बौद्ध संस्कृति में वन और उनका महत्त्व(Forests And Their Significance In Buddhist Culture)

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मनुष्य और अन्य पशुओं के जीवन में कुछ समानता प्रत्यक्ष है। इस समानता का स्तर प्राकृतिक है, जिसे भर्तृहरि के शब्दों में कह सकते हैं-

                    आहार- निद्राभयमैथुनं च समानमेतत् पशुभिर्नराणाम्।

                प्राकृतिक स्तर के अतिरिक्त मानवीय जीवन-प्रवृत्तियों के बहुविध स्तर हैं-सामाजिक, दैविक, आध्यात्मिक, बौद्धिक और रसात्मक। मनुष्य ने एक समाज की रचना की है, जिसकी विशाल परिधि में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ आता है। वह देवी-देवताओं की कल्पना करके उनकी दैविक विभूति का उपयोग करता है। आत्मा और परमात्मा की प्रतिष्ठा करके मानव आध्यात्मिक समाधि की अवस्था में जा पहुँचता है। बौद्धिक स्तर पर अपने बुद्धि-कौशल से नित्य अनुसन्धान करके ज्ञान-विज्ञान की दिशाओं में वह सफलता प्राप्त करता है। उसकी प्रगति के लिए प्रेरणा की दृष्टि से सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है रसात्मक निष्ठा, जिसके द्वारा व्यावहारिक और कल्पनात्मक सर्जनाओं में वह रस ग्रहण करता है।

                अपने प्राकृतिक जीवन-स्तर पर पशु प्रायः वहीं हैं, जहाँ सहस्रों वर्ष पहले थें, किन्तु मानव न केवल प्राकृतिक स्तर पर, अपितु उपर्युक्त अन्य स्तरों पर निरन्तर प्रगति करता आ रहा है। यही उसकी मानवोचित साधना है। यह साधना-पथ अनन्त है और मानव निरवधि काल तक इस पर चलता रहेगा। इस साधना के पीछे उसकी बुद्धि, वाणी, सौन्दर्य-भावना, आध्यात्मिक अनुसंधान और सहानुभूति की नित्य अपेक्षा रहती है। इनको सतत् उच्चत्तर स्तर पर प्रतिष्ठित करते हुए मानव अपने व्यक्तिगत और सामाजिक सुख-सौरभ की सृष्टि करता आ रहा है। मनुष्य की यही प्रवृत्ति उसकी संस्कृति है। यही मानव जीवन की कला है। यही मानव-जीवन के विकास की सनातन प्रक्रिया है।

                संस्कृति के विकास-पथ में प्राकृतिक परिस्थितियों का सर्वाधिक महत्त्व होता है। प्राकृतिक दशा के अनुरूप मानव की नित्य की आवश्यकताएँ होती हैं। मानव इस प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रायः अपने आस-पास प्राप्त होने वाली प्रकृति- प्रदत्त वस्तुओं को उपयोग में लाता है। यदि प्रकृति की विषमताओं के कारण मानव की नित्य की आवश्यकताएँ अत्यधिक हो जाती हैं और उनकी पूर्ति के लिए उसे प्रकुृति से संघर्ष करना पड़ता है तो स्वभावतः वह प्रकृति को आदर की दृष्टि से नहीं देख पाता। ऐसी प्रकृति के संसर्ग में वह स्वयं कठोर बन जाता है। इसके विपरीत यदि प्रकृति उदार हो, अपनी शरण में आये हुए, स्वल्प श्रम करने वाले व्यक्तियों का भरण-पोषण करती हो तो लोगों के हृदय में उसके प्रति सद्भावना उत्पन्न होती है। ऐसी स्थिति में लोग प्रकृति को देवी मान लेते हैं। ऐसी प्रकृति के संसर्ग में आने पर लोगों का चरित्र उसके आदर्शों के अनुरूप विकसित हो जाता है। प्रकृति उदारता, सहानुभूति, सहिष्णुता आदि का प्रथम पाठ मानव को पढ़ाती है। प्रकृति के रम्य प्रदेशों में दार्शनिक को आध्यात्मिक सत्य का आभास होता है। शिल्पी और कलाकार प्रकृति से उपादानों को ग्रहण करके उसके सौष्ठव और सौन्दर्य की अभिव्यंजनाओं को चित्र, मूर्ति, वास्तु और काव्य आदि के माध्यम से प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं। प्रायः प्राकृतिक संविधानों के अनुरूप ही भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक एकता का प्रादुर्भाव हुआ।

