी द्वारा प्रदत्त ‘मयूरध्वज’ था तथा मुद्राओं पर ‘वराह’ का चिन्ह अंकित होता था। अभिलेखों में मंगलाचरण के रूप में एक छन्द में वराह रूप में विष्णु द्वारा धरती के उद्धार करने का विवरण मिलता है। इसमें कहा गया है कि भगवान विष्णु ने वराह रूप में धरती का उद्धार किया, उसी प्रकार ये अर्थात् चालुक्य भी पृथ्वी की रक्षा के लिए प्रकट हुए हैं। कौथेम ताम्रपट्ट अभिलेख में ‘सर्ववर्णधरम् धनुः’ मिलता है, जो चालुक्य नरेश इरिव-बेदंग सत्याश्रय के धनुष के बारे में कहा गया है। जिसका तात्पर्य है कि वह धनुष जो सभी वर्णों की समान रूप से रक्षा करता है एवं यह धनुष इन्द्रधनुष की तरह सभी रंग धारण करता है। चालुक्य शासक समस्तभुवनाश्रय, सर्वलोकाश्रय, विष्णुवर्धन और विजयादित्य जैसी उपाधियाँ अपनी विशेषनाम् (विशिष्टिता) के संदर्भ में धारण करते थे। कई शासको ने त्रिभुवनमल्ल, त्रैलोक्यमल्ल और आहवमल्ल का विरूद धारण किया था। इस समय राजा का पद प्रायः आनुवंशिक होता था। जब तक कोई विशेष परिस्थिति न आ जाय तब तक राजा का बडा़ पुत्र ही उसका उत्तराधिकारी होता था। अनेक पुत्रों की स्थिति में बडे़ पुत्र को ही राजा का पद मिलता था। कभी-कभी योग्यता को भी आधार मानकर शासक का चयन कर लिया जाता था। जैसे सोमेश्वर प्रथम ने अपने बडे़ पुत्र सोमेश्वर द्वितीय के स्थान पर अपने छोटे पुत्र विक्रमादित्य षष्ठ को अपना उत्तराधिकारी बनाने का प्रस्ताव रखा था। यद्यपि विक्रमादित्य षष्ठ ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। कभी-कभी राजा के पुत्र हीन की स्थिति में राजा के अनुज को उत्तराधिकारी बनाया जाता था। जैसे जगदेकमल्ल के निःसंतान होने की स्थिति में तैलप तृतीय ने सिंहासन प्राप्त किया था। कल्याणी के राजाओं का राज्याभिषेक ‘किसुबोलल’ (पट्टदकल, बीजापुर) में होता था। अभिलेखों में इसे ‘समस्त नगरों में श्रेष्ठ एवं...
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