संस्कृति वह प्रक्रिया है, जिससे किसी देश के सर्वसाधारण का व्यक्तित्व निष्पन्न होता है। इस निष्पन्न व्यक्तित्व के द्वारा लोगों को जीवन जगत् के प्रति एक अभिनव दृष्टिकोण मिलता है। कवि इस अभिनव दृष्टिकोण के साथ अपनी नैसर्गिक प्रतिभा का सामंजस्य करके सांस्कृतिक मान्यताओं का मूल्यांकन करते हुए उनकी उपादेयता और हेयता प्रतिपादित करता है। वह प्रकृति के सत्पक्ष का समर्थन करते हुए उसे सर्वजन ग्राह्य बनाता है। संस्कृति का अर्थ- भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा गुण यह रहा है कि उसमें अपने आपको कायम रखने की अद्भुत शक्ति अनादि काल से विद्यमान रही है। संसार के अनेक प्राचीन देशों का नाम लिया जा सकता है, जैसे मिस्र, यूनान, चीन, इटली आदि; किन्तु इन देशों का आमूल परिवर्तन हो चुका है। मिस्र की पिरामिड युगीन संस्कृति का वर्तमान मिस्र में नामोंनिशान भी नहीं है। इसी प्रकार अन्य देशों की स्थिति भी है। किन्तु भारत की स्थिति इनसे सर्वथा भिन्न है। भारतीय धर्म और समाज की परम्परागत चली आने वाली विशिष्ट बातें हजारों वर्षों से अपने उसी रूप में विद्यमान हैं जिस प्रकार हजारों वर्ष पहले कुम्भ स्नान हुआ करता था, वह आज भी उसी रूप में चल रहा है। चारों धाम की तीर्थयात्रा के महत्व में भी कोई कमी नहीं आयी है। यहाँ तक कि अनेक सामाजिक क्रिया कलाप भी ज्यों के त्यों चले आ रहे हैं। हिन्दी में प्रयुक्त होने वाला संस्कृति शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है। ‘संस्कृति ’ शब्द़ सम़् + कृति है। इस शब्द का मूल ‘कृ’ धातु में है। वैयाकरण ‘संस्कृति’ शब्द का उद्गम सम् + कृ से भूषण अर्थ में ‘सुट्’ आगम पूर्वक ‘क्तिन्’ प्रत्यय से सिद्ध करते हैं। इस दृष्टिकोण से ‘संस्कृति’ का शाब्दिक अर्थ समप्रकार अथवा भलीप्रकार किया जाने वाला व्यवहार अथवा क्रिया है। जो परिष्कृत अथवा परिमार्जित करने के भाव का सूचक है। संस्कृति शब्द को संस्कार से भी जोड़ा जाता है। इस सन्दर्भ में इसे परिष्कार माना जाता है। अंगे्रजी भाषा में संस्कृति के लिए culture (कल्चर) शब्द का प्रयोग किया जाता है। जो लैटिन भाषा के cultura और colore से निकला है। इन दोनों शब्दों का अर्थ क्रमशः उत्पादन और परिष्कार है। आक्सफोर्ड डिक्शनरी में संस्कृति का अर्थ बताते हुए कहा गया है- The training and refinement of mind, tastes and manners; the condition of being thus trained and refined; the intellectual side of civilization; the acquainting ourselves with the best. डा0राधाकृष्णन् के अनुसार, ‘‘संस्कृति…विवके ज्ञान का, जीवन को भली प्रकार जान लेने का नाम है। डा0हजारी प्रसाद द्विवेदी मानव की युग-युग की साधना को ही संस्कृति मानते हैं।‘ मनुष्य की श्रेष्ठ साधनायें ही संस्कृति है। डा0बलदेव प्रसाद मिश्र के अनुसार, ‘‘संस्कृति है मानव जीवन के विचार, आचार का संशु़द्धीकरण अथवा परिमार्जन। वह है मानव जीवन की सजी- सँवरी हुई अन्तः स्थिति। वह है मानव समाज की परिमार्जित मति, रूचि और प्रवृत्ति पुंज का नाम*। संस्कृति में वही संस्कृति स्थायी रह सकती है, जिसमें आदान-प्रदान की क्रिया-प्रक्रिया हो। हम इस मत का प्रतिपादन नहीं कर सकते कि भारतीय संस्कृति ही सर्वश्रेष्ठ रही है,बाकी नगण्य रही हैं; हमारा तो यह मानना है कि कौन सी वह चीज