कल्याणी का चालुक्य राजवंश:भाग-3 (The Chalukyan Dynasty Of Kalyani)

Table of Content

सोमेश्वर द्वितीयः

                1068ई0 में सोमश्वर प्रथम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र सोमेश्वर द्वितीय भुवनैकमल्ल कल्याणी के राजपीठ पर आसीन हुआ। इसने अपने छोटे भाई विक्रमादित्य षष्ठ को गंगवाड़ी का शासक नियुक्त किया। इस नवारूढ़ शासक को चोल शासक वीर राजेन्द्र ने आक्रान्त किया तथा अनन्तपुर जिले के गूटी दुर्ग को घेर लिया। सोमेश्वर द्वितीय के लेखों से ज्ञात होता है कि वीर राजेन्द्र की योजनायें असफल सिद्ध हुई तथा चोल सेना प्रत्यावर्तन के बाध्य हुई। चालुक्य सेनापति दण्डनायक लक्ष्मण ने कल्याणी के सिंहासन को सुरक्षित रखने में विशेष योगदान दिया। यद्यपि विक्रमादित्य षष्ठ युवराज के रूप में शासन कर रहा था, किन्तु इस संघर्ष में उसका कोई संकेत नहीं मिलता है। इससे यह प्रतीत होता है कि विक्रमादित्य षष्ठ अन्दर से सोमेश्वर द्वितीय के राजा बनने के खिलाफ था। पिता की मृत्यु के समय वह दिग्विजय के निकला था। कल्याणी वापस आने पर उसने लूट की समस्त सम्पत्ति सोमेश्वर के चरणों में समर्पित कर दी। कुछ दिनों तक दोनों में मधुर सम्बन्ध रहा। विल्हण के विवरण के अनुसार सोमेश्वर द्वितीय शीघ्र ही गलत आदतों से ग्रसित हो गया। उसके सन्देहालु, निष्ठुर एवं विलासी प्रवृत्ति से सभी असंतुष्ट हो गये। विक्रमादित्य षष्ठ ने उसे अनेक प्रकार से समझाने का प्रयास किया किन्तु जब सोमेश्वर द्वितीय विक्रमादित्य षष्ठ पर संदेह करने लगा तो विक्रमादित्य एवं उसके छोटे भाई जयसिंह ने राजधानी को त्याग कर तुंगभद्रा के तट पर एक उपनिवेश की स्थापना की।

                चोल लेखों से ज्ञात होता है कि चोल शासक वीर राजेन्द्र से इसकी मित्रता थी। दोनों में मिलकर कल्याणी पर आक्रमण किया तथा साम्राज्य विभाजन के लिए बाध्य किया। विल्हण के विक्रमांकदेवचरित के अनुसार सोमेश्वर द्वितीय ने विक्रमादित्य को अवरूद्ध करने के लिए एक सेना भेजी जो परास्त हुई। तुंगभद्रा तट पर विक्रमादित्य षष्ठ ने एक लघु राज्य की स्थापना की। कदम्ब शासक जयकेशी और आलूप नरेश ने विक्रमादित्य की अधीनता स्वीकार कर लिया। चोल शासक वीर राजेन्द्र ने मित्रता को और सुदृढ़ करने के लिए अपनी पुत्री का विवाह विक्रमादित्य के साथ कर दिया।

                1068-69ई0 में सोमेश्वर को विक्रमादित्य षष्ठ तथा उसके सम्बन्धी एवं सहायक चोलों से युद्ध करना पड़ा। सोमेश्वर को अपदस्थ कर उसके स्थान पर अपने जामाता विक्रमादित्य षष्ठ का प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से वीर राजेन्द्र ने चालुक्य राज्य पर आक्रमण कर दिया और गुत्ति(गूटी) को घेर लिया। इसके बाद कम्पिल नगर को नष्ट कर चोल सेना ने करदिकल में अपना विजय स्तम्भ स्थापित किया। कर्नाटक प्रदेश को जीतकर वीर राजेन्द्र ने विक्रमादित्य को रट्टपाडि का राजा घोषित किया। लेकिन सोमेश्वर द्वितीय की शक्तिशाली अश्वसेना ने वीर राजेन्द्र को पराजित कर पीछे खदेड़ दिया। चोलों की इस पराजय से विक्रमादित्य को झुकना पड़ा। 1074ई0 में विक्रमादित्य सोमेश्वर के अधीन बंकापुर में शासन कर रहा था।