छः ऋतुः

                भारतीय संस्कृति के लिए प्रकृति से अलंकृत गाँवों का महत्त्व वनों की भाँति रहा है। नगरों को आध्यात्मिक संस्कृति के प्रतिकूल माना गया है। भारतीय प्रकृति की चारूता ऋतुओं के साथ बदलती रहती है। छः ऋतुओं में क्रमशः छः बार सारे प्राकृतिक वातावरण का परिवत्र्तन सा होता है। प्रायः सभी ऋतुओं की प्रघान विशेषता रही है कि वे कभी भी इतनी कठोर नहीं होती कि लोगों को बाहर निकलने में कठिनाई हो या उन्हें अपने घर के कोने में दुबक कर बैठना पडे़। कोई भी ऋतु इतनी दुःसह नहीं होती कि मानव को भोजन-पान तथा वस्त्र सम्बन्धी विशेष आयोजन किए बिना जीवन दूभर या असम्भव हो जाय। जहाँ तक जलवायु का सम्बन्ध है, प्राचीन भारत के प्रायः सभी प्रान्तों में आज की अपेक्षा अधिक वर्षा होती थी और गर्मी भी कम पड़ती थी।

बौद्ध संस्कृति में वनः

                व्यक्तित्व के विकास के लिए बौद्ध संस्कृति में वनों का अतिशय महत्त्व रहा है। इस संस्कृति में अरण्य को रमणीय माना गया और कहा गया कि कामनाओं के फेर न पड़ने वाले विरागी पुरूष इन्हीं अरण्यों में रमण करते हैं। थेर-गाथा में अधिकांश चरित ऐसे ही महापुरूषों के हैं जिन्होंने वन में रहते हुए ही अपने व्यक्तित्व का विकास किया था और साथ ही जिन्होंने वन-भूमि को अतिशय रमणीय मानकर प्रायः वहीं अपना जीवन-यापन किया। इन ग्रन्थों के अनुसार अरण्य-संज्ञी उन मुनियों की उपाधि थी, जिनका चित्त वन की शोभा और सुविधाओं की ओर विशेष प्रवृत्त था। पर्वत और वन की प्रशान्ति के बीच अंगुलिमाल का मन रमता था। वन-वृक्षों की हरी शीतल छाया में विचरण करने वाले मुनि वन-सरिताओं का शीतल जल पीते थे, उसी में स्नान करते थे और वन में ही परिभ्रमण करते थे। वन और पर्वत की शीतल वायु उनके अज्ञान रूपी कुहरे को मानों उड़ा देती थी। वे वन की पुष्प- रंजित भूमि पर बैठ कर मुक्ति और बन्धन-विहीनता का अनुभव करते थे। प्रकृति की वन्य सुरम्यता को भिक्षुओं ने अपनी प्रगति में सर्वथा सहायक पाया। ऐसा वातावरण उनकी समाधि और चिन्तन को स्फुरित करता था। वन की प्राकृतिक उदारता के प्रति भिक्षुओं की कृतज्ञता के अनेक उद्गार पुस्तकों में संकलित हैं। उसभ नामक थेर को शरद् की वनश्री की संवर्धना के द्वारा आत्म-विकास का सन्देश मिला था।

वन का महत्वः

                गौतम बुद्ध ने वन की उपयोगिता प्रमाणित करते हुए कहा कि जब तक भिक्षु वन के शयनासन का उपभोग करेंगे, उनकी वृद्धि होगी। उन्होंने नियम बनाया कि भिक्षु एकासन और एकशय्या वाला होकर अकेले विचरण करें, आलस्य न करे, अकेले अपना दमन करे और वन में आनन्दपूर्वक रहे। गौतम बुद्ध का मन पर्वतों और वनों की प्राकृतिक शान्ति में रमता था। उनके जीवल-काल में प्रायः भिक्षु वनों और पर्वतों की गुफाओं में रहते थे। स्वयं बुद्ध कभी-कभी वनों में कई दिनों तक लगातार रहते थे। आगे चलकर प्रकृति की सुरम्यता के बीच नगरों से दूर, नदियों के तट पर और पर्वतों की घाटियों में अनेक बिहार बने। बिहारों में रहने वालों की आवश्यकताओं को पूरी करने के लिए राजाओं और धनी लोगों के द्वारा भूमि और धन का दान दिया गया। नन्द ने योगाभ्यास करने के लिए वन की शरण ली थी।

बौद्ध भिक्षुओं के नियमः

                बौद्ध मुनियों के लिए नियम था कि वे नित्य भ्रमण करों। केवल बर्षा के चार महीनंे तक उन्हें किसी बिहार का आश्रय लेकर रहना आवश्यक था। मुनियों को भिक्षा माँग कर अपने भोजन का प्रबन्ध करना पड़ता था। ऐसी स्थिति में उनके लिये नित्य भ्रमण करने में कोई असुबिधा नहीं थी। प्रारम्भिक युग में मुनियों को अपने पहनने के लिए वस्त्र इधर-उधर गिरे-पडे़ चीथडों़ से ही बना लेने की अनुमति थी। परवर्ती युग में उनको दान में नये वस्त्र प्रायः मिलने लगे।