थी जो भारत को विदेशों में सम्मान के साथ ले गयी। इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारत ने दूसरों पर अपने विचारों को लादने के लिए कोई बर्बर संगठन नहीं बनाया और न तलवार के जोर से अपनी बात मनवाने के लिए किसी देश या जाति पर आक्रमण ही किया। भारत के उदार-विचार, उसके सामयिक दृष्टिकोण और चिन्तन की गहरी जिज्ञासा ने ही दूसरे देशों को प्रेमपाश में जकड़ा था। वेद में संस्कृति और लोक- वेद को ‘श्रुति’ कहा जाता है। श्रुति का अर्थ सुनना है। गुरू-परम्परा से ही जो सुना जाता है,उसी को श्रुति कहते हैं। लोक में वाचिक परम्परा का स्थान श्रुति के समकक्ष है। लोक की वाचिक परम्परा का अवदान वेद है। लोक में वाचिक परम्परा का निर्वाह एक कलाकार से दूसरे कलाकार तक, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक, एक ओठ से दूसरे ओठ तक आज भी देखा जा सकता है।इस प्रक्रिया की परम्परा का निर्वाह आज भी वेदपाठियों में देखा जा सकता हैं। लोक संस्कृति की परम्परा की निरन्तरता और उसकी लोक व्यापी ऊर्जा का आभास वेदों से होता हे। वेदों ने तत्कालीन सामाजिक जीवन की बहुत सी बातें, संस्कार व्यवहार, अनुष्ठान, विश्वास और सबसे प्रमुख समाज के ढा़ँचे को स्वीकार किया, जो बाद में वर्णाश्रम में प्रतिष्ठित किया गया। लोक में प्रचलित गुरू-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत गुरूकुल शिक्षा पद्धति को ग्रहण किया। शिक्षा का मुल उद्देश्य उत्तरोत्तर लोक जीवन में सत्यं, शिवं, सुन्दरम् की ओर अग्रसर होना है, इसे वेदों ने ज्यों का त्यों प्रतिपादित किया। इन्द्रिय संयम की शिक्षा का मूलमंत्र जो लोक संस्कृति का हिस्सा था, उसे वैदिक संस्कृति के आचरण में शामिल किया गया। लोक संस्कृति में प्रचलित लोक धर्म दर्शन की धारणाओं का परिष्कार कर वेदों में सायुज्य प्रस्तुत किया गया। विवाह में गाये जाने वाले लोकगीतों का वेदों अनेक जगह उल्लेख आया है। ऋग्वेद में ऐसे गीतों के लिए ‘गाथा’और गाने वाले के लिए ‘गाथिन’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। वेदों में शक्ति पूजा का प्रावधान लोक संस्कृति की ही देन है। संक्षेप में यह कहना उचित होगा कि वेदों ने लोक जीवन कह उन सभी चीजों को ग्रहण करने में कोई आपत्ति नहीं की, कि जो मनुष्य को श्रेष्ठता की ओर ले जाने में सहायक होती थी। लोक और संस्कृति- लोक और संस्कृति दोनों व्यापक संज्ञा है। लोक और संस्कृति को विखंडित करके नहीं देखा जा सकता है। फिर भी दोनों के अर्थ और क्षेत्र को समझ लेने में कोई बुराई नहीं है। लोक का साधारण प्रचलित अर्थ है ‘संसार’। वामन शिवराम आप्टे कृत संस्कृत -हिन्दी कोश में लोक को ‘‘लोक्यतेऽसौ’ कहा गया है जो लोक शब्द में ‘धञ्’ प्रत्यय के योग से बना है। जिसका अर्थ है दुनिया, संसार। अंग्रेजी में इसे फोक (folk) भी कहा जाता है।जिसका अर्थ है जनसमूह, जनसाधारण, लोक अथवा लोग आदि।डा0हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में ‘‘लोक शब्द का अर्थ जनपद अथवा ग्राम नहीं है बल्कि नगरों और गाँवों में फैली हुई वह समूची जनता है जिसके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियाॅ नहीं है; ये लोग अकृतिम और सरल जीवन व्यतीत करते हैं।’ रघुवंश महाकाव्यम् में लोक...
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