                वीर राजेन्द के साथ विक्रमादित्य षष्ठ का सम्बन्ध पहले वरदान सिद्ध हुआ किन्तु बाद में उसके लिए एक दायित्व बन गया। वीर राजेन्द्र की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अधिराजेन्द्र पूर्वी चालुक्य शासक राजेन्द्र (कुलोतुंग प्रथम) के षडयन्त्र का शिकार बना। विक्रमादित्य कांची गया तथा वहाँ क्रान्ति का दमन किया। इसके बाद गंगैकोण्डचोलपुरम् जाकर अधिराजेन्द्र को चोल सिंहासन पर अधिष्ठित किया और फिर वापस तुंगभद्रा आ गया। कुछ दिनों के बाद उसे यह सूचना मिली कि अधिराजेन्द्र की हत्या कर कुलोतुंग प्रथम ने चोल सिंहासन हस्तगत कर लिया है। इस प्रकार कुलोतुंग प्रथम के चोल गद्दी पर आसीन होने से विक्रमादित्य एक ओर अपने अग्रज सोमेश्वर द्वितीय तथा दूसरी ओर कुलोतुंग प्रथम दो शत्रुओं से घिर गया।  

                सोमेश्वर द्वितीय और कुलोतुंग प्रथम दोनों ने विक्रमादित्य षष्ठ के विरूद्ध एक संघ का निर्माण किया। विक्रमादित्य षष्ठ ने इसी समय त्रिभुवन मल्ल की उपाधि धारण किया जो उसकी स्वतंत्रता को दर्शाती है। अनेक चालुक्य सामन्तों ने विक्रमादित्य का साथ दिया। नोलम्बवाडी का गर्वनर जयसिंह ने विक्रमादित्य का समर्थन किया। सोमेश्वर द्वितीय के अत्याचारों से ऊब कर अनेक चालुक्य अधिकारियों ने भी विक्रमादित्य का समर्थन किया। सोमेश्वर द्वितीय तथा कुलोतुंग ने एक साथ आक्रमण करने की योजना बनायी। सोमेश्वर द्वितीय युद्ध में पराजित हुआ। विक्रमादित्य ने चालुक्य सिंहासन प्राप्त कर अपना राज्याभिषेक किया और इसके उपलक्ष्य में इसने चालुक्य संवत् प्रचलित किया।

                इस प्रकार सोमेश्वर द्वितीय का शासन काल 1076ई0 में समाप्त हुआ। लेखों में इसकी दो पत्नियों के नाम कचलदेवी और मैललदेवी मिलता है। उसकी एक बहन सुग्गलदेवी 1069 तथा 1075ई0 में किसुकाड में शासन कर रही थी। उसका सामन्त और सेनानायक लक्ष्मण दण्डनायक बनवासी का शासक था। विल्हण के विवरण से सोमेश्वर द्वितीय एक अत्याचारी एवं बिलासी शासक ज्ञात होता है किन्तु सोमेश्वर के लेखों में इसकी पूर्ण प्रशस्ति प्राप्त होती है।