                गौतम बुद्ध की मध्यमा-प्रतिपदा के अनुसार भिक्षुओं को न तो गृहस्थों की भाँति अतीव सुख था और न वैदिक मतानुयायी वानप्रस्थ-मुनियों की भाँति उन्हें जीवन की कठोरता का सामना करना पड़ता था। भिक्षुओं ने तप से शरीर को कष्ट देने की रीति को कभी अपने व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक नहीं माना।

वन का मानव मूल्यः

                वनों के उद्योग के द्वारा फल, फूल और पत्र की प्राप्ति तो होती ही है, इनके अतिरिक्त वृक्षों की छाया और उनके द्वारा प्रदत्त शान्ति और सौन्दर्य का वातावरण भी वृक्षारोपण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। कुछ पेड़ तो केवल इसीलिए लगाये जाते थै कि उनके नीजे लोग शरण ले सकें। आश्रमों में ऐसे ही वृक्षों के नीचे बैठकर आचार्य और शिष्य अध्ययन-अध्यापन करते थे। कुछ वृक्ष धर्म की दृष्टि से पुण्यप्रद समझकर लगाये जाते थे।

                वट के वृक्ष नगरों के प्रधान द्वारों पर लगाये जाते थे। इनके नीचे 500 आदमी बैठकर भोजन और निवास कर सकते थे। राजाओं के उद्यान के चारों ओर ऊँची सुन्दर दीवाल होती थी, उसमें द्वार और अट्टालिकायें बनती थीं। अनेक प्रकार के वृक्षों से उद्यान सजा होता था। उद्यान के बीच में जो पुष्करिणी होती थी, उसमें घाट होते थे और उसमें कमल के पुष्प विकसित होते थे। उद्यान और पुष्करिणी के योग्य आरामागार भी बनता था। आम के वृक्ष लगाने का चाव था।

                भारत के सुगम वनों में जीवन- यापन की सुविधायें-फल-फूल,जल आदि के सुलभ होने पर ऋषियों और विद्वानों के आश्रम बने अथवा राजाओं के द्वारा वहाँ पर नई बस्तियाँ बसाई गयीं। रामायण काल में पम्पा के समीप सुगम वन की समृद्धि मानवों का स्वागत करती थी। वहाँ पर वृक्षों और वन-लताओं से पुष्प वैसे ही झड़ते थे, जैसे मेघों से वर्षा होती है। वृक्ष आगन्तुकों का मानो भ्रमरों के संगीत के द्वारा स्वागत करते थे। इन्हीं वनों में रहने वाले विचारकों ने जिस सांस्कृतिक धारा को प्रवाहित किया, उसमें न केवल भारत ने ही अपितु विदेशों ने भी अवगाहन किया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने वनों की उपयोगिता की चर्चा करते हुए कहा है- यदि भारत- योरोपीय सांस्कृतिक पद्धति पर चले तो वह योरप नहीं बन जायेगा, केवल दूषित भारत रहेगा। यही कारण है कि हम लोगों को सावधानीपूर्वक उन सिद्धान्तों की खोज निकालना है, जिनसे भारत अपनी आत्मा को समझ सके। वह सिद्धान्त, व्यापार अथवा राष्ट्रीय भावनाओं के संवर्द्धन में अन्तर्हित नहीं है। वह विश्वात्मक भावना है। वह केवल आत्मज्ञान तक ही सीमित नहीं है, अपितु आत्मविजय है, आत्म-समर्पण है। प्राचीन भारत के वनों में इस सिद्धान्त का बोध पहले-पहल हुआ था और वहीं इसके अनुसार आचरण किया गया था। इस सत्य की प्रथम घोषणा उपनिषदों में की गयी और गीता में इसकी व्याख्या की गयी। महात्मा बुद्ध ने संसार को छोड़ दिया, जिससे वे इस सत्य का सन्देश सारी मानवता तक पहुँचाने में समर्थ बने।

                सातवीं शती के चीनी यात्री इत्ंिसग ने आदर्श मुनियों के जीवन-विन्यास का वर्णन करते हुए लिखा है कि वह किसी प्रशान्त वन-प्रदेश में बैठकर पक्षियों और मृगों की संगति का आनन्द लेता है और यश की खोज में न पड़कर निर्वाण की अखण्ड शान्ति चाहता है।

                भारत की विविध प्रकार की वन-सम्पत्ति देश की आधिभौतिक समृद्धि के लिए अतिशय उपयोगी रही। वनों से प्राप्त होने वाली लकड़ी विदेशों तक में भवन-निर्माण के लिए भेजी जाती थी, विविध प्रकार के चन्दनों और फल-पुष्प-पत्रों से सौन्दर्य प्रसाधन की सामग्रियाँ बनाई जाती थीं और वन्य पशुओं के चर्म और ऊन से परिधान बनते थे। इस प्रकार राष्ट्र की औद्योगिक प्रगति के लिए भी वनों का महत्त्व रहा है।

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Dr vishwanath verma

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