विक्रमादित्य षष्ठः

                सोमेश्वर द्वितीय के बाद कल्याणी के सिंहासन पर विक्रमादित्य षष्ठ आसीन हुआ। जिसके शासन काल में राजनीति की अपेक्षा सांस्कृतिक क्षेत्र में अधिक अभ्युत्थान हुआ। अभिलेखों एवं विल्हण के विक्रमांकदेवचरित से इसके शासन एवं जीवन चरित्र का विस्तृत ज्ञान उपलब्ध होता है। विल्हण के अनुसार सोमेश्वर प्रथम के तीनों पुत्रों में विक्रमादित्य षष्ठ सर्वाधिक योग्य था जो दैवी शक्ति से सम्पन्न था। इसका जन्म ही शिव के अवतार स्वरूप था। इसकी योग्यताओं से प्रसन्न होकर सोमेश्वर प्रथम इसे अपना युवराज बनाना चाहा किन्तु इसने अपने अग्रज सोमेश्वर द्वितीय के पक्ष में अस्वीकार कर दिया। सोमेश्वर द्वितीय से जब प्रजा संत्रस्त हो गयी तब इसने चालुक्य सिंहासन को हस्तगत कर लिया। हैदराबाद संग्रहालय के दो लेखों से ज्ञात होता है कि इसने अपने बाहुबल से सोमेश्वर द्वितीय से राज्य-लक्ष्मी प्राप्त किया था।

                हैदराबाद में वडपेरि लेख से ज्ञात होता है कि 1076ई0 में इसने अपना पट्ट बन्धनोत्सव सम्पन्न किया था। इसने एक संवत् का प्रचलन भी किया जिसे चालुक्य विक्रम संवत् कहा गया। विक्रमादित्य षष्ठ के समय दो घटनायें घटी -1. लंका के राजा विजयबाहु ने चोल शासन का अंत कर वहाँ से कुलोतुंग की सेना को भगा कर उसी समय श्रीलंका में विजयबाहु ने अपना अभिषेक किया और उपहार भेंट किया। इससे स्पष्ट है कि विक्रमादित्य षष्ठ उन सभी शक्तियों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाने का प्रयास किया जो चोल शासक कुलोतुंग प्रथम के विरोधी थे तथा 2. वेंगी के शासक विजयादित्य की मृत्यु हो गयी जो विक्रमादित्य का मित्र था। कुलोतुंग ने अपना प्रतिनिधि भेजकर वहाँ का शासन अपना लिया।

दिग्विजय-

                विल्हण ने अपने आश्रयदाता को एक चक्रवर्ती सम्राट के रूप में चित्रित किया है। सिंहासन पर आसीन होने के बाद विक्रमादित्य ने करहाट की विद्याधर राजकुमारी चन्द्रलेखा के अप्रतिम सौन्दर्य के बारे में सुना तो वह उस कन्या से प्रेम करने लगा और स्वयंवर के द्वारा उससे विवाह किया। तदुपरान्त चालुक्य राजा पश्चिमी तट पहुँचा, इसकी हस्तिसेना ने मलय पर्वत के चन्दन वन को विजित किया। चोल नरेश पलायित हुआ, परमार शासक को मालवा के सिंहासन पर अधिष्ठित किया, पूर्वी पर्वत की सुन्दरियों ने इसक गौड़ और कामरूप विजय का गुणगान किया तथा केरल, कांची, वेंगी एवं चक्रकूट के शासकों को पराजित किया।

जयसिंह का विद्रोही होना-

                जयसिंह विक्रमादित्य का छोटा भाई था, उसने सोमेश्वर के साथ हुए युद्ध में विक्रमादित्य षष्ठ का साथ दिया था। अतः सम्राट का पद संभालते ही विक्रमादित्य ने उसे यवुराज बना दिया, साथ ही उसे कोगली, कुण्डुर, बनवासी तथा शांतिडिगये के विस्तृत क्षेत्रों का शासक नियुक्त किया। परन्तु अभिलेखों से ज्ञात होता है कि जयसिंह को 1082ई0 में युवराज पद से मुक्त कर दिया। विल्हण के अनुसार जयसिंह सिंहासन पर अधिकार करने के विचार से सैनिक शक्ति बढ़ाने एवं अन्य साधन जुटाने में लगा हुआ था। उसने चोल सम्राट कुलोतुंग से भी सहायता माँगी। विक्रमादित्य ने उसे समझाने का प्रयास किया, लेकिन जयसिंह कृष्णातट के गाँवों में जाकर लूट-पाट करने लगा, तब विक्रमादित्य सेना के साथ जाकर भंयकर युद्ध किया, जयसिंह पराजित हुआ और पकड़ा गया। इसके बाद जयसिंह के बारे में कोई सूचना प्राप्त नहीं होती।

मालवा पर आक्रमणः

                मालवा से चालुक्यों का तीन बार संघर्ष हुआ। इसका मूल कारण सोमेश्वर की पराजय का बदला लेना था। प्रथम अभियान का परिणाम अज्ञात है पर एक अभिलेख से लगता है कि मालवा के राजा पर विक्रमादित्य भारी पड़ा था। दूसरे युद्ध में चालुक्य सफल रहे। उसने उदयादित्य को पराजित किया, धारा नगर को जला दिया तथा अपना विजय स्तम्भ स्थापित किया। तीसरा संघर्ष 1097ई0 में हुआ जब नरवर्मन मालवा का शासक था। जगदेव (परमार शासक) को विक्रमादित्य षष्ठ अपने पुत्र के समान मानता था ,जो परमार उत्तरधिकारी का त्याग कर चालुक्य दरबार में चला गया। मालवा के इन अभियानों के फलस्वरूप विक्रमादित्य षष्ठ ने नर्मदा के दक्षिण स्थित समस्त भू-भाग पर अधिकार कर लिया था। रामबाग लेख से पता चलता है कि विक्रमादित्य षष्ठ ने उदायिन (उदयादित्य) की शक्ति को नष्ट किया, धारा नगरी जला दी गयी और विजय स्तम्भ स्थापित किया। जगदेव के जयनाद अभिलेख से ज्ञात होता है कि विक्रमादित्य षष्ठ ने उसे आन्ध्रप्रदेश में जनपदीय क्षेत्र का शासक नियुक्त किया था।

वेंगी से संधर्ष-

                वेंगी पर सोमेश्वर प्रथम ने राजनीतिक दबाव बनाये रखा। यह प्रक्रिया आगे भी चालू रही। इसी क्रम को विक्रमादित्य ने आगे बढ़ाया। सिंहासनारोहण के पूर्व कुलोतुंग प्रथम एवं विक्रमादित्य षष्ठ के मध्य शत्रुता चल रही थी। जिस समय कुलोतुंग प्रथम सिंहल से युद्धरत था, उस समय विक्रमादित्य षष्ठ ने सिंहल नरेश विजयबाहु से राजनीतिक संघ स्थापित किया तथा अब कुलोतुंग  दोनों का सामान्य शत्रु बन गया। लेकिन जब तक कुलोतुंग जीवित रहा तब तक विक्रमादित्य उसे परास्त करने में असफल रहा। कुलोतुंग की मृत्यु के बाद ही विक्रमादित्य षष्ठ ने वेंगी का अधिकृत कर सका।

होयसल से संघर्षः

                मैसूर के गंगवाडी क्षेत्र में होयसल कल्याणी के चालुक्यों के सामन्त के रूप में शासन कर रहे थे। विक्रमादित्य षष्ठ के लेखों में होयसल नरेश विनयादित्य, उसके पुत्र उरैयंग तथा इरैयंग के दो पुत्र बल्लाल प्रथम और विष्णुवर्धन का उल्लेख मिलता है। विष्णुवर्धन (बिट्टिग) ने होयसल शक्ति को पूर्ण समृद्धि करने का प्रयास किया तथा स्वतन्त्र रूप से अभियान भी प्रारम्भ कर दिया। 1118ई0 के होयसल लेखों से ज्ञात होता है कि विष्णुवर्धन कि सेनापति ने विक्रमादित्य षष्ठ की सेना को पराजित कर दिया। जबकि चालुक्य लेखों में इस संघर्ष का कोई उल्लेख नहीं है। किन्तु बाद के सिन्द लेख में चालुक्यों के होयसल पर अभियान का अवश्य उल्लेख मिलता है। विक्रमादित्य षष्ठ ने अपने सामन्त आचुगी को होयसलों के विरूद्ध भेजा। आचुगी ने होयसल शासक बिट्टिग को परास्त कर द्वारसमुद्र को अधिकृत कर लिया। 1122-23ई0 में विक्रमादित्य बनवासी के जयन्तीपुर नामक स्थान पर ठहरा था। इससे यह ज्ञात होता है कि होयसलों को पराजित करने के बाद दक्षिण की ओर बढ़ा होगा। विष्णुवर्धन की उपाधि धारण की जो होयसल विजय का द्योतक है। विष्णुवर्धन चालुक्यों की अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य हुआ।

शिलाहार से संघर्षः

                सतारा में करहाटक या करहाद में 10वीं शताब्दी ई0 में शिलाहारों की एक शाखा शासन कर रही थी। चन्द्रलेखा शिलाहार नरेश मारसिंह की पुत्री थी। जिसका विवाह विक्रमादित्य षष्ठ के साथ हुआ था। 1100ई0 के आस-पास विद्रोही शासक भोज पर आक्रमण करने के लिए विक्रमादित्य षष्ठ ने भीमरथी नदी के तट पर स्थित ‘उप्पयनदकुप्प’ नामक स्थान पर अपना सैनिक शिविर लगाया था। परन्तु इसमें उसे पूर्ण सफलता नहीं मिली। क्योंकि 1108ई0 में भोज को एक शक्तिशाली शासक के रूप में शासन करते हुए हम पाते हैं।

यादव एवं काकतीय से संघर्षः

                नासिक में यादव तथा अनुमकोण्ड के क्षेत्र में काकतीयों का उदय हो रहा था। यादव शासक सेउणचनद्र के पुत्र एरमदेव ने विक्रमादित्य षष्ठ की अधीनता में अनेक युद्धों में भाग लिया था। बाद में यादवों ने विद्रोह कर दिया। लेकिन चालुक्यों ने एरमदेव को परास्त कर सामन्त रहने के लिए बाध्य किया। 1117ई0 में काकतीय शासक प्रोल के अनुमकोण्ड लेख से ज्ञात होता है कि इसके पिता बेट के मंत्री दण्डनाथ ने अपने स्वामी को प्रोत्साहित किया कि वह विक्रमादित्य की अधीनता मान ले। इससे स्पष्ट है कि बेट उसकी अधीनता पहले ही स्वीकर कर रहा था। यद्यपि चालुक्यों की अधीनता काकतीय लोग पहले से स्वीकार कर रहे थे।

                विक्रमादित्य षष्ठ की महत्ता उसकी सैनिक शक्ति, विजयों अथवा उसके सैनिक कार्यों में नहीं थी। वह तो महान था अपने शान्तिकालीन कार्यों के कारण, चालुक्य साम्राज्य के विस्तार सहित उसके प्रशासन और कुशल प्रबन्धन के कारण, विद्वानों, विद्या और विद्यालयों के संरक्षण के कारण, नानादेशीय विद्वानों और ब्राहमणों को चालुक्य साम्राज्य के भीतर आमंत्रित कर वेद, वैदिक विधाओं और समसामयिक संस्कृति के उत्थान एवं उन्नयन के कारण, अपने, अपनी रानियों और अधिकारियों द्वारा दिये जाने वाले दानों के कारण तथा एक विस्तृत प्रशासकीय तथा सैनिक नौकरशाही के कारण। अपने नाम पर विक्रमादित्य ने विक्रमपुर नगर की स्थापना की। जिसकी पहचान बीजापुर जिले के अरसिवीडि नामक स्थान से की जाती है। इसके समय में जयन्तीपुर(बनवासी) काफी महत्वपूर्ण हो गया।

विक्रमादित्य षष्ठ विद्वानों का संरक्षक था। उसके संरक्षण में कश्मीरी कवि विल्हण ने ‘विक्रमांकदेवचरित’ की रचना की थी। जिसका नायक विक्रमादित्य षष्ठ ही था। उसने विल्हण को विद्यापति (प्रंमुख पंडित) बनाया। विज्ञानेश्वर (याज्ञवल्क्यस्मृति का टीकाकार) उसका मंत्री था। उसने तमिल ब्राहमणों को राज्य में बसा कर उन्हें अग्रहार दान में दिया। इसका अन्त लगभग 1126ई0 में हुआ।

सोमेश्वर तृतीय- भूलोकमल्ल (1126-1139ई0):

                विक्रमादित्य षष्ठ की मृत्यु के बाद 1126ई0 में उसका पुत्र सोमेश्वर तृतीय कल्याणी के सिंहासन पर आसीन हुआ। इसने ‘भूलोकमल्ल’ तथा ‘सर्वज्ञ चक्रवर्ती’ की उपाधि धारण की। बेलगाँव लेख से ज्ञात होता है कि अपने शासन के तीसरे वर्ष यह एक दिग्विजय कि लिए दक्षिण की ओर गया था। इस दिग्विजय का तात्पर्य मात्र शौर्य प्रदर्शन था।

द्राक्षाराम से प्राप्त एक लेख के अनुसार गोदावरी तट पर वेलनांटिचोडगोंक द्वितीय ने एक युद्ध में चालुक्य सेना को पराजित किया। यह युद्ध लगभग 1135ई0 में हुआ था। इस युद्ध में सोमेश्वर स्वयं उपस्थित था।  इससे यह स्पष्ट होता है कि वेंगी मण्डल का अधिकांश क्षेत्र उसने खो दिया।

होयसल नरेश विष्णुवर्धन अभी तक सोमेश्वर की अधीनता स्वीकार कर रहा था। 1137ई0 के सिन्दिगेरे के एक लेख में विष्णुवर्धन को ‘चालुक्यमणिमांडलिकचूडा़मणि’ की उपाधि प्रदान की गयी है। सोमेश्वर के 13वें वर्ष के एक लेख में महामण्डलेश्वर होयसलदेव द्वारा गंगवाड़ी, नोलम्बवाड़ी तथा बनवासी को आक्रान्त करने का उल्लेख है। उच्छंगि के दुर्ग पर प्रहार किया और कदम्ब शासक मल्लिकार्जुन द्वारा शासित हानुगंल को घेर लिया था। किन्तु बाद में सोमेश्वर ने उसे पराजित किया। बनवासी के कदम्ब उसके सामन्त थे।

सोमेश्वर ने राजनीति की अपेक्षा धर्म एवं साहित्य में विशेष रूचि ली। शासन के दूसरे वर्ष ही बीजापुर जिले के स्वयंभू-सोमनाथदेव मंदिर दर्शनार्थ गया हुआ था। इसने ‘मानसोल्लास’ या ‘अभिलाषार्थ-चिन्तामणि’ नामक एक महत्वपूर्ण विश्वकोश की रचना की थी। मानसोल्लास शिल्पशास्त्र का प्रामाणिक रचना है। वह एक कुशल शासक, प्रशासक और उच्चकोटि का विद्वान था।

सोमेश्वर तृतीय की दो पत्नियों का नाम बम्मलदेवी और राजलदेवी का उल्लेख लेखों में मिलता है। उसके दो पुत्र थे- जगदेकमल्ल द्वितीय और तैलप तृतीय। उसकी अन्तिम ज्ञात तिथि 1138ई0 है।

जगदेकमल्ल द्वितीयः

                सोमेश्वर तृतीय के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र उत्तराधिकारी हुआ। जिसे जगदेकमल्ल, प्रताप चक्रवर्ती तथा त्रिभुवनमल्ल आदि उपाधियों से अलंकृत किया गया है। इसका शासन काल 1138ई0 से प्रारम्भ होता है। जगदेकमल्ल का सबसे प्राचीन उल्लेख चित्तलदुर्ग के 1143ई0 के एक अभिलेख में मिलता है।

                 सोमेश्वर तृतीय की निर्बलता का लाभ उठाकर होयसल शासक विष्णुवर्द्धन ने अपना शक्ति विस्तार प्रारम्भ कर दिया था। 1149ई0 में विष्णुवर्द्धन ने बंकापुर को केन्द्र मानकर गंगवाड़ी, बनवासी, हंगल हुलगिरे पर शासन कर रहा था। कृष्णानदी पार कर जगदेकमल्ल के साम्राज्य का भी ज्ञान होता है किन्तु इससे अवश्य प्रतिध्वनित होता है कि चालुक्य साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया।

                जगदेकमल्ल द्वितीय शासनान्त तक चालुक्य साम्राज्य को अक्षुण्ण बनाये रखा तथा होयसल एवं काकतीय अपनी स्वधीनता घोषित करने में असफल रहे। 1143ई0 के चित्तलदुर्ग अभिलेख में चालों एवं होयसलों के विरूद्ध उसकी सफलता का उल्लेख है। जगदेकमल्ल की अन्तिम ज्ञात तिथि 1151ई0 है।

तैलप तृतीयः

                जगदेकमल्ल द्वितीय के बाद उसका छोटा भाई तैलप तृतीय चालुक्य राजपीठ पर आसीन हुआ। उसने त्रिभुवनमल्ल, त्रैलोक्यमल्ल, तथा चालुक्य चक्रवर्ती-विक्रम की उपाधि धारण किया। उसके साम्राज्य में अनेक विद्रोह हुए और चालुक्य साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया तीव्र हो गयी थी। स्थानीय शक्तियों का उदय हो रहा था। काकतीय, होयसल तथा यादव अपनी स्वतंत्रता घोषित करने के लिए अवसर तलाश रहे थे। कलचुरि सामन्त बिज्जण ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। 1162ई0 में बिज्जण ने तैलप तृतीय के शासन का अन्त कर कलचुरि साम्राज्य की स्थापना की।

सोमेश्वर चतुर्थः

                तैलप तृतीय का पुत्र एवं उत्तराधिकारी सोमेश्वर चतुर्थ चालुक्य वंश का अन्तिम शासक बना। लगभग 1182ई0 में सोमेश्वर चतुर्थ ने आहवमल्ल को परास्त कर अपने पैतृक राज्य के खोये  प्रदेशों में से अधिकांश पुनः अधिकृत कर लिया। 1184ई0 के अभिलेख में उसे ‘कलचूर्यकुल निर्मूलना’(कलवुरि वंश का विनाशक) तथा 1185ई0 के लेख में ‘चालुक्याभरणसिरिमात्त्रैलोक्यमल्लभुजबलावीर’(चालुक्य वंश का आभूषण तथा बाहुबल वाला त्रैलोक्यमल्ल) कहा गया हैं इस प्रकार वह अपने वंश की प्रतिष्ठा का उद्धारक था। इसकी उपाधि से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इसने अपने बाहुबल से कलचुरियों को बहिष्कृत किया। 1184ई0 के एक लेख से ज्ञात होता है कि चोल, लाट, मलेयाल, तेलिंग, कलिंग, वंग, पांचाल, तुरूष्क, गुर्जर, मालवा तथा कोंकण राज्यों में उसकी आज्ञायें तथा अधिसत्ता स्वीकार की जाती थी। किन्तु यह विवरण अतिरंजित लगती है।

                सोमेश्वर चतुर्थ के काल में राजनीतिक स्थिति एकदम परिवर्तित थी। सामन्त अनियंत्रित थे जो कल्याणी को ही अधिकृत करने के लिए प्रयत्नशील थे। देवगिरि के यादव तथा द्वारसमुद्र के होयसल सर्वाधिक घातक सिद्ध हुए। रट्ट, शिलाहार, कदम्ब तथा पाण्डयों ने भी अपना सिर उठाया। यादवों ने कल्याणी को अधिकृत कर लिया तथा सोमेश्वर चतुर्थ ने जयन्तीपुर में अपना केन्द्र बनाया। यहाँ भी भाग्य ने उसका साथ नहीं दिया तथा बल्लाल द्वितीय द्वारा पराजित होना पड़ा। सोमेश्वर के सेनापति ब्रह्म ने कलचुरियों को पराजित किया ।

                 अन्ततः 1192ई0 के लगभग चालुक्य साम्राज्य मुख्यतः होयसलों एवं यादवों के मध्य विभाजित हो गया। कृष्णा एवं मलप्रभा नदियाँ दोनों राज्यों की सीमा बनीं। इस प्रकार सोमेश्वर चतुर्थ के बाद चालुक्यों के इतिहास का सूर्य अस्त हो जाता है।

Tags :

Dr vishwanath verma

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Recent News

Related Post

© 2025 worldwidehistory. All rights reserved and Powered By historyguruji